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Sunday, October 5, 2014

बवाल-ए-जान बना मूर्ति विसर्जन

http://navbharattimes.indiatimes.com/metro/lucknow/other-news/create-a-life-idol-immersion-organically/articleshow/44338380.cms
शारदीय नवरात्र की समाप्ति के बाद दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन के दौरान प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में आगजनी, पथराव और फायरिंग की घटनाओं ने धार्मिक माहौल को सांप्रदायिक बना दिया। कई जगहों पर दो पक्ष आमने-सामने आ गए, तो कई जगहों पर विसर्जन के लिए जा रही भीड़ ने पुलिस पर ही हमला कर दिया। बचाव में पुलिसिया कार्रवाई में लाठीचार्ज और फायरिंग तक करनी पड़ी। पुलिस के इस रवैये के खिलाफ लोगों ने कई जगहों पर आगजनी कर दी।
आजमगढ़ में पुलिस की जीपें फूंकी : आजमगढ़ के बरदह इलाके में पुलिस ने हर साल की तरह नहर के रास्ते से विसर्जन जुलूस का मार्ग तय किया था जबकि आयोजक दूसरे रास्ते से जाना चाहते थे। नया रास्ता मुस्लिम आबादी की ओर से होने के कारण प्रशासन अनुमति नहीं दे रहा था। विवाद ने शनिवार शाम करीब 4 बजे तूल पकड़ लिया। नए रास्ते से प्रतिमा ले जाने पर अड़े लोगों के ट्रैक्टर ट्रॉली पर लदी प्रतिमा को लेकर जबरन आगे बढ़ते ही पुलिस ने लाठियां भांजनी शुरू कर दीं। इससे आक्रोशित लोगों ने बरदह थाने और एक पुलिस जीप को आग के हवाले कर दिया। हालात बिगड़ते देख फोर्स ने पहले लाठीचार्ज और फिर कई चक्र हवा में फायरिंग की। पुलिस कार्रवाई से लोग प्रतिमा वहीं छोड़कर भाग निकले। एसएसपी दिनेश चंद्र दूबे का कहना था कि पूजा आयोजकों को कुछ लोगों ने भड़काकर माहौल बिगाड़ने की कोशिश की। उन्होंने स्थिति नियंत्रित होने का दावा किया।
भदोही में गाड़ियों में लगा दी आग
भदोही में पिछले दिनों शांति समिति की बैठक में तय किया हुआ था कि हाई कोर्ट के आदेशानुसार इस बार दुर्गा प्रतिमाओं का विसर्जन गंगा के बजाय उगापुर(औराई) के पास की नहर में किया जाएगा। शुरुआती दौर में विसर्जन जुलूस निकले तो सब कुछ सामान्य था। अचानक एक जुलूस में शामिल लोग परंपरा के नाम पर प्रतिमा को मीरजापुर के चील्ह घाट ले जाने लगे। फोर्स के रोकने और बलप्रयोग से आक्रोशित लोगों ने पुलिस वैन, रोडवेज बस समेत चार वाहनों को आग के हवाले कर दिया। दर्जनों वाहनों में तोड़फोड़ की गई। हालात लगातार बिगड़ते देख पुलिस ने आंसूगैस के गोले दागे और हवाई फायरिंग की तब स्थिति नियंत्रण में आ सकी। डीएम नरेंद्र शंकर पाण्डेय का कहना है कि जौनपुर जिले से विसर्जन के लिए आई प्रतिमा के जुलूस में शामिल कुछ अराजकतत्वों ने उपद्रव और आगजनी की है। उपद्रव करने वालों को चिन्हित कर कार्रवाई की जाएगी।
गाजीपुर में भी हालात बिगड़े
गाजीपुर में भी प्रतिमा विसर्जन का स्थान बदले जाने के विरोध को लेकर हालात बिगड़े। रात साढ़े आठ बजे से शुरु बवालदेर रात तक चलता रहा। गंगा में प्रतिमा विसर्जन करने पर अड़े लोगों पर फोर्स ने बलप्रयोग किया तो पथराव हो गया। घंटोंगुरिल्ला युद्ध के बीच पुलिस ने कई चक्र अश्रुगैस के गोले दागे और हवाई फायरिंग की। पथराव - लाठीचार्ज में कई लोगों कोचोट आई। पुलिस वाले भी घायल हुए हैं। डीएम चंद्र पाल सिंह व अन्य अधिकारियों के समझाने पर शनिवार को प्रतिमाओंका विसर्जन हुआ। स्टीमर घाट के पास खोदे गए गड्ढे में ही प्रतिमाएं विसर्जित की गईं। तनाव के चलते बाजाद बंद रहा। उधरकासिमाबाद में बकरीद के दिन कुर्बानी के लिए प्रशासन द्वारा नया स्थान निर्धारित किए जाने की खबर से पूजा आयोजकोंने प्रतिमा विसर्जन करने से इंकार कर दिया। पुलिस व प्रशासन के अधिकारी आयोजकों को मनाने में लगे हुए थे।
