Monday, September 29, 2008

दिल्ली में फिर धमाका, एक की मौत

दैनिक जागरण, २७ सितम्बर, २००८, नई दिल्ली। राजधानी में 13 सितंबर को हुए धमाकों के बाद एक शनिवार ही शांति से गुजरा था कि दूसरे शनिवार फिर एक बम विस्फोट हो गया। इस बार दक्षिण दिल्ली के महरौली क्षेत्र में भीड़ भरे सराय बाजार को निशाना बनाया गया। धमाकों में नौ साल के एक लड़के की मौत हो गई और 24 से ज्यादा लोग घायल हो गए। सात की हालत गंभीर है। पुलिस को कुछ कहते नहीं बन रहा।

जानकारी के अनुसार, महरौली में अंधेरिया मोड़ के निकट स्थित सराय बाजार में दोपहर 2.15 बजे काले रंग की पल्सर मोटरसाइकिल पर सवार दो युवक पहुंचे। पीछे बैठे युवक के हाथ में एक लिफाफा था। युवक ने सड़क पर लिफाफा गिरा दिया। पास में ही खडे़ एक बच्चे संतोष ने उसे यह समझ कर उठा लिया कि मोटरसाइकिल सवार से लिफाफा गलती से गिर गया है। उसने आवाज लगाई, लेकिन तब तक वे मोटरसाइकिल सवार वहां से निकल चुके थे। इस बीच धुआं निकलते देख बच्चे ने लिफाफा नीचे फेंक दिया। तभी तेज धमाके के साथ उसके चीथड़े उड़ गए।

विस्फोट स्थल पर हर तरफ धुआं फैल गया। बाजार में अफरातफरी मच गई। धुआं कम होने पर पता चला कि कई लोग सड़क पर घायल होकर गिरे हुए हैं। वहां मौजूद लोगों ने फुर्ती से घायलों को विभिन्न अस्पतालों में पहुंचाना शुरू किया। पुलिस को भी सूचना दी गई।

पुलिस ने पहुंचते ही बाजार सील कर दिया। घटनास्थल की जांच के लिए दिल्ली पुलिस के बम निरोधक दस्ते के साथ डाग स्क्वाड और एनएसजी की टीम भी पहुंच गई। दिल्ली पुलिस के कमिश्नर भी एक घंटे के अंदर मौके पर पहुंच गए। बाद में पुलिस ने बताया कि काली बाइक पर काले कपड़े और काले हेलमेट पहने दो युवकों ने बम रखा।

आज के विस्फोट में अमोनियम नाइट्रेट, सल्फर और पोटैशियम का इस्तेमाल किया गया बताया जाता है। अधिकारियों ने बताया कि करीब डेढ़ इंच लंबी कीलों के साथ अमोनियम नाइट्रेट का इस्तेमाल किया गया, ताकि कील चुभने से लोगों को ज्यादा नुकसान हो। सल्फर का प्रयोग धुआं निकलने के लिए किया गया। इन विस्फोटकों की पैकिंग लूज थी, इसलिए धमाका निम्न स्तर का हुआ।

एम्स तथा ट्रामा सेंटर से मिली जानकारी के अनुसार, कुल चौबीस घायलों को अस्पताल लाया गया था। बाद में गृह मंत्री शिवराज पाटिल घायलों का हाल-चाल जानने एम्स पहुंचे। दिल्ली सरकार ने मृतक के परिजनों को 5 लाख और घायलों को 50-50 हजार रुपये की सहायता राशि देने की घोषणा की है।

प्रधानमंत्री कार्यालय के सूत्रों के मुताबिक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी शनिवार की घटना पर गहरा अफसोस जताया है। प्रधानमंत्री फ्रांस की यात्रा पर हैं। यहां उनके कार्यालय के सूत्रों ने बताया कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के. नारायणन लगातार अधिकारियों के संपर्क में हैं और स्थिति की समीक्षा कर रहे हैं।

पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी और प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने दिल्ली में हुए धमाके की निंदा की है और मारे गए व घायल लोगों के प्रति संवेदना जताई है।

दिल्ली में इससे पहले हुए आतंकी हमले

13 सितंबर 2008: करोलबाग, कनाट प्लेस, ग्रेटर कैलाश में हुए बम धमाकों में 20 लोग मारे गए और सौ से अधिक घायल हो गए।

29 अक्टूबर 2005: सरोजिनी नगर/पहाड़गंज/गोविंदपुरी में हुए धमाकों में 59 लोगों की जान गई व 155 घायल हुए।

13 दिसंबर 2001: संसद पर हुए हमले में 11 लोग मारे गए और 30 घायल हो गए।

18 जून 2000: लाल किले पर हुए हमले में 2 लोग मारे गए।

16 अप्रैल 1999: होलंबीकलां रेलवे स्टेशन पर हुए धमाके में 2 लोग मारे गए।

26 जुलाई 1998: अंतरराज्यीय बस अड्डे पर हुए विस्फोट में 2 लोगों की मौत, 3 घायल।

30 दिसंबर 1997: पंजाबी बाग में हुए विस्फोट में 4 लोग मारे गए तथा 30 घायल।

30 नवंबर 1997: चांदनी चौक में हुए धमाके में 3 लोग मारे गए और 73 घायल हो गए।

1 अक्टूबर 1997: फ्रंटियर मेल में हुए धमाके में 3 लोग मारे गए।

मूर्ति रखने को लेकर विवाद

दैनिक जागरण, मईल, लार रोड , 28 सितम्बर २००८।

रविवार को मईल थाना क्षेत्र के लार रोड रेलवे स्टेशन पर मूर्ति रखने को लेकर दो समुदायों में कहा सुनी हो गयी। सूचना पाकर पहुंची मईल पुलिस ने मामले

को शांत कराया। समाचार लिखे जाने तक पुलिस गश्त कर रही थी।

Friday, September 26, 2008

धमाकों के आरोपियों की मदद देशहित में

Sep 26, २००८, नई दिल्ली। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के कुलपति के दिल्ली बम विस्फोटों के मामले में आरोपी दो छात्रों को कानूनी सहायता देने के फैसले का खुलकर समर्थन करते हुए कहा कि यह कदम देशहित में है।

जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. मुशरुल हसन शुक्रवार को अर्जुन सिंह से मिले और दिल्ली बम विस्फोटों के मामले में आरोपी दो छात्रों को विश्वविद्यालय के कानूनी सहायता देने के फैसले से अवगत कराया। भाजपा ने कुलपति के इस फैसले का विरोध किया है।

अर्जुन सिंह ने कहा कि इस मामले में छात्रों को कानूनी सहायता उपलब्ध कराने में कोई हर्ज नहीं है और मुझे पूरा ब्यौरा मिल गया है। कुलपति ने मुझे जो कुछ बताया है, उससे मुझे ऐसा लगता है कि विश्वविद्यालय का यह फैसला देश के हित में है।

वहीं, भाजपा ने कुलपति के इस फैसले को बर्बर, राष्ट्र विरोधी और बेहद आपत्तिजनक बताते हुए कुलपति की बर्खास्तगी की मांग की है।

अर्जुन सिंह से मुलाकात के बाद हसन ने कहा कि भाजपा का यह आरोप बेबुनियाद है कि विश्वविद्यालय छात्रों को कानूनी सहायता मुहैया कराने के लिए सरकारी धन का दुरुपयोग कर रही है। हसन ने कहा कि दोनों छात्रों को कानूनी सहायता देने का फैसला विश्वविद्यालय की शैक्षिक परिषद द्वारा लिया गया है। उन्होंने कहा कि कानूनी सहायता हासिल करना हर व्यक्ति का संवैधानिक अधिकार है। हम अपने फैसले पर अडिग हैं और मेरे इस्तीफा देने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। कुलपति ने कहा कि विश्वविद्यालय में कक्षाएं सामान्य रूप से चल रही हैं और हाल की घटनाओं से छात्रों का विश्वास प्रभावित नहीं हुआ है। उन्होंने कहा कि उनके संबोधन और उसके बाद शांति मार्च निकालने से छात्रों का विश्वास और बढ़ा है। हसन से सभी राजनीतिक दलों से आग्रह किया है कि वह इस मुद्दे को राजनीतिक रूप नहीं दें। अगर यह राजनीतिक मुद्दा हो गया तो यह अच्छा नहीं होगा। यह पूछे जाने पर कि क्या उनको कोई धमकी मिली है हसन ने कहा कि इससे सिद्धांत प्रभावित नहीं होने चाहिए।

संदिग्धों को कानूनी मदद देगा जामिया

नई दिल्ली (भाषा), बुधवार, 24 सितंबर २००८ जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय अपने दो निलंबित छात्रों को कानूनी सहायता उपलब्ध कराएगा, जिन्हें दिल्ली पुलिस ने राष्ट्रीय राजधानी में हुए विस्फोट में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार किया है।

विश्वविद्यालय की प्रवक्ता रक्षंदा जलील ने कहा कि जब तक उन्हें दोषी नहीं पाया जाता तब तक उन्हें कानूनी सहायता उपलब्ध कराई जाएगी। विश्विद्यालय ने प्रथम दृष्टया छात्रों को दिल्ली विस्फोट में शामिल होने के आरोप में निलंबित कर दिया था।

गोधरा में साजिशन जलाई गई थी बोगी

दैनिक जागरण, २६ सितम्बर २००८. अहमदाबाद। छह साल पहले गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस के एक डिब्बे को पूर्व नियोजित साजिश के तहत आग के हवाले किया गया था। गुजरात सरकार द्वारा मामले की जांच के लिए गठित एक आयोग का यही निष्कर्ष है। इस आयोग ने पिछले दिनों राज्य सरकार को अपनी आंशिक रिपोर्ट सौंपी थी। बृहस्पतिवार को विपक्ष के बहिर्गमन के बीच इसे विधानसभा में पेश किया गया। रिपोर्ट में बोगी जलाए जाने के बाद भड़के दंगों के सिलसिले में राज्य की नरेंद्र मोदी सरकार और पुलिस-प्रशासन को पाक-साफ करार दिया गया है। इन दंगों में एक हजार से भी ज्यादा लोग मारे गए थे।

साबरमती एक्सप्रेस के एस-6 कोच को आग के हवाले करने के पीछे मुख्य साजिशकर्ता के रूप में मौलाना उमरजी का नाम सामने आया है। नानावटी आयोग की रिपोर्ट में बताया गया है कि 27 फरवरी, 2002 को सुबह आठ बजे जब रामसेवक अयोध्या से गुजरात लौट रहे थे, तब गोधरा स्टेशन के पास साबरमती एक्सप्रेस के एस-6 तथा एस-7 कोच पर दस से बीस मिनट तक पथराव किया गया। इसके बाद आरोपियों ने कोच के दरवाजे खोल कर पेट्रोल उड़ेल दिया। फिर हसन लालू ने जलते कपड़े फेंक कर कोच को आग के हवाले कर दिया। इस घटना में 59 कारसेवक जिंदा जल गए। इनमें 27 महिलाएं तथा 10 बच्चे थे। 48 लोग बुरी तरह जख्मी हो गए थे।

रिपोर्ट में बताया गया है कि इस साजिश को अंजाम देने के लिए सलीम पानवाला तथा रजाक कुर्कुर नामक दो युवकों ने 26 फरवरी को रात्रि दस बजे 140 लीटर पेट्रोल खरीदा था। मौलवी उमरजी, रजाक कुर्कुर तथा पानवाला के अलावा इस साजिश में सौकत लालू, इमरान शेरी, रफीक बटुक, सलीम जरदा, जब्बीर, सीराजवाला को भी लिप्त बताया गया है।

समूची साजिश गोधरा के अमन गेस्ट हाउस में रची गई। रात को पेट्रोल भी यहीं पर रखा गया था। आयोग के मुताबिक आरोपियों ने राच्य सरकार, प्रशासन तंत्र तथा जनता में भय व आतंक पैदा करने के लिए इस घृणास्पद षड्यंत्र को अंजाम दिया।

आयोग ने गोधरा काड के बाद भड़के दंगों को लेकर मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, उनके मंत्रिमंडल के सदस्यों तथा पुलिस अधिकारियों को क्लीन चिट दी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इस समूची घटना में मुख्यमंत्री समेत सरकार तथा प्रशासन के किसी भी व्यक्ति का हाथ होने के कोई सबूत नहीं है।

आयोग ने दंगा पीड़ितों को सुरक्षा, राहत एवं पुनर्वास के मामले में राज्य सरकार द्वारा उठाए गए कदम को संतोषजनक बताते हुए कहा है कि इस संबंध में मानव अधिकार आयोग के निर्देशों का उल्लंघन किए जाने की कोई शिकायत नहीं है।

विधानसभा में यह रिपोर्ट पेश किए जाने के वक्त विपक्षी काग्रेस के सदस्य सदन से बाहर चले गए। काग्रेस ने सरकार पर इसे राजनीतिक लाभ लेने का प्रयास बताते हुए नाटक करार दिया है।

छह साल में 12 बार बढ़ा कार्यकाल

गुजरात सरकार ने गोधरा काड तथा इसके बाद भड़के दंगों की जाच के लिए 6 मार्च, 2002 को उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश केजी शाह की नियुक्ति की। 21 मई को सुप्रीमकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जीटी नानावटी को भी इसमें बतौर अध्यक्ष शामिल कर लिया गया। 22 मार्च, 2008 को शाह के निधन के बाद उनके स्थान पर सेवानिवृत्त न्यायाधीश अक्षय मेहता को आयोग में नियुक्त किया गया। आयोग का कार्यकाल पिछले छह वर्ष में 12 बार बढाया गया। हाल में कार्यकाल 31 दिसंबर, 2008 तक बढ़ाया गया है।

जटिल जांच

नानावटी आयोग ने जनता से 44 हजार 275 शपथ पत्र तथा आवेदन पत्र, राज्य सरकार की ओर से दो हजार 19 शपथ पत्र तथा एक हजार सोलह गवाहों से पूछताछ के बाद 168 पेज तथा 230 पैराग्राफ की रिपोर्ट का प्रथम हिस्सा तैयार किया है।

बनर्जी आयोग ने बताया था हादसा

गोधरा कांड की जांच के लिए रेल मंत्रालय ने भी सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज यूसी बनर्जी की अध्यक्षता में दो सदस्यीय आयोग बनाया था। इस आयोग ने गोधरा कांड को हादसा करार दिया था।

