Saturday, July 19, 2008

अल्पसंख्यकों पर कुछ यूं फिदा हुए सरकारी बैंक

यूपीए सरकार ने सत्ता संभालने के साथ ही बैंकों के जरिए अल्पसंख्यकों को लुभाने का जो अभियान तीन वर्ष पहले शुरू किया था, वह अब परवान चढ़ता नजर आ रहा है। अभी तक अल्पसंख्यकों को कर्ज देने में आनाकानी करने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक अब उन्हें आगे बढ़कर गले लगाने को तैयार हैं। केवल पिछले वित्त वर्ष 2007-08 के दौरान अल्पसंख्यक बहुल जिलों में 523 बैंक शाखाएं खोली गई हैं। इन जिलों में इतनी बैंक शाखाएं पिछले पांच वर्षो के दौरान भी नहीं खोली गई थीं। यही नहीं सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने अगले तीन वर्षो के भीतर अल्पसंख्यक समुदाय को दिए जाने वाले कर्जो को बढ़ाने के लिए एक विशेष योजना भी तैयार कर ली है। इस बारे में सार्वजनिक क्षेत्र के सभी 28 बैंकों ने अपने स्तर पर अलग- अलग योजना की रूपरेखा तैयार की है। इसके तहत देश में दिए जाने वाले कुल बैंकिंग कर्ज में अल्पसंख्यकों की मौजूदा 9 फीसदी की हिस्सेदारी को बढ़ाकर 15 फीसदी किया जाएगा। सरकारी बैंकों की इस योजना को रिजर्व बैंक की भी मंजूरी मिल गई है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए कर्ज वितरण की विभिन्न सरकारी योजनाओं में अल्पसंख्यक समुदाय की हिस्सेदारी सुनिश्चित की जाएगी। बैंकों के भीतर अब एक प्रकोष्ठ का भी गठन किया जा रहा है जो अल्पसंख्यकों को दिए जाने वाले कर्ज पर विशेष नजर रखेगा। उधर,आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि अल्पसंख्यक बहुल जिलों में बैंकों की शाखाओं को खोलने में सरकार ने राजनीतिक नफा-नुकसान का पूरा ध्यान रखा है। सबसे ज्यादा ध्यान उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश को दिया गया है। उत्तर प्रदेश के विभिन्न अल्पसंख्यक बहुत जिलों में सरकारी बैंकों की 118 नई शाखाएं खोली गई हैं। (दैनिक जागरण, 19 ज़ुलाई 2008)

Thursday, July 17, 2008

बांग्लादेश में हिंदुओं के लिए नई मुसीबत

ढाका, एजेंसी : बांग्लादेश में रह रहे हिंदू अल्पसंख्यकों के सामने आए दिन कोई कोई मुसीबत खड़ी होती रहती है। यहां के हिंदुओं के लिए नई चिंता का विषय देश की कार्यवाहक सरकार द्वारा प्रस्तावित नया संपत्ति कानून है। वैसे तो 1947 में भारत विभाजन के बाद से ही यहां हिंदुओं की जमीनों पर जबरन कब्जे की घटनाएं होती रहती हैं। लेकिन, चिंता जताई जा रही है कि नए कानून की आड़ में हिंदुओं की जमीनों पर जबरन कब्जे की घटनाएं और तेज हो जाएंगी। देश के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, वकीलों और गैर सरकारी संगठनों ने सैन्य समर्थित सरकार से प्रस्तावित वेस्टिड प्रापर्टी वेरिफिकेशन, सिलेक्सन एंड सेटलमेंट आर्डिनेंस, 2008 को लागू नहीं करने की मांग की है। स्थानीय अखबार डेली स्टार के मुताबिक बुद्धिजीवियों का कहना है कि अल्पसंख्यक समुदाय के भूमि विवाद सुलझाने के लिए वेस्टिड प्रापर्टी रिटर्न एक्ट 2001 पर्याप्त है। उन्होंने सरकार से गुजारिश की है कि नया कानून लाने की कोई जरूरत नहीं है। पाकिस्तान के निर्माण के बाद जब यहां रहने वाले लाखों हिंदू भारत चले गए तो उनकी जमीनों की देखरेख कर रहे रिश्तेदारों से जमीनें जबरन कब्जा ली गईं। इस वजह से अदालतों में भूमि विवाद के हजारों मुकदमे चल रहे हैं।

जम्मू में फिर बंद में बंध गई जिंदगी

जागरण संवाददाता, जम्मू : शहर व इसके आसपास के तमाम इलाकों में बुधवार को आम जनजीवन फिर हिंदू संगठनों के बंद में बंधी रही। शहर व कस्बों में बाजार पूरी तरह बंद रहे और शिक्षा संस्थानों समेत बैंकों में अवकाश रहा। सरकारी कार्यालयों में भी कर्मचारियों की उपस्थित कम रहने से कामकाज प्रभावित रहा। सड़कों पर दिनभर सन्नाटा पसरा रहा। कुछेक इलाकों में ही थोड़ी देर के लिए वाहनों की आवाजाही हो पाई। इससे सबसे ज्यादा परेशानी माता वैष्णो देवी के श्रद्धालुओं को पेश आई। हिंदू संगठनों की अमरनाथ यात्रा संघर्ष समिति के आह्वान पर बुधवार को जम्मू पूर्ण बंद रहा। शहर की प्राइवेट बस यूनियन, मेटाडोर यूनियन, आटो यूनियन व टैक्सी यूनियन ने भी बंद को पूर्ण समर्थन दिया। यहां तक कि रेहड़ी वालों ने भी कारोबार बंद रखा। (दैनिक जागरण, 17 जुलाई, 2008)

