Wednesday, April 23, 2008

नेपाल में भारत की हार

नेपालियों की मनोदशा भांपने में मिली विफलता को भारत की भूल बता रहे हैं कुलदीप नैयर

नेपाल के चुनाव परिणाम से भारत को हैरानी नहीं होनी चाहिए। भारत पहले राजशाही के साथ डटा रहा और फिर एक नाकारा राजनीतिक दल के साथ। यह नई दिल्ली की असफलता है कि वह नेपाली जनता की मनोदशा का अनुमान लगाने में विफल रही। यह चिंता की बात होनी चाहिए, क्योंकि भारत और नेपाल के संबंधों का विस्तार कुछ माह का नहीं अपितु वर्षो का है। नेपाल के लोगों की सोच बदल रही थी, किंतु कल्पनालोक में खोई नई दिल्ली राजशाही और अपनी पुरानी मित्र नेपाली कांग्रेस को बचाने में लगी रही। अब नेपाल नरेश जाने ही वाले हैं। भारत ने अधिकारिक बयान दिया है कि उसका सरोकार काठमांडू की नई सरकार से है। इससे जाहिर है कि वहां जो हुआ, भारत की इच्छा के विपरीत हुआ और अब जब वैसा हो ही गया है तो वह उसे स्वीकार्य है। नई दिल्ली की चाहत चाहे जो हो, लोगों ने चुनाव में नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) को चुन लिया है। उनके चुनाव पर टीका-टिप्पणी करने वाले हम कौन होते हैं! जनादेश माओवादियों के पक्ष में और भारत के विरुद्ध है। नेपाली देख रहे थे कि नई दिल्ली उनके मामलों में बेवजह टांग अड़ा रहा है। माओवादियों ने चुनाव सभाओं में भारत के बड़े भाई तुल्य रवैये का मुद्दा उछाला था। नेपाल के साथ हमारी संधि भी नेपालियों के मनमाफिक नहीं है। हमें उसे बहुत पहले ही निरस्त कर देना चाहिए था। जब उनकी यही इच्छा थी तो हमने ऐसा क्यों नहीं किया? मैं यह भी नहीं समझ पा रहा कि पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति कार्टर ने अमेरिका से नेपाल में हुए परिवर्तन को मान्यता देने का अनुरोध क्यों किया है? अमेरिका विश्व का सर्वाधिक शक्तिशाली लोकतंत्र है। उसे यह एहसास होना चाहिए कि चाहे कितना भी अप्रिय क्यों न हो, स्वतंत्र और निष्पक्ष निर्वाचन का परिणाम ही निर्णायक और अंतिम होता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई देश किसी दूसरे देश की सरकार को पसंद करता है या नहीं। महत्व तो जनता की स्वतंत्र इच्छा का है। कार्टर चुनाव के पर्यवेक्षक रहे हैं इसलिए उन्हें यह बात बेहतर ढंग से पता होनी चाहिए। नेपालियों ने जो किया है उसे समझने और सराहने वाले लोग अब भी बहुत कम हैं। वहां सामंती समाज है, जो लगभग 235 वर्ष तक इस धारणा से ग्रस्त रहा कि महाराजा ही ईश्वर है और उसी के शासन में समृद्धि है। वहां इतनी अधिक असमानताएं हैं कि अतीत के विरुद्ध उठी आवाज को समर्थन नहीं मिलता। उम्मीद जाग रही है कि अब उनकी हालत में सुधार आएगा। माओवादी नेता प्रचंड ने इन्हीं परिस्थितियों का इस्तेमाल किया है। दो वर्ष पूर्व जब राजशाही के खात्मे की की मांग के समर्थन में सारा काठमांडू सड़कों पर उमड़ पड़ा था तो यह शोषित समाज की स्वयं को स्वतंत्र करने की उत्कंठा ही थी। देश को गणराज्य में बदलने के आश्वासन ने जनता में बदलाव की उम्मीद जगा दी। उन्होंने परिवर्तन के पक्ष में मतदान किया है। उन्हें भरोसा है कि लोगों की स्थिति में सुधार होगा। माओवादी इस कारण चुनाव में विजयी नहीं हुए हैं कि मतदाता उनकी विचारधारा से प्रभावित हैं। मतदाताओं को भरोसा है कि माओवादियों ने एक अलग अर्थव्यवस्था लाने का जो वचन दिया है उसे पूरा कर वे उन्हें गरीबी से उबारेंगे। यह सच है कि लोग भयभीत भी थे। माओवादी वर्षो से बंदूक के बल पर गांवों में अपनी हुकूमत चला रहे थे। यह भी कोई छिपी बात नहीं कि माओवादियों ने अपने सारे हथियार नहीं सौंपे, जबकि चुनाव से काफी समय पहले उन्होंने ऐसा करने पर सहमति जताई थी। इसके बावजूद लोगों के सामने कोई विकल्प नहीं था। महाराजा को वे खारिज कर चुके थे। वे फिर से नेपाली कांग्रेस की शरण में जाना नहीं चाहते थे, जिसे उन्होंने बार-बार परखा था और उनके हाथ निराशा ही लगी थी। यह देखना मजेदार था कि चुनावी पोस्टरों में कार्ल मा‌र्क्स, लेनिन और एंगेल्स के चित्रों के साथ स्टालिन को भी स्थान दिया गया। स्टालिन ने उन लाखों लोगों को मौत के घाट उतार दिया था, जिन्होंने उनसे असहमत होने का साहस दिखाया था। स्टालिन की तस्वीर कोलकाता स्थित माकपा के मुख्यालय में भी टंगी हुई है, जबकि वह मुख्यधारा में शामिल है और लोकतांत्रिक प्रणाली में आस्था जताती है। नेपाल में माओवादी भी जब सत्ता संभालेंगे तो ऐसा ही करेंगे। अगर उनसे मोहभंग हुआ तो तब होगा, जब वे अपना वचन नहीं निभा पाएंगे। माकपा के मामले में पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में ऐसा ही हुआ है। कौन जानता है कि नेपाल में माओवादी भी इसी बात को तर्कसंगत मानने लगें कि पूंजीवादी प्रणाली में कल्याणकारी राज्य की स्थापना संभव नहीं है, जैसा कि माकपा कर रही है। भारत में नक्सलवादी, जिन्हें माओवादी भी कहा जाता है, जो कुछ कर रहे हैं, मैं उसका घोर विरोधी हूं। वे खूनखराबे और आपराधिक गतिविधियों में लिप्त हैं। वे लोकतांत्रिक प्रणाली के प्रति अपने विरोध को नहीं छिपाते। वे मुख्यधारा में भी शामिल नहीं होना चाहते। उनकी आस्था जोर जबरदस्ती में है, आम सहमति में नहीं। यही एक ठोस कारण है कि नेपाल और भारत के माओवादी हाथ नहीं मिला पाएंगे। इनमें से एक व्यवस्था के स्थापित मूल्यों के प्रति आस्थावान है जबकि दूसरा उसके खिलाफ है। भारतीय माओवादी नेपाली माओवादियों के चरमपंथी गुटों को समर्थन दे सकते हैं ताकि पशुपति से तिरुपति तक लाल गलियारे का विस्तार हो सके। नेपाल का उदाहरण दक्षिण एशियाई क्षेत्र को सीख दे सकता है, अगर वह लेना चाहे तो। निर्धनता दुस्साहसिक प्रतिकार को जन्म देती है। सामंती व्यवस्था लोकतंत्र को नकारती है। नैराश्यभाव और हताशा का बोध लोगों को विद्रोह पर आमादा करता है। वे तब विद्रोह के रास्ते पर चलते हैं, जब यह मान लेते हैं कि दमनकारी व्यवस्था से मुक्ति पाने के लिए हिंसा के अलावा कोई चारा नहीं है। लोकतंत्र जनता को नाकारा और दमनकारी शासन के खिलाफ वोट का शांतिपूर्ण विकल्प प्रदान करता है। नेपालियों ने यही किया है। अब माओवादियों को इस सवाल का जवाब देना है कि क्या उनमें लोगों की हालत सुधारने की योग्यता और संकल्प शक्ति है। जिस चुनाव में माओवादी विजयी हुए हैं वह संविधान सभा के गठन हेतु हुआ है। यदि संविधान में वादे साकार रूप नहीं ले पाए तो लोग ही माओवादियों को उखाड़ फेंकेंगे। जब मैं काठमांडू में कुछ माओवादी नेताओं से मिला था तो उन्होंने कहा था कि यदि वे चुनाव में हार गए तो भी हथियार नहीं उठाएंगे। लोकतंत्र इसी तरह कारगर होता है। लोग अपने कर्णधारों को बदल देते हैं। मैं इस बारे में सुनिश्चित नहीं हूं कि जो माओवादी हिंसा के बल पर उभरे हैं वे यदि सत्ता को हाथ से खिसकता महसूस करेंगे तो अपने वचन को निभाएंगे या नहीं? महात्मा गांधी कहते थे कि यदि साधन दूषित होंगे तो परिणाम भी दूषित ही आएंगे। दुर्भाग्य से भारत गांधीजी की सलाह पर नहीं चल सका, हालांकि उसने आजादी अहिंसात्मक उपायों से ही प्राप्त की। अमेरिका निरंतर अहसास दिला रहा है कि उसने दमनकारी कानूनों से समझौता किया है। दरअसल, आज अमेरिका में इतना बदलाव आ चुका है कि वह पहचान में ही नहीं आ रहा है। नेपाल के माओवादियों को उसका अनुसरण नहीं करना चाहिए। उन्होंने देश-दुनिया को फिर से बंदूक न उठाने का जो वचन दिया है उस पर जिज्ञासु लोगों की नजरें लगी रहेंगी। (लेखक जाने-माने स्तंभकार हैं) दैनिक जागरण, April 23, Wednesday , 2008

Saturday, April 19, 2008

आतंक पर अधूरी पहल

आतंकवाद के खिलाफ मुस्लिम विद्वानों की पहल को अपर्याप्त मान रहे हैं राजनाथ सिंह सूर्य
देवबंद के बाद कुछ अन्य शहरों मे भीं इस्लामिक विद्वान, सामाजिक कार्यकर्तां और विचारक आतंकवाद के मुद्दे पर चर्चा कर रहे हैं और इससे संबंधित कतिपय सवालों के जवाब खोजने की चेष्टा कर रहे हैं। ऐसी ही एक चेष्टा पिछले दिनों बरेली में भी हुई। यहां यह ध्यान रहे कि जेहादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद के संस्थापक मौलाना मसूद अजहर और लश्कर-ए-तोयबा के जन्मदाता सैयद हाफिज सईद देवबंद के दारुल उलूम की शिक्षाओं से ही शिक्षित हुए हैं। इस लिहाज से यह सुखद आश्चर्य का विषय है कि दारुल उलूम परिसर में आतंकवाद के विरुद्ध पहल की शुरुआत हुई। दारुल उलूम देवबंद का स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान रहा है तथा कांग्रेस से उसके संचालकों का जुड़ाव उसके राष्ट्रवादी स्वरूप का संज्ञान कराता रहा है, किंतु शनै:-शनै: उसकी पहचान में बदलाव होता गया। पाकिस्तान ने भारत के साथ प्रत्यक्ष युद्ध में बार-बार शिकस्त खाने के बाद उसी इस्लामी आतंकवाद को हथियार बनाया जिसने अफगानिस्तान में रूढि़वादिता की पराकाष्ठा का आग्रह कर पहले रूस को पस्त किया और अब अमेरिका को नाकों चने चबवा रहा है। अमेरिका और पाकिस्तान ने जिस आतंकवाद को पाल-पोसकर पुष्ट किया वही अब इनका सबसे बड़ा शिकार बन गए हैं। भारत में गृह युद्ध फैलाने की नीयत से पाकिस्तान ने जो दस्ते तैयार किए उनके कृत्यों का ज्यों-ज्यों पर्दाफाश होने लगा त्यों-त्यों मुस्लिम समुदाय को समझ में आने लगा कि उन्हें जिस राह पर ले जाया जा रहा है वह कांटों से भरी है। स्वयं दारुल उलूम संदेह के घेरे में आ गया था तथा मदरसा शिक्षा पर प्रश्नचिह्न लगने लगा था। इसलिए मुसलमानों में यह सोच पैदा होना स्वाभाविक ही है कि आतंकी घटनाओं को अंजाम देने वाले मुट्ठी भर लोगों के कारण संपूर्ण मुस्लिम समुदाय तथा मजहबी और शिक्षा संस्थाओं पर संदेह के जो बादल छा गए हैं उनका छंटना जरूरी है। इसी घोषित उद्देश्य से अखिल भारतीय मदरसा इस्लामिया ने आतंक विरोधी सम्मेलन का आयोजन किया। प्रतिनिधियों को अधिक से अधिक संख्या में बुलाने के साथ-साथ सम्मेलन को अधिकाधिक प्रचारित करने के लिए बड़ी संख्या में पत्रकारों और टीवी चैनलों को भी आमंत्रित किया गया। सम्मेलन में करीब पचास लोगों ने भाषण दिए। इस भाषणबाजी से जो संदेश गया वह सम्मेलन के घोषित उद्देश्य के ठीक विपरीत था। सम्मेलन में कहा गया कि आतंकवाद विरोधी जांच के नाम पर निर्दोष मुस्लिम युवकों को परेशान किया जा रहा है। यह मांग भी उठाई गई कि जांच करने वाले सरकारी अधिकारियों को दंडित किया जाए। इन मांगों से वह प्रस्ताव बेमानी हो जाता है जिसमें कहा गया है कि इस्लाम शांतिप्रिय मजहब है और हिंसा व दहशतगर्दी में उसका विश्वास नहीं है। सम्मेलन में एक बार भी दहशतगर्दो से दूर रहने की अपील नहीं की गई। मैं यहां सम्मेलन में की गई अभिव्यक्तियों और मंसूबों के विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं समझता, लेकिन सम्मेलन के तत्काल बाद आतंकवादी घटनाओं के आरोप में निरुद्ध लोगों की पैरवी करने के लिए मुस्लिम लायर्स फोरम गठित करने के फैसले को नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता। उत्तर प्रदेश के विभिन्न स्थलों पर विस्फोट को अंजाम देने के आरोप में जो लोग पकड़े गए हैं उनकी पैरवी में खड़े न होने का फैसला बार एसोसिएशन ने किया है। मुस्लिम वकील भी इस बार के सदस्य हैं। तो क्या अब विधिवक्ताओं का सांप्रदायिक संगठन खड़ा होगा? यदि इस संदर्भ में मुंबई ट्रेन विस्फोटकों और संसद पर हमला करने वालों की पैरवी करने वाले वकीलों को मिलने वाली भारी-भरकम राशि की बात की जाए तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इतनी बड़ी रकम कहां से आती है? हाल ही में आतंकवादी घटनाओं से जुड़े सिमी संगठन के लोग गिरफ्तार किए गए हैं। मुस्लिम संगठन उनके बारे में मौन क्यों हैं? वैसे दारुल उलूम का सम्मेलन सभी मुस्लिम समुदायों के प्रतिनिधियों का सम्मेलन भी नहीं था। बरेलवी संप्रदाय का एक भी प्रतिनिधि इस सम्मेलन में शामिल नहीं हुआ। दारुल उलूम और जमायत-उल-उलेमा ही सम्मेलन में छाए रहे। सम्मेलन के आयोजन में मुख्य भूमिका राज्यसभा सदस्य मौलाना महमूद मदनी ने निभाई, जो राष्ट्रीय लोकदल से संबद्ध हैं। इस आयोजन के पीछे उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का खुलासा होना अभी बाकी है। कुछ संस्थाओं के एकाध प्रतिनिधि व्यक्तिगत रूप से अवश्य उपस्थित रहे। इनमें अहले-हदीस, जमात-ए-इस्लामी, फिरंगी महल, आल इंडिया दिल्ली काउंसिल और मुस्लिम पर्सनल ला का नाम गिनाया जा सकता है। यह सम्मेलन मुसलमानों को आतंकवादी गतिविधियों से अलग करने में कितना सफल होगा, यह कहना तो कठिन है, लेकिन संसद में बजट पेश होने से ठीक पहले इस सम्मेलन में व्यक्त तीखे भावों से तथाकथित सेकुलर दलों के सामने वोट बैंक खिसकने का खतरा मंडराता जरूर दिखाई पड़ रहा है। आम बजट में सांप्रदायिक आधार पर प्रावधान करने के बावजूद इन दलों को मुस्लिमों के मत अपने पाले में लाने के लिए अब और उपाय करने की जरूरत महसूस हो रही है। ये उपाय क्या होंगे, इसका खुलासा नहीं हो रहा है। आतंकवादी गतिविधियों में संलिप्त लोगों की पैरवी करने के लिए मुस्लिम लायर्स फोरम गठित करने के संकल्प पर सेकुलर खेमा वैसे ही खामोश है जिस प्रकार संसद पर हमले के आरोपी अफजल की फांसी पर कुछ नहीं कहा जा रहा। जो लोग यह सोच रहे हैं कि चुनाव के बाद पाकिस्तान भारत में आतंक फैलाना बंद कर देगा वे गलतफहमी के शिकार हैं। जिन दिनों देवबंद में सम्मेलन और मुस्लिम लायर्स फोरम गठित होने का समाचार प्रकाशित हुआ उन्हीं दिनों यह समाचार भी आया कि वैध तरीके से वीजा लेकर भारत में आने वाले 1335 पाकिस्तानी उत्तर प्रदेश के विभिन्न शहरों में गुम हो गए हैं। जिन शहरों में इनके गुम होने की सूचना दी गई है उनमें जेहादी इस्लामी संगठन अपना जाल बिछा चुके हैं। ऐसे शहरों की संख्या 37 बताई गई है। वैध रूप से भारत आए ये पाकिस्तानी कहां गुम हो गए? किन लोगों ने इनको गुम करने में मदद की है और वे कौन लोग हैं जो अवैध तरीके से नेपाल या बांग्लादेश के रास्ते आकर विस्फोटों को अंजाम दे रहे हैं? वे कौन हैं जो व्यावसायिक और तकनीकी उच्च शिक्षा प्राप्त करने वालों को भी आतंकी बना रहे हैं? इन सब के बारे में विचार करने और संपूर्ण मुस्लिम समुदाय को उनके नापाक इरादों के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास करने के बजाय केवल बयानबाजी करने से वांछित परिणाम नहीं हासिल किया जा सकता। पृथकता की सोच पनपाने वाले लोग भले ही अपने को पंथनिरपेक्ष कहते हों, पर वास्तव में वे मुस्लिम समुदाय की सांप्रदायिक आधार पर अलग पहचान बनाए रखने के निहित स्वार्थ में लगे हुए हैं। मुस्लिम समुदाय को उनके मंसूबों को समझने की जरूरत है। जरूरत है एक देश, एक जन की भावना की। इस भावना से परिपूर्ण विविधता में एकता को भारत की अस्मिता के साथ जोड़ना होगा। जब तक ऐसी जागरूकता नहीं होगी तब तक आतंकवाद के संदर्भ में उठने वाला संदेह समाप्त होने के स्थान पर और अधिक मजबूत होता रहेगा। (लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं) दैनिक जागरण, April 17, Thursday , 2008

