Monday, December 29, 2008

सहमे हुए हैं बांग्लादेश के हिंदू

बीबीसी , 26 दिसंबर, २००८, बांग्लादेश की राजधानी का पुराना इलाक़ा बिल्कुल दिल्ली के चांदनी चौक जैसा दिखता है. वही सकरी गलियाँ और छोटी-छोटी दुकानें.
यहाँ के ताते बाज़ार और शाखारी बाज़ार में कई हिंदू रहते है. जगह-जगह हिंदू देवी देवताओं की तस्वीरें दिख जातीं हैं.
यहाँ के जगन्नाथ मंदिर के कर्ता-धर्ता और पेशे से सुनार बाबुल चंद्र दास का कहना है कि अल्पसंख्यक, ख़ासकर हिंदुओं की स्थिति यहाँ बहुत ख़राब है.
उन्होंने कहा, ''पिछले चुनावों के बाद भड़की हिंसा को हम नही भूल सकते. हमें आज भी डर है कि हम वोट डालने जाएँ या नहीं, क्योंकि बाद में हमारे ऊपर हमले भी हो सकते हैं. हमें कहा जाता है कि आप हिंदू हो भारत चले जाओ, हमने भी 1971 की आज़ादी के आंदोलन में हिस्सा लिया और अब हमारे पास कोई अधिकार नहीं है.''
नज़ारा अलग है
लेकिन ढाका के शाखारी बाज़ार का नज़ारा एकदम अलग है. यहाँ लगभग पूरी आबादी ही हिंदुओ की है. इक्का-दुक्का मुसलमान यहाँ दिख जाएँगे.
यहाँ पर होटल चला रहे दीपक नाग कहते है, ''यहाँ कोई समस्या नहीं है क्योंकि यहाँ हम मज़बूत स्थिति में है. हाँ, गाँवों में हिंदू उत्पीड़न झेलते हैं. ढाका के इस बाज़ार में कोई हमें नहीं छू सकता.''
शाखरी बाज़ार बाक़ी देश से काफ़ी अलग है. बांग्लादेश में करीब 8-10 प्रतिशत हिंदू है, पर सामाजिक कार्यकर्ताओ की मानें तो ये संख्या काफ़ी ज़्यादा है और सरकारी आँकड़े पूरी सच्चाई बयां नहीं करते.
लेखक, पत्रकार और फ़िल्मकार शहरयार कबीर कहते हैं, ''खेद की बात है की बांग्लादेश में हिंदू हाशिए पर है. उनका संसद में, प्रशासन में सही प्रतिनिधित्व नहीं है."
इस्लामी राष्ट्र
वो कहते हैं कि संविधान को ज़िया उर रहमान ने धर्मनिरपेक्ष से बदल कर इस्लामी रूप दे दिया था और फिर जनरल इरशाद ने इस्लाम को राष्ट्र धर्म का दर्जा दे दिया.
जिस भी हिंदू से बात करते हैं वो 2001 के चुनावों के बाद हुई हिंसा की याद से सिहर उठता है. शिराजपुर में पूर्णिमा नाम की 15 साल की लड़की से सामूहिक बलात्कार हुआ. बारीसाल, बागेरहाट, मानिकगंज, चिट्टागोंग समेत दक्षिण और उत्तर बांग्लादेश में अत्याचार का दौर चला. घर, मंदिर, धान की फ़सले जला दी गई. ये हिंसा महीनों चली
काजोल देबनाथ
इसके बाद हिंदू, बौद्ध, ईसाई सब दूसरे दर्जे के नागरिक हो गए. हिंदुओ से भेदभाव और उनका दमन जारी है और वर्ष 2001 के चुनाव के बाद हुई हिंसा आज भी दहशत फैला रही है.
कबीर के अनुसार देश में भय का माहौल है और जैसे-जैसे इस्लामी चरमपंथ उभर रहा है, धर्मनिरपेक्ष ताक़तों की जगह कम होती जा रही है.
हालाँकि यहाँ के हिंदू स्वयं को अल्पसंख्यक नहीं मानते और अपने को मुख्यधारा के हिस्से के रूप में देखते है. काजोल देबनाथ हिंदू बोद्ध ईसाई एकता परिषद से जुड़े हैं और वे बताते हैं कि जब पूर्वी पाकिस्तान था तब राष्ट्रीय असेंबली की 309 में से 72 सीटें अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित थीं.
उनका कहना है कि अल्पसंख्यकों ने अलग सीटों की बजाए सम्मिलित सीटों की मांग की. पर आज हालत यह है की आवामी लीग ने क़रीब 15 तो बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी ने केवल चार से पाँच अल्पसंख्यक उम्मीदवार खड़े किए हैं.
काजोल देबनाथ का कहना है, "जिस भी हिंदू से बात करते हैं वो 2001 के चुनावों के बाद हुई हिंसा की याद से सिहर उठता है. शिराजपुर में पूर्णिमा नाम की 15 साल की लड़की से सामूहिक बलात्कार हुआ. बारीसाल, बागेरहाट, मानिकगंज, चिट्टागोंग समेत दक्षिण और उत्तर बांग्लादेश में अत्याचार का दौर चला. घर, मंदिर धान की फ़सले जला दी गई. ये हिंसा महीनों चली.''
भारत का असर
ढाका विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफ़ेसर अजय राय कहते हैं, "और तो और लड़कियों के साथ बदसलूकी होती है. सिंदूर और बिंदी लगाने पर फ़िकरे कसे जाते है. भारत की घटनाओं का असर भी बांग्लादेश के हिंदू झेलते है."
अजय राय का कहना है, ''जब भारत में कुछ घटनाएँ होती हैं, जैसे गुजरात या बाबरी मस्जिद विध्वंस, यहाँ प्रतिक्रिया बहुत तीव्र होती है. बाबरी विध्वंस के बाद यहाँ हिंदू पूजा स्थलों पर कई हमले हुए. अल्पसंख्यकों की ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर लेने की समस्या लगातार बनी रहती हैं क्योंकि वे कमज़ोर है और सरकार और प्रशासन का भी साथ उन्हें नहीं मिलता.
अजय राय एक ग़ैर सरकारी संस्था संपृति मंच के ज़रिए क़ानून-व्यवस्था पर नज़र रख रहे हैं और अल्पसख्यकों से चुनाव में बेख़ौफ़ हिस्सा लेने का आह्वान कर रहे हैं. साथ ही किसी भी हिंसक घटना या डराने-धमकाने की कोशिश को चुनाव आयोग तक पहुँचा रहे हैं.
लेकिन हिंदू समुदाय चुनाव के बाद और सरकार गठन के दौर में संभावित हिंसा से अब भी चिंतित है

Friday, December 12, 2008

आतंक की उर्वर जमीन

रह-रह कर होने वाले आतंकी हमलों के मूल कारणों पर प्रकाश डाल रहे हैं बलबीर पुंज

दैनिक जागरण, ०८ दिसम्बर २००८, इतिहास के काले पन्नों में 26/11 का भारत में वही स्थान है जो अमेरिका में 9/ 11 का है। भारत में लगभग हर दो मास के बाद बम विस्फोटों में निर्दोषों की हत्या होती है। ऐसी घटनाओं में मरने वालों की संख्या अब हजारों में है। 11 सितंबर ,2001 के व‌र्ल्ड ट्रेड सेंटर, पेंटागन आदि पर हवाई हमले के बाद पिछले सात वर्र्षो में अमेरिका में एक भी आतंकवादी घटना नहीं हुई। अमेरिका और इज़राइल भारत की तुलना में जिहादी आतंकवादियों के निशाने पर अधिक हैं, फिर केवल भारत में ही आतंकवादियों को अपने नापाक मंसूबों को पूरा करने में इतनी सफलता क्यों मिल रही है? क्या यह सत्य नहीं कि लगभग सभी स्वयंभू सेकुलर दलों ने सेकुलरवाद के नाम पर कट्टरवादी मुस्लिम मानसिकता को पुष्ट करने का काम किया है? क्या जिहादी प्रवृति इसी मानसिकता की देन नहीं है?