Wednesday, July 16, 2008

कश्मीरियत की असलियत

अमरनाथ श्राइन बोर्ड मामले को कश्मीर में हिंदू विरोधी मानसिकता का प्रमाण बता रहे हैं एस.शंकर
कश्मीरी मुस्लिम नेता कश्मीरी हिंदुओं को मार भगाने संबंधी अपना पाप छिपाने तथा शेष भारत के हिंदुओं को बरगलाने के लिए कश्मीरियत का हवाला देते है, लेकिन असंख्य बार धोखा खाकर भी हिंदू वर्ग कुछ नहीं समझता। अभी-अभी मुफ्ती मुहम्मद सईद और महबूबा मुफ्ती ने जिस तरह जम्मू-कश्मीर सरकार को गिराया वह कश्मीरियत की असलियत का नवीनतम उदाहरण है। प्रांत में तीसरे-चौथे स्थान की हस्ती होकर भी मुफ्ती और उनकी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने तीन वर्ष तक मुख्यमंत्री पद रखा। विधानसभा चुनाव में पीडीपी को 13 सीटे और तीसरा स्थान मिला था, जबकि पहले स्थान पर रही कांग्रेस को 20 सीटे मिली थीं, फिर भी कांग्रेस ने पीडीपी को पहला अवसर दे दिया। कांग्रेस ने आधी-आधी अवधि के लिए दोनों पार्टियों का मुख्यमंत्री बनाने का फार्मूला माना था। जब आधी अवधि पूरी हुई तब पहले तो मुफ्ती ने समझौते का पालन करने के बजाय मुख्यमंत्री बने रहने के लिए तरह-तरह की तिकड़में कीं। अंतत: जब कांग्रेस ने अपनी बारी में अपना मुख्यमंत्री बनाना तय किया तो मुफ्ती ने 'नाराज न होने' का बयान दिया। तभी से वह किसी न किसी बहाने सरकार से हटने या उसे गिराने का मौका ढूंढ रहे थे। अमरनाथ यात्रा के यात्रियों के लिए विश्राम-स्थल बनाने के लिए भूमि देने से उन्हें बहाना मिल गया। इसीलिए उस निर्णय को वापस ले लेने के बाद भी मुफ्ती और उनकी बेटी ने सरकार गिरा दी। भारत का हिंदू कश्मीरी मुसलमानों से यह पूछने की ताब नहीं रखता कि जब देश भर में मुस्लिमों के लिए बड़े-बड़े और पक्के हज हाउस बनते रहे है, यहां तक कि हवाई अड्डों पर हज यात्रियों की सुविधा के लिए 'हज टर्मिनल' बन रहे है और सालाना सैकड़ों करोड़ रुपये की हज सब्सिडी दी जा रही है तब अमरनाथ यात्रा पर जाने वाले हिंदुओं के लिए अपने ही देश में अस्थाई विश्राम-स्थल भी न बनने देना क्या इस्लामी अहंकार, जबर्दस्ती और अलगाववाद का प्रमाण नहीं है?
चूंकि कांग्रेस और बुद्धिजीवी वर्ग के हिंदू यह प्रश्न नहीं पूछते इसलिए कश्मीरी मुसलमान शेष भारत पर धौंस जमाना अपना अधिकार मानते है। वस्तुत: इसमें इस्लामी अहंकारियों से अधिक घातक भूमिका सेकुलर-वामपंथी हिंदुओं की है। कई समाचार चैनलों ने अमरनाथ यात्रियों के विरुद्ध कश्मीरी मुसलमानों द्वारा की गई हिंसा पर सहानुभूतिपूर्वक दिखाया कि 'कश्मीर जल रहा है'। मानों मुसलमानों का रोष स्वाभाविक है, जबकि यात्री पड़ाव के लिए दी गई भूमि वापस ले लेने के बाद जम्मू में हुए आंदोलन पर एक चैनल ने कहा कि यह बीजेपी की गुंडागर्दी है। भारत के ऐसे पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और नेताओं ने ही अलगावपरस्त और विशेषाधिकार की चाह रखने वाले मुस्लिम नेताओं की भूख बढ़ाई है। इसीलिए कश्मीरी मुसलमानों ने भारत के ऊपर धीरे-धीरे एक औपनिवेशिक धौंस कायम कर ली है। वे उदार हिंदू समाज का शुक्रगुजार होने के बजाय उसी पर अहसान जताने की भंगिमा दिखाते है। पीडीपी ने कांग्रेस के प्रति ठीक यही किया है। इस अहंकारी भंगिमा और विशेषाधिकारी मानसिकता को समझना चाहिए। यही कश्मीरी मुसलमानों की 'कश्मीरियत' है। यह मानसिकता शेष भारत अर्थात हिंदुओं का मनमाना शोषण करते हुए भी उल्टे सदैव शिकायती अंदाज रखती है। जो अंदाज छह वर्षो से मुफ्ती और महबूबा ने दिखाया वही फारुख अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर का भी था। वाजपेयी सरकार में मंत्री रहते हुए भी उनकी पार्टी ने लोकसभा में वाजपेयी सरकार के विश्वास मत के पक्ष में वोट नहीं दिया था। वह मंत्री पद का सुख भी ले रहे थे और उस पद को देने वाले के विरोध का अंदाज भी रखते थे। जैसे अभी मुफ्ती ने कांग्रेस का दोहन किया उसी तरह जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री के रूप में फारुक अब्दुल्ला ने भाजपा का दोहन किया। पूरे पांच वर्ष वह प्रधानमंत्री वाजपेयी से मनमानी इच्छाएं पूरी कराते रहे। जम्मू और लद्दाख क्षेत्र कश्मीरी मुसलमानों की अहमन्यता और शोषण का शिकार रहा है।
जम्मू और लद्दाख भारत का पूर्ण अंग बनकर रहना चाहते है। इन क्षेत्रों को स्वायत्त क्षेत्र या केंद्र शासित प्रदेश बनाने की मांग लंबे समय से स्वयं भाजपा करती रही। फिर भी केंद्र में छह साल शासन में रहकर भी उसने फारुक अब्दुल्ला को खुश रखने के लिए जम्मू और लद्दाख की पूरी उपेक्षा कर दी। यहां तक कि पिछले विधानसभा चुनाव में फारुक अब्दुल्ला को जिताने की खातिर भाजपा ने जम्मू-कश्मीर में गंभीरता से चुनाव ही नहीं लड़ा। बावजूद इसके जैसे ही लोकसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन पराजित हुआ, फारुख ने उससे तुरंत पल्ला झाड़ लिया। इस मानसिकता को समझे बिना कश्मीरी मुसलमानों को समझना असंभव है। वाजपेयी सरकार के दौरान एक तरफ फारुख अब्दुल्ला ने तरह-तरह की योजनाओं के लिए केंद्र से भरपूर सहायता ली, जबकि उसी बीच जम्मू-कश्मीर विधानसभा में राज्य की 'और अधिक स्वायत्तता' के लिए प्रस्ताव पारित कराया। एक तरह से यह वाजपेयी के साथ विश्वासघात जैसा ही था। यदि वह प्रस्ताव लागू हो तो जम्मू-कश्मीर में मुख्यमंत्री नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री होगा। साथ ही वे तमाम चीजें होंगी जो उसे लगभग एक स्वतंत्र देश बना देंगी,मगर उसके सारे तामझाम, ठाट-बाट, सुरक्षा से लेकर विकास तक का पूरा खर्चा शेष भारत को उठाते रहना होगा। इस तरह कश्मीरी मुसलमान एक ओर भारत से अलग भी रहना चाहते है और दूसरी तरफ इसी भारत के गृहमंत्री, उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति और मौका मिले तो प्रधानमंत्री भी होना चाहते है। मुफ्ती मुहम्मद सईद, फारुख अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला तथा अन्य कश्मीरी मुस्लिम नेताओं के तमाम राजनीतिक लटके-झटके केवल एक भाव दर्शाते है कि वे भारत से खुश नहीं है। यही कश्मीरियत की असलियत है। कश्मीरी मुस्लिम नेतै, चाहे वे किसी भी राजनीतिक धारा के हों, शेष भारतवासियों को बिना कुछ दिए उनसे सिर्फ लेते रहना चाहते है। इस मनोविज्ञान को समझना और इसका इलाज करना बहुत जरूरी है, अन्यथा विस्थापित कश्मीरी हिंदू लेखिका क्षमा कौल के अनुसार पूरे भारत का हश्र कश्मीर जैसा हो जाएगा। दैनिक जागरण, 16 जुलाई 2008)

