अनुभूति और आस्था न्यूनतम मानवाधिकार हैं। अपने रस, छंद और अनुभव के आधार पर जीना हरेक मनुष्य का मौलिक अधिकार है, लेकिन पाकिस्तान में हिंदू होना एक गंभीर अपराध है। एक गहन यंत्रणा, असहनीय व्यथा और तिल-तिल कर मरने वाला मनस्ताप। बेटियों को पिता, मां और भाइयों के सामने उठा लिया जाता है, दुष्कर्म होते हैं। न पुलिस सुनती है और न सरकार। कट्टरपंथी जमातों के लिए वे काफिर हैं। वे मूर्तिपूजक हैं, वे दीन पर ईमान नहीं लाते सो उन्हें जीने का अधिकार नहीं। भारत सरकार मौन है। पाकिस्तानी मीडिया बेशक प्रशंसनीय है। एक पाकिस्तानी अखबार ने जकोबाबाद में 17 वर्षीय हिंदू लड़की के अपहरण पर टिप्पणी की और ऐसी घटनाओं पर रोक लगाने की भी मांग की थी। एक अन्य समाचार पत्र ने बीते 11 अगस्त को लिखा, हिंदू व्यापारियों का अपहरण, लूट व संपत्ति पर कब्जा और धर्म विरोधी वातावरण के कारण वे मुख्यधारा से अलग हैं। ऐसा कोई मंच नहीं दिखता जहां उन्हें न्याय मिले, लेकिन भारत के मानवाधिकारवादी कथित सेक्युलर इस अंतरराष्ट्रीय उत्पीड़न पर भी मौन हैं। सारी दुनिया के हिंदू और संवेदनशील सन्न हैं और पाकिस्तानी कट्टरपंथी प्रसन्न। पाकिस्तान का जन्म स्वाभाविक नहीं था। राष्ट्र मजहब से नहीं बनते। वरना ढेर सारे मुस्लिम मुल्क न होते, लेकिन जिन्ना की मुस्लिम लीग ने मुसलमानों को अलग राष्ट्र बताया। ब्रिटिशराज, कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने मिलकर भारत बांटा। जिन्ना ने पाकिस्तान को इस्लामी रंगत वाला सेक्युलर मुल्क बनाने का दावा किया, लेकिन पाकिस्तान अपने जन्म के 24 वर्ष के भीतर ही टूट गया, पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश हो गया। वह 65 बरस बाद भी न गणतंत्र बन पाया और न एक संगठित राष्ट्र। कायदे से कायदे आजम जिन्ना की सोच में ही खोट था। हालांकि पाक संविधान में धर्मपालन की आजादी है, विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, लेकिन ईश निंदा पर सजा-ए-मौत है। विचार अभिव्यक्ति की आजादी पर तलवारें हैं। शरीय कानूनों की भी मार है। पाकिस्तानी समाज पर संविधान और सरकार का नियंत्रण नहीं। समाज कट्टरपंथी आक्रामक तत्वों के हवाले है। सरकार की दो ताकतवर भुजाए हैं-सेना और आइएसआइ। दोनों भारत विरोधी हैं, स्वाभाविक ही हिंदू विरोधी भी हैं। पाकिस्तानी कट्टरपंथी हिंदुओं को इंसान नहीं मानते। हिंदू अघोषित जिम्मी हैं। इस्लामी परंपरा के भाष्यकार अबूहनीफा [699-766 ई.] ने गैरमुस्लिमों को छूट दी थी कि वे इस्लाम या मौत के चुनाव के अलावा जजिया कर देते हुए निम्न स्थिति में जिम्मी होकर रहें। पाकिस्तान के हिंदुओं की त्रासदी नई नहीं है। सिंध के पहले हमलावर और विजेता मोहम्मद बिन कासिम ने भी यही कायदा लागू किया था। हिंदुओं का बड़ी संख्या में मतांतरण कराना या मौत के घाट उतारना कठिन था। उसने सिंध के हिंदुओं को ऐसी ही निम्न स्थिति में रहने की छूट दी थी। तुर्की और अफगान विजेताओं ने भी गैरमुस्लिमों के मामले में यही नीति अपनाई थी। भारत के मुसलमान अल्पसंख्यक कहे जाते हैं। संविधान ने उन्हें विशेष सुविधाएं दी हैं। उनकी शिक्षण संस्थाओं पर सामान्य शिक्षा कानून लागू नहीं होते। वे हज जैसी धार्मिक यात्रा पर जाते हैं, सरकार सब्सिडी देती है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह राष्ट्रीय संसाधनों पर उनका पहला अधिकार बताते हैं। वे दीगर मुल्क म्यांमार की कथित मुस्लिम उत्पीड़न की वारदात पर मुंबई, लखनऊ, कानपुर आदि में हमला करते हैं। पाकिस्तान के अल्पसंख्यक हिंदुओं को पाक संविधान में क्या अधिकार हैं? उन्हें अयोध्या, मथुरा, काशी या रामेश्वरम की तीर्थ यात्रा में पाक सरकार कोई सुविधा या सब्सिडी नहीं देती। आखिरकार भारत में अल्पसंख्यक होने का मजा और पाक में अल्पसंख्यक होने की इतनी बड़ी सजा के मुख्य कारण क्या हैं? पाकिस्तानी सरकार विश्वसनीय नहीं है। अमेरिकी विदेश विभाग ने पाकिस्तान को धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के उल्लंघन के लिए विशेष चिंता वाला देश माना है। पाकिस्तानी मानवाधिकार आयोग ने भी अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न की बात को सही पाया है। लोकसभा में यह मसला भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने 13 अगस्त को उठाया था। उन्होंने सरकार से इस मुद्दे को पाकिस्तान के साथ ही अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी रखने की मांग की। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव सहित अन्य नेताओं ने भी इस मुद्दे को गंभीर बताया। बीजद के नेता भतर्ृहरि मेहताब ने राय दी कि जो हिंदू भारत आना चाहते हैं उनके लिए दरवाजे खोल देने चाहिए। भारतीय जनता की बेचैनी वाजिब है। पाकिस्तान से भारत आए हिंदुओं की व्यथा कथा आंसुओं से भीगी है। वे वापस नहीं जाना चाहते, लेकिन केंद्र सरकार का बयान लज्जाजनक है कि वीजा अवधि समाप्ति के बाद हिंदुओं को पाकिस्तान लौटना ही होगा। सरकार उनका दुख क्यों नहीं समझती? कीट-पतंगें, पशु-पक्षी भी अपने घर को प्यार करते हैं। यहां लोग अपना घर, व्यापार और संपदा छोड़कर भाग रहे हैं और कानूनी घेरे के बावजूद नहीं लौटना चाहते तो साफ है कि पाकिस्तानी अत्याचार अब बर्दाश्त के बाहर है। बलात मतांतरण मानवाधिकार का उल्लंघन हैं। दुष्कर्म और जबरन विवाह त्रासद हैं। देश विभाजन के बाद 1951 में भारत की मुस्लिम आबादी 10.43 प्रतिशत थी और हिंदू 87.24 प्रतिशत। इसी साल पाकिस्तान की हिंदू आबादी [बांग्लादेश सहित] 22 प्रतिशत थी। 2001 की भारतीय जनगणना में यहां मुस्लिम आबादी 10.43 से बढ़कर 13.42 प्रतिशत हो गई, लेकिन पाकिस्तान की हिंदू आबादी लगभग 1.8 प्रतिशत ही रह गई। कहां गए पाकिस्तान के अल्पसंख्यक हिंदू? क्या सबके सब यों ही खुशी-खुशी मतांतरित हो गए? कोई तो वजह होगी ही। यह पाकिस्तान का घरेलू मसला नहीं है। यह मानवाधिकार उल्लंघन का अंतरराष्ट्रीय सवाल है। भारत विभाजन के समय मुस्लिम लीगी आक्त्रामकता थी। कहा गया था कि मुसलमानों को पाकिस्तान देने से सांप्रदायिक समस्या का अंत होगा, लेकिन सारा देश विभाजन के विरुद्ध था। डॉ. अंबेडकर दूरदर्शी थे। उन्होंने पाकिस्तान का समर्थन किया था, लेकिन दोनों देशों की सांप्रदायिक जनसंख्या की अदलाबदली का सुझाव भी दिया था। सांप्रदायिक समस्या समाधान के लिए ही बुल्गारिया और ग्रीस व ग्रीस व तुर्की के बीच जनसंख्या की अदलाबदली हुई थी। पाकिस्तान अपने मुल्क को हिंदूविहीन बना रहा है। कट्टरपंथी बलात मतांतरण करवा रहे हैं। केंद्र को कोई नीति तो बनानी ही होगी। सरकार श्रीलंका के तमिलों पर सहानुभूति की मुद्रा में थी। मसला यह भी दूसरे देश का था। गांधीजी तुर्की के खलीफा को लेकर भारत में आंदोलन चला रहे थे, लेकिन भारत सरकार हिंदू उत्पीड़न पर भी मौन है, क्योंकि वे वोट बैंक नहीं है।
[लेखक हृदयनारायण दीक्षित, उप्र विधानपरिषद के सदस्य हैं]