Wednesday, April 23, 2008

नेपाल में भारत की हार

नेपालियों की मनोदशा भांपने में मिली विफलता को भारत की भूल बता रहे हैं कुलदीप नैयर

नेपाल के चुनाव परिणाम से भारत को हैरानी नहीं होनी चाहिए। भारत पहले राजशाही के साथ डटा रहा और फिर एक नाकारा राजनीतिक दल के साथ। यह नई दिल्ली की असफलता है कि वह नेपाली जनता की मनोदशा का अनुमान लगाने में विफल रही। यह चिंता की बात होनी चाहिए, क्योंकि भारत और नेपाल के संबंधों का विस्तार कुछ माह का नहीं अपितु वर्षो का है। नेपाल के लोगों की सोच बदल रही थी, किंतु कल्पनालोक में खोई नई दिल्ली राजशाही और अपनी पुरानी मित्र नेपाली कांग्रेस को बचाने में लगी रही। अब नेपाल नरेश जाने ही वाले हैं। भारत ने अधिकारिक बयान दिया है कि उसका सरोकार काठमांडू की नई सरकार से है। इससे जाहिर है कि वहां जो हुआ, भारत की इच्छा के विपरीत हुआ और अब जब वैसा हो ही गया है तो वह उसे स्वीकार्य है। नई दिल्ली की चाहत चाहे जो हो, लोगों ने चुनाव में नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) को चुन लिया है। उनके चुनाव पर टीका-टिप्पणी करने वाले हम कौन होते हैं! जनादेश माओवादियों के पक्ष में और भारत के विरुद्ध है। नेपाली देख रहे थे कि नई दिल्ली उनके मामलों में बेवजह टांग अड़ा रहा है। माओवादियों ने चुनाव सभाओं में भारत के बड़े भाई तुल्य रवैये का मुद्दा उछाला था। नेपाल के साथ हमारी संधि भी नेपालियों के मनमाफिक नहीं है। हमें उसे बहुत पहले ही निरस्त कर देना चाहिए था। जब उनकी यही इच्छा थी तो हमने ऐसा क्यों नहीं किया? मैं यह भी नहीं समझ पा रहा कि पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति कार्टर ने अमेरिका से नेपाल में हुए परिवर्तन को मान्यता देने का अनुरोध क्यों किया है? अमेरिका विश्व का सर्वाधिक शक्तिशाली लोकतंत्र है। उसे यह एहसास होना चाहिए कि चाहे कितना भी अप्रिय क्यों न हो, स्वतंत्र और निष्पक्ष निर्वाचन का परिणाम ही निर्णायक और अंतिम होता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई देश किसी दूसरे देश की सरकार को पसंद करता है या नहीं। महत्व तो जनता की स्वतंत्र इच्छा का है। कार्टर चुनाव के पर्यवेक्षक रहे हैं इसलिए उन्हें यह बात बेहतर ढंग से पता होनी चाहिए। नेपालियों ने जो किया है उसे समझने और सराहने वाले लोग अब भी बहुत कम हैं। वहां सामंती समाज है, जो लगभग 235 वर्ष तक इस धारणा से ग्रस्त रहा कि महाराजा ही ईश्वर है और उसी के शासन में समृद्धि है। वहां इतनी अधिक असमानताएं हैं कि अतीत के विरुद्ध उठी आवाज को समर्थन नहीं मिलता। उम्मीद जाग रही है कि अब उनकी हालत में सुधार आएगा। माओवादी नेता प्रचंड ने इन्हीं परिस्थितियों का इस्तेमाल किया है। दो वर्ष पूर्व जब राजशाही के खात्मे की की मांग के समर्थन में सारा काठमांडू सड़कों पर उमड़ पड़ा था तो यह शोषित समाज की स्वयं को स्वतंत्र करने की उत्कंठा ही थी। देश को गणराज्य में बदलने के आश्वासन ने जनता में बदलाव की उम्मीद जगा दी। उन्होंने परिवर्तन के पक्ष में मतदान किया है। उन्हें भरोसा है कि लोगों की स्थिति में सुधार होगा। माओवादी इस कारण चुनाव में विजयी नहीं हुए हैं कि मतदाता उनकी विचारधारा से प्रभावित हैं। मतदाताओं को भरोसा है कि माओवादियों ने एक अलग अर्थव्यवस्था लाने का जो वचन दिया है उसे पूरा कर वे उन्हें गरीबी से उबारेंगे। यह सच है कि लोग भयभीत भी थे। माओवादी वर्षो से बंदूक के बल पर गांवों में अपनी हुकूमत चला रहे थे। यह भी कोई छिपी बात नहीं कि माओवादियों ने अपने सारे हथियार नहीं सौंपे, जबकि चुनाव से काफी समय पहले उन्होंने ऐसा करने पर सहमति जताई थी। इसके बावजूद लोगों के सामने कोई विकल्प नहीं था। महाराजा को वे खारिज कर चुके थे। वे फिर से नेपाली कांग्रेस की शरण में जाना नहीं चाहते थे, जिसे उन्होंने बार-बार परखा था और उनके हाथ निराशा ही लगी थी। यह देखना मजेदार था कि चुनावी पोस्टरों में कार्ल मा‌र्क्स, लेनिन और एंगेल्स के चित्रों के साथ स्टालिन को भी स्थान दिया गया। स्टालिन ने उन लाखों लोगों को मौत के घाट उतार दिया था, जिन्होंने उनसे असहमत होने का साहस दिखाया था। स्टालिन की तस्वीर कोलकाता स्थित माकपा के मुख्यालय में भी टंगी हुई है, जबकि वह मुख्यधारा में शामिल है और लोकतांत्रिक प्रणाली में आस्था जताती है। नेपाल में माओवादी भी जब सत्ता संभालेंगे तो ऐसा ही करेंगे। अगर उनसे मोहभंग हुआ तो तब होगा, जब वे अपना वचन नहीं निभा पाएंगे। माकपा के मामले में पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में ऐसा ही हुआ है। कौन जानता है कि नेपाल में माओवादी भी इसी बात को तर्कसंगत मानने लगें कि पूंजीवादी प्रणाली में कल्याणकारी राज्य की स्थापना संभव नहीं है, जैसा कि माकपा कर रही है। भारत में नक्सलवादी, जिन्हें माओवादी भी कहा जाता है, जो कुछ कर रहे हैं, मैं उसका घोर विरोधी हूं। वे खूनखराबे और आपराधिक गतिविधियों में लिप्त हैं। वे लोकतांत्रिक प्रणाली के प्रति अपने विरोध को नहीं छिपाते। वे मुख्यधारा में भी शामिल नहीं होना चाहते। उनकी आस्था जोर जबरदस्ती में है, आम सहमति में नहीं। यही एक ठोस कारण है कि नेपाल और भारत के माओवादी हाथ नहीं मिला पाएंगे। इनमें से एक व्यवस्था के स्थापित मूल्यों के प्रति आस्थावान है जबकि दूसरा उसके खिलाफ है। भारतीय माओवादी नेपाली माओवादियों के चरमपंथी गुटों को समर्थन दे सकते हैं ताकि पशुपति से तिरुपति तक लाल गलियारे का विस्तार हो सके। नेपाल का उदाहरण दक्षिण एशियाई क्षेत्र को सीख दे सकता है, अगर वह लेना चाहे तो। निर्धनता दुस्साहसिक प्रतिकार को जन्म देती है। सामंती व्यवस्था लोकतंत्र को नकारती है। नैराश्यभाव और हताशा का बोध लोगों को विद्रोह पर आमादा करता है। वे तब विद्रोह के रास्ते पर चलते हैं, जब यह मान लेते हैं कि दमनकारी व्यवस्था से मुक्ति पाने के लिए हिंसा के अलावा कोई चारा नहीं है। लोकतंत्र जनता को नाकारा और दमनकारी शासन के खिलाफ वोट का शांतिपूर्ण विकल्प प्रदान करता है। नेपालियों ने यही किया है। अब माओवादियों को इस सवाल का जवाब देना है कि क्या उनमें लोगों की हालत सुधारने की योग्यता और संकल्प शक्ति है। जिस चुनाव में माओवादी विजयी हुए हैं वह संविधान सभा के गठन हेतु हुआ है। यदि संविधान में वादे साकार रूप नहीं ले पाए तो लोग ही माओवादियों को उखाड़ फेंकेंगे। जब मैं काठमांडू में कुछ माओवादी नेताओं से मिला था तो उन्होंने कहा था कि यदि वे चुनाव में हार गए तो भी हथियार नहीं उठाएंगे। लोकतंत्र इसी तरह कारगर होता है। लोग अपने कर्णधारों को बदल देते हैं। मैं इस बारे में सुनिश्चित नहीं हूं कि जो माओवादी हिंसा के बल पर उभरे हैं वे यदि सत्ता को हाथ से खिसकता महसूस करेंगे तो