Tuesday, July 15, 2008

अलगाववादियों के अभियान

देश के दूसरे राज्यों से आकर जम्मू-कश्मीर में काम करके रोजी-रोटी कमाने वाले मजदूरों के खिलाफ अलगाववादियों ने एक बार फिर अभियान छेड़ दिया है। हालांकि हुर्रियत कान्फ्रेंस ने ऐसे तत्वों से फिलहाल अल्टीमेटम वापस लेने की अपील भी की है, लेकिन इसका कोई खास असर अल्टीमेटम देने वालों पर नहीं पड़ रहा है। यह अपील हुर्रियत ने सिर्फ कुछ दिनों के लिए की है, ताकि जनमत उनके खिलाफ न हो जाए। जबकि मजदूरों के खिलाफ अलगाववादियों के अल्टीमेटम और उनके अभियान का असर पूरे राज्य पर पड़ रहा है। इससे बाहरी राज्यों से आकर यहां काम करने वाले मजदूर तो प्रभावित हो ही रहे हैं, राज्य की कृषि और अर्थव्यवस्था पर भी इसका बुरा असर पड़ रहा है। हालत यह है कि घाटी में बाहरी मजदूरों के खिलाफ ऐसा माहौल बना दिया गया है कि कोई वहां टिके ही नहीं। पहले तो उन्हें कश्मीर छोड़ने की धमकी दी गई। इसके बाद उन्हें घरों से बाहर निकाल कर पीटने और उनकी जमा-पूंजी छीनने जैसा जघन्य कृत्य भी किया गया। हैरत की बात यह है कि ऐसे अराजक तत्वों को रोकने वाला इस राज्य में कोई नहीं है। असामाजिक तत्व पूरे राज्य में अपनी मनमर्जी चला रहे हैं। जब जैसा चाहें फरमान जारी कर देते हैं और लोग उसे मानने के लिए विवश होते हैं, पर पुलिस प्रशासन इनके खिलाफ कोई कार्रवाई करने में स्वयं को सक्षम नहीं पाता है। देश के दूसरे राज्यों से यहां आकर मजदूरी करने वाले लोगों के खिलाफ अभियान यहां कोई पहली बार नहीं चलाया जा रहा है। इसके पहले भी ऐसा हो चुका है। पहले उनके साथ सिर्फ लूटपाट की त्रासदी होती थी। मजदूरों की जमापूंजी छीनकर उन्हें भगा दिया जाता था। लेकिन अब स्थितियां ज्यादा बदतर हो गई हैं। बात केवल उनकी जमापूंजी छीनने तक सीमित नहीं रही। अब उनकी राष्ट्रीयता की भावना को आहत करने की पूरी कोशिश की जा रही है। ऐसी जगह पर जहां वे निराश्रित, अकेले और कमजोर हैं, उनकी गैरत को ललकारा जा रहा है। मजदूरों को पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगाने के लिए विवश किया जा रहा है। ऐसा राष्ट्रविरोधी कार्य करने की तुलना में आम भारतीय कश्मीर छोड़कर वापस अपने राज्य में लौट जाना पसंद करता है। दुखद बात यह है कि जम्मू-कश्मीर की सरकार या पुलिस-प्रशासन ऐसे तत्वों के खिलाफ कोई भी प्रभावी कदम उठाने में पूरी तरह नाकाम है। ऐसी स्थिति में अलगाववादियों पर काबू पाना वहां कैसे संभव होगा, यह सोचने की बात है। सच तो यह है कि कश्मीर में अलगाववादी पूरी तरह हावी होते जा रहे हैं। शासन और प्रशासन यह सब देख रहा है। इसके बावजूद वह कोई ठोस और प्रभावी कदम अलगाववादियों के खिलाफ नहीं उठा पा रहा है। वे जब जहां चाहते हैं हड़ताल करवा देते हैं। कभी धरना, कभी प्रदर्शन और कभी दंगे जैसे हालात बना देते हैं। यहां तक कि पाकिस्तानी झंडा फहराने जैसा राष्ट्रद्रोही कार्य भी वहां किया जा चुका है। ऐसा करने वाले लोग वहां आज भी खुलेआम घूम रहे हैं, क्योंकि उन्हें राजनीतिक संरक्षण प्राप्त है। यही नहीं, इनके राष्ट्रविरोधी प्रदर्शनों में स्थानीय नागरिकों को अक्सर न चाहते हुए भी शामिल होना पड़ता है। चूंकि स्थानीय प्रशासन आम लोगों की सुरक्षा कर पाने में नाकाम है, लिहाजा आम नागरिकों को इनके इशारे पर नाचना पड़ता है। वे जो कुछ भी चाहते हैं, वह उन्हें करना पड़ता है। आतंकवादियों को आम नागरिकों के घरों में शरण देने से लेकर उनके हथियार और गोला-बारूद छिपाने तक के अपराध आम जनता को इसीलिए करने पड़ते हैं। जाहिर है, जिनके पास भाग कर जाने के लिए भी कोई जगह नहीं है और जो पूरी तरह अलगाववादियों की दया पर ही निर्भर हैं, उन्हें उनके इशारों पर नाचना ही पड़ेगा। यह प्रशासनिक तंत्र की कमजोरी का ही नतीजा है, जो वहां अलगाववादी तत्व पूरे माहौल पर हावी हो गए हैं। अभी हाल ही में श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को अस्थायी निर्माण के लिए जंगल की जमीन दिए जाने को लेकर जो कुछ हुआ वह प्रशासनिक तंत्र की कमजोरी का ही नतीजा है। अगर प्रशासनिक तंत्र मजबूत इच्छाशक्ति के साथ काम कर रहा होता तो वहां इस बात को लेकर किसी तरह का बवाल होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। परंतु इस मसले पर वहां पूरा बवाल हुआ और पूरा प्रशासन आम तौर पर मूकदर्शक बन कर देखता रहा। कश्मीरी पंडितों को अपने घर-खेत छोड़कर बाहर भागना पड़ा। आज वे दिल्ली और देश के अन्य शहरों में शरणार्थियों की तरह जिंदगी जी रहे हैं। पुरखों की संपत्ति से तो उन्हें वंचित होना ही पड़ा। यह आखिर किसकी कमजोरी है? भारतभूमि से प्रेम की कीमत उन्हें अपनी ही संपत्ति से वंचित होकर और अपने ही देश में शरणार्थी की तरह जीवन जीकर चुकानी पड़ रही है। इन सारी स्थितियों के लिए जिम्मेदार आखिर किसे माना जाए? अलगाववादी तत्व पूरे कश्मीर में खुलेआम घूम रहे हैं। वहां वे युवकों-युवतियों को वरगला रहे हैं। शरीफ नागरिकों को धमका रहे हैं और उन्हें पाकिस्तान के समर्थन तथा भारत के विरोध के लिए मजबूर कर रहे हैं। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो सरकार को मालूम न हो। सब कुछ पुलिस, खुफिया एजेंसियों और प्रशासन की नजर के सामने खुलेआम हो रहा है। इसके बावजूद किसी अलगाववादी तत्व के खिलाफ न तो कोई कठोर कार्रवाई की जा रही है और न उनकी नापाक हरकतों पर रोक लगाने की कोई गंभीर कोशिश ही दिखाई दे रही है। इन हालात को देखते हुए ऐसा लगने लगा है गोया कश्मीर अब पूरी तरह अराजक तत्वों के हवाले छोड़ दिया गया है। ऐसी स्थिति में दूसरे राज्यों से यहां आए मजदूर तो लौटकर अपने घर चले जाएंगे। वे वहीं मजदूरी करके जी लेंगे या थोड़े दिन बेरोजगार रह लेंगे। फिर कहीं और चले जाएंगे। लेकिन उन स्थानीय नागरिकों का क्या होगा, जो यहीं के रहने वाले हैं? क्या वे खुद को अलगाववादियों के रहमो-करम पर जीने को विवश मान लें या फिर सरकार उनकी जान-माल की सुरक्षा का कोई बंदोबस्त करेगी? सच तो यह है कि जब तक कश्मीर में आम नागरिकों की सुरक्षा के पुख्ता बंदोबस्त नहीं हो जाते तब तक वहां शांति सुनिश्चित हो पानी मुश्किल है। उस वक्त तक वहां आम आदमी को मुट्ठी भर राष्ट्रविरोधी तत्वों के रहमो-करम पर जीना पड़ेगा। यह न तो कश्मीर और वहां की जनता के लिए सही बात होगी और न अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि के लिए ही। सरकार को इस मसले का कोई न कोई ठोस और प्रभावी समाधान तो निकालना ही पड़ेगा। बेहतर होगा कि इसके लिए अभी से ही सुनियोजित तरीके से काम शुरू कर दिया जाए। उन कारणों की पड़ताल की जाए जिनके नाते वहां पूरे माहौल पर अलगाववादी तत्व हावी हैं। इसके बाद उन पर नियंत्रण की पूरी व्यवस्था बनाई जाए और उस पर क्रमबद्ध तरीके से अमल किया जाए। यह तो अब तय ही हो चुका है कि यह काम आसानी से होने वाला नहीं है, इसलिए इस संबंध में सरकार को पूरी कड़ाई बरतने के लिए भी पहले से तैयार रहना चाहिए।(दैनिक जागरण , १५ जुलाई २००८)

