Showing posts with label वामपंथी आघात. Show all posts
Showing posts with label वामपंथी आघात. Show all posts

Monday, January 7, 2013

जेएनयू में महिषासुर डे मनाएगा छात्र संगठन

http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/16950359.cms
जवाहर लाल नेहरू विश्‍वविद्यालय में महिषासुर शहादत दिवस के आयोजन को लेकर तनाव का महौल बनने लगा है। एक तरफ ऑल इंडिया बैकवर्ड स्‍टूडेंट फोरम (AIBSF) द्वारा लगाए गए पोस्‍टरों को फाड़ दिया गया है। वहीं, फोरम कैंपस में महिषासुर दिवस मनाने के लेकर तैयार बैठा है। और इसके लिए जोरों से तैयारी की जा रही है। संगठन ने महिषासुर को भारत के आदिवासियों, दलितों और पिछड़ों का पूर्वज बताते हुए 29 अक्‍टूबर (शरद पूर्णिमा) को उनकी शहादत मनाने की घोषणा की है।

Tuesday, September 11, 2012

जेएनयू में गोमांस पार्टी की तैयारी

देश के प्रतिष्ठित संस्थान जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय [जेएनयू] में एक संगठन गोमांस पार्टी की तैयारी कर रहा है। इस संगठन को एक वामपंथी संगठन बढ़ावा दे रहा है। माहौल बिगड़ने की आशंका को देखते हुए पुलिस और सुरक्षा एजेंसियां सतर्क हो गई हैं। विश्व हिंदू परिषद व अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने पार्टी आयोजित करने पर गंभीर परिणाम भुगतने की चेतावनी दी है। हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में भी इस तरह की एक पार्टी हुई थी। विरोध में एक छात्र को चाकू मार दिया गया। इसके बाद भड़की हिंसा में पांच छात्र बुरी तरह घायल हुए थे और कई वाहनों को आग के हवाले कर दिया गया।
http://www.jagran.com/news/national-jnu-students-group-wants-cow-meat-in-party-vhp-warn-9650503.html

Saturday, May 12, 2012

असम में भी सुनाई दे रही माओवादी दस्तक

असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने शुक्रवार को कहा कि राज्य के पर्वतीय जिलों में माओवादियों ने अपने शिविर स्थापित कर लिए हैं और धीरे-धीरे अन्य हिस्सों में भी अपना आधार बना रहे हैं। गोगोई ने कहा कि माओवादी लंबे समय से राज्य में अपना आधार बढ़ा रहे हैं। गोगोई ने बुधवार को ऊपरी असम में चार माओवादी विरोधियों के मारे जाने का जिक्र करते हुए कहा कि इससे माओवादियों की उपस्थिति को लेकर राज्य सरकार के बयान की ही पुष्टि होती है।
http://www.amarujala.com/National/Maoist-hear-knocking-in-Assam-27276.html

Tuesday, May 8, 2012

देशघाती मानसिकता

आंध्र प्रदेश की पुलिस द्वारा 1 जुलाई, 2010 को एक मुठभेड़ में मारे गए शीर्ष नक्सली नेता चेरूकुरी राजकुमार उर्फ आजाद की मौत पर स्वयंभू मानवाधिकारियों के आंसू थमे नहीं हैं। पहले मुठभेड़ की सीबीआइ जांच की मांग की गई और जब सीबीआइ ने मानवाधिकारियों के प्रतिकूल मुठभेड़ को वास्तविक बताया तो सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दाखिल कर विशेष जांच समिति गठित करने की गुहार लगाई गई। पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने यह याचिका खारिज कर दी। नक्सली नेता चेरूकुरी पर 12 लाख का इनाम था। राज्य व्यवस्था के खिलाफ सशस्त्र क्रांति छेड़ने वाले नक्सलियों के प्रति मानवाधिकारियों के मोह का यह अकेला उदाहरण नहीं है। पश्चिम बंगाल में मारे गए शीर्ष नक्सली कमांडर कोटेश्वर राव उर्फ किशन की मौत पर भी स्वयंभू मानवाधिकारियों की टोली ने खूब हंगामा खड़ा किया था। इससे पूर्व नक्सलियों से सहानुभूति रखने वाले विनायक सेन और नक्सली विचारक कोबाद घंडी की गिरफ्तारी पर भी मानवाधिकारियों का कुनबा बिफर उठा था। यह कैसी मानसिकता है? देशघाती व्यक्तियों का मानवाधिकार क्या राष्ट्रहित से ऊपर है? अभी हाल ही में नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ में सुकमा के जिलाधिकारी एलेक्स पाल मेनन को दिनदहाड़े अगवा कर लिया था। उनके दो सुरक्षाकर्मी मारे गए। इससे पूर्व उड़ीसा में बीजद के विधायक को नक्सलियों ने एक महीने तक अपनी कैद में रखा। इटली के दो पर्यटकों का अपहरण कर कई दिनों तक कैद में रखा गया। उससे पूर्व मलकानगिरी के जिलाधिकारी आर विरील कृष्णा का अपहरण किया गया था। इन सब की रिहाई के लिए सरकार को नामी और इनामी नक्सली कामरेडों को रिहा करना पड़ा, जिन पर राज्य के खिलाफ विद्रोह करने और जानमाल को नुकसान पहुंचाने का आरोप था। नक्सलियों की इस नई बंधक नीति के आगे घुटने टेकने से नि:संदेह उनका मनोबल बढ़ेगा और आगे इस तरह की और भी घटनाएं बढ़ेंगी ही। बंदूक के बल पर जनतंत्र को उखाड़ फेंकना नक्सलियों का घोषित एजेंडा है, यह उनका खुला चेहरा है, किंतु नक्सलियों का समर्थन करने वाले बुद्धिजीवी नकाबपोश हैं, जो मानवाधिकार के नाम पर हिंसा और रक्तपात को न्यायोचित ठहराने की कोशिश करते हैं। एक ओर नक्सलियों को स्वयंभू मानवाधिकारियों व बुद्धिजीवियों का समर्थन प्राप्त है तो दूसरी ओर केंद्र में एक ऐसी सरकार है, जो नक्सलवाद को महज सामाजिक-आर्थिक समस्या मानती है, जबकि नक्सली चीन प्रेरित हैं और बंदूक के बल पर राजसत्ता को पलटने का लक्ष्य रखते हैं। उनकी प्रेरणा चीनी साम्यवादी नेता माओ त्से तुंग हैं, जिसने हिंसा के बल पर चीन की सत्ता हथिया ली थी। नक्सलियों का न तो प्रजातंत्र पर विश्वास है और न ही वे भारत के प्रति आस्था का भाव रखते हैं। कथित तौर पर वे शोषित और वंचितों के हक के लिए हथियार उठाए घूम रहे हैं, किंतु हकीकत यह है कि उनकी हिंसा से गरीब आदिवासी ही सर्वाधिक आहत हैं। नक्सली हिंसा के कारण दूरस्थ प्रदेशों में विकास कार्य संभव नहीं हो रहे, इसलिए सामाजिक असमानता कायम है। प्रारंभिक नीति दूरस्थ आदिवासी इलाकों में सरकारी हस्तक्षेप न्यूनतम रखने की थी, ताकि उनकी संस्कृति और परंपराओं को अक्षुण्ण रखा जा सके, किंतु इसके दुष्परिणामस्वरूप जो शून्य उत्पन्न हुआ उस निर्वात को अलगाववादी ताकतों ने पूरा किया। इसमें चर्च की भूमिका बहुत घातक रही है, किंतु सेक्युलर दल और कथित मानवाधिकारी चर्च केइस राष्ट्रविरोधी चेहरे को भी बचाते आए हैं। पूर्वोत्तर के राज्य अलगाववाद की चपेट में हैं और इस अलगाववादी भावना के दोहन में चर्च का भारी योगदान है। खुफिया जानकारी के अनुसार माओवादी अब असम के उग्रवादी संगठन उल्फा के परेश बरूआ गुट के साथ मिलकर अपहरण और उगाही का काम कर रहे हैं। माओवादी उल्फा के साथ मिलकर अरुणाचल के रास्ते चीन तक सीधी पहुंच बनाने की कोशिश में हैं, ताकि अत्याधुनिक हथियार और गोलाबारूद की आपूर्ति सुगम हो सके। नागालैंड के उग्रवादी संगठन नेशनलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड के साथ भी माओवादियों के घनिष्ठ संपर्क कायम होने की खुफिया जानकारी सरकार को है। नक्सल समस्या को सामाजिक-आर्थिक समस्या मानने वाली केंद्र सरकार इन खतरों की अनदेखी कर वस्तुत: देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा पैदा कर रही है। उत्तर में नेपाल स्थित पशुपति से लेकर दक्षिण के तिरुपति तक फैले माओवादियों को अपने प्रभाव क्षेत्र की तराइयों, निष्ठावान कैडर और आधुनिक अस्त्रों के कारण बढ़त हासिल है। खुफिया विभाग के पास इस बात की पुख्ता जानकारी है कि माओवादी जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के अलगाववादी आतंकी संगठनों के साथ घनिष्ठ संपर्क में है। स्वयं जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री ने भी इसकी पुष्टि की है। सशस्त्र माओवादी कैडरों की संख्या 15000 से ऊपर पहुंच चुकी है। 2008 में ऐसे कैडरों की संख्या महज चार हजार ही थी। इसकी तुलना में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल, जिस पर माओवादियों के सफाए की जिम्मेदारी है, के पास न तो पर्याप्त आधुनिक असलहे हैं और न ही उन्हें समुचित प्रषिक्षण दिया गया है। पिछले तीन सालों में सुरक्षा जवानों और नक्सलियों के बीच होने वाली मुठभेड़ में सुरक्षाकर्मी ही बड़ी संख्या में मारे गए हैं। ऑपरेशन ग्रीनहंट की विफलता और सुरक्षा बलों की भारी क्षति के बाद केंद्रीय पुलिस संगठन और सीमा सुरक्षा बल के वर्तमान स्वरूप और उसकी क्षमता का आकलन करने से यह कटु सत्य सामने आया कि मौजूदा संसाधनों के साथ नक्सलियों से लोहा लेने में केंद्रीय रिजर्व बल समेत केंद्रीय पुलिस बल को अगले बीस सालों तक नक्सलियों के खिलाफ कोई बड़ी सफलता हाथ लगने वाली नहीं है। कहने को नक्सली आंदोलन भूमिगत है, किंतु आजाद, किशन, विनायक सेन और कोबाड घंडी जैसे लोगों के समर्थन में कुतर्क की भाषा बोलने वाले बुद्धिजीवी वस्तुत: भारतीय जनतंत्र और प्रजातांत्रिक मूल्यों के घोर विरोधी हैं। अन्यथा क्या कारण है कि सभ्य समाज को लहूलुहान करने वाले इस्लामी आतंकियों से लेकर माओवादियों के पक्ष में स्वयंभू मानवाधिकारी ढाल बनकर खड़े हो जाते हैं? इस्लामी आतंक और नक्सली हिंसा को संरक्षण देने वाला चेहरा धरातल पर दिखने वाला हो या भूमिगत, उनका उद्देश्य भारत की बहुलतावादी संस्कृति और विशिष्ट पहचान को नष्ट करना है। यह भारत के खिलाफ एक अघोषित युद्ध है और इस युद्ध में भारत के खिलाफ भारतीयों का ही सफलतापूर्वक उपयोग किया जा रहा है। जब तक नई दिल्ली में बैठा सत्ता अधिष्ठान इस सच्चाई को नहीं समझता तब तक नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई नहीं जीती जा सकती।
http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-9228017.html

Thursday, June 4, 2009

Maoist threat to BJP legislator in Orissa’s Kandhamal

ThaIndian News , June 4th, 2009 , Bhubaneswar, least two posters warning a Bharatiya Janata Party (BJP) legislator and Bajrang Dal activists of dire consequences for having allegedly fuelled last year’s communal violence have been found in Orissa’s Kandhamal district

The posters are suspected to have been put up by Maoist rebels, police said Thursday.


The posters warning that BJP’s Manoj Pradhan and three Bajrang Dal workers would be killed soon were found Wednesday in the Raikia area of Kandhamal, about 200 km from here, District Superintendent of Police S. Praveen Kumar told IANS.

Police have tightened security at the jail in G. Udayagiri, where Pradhan is imprisoned for his alleged involvement in the communal violence.

The district witnessed widespread communal violence after the murder of Vishwa Hindu Parishad (VHP) leader Swami Laxmanananda Saraswati and four of his aides at his ashram Aug 23 last year.

While the police blamed Maoists for the killings, some Hindu organisations alleged Christians were behind the crime and launched attacks on the community.

At least 38 people were killed and over 25,000 Christians forced to flee after their houses were attacked by rampaging mobs in the aftermath of the attack on Saraswati. Nearly 2,500 people are still living in government relief camps.

Although no violence has been reported from the region since October last year, police believe the posters may have been plastered by the rebels to disturb peace.

The BJP Thursday said the rebels had attacked Dilu Pradhan, a Bajrang Dal activist, a few days ago.

“The rebels have prepared a hit list that has the names of at least 14 people associated with the BJP and VHP,” a BJP leader said.

Thursday, March 19, 2009

उड़ीसा में संघ नेता की हत्या

दैनिक जागरण, 19 मार्च 2009, फुलबनी। पिछले वर्ष ईसाई विरोधी दंगे में गिरफ्तार किए गए आरएसएस नेता की गुरुवार की सुबह सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील उड़ीसा के कंधमाल जिले में संदिग्ध माओवादियों ने गोली मारकर हत्या कर दी।

पुलिस ने बताया कि यहां से 145 किलोमीटर दूर रुडीगुमा गांव में आज सुबह करीब 15 हथियारबंद उग्रवादियों ने हमला किया और प्रभात पाणिग्रही को गोली मार दी। पाणिग्रही आरएसएस के एक कार्यकर्ता के यहां ठहरे हुए थे। हत्यारों की गिरफ्तारी के लिए व्यापक खोज अभियान चलाया जा रहा है।

किसी अप्रिय घटना को रोकने के लिए एहतियात के तौर पर गांव में अतिरिक्त सुरक्षा बलों की तैनाती की गई है। पुलिस ने बताया कि माओवादियों ने कोटागाडा और रूडीगुमा के बीच सड़क पर पेड़ काट कर गिरा दिया जिससे पुलिस को घटनास्थल तक पहुंचने में देरी हुई।

सूत्रों ने बताया कि पाणिग्रही को विहिप नेता लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के बाद भड़के सांप्रदायिक दंगे के मामले में गिरफ्तार किया गया था। वह 14 मार्च को बालीगुडा जेल से जमानत पर रिहा हुए थे।

Wednesday, January 21, 2009

अस्मिता पर आघात

तरुण विजय

दैनिक जागरण, १२ जवारी 2००९, नेपाल के माओवादी प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड ने पशुपतिनाथ मंदिर को निशाने पर लेकर 'जनवादी क्रांति' शुरू करने का जो प्रयास किया वह तीव्र जनरोष के कारण विफल रहा और उन्हे भारतीय मूल के पुजारियों को पुन: बहाल करने पर विवश होना पड़ा। तात्कालिक रूप से यह भले ही हिंदू समाज के लिए राहत की बात हो, लेकिन इसके दूरगामी संकेत चिंताजनक है। प्रचंड के नेतृत्व में माओवादी नेपाल के अन्य गणतंत्रात्मक दलों को प्रभा हीन कर नए संविधान निर्माण के तुरंत बाद होने वाले चुनावों में अपने बल पर बहुमत प्राप्त करना चाहते है। मुख्य उद्देश्य है चीन की भांति नेपाल में एकतंत्रात्मक कम्युनिस्ट शासन स्थापित करना। इसके लिए उन्हे जिस प्रकार के तंत्रात्मक सहयोग एवं शासकीय उपकरणों की सहायता आवश्यक होगी उन सब साधनों को अपने कब्जे में करने के लिए उनके कदम उठ चुके हैं। सेना में माओवादी संगठन पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के गुरिल्ला लड़ाकों की भर्ती, पुलिस पर माओवादी झुकाव वाले अधिकारियों की नियुक्ति द्वारा नियंत्रण, न्यायपालिका और मीडिया में निचले स्तर से माओवादियों की भर्ती और प्रभाव वृद्धि के बाद उन्होंने हिंदू नेपाल के प्रतीक पशुपतिनाथ मंदिर की मर्यादा हनन कर राष्ट्रवादी हिंदुओं का उसी प्रकार तेज भंग करने का सुविचारित कदम उठाया जैसे बाबर तथा औरंगजेब ने अयोध्या में रामजन्मभूमि एवं मथुरा में गोविंद देव के मंदिर ध्वस्त कर किया था। जहां विभिन्न शासकीय अंगों पर माओवादी संगठनात्मक नियंत्रण से पार्टी को अगले चुनाव में मनमाफिक परिणाम हासिल करने में मदद मिलेगी वहीं हिंदू श्रेष्ठता और उच्चता के सभी प्रतिमान खंडित कर नेपाल को भारत से दूर करने की दिशा में निर्णायक अध्याय रचा जा सकेगा, जिसे प्रचंड के लोग 'नए नेपाल' का मूल मुद्दा मानते हैं। पिछले दिनों प्रचंड ने यह कहकर चौंका दिया था कि नेपाल के लिए भारत से संबंधों को संतुलित करने के लिए चीन तथा पाकिस्तान से दोस्ती बढ़ाना जरूरी है।

पशुपतिनाथ मंदिर नेपाल की हिंदू अस्मिता और राष्ट्रीयता की पहचान के रूप में विश्व में मान्य है। वहां हिंदुओं को प्रभावहीन दिखाकर वे 'नए नेपाल' के लाल-स्वप्न को साकार करने के लिए वैसे ही बढ़ सकते है जैसे अक्टूबर क्रांति के बाद बोल्शेविक छा गए थे। गत वर्ष सितंबर में जब प्रचंड अपनी प्रथम राजनीतिक यात्रा पर भारत आए थे तो मुझे उनसे कुछ देर वार्ता का अवसर मिला था। बातचीत में उन्होंने स्पष्ट कहा-'भाई, हम भी तो हिंदू हैं, हम हिंदू धर्म के खिलाफ क्यों काम करेगे?' भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह के यहां एक कार्यक्रम में वह बोले कि जब तक अयोध्या और जनकपुर है तब तक भारत-नेपाल संबंध कोई बिगाड़ नहीं सकता। ऐसा लगता है माओवादी अपनी राजनीतिक स्थिति सुदृढ़ होने तक राजनयिक विनय ओढ़ना जरूरी समझते है। उनकी वास्तविक मंशा का परिचय यंग कम्युनिस्ट लीग के कार्यो और सरकार की हिंदुओं के प्रति संवेदनहीनता से मिलता है। आश्चर्य की बात यह है कि जिन माओवादियों ने चीन को अपना प्रेरक देश माना, जिन्होंने 15 हजार नेपालियों की हत्या की, जिसके निशाने पर गत डेढ़ दशक में केवल हिंदू प्रतीक के प्रतिमान रहे, जिन्होंने सबसे पहले नेपाल के हिंदू राष्ट्र वाले संवैधानिक अलंकरण को हटाया उन पर भारत के नेता तुरंत कैसे विश्वास कर लेते है? यदि विश्व के हिंदू संगठनों और समाज ने एकजुट होकर नेपाल में बहुलतावादी लोकतंत्र के गैर-कम्युनिस्ट स्वरूप को बचाने तथा नेपाल की सांस्कृतिक एवं धार्मिक पहचान बनाए रखने के लिए दबाव नहीं बनाया तो यह स्वाभिमानी धर्मनिष्ठ देश भारत के लिए वैसा ही भू-राजनीतिक सिरदर्द बन जाएगा जैसे बांग्लादेश व पाकिस्तान हैं। चीन की मंशा यही है। वह भारत के तीव्र गति से बढ़ रहे विकास को बांधने के लिए जैसे पाकिस्तान का उपयोग करता है वैसे ही अब नेपाल उसका परोक्ष सामरिक उपकरण बन गया है। पशुपतिनाथ मंदिर की व्यवस्था अपने नियंत्रण में लेने के लिए माओवादियों का प्रहार पूरे परिदृश्य का छोटा, परंतु महत्वपूर्ण संकेत है। असल में नेपाल के कम्युनिस्टों की नजर मंदिर की आय पर है। 1800 वर्ष पूर्व स्थापित यह प्राचीन मंदिर भारत-नेपाल प्रगाढ़ संबंधों की सबसे शक्तिशाली गारंटी है। यहां के पुजारी भारत के हों अथवा नेपाल के, यह प्रश्न सदा गौण रहा, क्योंकि पुजारी की नियुक्ति की एकमात्र कसौटी उसका तंत्र विद्या में निष्णात होना और ऋग्वेद संपूर्णत: कंठस्थ होने के साथ-साथ पारिवारिक परंपरा से शुद्ध शाकाहारी होनी मानी जाती है। विधि-विधान से पूजन की परंपरा को माओवादियों ने खंडित किया है। कम्युनिस्टों का यह कलुष दोनों देशों के प्राचीन संबंधों पर काली छाया न डाले, इसके लिए भारत सरकार और समाज के सभी वर्गों को दृढ़ता दिखानी होगी।


Monday, January 5, 2009

पहली बार पशुपतिनाथ मंदिर में नहीं हुई पूजा

01 जनवरी 2009,इंडो-एशियन न्यूज सर्विस, काठमांडू। नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर के भारतीय पुजारियों को हटाने के कारण पैदा हुए विवाद से गुरुवार को इतिहास में पहली बार लोगों को पूजा से वंचित होना पड़ा।

माओवादी सरकार के दबाव के कारण मंदिर के तीन दक्षिण भारतीय पुजारियों ने पिछले महीने इस्तीफा दे दिया था और पशुपतिनाथ क्षेत्र विकास न्यास (पीएडीटी) ने मामले के सर्वोच्च न्यायालय में होने के बावजूद दो नेपाली पुजारियों की नियुक्ति कर दी थी।

भारतीय पुजारियों के चार सहयोगी जिनको ‘राजभंडारी’ के नाम से जाना जाता है, ने बुधवार को सर्वोच्च न्यायालय में इस कदम के खिलाफ याचिका दायर की थी।

सर्वोच्च न्यायालय ने पीएडीटी को नई नियुक्तियां रोकने का आदेश दिया था।

राजभंडारियों का आरोप है कि न्यास ने सभी प्रावधानों का उल्लंघन करते हुए राजनीतिक दबाव में पुजारियों की नियुक्ति की है। नेपाली पुजारियों को मंदिर में घुसने से रोकने के लिए राजभंडारियों ने गुरुवार को मुख्य दरवाजे पर ताला लगा दिया था।

बहरहाल, पीएडीटी अधिकारियों ने बलपूर्वक दरवाजा खोलकर नए पुजारियों को मंदिर में भेज दिया। इससे काफी विवाद पैदा हो गया। क्षेत्र में तनाव फैलने के बाद भारी संख्या में सुरक्षा बल घटनास्थल पर भेजे गए और पहली बार श्रद्धालु पूजा करने से वंचित रह गए।

स्थानीय लोग इसे एक अपशकुन के रूप में देख रहे हैं।

Monday, October 13, 2008

केरल: हमले में संघ कार्यकर्ता की मौत

दैनिक जागरण, ११ अक्तूबर २००८, कन्नूर। केरल के कन्नूर जिले में शुक्रवार रात मा‌र्क्सवादी माकपा कार्यकर्ताओं के कथित बम हमले में राष्ट्रीय स्वयं सेवक दल [आरएसएस] के एक कार्यकर्ता की मौत हो गई और एक अन्य घायल हो गया। भाजपा ने इसके विरोध में जिले में आज हड़ताल का आह्वान किया है।

पुलिस ने शनिवार को बताया कि थालसेरी के नजदीक कोलासरी में हुए देशी बम हमले में कोमाथु पारा के संघ के मुख्य शिक्षक 21 वर्षीय सीके अनूप की मौत हो गई। 22 वर्षीय घायल राजेश को कोझीक ोड के मेडिकल अस्पताल में भर्ती कराया गया है। पुलिस ने बताया कि भाजपा और संघ के कार्यकर्ताओं के तीन घरों पर भी हमले किए गए। स्थिति पर नियंत्रण और हिंसा को बढ़ने से रोकने के लिए क्षेत्र पुलिस बल तैनात किया गया है।

Wednesday, April 23, 2008

नेपाल में भारत की हार

नेपालियों की मनोदशा भांपने में मिली विफलता को भारत की भूल बता रहे हैं कुलदीप नैयर