संत रविदासनगर में रोडवेज बस फूंकी : संत रविदास नगर में गंगा नदी में मूर्ति विसर्जन से रोकने पर उग्र लोगों ने पुलिस परपथराव कर रोडवेज बस और पुलिस की गाड़ी फूंक दी। मामला औराई थानाक्षेत्र के उगापुर नहर के पास का है। शुक्रवार कीशाम जौनपुर से बीस प्रतिमाओं के साथ आए लोगों ने मूर्तियों का विसर्जन गंगा नदी में करने के लिए चील्ह घाट की ओरजाने का प्रयास किया , लेकिन अदालत के आदेश के मद्देनजर पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों ने श्रद्धालुओं को नहरके पास रोक लिया। प्रशासनिक अफसरों का कहना था कि गंगा में मूर्ति विसर्जन पर अदालत ने रोक लगा रखी है इस लिएप्रतिमाओं का विसर्जन नहर में किया जाए। रोके जाने से प्रतिमाओं के साथ आई भीड़ आक्रोशित हो उठी पथराव शुरू करदिया। इतना ही नहीं भीड़ ने पुलिस की एक जीप सहित वहां से गुजर रही रोडवेज बस के यात्रियों को उतार पर उसे आग केहवाले कर दिया। जानकारी पाते ही जिलाधिकारी एसपी के साथ मौके पर पहुंचे और हल्का बल प्रयोग कर भीड़ को खदेड़दिया। बाद में अधिकारियों ने मूर्तियों के साथ आए लोगों को समझा बुझा कर नहर में प्रतिमाओं का विसर्जन करवाया।पुलिस ने इस संबंध में पथराव और आगजनी के आरोप में 26 लोगों को गिरफ्तार किया है।
मीरजापुर में पुलिस पर पथराव : गंगा नदी में विसर्जन करने से रोकने पर मिर्जापुर में भी आक्रोशित भीड़ ने जमकर पथरावकिया , जिसमें कई पुलिस कर्मी जख्मी हो गए। डीजीपी प्रवक्ता ने बताया कि शुक्रवार की शाम मीरजापुर के चील्ह थानाक्षेत्रमें भदोही जिले से करीब 43 दुर्गा प्रतिमाएं गंगा में विसर्जन के लिए लाई गई थीं। अधिकारियों द्वारा अदालत के आदेश काहवाला देकर उन्हें वापस कर दिया गया। वापसी के दौरान आक्रोशित भीड़ ने पथराव कर दिया , जिसमें पीएसी जवानसहित तीन पुलिस कर्मी जख्मी हो गए। अधिकारियों ने समझा - बुझा कर श्रद्धालुओं को शांत करवाया और जगदीशपुर मेंनिर्धारित स्थान पर मूर्तियों का विसर्जन करवा दिया।
मारपीट में 10 घायल : बदसठी थाना क्षेत्र के घनापुर गांव में मां दुर्गा की प्रतिमा विसर्जन के लिए ले जाते समय दो पक्षों मेंमारपीट हुई जिसमें 10 लोग घायल हो गये। आरोप है कि पुलिस ने एक ही पक्ष का मुकदमा दर्ज किया। मूर्ति ले जाने वालेपक्ष से अजीत कुमार , फौजदार , सालिक राम जमुना , राज किशोर , संजय तथा दूसरे पक्ष के महेन्द्र यादव , राम दास ,कृष्ण कुमार घायल हो गये। मूर्ति ले जाने वालों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया है जबकि दबंग व्यक्ति पर एनसीआर भीकायम नहीं किया गया।
बाराबंकी में एसओ सस्पेंड : दुर्गा पूजा विर्सजन जुलूस में शामिल लोगों में से किसी ने एसओ जहांगीराबाद शुजाउद्दीन परगुलाल फेंक दिया , जिससे नाराज पुलिसवालों ने लाठीचार्ज कर दिया। विवाद के बाद प्रशासन ने एसओ को निलंबित करदिया। शुक्रवार को जहांगीराबाद थाना के चचेरूवा की दुर्गा पूजा विर्सजन के लिए जा रही थी। आयोजन समिति अध्यक्षरामरूप यादव ने बताया कि जुमा की नमाज होने के कारण रास्ते के नैनामऊ की मस्जिद तक डीजे बजाने से पुलिस ने रोकाथा। इस पर जुलूस आगे निकल गया तो डीजे फिर बजने लगा। इसके बाद एसओ ने लाठीचार्ज कर जैसीराम रावत , कोटीव पूर्व प्रधान उमाकांत यादव की पिटाई कर दी। इससे भीड़ उग्र हो गई और एसओ शुजाउद्दीन की पिटाई कर दी। इस परएसओ ने नैनामऊ के पूर्व प्रधान छंगा के घर में घुसकर जान बचाई। निलंबित एसओ ने बताया कि जुमा की नमाज के दौरानडीजे रोकने से नाराज होकर उन पर जानलेवा हमला किया गया। सूचना के बाद एएसपी डॉ ओपी सिंह व एडीएम पीपीपाल मौके पर पहुंचे और एसओ को निलंबित कर दिया। नैनामऊ में एहितियात के तौर पर पीएसी की तैनाती कर दी गई है।

Wednesday, September 10, 2014

Monday, April 7, 2014

अब मुस्लिमों के आसरे मुल्क की सियासत!

http://www.palpalindia.com/2014/04/07/loksabha-election-politics-muslim-nations-shelter-news-hindi-india-57393.html
लोकसभा चुनाव के मतदान का पहला चरण आते-आते विचारधारा, विकास, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे हवा हो गए हैं. वोटों की राजनीति में जातियों के समीकरण को कमजोर देख राष्ट्रीय पार्टियां भी ध्रुवीकरण की राह पर चल दी हैं. आपातकाल के बाद सबसे कठिन चुनावों के मुकाबिल खड़ी कांग्रेस के लिए अल्पसंख्यक वोट संजीवनी बन सकते हैं. तमाम पार्टियां इन वोटों के बिखराव को रोकने के लिए इमाम और उलमा की शरण में हैं.

Friday, April 4, 2014

सोनिया-बुखारी की मुलाकात लोमड़ी-भेड़‍िये की अहिंसा पर बात करने जैसा: शिवसेना

http://aajtak.intoday.in/story/maharashtra-udhav-says-sonia-bukhari-meet-like-fox-and-wolf-talking-non-violence-1-759899.html
धर्मनिरपेक्ष वोटों के बंटवारे को रोकने के लिए दिल्ली के जामा मस्जिद के शाही इमाम से मुलाकात करने पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को आड़े हाथ लेते हुए शिवसेना ने कहा कि यह 'लोमड़ी और भेड़िये' के अहिंसा और शाकाहार पर बात करने के समान है.

Thursday, April 3, 2014

हिन्दुओं को अपमान सहने की आदत क्यों

http://www.punjabkesari.in/news/article-232630
(तरुण विजय) मुगल, ब्रिटिश और उसके बाद नेहरूवादी सैकुलर तंत्र ने इस देश में आग्रही हिन्दू बनना अपराध घोषित कर दिया था। देशभक्ति और मातृभूमि के प्रति समर्पण की चरम सीमा तक जाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों को आज भी सरकारी नौकरी के योग्य नहीं माना जाता और इस बारे में केन्द्र तथा विभिन्न राज्य सरकारों ने अधिघोषणा जारी की हुई है, जो रद्द नहीं की गई। 15 अगस्त तथा 26 जनवरी के दिन लालकिले और जनपथ पर जो भव्य परेड तथा राष्ट्रीय ध्वज फहराने के कार्यक्रम होते हैं, उनमें अनेक भयानक आरोपों से घिरे मंत्री और राजनेता बुलाए जाते हैं। जिस मुस्लिम लीग ने भारत का विभाजन करवाया, उसके सदस्य और पदाधिकारी भी आमंत्रित किए जाते हैं और उनमें से एक तो केन्द्रीय मंत्रिमंडल के भी सदस्य बनाए गए।

लेकिन कभी विश्व के सबसे बड़े हिन्दू संगठन, जो भारत का महान देशभक्त संगठन है, उसे अधिकृत तौर पर न तो राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के यहां चाय पर या राष्ट्रीय दिवसों के कार्यक्रमों में भारत शासन की ओर से अथवा राज्य सरकार की भी ओर से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पदाधिकारी के नाते आमंत्रित किया जाता है। अब कुछ भाजपा की राज्य सरकारों ने यदि उन्हें बुलाया हो तो यह अलग बात है। हिन्दुत्व की विचारधारा से आप लाख असहमत हो सकते हैं लेकिन उस विचारधारा को मानने वालों को त्याज्य, अस्पृश्य, अनामंत्रित और सूचीविहीन वर्ग में रखना अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक छुआछूत का उदाहरण है। भारत के 82,000 से ज्यादा समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में सामान्यत: कांग्रेस, वामपंथी या सीधे-सीधे कहें तो उन लेखकों, पत्रकारों और सम्पादकों का प्रभुत्व है, जिनका एक ही मकसद है-हिन्दुत्व की विचारधारा का विरोध। महानगरों से छपने वाले तथाकथित राष्ट्रीय अंग्रेजी समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं में हर दिन जिन लोगों के स्तंभ और लेख छपते हैं, उनमें हिन्दुत्व अथवा भारत के आग्रही हिन्दू समाज की उस विचारधारा का संभवत: एक प्रतिशत भी प्रतिनिधित्व नहीं होता जो राष्ट्रीयता के उस प्रवाह को मानते हैं जिसे श्री अरविन्द और लाल-बाल-पाल की त्रयी ने परिभाषित किया था। 

देश में ऐसे सैंकड़ों आई.ए.एस., आई.एफ.एस. और आई.पी.एस. अधिकारी होंगे जो बालपन से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को मानते हैं और उसे देश के लिए हितकारी समझते हैं लेकिन उनमें से एक भी सरकारी नौकरी में यह कहते हुए डरता है क्योंकि ऐसा घोषित करने पर उसके विरुद्ध तत्काल सरकारी कार्रवाई हो जाएगी। सरकार में कम्युनिस्ट पार्टी का समर्थक होने पर कोई दिक्कत नहीं है- जिस कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों को पं. नेहरू की सरकार ने 1962 के युद्ध में चीन का साथ देने के अपराध में गिरफ्तार किया था जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्यों को 1962 में देश की सेवा और सैनिकों का साथ देने के कारण 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में पूर्ण गणवेश में नेहरू सरकार ने शामिल किया था।

हिन्दुत्व समर्थक का परिचय मिलते ही कार्पोरेट जगत और सामाजिक क्षेत्र में एक भिन्न दृष्टि से देखे जाने का चलन कांग्रेस और वामपंथियों ने शुरू किया जिनके राज में हजारों सिख मारे गए, सबसे ज्यादा हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए, सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार की घटनाएं हुईं, संविधान का उल्लंघन हुआ, आपातकाल लगा, व्यक्तिगत स्वतंत्रताएं समाप्त हुईं, देश पिछड़ गया, महिलाएं असुरक्षित हुईं और विदेशों में भारत की छवि खराब हुई, वे केवल मीडिया पर अपने प्रभुत्व एवं सरकारी तंत्र के दुरुपयोग से स्वयं को सैकुलर, शांतिप्रिय, संविधान के रक्षक और मुस्लिम हित ङ्क्षचतक के रूप में दिखाते रहे।

सलमान रुशदी की पुस्तक ‘सेटेनिक वर्सेज’ पर जो प्रतिबंध की वकालत करते रहे, वही हिन्दू धर्म पर लिखी वैंडी डॉनिगर की अपमानजनक पुस्तक को बेचने की वकालत करते रहे। हिन्दुओं पर आघात आघात नहीं लेकिन अहिन्दुओं पर ताना भी कसा गया और जिसकी सबने ङ्क्षनदा भी की हो तो भी वह प्राण लेने वाला गुनाह मान लिया जाता है। कश्मीर से पांच लाख हिन्दू आज भी बाहर हैं। भारत के किसी गांव से 5 गैर-हिन्दू भी यदि किसी भेदभाव के शिकार होकर निकाल दिए जाएं तो दुनिया भर में तब तक तूफान मचा रहेगा जब तक वे 500 सिपाहियों के संरक्षण में वापस नहीं लौटा दिए जाते। भारत की दर्जनों राजनीतिक पार्टियों के चुनाव घोषणा पत्र में वह एक पंक्ति को ही दिखा दें  जिसमें कहा गया हो कि अगर उस पार्टी की सरकार आएगी तो वह ससम्मान और ससुरक्षा कश्मीरी हिन्दुओं की घर वापसी घोषित करेगी। सिवाय भाजपा के और कौन कहता है? इसका कारण क्या है?

जो लोग फिलस्तीन के मुस्लिम दर्द पर बोलते हैं, इसराईल के विरुद्ध दिल्ली में प्रदर्शन करते हैं और बम फोड़ते हैं, जिन्हें इस्लामी मालदीव और चीन के सिंकियांग में मुस्लिम मोह पर चीनी कार्रवाई से दर्द होता है, वे अपने ही रक्तबंधु हिन्दुओं के पाकिस्तान और बंगलादेश में अमानुषिक उत्पीडऩ पर खामोश क्यों रहते हैं?