Sunday, June 22, 2008

हिंदू जनजागृति समिति

मुंबई पुलिस की आतंकवाद निरोधक दस्ते ने ठाणे के थियेटर आडिटोरियम में विस्फोट के संबंध में स्थानीय दक्षिणपंथी संगठन हिंदू जनजागृति समिति के दो सदस्यों को आज गिरफ्तार किया। एक स्थानीय अदालत ने गिरफ्तार किए गए दोनों व्यक्तियों मंगेश निकम और रमेश गड़करी को 24 जून तक पुलिस हिरासत में भेज दिया। ठाणे के गड़करी रंगायतन आडिटोरियम में अमही पचुपुर्तें नामक नाटक के प्रदर्शन के दौरान चार जून को हुए हल्के विस्फोट में सात लोग घायल हो गए थे। 

इसके पहले समिति ने इस नाटक का विरोध किया था। उनका आरोप था कि नाटक में पौराणिक चरित्रों को गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया था जिससे हिन्दुओं की भावनायें आहत होती है। मुंबई 16 जून (भाषा)

Wednesday, April 23, 2008

नेपाल में भारत की हार

नेपालियों की मनोदशा भांपने में मिली विफलता को भारत की भूल बता रहे हैं कुलदीप नैयर

नेपाल के चुनाव परिणाम से भारत को हैरानी नहीं होनी चाहिए। भारत पहले राजशाही के साथ डटा रहा और फिर एक नाकारा राजनीतिक दल के साथ। यह नई दिल्ली की असफलता है कि वह नेपाली जनता की मनोदशा का अनुमान लगाने में विफल रही। यह चिंता की बात होनी चाहिए, क्योंकि भारत और नेपाल के संबंधों का विस्तार कुछ माह का नहीं अपितु वर्षो का है। नेपाल के लोगों की सोच बदल रही थी, किंतु कल्पनालोक में खोई नई दिल्ली राजशाही और अपनी पुरानी मित्र नेपाली कांग्रेस को बचाने में लगी रही। अब नेपाल नरेश जाने ही वाले हैं। भारत ने अधिकारिक बयान दिया है कि उसका सरोकार काठमांडू की नई सरकार से है। इससे जाहिर है कि वहां जो हुआ, भारत की इच्छा के विपरीत हुआ और अब जब वैसा हो ही गया है तो वह उसे स्वीकार्य है। नई दिल्ली की चाहत चाहे जो हो, लोगों ने चुनाव में नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) को चुन लिया है। उनके चुनाव पर टीका-टिप्पणी करने वाले हम कौन होते हैं! जनादेश माओवादियों के पक्ष में और भारत के विरुद्ध है। नेपाली देख रहे थे कि नई दिल्ली उनके मामलों में बेवजह टांग अड़ा रहा है। माओवादियों ने चुनाव सभाओं में भारत के बड़े भाई तुल्य रवैये का मुद्दा उछाला था। नेपाल के साथ हमारी संधि भी नेपालियों के मनमाफिक नहीं है। हमें उसे बहुत पहले ही निरस्त कर देना चाहिए था। जब उनकी यही इच्छा थी तो हमने ऐसा क्यों नहीं किया? मैं यह भी नहीं समझ पा रहा कि पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति कार्टर ने अमेरिका से नेपाल में हुए परिवर्तन को मान्यता देने का अनुरोध क्यों किया है? अमेरिका विश्व का सर्वाधिक शक्तिशाली लोकतंत्र है। उसे यह एहसास होना चाहिए कि चाहे कितना भी अप्रिय क्यों न हो, स्वतंत्र और निष्पक्ष निर्वाचन का परिणाम ही निर्णायक और अंतिम होता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई देश किसी दूसरे देश की सरकार को पसंद करता है या नहीं। महत्व तो जनता की स्वतंत्र इच्छा का है। कार्टर चुनाव के पर्यवेक्षक रहे हैं इसलिए उन्हें यह बात बेहतर ढंग से पता होनी चाहिए। नेपालियों ने जो किया है उसे समझने और सराहने वाले लोग अब भी बहुत कम हैं। वहां सामंती समाज है, जो लगभग 235 वर्ष तक इस धारणा से ग्रस्त रहा कि महाराजा ही ईश्वर है और उसी के शासन में समृद्धि है। वहां इतनी अधिक असमानताएं हैं कि अतीत के विरुद्ध उठी आवाज को समर्थन नहीं मिलता। उम्मीद जाग रही है कि अब उनकी हालत में सुधार आएगा। माओवादी नेता प्रचंड ने इन्हीं परिस्थितियों का इस्तेमाल किया है। दो वर्ष पूर्व जब राजशाही के खात्मे की की मांग के समर्थन में सारा काठमांडू सड़कों पर उमड़ पड़ा था तो यह शोषित समाज की स्वयं को स्वतंत्र करने की उत्कंठा ही थी। देश को गणराज्य में बदलने के आश्वासन ने जनता में बदलाव की उम्मीद जगा दी। उन्होंने परिवर्तन के पक्ष में मतदान किया है। उन्हें भरोसा है कि लोगों की स्थिति में सुधार होगा। माओवादी इस कारण चुनाव में विजयी नहीं हुए हैं कि मतदाता उनकी विचारधारा से प्रभावित हैं। मतदाताओं को भरोसा है कि माओवादियों ने एक अलग अर्थव्यवस्था लाने का जो वचन दिया है उसे पूरा कर वे उन्हें गरीबी से उबारेंगे। यह सच है कि लोग भयभीत भी थे। माओवादी वर्षो से बंदूक के बल पर गांवों में अपनी हुकूमत चला रहे थे। यह भी कोई छिपी बात नहीं कि माओवादियों ने अपने सारे हथियार नहीं सौंपे, जबकि चुनाव से काफी समय पहले उन्होंने ऐसा करने पर सहमति जताई थी। इसके बावजूद लोगों के सामने कोई विकल्प नहीं था। महाराजा को वे खारिज कर चुके थे। वे फिर से नेपाली कांग्रेस की शरण में जाना नहीं चाहते थे, जिसे उन्होंने बार-बार परखा था और उनके हाथ निराशा ही लगी थी। यह देखना मजेदार था कि चुनावी पोस्टरों में कार्ल मा‌र्क्स, लेनिन और एंगेल्स के चित्रों के साथ स्टालिन को भी स्थान दिया गया। स्टालिन ने उन लाखों लोगों को मौत के घाट उतार दिया था, जिन्होंने उनसे असहमत होने का साहस दिखाया था। स्टालिन की तस्वीर कोलकाता स्थित माकपा के मुख्यालय में भी टंगी हुई है, जबकि वह मुख्यधारा में शामिल है और लोकतांत्रिक प्रणाली में आस्था जताती है। नेपाल में माओवादी भी जब सत्ता संभालेंगे तो ऐसा ही करेंगे। अगर उनसे मोहभंग हुआ तो तब होगा, जब वे अपना वचन नहीं निभा पाएंगे। माकपा के मामले में पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में ऐसा ही हुआ है। कौन जानता है कि नेपाल में माओवादी भी इसी बात को तर्कसंगत मानने लगें कि पूंजीवादी प्रणाली में कल्याणकारी राज्य की स्थापना संभव नहीं है, जैसा कि माकपा कर रही है। भारत में नक्सलवादी, जिन्हें माओवादी भी कहा जाता है, जो कुछ कर रहे हैं, मैं उसका घोर विरोधी हूं। वे खूनखराबे और आपराधिक गतिविधियों में लिप्त हैं। वे लोकतांत्रिक प्रणाली के प्रति अपने विरोध को नहीं छिपाते। वे मुख्यधारा में भी शामिल नहीं होना चाहते। उनकी आस्था जोर जबरदस्ती में है, आम सहमति में नहीं। यही एक ठोस कारण है कि नेपाल और भारत के माओवादी हाथ नहीं मिला पाएंगे। इनमें से एक व्यवस्था के स्थापित मूल्यों के प्रति आस्थावान है जबकि दूसरा उसके खिलाफ है। भारतीय माओवादी नेपाली माओवादियों के चरमपंथी गुटों को समर्थन दे सकते हैं ताकि पशुपति से तिरुपति तक लाल गलियारे का विस्तार हो सके। नेपाल का उदाहरण दक्षिण एशियाई क्षेत्र को सीख दे सकता है, अगर वह लेना चाहे तो। निर्धनता दुस्साहसिक प्रतिकार को जन्म देती है। सामंती व्यवस्था लोकतंत्र को नकारती है। नैराश्यभाव और हताशा का बोध लोगों को विद्रोह पर आमादा करता है। वे तब विद्रोह के रास्ते पर चलते हैं, जब यह मान लेते हैं कि दमनकारी व्यवस्था से मुक्ति पाने के लिए हिंसा के अलावा कोई चारा नहीं है। लोकतंत्र जनता को नाकारा और दमनकारी शासन के खिलाफ वोट का शांतिपूर्ण विकल्प प्रदान करता है। नेपालियों ने यही किया है। अब माओवादियों को इस सवाल का जवाब देना है कि क्या उनमें लोगों की हालत सुधारने की योग्यता और संकल्प शक्ति है। जिस चुनाव में माओवादी विजयी हुए हैं वह संविधान सभा के गठन हेतु हुआ है। यदि संविधान में वादे साकार रूप नहीं ले पाए तो लोग ही माओवादियों को उखाड़ फेंकेंगे। जब मैं काठमांडू में कुछ माओवादी नेताओं से मिला था तो उन्होंने कहा था कि यदि वे चुनाव में हार गए तो भी हथियार नहीं उठाएंगे। लोकतंत्र इसी तरह कारगर होता है। लोग अपने कर्णधारों को बदल देते हैं। मैं इस बारे में सुनिश्चित नहीं हूं कि जो माओवादी हिंसा के बल पर उभरे हैं वे यदि सत्ता को हाथ से खिसकता महसूस करेंगे तो अपने वचन को निभाएंगे या नहीं? महात्मा गांधी कहते थे कि यदि साधन दूषित होंगे तो परिणाम भी दूषित ही आएंगे। दुर्भाग्य से भारत गांधीजी की सलाह पर नहीं चल सका, हालांकि उसने आजादी अहिंसात्मक उपायों से ही प्राप्त की। अमेरिका निरंतर अहसास दिला रहा है कि उसने दमनकारी कानूनों से समझौता किया है। दरअसल, आज अमेरिका में इतना बदलाव आ चुका है कि वह पहचान में ही नहीं आ रहा है। नेपाल के माओवादियों को उसका अनुसरण नहीं करना चाहिए। उन्होंने देश-दुनिया को फिर से बंदूक न उठाने का जो वचन दिया है उस पर जिज्ञासु लोगों की नजरें लगी रहेंगी। (लेखक जाने-माने स्तंभकार हैं) दैनिक जागरण, April 23, Wednesday , 2008