नेपाल के चुनाव परिणाम से भारत को हैरानी नहीं होनी चाहिए। भारत पहले राजशाही के साथ डटा रहा और फिर एक नाकारा राजनीतिक दल के साथ। यह नई दिल्ली की असफलता है कि वह नेपाली जनता की मनोदशा का अनुमान लगाने में विफल रही। यह चिंता की बात होनी चाहिए, क्योंकि भारत और नेपाल के संबंधों का विस्तार कुछ माह का नहीं अपितु वर्षो का है। नेपाल के लोगों की सोच बदल रही थी, किंतु कल्पनालोक में खोई नई दिल्ली राजशाही और अपनी पुरानी मित्र नेपाली कांग्रेस को बचाने में लगी रही। अब नेपाल नरेश जाने ही वाले हैं। भारत ने अधिकारिक बयान दिया है कि उसका सरोकार काठमांडू की नई सरकार से है। इससे जाहिर है कि वहां जो हुआ, भारत की इच्छा के विपरीत हुआ और अब जब वैसा हो ही गया है तो वह उसे स्वीकार्य है। नई दिल्ली की चाहत चाहे जो हो, लोगों ने चुनाव में नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) को चुन लिया है। उनके चुनाव पर टीका-टिप्पणी करने वाले हम कौन होते हैं! जनादेश माओवादियों के पक्ष में और भारत के विरुद्ध है। नेपाली देख रहे थे कि नई दिल्ली उनके मामलों में बेवजह टांग अड़ा रहा है। माओवादियों ने चुनाव सभाओं में भारत के बड़े भाई तुल्य रवैये का मुद्दा उछाला था। नेपाल के साथ हमारी संधि भी नेपालियों के मनमाफिक नहीं है। हमें उसे बहुत पहले ही निरस्त कर देना चाहिए था। जब उनकी यही इच्छा थी तो हमने ऐसा क्यों नहीं किया? मैं यह भी नहीं समझ पा रहा कि पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति कार्टर ने अमेरिका से नेपाल में हुए परिवर्तन को मान्यता देने का अनुरोध क्यों किया है? अमेरिका विश्व का सर्वाधिक शक्तिशाली लोकतंत्र है। उसे यह एहसास होना चाहिए कि चाहे कितना भी अप्रिय क्यों न हो, स्वतंत्र और निष्पक्ष निर्वाचन का परिणाम ही निर्णायक और अंतिम होता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई देश किसी दूसरे देश की सरकार को पसंद करता है या नहीं। महत्व तो जनता की स्वतंत्र इच्छा का है। कार्टर चुनाव के पर्यवेक्षक रहे हैं इसलिए उन्हें यह बात बेहतर ढंग से पता होनी चाहिए। नेपालियों ने जो किया है उसे समझने और सराहने वाले लोग अब भी बहुत कम हैं। वहां सामंती समाज है, जो लगभग 235 वर्ष तक इस धारणा से ग्रस्त रहा कि महाराजा ही ईश्वर है और उसी के शासन में समृद्धि है। वहां इतनी अधिक असमानताएं हैं कि अतीत के विरुद्ध उठी आवाज को समर्थन नहीं मिलता। उम्मीद जाग रही है कि अब उनकी हालत में सुधार आएगा। माओवादी नेता प्रचंड ने इन्हीं परिस्थितियों का इस्तेमाल किया है। दो वर्ष पूर्व जब राजशाही के खात्मे की की मांग के समर्थन में सारा काठमांडू सड़कों पर उमड़ पड़ा था तो यह शोषित समाज की स्वयं को स्वतंत्र करने की उत्कंठा ही थी। देश को गणराज्य में बदलने के आश्वासन ने जनता में बदलाव की उम्मीद जगा दी। उन्होंने परिवर्तन के पक्ष में मतदान किया है। उन्हें भरोसा है कि लोगों की स्थिति में सुधार होगा। माओवादी इस कारण चुनाव में विजयी नहीं हुए हैं कि मतदाता उनकी विचारधारा से प्रभावित हैं। मतदाताओं को भरोसा है कि माओवादियों ने एक अलग अर्थव्यवस्था लाने का जो वचन दिया है उसे पूरा कर वे उन्हें गरीबी से उबारेंगे। यह सच है कि लोग भयभीत भी थे। माओवादी वर्षो से बंदूक के बल पर गांवों में अपनी हुकूमत चला रहे थे। यह भी कोई छिपी बात नहीं कि माओवादियों ने अपने सारे हथियार नहीं सौंपे, जबकि चुनाव से काफी समय पहले उन्होंने ऐसा करने पर सहमति जताई थी। इसके बावजूद लोगों के सामने कोई विकल्प नहीं था। महाराजा को वे खारिज कर चुके थे। वे फिर से नेपाली कांग्रेस की शरण में जाना नहीं चाहते थे, जिसे उन्होंने बार-बार परखा था और उनके हाथ निराशा ही लगी थी। यह देखना मजेदार था कि चुनावी पोस्टरों में कार्ल मा‌र्क्स, लेनिन और एंगेल्स के चित्रों के साथ स्टालिन को भी स्थान दिया गया। स्टालिन ने उन लाखों लोगों को मौत के घाट उतार दिया था, जिन्होंने उनसे असहमत होने का साहस दिखाया था। स्टालिन की तस्वीर कोलकाता स्थित माकपा के मुख्यालय में भी टंगी हुई है, जबकि वह मुख्यधारा में शामिल है और लोकतांत्रिक प्रणाली में आस्था जताती है। नेपाल में माओवादी भी जब सत्ता संभालेंगे तो ऐसा ही करेंगे। अगर उनसे मोहभंग हुआ तो तब होगा, जब वे अपना वचन नहीं निभा पाएंगे। माकपा के मामले में पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में ऐसा ही हुआ है। कौन जानता है कि नेपाल में माओवादी भी इसी बात को तर्कसंगत मानने लगें कि पूंजीवादी प्रणाली में कल्याणकारी राज्य की स्थापना संभव नहीं है, जैसा कि माकपा कर रही है। भारत में नक्सलवादी, जिन्हें माओवादी भी कहा जाता है, जो कुछ कर रहे हैं, मैं उसका घोर विरोधी हूं। वे खूनखराबे और आपराधिक गतिविधियों में लिप्त हैं। वे लोकतांत्रिक प्रणाली के प्रति अपने विरोध को नहीं छिपाते। वे मुख्यधारा में भी शामिल नहीं होना चाहते। उनकी आस्था जोर जबरदस्ती में है, आम सहमति में नहीं। यही एक ठोस कारण है कि नेपाल और भारत के माओवादी हाथ नहीं मिला पाएंगे। इनमें से एक व्यवस्था के स्थापित मूल्यों के प्रति आस्थावान है जबकि दूसरा उसके खिलाफ है। भारतीय माओवादी नेपाली माओवादियों के चरमपंथी गुटों को समर्थन दे सकते हैं ताकि पशुपति से तिरुपति तक लाल गलियारे का विस्तार हो सके। नेपाल का उदाहरण दक्षिण एशियाई क्षेत्र को सीख दे सकता है, अगर वह लेना चाहे तो। निर्धनता दुस्साहसिक प्रतिकार को जन्म देती है। सामंती व्यवस्था लोकतंत्र को नकारती है। नैराश्यभाव और हताशा का बोध लोगों को विद्रोह पर आमादा करता है। वे तब विद्रोह के रास्ते पर चलते हैं, जब यह मान लेते हैं कि दमनकारी व्यवस्था से मुक्ति पाने के लिए हिंसा के अलावा कोई चारा नहीं है। लोकतंत्र जनता को नाकारा और दमनकारी शासन के खिलाफ वोट का शांतिपूर्ण विकल्प प्रदान करता है। नेपालियों ने यही किया है। अब माओवादियों को इस सवाल का जवाब देना है कि क्या उनमें लोगों की हालत सुधारने की योग्यता और संकल्प शक्ति है। जिस चुनाव में माओवादी विजयी हुए हैं वह संविधान सभा के गठन हेतु हुआ है। यदि संविधान में वादे साकार रूप नहीं ले पाए तो लोग ही माओवादियों को उखाड़ फेंकेंगे। जब मैं काठमांडू में कुछ माओवादी नेताओं से मिला था तो उन्होंने कहा था कि यदि वे चुनाव में हार गए तो भी हथियार नहीं उठाएंगे। लोकतंत्र इसी तरह कारगर होता है। लोग अपने कर्णधारों को बदल देते हैं। मैं इस बारे में सुनिश्चित नहीं हूं कि जो माओवादी हिंसा के बल पर उभरे हैं वे यदि सत्ता को हाथ से खिसकता महसूस करेंगे तो अपने वचन को निभाएंगे या नहीं? महात्मा गांधी कहते थे कि यदि साधन दूषित होंगे तो परिणाम भी दूषित ही आएंगे। दुर्भाग्य से भारत गांधीजी की सलाह पर नहीं चल सका, हालांकि उसने आजादी अहिंसात्मक उपायों से ही प्राप्त की। अमेरिका निरंतर अहसास दिला रहा है कि उसने दमनकारी कानूनों से समझौता किया है। दरअसल, आज अमेरिका में इतना बदलाव आ चुका है कि वह पहचान में ही नहीं आ रहा है। नेपाल के माओवादियों को उसका अनुसरण नहीं करना चाहिए। उन्होंने देश-दुनिया को फिर से बंदूक न उठाने का जो वचन दिया है उस पर जिज्ञासु लोगों की नजरें लगी रहेंगी। (लेखक जाने-माने स्तंभकार हैं) दैनिक जागरण, April 23, Wednesday , 2008

