http://www.newsview.in/reviews/21848
हिंदू हितों (सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक) को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से प्रभावित करने वाली घटनाओं से सम्बंधित प्रमाणिक सोत्रों ( राष्ट्रिय समाचार पत्र, पत्रिका) में प्रकाशित संवादों का संकलन।
Monday, April 14, 2014
जाति विमर्श के बिखरे सूत्र
http://www.newsview.in/reviews/21848
Sunday, November 17, 2013
साड़ी पहने मदर मेरी और ईसा की मूर्ति पर विवाद
झारखंड के रांची के धुर्वा में लाल बॉर्डर वाली सफेद साड़ी पहने और गोद में ईसा मसीह को उठाए हुए मदर मेरी की आदिवासी लुक वाली मूर्ति को लेकर गैर-ईसाइयों का एक धड़ा गुस्से में है। इस बाबत विवाद इस कदर बढ़ गया है कि इस मूर्ति को हटाए जाने की मांग कर रहे लोगों ने इस बाबत रैली निकाली है और इसे स्थानीय लोगों को 'बहकाने' वाला बताया है। विरोध कर रहे लोगों ने चेताया है कि यदि तुरंत मूर्ति नहीं हटाई गई तो देश भर में विरोध प्रदर्शन किए जाएंगे।
Sunday, September 15, 2013
गोवा चर्च ने भाजपा सरकार से मांगा गौमांस
बांबे हाई कोर्ट के अंतरिम आदेश से नाराज गोवा की कैथोलिक चर्च ने भाजपा सरकार से ईसाइयों और मुस्लिमों के लिए गौमांस की पर्याप्त व्यवस्था करने की मांग की है। चर्च ने गौमांस को लेकर अदालत की कठोर पाबंदियों को अल्पसंख्यकों के धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन बताया है और इस पर राज्य सरकार की चुप्पी को लेकर उसकी धर्मनिरपेक्ष छवि पर भी सवाल उठा दिए हैं।
Tuesday, April 9, 2013
अमेरिका में योग का विरोध
व्हाइट हाउस में ईस्टर पर योग उद्यान बनवाया जाना महत्वपूर्ण घटना है। हालांकि स्वामी विवेकानंद ने लगभग सवा सौ वर्ष पहले अमेरिका में ही पहली बार आधुनिक विश्व को योग का संदेश दिया था, फिर भी चार दशक पहले तक भी ज्यादातर पश्चिमी लोग योगाभ्यास को हिंदू एक्रोबेटिक कहते थे। स्थिति तेजी से बदली और आज पूरी दुनिया में योग को सम्मान मिला। हालांकि कट्टरपंथी ईसाइयों ने इसे हिंदू धर्म-चिंतन को परोक्ष रूप से बढ़ावा देने का प्रयास बताते हुए आलोचना की। स्कूलों में योग शिक्षा देने के विरुद्ध कैलिफोर्निया में पहले ही एक मुकदमा चल रहा है। राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने भाषण में योग को धार्मिक क्रियाकलाप न बताकर इसके स्वास्थ्य संबंधी पंथनिरपेक्ष लाभ का ध्यान दिलाया जाए। असल में योग सिर्फ व्यायाम नहीं, बल्कि मानवता के सबसे महान दर्शन, चिंतन का ही एक अभिन्न अंग है।
इसका सबसे सरल प्रमाण यह है कि जिन महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में योग की व्याख्या दी, स्वयं उन्होंने उन्हीं ग्रंथों में मुख्यत: आध्यात्मिक, दार्शनिक संदेश दिया है। सहस्त्राब्दियों पहले कही गई वे बातें यदि आज भी लाभकारी दिखती हैं तो उनकी शाश्वत सच्चाई में कोई शंका नहीं बचती। आज भी स्वामी विवेकानंद से लेकर महर्षि अरविंद, स्वामी शिवानंद और सत्यानंद तक किसी भी सच्चे योगी ने योगाभ्यास को हिंदू धर्म-चिंतन से अलग करके नहीं दिखाया। वस्तुत: सभी ने निरपवाद रूप से योग विधियों को संपूर्ण जीवन दृष्टि के अंग रूप में प्रस्तुत किया। इन योग गुरुओं की संपूर्ण शिक्षाओं में योग से स्वास्थ्य लाभ की चर्चा कम और आध्यात्मिक, चारित्रिक उत्थान का विचार अधिक है। यह तो उनके यूरोपीय अनुयायियों ने अपनी सीमित समझ से योग की स्वास्थ्य उपयोगिता पर बल दिया।
योग को उस सीमित दायरे में देखना उचित नहीं। ऐसा करना ऐसा ही है जैसे केवल वर्णमाला के ज्ञान को ही संपूर्ण भाषा का ज्ञान मान लेना अथवा किसी पुस्तक की भूमिका को ही पूरी पुस्तक समझ कर शेष वृहत भाग को छोड़ देना। योग दर्शन मुख्यत: एक जीवन दृष्टि है जिससे मनुष्य इस संसार में सार्थक जीवन जीते हुए निरंतर अपने उत्थान की ओर बढ़ता है और अंतत: मानव आत्मा पूर्ण रूप से परमात्मा से मिल कर मुक्ति पाती है। गीता के अठारहों अध्याय योग शिक्षा हैं। भगवान कृष्ण ने अनेक प्रकार से समझाया है, 'समत्वं योग उच्यते'। यानी सम भाव में स्थित हो पाने तथा ज्ञान, कर्म और भक्ति तीनों या किसी भी एक में निष्णात हो सकने की क्षमता प्राप्त कर लेना ही योगी होना है। इसलिए जिसे योगाभ्यास कहा जाता है, वह तो सचेतन होने का प्रारंभिक उपक्रम भर है। यह गंभीरता से सोचने की बात है कि जब मामूली व्यायाम रूप में योगाभ्यास ने सारी दुनिया को इतना सम्मोहित किया तब योग दर्शन को संपूर्ण रूप में समझना मानवता के लिए कितनी महान उपलब्धि हो सकती है। आज जब वैज्ञानिक परीक्षण, उपयोगिता और बौद्धिकता का इतना बोलबाला है तब यदि हिंदू योग दर्शन की बातें बेकार होंगी तो मानव बुद्धि उसे स्वयं ठुकरा देगी। ऐसी स्थिति में धमकी या दबाव डालकर योग से लोगों को विमुख करने के पीछे क्या कारण हो सकता है? केवल यही कि यदि दुनिया के गैर हिंदुओं में योग के प्रति रुचि बढ़ी तो अंतत: उनका मजहबी विश्वास नष्ट हो सकता है। ईसाइयों को यह चेतावनी 24 वर्ष पहले दिवंगत पोप जॉन पाल द्वितीय ने विस्तार से एक पुस्तिका लिखकर दी थी। कुछ ऐसी ही बात मलेशिया की नेशनल फतवा काउंसिल ने भी कही, जब वहां मुसलमानों के लिए योगाभ्यास वर्जित करने का फतवा जारी हुआ। हालांकि वहां अधिकांश मुस्लिम इसे खेल-कूद के लोकप्रिय रूप में ही लेते हैं। भारतीय मुसलमानों को भी योग से परहेज करने को कहा जाता रहा है। इसलिए जब कुछ पादरियों ने ओबामा के योग उद्यान की आलोचना की तो इसे निपट अज्ञान नहीं मानना चाहिए। अधिकांश ईसाई नेता योग को स्वास्थ्य लाभ की नजर से देखने के विरोधी हैं। यूरोप के बाप्टिस्ट और आंग्लिकन चर्च ने भी स्कूल में योगाभ्यास प्रतिबंधित करने की मांग की थी। क्त्रोएशिया के स्कूलों में चर्च के दबाव में योग शिक्षा हटाई गई।