Saturday, April 19, 2008

आतंक पर अधूरी पहल

आतंकवाद के खिलाफ मुस्लिम विद्वानों की पहल को अपर्याप्त मान रहे हैं राजनाथ सिंह सूर्य
देवबंद के बाद कुछ अन्य शहरों मे भीं इस्लामिक विद्वान, सामाजिक कार्यकर्तां और विचारक आतंकवाद के मुद्दे पर चर्चा कर रहे हैं और इससे संबंधित कतिपय सवालों के जवाब खोजने की चेष्टा कर रहे हैं। ऐसी ही एक चेष्टा पिछले दिनों बरेली में भी हुई। यहां यह ध्यान रहे कि जेहादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद के संस्थापक मौलाना मसूद अजहर और लश्कर-ए-तोयबा के जन्मदाता सैयद हाफिज सईद देवबंद के दारुल उलूम की शिक्षाओं से ही शिक्षित हुए हैं। इस लिहाज से यह सुखद आश्चर्य का विषय है कि दारुल उलूम परिसर में आतंकवाद के विरुद्ध पहल की शुरुआत हुई। दारुल उलूम देवबंद का स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान रहा है तथा कांग्रेस से उसके संचालकों का जुड़ाव उसके राष्ट्रवादी स्वरूप का संज्ञान कराता रहा है, किंतु शनै:-शनै: उसकी पहचान में बदलाव होता गया। पाकिस्तान ने भारत के साथ प्रत्यक्ष युद्ध में बार-बार शिकस्त खाने के बाद उसी इस्लामी आतंकवाद को हथियार बनाया जिसने अफगानिस्तान में रूढि़वादिता की पराकाष्ठा का आग्रह कर पहले रूस को पस्त किया और अब अमेरिका को नाकों चने चबवा रहा है। अमेरिका और पाकिस्तान ने जिस आतंकवाद को पाल-पोसकर पुष्ट किया वही अब इनका सबसे बड़ा शिकार बन गए हैं। भारत में गृह युद्ध फैलाने की नीयत से पाकिस्तान ने जो दस्ते तैयार किए उनके कृत्यों का ज्यों-ज्यों पर्दाफाश होने लगा त्यों-त्यों मुस्लिम समुदाय को समझ में आने लगा कि उन्हें जिस राह पर ले जाया जा रहा है वह कांटों से भरी है। स्वयं दारुल उलूम संदेह के घेरे में आ गया था तथा मदरसा शिक्षा पर प्रश्नचिह्न लगने लगा था। इसलिए मुसलमानों में यह सोच पैदा होना स्वाभाविक ही है कि आतंकी घटनाओं को अंजाम देने वाले मुट्ठी भर लोगों के कारण संपूर्ण मुस्लिम समुदाय तथा मजहबी और शिक्षा संस्थाओं पर संदेह के जो बादल छा गए हैं उनका छंटना जरूरी है। इसी घोषित उद्देश्य से अखिल भारतीय मदरसा इस्लामिया ने आतंक विरोधी सम्मेलन का आयोजन किया। प्रतिनिधियों को अधिक से अधिक संख्या में बुलाने के साथ-साथ सम्मेलन को अधिकाधिक प्रचारित करने के लिए बड़ी संख्या में पत्रकारों और टीवी चैनलों को भी आमंत्रित किया गया। सम्मेलन में करीब पचास लोगों ने भाषण दिए। इस भाषणबाजी से जो संदेश गया वह सम्मेलन के घोषित उद्देश्य के ठीक विपरीत था। सम्मेलन में कहा गया कि आतंकवाद विरोधी जांच के नाम पर निर्दोष मुस्लिम युवकों को परेशान किया जा रहा है। यह मांग भी उठाई गई कि जांच करने वाले सरकारी अधिकारियों को दंडित किया जाए। इन मांगों से वह प्रस्ताव बेमानी हो जाता है जिसमें कहा गया है कि इस्लाम शांतिप्रिय मजहब है और हिंसा व दहशतगर्दी में उसका विश्वास नहीं है। सम्मेलन में एक बार भी दहशतगर्दो से दूर रहने की अपील नहीं की गई। मैं यहां सम्मेलन में की गई अभिव्यक्तियों और मंसूबों के विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं समझता, लेकिन सम्मेलन के तत्काल बाद आतंकवादी घटनाओं के आरोप में निरुद्ध लोगों की पैरवी करने के लिए मुस्लिम लायर्स फोरम गठित करने के फैसले को नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता। उत्तर प्रदेश के विभिन्न स्थलों पर विस्फोट को अंजाम देने के आरोप में जो लोग पकड़े गए हैं उनकी पैरवी में खड़े न होने का फैसला बार एसोसिएशन ने किया है। मुस्लिम वकील भी इस बार के सदस्य हैं। तो क्या अब विधिवक्ताओं का सांप्रदायिक संगठन खड़ा होगा? यदि इस संदर्भ में मुंबई ट्रेन विस्फोटकों और संसद पर हमला करने वालों की पैरवी करने वाले वकीलों को मिलने वाली भारी-भरकम राशि की बात की जाए तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इतनी बड़ी रकम कहां से आती है? हाल ही में आतंकवादी घटनाओं से जुड़े सिमी संगठन के लोग गिरफ्तार किए गए हैं। मुस्लिम संगठन उनके बारे में मौन क्यों हैं? वैसे दारुल उलूम का सम्मेलन सभी मुस्लिम समुदायों के प्रतिनिधियों का सम्मेलन भी नहीं था। बरेलवी संप्रदाय का एक भी प्रतिनिधि इस सम्मेलन में शामिल नहीं हुआ। दारुल उलूम और जमायत-उल-उलेमा ही सम्मेलन में छाए रहे। सम्मेलन के आयोजन में मुख्य भूमिका राज्यसभा सदस्य मौलाना महमूद मदनी ने निभाई, जो राष्ट्रीय लोकदल से संबद्ध हैं। इस आयोजन के पीछे उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का खुलासा होना अभी बाकी है। कुछ संस्थाओं के एकाध प्रतिनिधि व्यक्तिगत रूप से अवश्य उपस्थित रहे। इनमें अहले-हदीस, जमात-ए-इस्लामी, फिरंगी महल, आल इंडिया दिल्ली काउंसिल और मुस्लिम पर्सनल ला का नाम गिनाया जा सकता है। यह सम्मेलन मुसलमानों को आतंकवादी गतिविधियों से अलग करने में कितना सफल होगा, यह कहना तो कठिन है, लेकिन संसद में बजट पेश होने से ठीक पहले इस सम्मेलन में व्यक्त तीखे भावों से तथाकथित सेकुलर दलों के सामने वोट बैंक खिसकने का खतरा मंडराता जरूर दिखाई पड़ रहा है। आम बजट में सांप्रदायिक आधार पर प्रावधान करने के बावजूद इन दलों को मुस्लिमों के मत अपने पाले में लाने के लिए अब और उपाय करने की जरूरत महसूस हो रही है। ये उपाय क्या होंगे, इसका खुलासा नहीं हो रहा है। आतंकवादी गतिविधियों में संलिप्त लोगों की पैरवी करने के लिए मुस्लिम लायर्स फोरम गठित करने के संकल्प पर सेकुलर खेमा वैसे ही खामोश है जिस प्रकार संसद पर हमले के आरोपी अफजल की फांसी पर कुछ नहीं कहा जा रहा। जो लोग यह सोच रहे हैं कि चुनाव के बाद पाकिस्तान भारत में आतंक फैलाना बंद कर देगा वे गलतफहमी के शिकार हैं। जिन दिनों देवबंद में सम्मेलन और मुस्लिम लायर्स फोरम गठित होने का समाचार प्रकाशित हुआ उन्हीं दिनों यह समाचार भी आया कि वैध तरीके से वीजा लेकर भारत में आने वाले 1335 पाकिस्तानी उत्तर प्रदेश के विभिन्न शहरों में गुम हो गए हैं। जिन शहरों में इनके गुम होने की सूचना दी गई है उनमें जेहादी इस्लामी संगठन अपना जाल बिछा चुके हैं। ऐसे शहरों की संख्या 37 बताई गई है। वैध रूप से भारत आए ये पाकिस्तानी कहां गुम हो गए? किन लोगों ने इनको गुम करने में मदद की है और वे कौन लोग हैं जो अवैध तरीके से नेपाल या बांग्लादेश के रास्ते आकर विस्फोटों को अंजाम दे रहे हैं? वे कौन हैं जो व्यावसायिक और तकनीकी उच्च शिक्षा प्राप्त करने वालों को भी आतंकी बना रहे हैं? इन सब के बारे में विचार करने और संपूर्ण मुस्लिम समुदाय को उनके नापाक इरादों के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास करने के बजाय केवल बयानबाजी करने से वांछित परिणाम नहीं हासिल किया जा सकता। पृथकता की सोच पनपाने वाले लोग भले ही अपने को पंथनिरपेक्ष कहते हों, पर वास्तव में वे मुस्लिम समुदाय की सांप्रदायिक आधार पर अलग पहचान बनाए रखने के निहित स्वार्थ में लगे हुए हैं। मुस्लिम समुदाय को उनके मंसूबों को समझने की जरूरत है। जरूरत है एक देश, एक जन की भावना की। इस भावना से परिपूर्ण विविधता में एकता को भारत की अस्मिता के साथ जोड़ना होगा। जब तक ऐसी जागरूकता नहीं होगी तब तक आतंकवाद के संदर्भ में उठने वाला संदेह समाप्त होने के स्थान पर और अधिक मजबूत होता रहेगा। (लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं) दैनिक जागरण, April 17, Thursday , 2008