Tuesday, March 18, 2008

हिंसक राजनीतिक दर्शन

कन्नूर हिंसा के लिए माकपा कार्यकर्ताओं को दोषी ठहरा रहे हैं बलबीर पुंज

केरल का कन्नूर जिला मा‌र्क्सवाद हिंसा से सुलग रहा है। कन्नूर भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना स्थली है, जिसे मा‌र्क्सवादी गर्व से भारत का लेनिनग्राद कहते हैं। कन्नूर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य 1943 में प्रारंभ हुआ और तब से ही माकपा का दुर्ग माने जाने वाले इस क्षेत्र में हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों के कार्यकर्ताओं पर माकपाई हिंसा जारी है। संघ की बढ़ती साख से घबराए मा‌र्क्सवादियों ने 1969 में एक संघ कार्यकर्ता की बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी थी। 1994 में पेशे से शिक्षक और संघ के कार्यकर्ता 35 वर्षीय जयकृष्णन को कन्नूर के एक स्कूल में विद्यार्थियों से भरी कक्षा में काट कर मार डाला गया था। वे छात्र शायद ही उम्र भर उस वीभत्स कांड को भूल पाएंगे। पिछले चालीस सालों में 250 से अधिक लोग माकपाई हिंसा में मारे गए हैं। सैकड़ों जीवन भर के लिए विकलांग कर दिए गए। बर्बरता ऐसी कि मृतकों या घायलों के चित्र मात्र देख आत्मा सिहर उठे। कन्नूर से त्रिशूर और कोट्टयम से तिरुअनंतपुरम तक संघ, भारतीय जनता पार्टी, विहिप, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ आदि हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों के कार्यकर्ता मा‌र्क्सवादी गुंडों के निशाने पर हैं। इसके विरोध में जब हाल में माकपा के दिल्ली स्थित मुख्यालय पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने के लिए भाजपा कार्यकर्ता एकत्रित हुए तो उन पर मुख्यालय के अंदर से पथराव किया गया। बर्बर हिंसा के बल पर अपना वर्चस्व कायम करने के अभ्यस्त मा‌र्क्सवादी कन्नूर हिंसा पर खेद प्रकट करने की जगह संसद में भी सीनाजोरी कर रहे हैं। संसद में हंगामा खड़ा कर वे कन्नूर की हिंसा को छिपाने की कोशिश में लगे हैं। उनका यह पैंतरा नया नहीं है। अभी कुछ समय पूर्व ही पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में सरकार समíथत जिस तरह मा‌र्क्सवादी कामरेडों द्वारा बड़े पैमाने पर हिंसा की गई थी उसे भी देश और मीडिया की नजरों से छिपाने की पूरी कोशिश की गई थी। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल ने तब इस हिंसा की कड़ी आलोचना करते हुए सरकार को कठघरे में खड़ा किया था। केरल के हिंसाग्रस्त कन्नूर जिले की असली तस्वीर क्या है, यह केरल उच्च न्यायालय के न्यायाधीश वी. कुमार की टिप्पणी से स्पष्ट है। उन्होंने कहा है, सरकार और पुलिस के समर्थन से की गई यह हिंसा दिल दहलाने वाली है। उन्होंने पुलिस की भूमिका पर टिप्पणी करते हुए कहा, पुलिस का नया चेहरा देखने को मिला, वह एक पार्टी विशेष के नौकर की तरह काम कर रही है..हिंसा रोकने का एकमात्र विकल्प कन्नूर को केंद्रीय सुरक्षा बलों के हवाले करना है। व्यवस्थातंत्र पर मा‌र्क्सवादी कार्यकर्ताओं के शिकंजे का यह अपवाद नहीं है। सत्तर के दशक में पश्चिम बंगाल की कांग्रेस-कम्युनिस्टों की मिली-जुली सरकार में शामिल मा‌र्क्सवादियों ने अपनी कार्यसूची और भूमि सुधार कानूनों को लागू करने के लिए बड़े पैमाने पर राज्यवार हिंसा का दौर चलाया था। प्रशासन और पुलिस का राजनीतिकरण करने के कारण 1977 में मा‌र्क्सवादियों को अपना वर्चस्व कायम करने में बड़ी मदद मिली। इस मा‌र्क्सवादी हिंसा के विरोध में तब कांग्रेसी मुख्यमंत्री अजय मुखर्जी अपनी ही सरकार के खिलाफ धरने पर बैठे थे। यह स्थापित सत्य है कि जो भी व्यक्ति या संगठन मा‌र्क्सवादी विचारों से सहमत नहीं होते उन्हें मा‌र्क्सवादी सहन नहीं कर पाते। दिल्ली में माकपा का एक चेहरा है तो पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में अलग। नंदीग्राम की हिंसा बताती है कि अपने विरोधियों से निपटने के लिए मा‌र्क्सवादी किस हद तक जा सकते हैं। साठ के दशक से पूर्व और उसके बाद सत्ता हथियाने के लिए कम्युनिस्टों ने हिंसा का किस तरह सहारा लिया, यह सर्वविदित है। तीस के दशक में छिटपुट हिंसा की घटनाओं के साथ ये देश भर में आंदोलन खड़ा करने में क्षणिक रूप से सफल हुए थे, किंतु कांग्रेस प्रमुख राजनीतिक पार्टी बनी रही और मजदूर संघों में राष्ट्रवादी ताकतों का वर्चस्व रहा। 40 के दशक में कम्युनिस्टों को सुनहरा अवसर मिला। ब्रितानियों के खिलाफ राष्ट्रवाद के उफान के दमन पर वे ब्रितानियों के संग हो लिए। बड़े पैमाने पर राष्ट्रवादी नेता जेल में कैद थे। इससे कम्युनिस्टों को भारतीय राजनीति, खासकर मजदूर संघों में सेंधमारी करने का उपयुक्त अवसर मिला। 1964 में कम्युनिस्ट आंदोलन के कुछ वैचारिक प्रश्नों पर हुए वाद-विवाद में पी. सुंदरय्या, एके गोपालन, हरिकिशन सिंह सुरजीत आदि कम्युनिस्ट नेताओं ने लिखा था, हमारे देश में शांति के पथ को अपरिहार्य बताना अपने आप को और दूसरों को धोखा देना है। 1964 का यह दस्तावेज, जो माओ की हिंसक क्रांति पर आधारित था, वास्तव में अंतत: सीपीआई के उद्भव का आधार बना। तब से लेकर आज तक मा‌र्क्सवाद का यह घटक लोकतांत्रिक प्रक्रिया में आने के बावजूद लगातार अपनी गतिविधियों से यह प्रमाणित करता रहा है कि विरोधी स्वर को दबाने के लिए वह हिंसा के किसी भी स्तर तक उतर सकता है। हिंसा और दमन का विरोध करने वाले केरल के केआर गौरी और पश्चिम बंगाल के मोहित सेन जैसे कामरेडों को इसीलिए धक्के मार निकाल बाहर किया गया था। पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में कम्युनिस्टों का जो प्रभाव है वह उनकी हिंसा की राजनीति के बल पर ही स्थापित हुआ है। कन्नूर मा‌र्क्सवादियों के वर्चस्व वाले उत्तरी मालाबार का मुख्यालय है। नंदीग्रामवासियों की तरह मालाबार के लोग भी अब मा‌र्क्सवाद के विरोध में मुखर हो उठे हैं। कथित मा‌र्क्सवादी शहीदों के नाम पर जनता से धन उगाही, आतंकवाद को समर्थन, छिटपुट व्यापार से लेकर भवन निर्माण तक में मा‌र्क्सवादी पार्टी की तानाशाही, नागरिकों से आय के हिस्से से पार्टी के लिए चंदे की वसूली, रोजगार में माकपा कार्यकर्ताओं को प्राथमिकता जैसे दमन व शोषण के अनगिनत कार्यो के खिलाफ मालाबार की जनता अब उठ खड़ी हुई है। मा‌र्क्सवादी विचारधारा के खिलाफ आम आदमी का यह विद्रोह मा‌र्क्सवादियों के लिए असहनीय है। वस्तुत: राष्ट्रवादी विचारधारा से कोसों की दूरी होने के कारण भारतीय जनमानस में मा‌र्क्सवाद अपनी पैठ नहीं बना पाया है। इसीलिए मा‌र्क्सवादी अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए हिंसा का सहारा लेते है। उन्हें पता है कि वर्ग-संघर्ष की दुकानदारी भारत में नहीं चल सकती। साम्यवाद दुनिया भर से सिमटता जा रहा है। ऐसे में मा‌र्क्सवादियों को अपने अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा राष्ट्रवादी ताकतों से लगता है। आश्चर्य नहीं कि भाजपा और संघ परिवार मा‌र्क्सवादियों के निशाने पर रहते हैं। यह सही है कि हिंसा के बदले हिंसा भारतीय परंपरा की पहचान नहीं है, किंतु अनवरत हिंसा का प्रतिकार क्या हो सकता है? हिंसा? अंततोगत्वा सभ्य समाज को ही भारत की बहुलतावादी परंपरा की रक्षा के लिए मा‌र्क्सवादियों की हिंसा के खिलाफ गोलबंद होना होगा। कन्नूर की ये दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं मा‌र्क्सवादी विचारधारा में कोई अपवाद नहीं है। कम्युनिस्टों को हिंसा के माध्यम से अपनी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के दमन और प्रताडि़त करने का विश्वव्यापी अनुभव है। सोवियत संघ से लेकर, कम्युनिस्ट चीन, कंबोडिया, क्यूबा में करोड़ों निर्दोषों की हत्या कम्युनिस्टों के रक्तरंजित इतिहास में दर्ज हैं। यदि कन्नूर में फैली इस हिंसा को समाप्त नहीं किया गया तो यह कालांतर में दावानल बन सकता है। (दैनिक जागरण , १८ मार्च २००८ )