अब्राहमी धार्मिक मतवाद की दोनों धाराएं योग से एक ही कारण दूरी रखती हैं कि यह हिंदू धर्म का अंग है और इसके अभ्यास से ईसाई या मुसलमान अपने मजहब से दूर होकर हिंदू चिंतन की ओर बढ़ सकते हैं। ऐसी स्थिति में हिंदुओं का क्या कर्तव्य बनता है? सबसे पहले तो यह कि योगाभ्यास से आगे बढ़कर संपूर्ण योग दर्शन को जानें। अपनी नई पीढ़ी की नियमित शिक्षा में इस चिंतन का समुचित परिचय अनिवार्य करें। यह समझें कि यदि योग व्यायाम में इतनी शक्ति है तो उस ज्ञान में कितनी होगी जिससे योगसूत्र जैसी कालजयी रचनाएं निकलीं। इसके बाद योग विरोधियों के साथ स्वस्थ विचार-विमर्श भी चलाना जरूरी है। यह रेखांकित करना कि एक ओर किसी विचार के प्रति लोगों की स्वत: ललक और दूसरी ओर चेतावनियों के बल पर किसी मतवाद से लोगों को जोड़े रखने के प्रयत्न में कितनी बड़ी विडंबना है। ऐसा विलगाव और कृत्रिम उपाय किस काम का और यह कितने दिन कायम रहेगा? व्हाइट हाउस का योग उद्यान और उसके विरोध जैसी घटनाएं अवसर देती हैं कि हम जरूरी, मगर कठिन विषयों से बचना छोड़ें। यही हमारा धर्म है। इसमें हमारा ही नहीं संपूर्ण मानवता का हित जुड़ा है। ऐसे छोटे-छोटे प्रसंगों पर खुला विमर्श वस्तुत: बड़ी-बड़ी समस्याओं को सुलझाने के रास्ते खोल सकता है। आज नहीं तो कल यह समझना ही होगा। पंथनिरपेक्षता की झक ने भारतीय बौद्धिक वर्ग को सचेत हिंदू विरोधी बना दिया है, वरना स्वामी विवेकानंद के सवा सौ वर्ष बाद भी हमारा बौद्धिक वर्ग ऐसे प्रसंगों से नहीं कतराता।
[लेखक एस. शंकर, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]
ईसाई धर्म प्रचारक पीटर यनग्रेन की यात्रा का विरोध
ईसाई धर्म प्रचारक पीटर यनग्रेन के आज नागपुर में होने वाले कार्यक्रम पर विश्व हिंदू परिषद के साथ कई दूसरे संगठनों ने भी एतराज जताया है.
Sunday, March 17, 2013
'चंगा' होने के बाद धर्म परिवर्तन ?
Sunday, February 24, 2013
‘Indian history was distorted by the British’
The Aryan invasion theory was actually part of the British policy of divide and rule, French historian Michel Danino, an expert on ancient Indian history, said on Thursday on the sidelines of the Kolkata Literary Meet.
Monday, October 15, 2012
ब्रिटिश चर्च ने योग पर लगाया बैन
लंदन।। ब्रिटेन के एक चर्च ने अपने कैंपस में योग करने पर बैन लगा दिया है। चर्च का कहना है कि कसरत का यह प्राचीन भारतीय तरीका उनकी धार्मिक भावनाओं से मेल नहीं खाता है।
Monday, April 9, 2012
संघ व ईसाई कार्यकर्ताओं में बवाल, पादरी घायल
http://www.jagran.com/news/national-9111205.html
Tuesday, March 27, 2012
एनजीओ का काला सच
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की आपाधापी और रेल बजट प्रस्तुत होने के बाद उपजे राजनीतिक बवाल के बीच एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम दब-सा गया। पिछले दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखते हुए उस सच को स्वीकार किया है जो कल तक भारत में मतांतरण गतिविधियों में संलग्न चर्च और अलगाववादी संगठनों की ढाल बनने वाले स्वयंभू मानवाधिकारी गुटों के संदर्भ में राष्ट्रनिष्ठ संगठन उठाते आए हैं। यह वह कड़वा सच है जिसे सेक्युलर दल भाजपा का सांप्रदायिक एजेंडा बताकर अब तक नकारते आए थे। प्रधानमंत्री ने कहा था कि तमिलनाडु में कुडनकुलम परमाणु परियोजना और कृषि क्षेत्र में वृद्धि के लिए जेनेटिक इंजीनियरिंग के प्रयोग का विरोध करने के पीछे विदेशों से वित्तीय सहायता पाने वाले गैर सरकारी संगठनों का हाथ है। पिछले दिनों सरकार ने राज्यसभा में बताया था कि 2007 से 2010 के बीच भारत में सक्त्रिय 65,500 एनजीओ को विदेशों से 31,000 करोड़ रुपये से अधिक की वित्तीय सहायता दी गई। यह राशि किन कायरें में खर्च होती है? महाराष्ट्र के जैतापुर और तमिलनाडु में कुडनकुलम परमाणु बिजली परियोजना का विरोध करने वाले संगठन वस्तुत: भारत के विकास को बाधित करने वाली अंतरराष्ट्रीय शक्तियों के मुखौटे हैं। पिछले कुछ दशकों के घटनाक्रमों का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि ऊर्जा के क्षेत्र में भारत द्वारा किए जा रहे प्रयासों को लगातार बाधित करने की कोशिश की गई है। अस्सी के दशक में पनबिजली परियोजना का विरोध तो नब्बे के दशक में इसी मंशा से ताप विद्युत परियोजनाओं का विरोध किया गया। करीब दो दशकों तक नर्मदा बचाओ के नाम पर सरदार सरोवर बांध परियोजना को अधर में लटकाने का प्रयास किया गया, जिसके कारण परियोजना लागत व्यय में तीन सौ गुना वृद्धि हुई, किंतु गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने हार नहीं मानी। आज गुजरात और राजस्थान के मरुस्थल के आसपास रहने वाले लाखों लोगों की आर्थिक स्थिति में उस परियोजना के कारण क्रांतिकारी बदलाव आया है। अब कुछ विकसित देशों के इशारे पर परमाणु बिजली परियोजनाओं को ठप करने का प्रयास किया जा रहा है। इस देशघाती गतिविधि में संलग्न संगठन वस्तुत: अलगाववादी ताकतों के सतह पर दिखाई देने वाले चेहरे हैं। गृह मंत्रालय द्वारा प्रधानमंत्री को भेजी गई एक रिपोर्ट में बताया गया है कि कुछ एनजीओ विकलांग लोगों की मदद और कुष्ठ रोग उन्मूलन जैसे सामाजिक सेवा के कायरें के लिए विदेशों से धन प्राप्त करते हैं और उसका उपयोग कुडनकुलम जैसी परियोजना के खिलाफ अभियान चलाने में किया जाता है। एक अनुमान के अनुसार मिशनरी गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए 10,000 करोड़ से अधिक की धनराशि प्रतिवर्ष भारत भेजी जाती है। मिशनरी संगठनों के पितृ संगठन-इवेंजेलिकल फेलोशिप ऑफ इंडिया से ऐसे 35,000 चर्च सूचीबद्ध हैं, किंतु नए चचरें की वास्तविक संख्या आंक पाना कठिन होने के कारण विदेशों से भेजी जाने वाली राशि का अनुमान भी दुष्कर है। विदेशों से धन प्राप्त करने वाले करीब 75 प्रतिशत से अधिक संगठन ईसाई संगठन हैं। चर्च से संबद्ध ऐसे संगठन सामाजिक सेवा के नाम पर वस्तुत: मतांतरण अभियान के सहायक ही हैं। सीबीआइ कुडनकुलम में सक्रिय जिन चार एनजीओ-तूतीकोरिन डायासेसन एसोसिएशन, रूरल अपलिफ्ट सेंटर, गुडविजन चैरिटेबल ट्रस्ट और रूरल अपलिफ्ट एंड एजुकेशन की जांच कर रही है उन्हें सन 2006 से 2011 के बीच विदेशों से 36-37 करोड़ रुपये मिले थे। कुडनकुलम में चर्च के कार्डिनल और बिशपों द्वारा जो जन विरोध खड़ा किया गया वह वस्तुत: चर्च की घबराहट को रेखांकित करता है। उन्हें भय है कि कुडनकुलम जैसी बड़ी परियोजना से न केवल स्थानीय लोगों का भला होगा, बल्कि आसपास के दूरदराज के इलाकों के लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति बेहतर होगी। पिछड़ों और वंचितों को कथित स्वास्थ्य सुविधाएं और शिक्षा देने के नाम पर देश के पिछड़े इलाकों में सक्रिय चर्च के कार्यो पर सरकार द्वारा समय-समय पर गठित की गई समितियों ने गंभीर प्रश्न खड़े किए हैं, किंतु सेक्युलर सत्ता अधिष्ठान चर्च के मतांतरण अभियान पर लगाम लगाने के बजाए राष्ट्रनिष्ठ संगठनों को ही कठघरे में खड़ा करता आया है। कुछ साल पूर्व गुजरात के डांग जिले में जब चर्च के इस तरह के मतांतरण का खुलासा हुआ तो सेक्युलरिस्टों ने भारतीय जनता पार्टी पर चर्च के उत्पीड़न का आरोप मढ़ने में देर नहीं की। ऐसी मानसिकता भारत की बहुलतावादी संस्कृति के लिए घातक है। हाल ही में कश्मीर घाटी में मुसलमानों का मत परिवर्तन कराने वाले पादरियों को शरीयत अदालत के आदेश पर प्रशासन ने गिरफ्तार किया था, किंतु विडंबना यह है कि देश के अन्य हिंदू बहुल भागों में सक्त्रिय चर्च के इस मतांतरण अभियान पर प्रश्न खड़ा होता है तो सेक्युलरिस्ट और स्वयंभू मानवाधिकारी संगठन चर्च के समर्थन में खड़े हो जाते हैं और उपासना के अधिकार का प्रश्न खड़ा किया जाता है। ग्राहम स्टेंस के कथित हत्यारे दारा सिंह की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदलते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने भी चर्च के मतांतरण अभियान को लेकर बहुत कटु टिप्पणी की थी। मध्य प्रदेश में मिशनरी गतिविधियों की शिकायतों को देखते हुए इन आरोपों की जांच के लिए 14 अप्रैल, 1955 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने पूर्व न्यायाधीश डॉ. भवानी शंकर नियोगी की अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी। समिति की प्रमुख संस्तुतियां मतांतरण के उद्देश्य से आए विदेशी मिशनरियों को बाहर निकालने और उनके प्रवेश पर पाबंदी लगाने की थी। उन्होंने कहा था कि बल प्रयोग, लालच, धोखाधड़ी, अनुचित श्रद्धा, अनुभवहीनता, मानसिक दुर्बलता का उपयोग मतांतरण के लिए नहीं हो। न्यायमूर्ति रेगे समिति , न्यायमूर्ति वेणुगोपाल आयोग (1982) और न्यायमूर्ति वाधवा आयोग (1999) ने भी नियोगी आयोग की संस्तुतियों को उचित ठहराया है। बाहरी शक्तियों की कठपुतली बन भारत की विकास परियोजनाओं का विरोध करने वाले गैर सरकारी संगठनों व स्वनामधन्य मानवाधिकारियों के वित्तीय श्चोतों की जांच स्वागत योग्य है, किंतु सरकार को आत्मा के कारोबार में लीन चर्च और उसके सहयोगी संगठनों पर भी लगाम लगानी चाहिए। इसके लिए छलकपट और प्रलोभन के बल पर होने वाले मतांतरण पर प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता है।
[बलबीर पुंज: लेखक भाजपा के राज्यसभा सांसद हैं]
http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-9063181.html
Thursday, March 19, 2009
उड़ीसा में संघ नेता की हत्या
पुलिस ने बताया कि यहां से 145 किलोमीटर दूर रुडीगुमा गांव में आज सुबह करीब 15 हथियारबंद उग्रवादियों ने हमला किया और प्रभात पाणिग्रही को गोली मार दी। पाणिग्रही आरएसएस के एक कार्यकर्ता के यहां ठहरे हुए थे। हत्यारों की गिरफ्तारी के लिए व्यापक खोज अभियान चलाया जा रहा है।
किसी अप्रिय घटना को रोकने के लिए एहतियात के तौर पर गांव में अतिरिक्त सुरक्षा बलों की तैनाती की गई है। पुलिस ने बताया कि माओवादियों ने कोटागाडा और रूडीगुमा के बीच सड़क पर पेड़ काट कर गिरा दिया जिससे पुलिस को घटनास्थल तक पहुंचने में देरी हुई।
सूत्रों ने बताया कि पाणिग्रही को विहिप नेता लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के बाद भड़के सांप्रदायिक दंगे के मामले में गिरफ्तार किया गया था। वह 14 मार्च को बालीगुडा जेल से जमानत पर रिहा हुए थे।
Friday, December 12, 2008
मजहब के नाम पर गुनाह
जिहाद क्या है? उसकी एक परिभाषा तो यह है कि जो लोग इस्लाम की प्रभुता को स्वीकारते नहीं है उनके विरुद्ध युद्ध छेड़ना जिहाद है। उनके लिए यह धर्म युद्ध है। उदार सूफी लेखक मानते हैं कि जिहाद दो प्रकार का होता है-अल जिहाद-ए अकबर अर्थात बड़ा युद्ध। यह जिहाद व्यक्ति की अपनी वासनाओं और दुर्बलताओं के विरुद्ध है। दूसरा है-अल जिहाद ए-अगसर, जो विधर्मियों के खिलाफ लड़ा जाता है। सऊदी अरब के कट्टरपंथी वहाबी मानते है कि इस्लाम विरोधी सभी शक्तियों के विरुद्ध युद्ध करना और उन्हे किसी भी प्रकार नष्ट करना सही जिहाद है, किंतु उदार मुसलमान कहते है कि कुरान शरीफ में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि इस्लाम किसी को जबरदस्ती मुसलमान बनाने की अनुमति नहीं देता।वह तो इसके सर्वथा विरुद्ध है। उनकी धारणा यह भी है कि इस्लाम के प्रारंभिक विरोधी यहूदी और ईसाई थे। उन्होंने इस्लाम का प्रचार रोकने के लिए उसके विरुद्ध युद्ध छेड़ रखा था। इसलिए कुरान में उनके विरुद्ध युद्ध करने की अनुमति दी गई। यह अनुमति इसलिए नहीं दी गई कि मुसलमान दूसरे पर चढ़ दौड़ें, बल्कि इसलिए कि अत्याचार से पीड़ित और निस्सहाय लोगों की सहायता करे और उन्हे अत्याचारियों के पंजों से छुटकारा दिलाएं। आज सारे संसार में जो कुछ हो रहा है, और अभी-अभी मुंबई में जो कुछ हुआ उसे वे लोग कर रहे है जो अपने आपको जिहादी मानते है। वे मानते हैं कि यहूदी, ईसाई और हिंदू इस्लाम के शत्रु है।