बंगलादेशी प्रवासियों से सुरक्षा को खतरा

नई दिल्ली, भाषा : देश में बड़ी संख्या में मौजूद अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों से भारत की आंतरिक सुरक्षा को गंभीर खतरा है। गृह मामलों की एक स्थायी संसदीय समिति की संसद में पेश नवीनतम रिपोर्ट में यह कहा गया है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इसे हल्के तौर पर नहीं लिया जाना चाहिए। सुषमा स्वराज की अध्यक्षता वाली समिति ने अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा है कि भारत-बांग्लादेश सीमा पर जाली नोटों का भी व्यापक वितरण हो रहा है। गृह मंत्रालय की अनुदान मांगों पर समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि समिति पूरी दृढ़ता से सिफारिश करती है कि सीमा पर होने वाली गतिविधियों की कड़ाई से निगरानी की जाए। रिपोर्ट में कहा गया है कि कम चौकसी वाली भारत-बांग्लादेश सीमा और व्यवहारिक दिक्कतों के मुख्य कारण भौगोलिक स्थितियां हैं जिनकी वजह से सीमा पर तार लगाने का काम समय पर पूरा नहीं हो पा रहा है। तारबंदी न होने की वजह से अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों की घुसपैठ जारी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि सूचना दी गई है कि अवैध बांग्लादेशी प्रवासी राशन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, मतदाता पहचान पत्र और तो और पैनकार्ड तक हासिल करने में सफल हुए हैं। समाचार पत्रों में प्रकाशित खबरों तथा खुफिया सूत्रों का हवाला देते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में उग्रवादी संगठन बांग्लादेशियों की भर्ती कर रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार ऐसी भी खबरें हैं कि कुछ बांग्लादेशी उग्रवादी समूह भारत में उग्रवादी गतिविधियों में लिप्त हैं। समिति ने कहा है कि अवैध आब्रजन रोकने के लिए गृह मंत्रालय ने सीमा पर तारबंदी करने, फ्लड लाइट लगाने तथा सड़कें बनाने जैसे कदम उठाए हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा गश्त की जा सके। इसके अलावा सीमा पर निगरानी का काम एक ही बल सीमा सुरक्षा बल को सौंपा गया है। अतिरिक्त बटालियनें बना कर इसे मजबूत किया गया है, चौकियों के बीच की दूरी घटाई गई है और बीएसएफ को अत्याधुनिक उपकरण भी दिए गए हैं। गृह मंत्रालय ने राज्य सरकारों और केंद्रशासित प्रदेशों को समय-समय पर देश में अवैध तरीके से रह रहे विदेशी नागरिकों की पहचान के लिए कार्रवाई करने का आदेश भी दिया है। विदेशी (न्यायाधिकरण) आदेश 1964 के प्रावधानों के तहत असम में अवैध प्रवासियों और विदेशियों की धरपकड़ करनेके लिए 32 विदेशी न्यायाधिकरण हैं। दैनिक जागरण April 19, Saturday , 2008

Friday, April 4, 2008

सोचा-समझा दुष्प्रचार

प्रगतिशीलता की आड़ में भारतीय अस्मिता को चोट पहुंचाने के प्रयासों पर चिंता जता रहे हैं राजनाथ सिंह सूर्य
यह विश्वास करना कठिन है कि ऐसा जानबूझकर किया जा रहा है, लेकिन यह सही है कि नैतिक मूल्य गिराने वाले तथा भारतीय अस्मिता को चोट पहुंचाने वाले कारनामों का सिलसिला बढ़ता जा रहा है। दुर्भाग्य से ऐसे कारनामों के विरोध को भगवा ब्रिगेड का हंगामा कहकर दबाने की कोशिश की जाती है। ऐसा लगता है कि इस देश में अब उन लोगों का ही वर्चस्व बढ़ता जा रहा है जिनके लिए नैतिकता, निष्ठा, आस्था और अस्मिता के बजाय वाचालता, उच्छृंखलता, दुष्टता और पैशाचिकता का अधिक महत्व है। पिछले दिनों जब दिल्ली विश्वविद्यालय के एक पाठ्यक्रम में राम-सीता-हनुमान के संदर्भ में कुत्सित उद्धरणों के संदर्भ में भी यही देखने को मिला। यह पहला मौका नहीं है जब कुत्सित अभिव्यक्ति पर आपत्ति को भगवा ब्रिगेड का हंगामा कहकर उसके तथ्यों को छिपाने का प्रयास किया गया हो। प्राचीन देवी-देवताओं के अश्लील चित्र बनाने को कलाकार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला देकर कुछ लोगों ने सेकुलर भारत के लिए महत्वपूर्ण माना। उन्हीं लोगों ने किसी कार्टूनिस्ट का सिर काटकर लाने पर पचास करोड़ के इनाम की घोषणा करने वाले की निंदा नहीं की। राम-कृष्ण के अस्तित्व को नष्ट करने और रामायण-महाभारत को कपोल-कल्पित गाथा मानने वालों ने अब आगे बढ़कर इनके आदर्श पात्रों के चरित्र चित्रण के लिए वाल्मीकि, कंबन या गोस्वामी तुलसीदास जैसे लेखकों का सहारा लेने के बजाय किन्हीं रामानुजम द्वारा लिखित पुस्तक को अधिकृत माना। यह कहा गया कि विद्यार्थियों में भारत की विविधता पूर्ण विरासत की समझ बढ़ाने और उसके प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए यह आवश्यक है ताकि वे अकादमिक ढंग से तार्किक रूप में बिना किसी संकोच या नकारात्मकता के विश्लेषण कर सकें। समझ बढ़ाने, विविधता को समझने और बिना संकोच विश्लेषण कर सकने लायक समझ बढ़ाने के लिए रामायण के जो तथ्य प्रस्तुत किए गए हैं उन पर नजर डालना उपयुक्त होगा। इस पुस्तक के कुछ तथ्य इस प्रकार हैं। रावण और मंदोदरी के कोई संतान नहीं थी। दोनों ने शिव पूजा की। शिवजी ने उन्हें पुत्र प्राप्ति के लिए आम खाने को दिया। गलती से सारे आम रावण ने खा लिए और उसे गर्भ ठहर गया। रावण के नौ माह गर्भधारण की व्यथा भी इस अध्याय में दी गई है। गर्भ की व्यथा से पीडि़त रावण ने छींक मारी और सीता का जन्म हुआ। सीता रावण की पुत्री थी, जिसे उन्होंने जनकपुरी के खेत में त्याग दिया था। हनुमान एक तुच्छ छोटा सा बंदर था। वह लंका में स्ति्रयों का आमोद-प्रमोद देखने के लिए वह खिड़कियों से ताक-झांक करता था। रावण का वध राम ने नहीं, लक्ष्मण ने किया। दिल्ली विश्वविद्यालय के बीए आनर्स द्वितीय वर्ष के लिए कल्चर इन एंसियेंट इंडिया नामक जिस पुस्तक में यह सब और इसी तरह का और बहुत कुछ शामिल किया गया है उसका संकलन और संपादन डा. उपेंद्र कौर ने किया है, जो देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पुत्री हैं। संकोच और नकारात्मकता से प्रभावित न होने के लिए पुरुष के गर्भधारण से अधिक वैज्ञानिक समझ और क्या हो सकती है? जिस रावण के एक लखपूत सवा लख नाती थे उसे संतानविहीन और जो लाखों वर्षो से भारतीय मर्यादा के प्रतीक हैं उन्हें तुच्छ साबित करने से अधिक विविधता को समझने का और कौन सा उदाहरण दिया जा सकता है? इसी संकलन में लिखा है कि प्राचीन भारत में स्ति्रयां बेची और खरीदी जाती थीं। मैं नहीं समझता कि संकलनकर्ता का उपरोक्त उद्धरणों में विश्वास होगा या इन तथ्यों को शिक्षा नीति निर्धारित करने वाले अधिकृत मानते होंगे। कम से कम अर्जुन सिंह के बारे में तो यह दावा किया ही जा सकता है। फिर भी प्राचीन भारत की अनुभूति कराने के इस प्रकट के प्रयासों की निरंतरता क्यों है? इसे समझने के लिए एक और उदाहरण संभवत: उपयुक्त होगा, जो बड़े जोर-शोर से प्रचारित होने वाली यौन शिक्षा की पाठ्य सामग्री में वर्णित है। पाठ्य सामग्री में यह कहा गया है कि यौन संबंध केवल एक सहज शारीरिक क्रिया है, इसका नैतिकता, पवित्रता और आध्यात्मिकता से कोई संबंध नहीं हैं। एड्म को जानिए वाले भाग में सहवास के ऐसे अप्राकृतिक तरीकों का वर्णन किया गया है जिससे एड्स से बचा जा सकता है। मैं क्या करूं शीर्षक का यह उदाहरण क्या समझाने के लिए है-मैं ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ती हूं। मैंने क्लास रूम में एक लड़के के साथ यौन संबंध बनाए। अब वह दबाव डाल रहा है कि मैं उसके दोस्तों के साथ भी यौन संबंध बनाऊं, मैं क्या करूं? यौन शिक्षा के लिए इसी तरह के जो दर्जनों उदाहरण दिए गए हैं उनका उल्लेख करने का साहस मुझमें नहीं है। यह पुस्तक किस प्रकार की यौन शिक्षा को बढ़ावा देगी? क्या ऐसे पाठ्यक्रम और निकृष्ट साहित्य पर रोष प्रकट करना भगवा ब्रिगेड का हंगामा है? हम कैसी संस्कृति का स्वरूप पेश कर रहे हैं? जीवन में विश्वास, आस्था और संकल्प शक्ति पैदा करने वाले आचरण को हेय तथा पशुवत भावना को सहज स्वाभाविक बताकर जो कुछ समझाने का काम हमारे समझदार लोग कर रहे हैं उनकी मानसिकता को समझने के लिए एक और उदाहरण पेश है। रामसेतु का विरोध कर रहे तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि ने साक्षात्कार में कहा कि राम और सीता भाई-बहन थे। ऐसा तुलसीदास की रामायण में लिखा है। साक्षात्कारकर्ता ने उनसे पूछा कि क्या उन्होंने स्वयं ऐसा पढ़ा है तो उनका उत्तर था-हां मैंने पढ़ा है। अब आप इस पर क्या प्रतिक्रिया करेंगे? कुत्सितता का प्रचार-प्रसार अज्ञानता के कारण नहीं, बल्कि जानबूझकर सोची-समझी रणनीति के तहत किया जा रहा है ताकि हम अपनी अस्मिता से कटकर अमेरिकी कचरा प्रवृत्ति के गुलाम हो जाएं। उद्योग, व्यापार, राजनीति, शिक्षा-सभी क्षेत्रों में यही प्रयास प्रगतिशीलता का पर्याय बन गया है। (लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं)