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Sunday, April 13, 2014

तोसा मैदान पर सियासत शुरू

http://www.jagran.com/news/state-11222777.html
नगर : तोसा मैदान मुद्दे पर अलगाववादियों की सियासत शुरू हो गई है। ऑल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस उदारवादी गुट ने सरकार द्वारा तोसा मैदान की लीज की अवधि में संभावित वृद्धि की आशंका जताते हुए कहा कि यदि ऐसा किया गया तो इसके घातक परिणाम निकलेंगे। गुट ने मुद्दे को लेकर शनिवार 12 अप्रैल को कश्मीर बंद का आह्वान किया है। साथ ही चेताया कि यदि लीज में बढ़ोतरी की गई तो इसके खिलाफ जन आंदोलन छेड़ा जाएगा।

Monday, April 7, 2014

अब मुस्लिमों के आसरे मुल्क की सियासत!

http://www.palpalindia.com/2014/04/07/loksabha-election-politics-muslim-nations-shelter-news-hindi-india-57393.html
लोकसभा चुनाव के मतदान का पहला चरण आते-आते विचारधारा, विकास, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे हवा हो गए हैं. वोटों की राजनीति में जातियों के समीकरण को कमजोर देख राष्ट्रीय पार्टियां भी ध्रुवीकरण की राह पर चल दी हैं. आपातकाल के बाद सबसे कठिन चुनावों के मुकाबिल खड़ी कांग्रेस के लिए अल्पसंख्यक वोट संजीवनी बन सकते हैं. तमाम पार्टियां इन वोटों के बिखराव को रोकने के लिए इमाम और उलमा की शरण में हैं.

Tuesday, February 25, 2014

बांग्लादेशी हिन्दू विस्थापितों को समाज में किया जाना चाहिए शामिल : नरेंद्र मोदी

http://khabar.ndtv.com/news/india/hindu-migrants-from-bangladesh-must-be-accommodated-narendra-modi-in-assam-381327
भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी ने कहा है कि बांग्लादेश से आए हिन्दू विस्थापितों को देश में शामिल किया जाना चाहिए तथा जैसे ही उनकी पार्टी सत्ता में आई, तो इनके शिविरों (डिटेंशन कैंप) को खत्म कर दिया जाएगा।

जनसंख्या बढ़ाने के लिए हिंदू परिवार में पैदा हों 5 बच्चे: अशोक सिंघल

http://aajtak.intoday.in/video/each-hindu-couple-should-have-5-children-says-vhps-ashok-singhal-1-755651.html
अशोक सिंघल ने कहा है कि हिंदू परिवारों को 'हम दो, हमारे दो' की अवधारणा से बाहर निकलना होगा और हर हिंदू को कम से कम पांच बच्चे पैदा करने होंगे.

Sunday, March 17, 2013

मुंबई में पुलिस पर बांग्लादेशियों का हमला, दो घायल

http://www.jagran.com/news/national-illegal-bangladeshi-immigrants-attacks-on-mumbai-police-10164951.html
मुंबई। मुंबई में अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशियों की धरपकड़ में लगी पुलिस पर सोमवार को कुछ शरारती तत्वों ने हमला कर दिया, जिसमें दो पुलिस वाले घायल हो गए।

Monday, January 7, 2013

कोकराझार में ताजा हिंसा के बाद कर्फ्यू लगा

http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2012/11/121116_kokrajhar_violence_aa.shtml
असम के कोकराझार में अधिकारियों ने ताजा हिंसा के बाद कर्फ्यू लगा दिया है.

कोकराझाड़ में एक और हत्या, तनाव

http://www.jagran.com/news/national-one-shot-dead-in-kokrajhar-9844761.html
गुवाहाटी [जासं]। असम में कोकराझाड़ जिले के गोसाईगांव इलाके में सोमवार सुबह एक किसान की हत्या कर दी गई। इस तरह गत तीन दिनों में इस बोडो बहुल क्षेत्र में हिंसा की ताजा घटनाओं में तीन लोगों की हत्या कर दी गई है। जिले में एक बार फिर तनाव है।

बांग्लादेश से अवैध घुसपैठ अभी भी जारी

http://www.jagran.com/news/national-illegal-immigration-from-bangladesh-still-on-but-less-9815112.html
नई दिल्ली। असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने माना है कि बांग्लादेश से अवैध घुसपैठ अभी भी जारी है लेकिन इस पर कुछ अंकुश लगा है। गोगोई का यह बयान ऐसे वक्त आया है, जब बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री और विपक्ष की नेता खालिदा जिया नई दिल्ली यात्रा पर हैं।

सीसे से बनी देश की पहली मस्जिद मेघालय में तैयार

http://www.jagran.com/news/national-indias-first-glass-mosque-in-shillong-9760188.html
शिलांग। पूरी तरह सीसे से निर्मित देश की पहली मस्जिद मेघालय की राजधानी शिलांग में बनकर तैयार हो गई है। कानून मंत्री सलमान खुर्शीद 18 अक्टूबर को इस मदीना मस्जिद के दरवाजे आम जनता के लिए खोलने की औपचारिकता पूरी करेंगे।

Friday, September 14, 2012

असम के शिविरों से भागने लगे बांग्लादेशी घुसपैठिए

http://www.jagran.com/news/national-bangladeshi-immigrants-fleeing-to-camps-in-assam-9658444.html
स्थानीय प्रशासन की सख्ती के बाद असम के राहत शिविरों में शरण लेने वाले घुसपैठिए बांग्लादेश भागने लगे हैं। जुलाई में हिंसा के बाद असम में लगभग दो लाख लोग अब भी राहत शिविरों में रह रहे हैं। इनमें बड़ी संख्या में बांग्लादेशी घुसपैठियों के शामिल होने की आशंका है। इनकी पहचान कर उन्हें वापस भेजने के लिए 64 नए ट्रिब्यूनल बनाने की मांग की गई है।

Tuesday, September 11, 2012

बांग्लादेशियों को वापस नहीं भेज सकते : गोगाई

http://www.jagran.com/news/national-assam-alone-cannot-stop-infiltration-says-tarun-9635872.html
असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने कहा है बांग्लादेशियों को वह राज्य से बाहर नहीं निकाल सकते हैं। उन्होंने कहा कि बांग्लादेश से आए शरणार्थियों की पहचान करना उनका काम जरूर है, लेकिन बांग्लादेशियों को राज्य से बाहर करने का काम उनका नहीं है। उन्होंने इस मुद्दे पर गेंद केंद्र के पाले में फेंक दी है। उन्होंने कहा कि यह काम केंद्र सरकार का है।

सुरक्षा पर भारी पड़ते स्वार्थ

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-opinion-9644739.html
असम में हाल में जो जातीय संघर्ष हुआ उसके बारे में बहुत भ्रातिया हैं। समस्या को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है। 1947 में जब देश का बंटवारा हुआ उस समय भारी संख्या में पूर्वी पाकिस्तान से हिंदू शरणार्थी आए। कालातर में जब पाकिस्तानी फौजों ने बंगालियों के विरुद्घ दमन चक्र चलाया तब मुसलमान भी भारी संख्या में भारत के सीमावर्ती प्रदेशों में आए। 1971 में पाकिस्तान के टूटने और बाग्लादेश के सृजन पश्चात यह आशा हुई कि सभी जातिया और संप्रदाय के लोग साप्रदायिक सौहार्द के वातावरण में बाग्लादेश में रहेंगे, परंतु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। शेख मुजीब की 1975 में हत्या कर दी गई और बाद में जनरल इरशाद ने इस्लाम को राजधर्म की मान्यता दी। इसके बाद बाग्लादेश में हिंदू, बौद्घ, ईसाई और जनजातिया यानी सभी वर्ग के अल्पसंख्यकों पर अत्यधिक अत्याचार हुए। आर्थिक कारणों से भारी संख्या में मुसलमानों ने बाग्लादेश से पलायन किया। ऐसा समझा जाता है कि बाग्लादेश से भारत आने वालों में 70 प्रतिशत मुसलमान और 30 प्रतिशत हिंदू व अन्य संप्रदायों के लोग थे। बाग्लादेश से घुसपैठ के अकाट्य प्रमाण हैं। इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज के अनुसार 1951 व 1961 के बीच करीब 35 लाख लोग पूर्वी पाकिस्तान से चले गए थे। बाग्लादेश के चुनाव आयोग ने भी पाया कि 1991 व 1995 के बीच करीब 61 लाख मतदाता देश से गायब हो गए। स्पष्ट है कि ये सभी व्यक्ति भारत के सीमावर्ती प्रदेशों में घुसपैठ कर चुके थे। 1996 में भी बाग्लादेश के चुनाव आयोग को मतदाता सूची से 1,20,000 नागरिकों के नाम काटने पडे़ थे, क्योंकि उनका कहीं अता-पता नहीं था। इतना सब होने के बाद भी बाग्लादेश के नेता जब यह कहते हैं कि उनके देश से अनधिकृत ढंग से पलायन नहीं हुआ तो उनकी गुस्ताखी की दाद देनी पड़ती है। भारत सरकार ने इस मुद्दे को बाग्लादेश सरकार से कभी गंभीरता से नहीं उठाया। 1998 में असम के तत्कालीन गवर्नर, जनरल एसके सिन्हा ने राष्ट्रपति को लिखे एक पत्र में चेतावनी दी थी कि बाग्लादेश से जिस तरह आबादी भारत में चली आ रही है, अगर उसका प्रवाह बना रहा तो वह दिन दूर नहीं जब असम के मूल निवासी अपने ही प्रदेश में अल्पसंख्यक हो जाएंगे और हो सकता है कि असम के कुछ जनपद भारत से कटकर अलग हो जाएं। चेतावनी का भारत सरकार पर कोई असर नहीं हुआ। कारगिल लड़ाई के बाद भारत सरकार ने चार टॉस्क फोर्सो का गठन किया था। इनमें से एक जो सीमा प्रबंधन से संबंधित थी उसके प्रमुख माधव गोडबोले भूतपूर्व गृह सचिव थे। इस टॉस्क फोर्स ने बड़ी निष्पक्ष आख्या प्रस्तुत की। गोडबोले ने अपनी रिपोर्ट में दो टूक शब्दों में लिखा कि बाग्लादेश से आबादी का जो अनधिकृत पलायन हो रहा है उसके बारे में सभी को मालूम है, परंतु दुर्भाग्य से समस्या से निपटने के लिए कोई आम सहमति नहीं बन पा रही है। टॉस्क फोर्स के आकलन के अनुसार सन् 2000 में बाग्लादेश से आए घुसपैठियों की संख्या लगभग 1.5 करोड़ थी। पिछले 12 वर्षो में यह संख्या बढ़कर कम से कम दो करोड़ तो हो ही गई होगी। 2001 में एक मंत्रि समूह ने टॉस्क फोर्स की रिपोर्ट पर अपनी टिप्पणी देते हुए कहा कि इतनी भारी संख्या में बाग्लादेशियों की उपस्थिति देश की सुरक्षा और सामाजिक सौहार्द के लिए एक खतरा है। यह प्रकरण सुप्रीम कोर्ट के सामने भी गया। 12 जुलाई 2005 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि बाग्लादेशियों के भारी संख्या में अतिक्रमण के कारण असम में आतरिक अव्यवस्था और वाह्य आक्रमण जैसी स्थिति है और निर्देश दिया कि जो बाग्लादेशी भारत में अनधिकृत तरीके से घुस आए हैं उन्हें देश में रहने का कोई अधिकार नहीं है और उन्हें भारत से निकाला जाए। भारत सरकार ने टॉस्क रिपोर्ट की संस्तुतियों की अनदेखी की, मंत्रि समूह की चेतावनी पर कोई ध्यान नहीं दिया और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की अवहेलना की। घुसपैठिए प्रथम चरण में तो याचक थे। स्थानीय नेताओं ने इन्हें अपना वोट बैंक बनाया और असम के निवासी होने के प्रमाण पत्र दिलाए। धीरे-धीरे इन लोगों ने जमीनें भी खरीदनी शुरू कर दी। इस तरह इन्होंने अपना आर्थिक आधार बना लिया। वर्तमान में जिसे तृतीय चरण कहा जा सकता है, अब ये घुसपैठिए अपनी राजनीतिक शक्ति का प्रदर्शन कर रहे हैं। 2008 में दरंग और उदलगिरी जनपदों में बोडो जनजाति और घुसपैठियों में दंगे हुए थे। इनमें 55 व्यक्तियों की जानें गई थीं। हाल में कोकराझाड़, धुबड़ी और अन्य जनपदों में जो हिंसा हुई वह भी 2008 की घटनाओं की पुनरावृत्ति थी, केवल जनपद बदल गए थे। भारतीय सेना के जाने के बाद ही स्थिति पर नियंत्रण पाया जा सका। सवाल यह है कि अब इस समस्या से निपटा कैसे जाए। इस विषय पर मेरे तीन सुझाव हैं। पहला तो यह कि राजीव गाधी की पहल पर 1985 में जो असम समझौता हुआ था उसको आधार मान कर जो भी लोग एक जनवरी 1966 और 24 मार्च 1971 के बीच असम आए थे उनका पता लगाकर उनका नाम मतदाता सूची से काट दिया जाए और जो लोग 25 मार्च 1971 के बाद आए थे उनका पता लगाने के बाद उन्हें वैधानिक तरीके से अपने देश वापस भेज दिया जाए। दूसरा, अगर यह मान लिया जाए कि इतने वर्षो बाद बाग्लादेशियों को वापस भेजना संभव नहीं तो कम से कम यह सुनिश्चित किया जाए कि इनको वोट देने का कोई अधिकार न हो और वह अचल संपत्ति भी न खरीद सकें। इन बाग्लादेशियों को वर्क परमिट दिया जाए, जिससे उन्हें रोजी कमाने का अधिकार तो हो, परंतु भारतीय नागरिक के सामान्य अधिकार न हों? तीसरा यह कि बंग्लादेश सीमा पर तार लगाने का जो कार्य चल रहा है उसे अतिशीघ्र पूरा किया जाए। नेशनल माइनॉरिटी कमीशन के अनुसार असम में जो हिंसा हुई थी वह बोडो और प्रवासी मुसलमानों के बीच थी। यह निष्कर्ष भ्रामक है कि यह मुसलमान आज की तारीख में भले प्रवासी हो गए हों, परंतु सब जानते हैं कि ये बाग्लादेश से आए थे और इन्होंने फर्जी दस्तावेज बनवा लिए हैं। एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स ने माइनॉरिटी कमीशन की रिपोर्ट की आलोचना करते हुए कहा कि वह बोडो के बारे में पूर्वाग्रह दिखाती हैं। बोडो वास्तव में अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहे हैं। असम के मुख्यमंत्री ने अपने एक बयान में कहा कि प्रदेश में एक ज्वालामुखी सुलग रहा है। यह सही है, सरकार ने अपनी सैनिक शक्ति से स्थिति पर नियंत्रण तो पा लिया है, परंतु यह चिंगारी सुलगती रहेगी। जो नेतृत्व अपने राजनीतिक स्वार्थ के आगे नहीं सोचता और जिसके लिए राष्ट्रीय सुरक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण सत्ता में बने रहना है वह अपनी अकर्मण्यता और अदूरदर्शिता के दलदल में फंसता जाएगा।