बंगलादेशी प्रवासियों से सुरक्षा को खतरा

नई दिल्ली, भाषा : देश में बड़ी संख्या में मौजूद अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों से भारत की आंतरिक सुरक्षा को गंभीर खतरा है। गृह मामलों की एक स्थायी संसदीय समिति की संसद में पेश नवीनतम रिपोर्ट में यह कहा गया है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इसे हल्के तौर पर नहीं लिया जाना चाहिए। सुषमा स्वराज की अध्यक्षता वाली समिति ने अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा है कि भारत-बांग्लादेश सीमा पर जाली नोटों का भी व्यापक वितरण हो रहा है। गृह मंत्रालय की अनुदान मांगों पर समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि समिति पूरी दृढ़ता से सिफारिश करती है कि सीमा पर होने वाली गतिविधियों की कड़ाई से निगरानी की जाए। रिपोर्ट में कहा गया है कि कम चौकसी वाली भारत-बांग्लादेश सीमा और व्यवहारिक दिक्कतों के मुख्य कारण भौगोलिक स्थितियां हैं जिनकी वजह से सीमा पर तार लगाने का काम समय पर पूरा नहीं हो पा रहा है। तारबंदी न होने की वजह से अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों की घुसपैठ जारी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि सूचना दी गई है कि अवैध बांग्लादेशी प्रवासी राशन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, मतदाता पहचान पत्र और तो और पैनकार्ड तक हासिल करने में सफल हुए हैं। समाचार पत्रों में प्रकाशित खबरों तथा खुफिया सूत्रों का हवाला देते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में उग्रवादी संगठन बांग्लादेशियों की भर्ती कर रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार ऐसी भी खबरें हैं कि कुछ बांग्लादेशी उग्रवादी समूह भारत में उग्रवादी गतिविधियों में लिप्त हैं। समिति ने कहा है कि अवैध आब्रजन रोकने के लिए गृह मंत्रालय ने सीमा पर तारबंदी करने, फ्लड लाइट लगाने तथा सड़कें बनाने जैसे कदम उठाए हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा गश्त की जा सके। इसके अलावा सीमा पर निगरानी का काम एक ही बल सीमा सुरक्षा बल को सौंपा गया है। अतिरिक्त बटालियनें बना कर इसे मजबूत किया गया है, चौकियों के बीच की दूरी घटाई गई है और बीएसएफ को अत्याधुनिक उपकरण भी दिए गए हैं। गृह मंत्रालय ने राज्य सरकारों और केंद्रशासित प्रदेशों को समय-समय पर देश में अवैध तरीके से रह रहे विदेशी नागरिकों की पहचान के लिए कार्रवाई करने का आदेश भी दिया है। विदेशी (न्यायाधिकरण) आदेश 1964 के प्रावधानों के तहत असम में अवैध प्रवासियों और विदेशियों की धरपकड़ करनेके लिए 32 विदेशी न्यायाधिकरण हैं। दैनिक जागरण April 19, Saturday , 2008

Friday, April 4, 2008

सोचा-समझा दुष्प्रचार

प्रगतिशीलता की आड़ में भारतीय अस्मिता को चोट पहुंचाने के प्रयासों पर चिंता जता रहे हैं राजनाथ सिंह सूर्य
यह विश्वास करना कठिन है कि ऐसा जानबूझकर किया जा रहा है, लेकिन यह सही है कि नैतिक मूल्य गिराने वाले तथा भारतीय अस्मिता को चोट पहुंचाने वाले कारनामों का सिलसिला बढ़ता जा रहा है। दुर्भाग्य से ऐसे कारनामों के विरोध को भगवा ब्रिगेड का हंगामा कहकर दबाने की कोशिश की जाती है। ऐसा लगता है कि इस देश में अब उन लोगों का ही वर्चस्व बढ़ता जा रहा है जिनके लिए नैतिकता, निष्ठा, आस्था और अस्मिता के बजाय वाचालता, उच्छृंखलता, दुष्टता और पैशाचिकता का अधिक महत्व है। पिछले दिनों जब दिल्ली विश्वविद्यालय के एक पाठ्यक्रम में राम-सीता-हनुमान के संदर्भ में कुत्सित उद्धरणों के संदर्भ में भी यही देखने को मिला। यह पहला मौका नहीं है जब कुत्सित अभिव्यक्ति पर आपत्ति को भगवा ब्रिगेड का हंगामा कहकर उसके तथ्यों को छिपाने का प्रयास किया गया हो। प्राचीन देवी-देवताओं के अश्लील चित्र बनाने को कलाकार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला देकर कुछ लोगों ने सेकुलर भारत के लिए महत्वपूर्ण माना। उन्हीं लोगों ने किसी कार्टूनिस्ट का सिर काटकर लाने पर पचास करोड़ के इनाम की घोषणा करने वाले की निंदा नहीं की। राम-कृष्ण के अस्तित्व को नष्ट करने और रामायण-महाभारत को कपोल-कल्पित गाथा मानने वालों ने अब आगे बढ़कर इनके आदर्श पात्रों के चरित्र चित्रण के लिए वाल्मीकि, कंबन या गोस्वामी तुलसीदास जैसे लेखकों का सहारा लेने के बजाय किन्हीं रामानुजम द्वारा लिखित पुस्तक को अधिकृत माना। यह कहा गया कि विद्यार्थियों में भारत की विविधता पूर्ण विरासत की समझ बढ़ाने और उसके प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए यह आवश्यक है ताकि वे अकादमिक ढंग से तार्किक रूप में बिना किसी संकोच या नकारात्मकता के विश्लेषण कर सकें। समझ बढ़ाने, विविधता को समझने और बिना संकोच विश्लेषण कर सकने लायक समझ बढ़ाने के लिए रामायण के जो तथ्य प्रस्तुत किए गए हैं उन पर नजर डालना उपयुक्त होगा। इस पुस्तक के कुछ तथ्य इस प्रकार हैं। रावण और मंदोदरी के कोई संतान नहीं थी। दोनों ने शिव पूजा की। शिवजी ने उन्हें पुत्र प्राप्ति के लिए आम खाने को दिया। गलती से सारे आम रावण ने खा लिए और उसे गर्भ ठहर गया। रावण के नौ माह गर्भधारण की व्यथा भी इस अध्याय में दी गई है। गर्भ की व्यथा से पीडि़त रावण ने छींक मारी और सीता का जन्म हुआ। सीता रावण की पुत्री थी, जिसे उन्होंने जनकपुरी के खेत में त्याग दिया था। हनुमान एक तुच्छ छोटा सा बंदर था। वह लंका में स्ति्रयों का आमोद-प्रमोद देखने के लिए वह खिड़कियों से ताक-झांक करता था। रावण का वध राम ने नहीं, लक्ष्मण ने किया। दिल्ली विश्वविद्यालय के बीए आनर्स द्वितीय वर्ष के लिए कल्चर इन एंसियेंट इंडिया नामक जिस पुस्तक में यह सब और इसी तरह का और बहुत कुछ शामिल किया गया है उसका संकलन और संपादन डा. उपेंद्र कौर ने किया है, जो देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पुत्री हैं। संकोच और नकारात्मकता से प्रभावित न होने के लिए पुरुष के गर्भधारण से अधिक वैज्ञानिक समझ और क्या हो सकती है? जिस रावण के एक लखपूत सवा लख नाती थे उसे संतानविहीन और जो लाखों वर्षो से भारतीय मर्यादा के प्रतीक हैं उन्हें तुच्छ साबित करने से अधिक विविधता को समझने का और कौन सा उदाहरण दिया जा सकता है? इसी संकलन में लिखा है कि प्राचीन भारत में स्ति्रयां बेची और खरीदी जाती थीं। मैं नहीं समझता कि संकलनकर्ता का उपरोक्त उद्धरणों में विश्वास होगा या इन तथ्यों को शिक्षा नीति निर्धारित करने वाले अधिकृत मानते होंगे। कम से कम अर्जुन सिंह के बारे में तो यह दावा किया ही जा सकता है। फिर भी प्राचीन भारत की अनुभूति कराने के इस प्रकट के प्रयासों की निरंतरता क्यों है? इसे समझने के लिए एक और उदाहरण संभवत: उपयुक्त होगा, जो बड़े जोर-शोर से प्रचारित होने वाली यौन शिक्षा की पाठ्य सामग्री में वर्णित है। पाठ्य सामग्री में यह कहा गया है कि यौन संबंध केवल एक सहज शारीरिक क्रिया है, इसका नैतिकता, पवित्रता और आध्यात्मिकता से कोई संबंध नहीं हैं। एड्म को जानिए वाले भाग में सहवास के ऐसे अप्राकृतिक तरीकों का वर्णन किया गया है जिससे एड्स से बचा जा सकता है। मैं क्या करूं शीर्षक का यह उदाहरण क्या समझाने के लिए है-मैं ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ती हूं। मैंने क्लास रूम में एक लड़के के साथ यौन संबंध बनाए। अब वह दबाव डाल रहा है कि मैं उसके दोस्तों के साथ भी यौन संबंध बनाऊं, मैं क्या करूं? यौन शिक्षा के लिए इसी तरह के जो दर्जनों उदाहरण दिए गए हैं उनका उल्लेख करने का साहस मुझमें नहीं है। यह पुस्तक किस प्रकार की यौन शिक्षा को बढ़ावा देगी? क्या ऐसे पाठ्यक्रम और निकृष्ट साहित्य पर रोष प्रकट करना भगवा ब्रिगेड का हंगामा है? हम कैसी संस्कृति का स्वरूप पेश कर रहे हैं? जीवन में विश्वास, आस्था और संकल्प शक्ति पैदा करने वाले आचरण को हेय तथा पशुवत भावना को सहज स्वाभाविक बताकर जो कुछ समझाने का काम हमारे समझदार लोग कर रहे हैं उनकी मानसिकता को समझने के लिए एक और उदाहरण पेश है। रामसेतु का विरोध कर रहे तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि ने साक्षात्कार में कहा कि राम और सीता भाई-बहन थे। ऐसा तुलसीदास की रामायण में लिखा है। साक्षात्कारकर्ता ने उनसे पूछा कि क्या उन्होंने स्वयं ऐसा पढ़ा है तो उनका उत्तर था-हां मैंने पढ़ा है। अब आप इस पर क्या प्रतिक्रिया करेंगे? कुत्सितता का प्रचार-प्रसार अज्ञानता के कारण नहीं, बल्कि जानबूझकर सोची-समझी रणनीति के तहत किया जा रहा है ताकि हम अपनी अस्मिता से कटकर अमेरिकी कचरा प्रवृत्ति के गुलाम हो जाएं। उद्योग, व्यापार, राजनीति, शिक्षा-सभी क्षेत्रों में यही प्रयास प्रगतिशीलता का पर्याय बन गया है। (लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं)

Tuesday, March 18, 2008

हिंसक राजनीतिक दर्शन

कन्नूर हिंसा के लिए माकपा कार्यकर्ताओं को दोषी ठहरा रहे हैं बलबीर पुंज

केरल का कन्नूर जिला मा‌र्क्सवाद हिंसा से सुलग रहा है। कन्नूर भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना स्थली है, जिसे मा‌र्क्सवादी गर्व से भारत का लेनिनग्राद कहते हैं। कन्नूर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य 1943 में प्रारंभ हुआ और तब से ही माकपा का दुर्ग माने जाने वाले इस क्षेत्र में हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों के कार्यकर्ताओं पर माकपाई हिंसा जारी है। संघ की बढ़ती साख से घबराए मा‌र्क्सवादियों ने 1969 में एक संघ कार्यकर्ता की बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी थी। 1994 में पेशे से शिक्षक और संघ के कार्यकर्ता 35 वर्षीय जयकृष्णन को कन्नूर के एक स्कूल में विद्यार्थियों से भरी कक्षा में काट कर मार डाला गया था। वे छात्र शायद ही उम्र भर उस वीभत्स कांड को भूल पाएंगे। पिछले चालीस सालों में 250 से अधिक लोग माकपाई हिंसा में मारे गए हैं। सैकड़ों जीवन भर के लिए विकलांग कर दिए गए। बर्बरता ऐसी कि मृतकों या घायलों के चित्र मात्र देख आत्मा सिहर उठे। कन्नूर से त्रिशूर और कोट्टयम से तिरुअनंतपुरम तक संघ, भारतीय जनता पार्टी, विहिप, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ आदि हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों के कार्यकर्ता मा‌र्क्सवादी गुंडों के निशाने पर हैं। इसके विरोध में जब हाल में माकपा के दिल्ली स्थित मुख्यालय पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने के लिए भाजपा कार्यकर्ता एकत्रित हुए तो उन पर मुख्यालय के अंदर से पथराव किया गया। बर्बर हिंसा के बल पर अपना वर्चस्व कायम करने के अभ्यस्त मा‌र्क्सवादी कन्नूर हिंसा पर खेद प्रकट करने की जगह संसद में भी सीनाजोरी कर रहे हैं। संसद में हंगामा खड़ा कर वे कन्नूर की हिंसा को छिपाने की कोशिश में लगे हैं। उनका यह पैंतरा नया नहीं है। अभी कुछ समय पूर्व ही पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में सरकार समíथत जिस तरह मा‌र्क्सवादी कामरेडों द्वारा बड़े पैमाने पर हिंसा की गई थी उसे भी देश और मीडिया की नजरों से छिपाने की पूरी कोशिश की गई थी। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल ने तब इस हिंसा की कड़ी आलोचना करते हुए सरकार को कठघरे में खड़ा किया था। केरल के हिंसाग्रस्त कन्नूर जिले की असली तस्वीर क्या है, यह केरल उच्च न्यायालय के न्यायाधीश वी. कुमार की टिप्पणी से स्पष्ट है। उन्होंने कहा है, सरकार और पुलिस के समर्थन से की गई यह हिंसा दिल दहलाने वाली है। उन्होंने पुलिस की भूमिका पर टिप्पणी करते हुए कहा, पुलिस का नया चेहरा देखने को मिला, वह एक पार्टी विशेष के नौकर की तरह काम कर रही है..हिंसा रोकने का एकमात्र विकल्प कन्नूर को केंद्रीय सुरक्षा बलों के हवाले करना है। व्यवस्थातंत्र पर मा‌र्क्सवादी कार्यकर्ताओं के शिकंजे का यह अपवाद नहीं है। सत्तर के दशक में पश्चिम बंगाल की कांग्रेस-कम्युनिस्टों की मिली-जुली सरकार में शामिल मा‌र्क्सवादियों ने अपनी कार्यसूची और भूमि सुधार कानूनों को लागू करने के लिए बड़े पैमाने पर राज्यवार हिंसा का दौर चलाया था। प्रशासन और पुलिस का राजनीतिकरण करने के कारण 1977 में मा‌र्क्सवादियों को अपना वर्चस्व कायम करने में बड़ी मदद मिली। इस मा‌र्क्सवादी हिंसा के विरोध में तब कांग्रेसी मुख्यमंत्री अजय मुखर्जी अपनी ही सरकार के खिलाफ धरने पर बैठे थे। यह स्थापित सत्य है कि जो भी व्यक्ति या संगठन मा‌र्क्सवादी विचारों से सहमत नहीं होते उन्हें मा‌र्क्सवादी सहन नहीं कर पाते। दिल्ली में माकपा का एक चेहरा है तो पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में अलग। नंदीग्राम की हिंसा बताती है कि अपने विरोधियों से निपटने के लिए मा‌र्क्सवादी किस हद तक जा सकते हैं। साठ के दशक से पूर्व और उसके बाद सत्ता हथियाने के लिए कम्युनिस्टों ने हिंसा का किस तरह सहारा लिया, यह सर्वविदित है। तीस के दशक में छिटपुट हिंसा की घटनाओं के साथ ये देश भर में आंदोलन खड़ा करने में क्षणिक रूप से सफल हुए थे, किंतु कांग्रेस प्रमुख राजनीतिक पार्टी बनी रही और मजदूर संघों में राष्ट्रवादी ताकतों का वर्चस्व रहा। 40 के दशक में कम्युनिस्टों को सुनहरा अवसर मिला। ब्रितानियों के खिलाफ राष्ट्रवाद के उफान के दमन पर वे ब्रितानियों के संग हो लिए। बड़े पैमाने पर राष्ट्रवादी नेता जेल में कैद थे। इससे कम्युनिस्टों को भारतीय राजनीति, खासकर मजदूर संघों में सेंधमारी करने का उपयुक्त अवसर मिला। 1964 में कम्युनिस्ट आंदोलन के कुछ वैचारिक प्रश्नों पर हुए वाद-विवाद में पी. सुंदरय्या, एके गोपालन, हरिकिशन सिंह सुरजीत आदि कम्युनिस्ट नेताओं ने लिखा था, हमारे देश में शांति के पथ को अपरिहार्य बताना अपने आप को और दूसरों को धोखा देना है। 1964 का यह दस्तावेज, जो माओ की हिंसक क्रांति पर आधारित था, वास्तव में अंतत: सीपीआई के उद्भव का आधार बना। तब से लेकर आज तक मा‌र्क्सवाद का यह घटक लोकतांत्रिक प्रक्रिया में आने के बावजूद लगातार अपनी गतिविधियों से यह प्रमाणित करता रहा है कि विरोधी स्वर को दबाने के लिए वह हिंसा के किसी भी स्तर तक उतर सकता है। हिंसा और दमन का विरोध करने वाले केरल के केआर गौरी और पश्चिम बंगाल के मोहित सेन जैसे कामरेडों को इसीलिए धक्के मार निकाल बाहर किया गया था। पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में कम्युनिस्टों का जो प्रभाव है वह उनकी हिंसा की राजनीति के बल पर ही स्थापित हुआ है। कन्नूर मा‌र्क्सवादियों के वर्चस्व वाले उत्तरी मालाबार का मुख्यालय है। नंदीग्रामवासियों की तरह मालाबार के लोग भी अब मा‌र्क्सवाद के विरोध में मुखर हो उठे हैं। कथित मा‌र्क्सवादी शहीदों के नाम पर जनता से धन उगाही, आतंकवाद को समर्थन, छिटपुट व्यापार से लेकर भवन निर्माण तक में मा‌र्क्सवादी पार्टी की तानाशाही, नागरिकों से आय के हिस्से से पार्टी के लिए चंदे की वसूली, रोजगार में माकपा कार्यकर्ताओं को प्राथमिकता जैसे दमन व शोषण के अनगिनत कार्यो के खिलाफ मालाबार की जनता अब उठ खड़ी हुई है। मा‌र्क्सवादी विचारधारा के खिलाफ आम आदमी का यह विद्रोह मा‌र्क्सवादियों के लिए असहनीय है। वस्तुत: राष्ट्रवादी विचारधारा से कोसों की दूरी होने के कारण भारतीय जनमानस में मा‌र्क्सवाद अपनी पैठ नहीं बना पाया है। इसीलिए मा‌र्क्सवादी अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए हिंसा का सहारा लेते है। उन्हें पता है कि वर्ग-संघर्ष की दुकानदारी भारत में नहीं चल सकती। साम्यवाद दुनिया भर से सिमटता जा रहा है। ऐसे में मा‌र्क्सवादियों को अपने अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा राष्ट्रवादी ताकतों से लगता है। आश्चर्य नहीं कि भाजपा और संघ परिवार मा‌र्क्सवादियों के निशाने पर रहते हैं। यह सही है कि हिंसा के बदले हिंसा भारतीय परंपरा की पहचान नहीं है, किंतु अनवरत हिंसा का प्रतिकार क्या हो सकता है? हिंसा? अंततोगत्वा सभ्य समाज को ही भारत की बहुलतावादी परंपरा की रक्षा के लिए मा‌र्क्सवादियों की हिंसा के खिलाफ गोलबंद होना होगा। कन्नूर की ये दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं मा‌र्क्सवादी विचारधारा में कोई अपवाद नहीं है। कम्युनिस्टों को हिंसा के माध्यम से अपनी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के दमन और प्रताडि़त करने का विश्वव्यापी अनुभव है। सोवियत संघ से लेकर, कम्युनिस्ट चीन, कंबोडिया, क्यूबा में करोड़ों निर्दोषों की हत्या कम्युनिस्टों के रक्तरंजित इतिहास में दर्ज हैं। यदि कन्नूर में फैली इस हिंसा को समाप्त नहीं किया गया तो यह कालांतर में दावानल बन सकता है। (दैनिक जागरण , १८ मार्च २००८ )

Saturday, March 15, 2008

आस्था पर अनगिनत हमले

श्रीराम और भारतीय संस्कृति के अपमान के पीछे सोची-समझी रणनीति देख रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित

राष्ट्रीय आपदा की घड़ी है। भारतीय संस्कृति, इतिहास और आस्था पर हमलों की बाढ़ है। हिंदू आहत हैं। कांग्रेस और मा‌र्क्सवादी समूह श्रीराम को काव्य कल्पना मानते हैं। केंद्र ने रामसेतु मसले पर अपने हलफनामे में उन्हें कल्पना बताया था। गजब का राष्ट्रीय प्रतिकार हुआ। हलफनामा वापसी का ऐलान हुआ। केंद्र ने नया हलफनामा बनाया। नए हलफनामे में भी श्रीराम के अस्तित्व पर प्रश्नवाचक चिह्न है। केंद्र सरकार के खास घटक द्रमुक के प्रमुख श्रीराम को गाली दे चुके हैं। श्रीराम इतिहास हैं, सच्चाई हैं, राष्ट्र-जीवन की श्रद्धा हैं। चीन के लिऊ ताओत्स किंग में श्रीराम हैं। थाई देश की रामकियेन, इंडोनेशिया की ककविन,लाओस की फालाम और पोम्मचाक जैसी प्रतिष्ठित रचनाएं श्रीराम की अंतरराष्ट्रीय साक्ष्य हैं। बावजूद इसके दिल्ली विश्वविद्यालय की बीए द्वितीय वर्ष की किताब कल्चर इन एंशिऐंट इंडिया में राम, सीता और हनुमान पर असभ्य टिप्पणियां हैं। उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले से एक संस्था द्वारा जारी भड़काऊ सीडी में श्रीराम को हत्यारा दिखाया जा रहा है। आस्था के धारावाहिक अपमानों से हिंदू गुस्से में हैं। असुरक्षा बोध भी बढ़ा है। संस्कृति ही राष्ट्र की प्राण ऊर्जा होती है। डा.अंबेडकर ने संस्कृति को ही भारतीय एकता का प्रमुख तत्व बताया था। राममनोहर लोहिया ने श्रीराम को उत्तर-दक्षिण एकता का देवता बताया। उन्होंने कहा कि राम की पूर्णता मर्यादित व्यक्तित्व में है। उन जैसा मर्यादित व्यक्तित्व कहीं और नहीं-न इतिहास में, न कल्पना में। लोहिया ने चित्रकूट में रामायण मेला लगवाया और कहा कि राम, रामायण और तुलसी का महत्व हमारे सांस्कृतिक जीवन में सर्वोपरि है। महात्मा गांधी ने भारत के लिए राम राज्य का प्रतीक चुना था। दुनिया में ढेर सारी राजनीतिक प्रणालियां हैं। तमाम तरह के संविधान हैं, लेकिन राम राज्य तो बस एक ही था। राम भारत के मन की अभीप्सा हैं। वाल्मीकि ने रामायण में श्रीराम के गुण बताए, वे नित्य प्रशांत हैं, स्थितप्रज्ञ हैं, मृदुभाषी-प्रियंवद हैं। क्रोध पर विजयी हैं। दिक्-काल के ज्ञाता हैं। वे अर्थशास्त्री हैं। वे लोकसंग्रही हैं, दुष्टों के निग्रही भी हैं। वे सर्वलोकप्रिय हैं। काल उनके पीछे चलता था। दिल्ली विश्वविद्यालय की किताब को लेकर जबर्दस्त प्रदर्शन हुए। सरकारी हलफनामे और रामसेतु को लेकर भी राष्ट्रीय उत्ताप है। सच्ची रामायण के प्रश्न पर उत्तर प्रदेश विधानसभा में संपूर्ण विपक्ष ने एक स्वर से विरोध किया। राम विरोधी ऐसी सभी घटनाओं के पीछे वोट की राजनीति है। सच्ची रामायण के लेखक रामास्वामी नायकर पहले कांग्रेसी थे। कांग्रेस में मनचाही प्रतिष्ठा नहीं मिली। उन्होंने द्रविण कड़गम का रास्ता पकड़ा। निशाना बने श्रीराम। श्रीराम की मूर्तियों को अपमानित किया गया। करुणानिधि ने श्रीराम को पियक्कड़ कहा। संप्रग ने उनसे पूछताछ नहीं की। श्रीराम का चित्र संविधान की मूल प्रति पर भी है। भारत का लोकजीवन सीता को माता कहता है। दिल्ली विश्वविद्यालय की किताब के अनुसार रावण और लक्ष्मण ने सीता से दु‌र्व्यवहार किया। सीडी में भी श्रीराम का अपमानजनक चित्रण है। सहिष्णुता की भी एक मर्यादा रेखा होती है। डेनमार्क में छपे कार्टून पर भारत में आग लग गई। तसलीमा नसरीन के सहज लेखन पर हिंसा हो गई। अल्पसंख्यक संप्रदाय की आस्था ही यहां की सरकारों के लिए आस्था है। बहुसंख्यक संप्रदाय की आस्था के साथ खिलवाड़ जारी है। श्रीराम और भारतीय संस्कृति के अपमान के पीछे एक सोची-समझी अंतरराष्ट्रीय रणनीति है। ईसाई साम्राज्यवाद और इस्लामी विस्तारवाद भारत की हिंदू संख्या घटाना चाहते हैं। ईसाई मिशनरियां लंबे अर्से से हिंदुत्व को कमतर और ईसाइयत को श्रेष्ठतम बता रही हैं। इस्लामी विस्तारवाद भारत की हिंदू बहुसंख्या से निबटने में असफल रहा। भारत को इस्लामी मुल्क बनाना उनका पुराना ख्वाब है, लेकिन भारतीय संस्कृति, राम, कृष्ण और शिव जैसे सम्मोहक चरित्र और प्रखर हिंदुत्ववादी चेतना दोनों के मार्ग में बाधा है। संप्रग सरकार के चार बरस ऐसी अंतरराष्ट्रीय ताकतों के लिए मुफीद रहे। अंतरराष्ट्रीय ईसाई-इस्लामी ताकतों ने भारत को विशेष सहूलियत वाला क्षेत्र पाया। भारतीय अर्थव्यवस्था के इतिहास में पहली दफा बजट भी सांप्रदायिक हो गया। मुस्लिम बहुल इलाकों में बिजली, हिंदू बहुल गांव में अंधाकुप। क्या राम के अपमान वाली किताब का संयोजन प्रधानमंत्री की पुत्री डा. उपदिंर सिंह ने यों ही किया? यह सब कुछ भारत विरोधी अंतरराष्ट्रीय रणनीति का हिस्सा है। भारत सारी दुनिया की आंख की किरकिरी है। भारतीय राष्ट्र भाव का मूल स्त्रोत सतत जिज्ञासा, विज्ञान और दर्शन है। आस्था और विज्ञान का ऐसा समन्वय दुनिया के किसी दर्शन में नहीं पाया जाता। भारतीय संस्कृति और आस्था को हिलाकर ही ईसाइयत/इस्लाम का वर्चस्व बढ़ाया जा सकता है। श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन ने भारतीय राष्ट्र-भाव को आसमान तक पहुंचाया था। राम भारत का मन हैं, सत्य हैं, सौंदर्य हैं और लोककल्याण का बिंब, प्रतिबिंब हैं। राम और राष्ट्रीयत्व तथा राष्ट्रीयत्व और हिंदुत्व पर्यायवाची हैं। सो श्रीराम ही सबका निशाना हैं। भारत प्राचीन काल से जनतंत्री है, पंथनिरपेक्ष भी है। भारत की छद्म सेकुलर राजनीति घोर सांप्रदायिक है। हिंदू आस्थाओं का अपमान और ईसाई, इस्लामी आस्थाओं का सम्मान सभी गैर भाजपा दलों का मुख्य एजेंडा है। हिंदुत्व को सांप्रदायिक और कट्टरपंथी अलगाववाद को राष्ट्रीयत्व बताया जा रहा है। श्रीराम को गाली देकर क्या मिलेगा? श्रीराम से प्रेरित होना, प्रेरणा लेना, तद्नुसार संयम और मर्यादा वाला राष्ट्रजीवन गढ़ना आधुनिक भारत का कर्तव्य है। आस्था का सम्मान विश्व सभ्यता की न्यूनतम शर्त है। ध्यान रहे कि आस्था तर्क से नहीं चलती। आस्था की जड़ें इतिहास में हैं। आस्था जांचती है, परखती है। द्वंद्व, प्रतिद्वंद्व चलते हैं। करोड़ों तर्क चलते हैं, तब कोई व्यक्ति मर्यादा पुरुषोत्तम बनता है। (लेखक उप्र सरकार के पूर्व मंत्री हैं), दैनिक जागरण , March 14, Friday , 2008



Wednesday, March 12, 2008

तसलीमा बनाम मकबूल

इन दोनों व्यक्तियों के जरिये सेकुलर खेमे की विकृत सोच उजागर कर रहे हैं बलबीर पुंज

आमी बाड़ी जाबो, आमी बाड़ी जेते चाई, कोलकाता से वामपंथी सरकार द्वारा निकाल बाहर किए जाने के बाद से ही पश्चिम बंगाल लौटने की लगातार गुहार लगा रहीं बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा नसरीन इन पंक्तियों के लिखते समय अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान चिकित्सा केंद्र में अपना उपचार करा रही हैं। मानसिक यंत्रणा से जूझ रही तसलीमा को देश निकाले की धमकी और चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन को महिमामंडित करने का क्या अर्थ है? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर भारत माता और हिंदू देवी-देवताओं के अपमानजनक चित्र बनाने वाले को भारत रत्न से सम्मानित करने की मांग का क्या औचित्य है? आखिर तसलीमा का अपराध क्या है कि उन्हें जान की सुरक्षा और रहने के ठिकाने की चिंता के साये में जीवन गुजारना पड़ रहा है? हिंदू भावनाओं को आघात पहुंचाने के कारण अदालती कार्रवाइयों से बचने के लिए विदेश में छिपे मकबूल के पक्ष में तो सारे सेकुलरिस्ट खड़े हैं, किंतु तसलीमा को शरण दिए जाने पर वही खेमा आपे से बाहर क्यों है? तसलीमा और मकबूल के प्रति जो दोहरा रवैया अपनाया जा रहा है वह वस्तुत: पंथनिरपेक्षता के विकृत पक्ष को ही उजागर करता है। बांग्लादेश के अल्पसंख्यक हिंदुओं पर वहां के बहुसंख्यक मुसलमानों द्वारा किए गए अत्याचार पर आधारित तसलीमा की पुस्तक लज्जा के प्रकाशन के बाद बांग्लादेश सरकार ने उन्हें देश छोड़ने का फरमान जारी किया। उसके बाद से ही वह निर्वासित जिंदगी गुजार रही हैं। कुछ समय से तसलीमा ने भारत में शरण ले रखी है। लंबे समय से वह भारत सरकार से भारतीय नागरिकता प्रदान करने की गुहार कर रही हैं। भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1955 के खंड 6 के अंतर्गत ऐसे व्यक्ति को भारतीय नागरिकता के योग्य बताया गया है, जिसने विज्ञान, दर्शन, कला, साहित्य, विश्व शांति और मानव कल्याण के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान दिया हो। संवैधानिक पंथनिरपेक्षता के संदर्भ में तसलीमा के विचारों को कई पश्चिमी देश सम्मान भाव से देखते हैं, किंतु सेकुलर भारत उन्हें तिरस्कार का पात्र समझता है। क्यों? तसलीमा नसरीन की पुस्तक लज्जा सेकुलर भारत के लिए सचमुच लज्जा की बात साबित हो रही है। 1993 में लिखी इस पुस्तक ने मानवीय संवेदनाओं को झकझोर दिया था। उन्हें बांग्लादेशी कठमुल्लों के फतवे से जान बचाकर देश छोड़ भागना पड़ा। 1971 में बांग्लादेश को एक पंथनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में मुक्त कराया गया था, किंतु सच यह है कि वह आज इस्लामी जेहादियों का दूसरा सबसे बड़ा गढ़ है। 1988 में उसने पंथनिरपेक्षता को तिलांजलि दे खुद को इस्लामी राष्ट्र घोषित कर लिया। बांग्लादेश में तसलीमा का दमन आश्चर्य की बात नहीं, किंतु पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक भारत की क्या मजबूरी है? सेकुलरवाद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर मकबूल का समर्थन करने वाले सेकुलरिस्ट और कम्युनिस्ट तसलीमा का विरोध क्यों कर रहे हैं? क्या सेकुलरवाद हिंदू मान्यताओं और प्रतीकों को कलंकित करने का साधन है? क्या ऐसा इसलिए कि हिंदुओं में प्रतिरोध करने की क्षमता कम है या वे आवेश में आकर विवेक का त्याग नहीं करते? पैगंबर साहब का अपमानजनक कार्टून बनाने वाले के खिलाफ सड़क से लेकर संसद तक निंदा करने वाले सेकुलरिस्ट मकबूल के मामले में क्यों मौन रह जाते हैं? किसी भी मजहब की आस्था पर आघात करना यदि उचित नहीं है तो हिंदुओं की आस्था पर आघात करने वाले कलाकारों-संगठनों को संरक्षण किस तर्क पर दिया जाता है? मकबूल फिदा हुसैन के जीवन को कोई खतरा नहीं है। संपूर्ण सेकुलर सत्ता अधिष्ठान उनके स्वागत में तत्पर है। सेकुलरिस्ट उन्हें भारत रत्न से सम्मानित करने की मांग करते हैं, जामिया मिलिया विश्वविद्यालय उन्हें पीएचडी की उपाधि से सम्मानित करता है और इस अवसर पर केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह उपस्थित रहते हैं। न्यायपालिका की विश्वसनीयता और प्रामाणिकता अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित है। संसद पर हमला करने के आरोप में एहसान गुरु का बरी होना इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। यदि मकबूल को अपने देश की न्यायपालिका पर विश्वास है और अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति को न्यायोचित ठहराने की क्षमता है तो उन्हें भारत आकर अदालत में अपना पक्ष रखना चाहिए। किंतु मदर टेरेसा, मरियम, अपनी मां-बेटी को वस्त्राभूषण के साथ सम्मानजनक ढंग से चित्रित करने और हिंदू देवी-देवताओं को अपमानजनक और नग्न चित्रित करने वाले मकबूल आखिर किस तर्क पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का लाभ उठा पाएंगे? संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(अ) द्वारा नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी गई है, किंतु इसमें कुछ निषेध भी हैं। जनहित में मर्यादा और सदाचरण की रक्षा के लिए सरकार इस पर प्रतिबंध भी लगा सकती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग करते हुए समाज के किसी वर्ग की आस्था, उसकी धार्मिक भावनाओं को आहत करने, सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाने के आरोप में भारतीय दंड विधान की धारा 153 ए के अंतर्गत सजा का प्रावधान भी है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग करने का जो तर्क तसलीमा पर लागू होता है वह मकबूल पर लागू क्यों नहीं होता? तसलीमा को देश से निकालने पर आमादा सेकुलरिस्ट उसी आरोप में मकबूल को यहां की कानून-व्यवस्था के दायरे में लाने की मांग क्यों नहीं करते? वस्तुत: तसलीमा के भारत में रहने से सेकुलरिस्टों को दो तरह के डर ज्यादा सताते हैं। एक तो उन्हें यह डर है कि उनका थोक वोट बैंक (मुसलमान मतदाता) उनसे बिदक जाएगा और दूसरा, चूंकि मुसलमानों के कट्टरवादी वर्ग में हिंसात्मक प्रतिक्रिया करने की क्षमता ज्यादा है, इसलिए स्वाभाविक रूप से उनकी ब्लैकमेलिंग ताकत भी ज्यादा है। पश्चिम बंगाल में इस वर्ष पंचायत चुनाव होने हैं। नंदीग्राम हिंसा को लेकर जिस तरह जमायते हिंद के बैनर तले मुसलमानों ने वर्तमान वाममोर्चा सरकार के खिलाफ सड़कों पर उग्र आंदोलन किया उससे माकपाइयों का घबराना स्वाभाविक है। इस आक्रोश को दबाने के लिए ही तसलीमा नसरीन को पश्चिम बंगाल से निकाला गया और अब उन्हें देश छोड़कर जाने के लिए मजबूर किया जा रहा है। भारत ने शरणार्थियों को शरण देने में कभी कंजूसी नहीं की। पारसी आए, हमने गले लगाया। केरल के तट पर व्यापारी रूप में इस्लाम के अनुयायी आए तो हमने उन्हें मोपला (स्थानीय भाषा में दामाद) कहकर सम्मानित किया। हालांकि इसका पारितोषिक हमें मोपला दंगों के रूप में मिला, किंतु हमारे आतिथ्य संस्कार में कमी नहीं आई। यहूदी हमारी बहुलावादी संस्कृति व सर्वधर्मसमभाव के सबसे बड़े साक्षी हैं। शेष दुनिया में जब उनका उत्पीड़न हो रहा था तब हमने उन्हें शरण दी। दलाई लामा भारत की इस परंपरा को कैसे भूल सकते हैं? उन्हें शरण देने के कारण जब-तब चीन के साथ हमारे संबंध कटु हो उठते हैं, किंतु क्या हमने कभी उन्हें निकालने की बात भी सोची? यदि कम्युनिस्टों के दबाव में संप्रग सरकार तसलीमा को देश से निकालती है तो यह न केवल भारतीय परंपराओं के प्रतिकूल होगा, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय पंथनिरपेक्षता की विकृति को भी रेखांकित करेगा। (लेखक भाजपा के राष्ट्रीय सचिव हैं) , दैनिक जागरण, February 5, Tuesday, 2008

दमन पर शर्मनाक मौन


मलेशिया में हिंदुओं के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ भारत सरकार की चुप्पी पर निराशा जता रहे हैं प्रकाश सिंह

मलेशिया में भारतीय मूल के हिंदुओं का जिस तरह दमन हो रहा है वह बड़े खेद का विषय है। उससे भी अधिक शर्म की बात यह है कि भारत की करीब सभी पार्टियों ने इस विषय पर मौन साध रखा है। भारत सरकार तक ने मलेशिया में भारतीय मूल के हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों के सामने आंख पर जैसे पट्टी बांध ली है। लगता है कि भारतीयों और विशेष तौर पर बहुसंख्यक समुदाय को कहीं भी अपमानित किया जा सकता है। अतीत में तालिबान ने अफगानिस्तान से हिंदुओं को खदेड़ा। बांग्लादेश में हिंदुओं पर अत्याचार हुए। इससे पहले युगांडा और फिजी में भारतीय मूल के लोगों के साथ अन्याय की कहानी इतिहास के पन्नों में लिखी जा चुकी है। उसी क्रम में अब मलेशिया का नाम जोड़ा जा सकता है। वास्तविकता यह है कि मलेशिया में भारतीय मूल के लोगों में काफी समय से असंतोष की चिंगारी भड़क रही थी। ये भारतीय ब्रिटिश हूकूमत के दौरान वहां काम के लिए भेजे गए थे। इनमें लगभग 70 प्रतिशत तमिल श्रमिक थे। बाद में कुछ संपन्न तमिल भी गए, जिन्होंने व्यापार में अपनी पहचान बनाई। फिर भी आर्थिक दृष्टि से भारतीय मूल के लोगों के साथ मलेशिया में भेदभाव किया जाता रहा है। राजनीतिक दृष्टि से भी उनका कोई वजन नहीं है। 1957 में राजकीय सेवाओं में उनका प्रतिनिधित्व करीब 40 प्रतिशत था। यह 2005 तक गिरकर मात्र 2 प्रतिशत रह गया। 1980 के बाद मलेशिया में कट्टरपंथियों की पकड़ बराबर बढ़ती गई। मलेशिया में हिंदू मंदिरों को ध्वस्त करने की प्रक्रिया कई वर्षो से चली आ रही थी। दलील यह दी जाती है कि ये मंदिर सरकारी या प्राइवेट जमीन पर बने हैं, इसलिए इनका गिराया जाना आवश्यक है, पर तथ्य यह है कि जो मंदिर गिराए गए वे वर्षों से बने थे। कुछ तो सौ वर्षो से भी अधिक पुराने थे। करीब 150 मंदिर अब तक धराशायी किए जा चुके हैं। यह नीति मस्जिदों पर नहीं लागू की जाती। पिछली 30 अक्टूबर को जावा के पुराने महामरीअम्मन मंदिर को ध्वस्त किया गया। इससे स्थानीय हिंदुओं में भयंकर रोष हुआ। तत्पश्चात हिंदू राइट्स एक्शन फोर्स (हिंड्राफ), जो मलेशिया के हिंदू संगठनों का एक समूह है, ने तय किया कि एक रैली निकाली जाएगी। पुलिस ने प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी, फिर भी करीब बीस हजार व्यक्ति क्वालालंपुर में पेट्रोनास टावर के पास एकत्र हुए। वे महात्मा गांधी का पोस्टर लेकर चल रहे थे-यह दिखाने के लिए कि वे अहिंसा में विश्वास करते हैं। पुलिस सख्ती से पेश आई। आंसू गैस व पानी की धार से उन्हें तितर-बितर किया गया। प्रदर्शनकारियों के नेताओं को हिरासत में लिया गया। हिंड्राफ के पांच प्रमुख नेताओं को आंतरिक सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत गिरफ्तार किया जा चुका है। इस अधिनियम के अंतर्गत किसी व्यक्ति को दो साल तक बिना मुकदमा चलाए जेल में रखा जा सकता है। इन नेताओं के विरुद्ध देशद्रोह का आरोप है। पुलिस कार्रवाई का समर्थन करते हुए मलेशिया के प्रधानमंत्री ने कहा कि वह स्वतंत्रता को अहमियत देते हैं, पर शांति व्यवस्था बनाए रखना उससे भी ज्यादा जरूरी है। मलेशिया की पुलिस ने हिंदू नेताओं पर श्रीलंका के लिट्टे से भी गठबंधन का आरोप लगाया है। इसका हिंदू नेताओं ने कड़े शब्दों में खंडन किया है। स्पष्ट है कि पुलिस ने हिंदू प्रदर्शनकारियों के विरुद्ध आतंकवाद का झूठा आरोप इसलिए लगाया है ताकि उनकी करने कार्रवाई को बल मिल सके। सच यह है कि मलेशिया में भारतीयों ने राजनीतिक, आर्थिक, मजहबी भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाई थी। मंदिरों के लगातार तोड़े जाने से उनकी भावनाओं को बहुत ठेस पहुंची थी, कई मंदिरों से तो उन्हें मूर्तियां भी नहींउठाने दिया और उन्हें तोड़ दिया गया। भारतीयों के पास सड़क पर उतरकर अपना विरोध प्रकट करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था, परंतु मलेशिया सरकार ने इस लोकतांत्रिक विरोध का दमन किया। मानवाधिकारों के उल्लंघन का नंगा नाच हुआ। भारत सरकार ने शुरू में तो कुछ ऐसे बयान दिए जिससे लगा कि वह भारतीय मूल के लोगों के हितों की रक्षा करेगी, पर जब मलेशिया सरकार ने कहा कि यह उनका आंतरिक मामला है और खासतौर पर जब भारतीयों पर आतंकवाद का आरोप लगाया गया तब हमारे नेता पीछे हट गए। सरकार में बैठे लोगों ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि भारतीयों पर लगे आरोपों में कितनी सच्चाई है? अन्य पार्टियों का मौन भी समझ से बाहर है। भाजपा अपनी अंर्तकलह से शायद इतनी परेशान है कि उसे इस विषय पर सोचने का समय ही नहीं मिला। विश्व हिंदू परिषद को तो जैसे लकवा मार गया है। शंकराचार्य सोए हुए हैं। धर्मगुरुओं ने भी इस मुद्दे पर कुछ कहना आवश्यक नहीं समझा। मानवाधिकार संगठन तो तभी उत्तेजित होते हैं जब अल्पसंख्यकों या आतंकवादियों के मानवाधिकारों की बात आती है। यह संतोषजनक होने के साथ-साथ भारत के लिए शर्म की बात है कि ब्रिटेन और अमेरिका में भारतीय मूल के हिंदुओं ने मलेशिया में हो रहे अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाई है। ब्रिटेन में लेबर फ्रेंड्स आफ इंडिया के चेयरमैन स्टीफेन पाउंड और विभिन्न पार्टियों के सांसदों ने ब्रिटिश सरकार से अनुरोध किया है कि वह मलेशिया सरकार पर मंदिरों को न तोड़ने के लिए दबाव डाले। अमेरिका के इंटरनेशनल रिलिजस फ्रीडम से संबंधित कमीशन ने राष्ट्रपति बुश को लिखकर कहा है कि वह मलेशिया सरकार से तुरंत कहें कि मंदिरों की पवित्रता बनाए रखी जाए। गृह मंत्रालय के प्रवक्ता ने भी कहा कि अमेरिकी सरकार यह अपेक्षा करती है कि जिन लोगों के विरुद्ध मलेशियाई सरकार कार्रवाई कर रही है उनके लोकतांत्रिक अधिकारों का सम्मान किया जाए, लेकिन हमारे अपने देश में भारतीय मूल के लोगों के पक्ष में कोई सशक्त आवाज नहीं उठ रही है और उनके पक्ष में केवल पश्चिम में लोग बोल रहे हैं। यह स्थिति अपने आत्मसम्मान के प्रति हमारी प्रतिबद्घता पर सवाल उठाती है। (लेखक उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी हैं) , दैनिक जागरण, January 1, Tuesday, 2008

दुश्मन के घरेलू दोस्त


आतंकियों और उनके समर्थकों से सख्ती से निपटने में केंद्रीय सत्ता को असफल करार दे रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित

पवित्र कुरान (सूरा 2/216) में हिदायत है, तुम पर युद्ध अनिवार्य किया गया और वह तुम्हें नापसंद है। बहुत संभव है कि कोई चीज तुम्हें नापसंद हो, लेकिन वह तुम्हारे लिए अच्छी हो। जानता अल्लाह है, तुम नहीं जानते। आतंकी जेहाद को फर्ज मानकर जंग-ए-मैदान में हैं। आतंकवाद भारत के विरुद्ध युद्ध है। भारत सरकार कुरान या गीता से नहीं चलती। चलती होती तो कुरान की हिदायत या गीता (11.33) के अनुसार युद्ध को कर्तव्य मानती। भारतीय संविधान में भी साफ-साफ यही निर्देश है, भारत के प्रत्येक अंग की रक्षा, इसके लिए युद्ध, युद्ध की तैयारी, युद्ध संचालन और युद्ध समाप्ति के बाद प्रभावी सैन्य विनियोजन। बावजूद इसके केंद्र अपने संवैधानिक कर्तव्य से विमुख है। मनमोहन सिंह सरकार के साढ़े तीन वर्ष में ही 12 हृदय विदारक आतंकी घटनाएं हुई। उत्तर प्रदेश के फैजाबाद, वाराणसी और लखनऊ की कचहरियों में बम विस्फोट ताजी घटना है। रामपुर में सीआरपीएफ कैंप की घटना जम्मू-कश्मीर जैसी है। सीआरपीएफ की छावनी पर पूर्वसूचना के बावजूद हमले की कामयाबी साधारण घटना नहीं है। रामपुर हमले को लेकर केंद्र और राज्य आमने-सामने है। केंद्र के मुताबिक उसने राज्य को संभावित हमले की पूर्व सूचना दी थी। राज्य के अनुसार ढिलाई केंद्र की तरफ से है। आतंकवाद से लड़ने की जिम्मेदारी और अपने कर्तव्य निर्वहन से दोनों पल्ला झाड़ गए। बेशक पाकिस्तान जेहादी आतंकवाद का प्रायोजक है। यह भी ठीक है कि आतंकवादी पाकिस्तान से ही आते हैं। केंद्र के पास पाकिस्तान में घुसकर आतंकी कैंप नष्ट करने की राजनीतिक इच्छा शक्ति नहीं है। लचर विदेश नीति के चलते अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां भी भारत के अनुकूल नहीं हैं, लेकिन आतंकियों की सहायता करने वाले स्थानीय सहयोगियों पर ठोस कार्रवाई में आखिरकार क्या कठिनाई है? आस्तीन में घुसे सांपों को खोजने में दिक्कत क्या है? आतंकवाद की मदद करने वाले भारत के ही हैं। आखिरकार पाक आतंकवादियों को रामपुर का रास्ता किसने दिखाया? फैजाबाद, वाराणसी और लखनऊ की कचहरी में बम फोड़कर भागने वाले आतंकवादियों को किसने सुरक्षा मार्ग दिखाया? ऐसे स्थानीय/भारतीय आतंकवादियों की धरपकड़, खोजबीन में दिक्कतें क्या हैं? आतंकवादी युद्ध के मददगार और साजिश में शामिल ऐसे भारतवासियों को सामान्य आपराधिक कानूनों में गिरफ्तार किया जाता है। आतंकवाद पर अलग से कोई कानून नहीं है। पाकिस्तानी आतंकवादी भी हत्या, हत्या के प्रयास आदि सामान्य कानूनों में गिरफ्तार होते हैं और उनके भारतीय मददगार भी। लखनऊ के अधिवक्ताओं ने केंद्र से ज्यादा दिलेरी दिखाई। उन्होंने आतंकवादियों की पैरवी से इनकार किया। परिणामस्वरूप उन पर हमला हुआ। केंद्र आतंकवाद पर कड़ा कानून बनाने से क्यों भाग रहा है? सवाल यह है कि क्या आतंकवाद विरोधी कोई कड़ा कानून बनेगा? सरकार बार-बार इनकार करती है। वह किसे खुश करना चाहती है? क्या उसे पाकिस्तान के नाराज हो जाने का भय सता रहा है? या भारत के भीतर ही कोई बड़ी संगठित ताकत ही आतंकवादियों के विरुद्ध कोई कड़ा कानून नहीं बनने देती? सवाल यह है कि अफजल की फांसी बचाने के लिए केंद्र पर किसका दबाव है? आखिरकार केंद्र ने किसके दबाव में पोटा हटाया? राजग सरकार के 6 वर्ष के कार्यकाल में हुई आतंकी घटनाओं की तुलना में संप्रग शासन के सिर्फ साढ़े तीन बरस में ही ज्यादा निर्दोष मार दिए गए। सवाल राजनीतिक भी हैं। क्यों भाजपा ही आतंकवाद का सवाल बार-बार उठाती है? क्या वोट के लिए? यदि हां तो कांग्रेस भी कड़ाई से यही सवाल उठाकर अपना वोट क्यों नहीं बढ़ाती? वामदल, डीएमके, सपा और बसपा भी आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष का ऐलान क्यों नहीं करते? कह सकते हैं कि भाजपा हिंदुओं की पैरोकार और मुसलमानों की विरोधी है तो क्या आतंकवाद से किसी भी बड़े संघर्ष का मतलब भारतीय मुसलमानों के खिलाफ संघर्ष है? भारतीय मुसलमानों को आतंकवाद का समर्थक नहीं मानना चाहिए, लेकिन सवाल यह है कि अफजल की फांसी की रोक, पोटा की वापसी और आतंकवाद विरोधी किसी नए कानून के न बनाने के सरकारी ऐलान के जरिए किस संगठित शक्ति या संप्रदाय का तुष्टीकरण किया जा रहा है? दरअसल तुष्टीकरण राजनीति ने सभी मुसलमानों को आतंकवाद समर्थक मान लिया है। पोटा इसी वोट बैंक को खुश करने के लिए हटाया गया। अफजल की फांसी भी सभी मुसलमानों से जोड़ी गई है। पोटा जैसे कानून की जद में आतंकवाद समर्थक हजार दो हजार लोग ही आ सकते थे। वे मुसलमान भी हो सकते थे, दीगर पंथ मजहब वाले भी। आतंकवाद को सहूलियत देने वाली सारी नीतियां आम मुसलमान के खाते में डाली गई हैं। आश्चर्य है कि किसी बड़े मुस्लिम नेता या मौलवी ने पूरी कौम को पोटा विरोधी और आतंकवाद समर्थक मानने वाली नीति की निंदा नहीं की। आतंकवाद राष्ट्रीय संप्रभुता पर हमला है। युद्ध के मौकों पर राजनीति नहीं होती। अटल बिहारी वाजपेयी ने भारत-पाक युद्ध के दौरान सभी मतभेद भुलाकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तारीफ की थी। आज स्थिति ठीक उलटी है। प्रमुख विपक्षी दल आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में सहयोग को तत्पर है, पूरा राष्ट्र आतंकवाद से युद्ध चाहता है, लेकिन केंद्र युद्ध विरत और कर्तव्य विमुख है। केंद्र दुश्मन के दोस्तों को खुश करने में संलग्न है। कानून एवं व्यवस्था बेशक राज्यों का विषय है, लेकिन आतंकवाद महज कानून एवं व्यवस्था की समस्या नहीं है। आतंकवादियों का निशाना अब उत्तर प्रदेश है। राजनीति ने सुरक्षा बलों का मनोबल गिराया है। समूचा राष्ट्र व्यथित है। भारत चंद राजनीतिक दलों की जागीर नहीं है। इस युद्ध से राष्ट्र को स्वयं ही लड़ना होगा। हम सब पर युद्ध अनिवार्य किया गया है। (लेखक उप्र सरकार के पूर्व मंत्री हैं) दैनिक जागरण ,January 11, Friday, 2008