Thursday, September 25, 2008

अपनों से बेगानापन

मतांतरण के मूल कारणों पर आर. विक्रम सिंह के विचार

दैनिक जागरण, २५ सितम्बर २००८। उडीसा , कर्नाटक और केरल की हाल की घटनाओं के बाद मतांतरण पर बहस फिर तेज हो गई है। हमारे सामने सवाल यह है कि हिंदू समाज पिछले आठ सौ वर्षाें से मतांतरण के अभियानों का लक्ष्य क्यों बना हुआ है? क्या हमारे समाज के धार्मिक नेतृत्व ने इस सवाल का सामना करने का प्रयास किया है? यदि नहीं तो क्यों? मध्यकाल में इस्लाम के मतांतरण का लक्ष्य क्षत्रिय, ब्राह्मण वर्ग रहा, जबकि ईसाई मिशनरियों ने हिंदुत्व की सीमा रेखा पर स्थिति आदिवासी समुदाय को निशाना बनाया। पूर्वाेत्तार में वे अपना झंडा गाड़ चुके हैं और अपने मजहबी साम्राज्यवाद का अलम लेकर वे मुख्य आदिवासी क्षेत्रों में बढ़ते जा रहे हैं। दुनिया में मतांतरण कहीं भी विचारों के आधार पर नहीं, बल्कि हमेशा धर्म इतर कारणों से ही हुआ है। भारत के ईसाइयों ने कभी मुस्लिमों को ईसाई बनाने या मुस्लिम धर्मगुरुओं ने ईसाइयों को मुसलमान बनाने का कोई प्रयास नहीं किया। सभी का लक्ष्य हिंदू समाज रहा है।

उड़ीसा में कंधमाल से लगभग 350 किमी दूर स्थित केंद्रपाड़ा का ग्राम केरड़ागढ़ करीब दो वर्ष पूर्व समाचारों की सुर्खियों में था। इस गांव के दलित समाज के कुछ युवक वहींके जगन्नाथ मंदिर में सवर्णाें के समान सिंहद्वार से प्रवेश कर गए थे। इसकी प्रतिक्रिया में पुजारियों ने ठाकुर जी की पूजा अर्चना बंद कर दी। उच्च न्यायालय के दखल के बाद प्रशासन द्वारा दलितों के मंदिर प्रवेश की तिथि तय की गई। नियत तिथि पर पुजारियों के उकसाने पर आस-पास के गावों के लगभग पांच हजार लोग मंदिर घेर कर बैठ गए। समाज के उच्च तबके का यह रुख देखकर दलित बस्ती में सन्नाटा छा गया। पूजा के सामान, फूल-मालाएं, ढोल मंजीरे-सब रखे के रखे रह गये। वह दिन उन्हें सामाजिक विकलांगता से मुक्त कर हमेशा के लिए उनकी जिंदगी बदल देता, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यह पूछने पर कि दलितों का प्रवेश क्यों नहीं है, पुजारियों ने बताया कि उनके प्रवेश की परंपरा नहीं है। उल्टे ही मुझसे उन्होंने पूछा कि ये यहीं क्यों प्रवेश चाहते हैं, जब कहीं भी प्रवेश नहीं है। कहीं प्रवेश नहीं है? क्या मतलब? मैंने कहा-पुरी के जगन्नाथ मंदिर में तो प्रवेश है। उन्होंने दलील दी कि जाति छिपाकर तो प्रवेश हो जाता है। अगर दलित मंदिर में प्रवेश नहीं पाएगा तो तो क्यों हिंदू रहेगा? आजादी के 60 वर्ष बाद भी यह मानसिकता है तो हम कहां जाएंगे? इतिहास के भूले हुए पृष्ठों में डा. अंबेडकर का नासिक में कालाराम मंदिर प्रवेश आंदोलन याद आता है। तब भी प्रवेश नहीं मिला था। इसके पूर्व वह अपने को सनातनी हिंदू मानते थे। इस घटना के बाद येवला में उन्होंने घोषणा कि मैं हिंदू नहीं मरूंगा! उस घटना के 78 वर्ष बाद आज हम इतिहास के उन्हीं पायदानों पर खड़े रह गए हैं। जिन्हें हम दलित आदिवासी कहते हैं वह मूल भारतीय समाज है। जो अपने ही समाज का मंदिर प्रवेश रोकता है वह विश्व के अन्य धर्माें से कैसे मुकाबला करेगा? धर्म संसदों में जाति व्यवस्था तोड़ने की, धर्म के सशक्तीकरण की, अंतरजातीय विवाहों एवं सामाजिक समरसता की बात नहीं उठती। हमारे दलित व आदिवासी आदिदेव शिव के पुत्र हैं। मंदिरों-शिवालों पर पहला हक उनका है। कर्मकांडियों ने उन्हें ही बहिष्कृत कर दिया।

14वीं शती के पूर्व कश्मीर बौद्धों और ब्राह्मंाणों की भूमि था। रिनझिन तिब्बती मूल का शासक था। सैन्य शक्ति के बल पर कश्मीर का शासक बना। यह सोचकर कि जनता का धर्म ही शासक का धर्म होना चाहिए, उसने ब्राह्मंाण विद्वानों को बुला भेजा और कहा कि मैं हिंदू धर्म में दीक्षित होना चाहता हूं। कश्मीर के कर्मकांडी ब्राह्मंाण यह तय ही नहीं कर सके कि रिनझिन को किस वर्ण में रखा जाए? उन्होंने कहा कि तुम्हें हिंदू नहीं बनाया जा सकता। रिनझिन मजबूरन इस्लाम ग्रहण करता है। आगे चलकर वर्ष 1938 में सुल्तान सिकंदर ने घाटी के हिंदुओं को इस्लाम ग्रहण करने के लिए एक माह का समय दिया। एक माह बाद कश्मीर घाटी में जो कत्ले आम हुआ उसकी भारत के इतिहास में दूसरी कोई मिसाल नहीं मिलती। तब से लेकर आज तक हमारे हिंदू समाज ने कोई सबक नहीं सीखा। हिंदू धर्म में अन्य मतावलंबियों के प्रवेश की बात दूर, अपने ही लोगों के धर्म में पुन: प्रवेश की कोई व्यवस्था ही नहीं है। यह कर्मकांडियों की असफलता है। इनकी अकर्मण्यताओं ने हिंदू समाज को मतांतरण का लक्ष्य बना दिया है। हम जातियों की दीवार गिराने को राजी नहीं हैं, चाहे पूरा मकान ध्वस्त हो जाए। धार्मिक मठाधीशों ने कभी सोचा ही नहीं कि हिंदू धर्म में नया कोई क्यों दीक्षित नहीं होता? धर्म को शोषण का माध्यम बनाने वालों ने दक्षिण भारत में किसी समाज को क्षत्रिय या वैश्य घोषित ही नहीं किया। सबको शूद्र बनाए रखा, जिससे कि कर्मकांडियों के वर्चस्व को कोई चुनौती न दे सके। अब हमें लगता है कि विदेशी मजहबों के सम्मुख लक्ष्मणानंद सरस्वती का कार्य कितना मुश्किल था। वे धर्मयोद्धा ही नहीं, भारतीयता के सैनिक थे।


Tuesday, September 23, 2008

आतंकवाद से मुकाबले के सवाल पर पक्ष-विपक्ष के रवैये पर निराशा प्रकट कर रहे हैं राजीव सचान

दैनिक जागरण २३ सितम्बर २००८। जो केंद्रीय सत्ता दिल्ली बम विस्फोटों के बाद अपनी जबरदस्त आलोचना से घबराकर आतंकवाद के खिलाफ कठोर कानून बनाने के सवाल पर यकायक सिर के बल खड़ी हो गई थी और ऐसे किसी कानून की जरूरत जताने लगी थी वह अब फिर से पुराना राग अलापने लगी है। केंद्र सरकार के एक के बाद एक प्रतिनिधि नए सिरे से आतंकवाद के खिलाफ कठोर कानून की आवश्यकता खारिज करने लगे हैं। इस मामले में वे उसी पुराने तर्क की रट लगा रहे हैं कि राजग शासन में पोटा था, फिर भी आतंकी हमले हुए-संसद में, रघुनाथ मंदिर में, अक्षरधाम में..। वे शिवराज पाटिल की अक्षमता का भी यह कहकर बचाव कर रहे हैं कि क्या जब संसद या अक्षरधाम मंदिर में हमला हुआ तब तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने त्यागपत्र दिया था? ऐसे तर्र्को को सुनकर यह सहज सवाल उठता है कि क्या भारतीय संविधान निर्माता यह लिखकर गए थे कि मई 2004 के बाद जो भी दल या दलों का समूह केंद्रीय शासन की बागडोर संभालेगा वह अपना प्रत्येक कार्य पूर्ववर्ती सरकार के आलोक में ही करेगा? उदाहरणस्वरूप यदि उस सरकार ने आंतरिक सुरक्षा की गंभीर अनदेखी की हो तो मई 2004 को सत्तारूढ़ सरकार भी ऐसा करना सुनिश्चित करेगी? इसी तरह यदि उस सरकार ने दागी नेताओं को मंत्रिपरिषद में स्थान दिया हो तो नई सरकार भी दागी नेताओं को खोजकर मंत्री बनाने का कार्य करेगी? ईश्वर न करे, लेकिन यदि कल को फिर से कोई कंधार कांड घटित हो जाए तो क्या संप्रग सरकार भी आतंकियों को यह कहकर हवाई जहाज में बैठाकर छोड़ आएगी कि देखिए राजग सरकार ने भी ऐसा ही किया था? पता नहीं संप्रग के नीति-नियंता किस मानसिकता से ग्रस्त हैं कि वे हर अच्छी-बुरी बात पर राजग सरकार का उदाहरण देने लगते हैं?

आज देश की दिलचस्पी इसमें नहीं कि राजग सरकार ने आतंकवाद के खिलाफ क्या किया था और क्या नहीं, बल्कि इसमें है कि वह खुद क्या कर रही है? दुर्भाग्य से इस सवाल का कोई जवाब नहीं है और इसलिए नहीं है, क्योंकि संप्रग सरकार आतंकवाद से निपटने के लिए बयानबाजी और बैठकें करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं कर रही है। शायद यही कारण है कि आतंकवाद कहीं अधिक गंभीर रूप ले चुका है। पहले आतंकी वारदात करने के बाद उसकी जिम्मेदारी अपने सिर लेते थे। अब बम विस्फोट होते ही वे सूचित कर देते हैं कि कृपया नोट करें कि आपके शहर में ये जो चार-छह-दस बम धमाके हो रहे हैं वे हमने किए हैं, रोक सको तो रोक लो। पहले आतंकी घटनाओं के बाद यह सामने आता था कि मारा अथवा पकड़ा गया आतंकी गुलाम कश्मीर या कराची का रहने वाला है। अब यह सामने आता है कि मारा या पकड़ा गया आतंकी मुंबई, आजमगढ़, मेरठ अथवा इंदौर का है। पहले आतंकी हमलों की साजिश सीमापार के आतंकवादी संगठन रचते थे। अब यह काम उपरोक्त शहरों के देशी आतंकी कर रहे हैं। पहले आतंकी हमलों के बाद लश्कर, जैश जैसे संगठनों के नाम चर्चा में आते थे। अब सिमी और इंडियन मुजाहिदीन की चर्चा होती है। तब और अब में एक और खतरनाक अंतर यह है कि पहले किसी आतंकवादी या आतंकी संगठन के खिलाफ कोई सहानुभूति जताने की हिम्मत नहीं करता था, लेकिन अब आतंकियों के भी हमदर्द मौजूद हैं और आतंकवादी संगठनों के भी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने एक मंत्री रामविलास पासवान से अच्छी तरह परिचित होंगे, जिन्हें इस बात से बहुत तकलीफ है कि सिमी पर पाबंदी लगा दी गई। संभवत: देश भी उन नेताओं से अच्छी तरह परिचित होगा जिनके लिए आजमगढ़ का एक गांव तब एक तीर्थस्थल सरीखा बन गया था जब वहां से अहमदाबाद बम धमाकों के आरोपी अबू बशर को गिरफ्तार किया गया था। देश को उन नेताओं पर भी गौर करना होगा जिन्होंने दिल्ली पुलिस के बहादुर इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा की शहादत पर अफसोस का एक शब्द भी प्रकट करना जरूरी नहीं समझा। इनमें से कुछ नेता वही हैं जिन्हें विगत में फलस्तीन और ईरान के हालात पर चिंतित होते देखा गया है। बावजूद इसके यदि संप्रग सरकार यह रंट्टा लगाती है कि वह आतंकवाद से निपट रही है, निपट लेगी और आतंकवाद के खिलाफ नरमी बरतने के आरोप विपक्ष के दुष्प्रचार का हिस्सा हैं तो इसका मतलब है कि वह आतंकवाद से नहीं लड़ना चाहती।

केंद्र सरकार ने आतंकवाद के मामले में जैसी रीति-नीति अपना रखी है उसे देखते हुए विपक्ष के हमलावर होने में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं, लेकिन जब देश का ध्यान आतंकवाद पर केंद्रित होना चाहिए तब मुख्य विपक्षी दल भाजपा का एक सहयोगी संगठन बजरंग दल अपना सारा ध्यान गिरजाघरों पर हमला करने में लगाए हुए है। यह तब है जब भाजपा यह मानकर चल रही है कि केंद्र की सत्ता उसके हाथ में आने वाली है। बजरंग दल को ईसाई मिशनरियों के तौर-तरीकों पर आपत्तिहो सकती है और होनी भी चाहिए, लेकिन क्या उसे उग्र रूप धारण कर उनके खिलाफ आक्रामक होने के लिए यही समय मिला था? सवाल यह भी है कि ईसाई मिशनरियों के छल-छद्म के खिलाफ हिंसा का रास्ता अपनाकर बजरंग दल बदनामी के अलावा और क्या हासिल कर लेगा? यह संभव है कि बजरंग दल के नेतृत्व को यह समझ में न आ रहा हो कि उसके कार्यकर्ता बेवकूफी कर रहे हैं, लेकिन क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा को भी यह नहीं समझ आ रहा है? हो सकता है कि उड़ीसा की नवीन पटनायक सरकार ईसाई मिशनरियों के छल-कपट की अनदेखी कर रही हो, लेकिन क्या कर्नाटक सरकार के पास भी ऐसी वैधानिक शक्ति नहीं कि वह मतांतरण में लिप्त ईसाई मतप्रचारकों के खिलाफ उचित कार्रवाई न कर सके? सवाल यह भी है कि जब भाजपा केंद्रीय सत्ता का नेतृत्व कर रही थी तब उसने ईसाई मिशनरियों पर लगाम लगाने का काम क्यों नहीं किया? कुल मिलाकर सत्तापक्ष और विपक्ष के आचरण को देखकर कोई भी इस नतीजे पर पहुंच सकता है कि जो देश आतंकवाद से लड़ना नहींजानता वह दक्षिण एशिया में स्थित है और भारत नाम से जाना जाता है तथा खुद को महाशक्ति बनने के सपने देखा करता है।


Monday, September 22, 2008

बाजार से लौट रहे युवक पर हमला, तनाव

बिलरियागंज (आजमगढ़)। जिले में साम्प्रदायिक तनाव की आंच अभी भी कहीं न कहीं भड़क जा रही है। इसकी एक बानगी रविवार को दिन में रौनापार थाना क्षेत्र के चांद पट्टी बाजार में देखने को मिली। यहां उपद्रवियों ने अपने मां के साथ बाजार से खरीदारी कर घर लौट रहे युवक पर हमला कर दिया। घायल युवक का एक निजी अस्पताल में उपचार चल रहा है।

बताते है कि रौनापार थाना क्षेत्र के पकड़ियहवा ग्राम निवासी अशोक यादव (30) पुत्र मोती यादव रविवार को दिन में अपनी मां के साथ चांद पटं्टी बाजार आया था। मां-बेटे सोमवार को पड़ने वाले जीवतपुत्रिका पर्व के लिए सामानों की खरीदारी कर वापस लौट रहे थे कि बाजार के बाहर एक वर्ग के लगभग आधा दर्जन युवक अशोक यादव पर लाठी-डण्डों से लैस होकर टूट पड़े। बेटे को मार खाते देख महिला ने शोर मचाया। शोर सुनकर अगल-बगल के लोग जब तक मौके पर जुटते तब तक हमलावर फरार हो गये थे। घायल युवक को एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया है। इस बात की जानकारी जब घायल युवक के गांव वालों को हुई तो वे दर्जनों की संख्या में लामबंद होकर चांद पटं्टी बाजार आ गये और हमलावरों की तलाश करने लगे। इसी बीच किसी ने इसकी जानकारी रौनापार थाने को दी। सूचना पाकर वहां तैनात उपनिरीक्षक मय फोर्स मौके पर पहुंच गये और घटना क्रम की जानकारी लेने के बाद हमलावर युवकों की तलाश में जुट गये। इस घटना को लेकर क्षेत्र में तनाव व्याप्त है। बताते चलें कि बुधवार को दिन में उन्हीं युवकों ने स्थानीय कस्बा निवासी अनिरुद्ध पुत्र हरदेव व प्रताप पुत्र वंशराज नामक दलित युवकों को भी बुरी तरह पीटकर घायल कर दिया था। इसकी भी शिकायत मुकामी थाने में की गयी थी लेकिन पुलिस ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। नतीजा यह कि क्षेत्र में दोनों घटनाओं को लेकर तनाव व्याप्त है। घायल अशोक यादव पक्ष की ओर से थाने में हमलावरों के विरुद्ध तहरीर दी गयी है लेकिन समाचार लिखे जाने तक प्राथमिकी दर्ज नहीं हो सकी थी।

हाटा में उपद्रव: 60 पर मुकदमा, बंद रही दुकानें

दैनिक जागरण , हाटा (कुशीनगर ), 20 सितम्बर, २००८ । सांसद योगी आदित्यनाथ की जनसभा की समाप्ति के पहले उपनगर के मेन बाजार में हुये उपद्रव, पथराव व तोड़ फोड़ की घटनाओं का असर दूसरे दिन शनिवार को भी दिखा। उप नगर में जहां शांतिपूर्ण तनाव की स्थिति दिन भर रही वहीं अफवाहें फैलने से कई बार अफरा तफरी भी दिखी। इसका सीधा असर बाजार के चहल पहल पर पड़ा और सड़कें सूनी नजर आयी। यहां तक कि दवा की अधिकांश दुकानें तक बंद दिखी।

पुलिस ने तोड़फोड़ के मामले में कुल 60 लोगों पर मुकदमा दर्ज किया है, जिसमें से 9 नामजद हैं।

बता दें कि उपनगर में शुक्रवार की सायं योगी आदित्यनाथ की सभा के समापन से पूर्व लगभग 6 बजे कुछ उपद्रवी सड़क पर लाठी, डंडा व राड लेकर उतर आये। इसके कुछ दुकानों में तोड़ फोड़ व पथराव की घटना हुई। पुलिस कप्तान ज्ञान सिंह व मुख्य विकास अधिकारी केदारनाथ तत्काल मयफोर्स मौके पर पहुंच गये तथा उपद्रवियों को पीट कर खदेड़ दिया एवं स्थिति नियंत्रण में कर लिया। इसके बाद पुलिस बल तब और बढ़ गया जब सभा सम्पन्न होने के बाद योगी गोरखपुर रवाना हो गये। कुछ ही पलों में माहौल सामान्य हो गया। उधर तेज बारिश ने भी अमन चैन बनाने में काफी सहयोग किया। रात भर पुलिस चौकसी बनी रही।

उधर शनिवार को भी पुलिस व प्रशासन काफी चौकन्ना रहा तथा उपनगर के हर चौराहे, प्रत्येक रास्ते तथा संवेदनशील चिह्नित स्थानों पर पुलिस बल का विशेष पहरा था। प्रभारी जिलाधिकारी केदारनाथ, पुलिस कप्तान ज्ञान सिंह, अपर जिलाधिकारी जे.एन. दीक्षित के दिशा निर्देशन में उप जिलाधिकारी हाटा अरुण कुमार, कसया बी.एस. चौधरी, पुलिस क्षेत्राधिकारी ज्ञानेन्द्र कुमार सिंह, स्वामीनाथ पूरे दिन भ्रमण कर शांति व्यवस्था का जायजा लिया।

उधर यूं तो शनिवार साप्ताहिक बंदी का दिन है। लेकिन आधी दुकानें ही बंद रहती रही है। शायद तनाव व आशंका का ही असर था कि सभी दुकानें बंद रही। हाल यह था कि दवा की इक्का दुक्का दुकानों को छोड़ सभी दुकानें बंद रही। स्कूल या तो बंद रहे या फिर बच्चे पढ़ने ही नहीं गये। दिन भर अफवाहे फैलती रही और कई बार अफरा तफरी में भी लोग दिखे। उधर सायं चार बजे सड़क पर ज्यादा भीड़ लगने पर पुलिस ने हल्का बल प्रयोग कर सबको यह कहते हुये खदेड़ दिया कि निषेधाज्ञा लागू है। फिलहाल समाचार लिखे जाने तक स्थिति तनावपूर्ण किन्तु नियंत्रण में थी। शुक्रवार को देर रात पुलिस अधीक्षक ज्ञान सिंह ने खुद 9 चिह्नित उपद्रवियों तथा 51 अज्ञात अराजक तत्वों के विरुद्ध मुकदमा अ.सं. 775/08 धारा 147, 148, 332, 353, 188 व 504 आई.पी.सी. के तहत प्राथमिकी दर्ज की है।

सामाजिक अशांति की अनदेखी

ईसाइयों और हिंदू संगठनों के बीच टकराव के मूल कारणों पर प्रकाश डाल रहे है संजय गुप्त

दैनिक जागरण २० सितम्बर २००८। लगभग डेढ़ माह पूर्व उड़ीसा के कंधमाल जिले में विश्व हिंदू परिषद से जुड़े संत लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के बाद वहां हिंदुओं और ईसाइयों के बीच भड़की हिंसा शांत होती, इसके पहले ही कर्नाटक के कुछ इलाकों में इन दोनों समुदायों के बीच तनाव व्याप्त हो गया। इस तनाव के बीच मध्यप्रदेश के जबलपुर में एक चर्च पर हमले की सूचना आई। हिंदुओं और ईसाइयों के बीच तनावपूर्ण रिश्ते शुभ नहीं। यह चिंताजनक है कि इन समुदायों के बीच पनपे वैमनस्य के मूल कारणों की अनदेखी की जा रही है। कंधमाल में लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के इतने दिनों बाद भी यह स्पष्ट नहीं कि उन्हे किसने मारा-नक्सलियों ने या ईसाई चरमपंथियों ने? न केवल लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के लिए जिम्मेदार लोगों की पहचान आवश्यक है, बल्कि उन तत्वों पर लगाम भी जरूरी है जो राज्य में अराजकता पैदा कर रहे है। केंद्र का कहना है कि भाजपा के समर्थन के कारण नवीन पटनायक सरकार उग्र हिंदू संगठनों को नियंत्रित नहीं कर रही है। केंद्र के नेताओं ने कुछ ऐसा ही आरोप कर्नाटक सरकार पर भी लगाया है, जहां कुछ गिरजाघरों पर हमले किए गए है। केंद्र ने कर्नाटक और उड़ीसा को चेतावनी देने के बाद मध्य प्रदेश और केरल को भी चेताया है। भले ही इस पर विवाद हो कि केंद्र ने उड़ीसा और कर्नाटक को अनुच्छेद 355 के तहत चेतावनी दी या नहीं, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि उसका रवैया सख्त है। क्या यह विचित्र नहीं कि केंद्र ने ऐसी सख्ती न तो महाराष्ट्र सरकार के संदर्भ में दिखाई और न ही असम सरकार को लेकर, जबकि इन दोनों राज्यों में हिंदी भाषियों को रह-रह कर आतंकित किया गया। यह शर्मनाक है कि असम में हिंदी भाषियों की हत्या और उसके कारण उनके पलायन पर भी केंद्र को अपनी जिम्मेदारी का अहसास नहीं हुआ।

उड़ीसा एवं कर्नाटक में बजरंग दल जिस तरह आक्रामक तेवरों के साथ कानून अपने हाथ में लेकर ईसाइयों के धार्मिक स्थलों को निशाना बना रहा है उससे उसकी छवि लगातार गिर रही है। हिंदू हितों की रक्षा के लिए सक्रिय यह संगठन बेलगाम हो रहा है। एक ऐसे समय जब देश इस्लामी आतंकवाद से बुरी तरह त्रस्त है तब हिंदू संगठनों की उग्रता शांति एवं सद्भाव के लिए एक बड़ा खतरा है। यदि बजरंग दल इसी तरह की गतिविधियां जारी रखता है तो उस पर पाबंदी लग सकती है। ऐसा होने पर उसकी छवि एक आतंकी संगठन के रूप में उभरना तय है और यदि ऐसा कुछ होता है तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की किरकिरी होना स्वाभाविक है। बजरंग दल यह तर्क दे सकता है कि देश के नीति-नियंता हिंदू संस्कृति का अपमान करने वालों को खुली छूट प्रदान कर रहे है इसलिए वह अपने तरीके से अन्याय का प्रतिकार कर रहा है। इसमें दो राय नहीं कि मतांतरण में लिप्त मिशनरियों पर अंकुश नहीं लगाया जा रहा, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि बजरंग दल मनमानी पर उतर आए और हिंदू समाज एवं राष्ट्र की छवि की परवाह न करे। यह संगठन जिस राह पर चल रहा है उससे किसी का भी हित नहीं होने वाला। कम से कम भाजपा को तो यह अनुभूति होनी चाहिए कि वह बजरंग दल को नियंत्रित न करके आग से खेलने का काम कर रही है। धीरे-धीरे यह धारणा गहराती जा रही है कि भाजपा शासित राज्यों में यह संगठन ईसाइयों और मुसलमानों के प्रति असहिष्णु हो उठता है और उसे सत्ता का संरक्षण मिलता है। यह स्थिति भाजपा के लिए गहन चिंता का कारण बननी चाहिए।

पिछले लगभग दो दशकों से देश में जैसे सामाजिक बदलाव हो रहे है उससे हिंदू संस्कृति पर आंच आ रही है। बात चाहे पूर्वोत्तर में बांग्लादेशी घुसपैठियों की हो या देश के विभिन्न भागों में ईसाई मिशनरियों के मतांतरण अभियान की-इस सबका दुष्प्रभाव अब साफ दिखने लगा है। समस्या यह है कि हमारे ज्यादातर राजनीतिक दल न तो बांग्लादेशी घुसपैठियों की बढ़ती आबादी को लेकर चिंतित है और न ही निर्धन एवं अशिक्षित व्यक्तियों को मतांतरित किए जाने पर। कुछ राजनेता तो बांग्लादेशी घुसपैठियों के प्रति भी नरम है और मतांतरण में लिप्त मिशनरियों के प्रति भी। वे यह मानने को तैयार नही कि इस सबसे हिंदू संस्कृति प्रभावित हो रही है। बांग्लादेशी नागरिकों की घुसपैठ और ईसाई मिशनरियों की अवांछित सक्रियता पर भाजपा हमेशा यह कहती रही है कि एक सोची समझी साजिश के तहत हिंदू अस्मिता पर आघात किया जा रहा है, लेकिन तथाकथित सेकुलर दल उसकी सही बात सुनने को तैयार नहीं।

इस पर कोई संशय नहीं हो सकता कि संविधान में ऐसी कोई छूट नहीं दी गई है कि ईसाई मत प्रचारक मनमाने तरीके से भारत के लोगों का मतांतरण कर सकें या फिर पड़ोसी देश के लोग बेरोक-टोक आकर यहां बसते रहे। चूंकि ईसाई मिशनरियां छल-छद्म और प्रलोभन के जरिये निर्धन तबकों को मतांतरित कर रही हैं इसलिए विश्व हिंदू परिषद मतांतरित लोगों की घर वापसी यानी मूल धर्म में वापसी का अभियान चलाने के लिए बाध्य है। यदि ईसाई मिशनरियों को मतांतरण की छूट दी जाती रहेगी तो घर वापसी के अभियान चलते रहेगे और चलते रहने भी चाहिए। उड़ीसा में हिंदुओं और ईसाइयों के बीच तनाव का मूल कारण मतांतरण ही है। राज्य में कुई भाषी कंध और पण जातियों के बीच टकराव की स्थिति है। वैसे तो कंध जनजाति और पण दलित, दोनों आरक्षण के दायरे में हैं,पर कंध जनजाति के लोग मतांतरित होने के बाद भी आरक्षण का लाभ उठाते रहते हैं, जबकि पण दलित मतांतरित होने की स्थिति में आरक्षण के दायरे से बाहर हो जाते हैं। बड़े पैमाने पर ईसाई मत अपनाने वाले पण खुद को कुई भाषी बताकर अपने लिए जनजाति का दर्जा मांग रहे हैं। इस मांग को ईसाई मिशनरियां और वोट के लोभ में कुछ कथित सेकुलर दल समर्थन दे रहे हैं। कंध जनजाति के लोगों को लगता है कि यदि पण लोगों की मांग मान ली गई तो उनके अधिकार छिन जाएंगे। उन्हें यह भी लगता है कि उन्हें अपने मूल धर्म में बने रहने का खामियाजा उठाना पड़ सकता है। उनका भय जायज है, पर सेकुलर दल यह समझने के लिए तैयार नहीं। कर्नाटक में भी तनाव की जड़ में ईसाई मिशनरियों की अति सक्रियता है। देश को इस पर गौर करना होगा कि ईसाई मिशनरियां क्या कर रही हैं? कर्नाटक में मिशनरियों द्वारा वितरित की जा रही सत्यदर्शिनी नामक पुस्तिका में यहां तक कहा गया है कि भगवान राम तो मूर्ख थे। ऐसी ही बातें अन्य देवी देवताओं के बारे में कही गई हैं। क्या दुनिया का कोई भी समाज अपने देवताओं के बारे में ऐसी भाषा सहन करेगा?

मतांतरण व्यक्ति विशेष का निजी मौलिक अधिकार है। पूजा पद्धति पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं हो सकता। विडंबना यह है कि हमारे देश में सामूहिक मतांतरण होता है। यह सहज संभव नहीं कि कोई एक बस्ती रातों-रात अपनी आस्था बदलने के लिए तैयार हो जाए। इस संदर्भ में यह नहीं भूलना चाहिए कि जो लोग मतांतरित हो रहे है वे गरीब और अशिक्षित है। उनके अभावों को दूर करने के लिए उन्हे तरह-तरह के प्रलोभन दिए जाते है और फिर आस्था बदलने की शर्त रखी जाती है। यह एक यथार्थ है कि हर राष्ट्र की एक संस्कृति होती है और उसकी आत्मा उस संस्कृति में बसती है। भारत की आत्मा उसके हिंदुत्व प्रधान चरित्र में है। बांग्लादेशी घुसपैठियों और मतांतरित ईसाइयों के कारण जैसा समाज बन रहा है वह भारत की परिकल्पना के प्रतिकूल है।


Hindu couple embraces Islam

KHANEWAL, Sept 20 (APP): A Hindu couple, belonging to Umar Kot, Sindh, embraced Islam at the hands of a local religious scholar here Saturday. Mahu Jee son of Surwa Jogi and his would-be wife Seeta daughter of Mithu Jogi embraced Islam at the hands of Maulana Azizur Rahman.

They were renamed Muhammad Ramzan and Aisha Bibi, after which their nikah was solemnised in the chamber of Ghulam Jilani and Anjum Joya advocates at the district courts.

The couple told newsmen that they had been desiring to embrace Islam since long but their respective families were resisting this move.

“Islam is the religion of truth and brotherhood, in which there is no class difference, while in Hinduism there is a caste and class system, which looks down upon the lower castes, the untouchables and the poor,” explained the convert Muhammad Ramazan.

Friday, September 19, 2008

मतांतरण का दुष्चक्र

ईसाई मिशनरियों की सक्रियता पर एस शंकर का चिंतन

दैनिक जागरण १९ सितम्बर २००८। स्वतंत्रता से पहले जब महात्मा गांधी ने अस्पृश्यता के विरोध में अपना आंदोलन शुरू किया तब ईसाई मिशनरी बड़े अप्रसन्न हुए। उनका कहना था कि गांधीजी हिंदू धर्म के मूल तत्वों से छेड़छाड़ कर रहे है। ईश्वर जाने, अस्पृश्यता हिंदू धर्म का मूल तत्व कब से हो गया? फिर जब त्रावणकोर के मुख्यमंत्री सीपी रामस्वामी अय्यर ने हरिजनों के लिए राज्य के सब मंदिरों के दरवाजे खोल दिए तब मिशनरियों की चिंता का ठिकाना न रहा। इस कदम का सबसे कड़ा विरोध ईसाईयों ने किया, शुद्धतावादी ब्राह्मणों ने नहीं! यहां तक कि कैंटरबरी के आर्क बिशप ने भी इस पर आक्रोश जताया। उनके शब्दों में, ''इससे हरिजनों को ईसाई बनाने के प्रयासों को गहरा धक्का लगेगा।'' गांधीजी ने बार-बार कहा था कि मिशनरियों के काम में मानवतावादी भाव नहीं है। वे अपनी संख्या बढ़ाने की जुगत में रहते है। दलितों और आदिवासियों के प्रति मिशनरी दृष्टि आज भी वही है। वे पिछड़े और उत्पीड़ितों के हमदर्द नहीं, शिकारी है। यही उन क्षेत्रों में अशांति का कारण है, जहां मिशनरी सक्रिय हैं। गुजरात का भूकंप हो, एशिया में सुनामी हो या इराक में तबाही, जब भी विपदाएं आती है तो मिशनरी संगठनों के मुंह से लार टपकने लगती है कि अब उन्हे 'आत्माओं की फसल' काटने अर्थात बेबस लोगों का मतांतरण कराने का अवसर मिलेगा। वे इसे छिपाते भी नहीं। तीन वर्ष पहले सुनामी प्रभावित देशों में ईसाई मिशनरी संगठनों ने सहायता के बदले मतांतरण के खुले सौदे की पेशकश की थी। मदुरई से भी ऐसा समाचार आया था। जकार्ता में 'व‌र्ल्ड हेल्प' नामक अमेरिकी मिशनरी संगठन ने पचास अनाथ बच्चों की सहायता से इसलिए हाथ खींच लिया, क्योंकि इंडोनेशिया सरकार ने उन्हे ईसाइयत में मतांतरित न करने का स्पष्ट निर्देश दिया था। इसके बावजूद हमारे मीडिया में राहत के लिए मिशनरियों की वाहवाही की जाती है, जबकि वनवासी कल्याण आश्रम जैसे संगठनों की नि:स्वार्थ सेवाओं का उल्लेख भी नहीं होता। गांधीजी मानते थे कि ईसाई मिशनरियों द्वारा मतांतरण कराना दुनिया में अनावश्यक अशांति फैलाना है। उड़ीसा की घटनाएं इसका नवीनतम प्रमाण है। उत्तर-पूर्वी भारत में अंग्रेजी राज के समय से चल रहे आक्रामक मतांतरण कार्यक्रम के विषैले, अलगाववादी परिणाम प्रत्यक्ष देखे जा रहे है। ईसाई मिशनरियों की 'लिबरेशन थियोलाजी' पूरे विश्व में कुख्यात है। उसकी साम्राज्यवादी अंतर्वस्तु कोई भी व्यक्ति देख सकता है। फिर 1977-97 के बीच वीएस नायपाल ने ईरान, मलेशिया, इंडोनेशिया, पाकिस्तान के लोगों की मानसिकता का प्रत्यक्ष अध्ययन करके यही पाया कि सामी मजहबों में मतांतरित लोगों में अपनी ही संस्कृति, इतिहास, पूर्वजों से दूर होकर एक तरह के मनोरोग से ग्रस्त होने की प्रवृत्ति पाई जाती है। ईसाइयत या इस्लाम में मतांतरण किसी की निजी आस्था बदलने भर की बात नहीं है। हमें स्वामी विवेकानंद की चेतावनी को सदैव याद रखना चाहिए कि जब हिंदू धर्म से कोई व्यक्ति मतांतरित होकर ईसाई या मुसलमान बनता है तो केवल हमारा एक व्यक्ति कम नहीं होता, बल्कि एक दुश्मन भी बढ़ता है। असम, कश्मीर और उड़ीसा की घटनाएं अलग-अलग ऐतिहासिक काल में ठीक इसी की पुष्टि करती है। हम इस कड़वी सच्चाई से जितना भी कतराना चाहे, किंतु यदि इस पर विचार नहीं करते तो हमारा भविष्य चिंताजनक है। झाबुआ, डांग, क्योंझर और अब कंधमाल-पिछले दस वर्षो में देश के विभिन्न भागों में हो रही हिंसा मतांतरण की मिशनरी राजनीति का ही परिणाम है, किंतु इन घटनाओं पर विचार-विमर्श में इस बिंदु की सबसे अधिक उपेक्षा होती है। इसका सबसे बड़ा दोष वामपंथी बौद्धिकों पर है, जो मीडिया, राजनीतिक और अकादमिक जगत पर सर्वाधिक प्रभाव रखते है।

अब यह छिपी बात नहीं है कि हमारे वामपंथी बुद्धिजीवी वैसी किसी समस्या की चर्चा नहीं करते जिससे उन्हे लगता है कि भाजपा को फायदा होगा। मिशनरी और विदेशी शक्तियां उनकी इस प्रवृत्ति को अच्छी तरह पहचान कर अपने हित में जमकर इस्तेमाल करती है। इसीलिए चाहे परमाणु नीति हो, पर्यावरण मुद्दे हों, आर्थिक सुधार हों, कश्मीर या गुजरात की हिंसा या ईसाई मतांतरणकारियों का बचाव-हर कहीं हमारे वामपंथी पश्चिमी इरादों के सहर्ष प्रचारक बने मिलते है। मिशनरी एजेंसियों की ढिठाई के पीछे भी यही ताकत है। इसीलिए वे चीन या अरब देशों में इतने आक्रामक नहीं हो पाते। पश्चिमी सरकारे ईसाई मिशनरी संगठनों को दुनिया भर में मतांतरण कराने के योजनाबद्ध प्रयासों को आर्थिक, राजनीतिक, कूटनीतिक सहायता देती हैं। अमेरिकी सरकार भी ईसाइयत विस्तार को विदेश नीति का अपिरहार्य अंग मानती है।


आतंक से न लड़ने का उदाहरण

आतंकवाद के खिलाफ केंद्र सरकार की प्रतिबद्धता को खोखला बता रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित

दैनिक जागरण १९ सितम्बर २००८। दुर्भाग्य अकेले नहीं आता,अपना लाव-लश्कर भी साथ लाता है। केंद्र महंगाई, जम्मू-कश्मीर और आतंवाद सहित सभी मोर्चो पर पहले से ही हलकान है कि प्रशासनिक सुधार आयोग ने आतंकवाद पर वर्तमान कानून नाकाफी बताकर उसे कठघरे में खड़ा कर दिया। आयोग ने आतंकवाद पर सख्त कानून और संघीय जांच एजेंसी की सिफारिश की है, आतंकी तत्वों की जमानत को जटिल बनाने और पुलिस रिमांड की अवधि बढ़ाने का आग्रह भी किया है। आतंकवाद को पाठ्यक्रम में शामिल करने का सुझाव अनूठा है। आयोग ने अपनी रिपोर्ट बीते जून में ही प्रधामनंत्री और गृहमंत्री को सौंपी थी। सरकार इसे दबाए बैठी थी। सोनिया, मनमोहन और पाटिल आतंकवाद पर वर्तमान कानूनों को पर्याप्त बता रहे थे कि दिल्ली आतंकी बम विस्फोट से फुफकारता सांप फिर फन उठाकर खड़ा हो गया। आतंकवाद धारावाहिक है। समूचे देश में दहशत है। केंद्र की मिमियाहट भी धारावाहिक है: देशवासी धैर्य से काम लें, आतंकवाद कायराना हमला है, दोषी पकड़े जाएंगे वगैरह..वगैरह। प्रतिपक्षी भाजपा का विरोध भी धारावाहिक है: पोटा जरूरी था, संप्रग आतंकवाद पर नरम है। हम सत्ता में आएंगे तो ठीक से लड़ेंगे।'' बावजूद इसके बुनियादी सवाल अधर में हैं।

आतंकी अपराधियों की खोजबीन या गिरफ्तारी ही अहम् सवाल नहीं है। अहम् सवाल है आतंकी संगठनों का असली मकसद। सिमी, इंडियन मुजाहिदीन या हुजी वगैरह में सिर्फ नाम का फर्क हैं। सबका मकसद भारत को इस्लामी शरीय वाला राष्ट्र बनाना ही है। सिमी ने अपने स्थापना सम्मेलन में ही अपने इस मकसद का ऐलान कर दिया था। आतंकियों की हिंसा सामान्य आपराधिक कार्रवाई नहीं है। ऐसी हिंसा भारत के पंथनिरपेक्ष संविधान और राष्ट्र-राज्य से सीधा युद्ध है। आतंकी भारत में इस्लामी संविधान और मजहबी राष्ट्र चाहते हैं। इक्का-दुक्का राष्ट्रवादी दल और संगठन ही मजहबी आक्रामकता के विरोधी हैं। कांग्रेस, सपा, बसपा, राजद और वाम दलों समेत ढेर सारे रामविलास पासवान इस आक्रामकता और आतंकी हिंसा के प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष समर्थक हैं। मुसलमान दमदार वोट बैंक हैं, लेकिन एक अरब हिंदू कहां जाएं? क्या करें? उन्हें तय करना है कि क्या वे भी भारत में इस्लामी शरीय वाला मुस्लिम राष्ट्र चाहते हैं? वोट बैंकवादी दल और नेता आतंकवाद से नहीं लड़ सकते। प्रशासनिक सुधार आयोग के नेता मोइली वरिष्ठ कांग्रेसी हैं, लेकिन उन्हें चुनावी वर्ष में ही कड़े कानून की जरूरत का इलहाम हुआ। सारी दुनिया में आतंक विरोधी कड़े कानून है। पोटा कांग्रेस ने ही हटाया था। आतंकी हिंसा ने इसी सरकार में 4538 नागरिकों और 1771 सुरक्षा बलों का वध किया है। राष्ट्र राज्य तो भी मूकदर्शक है और हमलावरों का समर्थक है। सुप्रीम कोर्ट ने विदेशी घुसपैठ को विदेशी आक्रमण बताया था। केंद्र ने विदेशी इनकमिंग फ्री ही रखी है। क्या संविधान फेल हो गया है? संविधान मसौदे के रचनाकार डा.अंबेडकर को ऐसी ही आशंका थी। उन्होंने कहा था, ''संविधान भी हिंदुओं और मुसलमानों का गैर दोस्ताना संघ बनाएगा। संविधान हिंदुओं और मुसलमानों के बीच समझौता होगा। संविधान की सफलता के लिए भी एक तीसरी ताकत की जरूरत होगी।'' (पाकिस्तान आर पार्टीशन आफ इंडिया, पृष्ठ 340)

अंबेडकर ने राष्ट्रीय एकता के लिए पाकिस्तान का समर्थन किया और लिखा, ''पाकिस्तान बनने से भी हिंदुस्तान सांप्रदायिक समस्या से मुक्त नहीं होगा। पाकिस्तान सजातीय देश बन सकता है, लेकिन हिंदुस्तान एक मिश्रित देश है। मुसलमान समूचे देश में छितरे हुए हैं। हिंदुस्तान को सजातीय देश बनाने का एक मात्र तरीका है जनसंख्या की अदला-बदली। जब तक ऐसा नहीं किया जाता, अल्पसंख्यकों की समस्या बनी रहेगी।'' (वही पृष्ठ 117) डा.अंबेडकर की बातें सच निकलीं, लेकिन उनके नाम पर वोट बैंक बनाने वाले बसपा जैसे दल भी उनके विचार के विरोधी और अल्पसंख्यकवादी हैं तथा उनका इतिहासबोध शून्य हैं। भारत ने समूचे मुस्लिम समाज को प्यार दिया, संविधान में एक समान अधिकार के अलावा अतिरिक्त विशेषाधिकार भी दिए। राष्ट्रजीवन के सभी क्षेत्रों में उन्हें सम्मान मिले। हमारे राजनीतिक दल उनके सामने मिमियाते रहते हैं बावजूद इसके इमाम बुखारी आजमगढ़ जाकर आतंकी अबू बशर को निर्दोष बताते हैं। उलेमा और मौलवी अलगाववादी सांप्रदायिक बयानबाजी करते हैं। देवबंद के इस्लामी सम्मेलन में आतंकवाद के आरोपियों को 'जेल में बंद निर्दोष' बताया गया। आतंकी घटनाओं में देशी मुस्लिम नवयुवक धड़ाधड़ शामिल हो रहे हैं। प्रत्येक आतंकी घटना में निर्दोषों का खून बहता है। सरकार आतंकियों पर कड़ी कार्रवाई नहीं करती। संदिग्ध मुस्लिम बस्तियों में पुलिस प्रवेश नहीं करती। मुस्लिम भावनाओं के डर से ही गोहत्या पर भी अखिल भारतीय कानून नहीं है।

राष्ट्र-राज्य और संविधान को भी चुनौती देने जैसी सुविधा विश्व के किसी इस्लामी राष्ट्र में भी नहीं है। इमाम, उलेमा और मौलवी ही बताएं कि आखिरकार रास्ता क्या है? वे सिमी, इंडियन मुजाहिदीन और समूचे आतंकवाद के विरूद्ध खुलकर मैदान में क्यों नहीं आते? डा.अंबेडकर ने राष्ट्रगठन के पक्ष में कई पैने सवाल उठाए थे, ''क्या हिंदू-मुस्लिम एकता जरूरी है? यदि हां तो पृथक कौम/राष्ट्र की विचारधारा के बावजूद क्या यह एकता संभव है? यदि हां तो क्या इसे तुष्टीकरण या किसी समझौते से प्राप्त करना चाहिए? यदि तुष्टीकरण से तो कौन सी नई सुविधाएं मुसलमानों को दी जा सकती है? अगर समझौते से तो समझौते की शर्ते कया हों?''

आज अंधाधुंध तुष्टीकरण जारी है, लेकिन नतीजा शून्य है। इस दफा मुस्लिम सांप्रदायिकता के आधार पर केंद्रीय बजट भी बना और धन आवंटन भी हुआ, लेकिन नतीजा नहीं निकला। संविधान विरोधी मजहबी आरक्षण की भी तैयारी है। आतंकी अफजल पर भी सरकारी मेहरबानी है। कट्टरपंथी संविधान विरोधी आचरण के लिए स्वतंत्र हैं। प्रधानमंत्री ने देश के संसाधनों पर उनका पहला हक माना। तुष्टीकरण, आत्मसमर्पण और जी हजूरी की इंतहा है बावजूद इसके इसी मुल्क के निवासी आतंकी निर्दोष भारतवासियों को मार रहे हैं। उलेमा चुप हैं।

धीरे-धीरे एक अरब हिंदुओं का असुरक्षा बोध गहरा रहा है। संविधान गया, संस्कृति और अमूल्य जिंदगी भी जा रही है। सभी दल अल्पसंख्यकवादी हैं, अकेली भाजपा क्या कर लेगी? आतंकवाद से रक्षा और आंतरिक सुरक्षा की कोई और कारगर स्वतंत्र, संवैधानिक संस्था बनाने पर विचार होना चाहिए। फेडरेल एजेंसी भी आखिरकार नपुंसक राजनीति के इशारे पर ही होगी। सुप्रीम कोर्ट के नियंत्रण, पर्यवेक्षण और अधीक्षण में आंतरिक सुरक्षा और तद्विषयक कानूनों की समीक्षा होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट संविधान का संरक्षक हैं। आतंकवाद सीधे संविधान और राष्ट्र राज्य पर हमला है। सर्वोच्च न्यायपीठ स्वयं पहल करें, क्योंकि सरकार नाम की संस्था मर चुकी है। विधायिका ने बुरी तरह से निराश किया है। अब न्यायपालिका से ही उम्मीदें हैं। उम्मीदें 'आमजन संसद' से भी हैं। दूसरा कोई विकल्प नहीं। लोग आगे आएं, घर में रहेंगे तो भी मारे जाएंगे। आक्रामक सैनिक भाव ही श्रेष्ठतम आत्मरक्षा है।


20 वर्ष बाद फिर हिन्दू बने ढाई सौ वाल्मीकि

दैनिक जागरण १९ सितम्बर २००८, सहसवान (बदायूं)। बीस वर्ष पूर्व ईसाई बने ढाई सौ वाल्मीकि लोगों को ग्राम खिरकवारी में धर्म जागरण समिति के प्रांत राजेश्वर सिंह के नेतृत्व में उनका शुद्धि करण कर उन्हे पुन: हिन्दू बनाया गया।

बताया जाता है कि ग्राम खिरकवारी में ईसाई मिश्नरी द्वारा न्यू अपोस्टल चर्च के प्रेमचन्द्र पुत्र बन्नू वाल्मीकि के नेतृत्व में 150 से ज्यादा लोगों ने ईसाई धर्म अपना लिया था और वहीं चर्च बनाकर पूजा अर्चना करते थे।

धर्म जागरण समिति के प्रांत प्रमुख राजेश्वर सिंह सेवा भारती के संगठन मंत्री तारा चन्द्र यादव व यज्ञाचार्य प्रणय मिश्र शास्त्री, जिला प्रचारक हिन्दू शुद्धि सभा को भी पता चला कि ईसाई मिश्नरी ने ग्राम खिरकवारी में वाल्मीकि जाति के लोगों को ईसाई बना लिया है तो वह यहां पहुंचे तथा उन्होंने वहां लोगों को हिन्दू धर्म के बारे में बताया। जिस पर ढाई सौ से ज्यादा ईसाई बने लोगों को ग्राम खिरकवारी में कार्यक्रम आयोजित कर हवन कराया। सभी लोगों ने हवन में आहुति देकर हिन्दू धर्म में पुन: आस्था व्यक्त करते हुए कहा कि वह ईसाई तो बन गये परन्तु वह घुटन महसूस कर रहे थे। आज वह अपने धर्म में पुन: लौटकर बहुत खुश हैं।

हवन में सवा सौ से ज्यादा जोड़ों ने एक साथ तथा ढाई सौ लोगों ने आहुति दी। इससे पूर्व उन्हें गंगाजल पिलाकर शुद्ध करने की रीति अपनाई गई तथा हिन्दू के बारे में बताया गया। भाजपा महिला की जिलाध्यक्षा अंजू चौहान ने महिलाओं के हाथों में कलावा बांधकर उन्हे हिन्दू धर्म की दीक्षा दी।

प्रणव मिश्र पुरोहित ने हवन कराया तथा रज्जान पाल सिंह चौहान, हर्ष वर्धन आर्य, तारा सिंह यादव, लाला हरप्रसाद, विद्याराम, शेखर संघ जिला प्रचारक राजेश जी आदि मौजूद थे।

अलकायदा से सिमी तक एक ही रणनीति

दैनिक जागरण, १९ सितम्बर २००८, नई दिल्लीइराक में पड़ रही अमेरिकी मार के चलते अलकायदा अपनी रणनीति बदलने पर मजबूर हो गया है। पिछले दिनों अलकायदा के नंबर दो अयमान अल जवाहिरी को दुनिया भर में फैले अपने अनुयायियों से आह्वान करना पड़ा कि जब, जहां और जैसे भी हो; 'वैश्विक जेहाद' के लिए संघर्ष करें। वैसे फलस्तीनी उग्रवादी इसका पहले से ही अनुसरण कर रहे हैं। भारत में सक्रिय सिमी भी इसका अपवाद नहीं है।

रणनीति में बदलाव क्यों

- 9/11 के बाद अंतरराष्ट्रीय चौकसी के कारण विस्फोटक सामग्री भेजने आतंकियों को सीमा पार कराने में दिक्कत, भारत में भी बाड़बंदी और चौकसी के कारण सीमा पार से आतंकियों का प्रवेश कठिन

क्या है रणनीति

- छोटे-छोटे समूह बनाकर स्थानीय स्तर पर काम करना, ताकि गिरफ्तारी से पूरा नेटवर्क नष्ट हो और भावी आतंकी गतिविधि पर असर पड़े

- स्थानीय स्तर पर उपलब्ध सामग्री का विस्फोटक के रूप में इस्तेमाल, जैसे नाइट्रोजन उर्वरक। सबसे पहले 1993 में पाक के रम्जी युसूफ द्वारा यूरिया नाइट्रेट से न्यूयार्क र्ल्ड ट्रेड सेंटर को उड़ाने का प्रयास, 1994 में फलस्तीनी उग्रवादियों द्वारा नाइट्रोजन उर्वरक का इस्तेमाल, पश्चिमी देशों की सरकारों की निगरानी के कारण वहां नाइट्रोजन उर्वरक का आतंकी कार्रवाई में कम उपयोग, लेकिन भारत में 2004 से वृद्धि, अब बेंगलूर से दिल्ली धमाके तक अमोनियम नाइट्रेट का उपयोग

- स्थानीय स्तर पर सिमी द्वारा प्रशिक्षण की व्यवस्था, अब पाकिस्तान पर उसकी निर्भरता घटती जाएगी

- संचार के लिए फोन या मोबाइल का कम इस्तेमाल। इसकी जगह पर इंटरनेट का बहुतायत उपयोग, ताकि बीच में संवाद को पकड़ा जा सके

- शक की नजरों से बचने के लिए आकर्षक वस्तुओं के उपयोग से परहेज

आगे क्या

- पश्चिमी देशों में नाइट्रोजन उर्वरकों की खरीद-बिक्री पर बढ़ती निगरानी के कारण अलकायदा द्वारा आतंकी संगठनों को विस्फोटक पदार्थो की जगह ज्वलनशील पदार्थो जैसे गैस सिलेंडर, गैसोलीन आदि के इस्तेमाल की सलाह, 2007 में समझौता एक्सप्रेस में आग लगाने और ब्रिटेन के ग्लासगो एयरपोर्ट को उड़ाने के लिए ज्वलनशील पदार्थो का उपयोग

- पेरोक्साइड युक्त तरल पदार्थ का उपयोग। कास्मेटिक वस्तुओं, सफाई की सामग्री आदि में पेरोक्साइड मौजूद, आसानी से कम दाम में बाजार से उपलब्ध, 25 डालर से कम खर्च, जुलाई 2005 में लंदन की परिवहन व्यवस्था पर हमले के लिए पेरोक्साइड आधारित आईईडी का इस्तेमाल, फलस्तीनी उग्रवादी अस्सी के दशक से ही इसका इजरायल के खिलाफ इस्तेमाल कर रहे हैं, केरल प्रशिक्षण शिविर में सिमी द्वारा परीक्षण, खामियां -तैयारी के दौरान विस्फोट की संभावना और अमोनियम नाइट्रेट की तरह लंबे समय तक नहीं रखा जा सकता

अब तक क्या

- गन : एके-47/56/74, 9 एमएम पिस्टल, कारबाइन, एलएमजी/एसएलआर, .303 राइफल, स्निपर राइफल आदि का इस्तेमाल

- विस्फोटक : हैंड ग्रेनेड, आईईडी, बारूदी सुरंग, राकेट, आरडीएक्स, कार बम

- संचार उपकरण : मोबाइल फोन

Thursday, September 18, 2008

एक घर में नमाज को लेकर गांव में तनाव, पुलिस तैनात

दैनिक जागरण, १७ सितम्बर २००८, पीलीभीत। जहानाबाद थाना क्षेत्र के गांव ऐमी में रमजान के दौरान मुस्लिमों द्वारा एक घर में एकत्र होकर नमाज पढ़ने से गांव में तनाव फैल गया। डीएम के निर्देश पर पुलिस ने आज दोनों पक्षों को थाने बुलाकर बातचीत की। इस दौरान पुलिस ने साफ कहा कि बिना किसी अनुमति के गांव में नई परंपरा नहीं शुरू होने दी जायेगी। गांव में तनाव को मद्देनजर रखते हुए पुलिस फोर्स तैनात कर दिया गया है।

जहानाबाद के गांव ऐमी में मुस्लिम परिवारों द्वारा शमशाद के घर में एकत्र होकर नमाज पढ़ने व लाउडस्पीकर से अजान देने की शिकायत कल दूसरे समुदाय के लोगों ने डीएम से की थी। डीएम के निर्देश पर बुधवार सीओ सिटी अमर जीत सिंह शाही ने जहानाबाद थाने पहुंचकर दोनों पक्षों से वार्ता की। एक समुदाय का कहना था कि मुस्लिम लोग गांव में नई परंपरा डाल रहे हैं। उन्होंने गांव में लाउडस्पीकर से अजान देने पर आपत्ति जताई। दूसरे पक्ष का कहना था कि वे पिछले सात वर्षो से एक घर में नमाज पढ़ते चले आ रहे हैं। यह कोई नई परपंरा नहीं है। सीओ सिटी श्री शाही ने साफ कहा कि वे किसी प्रशासनिक अधिकारी की अनुमति के बिना गांव में नई परंपरा नहीं पड़ने देगें। अगर उनके पास कोई अनुमति पत्र है तब वे उन्हें दिखाएं। देर शाम तक थाने में दोनों पक्षों का जमघट लगा रहा। गांव में तनाव को देखते हुए पुलिस फोर्स तैनात कर दिया गया है। सीओ सिटी अमरजीत शाही ने बताया कि दोनों पक्षों में लिखित समझौता करा दिया है। मुस्लिम अपने घरों में अलग-अलग नमाज पढ़ेगें। परन्तु सामूहिक रूप से वे नमाज नहीं पढ़ेगे। और न ही लाउडस्पीकर में अजान देगें। सीओ ने दावा किया कि गांव में कोई तनाव नहीं है। फिर भी ऐहतिहातन दोनों पक्षों के खिलाफ निरोधात्मक कार्रवाई की जा रही है।

निष्क्रियता का नया प्रमाण

जिन खास कारणों से आतंकवाद पर लगाम नहींलग पा रही उन्हें रेखांकित कर रहे हैं राजनाथ सिंह सूर्य

दैनिक जागरण, १८ सितम्बर २००८. कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जो आगे चलकर बड़े संकट का सबब बन जाती हैं। उन पर तत्काल ध्यान नहीं दिया जाना इसका मुख्य कारण होता है। ऐसी ही एक घटना है उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के मौलवीगंज से सिमी प्रमुख शहबाज की गिरफ्तारी के पूर्व गुजरात के गृहमंत्री अमित शाह का केंद्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल से फोन पर किया गया यह अनुरोध कि वह मुख्यमंत्री मायावती से संपर्क कर इस व्यक्ति के बारे में मिली सूचनाओं की छानबीन का अनुरोध करें। शिवराज पाटिल ने अमित शाह की बात इस कान से सुनकर उस कान से निकाल दी। यदि गुजरात की पुलिस ने उत्तर प्रदेश की पुलिस से सीधा संपर्क किया होता तो शायद शहबाज गिरफ्तार होता। इस घटना से दो महत्वपूर्ण प्रश्न उभरते हैं, जो हमारी व्यवस्था में खतरनाक राजनीतिक राग-द्वेष के कारण उत्पन्न घातक स्थिति को उजागर करते हैं।

शिवराज पाटिल अपने दायित्व के प्रति कितने 'जिम्मेदार' हैं, इसके कई सबूत सामने चुके हैं। चाहे आतंकियों से निपटने के लिए कई राज्यों द्वारा बनाए गए कानूनों को स्वीकृति देने का मामला हो या फिर पाकिस्तान की जेल में बंद सरबजीत और संसद पर हमले के आरोप में फांसी की सजा पाए अफजल के मामले की तुलना हो-उनके चौंकाने वाले कथनों की लंबी फेहरिश्त है। अमित शाह और शिवराज पाटिल के वार्तालाप और उसके उपसंहार के जो समाचार प्रकाशित हुए हैं उससे जहां भारत सरकार के प्रमुख कर्णधारों की 'जिम्मेदारी' के प्रति गंभीरता का पता चलता है वहीं एक संवैधानिक सवाल भी खड़ा हो जाता है। शिवराज पाटिल ने मायावती से क्यों बात नहीं की? क्या उन्हें भय था कि ऐसा करने पर उनकी संरक्षक नाराज हो जाएंगी या फिर उन्होंने इस मामले को बहुत मामूली समझ लिया? हमारी जो संघात्मक व्यवस्था है उसमें केंद्र राज्यों के बीच सेतु का दायित्व निभाता है। एक राज्य से दूसरे राज्य के संबंधों और समस्याओं को निपटाने में केंद्र मध्यस्थता और सहायक की भूमिका निभाता है। शिवराज पाटिल की कार्यप्रणाली और गुजरात पुलिस के उत्तर प्रदेश पुलिस से सीधे संपर्क से केंद्र की भूमिका पर प्रश्नचिह्न खड़ा हो गया है। मैं शिवराज पाटिल के 'व्यक्तित्व' पर विवाद नहीं करना चाहता, लेकिन प्रत्येक नागरिक को यह जानने का हक तो है ही कि हमारे देश का गृहमंत्री संविधान की मर्यादाओं का पालन कर रहा है या नहीं? अब तक इसका सकारात्मक उत्तर नहीं मिला है। शायद यही कारण है कि किसी अरुंधति राय को कश्मीर की आजादी की वकालत करने का हक मिल गया है। शायद इसी आचरण का प्रभाव है कि देश के एक छोटे से भाग में पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे के साथ प्रदर्शन होता है, शायद इसी आचरण का परिणाम है कि पाकिस्तान के हस्तक बनकर देश भर में विस्फोटों से अराजकता उत्पन्न करने वाले के प्रति सहानुभूति प्रगट करने का सिलसिला चल निकला है। शायद यही कारण है कि जहां केंद्रीय प्रशासन तंत्र सिमी पर प्रतिबंध जारी रखने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में पैरवी कर रहा है वहीं केंद्रीय मंत्रिमंडल के कुछ सदस्य खुलेआम इस संगठन को देशभक्ति का प्रमाणपत्र दे रहे हैं। केंद्रीय गृहमंत्री असम में बांग्लादेशी घुसपैठियों के बारे में अदालती समीक्षा को भी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। दलीय आधार पर केवल कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन बुलाकर जो शुरुआत संप्रग सरकार ने की उसका परिणाम यह हुआ कि भाजपा ने भी अपने मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन बुला लिया। हमारी अवधारणा है कि चाहे केंद्र हो या राज्य, लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत किसी किसी दल के नेतृत्व में सरकार बनती है, लेकिन सरकार 'राजनीतिक दल' की नहीं होती। मनमोहन सरकार ने इस मान्यता को ही ध्वस्त कर दिया। राष्ट्रीय परिषद या इसी प्रकार की वे संस्थाएं जो संघात्मक ढांचे को एकात्मता के सूत्र में बांधे रखने के लिए हैं, विलुप्त होती जा रही हैं। संसद, जहां देश भर की समस्याओं का संज्ञान लिया जाता है, निष्प्रभावी कर दी गई है। गृह मंत्रालय ने जम्मू को जलने और कश्मीर के उन्मादियों को देशघाती अभियान चलाने का मौका क्यों दिया? क्या देशद्रोह से भी बड़ा कोई अपराध हो सकता है और क्या देश से अलग होने के 'हक' की वकालत करने वालों से बड़ा कोई अपराधी है? इन अपराधियों से क्यों नहीं निपटा जा रहा? कुछ लोगों के इस आकलन से सहमत हुआ जा सकता है कि शिवराज पाटिल भले ही गृहमंत्री हों, लेकिन दायित्व निर्वहन के मामले में पद के अनुरूप उनकी हैसियत नहीं स्थापित हो पाई है। यही बात प्रधानमंत्री के बारे में भी कही जाती है तो फिर प्रश्न यह उठता है कि जिसकी हैसियत है वह कौन है?

संविधान में प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और उनके सहयोगियों की ही हैसियत का प्रावधान है। यदि कोई गैर सांविधानिक हैसियत है तो क्यों है और फिर क्या इन सभी स्थितियों के लिए उसे जिम्मेदार ठहराना चाहिए? विधान तो उन्हें जिम्मेदार मानता है जो संबंधित दायित्व के निर्वहन की शपथ लेते हैं। केंद्रीय प्रशासन तंत्र के उपयोग और उसके कार्य करने की व्यवस्था पर इतने प्रश्नचिह्न पहले कभी नहीं लगे थे जितने अब लगे हैं। इस स्थिति में मुख्यमंत्रियों से प्रशासनिक मामले में तथा नीतियों पर अमल को लेकर संपर्क करने में गृह मंत्रालय अपने दायित्व निर्वहन में पूर्णत: असफल साबित हुआ है। इसी का परिणाम है कि केवल देश घाती गतिविधियों में इजाफा हुआ है, बल्कि इन गतिविधियों में संलग्न लोगों के प्रति मजहबी आधार पर सहानुभूति बटोरने के प्रयास थामे नहीं थम रहे। विडंबना यह है कि गृह मंत्रालय को संचालित करने वाले राजनीतिक पदधारक अपने ही तंत्र की सूचनाओं, आकलन और तथ्यपरक जानकारियों के अनुरूप आचरण का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। विश्व के किसी भी सार्वभौमिक सत्ता वाले स्वतंत्र देश में ऐसी निष्क्रियता का उदाहरण नहीं मिलेगा।

Tuesday, September 16, 2008

सिमी का बम विशेषज्ञ गिरफ्तार

दैनिक भास्कर,
Tuesday, September 16, अहमदाबाद. बम बनाने में माहिर सिमी के एक सदस्य सलीम सिपाही को गुजरात पुलिस ने सोमवार को गिरफ्तार कर लिया है। सलीम सिमी कार्यकर्ताओं को बम बनाने का प्रशिक्षण देता था। बताया जाता है कि सलीम ने ही दिल्ली धमाकों के मास्टरमाइंड कयामुद्दीन को बम बनाना सिखाया था।

क्राइम ब्रांच के मुताबिक, सलीम ने 14 साल की उम्र में ही बम बनाना सीख लिया था। उसने अहमदाबाद, भरूच, वड़ोदरा और सूरत में सिमी के कई कार्यकर्ताओं को इसका प्रशिक्षण भी दिया। सूत्रों के मुताबिक, सलीम ने अहमदाबाद में हुए विस्फोटों और सूरत में मिले बमों को तैयार करने में तौकीर की मदद की थी।

जांच में जुटे अधिकारियों को आशंका है कि दिल्ली धमाकों के पीछे सलीम का हाथ हो सकता है। हालांकि इस बारे में पूछताछ जारी है। गौरतलब है कि 2002 के दंगों के दौरान अहमदाबाद के कालूपुर इलाके में सलीम द्वारा बम बनाने के दौरान अचानक विस्फोट हो गया था, जिसमें कई लोग घायल हुए थे।

दो गुटों में झड़प से वडोदरा में तनाव

15 सितम्‍बर 2008 , आईबीएन-७, अहमदाबाद। गणपति विजर्सन के दौरान वडोदरा में दो गुटों में हुई झड़प के बाद हिंसा भड़क उठी। पुलिस ने उपद्रवी भीड़ को तितर-बितर करने के लिए गोलियां चलाई जिसमें एक व्‍यक्ति के मारे जाने की खबर है। हालांकि पुलिस ने इस मौत की पुष्टि नहीं की है।

वडोदरा में कल रात गणपति विसर्जन के दौरान फतेहपुर और याकूतपुरा इलाके में दो गुट आपस में भिड़ गए। पुलिस ने इसके बाद फतेहपुर इलाके में धारा 144 लगा दी थी। इसके बावजूद उग्र भीड़ उत्‍पात मचाती रही।

भीड़ को तितर-बितर करने के लिए पहले तो पुलिस ने आंसू गैस के गोले दागे, लेकिन उसके बावजूद भी कुछ न होने पर पुलिस को गोलियां चलानी पड़ी। इस टकराव के दौरान कई दुकाने और गाडि़यों में आग लगा दी गई है। मामले से निपटने के लिए पुलिस ने गश्त बढ़ा दी है।

पुलिस की गोलीबारी से कुछ लोगो के घायल होने की भी ख़बर है। हालांकि घायलों की सही संख्‍या का पता अभी तक नहीं चल पाया है।

दिल्ली विस्फोट में कयामुद्दीन का हाथ!

दैनिक जागरण, १६ सितम्बर 2008, अहमदाबाद। गुजरात पुलिस के एक अधिकारी ने कहा है कि सिमी कार्यकर्ता कयामुद्दीन राष्ट्रीय राजधानी में हुए बम धमाकों के पीछे शामिल लोगों में से एक हो सकता है। कयामुद्दीन के अब्दुल सुभान उर्फ तौकीर के साथ मिलकर इस काम को अंजाम देने की आशंका है।

संयुक्त पुलिस आयुक्त आशीष भाटिया ने कहा कि हमें लगता है कि अहमदाबाद धमाकों के एक आरोपी कयामुद्दीन का हाथ दिल्ली विस्फोट के पीछे हो सकता है। वह राष्ट्रीय राजधानी के विभिन्न जगहों पर पर बम रखने के काम में शामिल हो सकता है।

उन्होंने कहा कि मुंबई के कंप्यूटर विशेषज्ञ अब्दुल सुभान उर्फ तौकीर के भी दिल्ली धमाकों में शामिल होने की आशंका है। भाटिया ने कहा कि इस बात की आशंका है कि अहमदाबाद धमाकों में वांछित अन्य सिमी सदस्य भी दिल्ली धमाकों में शामिल हो सकते हैं। अहमदाबाद धमाकों के बाद अब्दुल सुभान और कयामुद्दीन का नाम सामने आया था। दोनों राज्य पुलिस की अति वांछितों की सूची में शामिल हैं। धमाकों के बाद दोनों फरार हैं।

वडोदरा का रहने वाला कयामुद्दीन ने अहमदाबाद में हुए धमाकों के बाद कई बैठकें की थी। सिलसिलेवार बम धमाकों से पहले वह अहमदाबाद में करीब एक महीने तक रहा था।

वडोदरा में फायरिंग में एक की मौत

दैनिक जागरण, १६ सितम्बर २००८, वडोदरा। वडोदरा में गणेश मूर्ति विसर्जन के दौरान पथराव के बाद सोमवार दोपहर दो समुदायों के बीच हिसक झड़प के बाद पुलिस फायरिग में एक युवक की मौत हो गई जबकि आठ व्यक्ति घायल है। इलाके में बीती रात भी पथराव की घटना हुई थी। फिलहाल स्थिति तनावपूर्ण लेकिन नियंत्रण में बताई जाती है।

वडोदरा के फतेहपुरा याकूतपुरा में रविवार शाम को गणेश मूर्ति विसर्जन के दौरान पथराव की घटना के बाद इस विवाद ने सोमवार दोपहर उग्र रूप धारण कर लिया। दोनों समुदाय के लोगों ने एक दूसरे पर जमकर पथराव किया तथा दो जगह चाकूबाजी की घटना भी हुई। इसके बाद उपद्रवियों को काबू में करने के लिए पुलिस ने नौ राउंड फायरिग की तथा आंसू गैस के गोले छोड़े। पुलिस फायरिग में एक पच्चीस वर्षीय युवक की मौत हो गई तथा आठ जख्मी है, जिसके बाद से हालात तनावपूर्ण है। उल्लेखनीय है कि वडोदरा में वर्ष 2002 से हर साल गणेश मूर्ति विसर्जन के दौरान हिंसा हो रही है।

Monday, September 15, 2008

दिल्ली विस्फोट

13 सितम्बर 2008, वार्ता, नयी दिल्ली। राजधानी दिल्ली में आज शाम पांच स्थानों पर हुए श्रृंखलाबद्ध विस्फोटों में कम से कम बारह व्यक्तियों की मौत हो गयी तथा 70 से अधिक लोग घायल हो गये।

करोलबाग के गफ्फार मार्केट, कनाटप्लेस के पालिका बाजार के उपर एवं गोपाल दास बिल्डिंग के सामने और ग्रेटर कैलाश के एम ब्लाक में दो स्थानों पर 40 मिनट के भीतर ये विस्फोट हुये।

दमकल विभाग के आधिकारिक सूत्रों ने बताया कि गफ्फार माकेंट में सात लोग मारे गये। कनाटप्लेस में एक महिला सहित पांच लोग मारे गये और 40 लोग घायल हो गये।

दिल्ली पुलिस आयुक्त वाई एस डडवाल सहित पुलिस के वरिष्ठ अधिकार मौके पर पहुंच चुके हैं। विस्फोट की खबर के बाद संबंधित इलाकों में मची अफरा-तफरी के कारण यातायात अवरूद्ध हो गया। हालांकि इस दौरान दिल्ली मेट्रो रेल की सेवायें यथावत जारी है।

सूत्रों ने बताया कि गफ्फार मार्केट में हुए विस्फोट में सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है तथा अब तक सात लोगों के मारे जाने की खबर है। मौके पर दमकल की गाडियां एवं बम निरोधक दस्ते पहुंच गये हैं। घायलों को निकटवर्ती निजी तथा राममनोहर लोहिया अस्पताल में भर्ती कराया गया है।

सूत्रों के अनुसार इन विस्फोटों के तुरंत बाद राजधानी में तथा आसपास के क्षेत्र में सतर्कता बढाने के साथ ही रेड अलर्ट घोषित कर दिया गया है।

घटनास्थलों की घेराबंदी कर दी गयी ताकि घायलों को शीघ्र अस्पताल पहुंचाया जा सके । गृह मंत्रालय स्थिति पर नजर रखे हुए है।

उल्लेखनीय है कि इससे पहले वर्ष 2005 में दीवाली के अवसर पर हुये श्रृंखलाबद्ध विस्फोटों में 62 लोग मारे गये थे।

Friday, September 12, 2008

हाजियों का कोटा बढ़ा, किराया नहीं

जागरण ब्यूरो,18 सितम्बर 2008, नई दिल्ली । हज यात्रा हवाई किरायों में ताजी वृद्धि से बेअसर रहेगी। साथ ही, इस साल हज जाने वालों की संख्या भी बढ़ जाएगी। यही नहीं, इंदौर से हज की सीधी उड़ान की सु भी मिलेगी। केंद्रीय पुलिस बलों में 48 नए पद बढे़ंगे। साथ ही, नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के लिए 500 करोड़ रुपये अतिरिक्त दिए जाएंगे। ये तमाम फैसले बृहस्पतिवार को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की बैठक में लिए गए।

बैठक के बाद सूचना व प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी ने बताया कि हज यात्रियों का कोटा 1,23,211 कर दिया गया है, जबकि पिछले साल तक 1.10 लाख यात्रियों को ही हज यात्रा करने की छूट थी। हाजियों को हवाई जहाज के किराये में सरकार सब्सिडी देगी।

सीधे सऊदी अरब जाने वाले यात्रियों की सुविधा के लिए इंदौर को 17वां केंद्र घोषित किया गया है। मध्य प्रदेश के हज यात्रियों को अब किसी दूसरे शहरों की ओर नहीं भागना पड़ेगा। आम तौर पर केरल व महाराष्ट्र जैसे राज्यों के हज यात्रियों की संख्या सर्वाधिक होती है, जबकि कम मुस्लिम आबादी वाले राज्यों से हज जाने वालों की संख्या बहुत कम होती है। इस नई व्यवस्था से अब असंतुलन दूर हो जाएगा।

Thursday, September 11, 2008

Malaysian High Court upholds order to ban Hindraf rally

Kuala Lumpur, Sept.10 (ANI): A magistrate’’s court order to ban the Hindu Rights Action Force (HINDRAF) rally held on November 25 last year, has been deemed as valid by the Malaysian High Court.

According to a New Strait Times report, the High Court also dismissed the appeal filed by five HINDRAF leaders to declare the order null and void.

Judge Datuk Mohamed Zabidin Mohd Diah agreed with deputy public prosecutor Raja Rozela Raja Toran that there were no “live issues” before the court.

The five — lawyers M. Manoharan, V. Ganapathi Rao, P. Uthayakumar, and R. Kengdharan, along with chairman P. Waytha Moorthy — had appealed against the restriction order earlier this year through their counsel Gobind Singh Deo.

They asked the High Court to declare the order, which barred them from holding the rally, null and void.

The five claimed that the magistrate had erred because the order was made ex-parte and was defective under the law because it did not specify the restriction address and conditions. (ANI)

Six injured in communal clashes during Ganesh immersion in Bharuch

Express News Service Posted online: Wednesday, September 10, 2008 , Vadodara, September 09 A dispute between two groups —one Hindu and one Muslim — resulted in stone pelting during the Ganesh visarjan (immersion) procession in Bharuch late on Monday evening. At least six persons were injured in the clash. The police lobbed tear gas shells to disperse the mob.

The incident occurred when a procession from Ghikhudia area in Bharuch was allegedly obstructed by a group of people from Bahar ni Undai area, who complained about loud music being played by the procession, police said. The situation turned ugly when some police officials were attacked and the mob started pelting stones. Apart from lobbing two teargas shells, the police also fired a round in the air to disperse the irate mob.

Inspector A S Shukla of Bharuch police (A division) said, “Around 18 people from both the communities have been arrested following the incident.”

The incident occurred near a religious place in Bahar ni Undai area, said Shukla who is investigating the case. “Around four police constables and two civilians from Bharuch were injured. A police motorcycle was also damaged and the mob also tried to snatch away a rifle from a policeman.”

मुस्लिम समुदाय की समस्या

रमजान के पवित्र माह पर देश के मुस्लिम समाज के सम्मुख कुछ सवाल रख रहे हैं डा. महीप सिंह
दैनिक जागरण, 11 सितम्बर 2008. मुसलमानों के लिए रमजान का महीना बहुत पवित्र है। मुसलमानों की यह मान्यता हैं कि यह मास पूरी तरह आत्मावलोकन और नैतिक शक्ति-अर्जन का है। इसी मास में पवित्र कुरान को मानवता के लिए प्रकाश में लाया गया। रमजान में अपेक्षित सभी बातों में मुझे आत्मपरीक्षण और आत्मनिरीक्षण की बात सबसे अधिक महत्वपूर्ण लगती है। जो देश, समाज या मजहब-यहां तक कि जो व्यक्ति भी समय-समय पर इस प्रकार का आत्मपरीक्षण या निरीक्षण नहीं करता वह जड़ हो जाता है, सही मार्ग से भटक जाता है, अंधविश्वासी और रूढि़ ग्रस्त होकर अपने समय का साक्षी नहीं रहता। उसमें लकीर की फकीरी तो आ जाती है, अपने मूल सिद्धांतों और अभिप्रायों की सही समझ विकृत हो जाती है। संसार का कोई भी मजहब, मत, संप्रदाय इससे अछूता नहीं है।

आज आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध की बड़ी चर्चा है। अमेरिका इस मुहिम का अगुआ है। इस युद्ध की अधिक चर्चा 11 सितंबर 2001 को अमेरिका के न्यूयार्क और वाशिंगटन जैसे नगरों पर हुए आक्रमण के बाद शुरू हुई। अमेरिका ने उस आतंकवादी हमले को अपने अस्तित्व पर खुली चुनौती माना। इराक और अफगानिस्तान पर अमेरिका और उसके साथी देशों का आक्रमण इसी युद्ध का एक अंग था। संसार के किसी भी भाग में जब कोई आतंकवादी घटना होती है तो कुछ अपवादों को छोड़ कर सभी में ऐसे नाम आते है जो उनके मुसलमान होने की घोषणा करते है। लगता है जैसे आतंकवाद और इस्लाम एक दूसरे के पर्यायवाची हो गए है। इस तथ्य से इस्लामी विद्वान भी परिचित है और उनकी ओर से लगातार यह कहा जाता है कि इस्लाम दहशतगर्दो के खिलाफ है और बेगुनाह लोगों की हत्या करने की इजाजत नहीं देता। पिछले दिनों देवबंद दारूल उलूम जैसी इस्लामी चिंतन की प्रख्यात संस्था ने उलेमाओं का सम्मेलन करके यह घोषित किया कि आतंकवाद की इस्लाम में कोई जगह नहीं है और बेगुनाह लोगों की हत्या करना बड़ा गुनाह है, किंतु ऐसे फतवों का कोई विशेष प्रभाव देखने में नहीं आता। हाल में जयपुर, बेंगलूर, अहमदाबाद में आतंकियों ने कितने ही बम विस्फोट करके अनेक लोगों की हत्या की। ऐसी घटनाएं केवल गैर इस्लामी देशों में ही नहीं हो रही है। पाकिस्तान इस समय संभवत: दहशतगर्दो के निशाने पर सबसे ज्यादा है। सब कुछ इस्लाम के नाम पर, मजहब के नाम पर हो रहा है। पाकिस्तान में तो एक-दूसरे की मस्जिदों में नमाज अदा करते हुए नमाजियों पर गोलियां बरसाई गई है। क्या रमजान के पवित्र मास में मुस्लिम उलेमाओं और बुद्धिजीवियों को इस पर गहन विचार नहीं करना चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पूरे मुस्लिम समुदाय की क्या छवि बन रही है? क्या मात्र यह कह देना या फतवा जारी कर देना काफी है कि दहशतगर्दो की इस्लाम इजाजत नहीं देता? क्या किसी भी स्तर पर इसका कोई सार्थक परिणाम निकला है? क्या ऐसे फतवों से इस्लामी आतंकवाद में कुछ कमी आई है? मैं अपनी एक और जिज्ञासा मुसलमान मित्रों के सम्मुख रखना चाहता हूं। किसी भी देश के किसी भी भाग में यदि मुसलमानों का बहुमत है तो वहां आंदोलन इस बात पर है कि उस भाग को अपने देश से काट कर वहां इस्लामी राज्य किसी प्रकार स्थापित किया जाए? मध्य एशिया से जुड़े चीन के उस प्रांत को जिसमें मुस्लिम बहुसंख्यक है, चीन से अलग करने की कोशिश हो रही है। फिलीपींस के एक मुस्लिम बहुल भाग को मुस्लिम उस देश से अलग करने के लिए संघर्षरत है। वे चेचेन्या को रूस के शासन में नहीं देखना चाहते। भारत में मुस्लिम बहुल कश्मीर में आजादी की मांग की जा रही है। भारत का 61 वर्ष पहले विभाजन इसी आधार पर हुआ था। लाखों असहाय लोगों की बलि लेकर वह भाग भारत से अलग हो गया था, जो मुस्लिम बहुल था। इससे क्या यह निष्कर्ष निकाला जाए कि मुस्लिम समुदाय किसी देश में गैर मुसलमानों के साथ मिलकर शांति के साथ नहीं रह सकता? क्या जिस देश के किसी भाग में उनकी जनसंख्या बढ़ जाएगी वहां वे उस क्षेत्र को अलग करके इस्लामी राज्य बनाने की जद्दोजहद प्रारंभ कर देंगे? यदि खुला युद्ध करना उनके लिए संभव नहीं होगा तो क्या वे आतंकवादी मार्ग अपना लेंगे? क्या वे आत्मघाती हमलों में खुद भी मरेगे और निर्दोष लोगों को भी मारेगे? कुछ दिन पहले शबाना आजमी ने यह कहा कि इस देश में मुसलमानों के साथ भेद-भाव होता है, किंतु इसका कारण वह नहीं है जो वे सोचती है। कारण मुसलमानों की आम छवि है। सिख समुदाय को भी इस छवि के साथ वर्षो तक जीना पड़ा है। अस्सी के दशक में सिखों की छवि आतंकवाद के साथ जुड़ गई थी। यह बात फैल गई थी कि ये लोग देश तोड़कर खालिस्तान बनाना चाहते है। इसका परिणाम यह हुआ था कि हिंदू बहुल क्षेत्रों में सिखों को कोई किराए पर मकान नहीं देता था। वे बसों में बैठते थे तो लोग शंका भरी नजरों से उन्हे देखते थे। सिखों को इस छवि को सुधारने में दो दशक से अधिक का समय लग गया।

इस देश में मुस्लिम समुदाय को लेकर सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उनकी छवि में सुधार नहीं हो रहा। भारत के मुसलमानों का जीवन-मरण अब इस देश के साथ ही जुड़ा है। ध्यान रहे कि पाकिस्तान और बांग्लादेश में गैर मुसलमानों की संख्या घटी है-या तो मतांतरण या फिर निष्कासन के कारण, किंतु भारत में मुसलमानों की संख्या लगातार बढ़ रही है। मेरा मत है कि रमजान के पवित्र मास में भारतीय मुसलमानों को कुछ निश्चय दोहराने चाहिए: एक, वे इस देश के गौरवशील नागरिक है। दो, आतंकवाद को किसी भी तर्क से न्यायोचित नहीं ठहराते। तीन, कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानते है। चार, सभी वर्गो, विशेष रूप से हिंदुओं के साथ सद्भाव पूर्ण वातावरण में जीने के इच्छुक है और सभी प्रकार की शंकाओं को आपसी संवाद द्वारा समाप्त करने के इच्छुक है। मेरी अभिलाषा है कि इस वर्ष की ईद कुछ बेहतर संदेश और सद्भाव लेकर आए।


Wednesday, September 10, 2008

कप्तानगंज में व्यापक तोड़फोड़, लूटपाट के बाद हिंसा

दैनिक जागरण, 9 सितम्बर 2008, आजमगढ़। योगी आदित्यनाथ के काफिले पर रविवार को हुए प्राण घातक हमले के बाद प्रशासन ने शहर को भले ही शांत कर लिया हो मगर ग्रामीण क्षेत्रों में हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही। मंगलवार को भी ग्रामीण क्षेत्रों में योगी आदित्यनाथ के काफिले पर हमले को लेकर लोगों में आक्रोश बना रहा।

हमारे कंधरापुर/कप्तानगंज/ बूढ़नपुर संवाददाताओं के अनुसार कप्तानगंज बाजार में हालत दूसरे दिन भी नहीं सुधरे। यहां मंगलवार को भी दो पक्षों ने खुलकर मोर्चा संभाला। जमकर लाठी-डण्डे चले और पथराव हुआ जबकि एक पक्ष ने चाकू, तलवार और तमंचों को लहराकर प्रशासनिक दावे 'सब ठीक है' की पोल खोल दी। इस हिंसा में दोनों पक्षों से नौ लोग घायल हो गये। इस दौरान उपद्रवियों ने एक पीसीओ, एक मुर्गा व्यवसायी तथा एक मांस विक्रेता की दुकान के साथ ही एक मोबाइल की दुकान को भी तहस-नहस कर दिया। बाजार में घंटों पथराव और असलहों का खुला प्रदर्शन देखकर हर कोई सुरक्षित रास्ता पकड़ ले रहा था। सड़क पर घंटों हुए इस उपद्रव को देख पुलिस भी सहम गयी। चन्द मिनट के अन्दर बाजार की सभी दुकानें धड़ाधड़ बंद हो गयीं। उपद्रव की सूचना के बाद पुलिस अधीक्षक विजय गर्ग भी मौके पर पहुंच गये। भारी संख्या में पुलिस और पीएसी बुलानी पड़ी। इसके बाद भी उपद्रवी शांत होने का नाम नहीं ले रहे थे। उपद्रवियों को नियंत्रित करने के लिए पुलिस को मशक्कत करनी पड़ी।

बाजार की सड़कों से लेकर गलियों तक में हर तरफ ईट के टुकड़े बिखरे पड़े थे और दहशत का माहौल था। भारी संख्या में फोर्स के पहुंचने के बाद भी लोग अपने घरों में दुबके रहे। कप्तानगंज थानाध्यक्ष ओपी श्रीवास्तव ने बताया कि उपद्रव के सिलसिले में दोनों पक्षों से 11 लोगों को हिरासत में लिया गया है। उनके अनुसार मंगलवार को हुए उपद्रव की जड़ में मिट्टी के तेल वितरण के दौरान हुआ विवाद रहा है जबकि दूसरी ओर यह भी चर्चा है कि सोमवार को बाजार बंद कराने को लेकर एक पक्ष के लोगों पर दूसरे पक्ष द्वारा फब्तियां कसने के कारण स्थिति विस्फोटक हुई।

प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार कोटेदार योगेन्द्र प्रसाद गुप्ता की दुकान पर मिट्टी के तेल वितरण के दौरान कुछ लोगों ने लालू व सोनू को पीटना शुरू कर दिया और उनके चीखने पर मामले ने दूसरा रूप धारण कर लिया।

आगरा में साम्प्रदायिक संघर्ष,फायरिंग और आगजनी

दैनिक जागरण, 9 सितम्बर 2008, आगरा। आगरा के मिश्रित आबादी वाले मंटोला क्षेत्र सोमवार की रात दो समुदायों में जबरदस्त संघर्ष के बाद गोलियों की तड़तड़ाहट से गूंज उठा। पुलिस की मौजूदगी में जमकर गोलीबारी और पथराव के बाद दो दुकानों सहित चार मकानों को आग के हवाले कर दिया। पथराव में एसएसपी और दरोगा तथा मीडियाकर्मी सहित एक दर्जन से अधिक लोग घायल हो गये। स्थिति को नियंत्रण पाने के लिये कई राउंड गोलियां चलानी पड़ीं। घटना के बाद समूचा इलाका पुलिस की छावनी में तब्दील हो गया है।

घटना रात्रि लगभग 9.45 बजे की है। शहीद नगर निवासी मुस्लिम समाज की महिला मीरा हुसैनी चौराहे पर रिक्शे से उतरी। तभी सामने से आते स्कूटर ने उसे टक्कर मार दी। वह घायल हो गई। पास ही खड़ा मुस्लिम समुदाय का एक युवक मौके पर पहुंच उसे उठाने का प्रयास करने लगा। इसी बीच दूसरे समाज के युवक वहां आ गये। उन्होंने महिला को उठाने का प्रयास करते युवक को धुन दिया। टक्कर मारने वाले स्कूटर को क्षतिग्रस्त कर दिया। इसी बीच जानकारी होने पर मुस्लिम समुदाय के लोग वहां पहुंच गये। दोनों पक्ष के बीच विवाद होने लगा। जिसने संघर्ष का रूप ले लिया। दोनों समुदाय आमने-सामने आ गये। उनके बीच पथराव और फायरिंग शुरू हो गई। एक घंटे से अधिक दोनों ओर से ताबड़तोड़ गोलियां चलीं। मौके पर एसएसपी रघुबीर लाल पहुंच गये। उपद्रवियों ने पुलिस पर पथराव कर दिया। जिसमें एसएसपी, एसओ नाई की मंडी, एक मीडियाकर्मी सहित एक दर्जन से अधिक लोग घायल हो गये। पुलिस ने हालात नियंत्रित करने के लिये लगभग 24 राउण्ड गोलियां चलाईं। संघर्ष में दो दुकानों तथा दो घरों को आग के हवाले कर दिया। आग में फंसे लोगों को पुलिस ने किसी तरह बाहर निकाला। पुलिस देर रात तक स्थिति को नियंत्रित करने में जुटी थी। मौके पर पीएसी को तैनात किया गया है।

आगरा के मंटोला में सांप्रदायिक आग ठंडी पड़ी

दैनिक जागरण, 10 सितम्बर 2008, आगरा : मंटोला में सोमवार की रात भड़की सांप्रदायिक आग सुबह तक ठंडी पड़ गयी। रात भर चली तलाशी में पुलिस ने एक दर्जन उपद्रवियों को गिरफ्तार कर लिया। जिन्हें छुड़वाने के लिए राजनीति तेज रही। पुलिस ने सुबह फ्लैग मार्च करने के बाद बाजार खुलवाये, लेकिन लोगों के बीच अज्ञात आशंका पूरे दिन बनी रही।

दबाव में फैसले

राजनेताओं को देश और जनहित को ज्यादा महत्व देने की सलाह दे रहे हैं निशिकान्त ठाकुर

Dainik Jagran, 8 September 2008. जम्मू में अब जिंदगी पटरी पर लौट आई है। स्कूल-कॉलेज खुलने लगे है और वहां पढ़ाई होने लगी है। बाजारों में चहल-पहल लौट आई है। वीरान हो गईं सड़कें, जहां कुछ दिनों पहले या तो फौजी बूटों की धमक थी या फिर आंदोलनकारियों की चीत्कार, अब नए सिरे से गुलजार हो गईं है। अपने निजी उपयोग के लिए नहीं, बल्कि श्राइन बोर्ड के लिए जमीन की मांग को लेकर अपनी जान तक देने वाले लोगों की मौत का गम अब हल्का होने लगा है। निजी स्वार्थो के लिए अगर राजनेता गड़े मुर्दे न उखाड़े तो थोड़े दिनों बाद यह कड़ा संघर्ष इतिहास का हिस्सा हो जाएगा। अलबत्ता यह मान लेना बहुत बड़ी भूल होगी कि जनता इसे पूरी तरह भूल जाएगी। क्योंकि लोक की स्मृति राजसत्ता और दरबारी लेखकों की गुलाम नहीं होती। उसने हजारों साल पहले की उन घटनाओं को भी अपने भीतर संजो रखा है, जिन्हे सरकारी किताबों से उड़ा ही नहीं दिया गया बल्कि जनता के मन से मिटाने के लिए क्रूरतम कोशिशें तक की गईं है। लगातार जनता को गुमराह करने की ही साजिश में ही लगे रहने वाले राजनेताओं को चाहिए कि वे इस मसले को जनता की याददास्त से उड़ाने की बजाय, इससे स्वयं सीख लेने की कोशिश करे।

यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि यह सब जो अब हुआ है, थोड़ा पहले भी हो सकता था। सच तो यह है कि अगर वस्तुस्थिति और सत्य को नजरअंदाज करने की बजाय थोड़ी सी ईमानदारी बरती गई होती तो यह नौबत ही नहीं आई होती। न तो जनता को कोई आंदोलन करना पड़ा होता और न जम्मू में क‌र्फ्यू लगाना पड़ा होता। यही नहीं, अगर थोड़ा और पहले दूरअंदेशी बरती गई होती और वोटबैंक की राजनीति के बजाय राष्ट्रहित एवं जनहित को महत्व दिया गया होता तो घाटी में भी इस मसले को लेकर जो प्रदर्शन हुए और खूनी खेल खेले गए, उनकी नौबत नहीं आई होती। घाटी से लेकर जम्मू तक जो नुकसान न केवल सरकार बल्कि आम जनता को भी उठाना पड़ा है, वह सब नहीं हुआ होता। सरकार को अपने नुकसान का अफसोस न हो, पर जनता को अपने नुकसान का अफसोस जरूर है। इसके बावजूद न चाहते हुए भी वह ऐसा करने के लिए मजबूर थी। यह बात जम्मू के लोगों की समझ में पूरी तरह आ गई थी कि अब अपना वाजिब हक लेने का इसके अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है। जिन जम्मूवासियों ने करीब महीने भर की अपनी रोजी-रोटी गंवाई या अपने मकानों-दुकानों का नुकसान झेला, वे किसी से टैक्स वसूल कर अपने निजी नुकसान की भरपाई नहीं कर सकेंगे। यह नुकसान तो खैर, फिर भी वे देर-सबेर पूरा कर लेंगे, पर जिनकी जानें गई है क्या उन्हे कोई लौटा सकेगा?यह सब जो हुआ है क्या इससे पता नहीं चलता कि हमारे राजनेता कितने संवेदनशील है? क्या इससे यह मालूम नहीं हो जाता कि हमारे देश का संविधान जिनके हाथों में है, वे कितने निष्पक्ष और न्यायप्रिय है? जो बात सरकार ने अब मानी है, क्या वही वह पहले नहीं मान सकती थी? अगर अभी सरकार में किसी भी तरह से शामिल कोई भी राजनेता यह कहता है कि सरकार ने जम्मू के लोगों की बातें दबाव में मानी है, तो क्या यह हमारी राजनीतिक न्याय प्रणाली के बेहद कमजोर होने का सबूत नहीं है? यह बात तो साफ है कि दबाव में कभी कहीं न्याय हो ही नहीं सकता है। अब अगर इसे दबाव में हुआ फैसला माना जाए, जो कि यह है भी, तब तो जाहिर है कि यह फैसला गलत है। अगर सही यानी दबाव के बगैर फैसला हुआ है तो फिर जान-माल की जो क्षति हुई है, उसके लिए जिम्मेदार कौन है? क्या यह किसी आपराधिक कृत्य से कम है? बहरहाल, यह फैसला चाहे दबाव में लिया गया हो या बिना दबाव के, पर हकीकत यही है कि हमारे देश में अधिकतम राजनीतिक फैसले दबाव में ही लिए जाते है। बात चाहे श्राइन बोर्ड को जमीन देने की मंजूरी की रही हो, चाहे उसे फिर से वापस लेने या फिर अब दुबारा वही जमीन उसे लौटाने की, फैसले सारे दबाव में ही लिए गए है। यह अलग बात है कि हर बार दबाव अलग-अलग तरह के रहे है।

यह दबाव कैसे प्रभावी होता है, इसे जम्मू-कश्मीर में व्याप्त विसंगतियों से देखा और समझा जा सकता है। यह कौन नहीं जानता है कि घाटी यानी कश्मीर पूरे राज्य का बहुत छोटा सा हिस्सा है। जम्मू और लद्दाख की हिस्सेदारी उससे ज्यादा है। इसके बावजूद राज्य से संबंधित हर फैसले पर इस क्षेत्र की प्रभुता का असर साफ देखा जा सकता है। सरकार के भी बड़े से बड़े फैसले बदलवा देने में यह अपने को सक्षम समझता है और इसे बार-बार साबित करता रहता है। आखिर क्यों? सिर्फ इसलिए कि यहां मुट्ठी भर ऐसे अलगाववादी रहते है, जो राज्य के साथ-साथ केंद्र सरकार को भी शोपीस से ज्यादा कुछ नहीं समझते। इलाके की आम जनता के मानस को चाहे वे रत्ताी भर भी प्रभावित न कर सके हों, पर ढोर-बकरियों की तरह अपने मन मुताबिक जहां चाहे वहां खड़ा करने में उन्हे मुश्किल नहीं होती। क्यों? क्योंकि आम जनता निहत्थी है, जबकि अलगाववादियों के पास अत्याधुनिक बंदूकें है, बम है, ग्रेनेड है, बारूदी सुरंगें है। यही नहीं, परदे के पीछे से कुछ राजनेताओं का संरक्षण भी उन्हे प्राप्त है। अगर ऐसा नहीं है तो क्या कारण है कि घाटी में पाकिस्तान समर्थक नारे लगाए जाते है, पाकिस्तानी झंडे फहराए जाते है और इसकी नोटिस तक नहीं ली जाती है। इस राष्ट्रविरोधी कृत्य को अगर घाटी के जनजीवन का हिस्सा मान लिया गया है तो यह कैसे माना जाए कि यह सब राजनीतिक संरक्षण के बगैर हो रहा है? राजनेता यह क्यों भूल जाते है कि लोकतंत्र में उनकी ताकत जनता से ज्यादा नहीं है?

सच तो यह है कि अगर वे इस बात को याद रखें तो जम्मू-कश्मीर ही नहीं, पूरे देश में कोई दिक्कत नहीं रह जाएगी। कभी वोटबैंक तो कभी निजी स्वार्थो के दबाव में जो फैसले किए जाते रहे है, उनका ही नतीजा है जो पूरे देश में असहिष्णुता बढ़ रही है। जाहिर है, एक समुदाय को खुश करने के लिए अगर दूसरे का हक मारा जाएगा तो वह कितने दिनों तक बर्दाश्त कर सकेगा? और जब शांतिपूर्वक किसी की बात नहीं सुनी जाएगी तो उसके धैर्य का बांध कभी तो टूटेगा ही। जम्मू, गुजरात या अभी उड़ीसा जैसे संकट वस्तुत: ऐसे ही राजनीतिक फैसलों की देन है। राजनेता अगर निजी हितों की तुलना में थोड़ा सा ज्यादा महत्व राष्ट्र और जनहित को देने लगें तो कई समस्याएं अपने आप हल हो जाएंगी। अन्यथा इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि जम्मू, गुजरात और उड़ीसा सिर्फ संकेत है। सच तो यह है कि अपने मौलिक और न्यायसंगत अधिकारों से वंचित देश की बहुत

बड़ी आबादी के भीतर अत्यंत भयावह ज्वालामुखी का लावा उबल रहा है। उसे अब बहुत ज्यादा दिनों तक गुमराह करना संभव नहीं रह गया है। यह राजनेताओं के सोचने का विषय है कि जिस दिन यह लावा फूटेगा, तब क्या होगा?