यह ठीक है कि मुंबई में हुए हाल के नरसंहार के लिए पाकिस्तानी जिम्मेदार थे, परंतु इस महानगर पर ढाए गए इस कहर को क्या केवल इन्हीं दस लोगों ने अंजाम दिया? क्या इन आतंकवादियों को कोई स्थानीय सहयोग नहीं प्राप्त था? वर्ष 2005 से अब तक की घटनाओं में अपने ही देश में पैदा हुए, पनपे और प्रशिक्षित किए गए आतंकवादियों की संख्या कितनी है? अभी दिल्ली में बटला हाउस की पुलिस मुठभेड़ को छोड़ दें तो कितनी घटनाओं में सुरक्षा बलों ने आतंकवादियों को मार गिराने में सफलता प्राप्त की है? क्या यह सत्य नहीं कि इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार आतंकवादियों को न तो किस न्यायालय में चार्जशीट किया गया है और न ही दंडित? क्यों? संसद पर खूनी हमले के दोषी मुहम्मद अफजल को सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद भी वर्र्षो से दंडित नहीं किया गया। इससे क्या संदेश जाता है?

मुबई में हुए हमले के बाद जनाक्रोश उमड़ना स्वभाविक था और कांग्रेस में जिस तरह से आरोपों और प्रत्यायोपों का दौर शुरू हुआ वह वास्तव में ही शर्मनाक था। शेष देश और मुबई साठ घंटे के आतंकी आक्रमण से उबरे भी नहीं थे कि कांग्रेस के नेताओं में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के पद को लेकर जूतम पैजार शुरू हो गई। शीर्ष पर व्यक्ति बदलने से क्या कोई वास्तविक परिवर्तन संभव है? वर्तमान दुखद स्थिति के लिए नेतृत्व और उससे अधिक कांग्रेसी नीतियां जिम्मेदार हैं। क्या इन नीतियों में परिवर्तन होगा? क्या वोट बैंक की राजनीति के लिए राष्ट्र हितों की बलि नहीं दी जाएगी? 16 मार्च 2006 के दिन केरल विधानसभा ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित करके उस अब्दुल नसीर मदनी की रिहाई की मांग की जिस पर 1998 में कोयंबतूर बम विस्फोटों का षडयंत्र करने और विस्फोटों में 60 बेकसूर नागरिकों की हत्या का मुकदमा चल रहा था। ये विस्फोट बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवानी की हत्या के इरादे से उनकी सार्वजनिक सभा में किए गए थे।

एक दूसरे से ज्यादा बड़ा और बेहतर सेकुलर दिखने और मुस्लिम समाज का सबसे बड़ा खैरख्वाह होने के इसी उत्साह की वजह से भारत के वामपंथी दलों और यूपीए ने उत्साह के साथ आतंकवाद विरोधी पोटा कानून को भी खत्म कर दिया। इसी का नतीजा है कि भारत की अस्मिता पर बार-बार हमला करने वाले आतंकवादियों के हौसले लगातार बुलंद होते जा रहे हैं। ऐसी हरकतें करने वाले संगठनों और पार्टियों के वोटों में कितनी बढ़ोत्तारी होती है, यह तो पता नहीं पर इसमें कोई शक नहीं कि इन हरकतों से समाज की सुरक्षा में लगी एजेंसियों और सुरक्षा कर्मियों का उत्साह घटता है। आतंकवादियों के लिए भला इससे बेहतर सौगात और क्या हो सकती है?

भारतीय मुस्लिम समाज और आतंकवाद का सवाल उठते ही भारत के सेकुलरिस्ट यह दलील देने लगते हैं कि गरीबी के कारण मुस्लिम युवक आतंकवाद की राह में भटक जाते हैं, लेकिन मुंबई और दिल्ली समेत पिछले सभी आतंकवादी हमलों के लिए जिम्मेदार जिन आतंकवादी युवाओं को पकड़ा गया उनमें से अधिकांश उच्चा शिक्षा पाए हुए और खाते पीते घरों के हैं। यह दिखाता है कि असली समस्या अशिक्षा और बेरोजगारी में नहीं, बल्कि भारतीय मुस्लिम समाज पर गहरी पकड़ बनाए बैठे वे कठमुल्ला नेता हैं जो आज भी भारत को 'दारुल इस्लाम' बनाने का सपना पाले हुए हैं। वैसे भी अगर गरीबी में ही आतंकवादी पैदा होते हैं तो फिर भारत के हिंदू समाज में सबसे ज्यादा आतंकवादी होने चाहिए थे, क्योंकि यहां के निपट गरीब हिंदुओं की संख्या भारत की पूरी मुस्लिम आबादी के दुगने से भी ज्यादा है। मुंबई में हुई आतंकी घटना एक ऐसे मौके पर हुई जब महाराष्ट्र की एटीएस मालेगांव बम विस्फोटों की जांच में लगी हुई थी।

महाराष्ट्र एटीएस की जांच के हर कदम को जिस तरह मीडिया के सामने रोज-रोज परोसा जा रहा था उसे देखकर समझना मुश्किल था कि महाराष्ट्र सरकार एटीएस का इस्तेमाल बमकांड की जांच के लिए कर रही है या दुनिया को यह बताने के लिए कि दुनिया भर में फल फूल रहे इस्लामी आतंकवाद के साथ-साथ भारत में 'हिंदू आतंकवाद' भी खड़ा हो गया है। 26 नवंबर के दिन पाकिस्तानी आतंकवादियों की गोलियों से शहीद होने से ठीक एक दिन पहले एटीएस के प्रधान शहीद हेमंत करकरे ने एक टीवी न्यूज़ चैनेल को दिए अपने इंटरव्यू में इस बात को स्वीकार किया था कि एटीएस का 90 प्रतिशत समय और ताकत को मालेगांव कांड पर खर्च किया जा रहा है। क्या इस जांच का उद्देश्य आतंकवाद के स्रोतों को बंद करना नहीं बल्कि साध्वी प्रज्ञा और ले. कर्नल पुरोहित को 'हिंदू टेरर' के प्रतीकों के रूप में खड़ा करके 'सेकुलरिस्टों' के राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाना नहीं था? आतंकवादी पाकिस्तान से आए, इस पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। वाघा बार्डर पर मोमबत्तियां जला कर क्या पाकिस्तान की मानसिकता बदली जा सकती है? 1947 में जम्मू कश्मीर के भारत में विलय के बावजूद पाकिस्तान कबायलियों और उनकी आड़ में अपनी सेना को भेजकर राज्य का एक हिस्सा अपने कब्जे में लेने में कामयाब रहा था। भारत के खिलाफ मजहबी आतंकवादियों के इस पहले इस्तेमाल की सफलता के बाद उसका इसमें विश्वास लगातार बढ़ता आया है। 1980 और 90 के दशकों में पंजाब में आतंकवादी आंधी के लिए भी पाकिस्तान ही जिम्मेदार था। कश्मीर में अलगाववादी आंदोलन को आतंक का समर्थन भी पाकिस्तान से प्राप्त होता है।

पाकिस्तान और कठमुल्लों के बाद भारत में जेहादी आतंकवाद को बढ़ाने वाला तीसरा तत्व वे मुस्लिम देश हैं जो दुनिया भर में जेहादी आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए पैसे और हथियार मुहैया करा रहे हैं। अगर भारत में आतंकवाद को सचमुच खत्म करना है तो हमें इन तीनों तत्वों के प्रभाव पर नियंत्रण लगाना होगा। यह काम किसी एक पार्टी या सरकार के बस का नहीं है। इस काम के लिए सभी दलों को अपने छोटे-छोटे स्वार्थों से ऊपर उठना होगा।


मजहब के नाम पर गुनाह

मजहब के नाम पर हिंसा और आतंक फैलाने वाली मानसिकता की तह तक जा रहे हैं डा.महीप सिंह

दैनिक जागरण ३ दिसम्बर २००८, जब छोटे-बड़े धर्म-गुरु, देश के नेता और समाज के चिंतनशील व्यक्ति यह कहते हैं कि आतंकवादी का कोई धर्म, मजहब, मत या संप्रदाय नहीं होता तो मुझे बहुत विचित्र सा लगता है। यह भी कम विचित्र नहीं है कि सभी मजहबों और मतों के अगुवा यह दावा करते हुए दिखाई देते है कि हमारे मजहब या पंथ में आतंकवाद का कोई स्थान नहीं है। मनुष्य का इतिहास ऐसी दलीलों की गवाही नहीं देता। संसार में जितना नरसंहार मजहब के नाम पर हुआ है उतना दुर्दांत आक्रमणकारियों द्वारा अपने राज्यों के विस्तार के लिए भी नहीं हुआ। मेरे सम्मुख इस समय तीन शब्द हैं-धर्मयुद्ध, जिहाद और ्रक्रुसेड। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है, ''जब-जब धर्म की हानि होती है, अधर्म की वृद्धि होती है, मैं पाप का विनाश करने और धर्म की स्थापना के लिए युग-युग में प्रकट होता हूं।'' लगभग यही बात गुरु गोबिंद सिंह ने भी कही है। भगवान कृष्ण कौरवों के खिलाफ अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित करते हैं और गुरु गोबिंद सिंह मुगलों के विरुद्ध युद्ध को धर्म युद्ध मानते हैं।

जिहाद क्या है? उसकी एक परिभाषा तो यह है कि जो लोग इस्लाम की प्रभुता को स्वीकारते नहीं है उनके विरुद्ध युद्ध छेड़ना जिहाद है। उनके लिए यह धर्म युद्ध है। उदार सूफी लेखक मानते हैं कि जिहाद दो प्रकार का होता है-अल जिहाद-ए अकबर अर्थात बड़ा युद्ध। यह जिहाद व्यक्ति की अपनी वासनाओं और दुर्बलताओं के विरुद्ध है। दूसरा है-अल जिहाद ए-अगसर, जो विधर्मियों के खिलाफ लड़ा जाता है। सऊदी अरब के कट्टरपंथी वहाबी मानते है कि इस्लाम विरोधी सभी शक्तियों के विरुद्ध युद्ध करना और उन्हे किसी भी प्रकार नष्ट करना सही जिहाद है, किंतु उदार मुसलमान कहते है कि कुरान शरीफ में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि इस्लाम किसी को जबरदस्ती मुसलमान बनाने की अनुमति नहीं देता।वह तो इसके सर्वथा विरुद्ध है। उनकी धारणा यह भी है कि इस्लाम के प्रारंभिक विरोधी यहूदी और ईसाई थे। उन्होंने इस्लाम का प्रचार रोकने के लिए उसके विरुद्ध युद्ध छेड़ रखा था। इसलिए कुरान में उनके विरुद्ध युद्ध करने की अनुमति दी गई। यह अनुमति इसलिए नहीं दी गई कि मुसलमान दूसरे पर चढ़ दौड़ें, बल्कि इसलिए कि अत्याचार से पीड़ित और निस्सहाय लोगों की सहायता करे और उन्हे अत्याचारियों के पंजों से छुटकारा दिलाएं। आज सारे संसार में जो कुछ हो रहा है, और अभी-अभी मुंबई में जो कुछ हुआ उसे वे लोग कर रहे है जो अपने आपको जिहादी मानते है। वे मानते हैं कि यहूदी, ईसाई और हिंदू इस्लाम के शत्रु है।

एक अन्य शब्द है क्रुसेड। ईसाइयों और मुसलमानों के मध्य कई सदियों तक निरंतर युद्ध चलता रहा। अरब मुस्लिम आक्रमणकारियों ने एक समय यूरोप के अनेक देशों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था। स्पेन आदि देशों पर उनका अधिकार कई सदियों तक बना रहा। 11वीं से 14वीं सदी तक पश्चिमी यूरोप के ईसाई क्रुसेडर अपनी भूमि को मुस्लिम प्रभाव से मुक्त कराने के लिए युद्ध करते रहे। क्रुसेड शब्द लैटिन भाषा के क्रक्स शब्द से बना है। युद्ध के लिए जाते समय ईसाई सैनिक अपनी छाती पर पहने हुए वस्त्र पर 'क्रास' का चिह्न सिल लेते थे। ये क्रुसेड पोप के नेतृत्व में होते थे। स्पेन में उत्तारी अफ्रीका की ओर मुस्लिम सेनाओं का प्रवेश आठवीं सदी में प्रारंभ हो गया था। लगभग सात सौ वर्ष तक यहां उनका प्रभुत्व बना रहा। 11वीं सदी में ईसाइयों द्वारा क्रुसेड आरंभ हुआ और लंबे संघर्ष के पश्चात 15वीं सदी के अंत तक वहां से मुस्लिम शासन पूरी तरह समाप्त कर दिया गया। इतिहास की इस पृष्ठभूमि में जाने से मेरा इतना ही मंतव्य है कि मजहब को आधार बनाकर संसार के विभिन्न समुदायों का संघर्ष नया नहीं है। एक बात लगभग सभी पक्षों की ओर से उन सक्रिय भागीदारों से कही जाती है कि यदि तुम ऐसे महत् अभियान में मृत्यु प्राप्त करोगे तो तुम्हे स्वर्ग या जन्नत नसीब होगा और यदि तुम सफल हुए तो धरती के सभी सुख तुम्हारे चरणों में होंगे।

यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि आधुनिक युग में संसार में जिस प्रकार से वैज्ञानिक चिंतन का विकास हुआ है, लोकतंत्र की परिकल्पना ने अपने जड़ें जमाई है उससे धर्मयुद्ध और क्रुसेड शब्दों ने बड़ी सीमा तक अपनी संगति खो दी है, किंतु जिहाद शब्द अभी भी अपनी मध्ययुगीन मानसिकता से पल्ला नहीं छुड़ा सका है। प्रत्येक समुदाय में दो वर्ग स्पष्ट रूप से दिखाई देते है। अधिसंख्य लोग सभी प्रकार की विभिन्नताओं के बावजूद मिल-जुल कर शांतिपूर्वक रहना चाहते है, किंतु इसी के साथ एक अनुदार वर्ग भी उभर जाता है। उनकी संख्या अधिक नहीं होती, किंतु अपने आक्रामक तेवर के कारण वे अपने समुदाय के प्रवक्ता जैसे बन जाते है। मैं मानता हूं कि ऐसी कट्टर मानसिकता विकसित करने में उस मत के पुरोहित वर्ग की बड़ी भूमिका होती है। विश्व के कई स्थानों पर मुस्लिम समुदाय में सुन्नियों और शियाओं के बीच एक खूनी जंग छिड़ी दिखती है।

क्या मनुष्य के अस्तित्व में युद्ध एक अनिवार्य तत्व है? लगता तो यही है। 26 नवंबर की रात को मुंबई में जिहादियों द्वारा जो भीषण आक्रमण हुआ उसे अनेक समाचार पत्रों ने अपने शीर्षकों में युद्ध जैसी स्थिति घोषित किया। जाहिर है, युद्ध का स्वरूप अब बदलता जा रहा है। आज सारे संसार में जिस आतंकवाद की चर्चा हो रही है वह आमने-सामने का युद्ध नहीं है। मुंबई में आए आतंकवादियों का यह निश्चय था कि वे इस नगर के 5 हजार लोगों की हत्या करेगे। वे कौन होंगे, उनका मजहब क्या होगा-इससे उनका कोई सरोकार नहीं था। उनकी अंधाधुंध गोलाबारी का शिकार दो दर्जन से अधिक मुसलमान भी बने। मैंने प्रारंभ में ही लिखा है कि यह कहने को कोई अर्थ नहीं है कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता। देखना यह चाहिए कि आतंकियों को जन्म देने वाली उर्वरा भूमि कौन सी है और उसे खाद-पानी कहां से मिलता है?


बरेली में खुलेआम कुर्बानी को लेकर पथराव, फायरिंग

दैनिक जागरण,११ दिसम्बर २००८, बरेली : आजम नगर की छोटी गली में खुलेआम नई जगह कुर्बानी की कोशिश से दो समुदायों के सैकड़ों लोग आमने-सामने आ गए। पथराव में एक मासूम सहित कुछ लोगों को ईंट पत्थर लगे तो माहौल और भड़क उठा। फायरिंग शुरू हो गई। पुलिस पर भी उपद्रवियों ने हमला किया। पुलिस ने हवाई फायरिंग कर भीड़ को तितर-बितर किया। कुछ ही देर में आसपास के बाजार बंद हो गए। दो घंटे बाद किसी तरह दोनों पक्षों के मोअज्जिज लोगों और अफसरों ने माहौल शांत कराया। इलाके में तनाव बना हुआ है तथा फोर्स तैनात है। दोनों तरफ के डेढ़ सौ लोगों के खिलाफ बलवे का मुकदमा कायम कराया गया है। आजमनगर में सुबह करीब 11 बजे शाबिर पुत्र मोहम्मद अली अपने घर के सामने गली में भैंसे की कुर्बानी दे रहा था। इस पर पड़ोस में रहने वाले गंगा सहाय आदि लोगों ने आपत्ति की। इसी बात पर दोनों पक्षों में विवाद हो गया। माहौल गरमा गया और देखते ही देखते पथराव और फायरिंग शुरू हो गयी। दो मकानों में मिट्टी का तेल डालकर फूंकने का भी प्रयास किया गया। उपद्रव से इलाके में भगदड़ मच गयी।

Wednesday, December 3, 2008

Hindu shrine demolished in Malaysia despite ban order

3 December 2008, Kuala Lumpur (PTI): A 15-year-old Hindu shrine has been demolished by the city authorities in Kuala Lumpur even after an order by the Territories ministry banning the destruction of any temple without allocating alternate site.

The latest demolition of a shrine in Taman Desa, Seputeh, on Tuesday has raged anger among the Hindu community, who are now asking questions to explain the demolition act, media reports said here on Wednesday.

The Kuala Lumpur City Hall (DBKL) authorities had apparently issued a notice about the action to be taken in October and pasted the message on the temple's wall, reports added.

The notice was not handed over to the shrine authorities.

Leading ethnic Indian leader and President of the Malaysian Indian Congress, Samy Vellu, has asked the city authorities to explain their action and has warned of personally taking up the matter to Prime Minister Abdullah Ahmad Badawi.

Deputy Federal Territories Minister M Saravanan said he was upset over the demolition and would meet Federal Territories minister Datuk Zulhasnan Rafique on Wednesday.

"I have an understanding with the Federal Territories Minister that no existing temples would be demolished unless an alternative site has been given. If there was any development on the land, then the temple would be relocated," he said.

Multi-religious and multi-ethnic Malaysia has a eight per cent ethnic Indian population a majority of whom are Tamil Hindus.

Saravanan has asked Hindus to give the ministry a day or two before the issue could be resolve amicably.