गत एक सप्ताह में पाकिस्तान में 2 हिन्दू मंदिर अपवित्र किए गए, मूर्ति जला दी गई और हिन्दुओं का अपमान किया गया। इसके विरोध में आपने कहीं कोई आवाज सुनी? अब इस समाचार में मंदिर की जगह मस्जिद लिखिए और फिर सोचिए कि अगर हमारे या हमारे मुल्क के आसपास कहीं गैर-मुस्लिमों ने मस्जिदों के साथ यही काम किया होता तो क्या नतीजा निकलता?

हिन्दुओं को अपना अपमान सहन करने, अपना दुख पीने और अपने ऊपर होने वाले आघात स्वाभाविक मानने की आदत क्यों हो गई है? क्यों आग्रही हिन्दू उस शासन में जो उनके राजस्व और वोट से चलता है, केवल इसलिए तिरस्कृत और सूचीविहीन किया जाना स्वीकार कर लेते हैं कि वे हिन्दुत्व समर्थक हैं? अस्पृश्यता और तिरस्कार का जितना भयानक दंश हिन्दुत्व समर्थकों ने झेला है, वैसा नाजियों के हाथों यहूदियों ने भी नहीं झेला होगा।  

Friday, March 28, 2014

राजनीतिक एजैंडे से बाहर हिंदू वेदना

http://www.punjabkesari.in/news/article-230703
(तरुण विजय) दो दिन पूर्व राज्यसभा टी.वी. पर एंकर महोदया ने आम पार्टी के प्रतिनिधि से पूछा कि वैसे तो आपके नेता अरविंद केजरीवाल सांप्रदायिकता से लडऩे की बातें करते हैं लेकिन वाराणसी पहुंचते ही उन्होंने गंगा स्नान किया और मंदिर में दर्शन किया। आप प्रतिनिधि बेचारे शब्द ढूंढने लगे कि क्या जवाब दें और यही कह पाए कि वे परिवार सहित काशी गए थे इसलिए गंगा स्नान किया। ‘इंटेलैक्चुअल माडर्निटी’ जैसे भारी-भरकम अंग्रेजी शब्द हिंदी कार्यक्रम में इस्तेमाल करते हुए उन एंकर बहन का एक ही प्रहार था कि अगर सांप्रदायिकता से लडऩा है तो फिर मंदिर जाने का क्या अर्थ है? मैंने उनसे पूछा कि क्या इंटेलैक्चुअल माडॢनटी का अर्थ सिर्फ हिंदुओं पर इस रूप में लागू होता है कि जब तक वे मंदिर जाएंगे तब तक सैक्युलर नहीं कहलाएंगे। क्या अन्य गैर-हिंदुओं से वह यह प्रश्र करने का साहस करपातीं?

अभी पिछले सप्ताह पेशावर में जेहादियों ने एक गुरुद्वारे पर हमला किया। एक सिख नागरिक, पेशावर के प्रसिद्ध वैद्य परमजीत सिंह की हत्या कर दी गई। वहां हड़ताल हुई, पूरे पाकिस्तान में उसका शोर उठा लेकिन हिंदुस्तान और उसकी राजधानी दिल्ली में सिर्फ चुनाव पसरा रहा। एक-दूसरे पर अभद्र भाषा में आरोप-प्रत्यारोप, मोहल्ले की भाषा राष्ट्रीय चुनाव चर्चा का माध्यम बनती रही लेकिन पाकिस्तान के हिंदुओं और सिखों पर आघात पर चार लोगों ने भी इंडिया गेट या चाणक्यपुरी में प्रदर्शन नहीं किया, न कोई बयान आया, न किसी नेता को यह कहने की जरूरत महसूस हुई कि पाकिस्तान में हर रोज होने वाली इन वारदातों पर रोक लगाने के लिए हम जनमत संगठित करेंगे। यह स्थिति तब हुई थी जब कुछ समय पहले बंगलादेश में जमाते-इस्लामी के तालिबानों ने सैंकड़ों हिंदुओं के घर जला दिए थे, महिलाओं पर अत्याचार किया था और फिर हिंदू शरणार्थियों की एक बाढ़ भारत की ओर मुड़ी थी।

तमिलनाडु के जिन मछुआरों को श्रीलंका सरकार द्वारा अवैध रूप से पकड़कर 2-2 महीने जेल में रखा जाता है, उनकी नौकाएं तथा जाल तोड़ दिए जाते हैं, वे लगभग सभी हिंदू होते हैं। उनके विषयमें सामान्यत: ऐसा मान लिया जाता है कि अगर किसीको बोलना भी है तो तमिलनाडु के नेताओं और संगठनों को बोलने दीजिए। हमारा उनसे क्या संबंध है?

एक समय था जब रामसेतु को लेकर पूरे देश में हजारों प्रदर्शन हुए और एक करोड़ से ज्यादा हस्ताक्षर राष्ट्रपति को सौंपे गए। पर अब न रामसेतु और न ही तमिलनाडु के हजारों मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने के सर्वोच्च न्यायालय में डा. सुब्रह्मण्यम स्वामी द्वारा दर्ज जनहित याचिका पर ऐतिहासिक फैसले को लेकर कोई राष्ट्रव्यापी विचार तरंग दौड़ती है। मेरठ में कुछ भटके हुए कश्मीरी लड़कों ने भारत-पाकिस्तान मैच के दौरान पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाए तो हर पार्टी के नेता बोले, मुख्यधारा के संपादकों ने संपादकीय लिखे, भाषण और सैमीनार हुए। 5 लाख कश्मीरी अभी भी शरणार्थी हैं, शंकराचार्य पहाड़ी को तख्ते सुलेमान और अनंतनाग को इस्लामाबाद लिखा जा रहा है। सरकारी वैबसाइट और पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के नामपट्टों में ऐसे नामों का जिक्र होता है लेकिन यह राजनीतिक मुद्दा भी नहीं है, चुनाव घोषणा-पत्र या भाषण और सैमीनारों की तो बात ही छोड़ दीजिए।

भारत का एक मन भी है, उसका चैतन्य है, वह र्सिफ रोटी-कपड़ा और मकान पर जिंदा भौतिक काया मात्र ही नहीं है। इसीलिए श्री अरविंद ने भवानी-भारती की कल्पना सामने रखते हुए कहा था कि, ‘हमारे लिए भारत नदियों, पहाड़ों, मकानों, जंगलों और भीड़ का समुच्चय नहीं वरन् साक्षात जगत-जननी माता है।’ जैसे-जैसे राजनीति के छल और द्वंद्व में यह भाव तिरोहित होता गया और जहां तक राजनेताओं का वोट बैंक है, वहीं से भारतीय परंपराओं और हिंदुत्व की प्रखर एवं क्षमाबोध रहित आवाजें दबनी और दबाई जानी शुरू हो गईं। अगर केवल बिजली, पानी और सड़क का मामला लिया जाए तो यह हिंदुत्व की परम वैभव की कल्पना में स्वत: सन्निहित है।

जिस धर्म के अनुयायी जीवन में लक्ष्मी, दुर्गा और सरस्वती के बिना अपने भाव विश्व की कल्पना नहीं कर सकते, उनके बारे में यह कहना कि हिंदुत्व की बात छोड़कर सड़क, पानी, बिजली की बात करो क्योंकि हिंदुत्व का अर्थ है पिछड़ापन, सांप्रदायिकता, अल्पसंख्यक विरोध, बैलगाड़ी युग और प्रगतिशीलता का विरोध, तो यह सत्य से मुंह मोडऩा होगा। 

तालिबान और जेहाद केवल बंदूक और शारीरिक ङ्क्षहसा से ही नहीं होता। हिंदुओं के विरुद्ध शब्द हिंसा तथाकथित सैक्युलर मीडिया और जेहादी मानसिकता के तत्वों का एक बड़ा हथियार रहा है। वे कभी भी यह स्वीकार नहीं कर सकते कि लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती की आराधना का अर्थ ही उद्योग, व्यापार, आर्थिक विकास, शिक्षा और प्रौद्योगिकी, वैज्ञानिक मानसिकता के साथ नित्य नूतन मानवहितवर्धक अन्वेषण तथा गवेषणाएं, सैन्य विकास, शत्रु को परास्त करने के लिए हर प्रकार की शक्ति का अर्जन और आत्मनिर्भरता है।

केवल घंटी बजाकर कर्मकांड करना हिंदू का स्वभाव नहीं है बल्कि वैदिक परम्पराओं और विरासत को समसामायिक संदर्भों में पुन: व्याख्यायित करते हुए धर्म पर छाने वाली काई, कीचड़, धूल को साफ करने के लिए पाखंड खंडिनी पताका का स्वागत हमने करके दिखाया है। एक ऐसे समय में जब विश्व की प्रबल शक्तियां भारत के पुनरोदय के विरुद्ध जी-जान से षड्यंत्रों में व्यस्त हैं उस समय हमें अपनी विरासत पर टेक बराबर जमाए रखनी होगी और आंतरिक झगड़ों तथा कोलाहल से दूर रहना होगा। यह समय बहस और तर्क-वितर्क का नहीं, चेहरे, नाम और पहचान पर सवाल जडऩे का नहीं, अपनी  विरासत और हिम्मत को बिसारने का नहीं। एक बड़ी हुंकार से विजय को थामना, यही अपने हिंदुत्व और नागरिकत्व को सार्थक करना है।
 

Tuesday, October 1, 2013

दोहरे मापदंड का प्रमाण

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-proof-of-double-standards-10527947.html
पिछले दिनों 'शबे बारात' के मौके पर रात को दिल्ली की सड़कों पर एक समुदाय विशेष के युवाओं ने जमकर हुड़दंग मचाया। पिछले साल भी इस मौके पर ऐसा ही अराजक माहौल था। मोटरसाइकिल पर सवार हजारों गुंडों ने कानून एवं व्यवस्था की धज्जियां उड़ा दीं। एक-एक मोटरसाइकिल पर तीन-चार गुंडे बैठे थे। किसी ने भी हेलमेट नहीं पहना था और ट्रैफिक के हर कानून का उल्लंघन करते हुए घंटों गुंडागर्दी का तांडव किया। निजी वाहनों में सफर कर रही महिलाओं के साथ बदतमीजी की गई और उन्हें अश्लील इशारे किए गए। ट्रैफिक जाम में फंसी कारों के ऊपर खड़े होकर उत्पाती नाचते रहे। पुलिस मूकदर्शक बनी रही। प्रश्न उठता है कि इन असामाजिक तत्वों के आगे प्रशासन पंगु क्यों था और इन गुंडों को दुस्साहस की प्रेरणा कहां से मिलती है?
दैनिक जागरण बधाई का पात्र है, जिसने पूरी साफगोई से मामले को विस्तार से सामने रखा। यह घटनाक्त्रम सेक्युलर व्यवस्था के दोहरे मापदंडों को रेखांकित करता है। यह केवल दिल्ली तक ही सीमित नहीं है। देश के अन्य हिस्सों, खासतौर पर पश्चिम उत्तार प्रदेश में भी ऐसी घटनाएं आम हैं। दहशतगर्द यदि मुस्लिम समुदाय से जुड़े होते हैं तो प्रशासन मौन साध लेता है। अधिकारियों को 'ऊपर' से कार्रवाई न करने का आदेश होता है। समाज की शांति भंग करने वाले जहां बेखौफ हैं, वहीं इस देश की कानून एवं व्यवस्था पर विश्वास रखने वाले आम नागरिक हुड़दंगियों के रहमोकरम पर हैं। दो साल पूर्व इसी जून के महीने में कालेधन और भ्रष्टाचार को लेकर बाबा रामदेव द्वारा छेड़े गए जन आंदोलन को दिल्ली पुलिस ने अपने लाठीबल से कुचल दिया था। भारत माता की जय बोलने वाले एक निहत्थे समूह को आधी रात पुलिसिया बर्बरता का शिकार बनाने वाली व्यवस्था ऐसे मामलों में क्यों खामोश रहती है? आज दिल्ली पुलिस की मर्दानगी कहां खो गई? मुस्लिम समुदाय के कट्टरपंथी तत्वों द्वारा हिंसा के बल पर कानून एवं व्यवस्था को हाशिये पर डालने के अनेक उदाहरण हैं। पुरानी दिल्ली स्थित सुभाष पार्क में मेट्रो रेल निगम की ओर से रेल पटरी बिछाने के लिए की जा रही खुदाई में जब एक ढांचा सामने आया तो उस पर मुस्लिम समुदाय के रहनुमाओं ने फौरन अपनी दावेदारी ठोंक दी। खुदाई में अभी केवल एक दीवार ही मिली थी और उसे मस्जिद का अवशेष घोषित कर मस्जिद खड़ी कर दी गई। यहां चल रहे अवैध निर्माण कार्य को रोकने का साहस किसी भी सरकारी एजेंसी में नहीं था। मामला जब उच्चतम न्यायालय के संज्ञान में पहुंचा तो अदालत ने वहां निर्माण कार्य पर रोक लगाने का आदेश सुनाया, किंतु इस आदेश की तामील कराने जब पुलिस विवादित स्थल पर पहुंची तो स्थानीय मुस्लिम आबादी के एक बड़े वर्ग ने पुलिस पर हल्ला बोल दिया। घंटों सड़क पर बलवाइयों का खौफ छाया रहा और आम आदमी को जानोमाल के जोखिम से दोचार होना पड़ा। अदालती आदेश की अवहेलना और सड़क पर बलवा करने की इस घटना पर सेक्युलरिस्ट खामोश रहे। क्यों? देश का कानून और सेक्युलरिस्टों की सक्त्रियता अल्पसंख्यकों से जुड़े मामलों में लकवाग्रस्त क्यों हो जाती है? अगस्त, 2012 में मुंबई के आजाद मैदान में असम दंगों के खिलाफ आयोजित विरोध प्रदर्शन का हिंसा पर उतर आना कट्टरपंथियों के बढ़े दुस्साहस का एक और प्रमाण है। स्थानीय मुस्लिम