नाकामी छिपाने की कोशिश

मीडिया के एक वर्ग पर गुजरात के चुनाव परिणाम की गलत समीक्षा करने का आरोप लगा रहे हैं राजनाथ सिंह सूर्य
गुजरात में नरेन्द्र मोदी की करिश्माई जीत के बाद जो लोग इस तरह के निष्कर्ष निकाल रहे हैं कि मोदी की तो जीत हुई, लेकिन भाजपा हार गई या संघ परिवार के मंसूबों पर पानी फेर गया वे निश्चित रूप से झेंप मिटाने वाली अभिव्यक्तियां हैं। ऐसे विचार वही लोग व्यक्त कर रहे हैं जो गुजरात में मोदी को हराने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार थे। राजनीतिक लोग ऐसा आचरण करें तो उसे एक हद तक स्वाभाविक माना जा सकता है, लेकिन जब लोकतंत्र का प्रहरी और सत्य का उद्घाटन करने के लिए समाचार देने का दावा करने वाला मीडिया जगत इस प्रकार की अभिव्यक्तियां करता है तो आश्चर्य होता है। मीडिया के ऐसे तत्वों को चुनाव के दौरान अपने अभियान का गुजरात की जनता पर पड़े प्रभाव का संज्ञान लेकर अपनी हैसियत का आकलन कर लेना चाहिए, लेकिन ऐसा करने के बजाय वे राजनीतिक लोगों के समान अपनी झेंप मिटाने के लिए समाचार गढ़ने का सिलसिला जारी रखे हैं। निश्चय ही ऐसे मीडियाकर्मियों के अभियान का गुजरात की जनता पर कोई असर नहीं हुआ, लेकिन गुजरात के बाहर का माहौल भाजपा के पराजय की आशंका से तब तक बाहर नहीं निकल सका जब तक चुनाव परिणाम नहीं आ सके। क्या मीडियाकर्मियों को अपने आचरण की समीक्षा नहीं करनी चाहिए? उसे यदि सत्य के उद्घाटन के दावे को पुष्ट रखना है तो इस प्रकार के आचरण से बचना होगा। उम्मीद यह की जाती है कि गुजरात की जनता ने सुशासन के प्रति जो आस्था व्यक्त की है उसे गहराई से समझा जाएगा, क्योंकि आज यह कोई भी देख सकता है कि देश में सुशासन का संकट है। यह देश में सुशासन के अभाव का ही परिणाम है कि आज जनता के बीच निराशा और कुंठा का माहौल है। यह स्थिति केवल गुजरात में नहीं है। इसका कारण नेतृत्व की श्रेष्ठता और उसके प्रति लोगों की निष्ठा है। कांग्रेस ने गुजरात चुनाव में हार स्वीकार कर ली, लेकिन मीडिया का एक तबका आज भी हार मानने के लिए तैयार नहीं है। मीडिया का यह वह तबका है जो लेखों, समाचारों, टीवी चैनल के प्रसारणों में किसी घटना के लिए किसी न किसी की जिम्मेदारी तय करने पर अटका रहता है, लेकिन अब जब स्वयं के लिए वैसा अवसर आया है तब बगलें झांकने लगा है। चुनाव के बाद की समीक्षाओं में यह प्राय: सभी ने बताने का प्रयास किया कि 2002 के मुकाबले भाजपा की दस सीटें कम हो गईं, लेकिन इस तथ्य को शायद ही किसी ने प्रगट करना समीचीन समझा हो कि 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 91 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त मिली थी। इसी आंकड़े को कांग्रेस की सफलता का आधार माना जा रहा था। भाजपा के विद्रोहियों के साथ-साथ कतिपय जातियों में विद्रोह का भी अतिशय ढिंढोरा पीटा गया, लेकिन चुनाव बाद मीडिया में यह तथ्य उजागर नहीं किया गया कि 2004 के मुकाबले कांग्रेस की 32 सीटें कम हो गईं। कांग्रेस इस तथ्य को छिपाने का प्रयास करे, यह स्वाभाविक है, लेकिन मीडिया क्यों छिपा रहा है? निश्चय ही एक मामले में मीडिया के इन तत्वों ने सत्य से परहेज नहीं किया और वह है भाजपा विद्रोहियों की प्रभावहीनता तथा जातीय विद्रोह का आधारहीन होना। जिन लोगों ने इन दोनों तथ्यों को भाजपा के पराजित होने का मुख्य आधार बताने का भरपूर प्रयास किया था उन्होंने इनके अप्रभावी रहने के कारणों में जाने की आवश्यकता नहीं समझी। यदि हम इतिहास पर नजर डालें तो केवल एक बार 1977 को छोड़कर जब जनमानस आपात स्थिति के कारण त्राहिमाम कर रहा था, दूसरा कोई ऐसा अवसर चुनावी राजनीति में नहीं दिखाई पड़ा जब विद्रोहियों के सहारे किसी दल को सफलता मिली हो। उस चुनाव में कांग्रेस से विद्रोह करने वालों को जनता पार्टी में शामिल होने के कारण सफलता मिली थी, न कि उनके शामिल होने से जनता पार्टी को। गुजरात में कांग्रेस ने लगातार अपने कैडर के बजाय भाजपा विद्रोहियों पर भरोसा जताया। 2002 में उसने शंकर सिंह वाघेला और 2007 में केशूभाई पटेल, कांशीराम राणा तथा सुरेश मेहता पर अपनी बाजी लगाई। अतीत के इन सेनानियों में वर्तमान महानायक को परास्त करने की क्षमता उसी प्रकार नहीं है जैसे महाभारत में भीष्म या द्रोणाचार्य में अर्जुन के संदर्भ में नहीं थी। किसी भी राजनेता पर उसके विरोधी भ्रष्टाचार, चरित्रहीनता, जातीयता या भाई-भतीजावाद का आरोप लगाते हैं, लेकिन मोदी पर उनके घोर शत्रुओं, कांग्रेस या मीडिया में भी किसी में ऐसा आरोप लगाने का साहस नहीं हुआ। क्यों? इसी क्यों को यदि समझने की कोशिश की जाए तो गुजरात का चुनाव परिणाम स्वाभाविक लगेगा। तब गुजरात प्रशासनिक व्यवस्था के मामले में अनुकरणीय माडल के रूप में सामने आएगा। जो लोग संघ परिवार के मंसूबों पर पानी फिर जाने के रूप में चुनाव परिणाम को देख रहे है वे वही लोग हंै जो यह मानते हैं कि संघ का कैडर ही भाजपा का कैडर है। यदि यह सही है तो भाजपा के साथ-साथ उसके विरोधी पक्ष की चुनावी व्यवस्था का भी आकलन करना चाहिए। रोड शो में उमड़ी भीड़ कौतूहल युक्त हो सकती है, परिणामकारी नहीं। यह बात एक बार फिर साबित हो गई है। संघ शिक्षा से दीक्षित स्वयंसेवकों ने जिस प्रकार गुजरात में बूथ तक की व्यवस्था बनाई थी उसी का परिणाम है कि गुजरात पहला राज्य साबित हुआ है जहां एक बूथ पर भी पुन: मतदान नहीं हुआ। गुजरात की जनता ने मोदी को घेरने के सारे चक्रव्यूह को इसलिए ध्वस्त कर दिया, क्योंकि उन्हें मोदी में वह सब मिला जो नेतृत्व प्रदान करने वाले के व्यक्तित्व में अपेक्षित होता है। मोदी ने कहा भी है कि स्वयंसेवक के रूप में दायित्व के प्रति निष्ठा और समर्पण से उन्होंने अपने कर्तव्य पालन को सदैव प्राथमिकता दी है। मोदी डा. हेडगेवार की कल्पना में आदर्श स्वयंसेवक साबित हुए हैं। यही कारण है कि गुजरात की जनता ने सभी विषाक्त हमलों को नाकाम कर दिया। (लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं) दैनिक जागरण ,January 10, Thursday, 2008