Wednesday, March 12, 2008

भारत के लिए नया खतरा

नेपाल को इस्लामी आतंकवाद के नए केंद्र के रूप में देख रहे हैं बलबीर पुंज
नेपाल की राजनीति में वर्चस्व कायम करने के बाद माओवादियों का भारत और हिंदू विरोधी चेहरा एक बार फिर हाल में भारत-नेपाल सीमा पर बेनकाब हुआ। नेपाल की हिंदूवादी पहचान पर माओवादियों का आघात अकारण नहीं था। नेपाल नरेश को हिंदू परंपरा के संरक्षक के रूप में देखा जाता था। नेपाल में राजशाही के खिलाफ खड़े हुए माओवादी या उन्हें संरक्षण देने वाले साम्यवादी सऊदी अरब जैसे मुस्लिम देश में लोकतंत्र के लिए आवाज क्यों नहीं उठाते? पाकिस्तान और बांग्लादेश में सैन्यशाही चली आ रही है, क्या माओवादी वहां जनतंत्र के लिए क्रांति छेड़ने का साहस दिखाएंगे? नेपाल नरेश को पदच्युत कर नेपाल में लोकतंत्र लाने के नाम पर जो खूनी क्रांति माओवादियों ने छेड़ रखी थी उसके मूल में ही वस्तुत: हिंदू विरोध और भारत के प्रति नफरत की भावना प्रमुख थी। अन्यथा विगत 25 दिसंबर को माओवादियों के संगठन यंग कम्युनिस्ट लीग द्वारा भारत-नेपाल सीमा पर भारत विरोधी नारेबाजी करने का क्या औचित्य था? इस संगठन के कामरेडों ने न केवल अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन किया, बल्कि सीमा के पिलर संख्या 7 से भारतीय सीमा में टनकपुर बैराज तक घुसपैठ कर भारत के विरुद्ध विषवमन किया। नेपाल के ब्रह्मदेव नगर मंडी की सीमा से भारत में घुसपैठ करने वाले माओवादियों ने भारत मुर्दाबाद और भारतीय सेनाओं नेपाल छोड़ो जैसे नारे लगाए। भारत-नेपाल सीमा पर सीमा विभाजित करने के लिए लगाए गए पिलरों में अंकित भारत शब्द को खरोंच कर मिटा दिया गया। आम नेपाली भारत को पितृदेश और पुण्यभूमि के रूप में देखते हैं। सदियों से वे विराट हिंदू संस्कृति के अंग रहे हैं। आज भी यह परंपरा अक्षुण्ण है। पशुपतिनाथ से कन्याकुमारी तक संपूर्ण हिंदू समाज के श्रद्धा और सम्मान के प्रतीक एवं तीर्थस्थल भारत और नेपाल में समान रूप से पूजनीय हैं। भारत-नेपाल के बीच यह घनिष्ठ संबंध न तो माओवादी विचारधारा के अनुकूल था और न ही इस्लामी साम्राज्यवाद को यह रास आया। जेहादी कठमुल्लों और माओवादियों का प्रयास है कि नेपाल को भारत से दूरकर चीन के करीब कर दिया जाए और उसे भारत के खिलाफ इस्लामी आतंकवाद के केंद्र के रूप में उपयोग किया जाए। नेपाली संविधान में नेपाल को हिंदू गणराज्य के रूप में घोषित किया गया था, किंतु वहां भी हिंदुत्व की अवधारणा के अनुसार सभी मतों-पंथों को समान अधिकार प्राप्त थे। राजप्रासाद-नारायण हिती पैलेस के सामने ही नेपाल की सबसे बड़ी मस्जिद का होना इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। 1991 के सर्वेक्षण के अनुसार 89.5 प्रतिशत नेपालियों ने अपनी पहचान हिंदू बताई थी, जबकि अन्य में 5.3 प्रतिशत बौद्ध और 2.7 प्रतिशत मुसलमान थे। ईसाइयों की आबादी भी नेपाल में न्यून है। फिर नेपाल को सेकुलर राष्ट्र घोषित करने की हड़बड़ी क्यों थी? इस जल्दबाजी के पीछे जहां माओवादियों का दबाव था वहीं यह इस्लामी साम्राज्यवादी ताकतों की साजिश का हिस्सा भी है। संपूर्ण एशिया में खलीफा का साम्राज्य स्थापित करने के लक्ष्य में भारत सबसे बड़ा अवरोध है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हिमालय की तराइयों में बसे नेपाल को निशाना बनाया गया। इस बात के पुख्ता सबूत हैं कि आईएसआई भारत में सक्रिय अलगाववादी ताकतों के साथ मिलकर भारत को खंडित करने की साजिश में जुटी है। पीपुल्स वार ग्रुप और नेपाली माओवादी संगठनों को आईएसआई का खुला समर्थन प्राप्त है। भारत की करीब 1860 किलोमीटर सीमा नेपाल के साथ सटी हुई है। उत्तराखंड के चार, उत्तर प्रदेश के छह, बिहार के सात, पश्चिम बंगाल का एक और सिक्किम के दो जिलों के साथ नेपाल के 27 जिले संबद्ध हैं। इसके साथ ही इन जिलों में मुसलमानों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। नेपाल के कंचनपुर, कैलाली, बरदिया और बांके जिले उत्तर प्रदेश के बहराइच से लेकर बनबसा तक सटे हुए हैं। मुस्लिम बहुल इलाकों में माओवादियों का प्रभुत्व सबसे ज्यादा है। इसका लाभ उठाकर आईएसआई माओवादियों का प्रयोग भारत के खिलाफ अपने पारंपरिक षड्यंत्र में कर रही है। विडंबना यह है कि भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए नक्सलवाद को सबसे बड़ा खतरा स्वीकारने वाले प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह सच स्वीकारना नहीं चाहते। नेपाल की सीमा से लेकर आंध्र प्रदेश के दंडकारण्य तक नक्सली-माओवादियों ने रेड कारिडोर बना रखा है, किंतु प्रधानमंत्री इस समस्या की व्यापकता को स्वीकारना नहीं चाहते। यदि वह नक्सली समस्या को सामाजिक-आर्थिकसमस्या मानते हैं तो इस्लामी जेहाद को महज मुट्ठी भर पथभ्रष्ट युवाओं की करतूत बताते हैं। साम्यवादी और उनके सहोदर-नक्सलवादी और माओवादियों की विचारधारा में क्या लोकतंत्र और बहुलतावादी संस्कृति के लिए कोई स्थान है? धर्म को जनता की अफीम मानने वाले साम्यवादियों का इतिहास अधिनायकवादी रहा है। अपनी विचारधारा दूसरों पर थोपने के लिए उन्होंने सदैव हिंसा को अस्त्र बनाया है। नंदीग्राम की हिंसा ताजा घटनाक्रम है, जहां मा‌र्क्सवादियों के खिलाफ आवाज उठाने के कारण नंदीग्रामवासियों को सत्तातंत्र की मिलीभगत से माकपाइयों की हिंसा का शिकार होना पड़ा। यह केवल पश्चिम बंगाल में नहीं हो रहा। वामपंथियों के दूसरे प्रभाव क्षेत्र केरल में भी माकपाई हिंसा का शिकार सभ्य समाज बन रहा है। वर्तमान सत्ता अधिष्ठान यदि नक्सली-माओवादी समस्या के प्रति उदासीन है तो इसका सबसे बड़ा कारण साम्यवादी हैं। यदि पचास व साठ के दशक के सत्ता अधिष्ठान में मुट्ठी भर कम्युनिस्टों की घुसपैठ थी तो आज कम्युनिस्ट खेमा वर्तमान सरकार में प्रभावी भूमिका में है। पं. नेहरू के समय से ही वामपंथी व्यवस्था को भीतर से खोखला करने में लगे हैं। यदि 1962 का कड़वा स्वाद उन्हें नहीं मिलता तो संभवत: भारतीय सत्ता अधिष्ठान कम्युनिस्टों के हाथों गिरवी हो जाता। इंदिरा गांधी की अधिनायकवादी मानसिकता कम्युनिस्टों के समर्थन से ही पुष्ट होती रही। उन्होंने कम्युनिस्टों को जो सबसे बड़ा तोहफा दिया वह है दिल्ली का जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय। नेपाल के माओवादी नेता बाबूराम भट्टाराई, पुष्पकमल दहल उर्फ प्रचंड हों या भारत के सीताराम येचुरी या प्रकाश करात-ये सब जेएनयू की ही देन हैं। भट्टाराई ने एक बार कहा था, मैंने मा‌र्क्सवाद का क-ख-ग जेएनयू में सीखा। जब नेपाल में शांति स्थापित करने के लिए माओवादियों को निमंत्रित किया गया तब भट्टाराई ने राजनीतिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हिंसा और हत्या को न्यायोचित ठहराते हुए कहा था, बंदूकों ने अपना काम पूरा किया है। वार्ता के लिए तैयार होने का अर्थ है कि हमारी सशस्त्र क्रांति विजयी रही। वस्तुत: कम्युनिस्टों की आस्था कभी भी लोकतंत्र पर रही नहीं, वे अपने विस्तार के लिए इसे एक माध्यम मात्र मानते हैं। कम्युनिस्ट यह मानते हैं कि सत्ता बंदूक की नली से आती है और इसीलिए माओवादियों और नक्सलियों को उनका खुला समर्थन प्राप्त है। सवाल देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांगे्रेस का है, जो एक ओर पंथनिरपेक्षता और प्रजातांत्रिक मूल्यों की सबसे बड़ी झंडाबरदार होने का दावा करती है और दूसरी ओर वोट बैंक के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा और सभ्य समाज पर मंडराते खतरों की अनदेखी भी करती है। (लेखक भाजपा के राष्ट्रीय सचिव हैं)
दैनिक जागरण January 8, Tuesday, 2008