मुसलमानों ने हमारे घर जलाए

http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2012/09/120908_bodo_muslim_riot_pa.shtml
असमके बोडो स्वायत्त इलाके के तीन जिलों में हुए
क्लिक करबोडो-मुसलमान दंगों ने इस इलाके के सामाजिक ताने बाने को छिन-भिन्न कर दिया है.

हिंसा के पीछे अनपढ़ मुस्लिमों की बढ़ती आबादी : गोगोई

http://www.jagran.com/news/national-muslim-illiteracy-spreads-violence-in-assam-gogoi-9650544.html
असम में बढ़ती हिंसा के लिए बांग्लादेशी घुसपैठिये नहीं बल्कि मुसलमानों की बढ़ती आबादी जिम्मेदार है। उन्होंने कहा कि असम में हिंदुओं की तुलना में मुसलमानों की संख्या ज्यादा है। मुसलमानों में शिक्षा का स्तर काफी कम है और इसको ही आबादी बढ़ने का मुख्य कारण माना जा रहा है। गोगोई के इस बयान ने राजनीतिक सरगर्मी तेज कर दी है। गोगोई के इस बयान से काग्रेस की मुश्किलें भी बढ़ सकती हैं। विपक्ष इसे बहस का मुद्दा बना सकता है।

Thursday, August 30, 2012

बंद के दौरान असम में हिंसा, मीडिया पर हमले

गुवाहाटी [जागरण न्यूज नेटवर्क]। आल असम माइनॉरिटी स्टूडेंट्स यूनियन के आहूत बंद के दौरान मंगलवार को असम के कई इलाकों में हिंसा हुई। इस दौरान सरकारी अधिकारियों और मीडिया के लोगों पर हमले किए गए। तेजपुर में बंद का विरोध करने पर एक युवक को गंभीर रूप से घायल कर दिया गया। हिंसा के बाद राज्य के कई इलाकों में क‌र्फ्यू लगा दिया गया है। मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने सभी राजनीतिक दलों और संगठनों से संयम बरतने की अपील की है।
http://www.jagran.com/news/national-pne-killed-5-injured-in-assam-violence-9609005.html

असम में फिर हिंसा, एक की मौत, 5 घायल

गुवाहाटी।। असम के तनावग्रस्त कोकराझार जिले में सोमवार देर रात हिंसा की तीन अलग-अलग घटनाओं में एक व्यक्ति की मौत हो गई और 5 अन्य घायल हो गए। पुलिस ने बताया कि पहली घटना सलाकाती पुलिस थाने के तहत आने वाले फुमती गांव में हुई लेकिन इसमें किसी के हताहत होने की खबर नहीं है।
http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/15880010.cms

विकृत सेक्युलरवाद


असम में आग क्यों लगी और 11 अगस्त को मुंबई के आजाद मैदान में पाकिस्तानी झंडे क्यों लहराए गए? मुंबई के बाद पुणे, बेंगलूर, हैदराबाद, लखनऊ, कानपुर और इलाहाबाद में रोहयांग और बांग्लादेशी मुसलमानों के समर्थन में हिंसा क्यों हुई? क्यों पूर्वोत्तर के करीब पचास हजार लोग विभिन्न शहरों से रोजी-रोटी छोड़ पलायन को मजबूर हुए? क्या देश यह आशा कर सकता है कि अब असम जैसी हिंसा आगे नहीं होगी? प्रधानमंत्री के बयानों को देखते हुए यह आशा बेमानी लगती है। विगत 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से बोलते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था, असम में हिंसा की घटनाएं दुर्भाग्यपूर्ण हैं। हमारी सरकार हिंसा के पीछे के कारणों को जानने के लिए हरसंभव कदम उठाएगी। असम में तीन बार से कांग्रेस का शासन है, किंतु उन्होंने यह भी कहा कि हमारी सरकार यह नहीं जानती कि समस्या की जड़ क्या है? ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री को छोड़कर सभी जानते हैं कि समस्या का क्या कारण है। असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने स्वीकार किया है कि भारत में सांप्रदायिक हिंसा फैलाना पाकिस्तान पोषित भारतीय नेटवर्क की साजिश थी। केंद्रीय गृह सचिव आरके सिंह ने दावा किया है कि खुफिया एजेंसियों ने यह पता लगा लिया है कि पाकिस्तानी नेटवर्क से दंगा फैलाने के लिए आपत्तिाजनक एमएमएस और तस्वीरें भेजी गईं, जिन्हें यहां बैठे पाकिस्तानी पिट्ठुओं ने भारतीय मुसलमानों को भड़काने के लिए प्रसारित किया।
भारत को हजार घाव देना पाकिस्तान का जिहादी एजेंडा है। अन्य देशों में बाढ़ आदि प्राकृतिक आपदाओं के समय खींची गई तस्वीरें और एमएमएस पाकिस्तान से भेजे गए। पाकिस्तान अपने मकसद में कामयाब हो पा रहा है, क्योंकि उसके एजेंडे को पूरा करने के लिए उसे जो मानसिकता और हाथ चाहिए वे यहां बेरोकटोक पोषित हो रहे हैं। देश के कई हिस्सों में इस्लामी चरमपंथियों द्वारा बड़े पैमाने पर की गई हिंसा और तोड़फोड़ से यह साफ हो चुका है कि भारत में एक वर्ग ऐसा है जो तन से तो भारत में है, किंतु मन पाकिस्तान से जुड़ा है। ऐसे देशघातकों को जब राजनीतिक संरक्षण प्रदान किया जाता है तो स्वाभाविक तौर पर प्रश्न खड़े होते हैं, किंतु विडंबना यह है कि ऐसी मानसिकता के विरोध को सांप्रदायिक ठहराने की कोशिश होती है। क्यों?
इसी सेक्युलर सरकार की एक बानगी पिछले साल जून के महीने की है, जब काला धन वापस लाने के लिए रामदेव दिल्ली स्थित रामलीला मैदान में अनशन पर डटे थे। आधी रात को रामलीला मैदान पुलिस छावनी में बदल गया, अनशनकारियों पर पुलिस ने अंधाधुंध लाठियां भांजी। बाबा रामदेव को गिरफ्तार कर उन्हें रातोरात दिल्ली की सीमा से बाहर कर दिया गया। एक ओर आधी रात को वंदेमातरम् और भारत माता का जयघोष करने वालों को सरकार बर्बरता से पीटती है और दूसरी ओर पाकिस्तानी झंडे लहराने और शहीद स्मारक को तोड़ने वाले लोगों को मनमानी की छूट देती है। क्यों?
मुंबई के आजाद मैदान में एकत्रित भीड़ का बांग्लादेशी घुसपैठियों या म्यांमारी रोहयांग मुसलमानों से क्या रिश्ता है और उन्हें इन विदेशियों के समर्थन में आंदोलन करने की छूट क्यों दी गई? इस देश में राष्ट्रहित की बात करना सेक्युलर मापदंड में जहां गुनाह है, वहीं इस्लामी चरमपंथ को पोषित करना सेक्युलरवाद की कसौटी बन गया है। इस दोहरे सेक्युलरवादी चरित्र के कारण ही कट्टरपंथियों को बल मिलता है, जिसके कारण कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक आतंक का खौफ पसरा है। संसद पर आतंकी हमला करने की साजिश में फांसी की सजा प्राप्त अफजल को सरकारी मेहमान बनाए रखना सेक्युलरिस्टों के दोहरे चरित्र का जीवंत साक्ष्य है। कौन-सा ऐसा स्वाभिमानी राष्ट्र होगा, जो अपनी संप्रभुता पर हमला करने वालों की तीमारदारी करेगा?
असम की समस्या बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण है। इन बांग्लादेशियों को सुनियोजित तरीके से असम और अन्य पूर्वोत्तर प्रांतों सहित पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड आदि राज्यों के सीमांत क्षेत्रों में बसाया गया है। इनके कारण ही उन क्षेत्रों के जनसंख्या स्वरूप में भारी बदलाव आया है और वहां के स्थानीय नागरिक कई क्षेत्रों में अल्पसंख्यक की स्थिति में आ गए हैं और असुरक्षित अनुभव करते हैं। असम के मामले में तो गुवाहाटी उच्च न्यायालय का कहना है कि वे राच्य में किंगमेकर बन गए हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने सन 2005 के बाद 2006 में भी सरकार को बांग्लादेशी नागरिकों को देश से बाहर करने का निर्देश दिया है, किंतु बांग्लादेशी नागरिकों के निष्कासन पर सरकार खामोश है। असम में इतनी बड़ी हिंसा हुई, स्थानीय बोडो लोगों को उनके घरों और जमीनों से खदेड़ भगाया गया। विदेशियों के हाथों अपने सम्मान, अस्तित्व और पहचान लुटता देख जब स्थानीय लोगों ने कड़ा प्रतिरोध करना शुरू किया तो सभी सेक्युलर दलों को शांति और सद्भाव की चिंता सताने लगी। हिंसा भड़कने के प्रारंभिक तीन-चार दिनों तक राच्य और केंद्र सरकार दोनों सोई थीं। क्यों? अभी हाल में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने असम हिंसा पर अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी है। इसमें बताया गया है कि दंगे मुसलमानों और बोडो के बीच छिड़े। रिपोर्ट में मुसलमानों को अल्पसंख्यक और बोडो को बहुसंख्यक बताया गया है। अल्पसंख्यक होने का सेक्युलर मापदंड आखिर है क्या? क्या मुसलमान होना ही अल्पसंख्यक होने का आधार है, चाहे उनका संख्या बल कितना भी हो?
असम में अल्पसंख्यक कौन हैं? असम बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण मुस्लिम बहुल राच्य बनने की राह पर है। कोकराझाड़, धुबड़ी, चिरांग और बरपेटा जिले हिंसा के सर्वाधिक शिकार रहे। कोकराझाड़ के भोवरागुड़ी में भारतीय मतावलंबियों की जनसंख्या 1991 से 2001 के बीच एक प्रतिशत तो दोतमा तहसील में 16 प्रतिशत घटी है, जबकि इसी अवधि में मुसलमानों की आबादी 26 प्रतिशत बढ़ी है। धुबड़ी जिले के बगरीबाड़ी, छापर और दक्षिणी सलमारा में भारतीय मतावलंबियों की आबादी क्रमश: 4, 2 और 23 प्रतिशत घटी, वहीं इन तहसीलों में मुसलमानों की जनसंख्या इसी अवधि में क्रमश: 30.5, 37.39, और 21 फीसदी बढ़ी। अन्यत्र यही हाल है। आबादी में यह बदलाव उन अवैध बांग्लादेशियों के कारण हुआ है, जिन्हें बसाकर जहां पाकिस्तान अपने एजेंडे को साकार करना चाहता है, वहीं कांग्रेस सेक्युलरवाद के नाम पर उन्हें संरक्षण प्रदान कर अपनी सत्ता अजर-अमर करना चाहती है। कांग्रेसी नेता देवकांत बरुआ ने इंदिरा गांधी को यूं ही नहीं कहा था कि अली और कुली असम में कांग्रेस के हाथ से गद्दी कभी जाने नहीं देंगे। इसी मानसिकता ने देश को रक्तरंजित विभाजन के लिए अभिशप्त किया। विकृत सेक्युलरवाद के कारण आज असम सुलग रहा है और मुंबई में पाकिस्तानी झंडे लहराए गए तो आश्चर्य कैसा?
[लेखक बलबीर पुंज, राच्यसभा सदस्य हैं]

Friday, August 24, 2012

असम समस्या की जड़


उत्तरपूर्व के लोगों का बेंगलूर, मुंबई और पुणे से हजारों की संख्या में पलायन 16 अगस्त, 1946 की याद दिलाता है जिसे मोहम्मद अली जिन्ना के आव्हान पर डाइरेक्ट एक्शन डे घोषित किया गया था। इसके बाद हिंसा का जो तांडव शुरू हुआ उसकी परिणति देश के विभाजन में हुई। तब विश्व इतिहास में आबादी का सबसे बड़ा स्थानांतरण हुआ था। इस बार भी बड़ी संख्या में आबादी का पलायन हुआ है, जो देश की सीमा के अंदर है। इससे बड़ी संख्या में पलायन सिर्फ बंटवारे के समय हुआ था। इस आग को भड़काने में सबसे बड़ी भूमिका रही सोशल मीडिया की। शरारती तत्वों ने भारत को अस्थिर करने के लिए इसका कुत्सित इस्तेमाल किया। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने साफ कहा है कि अधिकतर एसएमएस/एमएमएस पाकिस्तान से भेजे गए थे। गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने पाकिस्तान के आंतरिक सुरक्षा मामलों के मंत्री से बात भी की है, लेकिन जैसा कि होता आया है पाकिस्तान ने अपना हाथ होने से साफ इन्कार कर दिया है। वैसे उसने प्रमाण मिलने पर कार्रवाई करने का भारत को भरोसा दिया है। पाकिस्तान ने स्थिति का लाभ उठाते हुए जातीय संघर्ष को सांप्रदायिक दंगे का रूप देने की पुरजोर कोशिश की। उसने प्राकृतिक आपदा से हुए हादसों की तस्वीरों को तोड़-मरोड़कर इंटरनेट पर अपलोड कर यह दुष्प्रचार करने का कुत्सित प्रयास किया कि मुसलमानों को बेरहमी से मारा जा रहा है। असम की समस्या जातीय है, सांप्रदायिक नहीं। यदि उसी संख्या में बांग्लादेशी मुसलमान की जगह हिंदू वहां बसते तो भी स्थानीय नागरिकों का उनसे संघर्ष होता। बोडो जनजाति का दावा है कि वे वहां के मूल निवासी हैं। वहां के महान वैष्णव संत शंकर देव ने उन्हें म्लेच्छ कहा है। इससे बोडो काफी आहत हैं और उन्होंने शंकर देव के लेखन पर प्रतिबंध लगाने की मांग की है। जो भी हो, असम की समस्या की जड़ में है बांग्लादेश से लगातार आ रहा जनसैलाब जो आजादी के बाद भी नहीं रुका और जिससे असम की आबादी की शक्ल बदल गई है। असम के कम से कम छह जिलों में मुसलमान आज बहुसंख्यक हैं। असम में अवैध घुसपैठ या स्थानांतरण की शुरुआत 19वीं सदी के प्रारंभ में हुई, जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी बंगाली मुसलमानों को ब्रम्हपुत्र घाटी में खेतों में काम करने के लिए लाई। तीस साल के अंदर बंगाल से आने वाले मुसलमान असम के चार जिलों में बस गए थे। उन्होंने जंगल को साफ किया तथा बंजर भूमि में उत्पादन शुरू किया। उनकी आबादी इस कदर बढ़ी कि 1931 में जनगणना आयुक्त सीएस मुलेन ने जनगणना रिपोर्ट में भविष्यवाणी की, जहां कहीं भी खाली जमीन है वहां पूर्वी बंगाल के लोग बस रहे हैं। पिछले 25 वर्षो में बिना किसी हंगामे या ज्यादा शोर-शराबे के पांच लाख की आबादी बंगाल से असम आकर प्रत्यारोपित हो चुकी है। एक समय आएगा जब शिवसागर एकमात्र जिला बचेगा जिसे असमी अपना कह सकेंगे। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए सरकार ने लाइन सिस्टम शुरू किया, जिसने हर जिले में एक खास क्षेत्र को चिन्हित किया जहां पलायन कर आने वाले बंगाली मुस्लिम बस सकते थे। परंतु 1944-45 में सादुल्लाह खान के नेतृत्व वाली मुस्लिम लीग सरकार ने इस व्यवस्था को खत्म कर कामरूप, दारांग तथा नवगांव जिलों में पूर्वी बंगाल से आने वाले मुसलमानों को बसने की छूट दे दी। ऐसा करने का उद्देश्य बताया गया- धान की पैदावार बढ़ाना। जिन्ना के निजी सचिव ने उनसे वादा किया था कि वह उन्हें पाकिस्तान के लिए असम तश्तरी पर परोस कर देंगे। स्वाधीनता के बाद भी बांग्लादेश से आबादी का पलायन जारी रहा। इससे यह प्रमाणित होता है कि मजहब के नाम पर हुए बंटवारे से समस्या का समाधान नहीं हुआ। महात्मा गांधी एवं जवाहरलाल नेहरू मजहब के आधार पर विभाजन के बिल्कुल खिलाफ थे। उनका कहना था कि यदि अंतत: विभाजन ही होना है तो यह क्षेत्रीय आधार पर होना चाहिए, धार्मिक आधार पर नहीं। परंतु जिन्ना ने उनकी बात नहीं मानी। जब सितंबर, 1946 में उनसे पूछा गया कि क्या वह हिंदुस्तान के सारे मुसलमानों को पाकिस्तान ले जा पाएंगे, तो उनका जवाब था कि वह पाकिस्तान में हिंदुओं को रखना पसंद करेंगे ताकि यदि भविष्य में हिंदुस्तान में मुसलमानों के साथ अन्याय होता है तो ऐसा ही वह हिंदुओं के साथ पाकिस्तान में कर सकें। यानी वह हिंदुओं को ब्लैकमेल करने के उद्देश्य से पाकिस्तान में रखना चाहते थे। वैसे संविधान सभा में जिन्ना ने अपने बहुचर्चित भाषण में कहा था कि पाकिस्तान में सभी धर्मावलंबी अमन-चैन से एकदूसरे के साथ रह पाएंगे। यदि पाकिस्तान को पंथनिरपेक्ष राष्ट्र ही होना था, जहां सभी धर्मो को मानने वालों को समान अधिकार और सम्मान के साथ रहने का हक मिलता तो फिर विभाजन की जरूरत ही क्या थी? विभाजन के बाद भी बांग्लादेश से अवैध पलायनकर्ताओं का आना जारी रहा। इसके विरोध में पूरे राज्य में व्यापक आंदोलन ऑल असम स्टुडेंट्स यूनियन के नेतृत्व में चला। अंत में 1985 में राजीव गांधी ने आसु के साथ समझौता किया, जिसमें तय हुआ कि 25 मार्च, 1971 के दिन या उसके बाद आने वाले बांग्लादेशियों की पहचान कर उन्हें वापस बांग्लादेश भेजा जाएगा। इस समझौते को सख्ती से लागू करने की जरूरत है। यह स्पष्ट करना जरूरी है कि असम के लोगों का विरोध स्थानीय मुसलमानों से नहीं है, वरन अवैध घुसपैठियों से है।
[लेखक सुधांशु रंजन, वरिष्ठ पत्रकार हैं]

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-opinion2-9592398.html

Wednesday, August 22, 2012

315 ईसाई फिर हिंदू धर्म में वापस

हरहुआ : स्थानीय मुर्दहा गांव स्थित ब्रह्म बाबा मंदिर में 315 ईसाइयों ने फिर हिंदू धर्म स्वीकार कर लिया। ये आसपास के गांवों के 22 परिवारों से हैं। हवन कुंड में आहुतियां दीं और संकल्प लिया। संत रविदास धर्म रक्षा समिति व सुहेलदेव रक्षा समिति ने पूजन अनुष्ठान कराया और उनके मूल धर्म में वापसी कराई।
http://www.jagran.com/uttar-pradesh/varanasi-city-9585091.html

Monday, August 20, 2012

त्रासदी से जूझता पूर्वोत्तर

असम में कोकराझाड़ समेत कुछ अन्य जिलों में व्यापक गुटीय हिंसा के बाद देश के विभिन्न हिस्सों में अफवाहों का जा दौर चला और उसके दुष्परिणामस्वरूप पूर्वोत्तर के लोगों को जिस तरह निशाना बनाया गया उससे आंतरिक सुरक्षा का कमजोर ढांचा ही सामने आया। रही-सही कसर कर्नाटक, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों से पूर्वोत्तर के लोगों के पलायन ने पूरी कर दी। यह पलायन आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर केंद्र सरकार की नाकामी को उजागर करता है। इससे अधिक शर्मनाक और क्या होगा कि देश के एक हिस्से में उभरे सांप्रदायिक तनाव की प्रतिक्रिया देश के अलग-अलग हिस्सों में व्यक्त की जाए और राज्य सरकारों के साथ-साथ केंद्रीय सत्ता इस पर अंकुश लगाने में अक्षम साबित हो? यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है कि पूर्वोत्तर के लोगों को अलग-अलग राज्यों में निशाना बनाया जा रहा है और इसके चलते वे अपने घरों की ओर भाग रहे हैं। इस मामले में पहला दोष असम सरकार का है, जो अपने यहां भड़की हिंसा पर रोक लगाने में असफल साबित हुई। असम सरकार की नाकामी को ढकने का प्रयास केंद्रीय सत्ता ने किया। नतीजा यह हुआ कि वहां की हिंसा के बहाने अन्य राच्यों में शरारती तत्व सक्रिय हो गए। चूंकि असम में कांग्रेस की ही सरकार है इसलिए केंद्रीय सत्ता ने न तो वहां भड़की हिंसा के बुनियादी कारणों की तह में जाने की कोशिश की और न ही यह देखने-समझने की कि राच्य सरकार अपने दायित्वों का सही तरह पालन कर रही है या नहीं? असम में भड़की हिंसा पर बोडो समुदाय का आरोप है कि बांग्लादेश से अवैध रूप से आकर बसे लोगों के कारण पूरे क्षेत्र का जनसांख्यिकीय स्वरूप बदल गया है। बोडो समुदाय की नाराजगी का एक कारण यह भी है कि 1985 में राजीव गांधी सरकार द्वारा किए गए समझौते को पूरी तरह लागू नहीं किया गया। पिछले डेढ़-दो दशकों में असम में बांग्लादेश से आए लोगों की आबादी जिस तरह बढ़ी है उससे स्थानीय समुदाय के लोगों को अपने संसाधन हाथ से खिसकते नजर आ रहे हैं। असम में भड़की हिंसा पर राच्य सरकार शुरू से ही हकीकत पर पर्दा डालते नजर आई। पहले उसकी ओर से यह आरोप लगाया गया कि सेना ने देर से हस्तक्षेप किया और फिर हिंसा भड़कने के अलग-अलग कारण बताने की होड़ लग गई। चूंकि असम सरकार ने वस्तुस्थिति समझकर सही कदम उठाने से इन्कार किया इसलिए हिंसा ने गंभीर रूप धारण कर लिया। स्थिति की गंभीरता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि करीब तीन लाख लोग राहत शिविरों में शरण लेने के लिए मजबूर हैं और खुद मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि हालात सामान्य होने में दो-तीन माह का समय लगेगा। पता नहीं क्यों केंद्रीय सत्ता अभी भी बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ को लेकर अपनी आंखें बंद किए हुए है? जब अनेक स्नोतों से यह सामने आ चुका है कि पिछले तीन-चार दशकों में असम में बांग्लादेशी नागरिकों की आबादी कई गुना बढ़ गई है और सुप्रीम कोर्ट भी इस घुसपैठ को लेकर केंद्र सरकार को फटकार लगा चुका है तब हाथ पर हाथ धरकर बैठने का क्या मतलब? बांग्लादेश से आए लोगों का मुद्दा असम की एक पुरानी समस्या है और इसे लेकर खूब राजनीति भी होती रही है। एक समय उल्फा और असम गण परिषद की मान्यता यह थी कि असम में बाहर से आए सभी लोगों को निकाला जाना चाहिए। उनके निशाने पर बांग्लादेश और साथ ही देश के अन्य हिस्सों से आए लोग भी थे। एक समय इस मुद्दे ने राष्ट्रीय समस्या का रूप ले लिया था। बाद में न केवल उल्फा की विभाजनकारी रणनीति पर अंकुश लगाया गया, बल्कि राजनीतिक रूप से असम गण परिषद भी हाशिये पर चला गया। असम गण परिषद के कमजोर होने का फायदा कांग्रेस को मिला और वह पिछले तीन चुनाव जीतने में सफल रही। लंबे समय तक सत्ता में रहने से जो कमियां शासन में आ जाती है वे असम सरकार में भी नजर आ रही हैं, विशेषकर कानून एवं व्यवस्था के मोर्चे पर। असम के साथ-साथ देश के अन्य क्षेत्रों में स्थितियां इसलिए और अधिक खराब होती गईं, क्योंकि मोबाइल और इंटरनेट के जरिये सांप्रदायिक तनाव फैलाने वाले तत्वों पर लगाम नहीं लगाई जा सकी। मुंबई में तो असम हिंसा के विरोध में आयोजित प्रदर्शन अराजकता में तब्दील हो गया। केंद्र सरकार ने थोक में किए जाने वाले एसएमएस और एमएमएस पर रोक लगाने का निर्णय तब लिया जब कर्नाटक, आंध्र और महाराष्ट्र में रह रहे पूर्वोत्तर के लोग बड़े पैमाने पर पलायन के लिए विवश हो गए। भले ही प्रधानमंत्री और गृहमंत्री यह आश्वासन दे रहे हैं कि स्थितियां नियंत्रण में हैं, लेकिन यह कैसा नियंत्रण है कि पूर्वोत्तर के लोग यह भरोसा नहीं कर पा रहे हैं कि उनकी वास्तव में सुरक्षा की जाएगी? फिलहाल इस निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी कि नए गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियों से सही तरह से निपट नहीं पा रहे हैं, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि उनके पदभार संभालने के बाद से एक के बाद एक ऐसी घटनाएं सामने आ रही हैं जो उनके लिए किसी परीक्षा से कम नहीं। यह स्वाभाविक ही है कि प्रमुख विपक्षी दल भाजपा आंतरिक सुरक्षा के मामलों को आक्रामक ढंग से उठा रही है। पूर्वोत्तर के लोगों को निशाना बनाए जाने के मामले में प्रधानमंत्री ने जिस तरह केवल भाजपा शासित कर्नाटक के मुख्यमंत्री से बात करना जरूरी समझा उससे भाजपा को केंद्र सरकार पर हमला करने का मौका मिला। वैसे भाजपा को ध्यान रखना होगा कि बांग्लादेशी नागरिकों को निकालना आसान नहीं। खुद उसके नेतृत्व वाली राजग सरकार इस दिशा में कुछ ठोस नहीं कर सकी थी। केंद्र सरकार के लिए न केवल यह आवश्यक है कि वह पूर्वोत्तर के लोगों को सुरक्षा का अहसास कराए, बल्कि उसे इसकी तह में जाना होगा कि क्या असम में हिंसा के पीछे कोई बड़ी साजिश थी? केंद्र सरकार को समस्या की जड़ यानी बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ को रोकने के ठोस प्रयास भी करने होंगे। असम में अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशी नागरिकों को चिन्हित करना कोई सरल कार्य नहीं है। केंद्र सरकार को राजनीतिक स्वार्थो की परवाह करने के बजाय दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देना होगा। किसी क्षेत्र के सीमित संसाधनों पर जब एक समुदाय का दबाव अत्यधिक बढ़ जाता है तो दूसरे समुदायों की समस्याएं बढ़ती हैं। असम के एक हिस्से में भड़की हिंसा का असर जिस तरह देश के अन्य हिस्सों पर पड़ा और पूर्वोत्तर के हजारों लोग पलायन के लिए मजबूर गए उससे इसका पता चलता है कि किस तरह शरारती तत्व इस हिंसा को हिंदू बनाम मुसलमान का रूप देने में सक्षम हो गए। इससे यह भी जाहिर हुआ कि शेष देश के लोगों को पूर्वोत्तर की समझ नहीं है। इस स्थिति के लिए एक हद तक केंद्रीय सत्ता भी जिम्मेदार है, जो पूर्वोत्तर को हमेशा रियायतों से प्रभावित करने की कोशिश में रहती है। यही कारण है कि इस क्षेत्र के लोगों का सामाजिक और राजनीतिक तौर पर शेष देश से वैसा मिश्रण नहीं हुआ जैसा अन्य इलाके के लोगों का हुआ है। स्थितियां तभी बदलेंगी जब पूर्वोत्तर के च्यादा से च्यादा लोग देश के अन्य हिस्सों में काम-काज के लिए आते रहेंगे। अगर किसी भी कारण से वे भयभीत होंगे तो इससे पूर्वोत्तर की भी समस्याएं बढ़ेंगी और शेष देश की भी। [संजय गुप्त]
http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-opinion1-9580149.html