एक अन्य शब्द है क्रुसेड। ईसाइयों और मुसलमानों के मध्य कई सदियों तक निरंतर युद्ध चलता रहा। अरब मुस्लिम आक्रमणकारियों ने एक समय यूरोप के अनेक देशों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था। स्पेन आदि देशों पर उनका अधिकार कई सदियों तक बना रहा। 11वीं से 14वीं सदी तक पश्चिमी यूरोप के ईसाई क्रुसेडर अपनी भूमि को मुस्लिम प्रभाव से मुक्त कराने के लिए युद्ध करते रहे। क्रुसेड शब्द लैटिन भाषा के क्रक्स शब्द से बना है। युद्ध के लिए जाते समय ईसाई सैनिक अपनी छाती पर पहने हुए वस्त्र पर 'क्रास' का चिह्न सिल लेते थे। ये क्रुसेड पोप के नेतृत्व में होते थे। स्पेन में उत्तारी अफ्रीका की ओर मुस्लिम सेनाओं का प्रवेश आठवीं सदी में प्रारंभ हो गया था। लगभग सात सौ वर्ष तक यहां उनका प्रभुत्व बना रहा। 11वीं सदी में ईसाइयों द्वारा क्रुसेड आरंभ हुआ और लंबे संघर्ष के पश्चात 15वीं सदी के अंत तक वहां से मुस्लिम शासन पूरी तरह समाप्त कर दिया गया। इतिहास की इस पृष्ठभूमि में जाने से मेरा इतना ही मंतव्य है कि मजहब को आधार बनाकर संसार के विभिन्न समुदायों का संघर्ष नया नहीं है। एक बात लगभग सभी पक्षों की ओर से उन सक्रिय भागीदारों से कही जाती है कि यदि तुम ऐसे महत् अभियान में मृत्यु प्राप्त करोगे तो तुम्हे स्वर्ग या जन्नत नसीब होगा और यदि तुम सफल हुए तो धरती के सभी सुख तुम्हारे चरणों में होंगे।
यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि आधुनिक युग में संसार में जिस प्रकार से वैज्ञानिक चिंतन का विकास हुआ है, लोकतंत्र की परिकल्पना ने अपने जड़ें जमाई है उससे धर्मयुद्ध और क्रुसेड शब्दों ने बड़ी सीमा तक अपनी संगति खो दी है, किंतु जिहाद शब्द अभी भी अपनी मध्ययुगीन मानसिकता से पल्ला नहीं छुड़ा सका है। प्रत्येक समुदाय में दो वर्ग स्पष्ट रूप से दिखाई देते है। अधिसंख्य लोग सभी प्रकार की विभिन्नताओं के बावजूद मिल-जुल कर शांतिपूर्वक रहना चाहते है, किंतु इसी के साथ एक अनुदार वर्ग भी उभर जाता है। उनकी संख्या अधिक नहीं होती, किंतु अपने आक्रामक तेवर के कारण वे अपने समुदाय के प्रवक्ता जैसे बन जाते है। मैं मानता हूं कि ऐसी कट्टर मानसिकता विकसित करने में उस मत के पुरोहित वर्ग की बड़ी भूमिका होती है। विश्व के कई स्थानों पर मुस्लिम समुदाय में सुन्नियों और शियाओं के बीच एक खूनी जंग छिड़ी दिखती है।
क्या मनुष्य के अस्तित्व में युद्ध एक अनिवार्य तत्व है? लगता तो यही है। 26 नवंबर की रात को मुंबई में जिहादियों द्वारा जो भीषण आक्रमण हुआ उसे अनेक समाचार पत्रों ने अपने शीर्षकों में युद्ध जैसी स्थिति घोषित किया। जाहिर है, युद्ध का स्वरूप अब बदलता जा रहा है। आज सारे संसार में जिस आतंकवाद की चर्चा हो रही है वह आमने-सामने का युद्ध नहीं है। मुंबई में आए आतंकवादियों का यह निश्चय था कि वे इस नगर के 5 हजार लोगों की हत्या करेगे। वे कौन होंगे, उनका मजहब क्या होगा-इससे उनका कोई सरोकार नहीं था। उनकी अंधाधुंध गोलाबारी का शिकार दो दर्जन से अधिक मुसलमान भी बने। मैंने प्रारंभ में ही लिखा है कि यह कहने को कोई अर्थ नहीं है कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता। देखना यह चाहिए कि आतंकियों को जन्म देने वाली उर्वरा भूमि कौन सी है और उसे खाद-पानी कहां से मिलता है?
Friday, November 7, 2008
आरएसएस नेता की हत्या से तनाव
हिंदूवादी नेता की हत्या के बाद वहाँ एक बार फिर से तनाव फैल गया है.
पुलिस के मुताबिक बुधवार को मोटरसाइकिल सवार तीन लोगों ने कुंभारीगाँव में बुधवार को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नेता धनु प्रधान की गोली मारकर हत्या कर दी.
आरोप
आरएसएस नेता के भाई आनंद प्रधान ने आरोप लगाया कि उनके भाई की हत्या कुछ स्थानीय ईसाइयों ने की है. वहीं पुलिस का कहना है कि प्रधान की हत्या माओवादियों ने की है क्योंकी वे उनकी हिटलिस्ट में थे.
कंधमाल में हुई हिंदूवादी नेता हत्या और उसके बाद फैले तनाव को देखते हुए ज़िला प्रशासन ने वहाँ गुरुवार से धारा-144 लागू कर दी है.
समाचार एजेंसियों को कंधमाल के पुलिस प्रमुख एस प्रवीण कुमार ने बताया कि स्थिति की समीक्षा होने के बाद धारा-144 हटा ली जाएगी.
प्रशासन का कहना है कि ज़िले में 30 सितंबर के बाद से हिंसा की कोई वारदात नहीं हुई है लेकिन बुधवार की घटना के बाद एक बार फिर तनाव फैल गया है.
कंधमाल में 23 अगस्त को कुछ अज्ञात लोगों ने एक आश्रम पर हमला किया था. इस हमले में विश्व हिंदू परिषद के नेता लक्ष्मणानंद सरस्वती समते पाँच लोगों की मौत हो गई थी.
इसके बाद वहाँ हिंसा भड़क उठी थी. जिसमें कई लोगों की मौत हो गई थी और हज़ारों लोगों को राहत शिविरों में शरण लेनी पड़ी थी.
राज्य में अभी भी हज़ारों लोग सरकारी राहत शिविरों में शरण लिए हुए हैं.
Monday, October 20, 2008
Right wing organisations call for Goa Bandh
19 October 2008 Panaji (PTI): The Hindu right wing organisations in the state have given a call for Goa bandh on Monday to protest the recent incidence of desecration of idols in the state.
Grouped under the banner of Mandir Suraksha Samiti, the organisations including Bajrang Dal and Hindu Jangaruti Samiti have flayed the state government for its failure to arrest people behind such acts.
Over 500 places places of religious significance were desecrated in the recent past.
"We appeal to the people to participate wholeheartedly in the bandh and make it successful," the organisers had said earlier this week during a press conference.
Goa government has taken the strike call seriously and promulgated Section 144 of CrPc prohibiting processions, demonstrations, bandh, strikes, road closures and forcible closure of shops and other establishments on October 20 between 6 am and 6 pm.
"We appeal people to desist from participating in the bandh. Government will provide adequate security to all the shops and establishments, which would not respond to the bandh," Goa Chief Minister Digamber Kamat told a press conference yesterday.
"These shrines are in the isolated places. There is a systematic effort to tamper communal harmony in the state," Kamat said.
Monday, September 22, 2008
सामाजिक अशांति की अनदेखी
ईसाइयों और हिंदू संगठनों के बीच टकराव के मूल कारणों पर प्रकाश डाल रहे है संजय गुप्त
दैनिक जागरण २० सितम्बर २००८। लगभग डेढ़ माह पूर्व उड़ीसा के कंधमाल जिले में विश्व हिंदू परिषद से जुड़े संत लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के बाद वहां हिंदुओं और ईसाइयों के बीच भड़की हिंसा शांत होती, इसके पहले ही कर्नाटक के कुछ इलाकों में इन दोनों समुदायों के बीच तनाव व्याप्त हो गया। इस तनाव के बीच मध्यप्रदेश के जबलपुर में एक चर्च पर हमले की सूचना आई। हिंदुओं और ईसाइयों के बीच तनावपूर्ण रिश्ते शुभ नहीं। यह चिंताजनक है कि इन समुदायों के बीच पनपे वैमनस्य के मूल कारणों की अनदेखी की जा रही है। कंधमाल में लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के इतने दिनों बाद भी यह स्पष्ट नहीं कि उन्हे किसने मारा-नक्सलियों ने या ईसाई चरमपंथियों ने? न केवल लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के लिए जिम्मेदार लोगों की पहचान आवश्यक है, बल्कि उन तत्वों पर लगाम भी जरूरी है जो राज्य में अराजकता पैदा कर रहे है। केंद्र का कहना है कि भाजपा के समर्थन के कारण नवीन पटनायक सरकार उग्र हिंदू संगठनों को नियंत्रित नहीं कर रही है। केंद्र के नेताओं ने कुछ ऐसा ही आरोप कर्नाटक सरकार पर भी लगाया है, जहां कुछ गिरजाघरों पर हमले किए गए है। केंद्र ने कर्नाटक और उड़ीसा को चेतावनी देने के बाद मध्य प्रदेश और केरल को भी चेताया है। भले ही इस पर विवाद हो कि केंद्र ने उड़ीसा और कर्नाटक को अनुच्छेद 355 के तहत चेतावनी दी या नहीं, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि उसका रवैया सख्त है। क्या यह विचित्र नहीं कि केंद्र ने ऐसी सख्ती न तो महाराष्ट्र सरकार के संदर्भ में दिखाई और न ही असम सरकार को लेकर, जबकि इन दोनों राज्यों में हिंदी भाषियों को रह-रह कर आतंकित किया गया। यह शर्मनाक है कि असम में हिंदी भाषियों की हत्या और उसके कारण उनके पलायन पर भी केंद्र को अपनी जिम्मेदारी का अहसास नहीं हुआ।
उड़ीसा एवं कर्नाटक में बजरंग दल जिस तरह आक्रामक तेवरों के साथ कानून अपने हाथ में लेकर ईसाइयों के धार्मिक स्थलों को निशाना बना रहा है उससे उसकी छवि लगातार गिर रही है। हिंदू हितों की रक्षा के लिए सक्रिय यह संगठन बेलगाम हो रहा है। एक ऐसे समय जब देश इस्लामी आतंकवाद से बुरी तरह त्रस्त है तब हिंदू संगठनों की उग्रता शांति एवं सद्भाव के लिए एक बड़ा खतरा है। यदि बजरंग दल इसी तरह की गतिविधियां जारी रखता है तो उस पर पाबंदी लग सकती है। ऐसा होने पर उसकी छवि एक आतंकी संगठन के रूप में उभरना तय है और यदि ऐसा कुछ होता है तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की किरकिरी होना स्वाभाविक है। बजरंग दल यह तर्क दे सकता है कि देश के नीति-नियंता हिंदू संस्कृति का अपमान करने वालों को खुली छूट प्रदान कर रहे है इसलिए वह अपने तरीके से अन्याय का प्रतिकार कर रहा है। इसमें दो राय नहीं कि मतांतरण में लिप्त मिशनरियों पर अंकुश नहीं लगाया जा रहा, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि बजरंग दल मनमानी पर उतर आए और हिंदू समाज एवं राष्ट्र की छवि की परवाह न करे। यह संगठन जिस राह पर चल रहा है उससे किसी का भी हित नहीं होने वाला। कम से कम भाजपा को तो यह अनुभूति होनी चाहिए कि वह बजरंग दल को नियंत्रित न करके आग से खेलने का काम कर रही है। धीरे-धीरे यह धारणा गहराती जा रही है कि भाजपा शासित राज्यों में यह संगठन ईसाइयों और मुसलमानों के प्रति असहिष्णु हो उठता है और उसे सत्ता का संरक्षण मिलता है। यह स्थिति भाजपा के लिए गहन चिंता का कारण बननी चाहिए।
पिछले लगभग दो दशकों से देश में जैसे सामाजिक बदलाव हो रहे है उससे हिंदू संस्कृति पर आंच आ रही है। बात चाहे पूर्वोत्तर में बांग्लादेशी घुसपैठियों की हो या देश के विभिन्न भागों में ईसाई मिशनरियों के मतांतरण अभियान की-इस सबका दुष्प्रभाव अब साफ दिखने लगा है। समस्या यह है कि हमारे ज्यादातर राजनीतिक दल न तो बांग्लादेशी घुसपैठियों की बढ़ती आबादी को लेकर चिंतित है और न ही निर्धन एवं अशिक्षित व्यक्तियों को मतांतरित किए जाने पर। कुछ राजनेता तो बांग्लादेशी घुसपैठियों के प्रति भी नरम है और मतांतरण में लिप्त मिशनरियों के प्रति भी। वे यह मानने को तैयार नही कि इस सबसे हिंदू संस्कृति प्रभावित हो रही है। बांग्लादेशी नागरिकों की घुसपैठ और ईसाई मिशनरियों की अवांछित सक्रियता पर भाजपा हमेशा यह कहती रही है कि एक सोची समझी साजिश के तहत हिंदू अस्मिता पर आघात किया जा रहा है, लेकिन तथाकथित सेकुलर दल उसकी सही बात सुनने को तैयार नहीं।
इस पर कोई संशय नहीं हो सकता कि संविधान में ऐसी कोई छूट नहीं दी गई है कि ईसाई मत प्रचारक मनमाने तरीके से भारत के लोगों का मतांतरण कर सकें या फिर पड़ोसी देश के लोग बेरोक-टोक आकर यहां बसते रहे। चूंकि ईसाई मिशनरियां छल-छद्म और प्रलोभन के जरिये निर्धन तबकों को मतांतरित कर रही हैं इसलिए विश्व हिंदू परिषद मतांतरित लोगों की घर वापसी यानी मूल धर्म में वापसी का अभियान चलाने के लिए बाध्य है। यदि ईसाई मिशनरियों को मतांतरण की छूट दी जाती रहेगी तो घर वापसी के अभियान चलते रहेगे और चलते रहने भी चाहिए। उड़ीसा में हिंदुओं और ईसाइयों के बीच तनाव का मूल कारण मतांतरण ही है। राज्य में कुई भाषी कंध और पण जातियों के बीच टकराव की स्थिति है। वैसे तो कंध जनजाति और पण दलित, दोनों आरक्षण के दायरे में हैं,पर कंध जनजाति के लोग मतांतरित होने के बाद भी आरक्षण का लाभ उठाते रहते हैं, जबकि पण दलित मतांतरित होने की स्थिति में आरक्षण के दायरे से बाहर हो जाते हैं। बड़े पैमाने पर ईसाई मत अपनाने वाले पण खुद को कुई भाषी बताकर अपने लिए जनजाति का दर्जा मांग रहे हैं। इस मांग को ईसाई मिशनरियां और वोट के लोभ में कुछ कथित सेकुलर दल समर्थन दे रहे हैं। कंध जनजाति के लोगों को लगता है कि यदि पण लोगों की मांग मान ली गई तो उनके अधिकार छिन जाएंगे। उन्हें यह भी लगता है कि उन्हें अपने मूल धर्म में बने रहने का खामियाजा उठाना पड़ सकता है। उनका भय जायज है, पर सेकुलर दल यह समझने के लिए तैयार नहीं। कर्नाटक में भी तनाव की जड़ में ईसाई मिशनरियों की अति सक्रियता है। देश को इस पर गौर करना होगा कि ईसाई मिशनरियां क्या कर रही हैं? कर्नाटक में मिशनरियों द्वारा वितरित की जा रही सत्यदर्शिनी नामक पुस्तिका में यहां तक कहा गया है कि भगवान राम तो मूर्ख थे। ऐसी ही बातें अन्य देवी देवताओं के बारे में कही गई हैं। क्या दुनिया का कोई भी समाज अपने देवताओं के बारे में ऐसी भाषा सहन करेगा?
मतांतरण व्यक्ति विशेष का निजी मौलिक अधिकार है। पूजा पद्धति पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं हो सकता। विडंबना यह है कि हमारे देश में सामूहिक मतांतरण होता है। यह सहज संभव नहीं कि कोई एक बस्ती रातों-रात अपनी आस्था बदलने के लिए तैयार हो जाए। इस संदर्भ में यह नहीं भूलना चाहिए कि जो लोग मतांतरित हो रहे है वे गरीब और अशिक्षित है। उनके अभावों को दूर करने के लिए उन्हे तरह-तरह के प्रलोभन दिए जाते है और फिर आस्था बदलने की शर्त रखी जाती है। यह एक यथार्थ है कि हर राष्ट्र की एक संस्कृति होती है और उसकी आत्मा उस संस्कृति में बसती है। भारत की आत्मा उसके हिंदुत्व प्रधान चरित्र में है। बांग्लादेशी घुसपैठियों और मतांतरित ईसाइयों के कारण जैसा समाज बन रहा है वह भारत की परिकल्पना के प्रतिकूल है।
Friday, September 19, 2008
मतांतरण का दुष्चक्र
ईसाई मिशनरियों की सक्रियता पर एस शंकर का चिंतन
दैनिक जागरण १९ सितम्बर २००८। स्वतंत्रता से पहले जब महात्मा गांधी ने अस्पृश्यता के विरोध में अपना आंदोलन शुरू किया तब ईसाई मिशनरी बड़े अप्रसन्न हुए। उनका कहना था कि गांधीजी हिंदू धर्म के मूल तत्वों से छेड़छाड़ कर रहे है। ईश्वर जाने, अस्पृश्यता हिंदू धर्म का मूल तत्व कब से हो गया? फिर जब त्रावणकोर के मुख्यमंत्री सीपी रामस्वामी अय्यर ने हरिजनों के लिए राज्य के सब मंदिरों के दरवाजे खोल दिए तब मिशनरियों की चिंता का ठिकाना न रहा। इस कदम का सबसे कड़ा विरोध ईसाईयों ने किया, शुद्धतावादी ब्राह्मणों ने नहीं! यहां तक कि कैंटरबरी के आर्क बिशप ने भी इस पर आक्रोश जताया। उनके शब्दों में, ''इससे हरिजनों को ईसाई बनाने के प्रयासों को गहरा धक्का लगेगा।'' गांधीजी ने बार-बार कहा था कि मिशनरियों के काम में मानवतावादी भाव नहीं है। वे अपनी संख्या बढ़ाने की जुगत में रहते है। दलितों और आदिवासियों के प्रति मिशनरी दृष्टि आज भी वही है। वे पिछड़े और उत्पीड़ितों के हमदर्द नहीं, शिकारी है। यही उन क्षेत्रों में अशांति का कारण है, जहां मिशनरी सक्रिय हैं। गुजरात का भूकंप हो, एशिया में सुनामी हो या इराक में तबाही, जब भी विपदाएं आती है तो मिशनरी संगठनों के मुंह से लार टपकने लगती है कि अब उन्हे 'आत्माओं की फसल' काटने अर्थात बेबस लोगों का मतांतरण कराने का अवसर मिलेगा। वे इसे छिपाते भी नहीं। तीन वर्ष पहले सुनामी प्रभावित देशों में ईसाई मिशनरी संगठनों ने सहायता के बदले मतांतरण के खुले सौदे की पेशकश की थी। मदुरई से भी ऐसा समाचार आया था। जकार्ता में 'वर्ल्ड हेल्प' नामक अमेरिकी मिशनरी संगठन ने पचास अनाथ बच्चों की सहायता से इसलिए हाथ खींच लिया, क्योंकि इंडोनेशिया सरकार ने उन्हे ईसाइयत में मतांतरित न करने का स्पष्ट निर्देश दिया था। इसके बावजूद हमारे मीडिया में राहत के लिए मिशनरियों की वाहवाही की जाती है, जबकि वनवासी कल्याण आश्रम जैसे संगठनों की नि:स्वार्थ सेवाओं का उल्लेख भी नहीं होता। गांधीजी मानते थे कि ईसाई मिशनरियों द्वारा मतांतरण कराना दुनिया में अनावश्यक अशांति फैलाना है। उड़ीसा की घटनाएं इसका नवीनतम प्रमाण है। उत्तर-पूर्वी भारत में अंग्रेजी राज के समय से चल रहे आक्रामक मतांतरण कार्यक्रम के विषैले, अलगाववादी परिणाम प्रत्यक्ष देखे जा रहे है। ईसाई मिशनरियों की 'लिबरेशन थियोलाजी' पूरे विश्व में कुख्यात है। उसकी साम्राज्यवादी अंतर्वस्तु कोई भी व्यक्ति देख सकता है। फिर 1977-97 के बीच वीएस नायपाल ने ईरान, मलेशिया, इंडोनेशिया, पाकिस्तान के लोगों की मानसिकता का प्रत्यक्ष अध्ययन करके यही पाया कि सामी मजहबों में मतांतरित लोगों में अपनी ही संस्कृति, इतिहास, पूर्वजों से दूर होकर एक तरह के मनोरोग से ग्रस्त होने की प्रवृत्ति पाई जाती है। ईसाइयत या इस्लाम में मतांतरण किसी की निजी आस्था बदलने भर की बात नहीं है। हमें स्वामी विवेकानंद की चेतावनी को सदैव याद रखना चाहिए कि जब हिंदू धर्म से कोई व्यक्ति मतांतरित होकर ईसाई या मुसलमान बनता है तो केवल हमारा एक व्यक्ति कम नहीं होता, बल्कि एक दुश्मन भी बढ़ता है। असम, कश्मीर और उड़ीसा की घटनाएं अलग-अलग ऐतिहासिक काल में ठीक इसी की पुष्टि करती है। हम इस कड़वी सच्चाई से जितना भी कतराना चाहे, किंतु यदि इस पर विचार नहीं करते तो हमारा भविष्य चिंताजनक है। झाबुआ, डांग, क्योंझर और अब कंधमाल-पिछले दस वर्षो में देश के विभिन्न भागों में हो रही हिंसा मतांतरण की मिशनरी राजनीति का ही परिणाम है, किंतु इन घटनाओं पर विचार-विमर्श में इस बिंदु की सबसे अधिक उपेक्षा होती है। इसका सबसे बड़ा दोष वामपंथी बौद्धिकों पर है, जो मीडिया, राजनीतिक और अकादमिक जगत पर सर्वाधिक प्रभाव रखते है।
अब यह छिपी बात नहीं है कि हमारे वामपंथी बुद्धिजीवी वैसी किसी समस्या की चर्चा नहीं करते जिससे उन्हे लगता है कि भाजपा को फायदा होगा। मिशनरी और विदेशी शक्तियां उनकी इस प्रवृत्ति को अच्छी तरह पहचान कर अपने हित में जमकर इस्तेमाल करती है। इसीलिए चाहे परमाणु नीति हो, पर्यावरण मुद्दे हों, आर्थिक सुधार हों, कश्मीर या गुजरात की हिंसा या ईसाई मतांतरणकारियों का बचाव-हर कहीं हमारे वामपंथी पश्चिमी इरादों के सहर्ष प्रचारक बने मिलते है। मिशनरी एजेंसियों की ढिठाई के पीछे भी यही ताकत है। इसीलिए वे चीन या अरब देशों में इतने आक्रामक नहीं हो पाते। पश्चिमी सरकारे ईसाई मिशनरी संगठनों को दुनिया भर में मतांतरण कराने के योजनाबद्ध प्रयासों को आर्थिक, राजनीतिक, कूटनीतिक सहायता देती हैं। अमेरिकी सरकार भी ईसाइयत विस्तार को विदेश नीति का अपिरहार्य अंग मानती है।
Wednesday, September 10, 2008
दबाव में फैसले
यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि यह सब जो अब हुआ है, थोड़ा पहले भी हो सकता था। सच तो यह है कि अगर वस्तुस्थिति और सत्य को नजरअंदाज करने की बजाय थोड़ी सी ईमानदारी बरती गई होती तो यह नौबत ही नहीं आई होती। न तो जनता को कोई आंदोलन करना पड़ा होता और न जम्मू में कर्फ्यू लगाना पड़ा होता। यही नहीं, अगर थोड़ा और पहले दूरअंदेशी बरती गई होती और वोटबैंक की राजनीति के बजाय राष्ट्रहित एवं जनहित को महत्व दिया गया होता तो घाटी में भी इस मसले को लेकर जो प्रदर्शन हुए और खूनी खेल खेले गए, उनकी नौबत नहीं आई होती। घाटी से लेकर जम्मू तक जो नुकसान न केवल सरकार बल्कि आम जनता को भी उठाना पड़ा है, वह सब नहीं हुआ होता। सरकार को अपने नुकसान का अफसोस न हो, पर जनता को अपने नुकसान का अफसोस जरूर है। इसके बावजूद न चाहते हुए भी वह ऐसा करने के लिए मजबूर थी। यह बात जम्मू के लोगों की समझ में पूरी तरह आ गई थी कि अब अपना वाजिब हक लेने का इसके अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है। जिन जम्मूवासियों ने करीब महीने भर की अपनी रोजी-रोटी गंवाई या अपने मकानों-दुकानों का नुकसान झेला, वे किसी से टैक्स वसूल कर अपने निजी नुकसान की भरपाई नहीं कर सकेंगे। यह नुकसान तो खैर, फिर भी वे देर-सबेर पूरा कर लेंगे, पर जिनकी जानें गई है क्या उन्हे कोई लौटा सकेगा?यह सब जो हुआ है क्या इससे पता नहीं चलता कि हमारे राजनेता कितने संवेदनशील है? क्या इससे यह मालूम नहीं हो जाता कि हमारे देश का संविधान जिनके हाथों में है, वे कितने निष्पक्ष और न्यायप्रिय है? जो बात सरकार ने अब मानी है, क्या वही वह पहले नहीं मान सकती थी? अगर अभी सरकार में किसी भी तरह से शामिल कोई भी राजनेता यह कहता है कि सरकार ने जम्मू के लोगों की बातें दबाव में मानी है, तो क्या यह हमारी राजनीतिक न्याय प्रणाली के बेहद कमजोर होने का सबूत नहीं है? यह बात तो साफ है कि दबाव में कभी कहीं न्याय हो ही नहीं सकता है। अब अगर इसे दबाव में हुआ फैसला माना जाए, जो कि यह है भी, तब तो जाहिर है कि यह फैसला गलत है। अगर सही यानी दबाव के बगैर फैसला हुआ है तो फिर जान-माल की जो क्षति हुई है, उसके लिए जिम्मेदार कौन है? क्या यह किसी आपराधिक कृत्य से कम है? बहरहाल, यह फैसला चाहे दबाव में लिया गया हो या बिना दबाव के, पर हकीकत यही है कि हमारे देश में अधिकतम राजनीतिक फैसले दबाव में ही लिए जाते है। बात चाहे श्राइन बोर्ड को जमीन देने की मंजूरी की रही हो, चाहे उसे फिर से वापस लेने या फिर अब दुबारा वही जमीन उसे लौटाने की, फैसले सारे दबाव में ही लिए गए है। यह अलग बात है कि हर बार दबाव अलग-अलग तरह के रहे है।
यह दबाव कैसे प्रभावी होता है, इसे जम्मू-कश्मीर में व्याप्त विसंगतियों से देखा और समझा जा सकता है। यह कौन नहीं जानता है कि घाटी यानी कश्मीर पूरे राज्य का बहुत छोटा सा हिस्सा है। जम्मू और लद्दाख की हिस्सेदारी उससे ज्यादा है। इसके बावजूद राज्य से संबंधित हर फैसले पर इस क्षेत्र की प्रभुता का असर साफ देखा जा सकता है। सरकार के भी बड़े से बड़े फैसले बदलवा देने में यह अपने को सक्षम समझता है और इसे बार-बार साबित करता रहता है। आखिर क्यों? सिर्फ इसलिए कि यहां मुट्ठी भर ऐसे अलगाववादी रहते है, जो राज्य के साथ-साथ केंद्र सरकार को भी शोपीस से ज्यादा कुछ नहीं समझते। इलाके की आम जनता के मानस को चाहे वे रत्ताी भर भी प्रभावित न कर सके हों, पर ढोर-बकरियों की तरह अपने मन मुताबिक जहां चाहे वहां खड़ा करने में उन्हे मुश्किल नहीं होती। क्यों? क्योंकि आम जनता निहत्थी है, जबकि अलगाववादियों के पास अत्याधुनिक बंदूकें है, बम है, ग्रेनेड है, बारूदी सुरंगें है। यही नहीं, परदे के पीछे से कुछ राजनेताओं का संरक्षण भी उन्हे प्राप्त है। अगर ऐसा नहीं है तो क्या कारण है कि घाटी में पाकिस्तान समर्थक नारे लगाए जाते है, पाकिस्तानी झंडे फहराए जाते है और इसकी नोटिस तक नहीं ली जाती है। इस राष्ट्रविरोधी कृत्य को अगर घाटी के जनजीवन का हिस्सा मान लिया गया है तो यह कैसे माना जाए कि यह सब राजनीतिक संरक्षण के बगैर हो रहा है? राजनेता यह क्यों भूल जाते है कि लोकतंत्र में उनकी ताकत जनता से ज्यादा नहीं है?
सच तो यह है कि अगर वे इस बात को याद रखें तो जम्मू-कश्मीर ही नहीं, पूरे देश में कोई दिक्कत नहीं रह जाएगी। कभी वोटबैंक तो कभी निजी स्वार्थो के दबाव में जो फैसले किए जाते रहे है, उनका ही नतीजा है जो पूरे देश में असहिष्णुता बढ़ रही है। जाहिर है, एक समुदाय को खुश करने के लिए अगर दूसरे का हक मारा जाएगा तो वह कितने दिनों तक बर्दाश्त कर सकेगा? और जब शांतिपूर्वक किसी की बात नहीं सुनी जाएगी तो उसके धैर्य का बांध कभी तो टूटेगा ही। जम्मू, गुजरात या अभी उड़ीसा जैसे संकट वस्तुत: ऐसे ही राजनीतिक फैसलों की देन है। राजनेता अगर निजी हितों की तुलना में थोड़ा सा ज्यादा महत्व राष्ट्र और जनहित को देने लगें तो कई समस्याएं अपने आप हल हो जाएंगी। अन्यथा इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि जम्मू, गुजरात और उड़ीसा सिर्फ संकेत है। सच तो यह है कि अपने मौलिक और न्यायसंगत अधिकारों से वंचित देश की बहुत
बड़ी आबादी के भीतर अत्यंत भयावह ज्वालामुखी का लावा उबल रहा है। उसे अब बहुत ज्यादा दिनों तक गुमराह करना संभव नहीं रह गया है। यह राजनेताओं के सोचने का विषय है कि जिस दिन यह लावा फूटेगा, तब क्या होगा?
मतांतरण अभियान कब तक
उक्त घटना की प्रतिक्रिया में उपजी हिंसा पर वेटिकन से पोप ने प्रतिक्रिया व्यक्त की और इटली की सरकार ने भी भारतीय राजदूत को बुलाकर विरोध जताया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने स्वदेशी मामले में विदेशी दखल पर वेटिकन और रोम को डपटने के बजाय अपने ही देश पर शर्रि्मदगी का इजहार किया। भारत के कैथोलिक स्कूलों ने उड़ीसा के ईसाई संस्थानों पर जनाक्रोश जनित हमलों के विरोध में हड़ताल की। इन सभी स्कूलों में अधिकाशत: हिंदू बच्चे पढ़ते हैं, लेकिन उनके एक हिंदू संत की हत्या पर स्कूल बंद नहीं हुए। भारत में स्कूलों और बच्चों का राजनीतिक इस्तेमाल चर्च ने शुरू किया है। इसके अलग परिणाम होंगे। वेटिकन को इस पर कोई दुख नहीं हुआ कि शांतिपूर्वक जनसेवा कर रहे एक हिंदू संत की उन कुछ बर्बर तत्वों द्वारा हत्या कर दी गई जिन पर चर्च के संरक्षण का आरोप लगा है। उड़ीसा में किसी भी प्रकार की हिंसा का कोई समर्थन नहीं कर सकता। निर्दोष चाहे हिंदू मारा जाए या ईसाई, वह भारतीय है और उसकी हत्या पर समाज को दुखी होना चाहिए, लेकिन चर्च और दिल्ली की सत्ता ने दुख का भी सांप्रदायीकरण किया। पिछले वर्ष दिसंबर में भी स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या का प्रयास हुआ था, जो विफल रहा। इसके बाद राज्य सरकार और जिला प्रशासन को अनेक बार पत्र लिखकर सुरक्षा उपलब्ध कराने का अनुरोध किया गया, पर राज्य सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की। 9 अगस्त को कंधमाल के पास कुलमाहा गांव में ईसाइयों की एक बैठक हुई जिसमें आल इंडिया क्रिश्चियन काउंसिल के एक कुख्यात अधिकारी ने हिस्सा लिया जो पहले अमेरिकी संसद में भारत के विरुद्ध बयान देने के लिए चíचत रहे हैं। इस अधिकारी की स्वामीजी की हत्या से पहले उड़ीसा में लंबी उपस्थिति के रहस्य की जांच जरूरी है। 13 अगस्त को स्वामीजी की हत्या की धमकी वाला पत्र चक्कपाद आश्रम में मिला। इसका स्थानीय समाचार-पत्रों में व्यापक प्रचार हुआ और राज्य सरकार को भी इसकी सूचना दी गई, लेकिन पुलिस-प्रशासन ने कोई कार्रवाई नहीं की।
स्वामी लक्ष्मणानंद इस क्षेत्र में समाज सुधारक के नाते जाने जाते थे। जनजातियों से शराब, तंबाकू की आदत छुड़वाना, साफ-सुथरे रहकर भगवद् चिंतन और उच्च शिक्षा की ओर प्रवृत्ता करना उनके मुख्य योगदान थे। उन्होंने जनजातीय क्षेत्र में संस्कृत विद्यालय की स्थापना की। आर्थिक विकास, चिकित्सकीय सहायता जैसे अनेक प्रकल्प आज भी स्वामीजी के प्रयासों से चल रहे हैं। उनकी हत्या से किसे लाभ हो सकता था? स्थानीय ईसाई तत्वों ने उनकी हत्या के बाद प्रचारित किया कि माओवादी-नक्सली तत्वों ने उन्हें मारा है। जब माओवादियों की ओर से स्थानीय प्रेस को अधिकृत बयान दिया गया कि इस हत्या में उनका कोई हाथ नहीं है तब यह भ्रामक प्रचार रुका। वस्तुत: दुनिया में ईसाइयत ने सर्वाधिक रक्तरंजित बर्बरता जनजातीय समाज पर ही करते हुए उन्हें मतांतरित किया। 1493 में कोलंबस ने भारत की खोज के भ्रम में अमेरिका खोजा। कोलंबस के समय अमेरिका और कैरेबियन में 10 करोड़ जनजातीय लोग थे। उसके बाद सिर्फ सौ वर्ष के कालखंड में सात करोड़ लोग बर्बरतापूर्वक मार डाले गए। क्यूबा, प्यूर्टोरिको और जमैका के 30 लाख जनजातीय लोग 50 वर्ष के कालखंड में सिर्फ 200 रह गए। । ब्राजील, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के जनजातीय समाज को भी इसी प्रकार या तो मार डाला गया या ईसाई बनाया गया।
चर्च आक्रामकता के साथ हिंदू देवी-देवताओं के प्रति अभद्र प्रचार करते हुए हर संभव साधन से हिंदुओं के मतांतरण में जुटता है तो उस कारण सामाजिक विखंडन पैदा होता है। स्वेच्छा से कोई किसी भी आस्था को माने तो कभी किसी को आपत्तिनहीं होती, लेकिन छल-बल से हिंदू जनसंख्या घटाने का षड़यंत्र प्रतिक्रिया पैदा करता है। आक्रामक ईसाइयत केवल हिंदू और बौद्ध देशों तक ही क्यों सीमित है-इस्लामी देशों में क्यों नहीं? हिंदुओं की सर्वपंथ समभाव की धर्मनीति का सम्मान करने के बजाय उनके मतांतरण का अभियान क्यों किया जाता है?
Tuesday, September 9, 2008
फसाद की जड़ धर्मांतरण
उड़ीसा दंगों में ईसाई संगठन दोषी: रिपोर्ट
“जस्टिस ऑन ट्रायल” की जांच समिति के अध्यक्ष और राजस्थान के अतिरिक्त महाधिवक्ता सरदार जीएस. गिल ने आज यहां एक प्रेस वार्ता में कहा कि उड़ीसा में धर्मपरिवर्तन रोकने के लिए सन 1967 में बनाए गए सख्त कानून के बावजूद ईसाई मिशनरी संस्थाएं प्रलोभन से भोलेभाले आदिवासियों का धर्मपरिवर्तन करा रही हैं, जिससे समय-समय पर तनाव पैदा होता रहता है।
उन्होंने कहा कि उड़ीसा के हिन्दू नेता स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती ने एक साक्षात्कार में स्वंय कहा था कि मिशनरी तत्व उन पर आठ बार हमला कर चुके हैं। नौवें हमले में गत महीने उनकी मौत हो गई थी।
जांच समिति ने हिन्दू नेता पर हुए हमले के लिए माओवादियों को जिम्मेदार ठहराए जाने के बारे में कहा कि ऐसा कोई ठोस कारण नहीं है कि माओवादी स्वामी जी की जान लें।
जांच समिति ने कहा कि इस बात की छानबीन होनी चाहिए कि क्या हिन्दू विरोधी ताकतों ने माओवादियों के जरिए इस अपराध को अंजाम दिया है।
जांच समिति में पंजाब के पूर्व पुलिस महानिदेशक पीसी. डोगरा, राष्ट्रीय महिला आयोग की पूर्व सदस्य नफीसा हुसैन, सामाजिक कार्यकर्ता कैप्टन एमके. अंधारे और रामकिशोर पसारी शामिल थे।
कंधमाल में पिछले वर्ष भी दिसम्बर में हुई घटनाओं की जांच के लिए समिति के सदस्यों ने विभिन्न स्थानों का दौरा कर अपनी रिपोर्ट जारी की थी। समिति के सदस्यों का मानना है कि इस रिपोर्ट में साम्प्रदायिक और सामाजिक तनावों के मूल कारणों का उल्लेख है, जिन्हें दूर करके ही इस क्षेत्र में शांति और सद्भाव कायम किया जा सकता है।