अपने वचन को निभाएंगे या नहीं? महात्मा गांधी कहते थे कि यदि साधन दूषित होंगे तो परिणाम भी दूषित ही आएंगे। दुर्भाग्य से भारत गांधीजी की सलाह पर नहीं चल सका, हालांकि उसने आजादी अहिंसात्मक उपायों से ही प्राप्त की। अमेरिका निरंतर अहसास दिला रहा है कि उसने दमनकारी कानूनों से समझौता किया है। दरअसल, आज अमेरिका में इतना बदलाव आ चुका है कि वह पहचान में ही नहीं आ रहा है। नेपाल के माओवादियों को उसका अनुसरण नहीं करना चाहिए। उन्होंने देश-दुनिया को फिर से बंदूक न उठाने का जो वचन दिया है उस पर जिज्ञासु लोगों की नजरें लगी रहेंगी। (लेखक जाने-माने स्तंभकार हैं) दैनिक जागरण, April 23, Wednesday , 2008

Saturday, April 19, 2008

आतंक पर अधूरी पहल

आतंकवाद के खिलाफ मुस्लिम विद्वानों की पहल को अपर्याप्त मान रहे हैं राजनाथ सिंह सूर्य
देवबंद के बाद कुछ अन्य शहरों मे भीं इस्लामिक विद्वान, सामाजिक कार्यकर्तां और विचारक आतंकवाद के मुद्दे पर चर्चा कर रहे हैं और इससे संबंधित कतिपय सवालों के जवाब खोजने की चेष्टा कर रहे हैं। ऐसी ही एक चेष्टा पिछले दिनों बरेली में भी हुई। यहां यह ध्यान रहे कि जेहादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद के संस्थापक मौलाना मसूद अजहर और लश्कर-ए-तोयबा के जन्मदाता सैयद हाफिज सईद देवबंद के दारुल उलूम की शिक्षाओं से ही शिक्षित हुए हैं। इस लिहाज से यह सुखद आश्चर्य का विषय है कि दारुल उलूम परिसर में आतंकवाद के विरुद्ध पहल की शुरुआत हुई। दारुल उलूम देवबंद का स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान रहा है तथा कांग्रेस से उसके संचालकों का जुड़ाव उसके राष्ट्रवादी स्वरूप का संज्ञान कराता रहा है, किंतु शनै:-शनै: उसकी पहचान में बदलाव होता गया। पाकिस्तान ने भारत के साथ प्रत्यक्ष युद्ध में बार-बार शिकस्त खाने के बाद उसी इस्लामी आतंकवाद को हथियार बनाया जिसने अफगानिस्तान में रूढि़वादिता की पराकाष्ठा का आग्रह कर पहले रूस को पस्त किया और अब अमेरिका को नाकों चने चबवा रहा है। अमेरिका और पाकिस्तान ने जिस आतंकवाद को पाल-पोसकर पुष्ट किया वही अब इनका सबसे बड़ा शिकार बन गए हैं। भारत में गृह युद्ध फैलाने की नीयत से पाकिस्तान ने जो दस्ते तैयार किए उनके कृत्यों का ज्यों-ज्यों पर्दाफाश होने लगा त्यों-त्यों मुस्लिम समुदाय को समझ में आने लगा कि उन्हें जिस राह पर ले जाया जा रहा है वह कांटों से भरी है। स्वयं दारुल उलूम संदेह के घेरे में आ गया था तथा मदरसा शिक्षा पर प्रश्नचिह्न लगने लगा था। इसलिए मुसलमानों में यह सोच पैदा होना स्वाभाविक ही है कि आतंकी घटनाओं को अंजाम देने वाले मुट्ठी भर लोगों के कारण संपूर्ण मुस्लिम समुदाय तथा मजहबी और शिक्षा संस्थाओं पर संदेह के जो बादल छा गए हैं उनका छंटना जरूरी है। इसी घोषित उद्देश्य से अखिल भारतीय मदरसा इस्लामिया ने आतंक विरोधी सम्मेलन का आयोजन किया। प्रतिनिधियों को अधिक से अधिक संख्या में बुलाने के साथ-साथ सम्मेलन को अधिकाधिक प्रचारित करने के लिए बड़ी संख्या में पत्रकारों और टीवी चैनलों को भी आमंत्रित किया गया। सम्मेलन में करीब पचास लोगों ने भाषण दिए। इस भाषणबाजी से जो संदेश गया वह सम्मेलन के घोषित उद्देश्य के ठीक विपरीत था। सम्मेलन में कहा गया कि आतंकवाद विरोधी जांच के नाम पर निर्दोष मुस्लिम युवकों को परेशान किया जा रहा है। यह मांग भी उठाई गई कि जांच करने वाले सरकारी अधिकारियों को दंडित किया जाए। इन मांगों से वह प्रस्ताव बेमानी हो जाता है जिसमें कहा गया है कि इस्लाम शांतिप्रिय मजहब है और हिंसा व दहशतगर्दी में उसका विश्वास नहीं है। सम्मेलन में एक बार भी दहशतगर्दो से दूर रहने की अपील नहीं की गई। मैं यहां सम्मेलन में की गई अभिव्यक्तियों और मंसूबों के विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं समझता, लेकिन सम्मेलन के तत्काल बाद आतंकवादी घटनाओं के आरोप में निरुद्ध लोगों की पैरवी करने के लिए मुस्लिम लायर्स फोरम गठित करने के फैसले को नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता। उत्तर प्रदेश के विभिन्न स्थलों पर विस्फोट को अंजाम देने के आरोप में जो लोग पकड़े गए हैं उनकी पैरवी में खड़े न होने का फैसला बार एसोसिएशन ने किया है। मुस्लिम वकील भी इस बार के सदस्य हैं। तो क्या अब विधिवक्ताओं का सांप्रदायिक संगठन खड़ा होगा? यदि इस संदर्भ में मुंबई ट्रेन विस्फोटकों और संसद पर हमला करने वालों की पैरवी करने वाले वकीलों को मिलने वाली भारी-भरकम राशि की बात की जाए तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इतनी बड़ी रकम कहां से आती है? हाल ही में आतंकवादी घटनाओं से जुड़े सिमी संगठन के लोग गिरफ्तार किए गए हैं। मुस्लिम संगठन उनके बारे में मौन क्यों हैं? वैसे दारुल उलूम का सम्मेलन सभी मुस्लिम समुदायों के प्रतिनिधियों का सम्मेलन भी नहीं था। बरेलवी संप्रदाय का एक भी प्रतिनिधि इस सम्मेलन में शामिल नहीं हुआ। दारुल उलूम और जमायत-उल-उलेमा ही सम्मेलन में छाए रहे। सम्मेलन के आयोजन में मुख्य भूमिका राज्यसभा सदस्य मौलाना महमूद मदनी ने निभाई, जो राष्ट्रीय लोकदल से संबद्ध हैं। इस आयोजन के पीछे उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का खुलासा होना अभी बाकी है। कुछ संस्थाओं के एकाध प्रतिनिधि व्यक्तिगत रूप से अवश्य उपस्थित रहे। इनमें अहले-हदीस, जमात-ए-इस्लामी, फिरंगी महल, आल इंडिया दिल्ली काउंसिल और मुस्लिम पर्सनल ला का नाम गिनाया जा सकता है। यह सम्मेलन मुसलमानों को आतंकवादी गतिविधियों से अलग करने में कितना सफल होगा, यह कहना तो कठिन है, लेकिन संसद में बजट पेश होने से ठीक पहले इस सम्मेलन में व्यक्त तीखे भावों से तथाकथित सेकुलर दलों के सामने वोट बैंक खिसकने का खतरा मंडराता जरूर दिखाई पड़ रहा है। आम बजट में सांप्रदायिक आधार पर प्रावधान करने के बावजूद इन दलों को मुस्लिमों के मत अपने पाले में लाने के लिए अब और उपाय करने की जरूरत महसूस हो रही है। ये उपाय क्या होंगे, इसका खुलासा नहीं हो रहा है। आतंकवादी गतिविधियों में संलिप्त लोगों की पैरवी करने के लिए मुस्लिम लायर्स फोरम गठित करने के संकल्प पर सेकुलर खेमा वैसे ही खामोश है जिस प्रकार संसद पर हमले के आरोपी अफजल की फांसी पर कुछ नहीं कहा जा रहा। जो लोग यह सोच रहे हैं कि चुनाव के बाद पाकिस्तान भारत में आतंक फैलाना बंद कर देगा वे गलतफहमी के शिकार हैं। जिन दिनों देवबंद में सम्मेलन और मुस्लिम लायर्स फोरम गठित होने का समाचार प्रकाशित हुआ उन्हीं दिनों यह समाचार भी आया कि वैध तरीके से वीजा लेकर भारत में आने वाले 1335 पाकिस्तानी उत्तर प्रदेश के विभिन्न शहरों में गुम हो गए हैं। जिन शहरों में इनके गुम होने की सूचना दी गई है उनमें जेहादी इस्लामी संगठन अपना जाल बिछा चुके हैं। ऐसे शहरों की संख्या 37 बताई गई है। वैध रूप से भारत आए ये पाकिस्तानी कहां गुम हो गए? किन लोगों ने इनको गुम करने में मदद की है और वे कौन लोग हैं जो अवैध तरीके से नेपाल या बांग्लादेश के रास्ते आकर विस्फोटों को अंजाम दे रहे हैं? वे कौन हैं जो व्यावसायिक और तकनीकी उच्च शिक्षा प्राप्त करने वालों को भी आतंकी बना रहे हैं? इन सब के बारे में विचार करने और संपूर्ण मुस्लिम समुदाय को उनके नापाक इरादों के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास करने के बजाय केवल बयानबाजी करने से वांछित परिणाम नहीं हासिल किया जा सकता। पृथकता की सोच पनपाने वाले लोग भले ही अपने को पंथनिरपेक्ष कहते हों, पर वास्तव में वे मुस्लिम समुदाय की सांप्रदायिक आधार पर अलग पहचान बनाए रखने के निहित स्वार्थ में लगे हुए हैं। मुस्लिम समुदाय को उनके मंसूबों को समझने की जरूरत है। जरूरत है एक देश, एक जन की भावना की। इस भावना से परिपूर्ण विविधता में एकता को भारत की अस्मिता के साथ जोड़ना होगा। जब तक ऐसी जागरूकता नहीं होगी तब तक आतंकवाद के संदर्भ में उठने वाला संदेह समाप्त होने के स्थान पर और अधिक मजबूत होता रहेगा। (लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं) दैनिक जागरण, April 17, Thursday , 2008

बंगलादेशी प्रवासियों से सुरक्षा को खतरा

नई दिल्ली, भाषा : देश में बड़ी संख्या में मौजूद अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों से भारत की आंतरिक सुरक्षा को गंभीर खतरा है। गृह मामलों की एक स्थायी संसदीय समिति की संसद में पेश नवीनतम रिपोर्ट में यह कहा गया है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इसे हल्के तौर पर नहीं लिया जाना चाहिए। सुषमा स्वराज की अध्यक्षता वाली समिति ने अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा है कि भारत-बांग्लादेश सीमा पर जाली नोटों का भी व्यापक वितरण हो रहा है। गृह मंत्रालय की अनुदान मांगों पर समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि समिति पूरी दृढ़ता से सिफारिश करती है कि सीमा पर होने वाली गतिविधियों की कड़ाई से निगरानी की जाए। रिपोर्ट में कहा गया है कि कम चौकसी वाली भारत-बांग्लादेश सीमा और व्यवहारिक दिक्कतों के मुख्य कारण भौगोलिक स्थितियां हैं जिनकी वजह से सीमा पर तार लगाने का काम समय पर पूरा नहीं हो पा रहा है। तारबंदी न होने की वजह से अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों की घुसपैठ जारी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि सूचना दी गई है कि अवैध बांग्लादेशी प्रवासी राशन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, मतदाता पहचान पत्र और तो और पैनकार्ड तक हासिल करने में सफल हुए हैं। समाचार पत्रों में प्रकाशित खबरों तथा खुफिया सूत्रों का हवाला देते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में उग्रवादी संगठन बांग्लादेशियों की भर्ती कर रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार ऐसी भी खबरें हैं कि कुछ बांग्लादेशी उग्रवादी समूह भारत में उग्रवादी गतिविधियों में लिप्त हैं। समिति ने कहा है कि अवैध आब्रजन रोकने के लिए गृह मंत्रालय ने सीमा पर तारबंदी करने, फ्लड लाइट लगाने तथा सड़कें बनाने जैसे कदम उठाए हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा गश्त की जा सके। इसके अलावा सीमा पर निगरानी का काम एक ही बल सीमा सुरक्षा बल को सौंपा गया है। अतिरिक्त बटालियनें बना कर इसे मजबूत किया गया है, चौकियों के बीच की दूरी घटाई गई है और बीएसएफ को अत्याधुनिक उपकरण भी दिए गए हैं। गृह मंत्रालय ने राज्य सरकारों और केंद्रशासित प्रदेशों को समय-समय पर देश में अवैध तरीके से रह रहे विदेशी नागरिकों की पहचान के लिए कार्रवाई करने का आदेश भी दिया है। विदेशी (न्यायाधिकरण) आदेश 1964 के प्रावधानों के तहत असम में अवैध प्रवासियों और विदेशियों की धरपकड़ करनेके लिए 32 विदेशी न्यायाधिकरण हैं। दैनिक जागरण April 19, Saturday , 2008

Friday, April 4, 2008

सोचा-समझा दुष्प्रचार

प्रगतिशीलता की आड़ में भारतीय अस्मिता को चोट पहुंचाने के प्रयासों पर चिंता जता रहे हैं राजनाथ सिंह सूर्य
यह विश्वास करना कठिन है कि ऐसा जानबूझकर किया जा रहा है, लेकिन यह सही है कि नैतिक मूल्य गिराने वाले तथा भारतीय अस्मिता को चोट पहुंचाने वाले कारनामों का सिलसिला बढ़ता जा रहा है। दुर्भाग्य से ऐसे कारनामों के विरोध को भगवा ब्रिगेड का हंगामा कहकर दबाने की कोशिश की जाती है। ऐसा लगता है कि इस देश में अब उन लोगों का ही वर्चस्व बढ़ता जा रहा है जिनके लिए नैतिकता, निष्ठा, आस्था और अस्मिता के बजाय वाचालता, उच्छृंखलता, दुष्टता और पैशाचिकता का अधिक महत्व है। पिछले दिनों जब दिल्ली विश्वविद्यालय के एक पाठ्यक्रम में राम-सीता-हनुमान के संदर्भ में कुत्सित उद्धरणों के संदर्भ में भी यही देखने को मिला। यह पहला मौका नहीं है जब कुत्सित अभिव्यक्ति पर आपत्ति को भगवा ब्रिगेड का हंगामा कहकर उसके तथ्यों को छिपाने का प्रयास किया गया हो। प्राचीन देवी-देवताओं के अश्लील चित्र बनाने को कलाकार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला देकर कुछ लोगों ने सेकुलर भारत के लिए महत्वपूर्ण माना। उन्हीं लोगों ने किसी कार्टूनिस्ट का सिर काटकर लाने पर पचास करोड़ के इनाम की घोषणा करने वाले की निंदा नहीं की। राम-कृष्ण के अस्तित्व को नष्ट करने और रामायण-महाभारत को कपोल-कल्पित गाथा मानने वालों ने अब आगे बढ़कर इनके आदर्श पात्रों के चरित्र चित्रण के लिए वाल्मीकि, कंबन या गोस्वामी तुलसीदास जैसे लेखकों का सहारा लेने के बजाय किन्हीं रामानुजम द्वारा लिखित पुस्तक को अधिकृत माना। यह कहा गया कि विद्यार्थियों में भारत की विविधता पूर्ण विरासत की समझ बढ़ाने और उसके प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए यह आवश्यक है ताकि वे अकादमिक ढंग से तार्किक रूप में बिना किसी संकोच या नकारात्मकता के विश्लेषण कर सकें। समझ बढ़ाने, विविधता को समझने और बिना संकोच विश्लेषण कर सकने लायक समझ बढ़ाने के लिए रामायण के जो तथ्य प्रस्तुत किए गए हैं उन पर नजर डालना उपयुक्त होगा। इस पुस्तक के कुछ तथ्य इस प्रकार हैं। रावण और मंदोदरी के कोई संतान नहीं थी। दोनों ने शिव पूजा की। शिवजी ने उन्हें पुत्र प्राप्ति के लिए आम खाने को दिया। गलती से सारे आम रावण ने खा लिए और उसे गर्भ ठहर गया। रावण के नौ माह गर्भधारण की व्यथा भी इस अध्याय में दी गई है। गर्भ की व्यथा से पीडि़त रावण ने छींक मारी और सीता का जन्म हुआ। सीता रावण की पुत्री थी, जिसे उन्होंने जनकपुरी के खेत में त्याग दिया था। हनुमान एक तुच्छ छोटा सा बंदर था। वह लंका में स्ति्रयों का आमोद-प्रमोद देखने के लिए वह खिड़कियों से ताक-झांक करता था। रावण का वध राम ने नहीं, लक्ष्मण ने किया। दिल्ली विश्वविद्यालय के बीए आनर्स द्वितीय वर्ष के लिए कल्चर इन एंसियेंट इंडिया नामक जिस पुस्तक में यह सब और इसी तरह का और बहुत कुछ शामिल किया गया है उसका संकलन और संपादन डा. उपेंद्र कौर ने किया है, जो देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पुत्री हैं। संकोच और नकारात्मकता से प्रभावित न होने के लिए पुरुष के गर्भधारण से अधिक वैज्ञानिक समझ और क्या हो सकती है? जिस रावण के एक लखपूत सवा लख नाती थे उसे संतानविहीन और जो लाखों वर्षो से भारतीय मर्यादा के प्रतीक हैं उन्हें तुच्छ साबित करने से अधिक विविधता को समझने का और कौन सा उदाहरण दिया जा सकता है? इसी संकलन में लिखा है कि प्राचीन भारत में स्ति्रयां बेची और खरीदी जाती थीं। मैं नहीं समझता कि संकलनकर्ता का उपरोक्त उद्धरणों में विश्वास होगा या इन तथ्यों को शिक्षा नीति निर्धारित करने वाले अधिकृत मानते होंगे। कम से कम अर्जुन सिंह के बारे में तो यह दावा किया ही जा सकता है। फिर भी प्राचीन भारत की अनुभूति कराने के इस प्रकट के प्रयासों की निरंतरता क्यों है? इसे समझने के लिए एक और उदाहरण संभवत: उपयुक्त होगा, जो बड़े जोर-शोर से प्रचारित होने वाली यौन शिक्षा की पाठ्य सामग्री में वर्णित है। पाठ्य सामग्री में यह कहा गया है कि यौन संबंध केवल एक सहज शारीरिक क्रिया है, इसका नैतिकता, पवित्रता और आध्यात्मिकता से कोई संबंध नहीं हैं। एड्म को जानिए वाले भाग में सहवास के ऐसे अप्राकृतिक तरीकों का वर्णन किया गया है जिससे एड्स से बचा जा सकता है। मैं क्या करूं शीर्षक का यह उदाहरण क्या समझाने के लिए है-मैं ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ती हूं। मैंने क्लास रूम में एक लड़के के साथ यौन संबंध बनाए। अब वह दबाव डाल रहा है कि मैं उसके दोस्तों के साथ भी यौन संबंध बनाऊं, मैं क्या करूं? यौन शिक्षा के लिए इसी तरह के जो दर्जनों उदाहरण दिए गए हैं उनका उल्लेख करने का साहस मुझमें नहीं है। यह पुस्तक किस प्रकार की यौन शिक्षा को बढ़ावा देगी? क्या ऐसे पाठ्यक्रम और निकृष्ट साहित्य पर रोष प्रकट करना भगवा ब्रिगेड का हंगामा है? हम कैसी संस्कृति का स्वरूप पेश कर रहे हैं? जीवन में विश्वास, आस्था और संकल्प शक्ति पैदा करने वाले आचरण को हेय तथा पशुवत भावना को सहज स्वाभाविक बताकर जो कुछ समझाने का काम हमारे समझदार लोग कर रहे हैं उनकी मानसिकता को समझने के लिए एक और उदाहरण पेश है। रामसेतु का विरोध कर रहे तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि ने साक्षात्कार में कहा कि राम और सीता भाई-बहन थे। ऐसा तुलसीदास की रामायण में लिखा है। साक्षात्कारकर्ता ने उनसे पूछा कि क्या उन्होंने स्वयं ऐसा पढ़ा है तो उनका उत्तर था-हां मैंने पढ़ा है। अब आप इस पर क्या प्रतिक्रिया करेंगे? कुत्सितता का प्रचार-प्रसार अज्ञानता के कारण नहीं, बल्कि जानबूझकर सोची-समझी रणनीति के तहत किया जा रहा है ताकि हम अपनी अस्मिता से कटकर अमेरिकी कचरा प्रवृत्ति के गुलाम हो जाएं। उद्योग, व्यापार, राजनीति, शिक्षा-सभी क्षेत्रों में यही प्रयास प्रगतिशीलता का पर्याय बन गया है। (लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं)