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Sunday, March 17, 2013

मानवाधिकार समर्थकों का सच

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-human-rights-advocates-true-10223897.html

जानी-मानी लेखिका मधु किश्वर ने हाल ही में कहा था कि दुनिया में कहीं भी मानवाधिकार समुदाय इतना समझौतापरस्त और दलीय नहीं है जितना भारत में। भारत के मानवाधिकारवादियों का देश के लोगों से कोई सरोकार नहीं है। उन्हें तो अपने अमेरिकी आकाओं की परवाह है, जहां से पैसा मिलता है। वस्तुत: मानवाधिकार आंदोलन का अपहरण हो चुका है। विविध प्रकार के समूहों ने प्रचार व प्रपंच के सहारे मानवाधिकार का अर्थ ही बदल डाला है। यह सामान्य तथ्य है कि नक्सलियों द्वारा किए जाते अपहरण, फिरौती, हत्याओं पर मानवाधिकारी मौन रहते हैं। मानव वे भी हैं जिनका अपहरण, हत्या होती है, किंतु उनकी निरी उपेक्षा क्या बताती है? उलटे मानवाधिकारी जमात जिहादियों और अलगाववादियों की प्रचारात्मक मदद करती हैं। मानवाअधिकार सिद्धांत और व्यवहार में अपराधी-अधिकार में बदल चुका है। जब भी आतंकवादी हमले होते हैं और निर्दोष जानें जाती हैं, मानवाधिकारों के पैरोकार मौन रहते हैं, किंतु जैसे ही सुरक्षाकर्मियों के हाथों किसी आतंकवादी या संदिग्ध की मृत्यु होती है वे आसमान सिर पर उठा लेते हैं। पहले कहा जाता है कि मृतक निर्दोष था, पर जब किसी मृतक का आतंकवादी, अपराधी होना प्रमाणित भी रहता है जैसे बटला हाउस मुठभेड़ या सोहराबुद्दीन मामले में हुआ तब भी पुलिस पर ही लांछन लगाया जाता है। यानी मानवाधिकार का व्यावहारिक अर्थ हो जाता है-अपराधियों को हर हाल में प्रश्रय और पुलिस पर हर हाल में प्रहार। मुंबई आतंकवादी हमले में पकड़े गए अजमल कसाब के खान-पान और स्वास्थ्य की चिंता, अपहरण दर अपहरण कर रहे माओवादियों पर चुप्पी और अब अफजल गुरु के अवशेष और परिवार को सम्मान देने की चिंता भी वही चीज है।
दूसरी ओर आतंकवादियों से लड़ने वाले सिपाहियों, सैनिकों का पक्ष रखने कम ही लोग आते हैं। जब कहीं आतंकवाद प्रबल होता है तो वहां मीडिया, राजनीतिक दल, न्यायाधीश डरे रहते हैं, किंतु जब आतंकवाद पराजित होता है तब उन कार्रवाइयों में शामिल पुलिस अधिकारियों के पीछे वही मीडिया, न्यायपालक और दल हाथ धोकर पड़ जाते हैं। यह सब मानवाधिकार के नाम पर होता है। 16 वर्ष पहले तरनतारन के पूर्व-पुलिस अधीक्षक अजीत सिंह संधू ने आत्महत्या कर ली थी। तरनतारन एक समय आतंकवाद का भयानक गढ़ था। वहां आतंकवादियों से मुठभेड़ में कई बार संधू ने निर्भीक अगुवाई की थी। भिंडरावाले टाइगर फोर्स के कुख्यात आतंकवादियों से छुटकारा दिलाया था। ऐसे अधिकारी को बाद में यह चिट लिखकर आत्महत्या करनी पड़ी कि ऐसी जलालत की जिंदगी से मर जाना अच्छा है! संधू पर मानवाधिकार उल्लंघन के 43 मामले चल रहे थे। 1989 से 1997 तक एक भी अपराध प्रमाणित नहीं हुआ था, किंतु महीनों से उनका हर दिन कोर्ट का चक्कर लगाते बीतता था।
पंजाब या कश्मीर के आतंकवाद ने 1962, 1965 या 1971 के युद्धों से अधिक जानें ली हैं, इसलिए आतंकवाद को सामान्य अपराध समझना और आतंकवादियों व उनके सहयोगियों को नागरिक कानूनों की सुरक्षा देना आत्मघाती भूल है। उनके पैरोकारों की कथनी-करनी से भी स्पष्ट है कि वे भारत-विखंडन की राजनीति में लगे हैं। उनके लिए यही मानवाधिकार है! सैनिकों को जिस राष्ट्रीय झंडे के सम्मान के लिए जान देने के लिए तैयार किया जाता है उसी को अरुंधती राय 'कपड़े का टुकड़ा' कहती हैं 'जो मुदरें को ढकने के काम आता है।' इस प्रकार, मानवाधिकार देश की रक्षा करने वाली सेना का मजाक उड़ाने और इस प्रकार देश को तोड़ने की पैरोकारी का नाम हो जाता है। आतंकवाद से लड़ना अघोषित युद्ध है। उससे हिचकिचाते हुए लड़ने का अर्थ है पराजय को आमंत्रण देना। हमारे मानवाधिकारवादी इसी काम में लगे हैं। यह संयोग नहीं कि सुरक्षा बलों के हाथों हुई ऊंच-नीच पर जो लोग आसमान सिर पर उठा लेते हैं वे कभी जिहादियों या नक्सलवादियों की हिंसा पर मुंह नहीं खोलते। लश्करे-तैयबा, हिज्बुल-मुजाहिदीन, जैशे-मुहम्मद, पीपुल्स-वार, एमसीसी, इंडियन मुजाहिदीन जैसे संगठनों ने घोषित रूप से हजारों निर्दोष, निहत्थे लोगों को मारा है, किंतु उन हत्याओं पर मानवाधिकारवादी न कभी प्रदर्शनी लगाता है, न गोष्ठी करता है, न गुहार लगाता है। इसीलिए सुरक्षा बलों की कथित ज्यादतियों पर आरोपों की झड़ी कभी खत्म नहीं होती। जम्मू-कश्मीर सरकार ने जनवरी 1992 से सितंबर 1996 के बीच सुरक्षा बलों के विरुद्ध ऐसी कुल 2600 शिकायतों की जांच की थी। उसने पाया कि उनमें 2288 मामले निराधार थे।
अवकाश प्राप्त ले. जनरल बीटी पंडित के खिलाफ उस दौरान कुल 184 रिट याचिकाएं दायर की गई थीं। डेढ़ साल बाद उनके रिटायरमेंट तक उनमें से 175 याचिकाओं को हाई कोर्ट ने निराधार पाया था। इनमें से अधिकांश मुकदमे सुरक्षा बलों का मनोबल तोड़ने के लिए ही किए गए थे। आज भी वही हो रहा है। झूठे आरोपों, उनसे उपजे मुकदमों के जंजाल से सुरक्षाकर्मियों की भी तो रक्षा होनी चाहिए! नहीं तो विदेशी धन और भारत-विरोधी भावना से चलने वाले संगठन और मानवाधिकारवादी देश का मनोबल तोड़ कर रख देंगे। मानवाधिकारवादी जिहादियों, नक्सलियों को दूसरे मनुष्यों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण और विशेषाधिकारी बताते हैं। ऐसे मानवाधिकारियों की शब्दावली और प्रस्ताव वही होते हैं जो उन्हें अनुदान देने वाली विदेशी संस्थाओं के हैं। अफजल-कसाब प्रसंगों के बाद हमारे मानवाधिकारवादियों की असलियत स्पष्ट हो जानी चाहिए थी। भारत के विरुद्ध युद्ध छेड़ने वालों का बचाव करना ही उनका मुख्य काम है। इन्होंने मानवाधिकारी मुकदमेबाजी को ऐसी कला में बदल लिया है जो आतंकवादियों को प्रोत्साहित करती है।
[लेखक एस. शंकर, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]

कश्मीर नीति की नाकामी

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-kashmir-policy-failure-10223896.html

श्रीनगर के एक पब्लिक स्कूल में सीआरपीएफ जवानों के शिविर पर किए गए आत्मघाती हमले ने जम्मू-कश्मीर में पिछले डेढ़-दो साल से चली आ रही शांति को तोड़ने के साथ ही यह भी साबित कर दिया कि इस राज्य में आतंकवाद का खतरा अभी भी कायम है। सच तो यह है कि घाटी का माहौल तभी से बिगड़ने लगा था जब संसद पर आतंकी हमले के दोषी अफजल गुरु को फांसी पर लटकाने के बाद जम्मू-कश्मीर में संकीर्ण स्वार्थो वाली राजनीति का दौर आरंभ हो गया और उसकी चपेट में विधानसभा भी आ गई। संकीर्ण स्वार्थो की इस राजनीति में न तो सत्तारूढ़ पार्टी नेशनल कांफ्रेंस पीछे है और न विपक्षी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी यानी पीडीपी। ये दोनों ही दल अफजल की फांसी को लेकर अलग-अलग तरीके से जम्मू-कश्मीर की जनता को भावनात्मक रूप से भड़काकर अपने राजनीतिक स्वार्थो का संधान करना चाहते हैं, जबकि जरूरत वहां की जनता को यह समझाने की है कि अफजल ने भारत की अस्मिता की प्रतीक संसद पर हमलाकर जघन्य अपराध किया और इस अपराध के लिए वह फांसी की सजा का हकदार था। अगर कश्मीर के राजनीतिक दल ही इस हकीकत से मुंह चुराएंगे तो फिर जनता को सही बात कैसे समझ आएगी? राजनीतिक दलों के रवैये का लाभ हुर्रियत कांफ्रेंस समेत कश्मीर के अलगाववादी संगठन उठा रहे हैं। यासीन मलिक ने अपने पाकिस्तान प्रवास के दौरान जिस तरह भारत के खिलाफ आग उगली और यहां तक कि मुंबई हमले के गुनहगार हाफिज सईद के साथ मंच भी साझा किया उससे उनके इरादे साफ हो जाते हैं।
कश्मीर के सबसे बड़े नेता माने जाने वाले शेख अब्दुल्ला के मन में अपनी रियासत को एक स्वतंत्र देश बनाने की ललक थी। इसी ललक के चलते उनके और प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के मधुर रिश्तों में कड़वाहट आई। ये रिश्ते तब और बिगड़े जब शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर को विशेष दर्जा देने की मांग करने के साथ ही उसके भारत में विलय को नकारना शुरू कर दिया। इसके चलते एक दशक से अधिक समय तक उन्हें नजरबंद भी किया गया। शेख अब्दुल्ला के बाद उनके पुत्र फारुक अब्दुल्ला के साथ भी केंद्र के रिश्ते बनते-बिगड़ते रहे। ऐसा लगता है कि उनके बेटे उमर के साथ-साथ अन्य कश्मीरी दलों के नेता अभी भी आजाद कश्मीर के मोह से ग्रस्त हैं और शायद इसीलिए कश्मीर की जनता पर तथाकथित आजादी का फितूर सवार रहता है। यह भी स्पष्ट है कि पाकिस्तान इसे हवा देता रहता है। कश्मीर के प्रति पाकिस्तान के इरादे आजादी के बाद से ही सही नहीं है। कश्मीर के मुस्लिम बहुल होने के कारण पाकिस्तान प्रारंभ से ही इस राच्य को हड़पने की फिराक में है। सीधे युद्धों में बार-बार पराजित होने के कारण पाकिस्तान ने आतंकवाद के रूप में छद्म युद्ध की मदद से कश्मीर को हड़पने की अपनी कोशिशें जारी रखी हैं। दूसरी ओर कश्मीर के संदर्भ में भारत आज भी वहीं खड़ा है जहां वह आजादी के समय था। यह तब है जब कश्मीरियों का दिल जीतने के नाम पर अब तक भारत सरकार अरबों रुपये पानी की तरह बहा चुकी है। कश्मीरियों का मन बदलना तो दूर रहा, घाटी और उसके आसपास के क्षेत्रों से जिस तरह कश्मीरी पंडितों को बेदखल किया गया उससे उनकी पाकिस्तान परस्ती का ही प्रमाण मिलता है।
भारत को यह भी समझना होगा कि समस्या की जड़ में कश्मीर को मिला विशेष राच्य का दर्जा है। यह दर्जा भले ही कश्मीरियों को संतुष्ट करने और उन्हें आजादी की राह पर न जाने देने के नाम पर दिया गया हो, लेकिन हकीकत में यह उन्हें शेष भारत से अलग-थलग करने का कारण बन रहा है। इस विशेष दर्जे के कारण ही अंतरराष्ट्रीय जगत में यह संदेश जाता है कि भारत कश्मीर को अलग नजरिये से देखता है और चूंकि यह विवादित क्षेत्र है इसलिए उसे विशेष राच्य का दर्जा प्रदान किया गया है।
अब अगर भारत जम्मू-कश्मीर के विशेष राच्य के दर्जे को वापस लेने का फैसला करता है तो हो सकता है कि कुछ समय के लिए इसका प्रबल विरोध हो, लेकिन यह तय है कि धीरे-धीरे स्थितियां सुधर जाएंगी। कश्मीर के संदर्भ में नई दिल्ली ने अभी तक जो नीतियां अपनाई हैं वे वहां के लोगों का भारत के पक्ष में मन बदलने में नाकाम सिद्ध हुई हैं। विशेष राच्य के दर्जे का वहां के राजनीतिज्ञों ने ही लाभ उठाया है। वे केंद्र सरकार द्वारा भेजे गए धन का जमकर दुरुपयोग करते हैं और साथ ही जनता के बीच ऐसा संदेश देने की कोशिश करते हैं मानो किसी दूसरे देश ने उनके लिए पैसा भेजा हो। कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को समाप्त करना ही इस राच्य के शेष भारत के साथ सही मायने में एकीकरण के लिए एकमात्र विकल्प है।
चूंकि कश्मीर के कारण ही भारत और पाकिस्तान के रिश्ते सामान्य होने की सूरत नजर नहीं आती इसलिए भारत को पाकिस्तान के प्रति अपना नजरिया बदलने की जरूरत है। कम से कम कूटनीतिक स्तर पर उसके प्रति कभी नरमी और कभी गरमी दिखाने का सिलसिला तो बंद होना ही चाहिए। पाकिस्तान के संदर्भ में व्यक्ति के साथ व्यक्ति के स्तर पर संबंध बढ़ाने की नीति तो ठीक है, लेकिन अन्य स्तरों पर रिश्ते मजबूत करने की पहल पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है। जब भी देश में कोई आतंकी घटना घटती है और उसके तार पाकिस्तान से जुड़े होने के संकेत सामने आते हैं या फिर आतंकियों की घुसपैठ की कोशिशें होती हैं तो दोनों देशों के रिश्तों में फिर कड़वाहट आ जाती है और कुछ समय बाद नए सिरे से संबंध सुधारने की कोशिश की जाती रहती हैं। उतार-चढ़ाव भरे ये रिश्ते द्विपक्षीय संबंधों को किसी नए मुकाम पर नहीं ले जाने वाले। इसका ताजा प्रमाण पाकिस्तान द्वारा भारत के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पारित करना है। भारत ने भी जवाब में ऐसा ही किया, लेकिन क्या इससे पाकिस्तान को कोई सबक मिला होगा? यहां यह भी ध्यान रहे कि मुंबई हमले के बाद पाकिस्तान के साथ सख्ती से पेश आने का जो फैसला किया गया था उस पर टिके नहीं रहा गया। इसका कारण चाहे अंतरराष्ट्रीय दबाव हो या फिर भारत की अपनी कमजोरी, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं कि पाकिस्तान ने मुंबई हमले के गुनहगारों को दंडित करने के लिए अपने स्तर पर कुछ भी नहीं किया। नियंत्रण रेखा पर भारतीय सैनिकों के साथ बर्बरता और फिर हैदराबाद की घटना के बाद भारत ने पाकिस्तान के प्रति फिर से सख्ती के संकेत दिए, लेकिन पाक प्रधानमंत्री की जयपुर यात्रा के दौरान विदेश मंत्री उन्हें दावत देने पहुंच गए। अब श्रीनगर में आतंकी हमले और पाक संसद के निंदा प्रस्ताव के बाद भारत ने फिर कठोर रवैया अपनाया है। इस सिलसिले से भारत की जनता अब आजिज आ गई है। बेहतर यह होगा कि सभी राजनीतिक दलों की एक बैठक बुलाकर कश्मीर और पाकिस्तान के संदर्भ में भारत की नीति नए सिरे से निर्धारित की जाए। यह नीति देश की होनी चाहिए, किसी राजनीतिक दल या सरकार की नहीं और उस पर लंबे समय के लिए अमल भी होना चाहिए।
[लेखक संजय गुप्त, दैनिक जागरण के संपादक हैं]

शहीदों के श्रद्धांजलि सभा से सीएम साहब गायब

http://www.jagran.com/news/national-omar-abdullah-absent-tribute-to-killed-crpf-10215425.html
संसद से लेकर सड़क तक लोगों में श्रीनगर आतंकी हमले को लेकर काफी रोष है। एक तरफ संसद में विपक्ष इस मामले पर सरकार को घेर रहा था तो दूसरी तरफ जम्मू-कश्मीर में इस मामले में सीएम की संवेदनहीनता सामने आयी है।

हैदराबाद धमाके का आरोपी मंजर इमाम गिरफ्तार

http://www.jagran.com/news/national-hyderabad-bombings-terror-suspect-manzar-imam-detained-in-ranchi-10186339.html
बीते माह हैदराबाद और पूर्व के गुजरात में हुए धमाकों के आरोपी मंजर इमाम उर्फ जमील उर्फ अबू हनीफा को राष्ट्रीय जांच एजेंसी [एनआइए] ने सोमवार की सुबह रांची के कांके से गिरफ्तार कर लिया।

Sunday, February 24, 2013

सेक्युलर तंत्र पर सवाल

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-questions-on-secular-system-10133330.html

भारतीय संसद पर 13 दिसंबर, 2001 को हुए आतंकी हमले की साजिश में शामिल अफजल गुरु को फांसी दिए जाने के बाद कश्मीर घाटी में हिंसा और विरोध प्रदर्शन क्या रेखांकित करता है? क्या भारत की अस्मिता और लोकतंत्र के प्रतीक पर आक्रमण करने का षड्यंत्र रचने वाले आतंकी के मानवाधिकार की चिंता होनी चाहिए? क्या निरपराधों की जान लेने वाले आतंकी की सजा माफ होने योग्य थी? कश्मीर घाटी में चार दिनों का शोक मनाने का निर्णय इस बात की पुष्टि करता है कि इस देश में ऐसे जिहादी तत्व भी हैं जिनका शरीर भारत में भले हो, किंतु उनका मन और आत्मा पाकिस्तान की जिहादी संस्कृति के साथ है। ऐसे ही लोगों के सहयोग से पाकिस्तान भारत को रक्तरंजित करने के अपने एजेंडे में कामयाब हो रहा है।
संसद पर हमले की साजिश पाकिस्तान पोषित लश्करे-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद द्वारा रची गई थी। जांच में जम्मू-कश्मीर के बारामूला में रहने वाले मेडिकल छात्र अफजल का नाम स्थानीय साजिशकर्ता के रूप में सामने आया। 2002 में विशेष अदालत ने अफजल को फांसी की सजा सुनाई थी, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपनी मुहर लगा दी थी। उसके बाद से ही मानवाधिकारवादी संगठन और सेक्युलर दल अफजल की सजा माफ करने की मांग कर रहे थे। अफजल की पत्‍‌नी ने भी राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका भेजकर उसे माफ करने की गुहार लगाई थी। मुंबई में हुए आतंकी हमले में जिंदा पकड़े गए अजमल कसाब को फांसी दिए जाने के बाद अब अफजल को फांसी दे दी गई है, किंतु सारा घटनाक्रम कुछ गंभीर सवाल खड़े करता है। अदालत का निर्णय होने के बाद सजा देने में इतना लंबा विलंब क्यों? क्या यह वोट बैंक की राजनीति का अंग है?
जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन मुख्यमंत्री और अभी केंद्र में मंत्री गुलाम नबी आजाद ने पत्र लिखकर केंद्र सरकार से अफजल की सजा माफ करने की अपील की थी। क्यों वर्तमान मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को भय है कि अफजल की फांसी से जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद एक बार फिर जिंदा हो जाएगा और राज्य व केंद्र दोनों के लिए संकट खड़ा करेगा? इसका क्या अर्थ निकाला जाए? अभी हाल ही में दिल्ली में जघन्य दुष्कर्म कांड हुआ। कल को इस कांड के आरोपियों के समर्थन में धरना-प्रदर्शन व हिंसा होने लगे तो क्या उनकी सजा लंबित कर दी जाए या उन्हें सजा से मुक्त कर दिया जाए? इस आधार पर तो जिस गुनहगार की जितनी साम‌र्थ्य होगी वह उतनी ही हिंसा और उपद्रव मचाकर सरकार को झुकने को मजबूर कर सकता है। ऐसे अराजक माहौल में कानून का राज और देश की सुरक्षा कैसे संभव है?
दिल्ली उच्च न्यायालय के बाहर 7 दिसंबर, 2011 को हुए बम धमाके की जिम्मेदारी लेते हुए 'हरकत-उल-जिहाद अल-इस्लामी' नामक जिहादी संगठन ने मेल भेजकर यह धमकी दी थी कि अफजल की सजा माफ नहीं की गई तो ऐसे ही कई और बम धमाके होंगे। भारत को रक्तरंजित करने में जुटे पाक पोषित जिहादियों का मनोबल यदि बढ़ा है तो उसके लिए कांग्रेसनीत सत्ता अधिष्ठान की नीतियां जिम्मेदार हैं।
भारत में सेक्युलरवाद इस्लामी चरमपंथ को पोषित करने का पर्याय है। इस अवसरवादी कुत्सित मानसिकता के कारण ही असम में स्थानीय बोडो नागरिकों की पहचान व मान-सम्मान अवैध बांग्लादेशियों के हाथों रौंदा जा रहा है तो मुंबई में बांग्लादेशी और रोहयांग मुसलमानों के समर्थन में रैली निकाली जाती है। पाकिस्तानी झंडा लहराया जाता है और शहीद जवानों की स्मृति में बनाए गए अमर जवान च्योति को तोड़ा जाता है। सेक्युलर सत्तातंत्र द्वारा मिलने वाले मानव‌र्द्धन का ही परिणाम है कि आतंकवादी मेल भेजकर पूरे देश को लहूलुहान करने की धमकी देते हैं। हैदराबाद में एक विधायक भड़काऊ भाषण देता है और उपस्थित हजारों की भीड़ मजहबी जुनून में राष्ट्रविरोधी नारे लगाती है, किंतु ऐसी घटनाओं पर सेक्युलर तंत्र खामोश रहता है। बहुसंख्यकों को पंथनिरपेक्षता, बहुलतावाद और प्रजातंत्र का पाठ पढ़ाने वाले स्वयंभू मानवाधिकारी चुप्पी साधे रहते हैं। क्यों?
स्वयंभू मानवाधिकारियों का आरोप है कि अफजल को न्याय नहीं मिला, उसके साथ जांच एजेंसियों ने नाइंसाफी की। वामपंथी विचारधारा से प्रेरित लेखिका अरुंधती राय ने पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिख-लिख कर भारतीय कानून एवं व्यवस्था और जांच एजेंसियों को कठघरे में खड़ा किया। जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री रह चुकीं महबूबा मुफ्ती एक कदम आगे हैं। पाकिस्तान की जेल में एक भारतीय नागरिक सरबजीत गलत पहचान के कारण बंद है। भारत सरकार ने उसे रिहा करने की अपील की है। महबूबा ने अफजल की तुलना सरबजीत से करते हुए केंद्र सरकार को दोहरे मापदंड नहीं अपनाने की नसीहत दे डाली थी। इन दिनों आतंकी मामलों में जेल में बंद युवा मुसलमानों को रिहा करने को लेकर सेक्युलर दलों में बड़ी बेचैनी है। हाल ही में सेक्युलर दलों के कुनबे ने प्रधानमंत्री से मिलकर इस मामले में दखल देने की अपील की थी। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने विधानसभा चुनाव के दौरान ऐसे बंदियों को रिहा करने का वादा भी किया था। सत्ता मिलने पर सपा ने आरोपियों को रिहा करने की कवायद भी शुरू कर दी थी, किंतु अदालत ने राच्य सरकार को कड़ी फटकार लगाई।
भारत पर मुसलमानों के साथ भेदभाव व उनके शोषण का आरोप समझ से परे है। पुख्ता सुबूतों और जीती-जागती तस्वीरों में कैद अजमल कसाब को मुंबई में निरपराधों की लाशें बिछाते पकड़ा गया, किंतु उसे भी पूरी निष्पक्ष न्यायिक प्रक्त्रिया के बाद ही फांसी की सजा दी गई। इस देश में अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों की कीमत पर बराबरी से अधिक अधिकार और संसाधन उपलब्ध कराए जा रहे हैं। उनके लिए अलग से आरक्षण की बात हो रही है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला अधिकार बताते हैं। ऐसे में भेदभाव बरते जाने का आरोप निराधार है। इस देश के मुसलमान पिछड़े हैं तो इसके लिए सेक्युलर दल ही जिम्मेदार हैं, जो वोट बैंक की राजनीति के कारण उनकी मध्यकालीन मानसिकता को संरक्षण प्रदान करते हैं। अफजल को फांसी देने में हुई देरी इस कुत्सित राजनीति को ही रेखांकित करती है।
[लेखक बलबीर पुंज, राच्यसभा सदस्य हैं]

अफजल को फांसी से एएमयू में उबाल, भारत विरोधी नारे लगे

http://navbharattimes.indiatimes.com/india/north/protest-in-amu-on-afzals-hanging/articleshow/18461929.cms
अलीगढ़।। आतंकवादी अफजल गुरु को फांसी दिए जाने के बाद अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) का माहौल गर्म हो गया है और विरोध-प्रदर्शन का सिलसिला चल पड़ा है। नमाज-ए-जनाजा के दो दिन बाद सोमवार को कश्मीरी छात्रों ने अफजल को शहीद का दर्जा देते हुए कैंपस में मार्च निकाला और जमकर नारेबाजी की।

उप्र में आतंकवाद की आड़ में बंद मुस्लिमों की रिहाई जल्द

http://www.jagran.com/news/national-early-release-under-the-guise-of-terrorism-off-the-muslims-cm-10082781.html
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा है कि उनकी पार्टी ने चुनाव घोषणा पत्र में स्पष्ट तौर यह वादा किया था कि दहशतगर्दी के खिलाफ कार्रवाई की आड़ में प्रदेश के जिन बेकसूर मुस्लिमों नौजवानों को जेलों में डाला गया है उन्हें रिहा कराया जाएगा। साथ ही उनके पुनर्वास के लिए मुआवजे के साथ इंसाफ भी दिया जाएगा। चुनाव घोषणा पत्र के सभी वादों को पूरा करने के लिए सरकार कृत संकल्पित हैं। इस संबंध में कार्यवाही भी प्रारंभ कर दी गई है।

Monday, January 7, 2013

जर्मनी में भारतीय स्टूडेंट की जीभ काटी

http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/17785401.cms
बर्लिन।। जर्मनी में इस्लामी कट्टरपंथियों ने धर्म बदलने से इनकार करने पर एक भारतीय छात्र पर बड़ी बेरहमी से हमला किया। कट्टरपंथियों ने 24 वर्षीय भारतीय युवक की जुबान काट दी। बॉन शहर में क्रिसमस की पूर्व संध्या पर भारतीय युवक पर उस वक्त हमला किया गया जब वह अपने घर की ओर लौट रहा था।

पाकिस्तान में हिंदू चिकित्सक की गोली मारकर हत्या

http://aajtak.intoday.in/story/hindu-doctor-shot-dead-in-pakistan--1-715836.html
पाकिस्तान के दक्षिण पश्चिम अशांत प्रांत बलूचिस्तान में दो अलग अलग घटनाओं में एक प्रख्यात चिकित्सक और एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी की गुरुवार को गोली मारकर हत्या कर दी गई.

जिहाद के कारखाने

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-opinion-9909645.html

चार साल पूर्व 26 नवंबर को मुंबई की सड़कों पर निरपराधों की लाशें बिछाने वाले आतंकियों में से एकमात्र जिंदा पकड़े गए अजमल कसाब को अंतत: फासी दे दी गई। कई विश्लेषकों ने इसे आतंक के एक अध्याय की समाप्ति की संज्ञा दी है। क्या यह उम्मीद सार्थक है? वास्तविकता तो यह है कि जिहाद की बुनियादी सच्चाइयों की अनदेखी कर आतंकवाद के खत्म होने की आशा करना बेमानी होने के साथ सभ्य समाज के प्रति बेईमानी भी है। कसाब को फासी दिए जाने के 24 घटों के अंदर ही कई इस्लामी आतंकी संगठनों ने भारतीयों को निशाना बनाकर बदला लेने की धमकी दी। ऐसा नहीं है कि इस्लामी कट्टरपंथियों के लिए केवल भारत और हिंदू ही दुश्मन हैं। अभी पाकिस्तान में मुहर्रम के जुलुस में शामिल शियाओं पर बहुसंख्यक सुन्नियों ने हमला कर दिया, जिसमें दर्जनों लोगों की जानें गई। ईरान में शिया बहुसंख्यक हैं। वहा सुन्नी शियाओं के निशाने पर रहते हैं। इराक में करीब हर रोज अल्पसंख्यक सुन्नियों पर बहुसंख्यक शियाओं के बम फटते हैं। इस्लाम को ही मानने वाले दो संप्रदायों के बीच यह टकराव क्यों? और उस हिंसा की प्रेरणा क्या है?
इस संदर्भ में पिछले दिनों एक अंग्रेजी दैनिक में प्रकाशित लेख में कहा गया है कि पाकिस्तान जैसे मुस्लिम बहुल राष्ट्र का बुनियादी पहलू यह है कि वहा न केवल अल्पसंख्यक समुदाय, बल्कि स्वयं इस्लाम में जो बहुसंख्यक नहीं हैं, वे भी इस्लामी व्यवस्था के स्थायी शिकार हैं। अल्पसंख्यकों की आबादी को नगण्य करने के बाद मुसलमान अब अपने ही मजहब के अल्पसंख्यक संप्रदाय से हिसाब चुकता कर रहे हैं। उन्होंने लिखा है, सन 2000 के बाद से अब तक उपमहाद्वीप में मजहबी हिंसा में हिंदुओं की अपेक्षा अपने ही मुस्लिम भाइयों के हाथों मरने वाले मुसलमानों की संख्या दस गुनी अधिक है। इसके साथ ही लेखक ने एक ऐतिहासिक सच को भी उठाया है। उन्होंने लिखा है, हिंदू बहुसंख्या के अधीन हिंदू खुशहाल हैं, किंतु सच्चाई यह है कि हिंदू बहुसंख्या के अधीन मुसलमान भी उतने ही खुशहाल हैं, क्योंकि इसके कारण इस्लाम के अंतर्गत होने वाले फसादों से संरक्षा मिल जाती है। देश विभाजन के बाद भारत में मुसलमानों की आबादी बढ़कर जहा 15 प्रतिशत हुई है वहीं पाकिस्तान में हिंदुओं की आबादी 20 प्रतिशत से घटकर आज एक प्रतिशत से कम रह गई है। सुन्नी बहुल कश्मीर घाटी को छोड़ दें तो शेष भारत में अल्पसंख्यक शिया बहुसंख्यक सुन्नियों के हमले से सुरक्षित हैं। अहमदिया, बोहरा आदि मुसलमानों के अन्य समुदाय भी हिंदू बहुल भारत में बराबरी के अधिकार से फल-फूल रहे हैं।
लेखक ने पाकिस्तान के संदर्भ में एक हास्यास्पद, किंतु इस्लामी जगत के लिए मनन करने योग्य घटना का उल्लेख किया है। पाकिस्तान के पंजाब सूबे के वित्तमंत्री राणा आसिफ महमूद ईसाई हैं। उनके पिता राणा ताज महमूद भी ईसाई थे। कुछ महीने पहले किसी ने गलती से राष्ट्रीय पंजीकरण में आसिफ महमूद का धर्म इस्लाम दर्ज कर दिया। अब महमूद इसे बदल नहीं सकते, क्योंकि इस्लाम त्यागने पर वहा मौत की सजा तय है। किसी की गलती से भी मुसलमान बन गए तो आजीवन मुसलमान रहेंगे, यह कोई फतवा नहीं है, बल्कि पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी का आदेश है। यह स्थापित सत्य है कि जहा कहीं भी मुसलमान अल्पसंख्या में होते हैं वे सेक्युलर व्यवस्था पर गहरी आस्था प्रकट करते हैं, किंतु जहा कहीं भी वे बहुसंख्या में हैं, सेक्युलरवाद एक गाली है। पाकिस्तान ही क्यों, अमरनाथ यात्रा और कश्मीरी पंडितों को लेकर कश्मीर घाटी के घटनाक्रम इस कटु सत्य को ही रेखाकित करते हैं। पाकिस्तानी आवाम में भारत विरोधी भावना अविभाजित भारत के मुसलमानों की मानसिकता की ही तार्किक परिणति है। तब मुसलमानों को यह आशका थी कि ब्रितानियों के जाने के बाद उन्हें काफिर हिंदुओं के साथ बराबरी के स्तर पर रहना होगा। जिन लोगों को रोज यही सब सिखाया जाता हो कि इस्लाम ही एकमात्र सच्चा व अंतिम पंथ है, उन्हें बहुलतावादी सनातनी संस्कृति वाले भारत के प्रति जिहाद के लिए उकसाना कठिन नहीं है। उन्हें जानबूझकर इतिहास के उस पक्ष से परिचित नहीं कराया जाता, जब ब्रिटिश उपनिवेश से पहले भारत की अधिकाश रियासतों में अल्पसंख्यक मत व पंथों को बराबरी के अधिकार से पल्लवित-पुष्पित होने का अवसर प्राप्त था।
सवाल है कि क्या पाकिस्तानी सेना कट्टरपंथियों से साठगाठ कर वहा के आवाम को भारत व हिंदू विरोध के लिए भड़काती है? वास्तविकता तो यह है कि पाकिस्तानी जेहन में मौजूद हिंदू विरोधी मानसिकता का वहा की सेना दोहन करने के साथ उसे प्रोत्साहित भी करती है। अभी कुछ समय पूर्व पाकिस्तानी पंजाब सूबे के गवर्नर सलमान तसीर की उनके ही अंगरक्षक ने हत्या कर दी थी। उस हत्यारे को वहा की आवाम ने हीरो बताया, उसके ऊपर फूल बरसाए गए, जबकि हत्यारे को सजा सुनाने वाले न्यायाधीश को पिछले दरवाजे से भागकर अपनी जान बचानी पड़ी। सलमान तसीर का कसूर इतना था कि उन्होंने ईशनिंदा कानून में बंद एक ईसाई महिला से मिलने की गलती और ईशनिंदा कानून में बदलाव लाने की वकालत की थी। ऐसी मानसिकता के रहते जिहादी फैक्ट्रियों के बंद होने की उम्मीद व्यर्थ है।
2010 में पाकिस्तानी फिल्म निर्मात्री शरमीन ओबैद को उनकी फिल्म दि चिल्ड्रेन ऑफ तालिबान के लिए एमी अवॉर्ड मिला था। इसमें बताया गया था कि किस तरह जिहादी संगठन फिदायीन तैयार करते हैं। जैशे-मोहम्मद, लश्कर, हरकत उल अंसार, जिसे अब हरकत उल मुजाहिदीन कहा जाता है, जैसे जिहादी संगठनों के लिए कट्टरपंथी तत्व गरीब व अशिक्षित परिवारों के बच्चे तलाशते हैं। उन्हें खाने और शिक्षा दिलाने के नाम पर मीलों दूर प्रशिक्षण शिविरों में भेजा जाता है। यहा एकात में उन्हें इस्लाम और केवल इस्लाम की दीक्षा दी जाती है। बाहरी दुनिया से उनका कोई संपर्क नहीं होता। इसके बाद इन बच्चों के साथ घोर अमानवीय व्यवहार किया जाता है ताकि उनके मन में अपने अस्तित्व को लेकर ही घृणा का भाव पैदा हो जाए। फिर उन्हें इस्लाम के लिए मर मिटने पर जन्नत और हूरें मिलने का पाठ पढ़ाया जाता है। जिस बच्चे के साथ इतना घोर अमानवीय व्यवहार हो रहा हो उसके लिए मौत ज्यादा मुनासिब लगती है। इसके बाद इन बच्चों को पश्चिमी देशों और भारत में मुसलमानों के कथित उत्पीड़न की फर्जी सीडी आदि दिखाई जाती है। इसका बदला लेने को मजहबी दायित्व बता उन्हें मरने-मारने के लिए सहज तैयार कर लिया जाता है। इसलिए एक कसाब के मरने से आतंकवाद का रक्तरंजित अध्याय बंद हो जाएगा, ऐसी आशा करना व्यर्थ है।
[बलबीर पुंज: लेखक राज्यसभा सदस्य हैं]

सईद ने कसाब के लिए पढ़ी नमाज-ए-जनाजा

http://www.livehindustan.com/news/videsh/international/article1-story-2-2-284004.html
मुंबई पर आतंकवादी हमले में गिरफ्तार एकमात्र आतंकवादी अजमल कसाब के नमाज-ए-जनाजा में लश्कर-ए-तैय्यबा के संस्थापक हाफिज मोहम्मद सईद के नेतृत्व में हजारों लोगों ने हिस्सा लिया। गौरतलब है कि कसाब को इस हफ्ते की शुरुआत में फांसी दी गई थी।

अब तारिक व खालिद से भी मुकदमें होंगे वापस!

http://www.jagran.com/uttar-pradesh/varanasi-city-9830317.html
वाराणसी : लखनऊ व फैजाबाद कचहरी में 23 नवंबर 2007 को हुए सीरियल बम ब्लास्ट के दो आरोपियों पर से भी मुकदमें वापस लेने की तैयारी है। इनपर गोरखपुर में हुए ब्लास्ट का भी आरोप है। इन तीनों ब्लास्ट के दोनों आरोपी बाराबंकी से गिरफ्तार किए गए थे। प्रदेश के गृह विभाग की मानें तो आतंकवाद के नाम पर आरोपी बनाए गए तारिक कासमी व खालिद मुजाहिद निर्दोष हैं और अब उनपर दर्ज अभियोगों की वापसी होनी है। प्रदेश गृह विभाग के विशेष सचिव राजेंद्र प्रसाद ने संबंधित जिलाधिकारियों से मुकदमों व आरोपियों के विवरण उपलब्ध कराने को पत्र लिखा है।

बनारस धमाका: वलीउल्लाह, शमीम से वापस होंगे मुकदमे!

http://www.jagran.com/news/national-varanasi-blast-9827588.html
संकटमोचन व कैंट स्टेशन पर 7 मार्च 2006 को हुए सीरियल बम ब्लास्ट के आरोपी वलीउल्लाह व शमीम पर से प्रदेश सरकार ने गुपचुप मुकदमा वापसी की तैयारी शुरू कर दी है। सरकार के विशेष सचिव राजेंद्र कुमार की ओर से इस बाबत पत्र जिला प्रशासन को भेजा गया है।

Friday, September 14, 2012

एनसीआर के धार्मिक स्थल आतंकी निशाने पर!

http://www.amarujala.com/National/ncr-religious-sites-on-militant-target-31714.html
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) के प्रमुख धार्मिक स्थल आतंकी निशाने पर हैं। पिछले दिनों दिल्ली में संदिग्ध लोगों के कब्जे से मिले 25 नक्शे इस आशंका को बल दे रहे हैं। यही वजह है कि एंटी टेररिस्ट स्क्वैड (एटीएस) लगातार प्रमुख धार्मिक स्थलों की सुरक्षा की समीक्षा कर रहा है। 

Tuesday, September 11, 2012

कर्नाटक में इंडियन मुजाहिद्दीन के चार संदिग्ध आतंकी गिरफ्तार

http://www.livehindustan.com/news/desh/national/article1-story-39-39-257290.html
चिन्नास्वामी स्टेडियम में वर्ष 2010 में हुए विस्फोट के मामले में गुरुवार को आतंकी संगठन इंडियन मुजाहिद्दीन के चार संदिग्ध सदस्यों को कर्नाटक के हुबली से गिरफ्तार किया गया है।

Tuesday, September 4, 2012

पकड़े गए आतंकियों के निशाने पर था परमाणु संयत्र

http://www.amarujala.com/National/nuclear-plant-was-on-target-of-caught-terrorist-31316.html
कर्नाटक में गिरफ्तार किए गए आतंकियों ने बताया है कि उनका मकसद नेताओं और कुछ पत्रकारों के अलावा कैगा परमाणु संयंत्र पर हमला करना था। वे देश के महत्वपूर्ण नौसैनिक ठिकानों को भी अपना शिकार बनाने का षड़यंत्र रच रहे थे। पुलिस पूछताछ में आतंकियों ने ये अहम खुलासे किए हैं। स्थानीय अदालत ने इन आतंकियों को फिलहाल 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया है।

सऊदी अरब से हो रहा था आतंकी माड्यूल का संचालन

http://www.jagran.com/news/national-karnataka-terror-module-handlers-based-in-saudi-arabia-9632550.html
बेंगलूर। हाल में बेंगलूर पुलिस ने जिस आतंकी मॉड्यूल का पर्दाफाश किया, उसे सऊदी अरब से संचालित किया जा रहा था। सूत्रों के मुताबिक, सऊदी में बैठे इन आतंकी आकाओं में ज्यादातर भारतीय थे। यह तीसरा मामला है, जिसमें भारत विरोधी गतिविधियों का संचालन खाड़ी देशों से किया गया। प्रत्यर्पित लश्कर आतंकी अबू जुंदाल और इंडियन मुजाहिदीन से जुड़ा फसीह मुहम्मद भी सऊदी अरब से ही अपने मॉड्यूल संचालित कर रहा था।

कर्नाटकः टेरर प्लॉट में अब तक 13 अरेस्ट

http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/16218425.cms
बेंगलुरू।। कर्नाटक में आतंकवादी मॉड्यूल का भंडाफोड़ करने की मुहिम के बीच पुलिस ने शनिवार रात एक और संदिग्ध युवक को अरेस्ट किया है। तकरीबन 22 साल के इस युवक का नाम मोहम्मद अकरम है। आरोप है कि उसके तार लश्कर-ए-तैयबा और हूजी जैसे आतंकी संगठनों से जुड़े हैं। इसी के साथ कर्नाटक और आंध्र में अब तक गिरफ्तार संदिग्ध लोगों की तादाद 13 हो चुकी है।

Wednesday, August 22, 2012

पुणे विस्फोटों के पीछे आईएम का संस्थापक सदस्य साजिद: सूत्र

पुणे में हाल में हुए सिलसिलेवार धमाकों की जांच कर रही सुरक्षा एजेंसियों ने दावा किया है कि प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन इंडियन मुजाहिदीन का संस्थापक मोहम्मद साजिद हमले के पीछे मुख्य संदिग्ध है।
http://www.livehindustan.com/news/desh/national/article1-story-39-39-253756.html

पलायन मामले में जांच के दायरे में केरल का संगठन

असम में हुई हिंसा के बाद भड़काउ एसएमएस और एमएमएस भेजने में संदिग्ध भूमिका के लिए केरल का एक संगठन पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया खुफिया एजेंसियों की जांच के दायरे में है। 
http://www.livehindustan.com/news/desh/national/article1-story-39-39-254034.html