संगठन रजा अकादमी के आह्वान पर जनसभा में शामिल होने के बहाने हजारों की संख्या में एकत्रित भीड़ ने पुलिस की गाड़ियां जला डालीं, न्यूज चैनलों की ओबी वैन जलाई गई और आसपास की दुकानों को लूटपाट के बाद आग के हवाले कर दिया गया। इस दौरान पाकिस्तानी झंडे भी लहराए गए। इसके साथ ही पुणे, हैदराबाद आदि शहरों में पूर्वोत्तार के लोगों पर भी हमले किए गए। प्रश्न यह है कि एक समुदाय विशेष के कट्टरपंथी वर्ग को इस देश की कानून एवं व्यवस्था का खौफ क्यों नहीं है? अपनी हर उचित-अनुचित मांग को पूरा करने के लिए जब-तब हिंसा की प्रेरणा उसे कौन देता है?
दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में दिल्ली विकास प्राधिकरण की जमीन पर अवैध रूप से बनाई गई एक मस्जिद को ढहाने के लिए जब अधिकारी पहुंचे तो इसी तरह हिंसा के बल पर सुरक्षा जवानों और अधिकारियों को खदेड़ भगाया गया। दिल्ली के ही जोरबाग इलाके में अदालत के आदेश पर एक विवादित स्थल पर प्रवेश की अनुमति नहीं है, किंतु हिंसा के बल पर उसमें जबरन प्रवेश करने की जब-तब कोशिशें होती हैं। पुलिस मौन रहती है, जबकि आसपास के आम नागरिक खौफ के वातावरण में जीने को अभिशप्त हैं। क्यों? असम के दंगों के दौरान सेक्युलरिस्टों का वीभत्स चेहरा बेनकाब हुआ था। अवैध रूप से बस चुके बांग्लादेशी घुसपैठिए अब वहां के स्थानीय बोडो जनजातीय लोगों को हिंसा के बल पर मार भगाना चाहते हैं। उनकी पहचान मिटाने पर आमादा हैं, किंतु कांग्रेस दशकों से बांग्लादेशी घुसपैठियों को संरक्षण प्रदान कर रही है, जिनके वोट बैंक के बूते वह असम की सत्ता पर कुंडली मारे बैठी है।
क्या वोट बैंक की राजनीति के लिए इन अवैध घुसपैठियों को इसलिए शरणार्थी मान लेना चाहिए कि वे मुस्लिम हैं? रोहयांग म्यांमारी और बांग्लादेशी घुसपैठियों का भारत से दूर-दूर का संपर्क नहीं है, फिर भी उन्हें संरक्षण दिलाने के लिए सेक्युलर दलों का एक बड़ा तबका चिंताग्रस्त है, किंतु उन हजारों हिंदुओं के लिए कोई फिक्रमंद दिखाई नहीं देता जो मजहबी उत्पीड़न और हिंसा से खौफजदा होकर बांग्लादेश और पाकिस्तान से पलायन कर अपने वतन लौटे हैं।
भारत में यदि मुस्लिम समाज में कट्टरवादी हावी हो रहे हैं और मजहबी जुनून को हवा मिल रही है तो इसका बड़ा श्रेय सेक्युलरिस्टों को जाता है, जो वोट बैंक की राजनीति के कारण मुस्लिम कट्टरपंथ को आंख बंद कर पोषित करते हैं। यही कारण है कि सीमा पार बैठी शक्तियां स्थानीय मुस्लिम युवाओं को काफिर और जिहाद के नाम पर उकसाने में सफल हो रही हैं। सेक्युलरिस्ट अशिक्षा को इस्लामी आतंक की प्रमुख वजह बताते आए हैं, किंतु कड़वी सच्चाई यह है कि मुस्लिम समुदाय के एक बड़े वर्ग में मौजूद कट्टरपंथी मानसिकता ही वह उर्वर भूमि है जिसमें जिहाद की फसल लहलहा रही है। वस्तुत: सेक्युलरिस्टों के दोहरे मापदंड सामाजिक शांति, सौहार्द और भारत के परंपरागत बहुलतावादी समाज के लिए गंभीर खतरा हैं।
[लेखक बलबीर पुंज, भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं]

पांच रुपये के सिक्के पर मां वैष्णो देवी की तस्वीर पर विवाद

http://www.jagran.com/news/national-controversies-over-issue-rs-5-denomination-coins-on-vaishno-devi-10493831.html
श्री माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड के 25 साल पूरे होने पर जारी देवी मां की तस्वीर वाले पांच रुपये के सिक्के को लेकर विवाद हो पैदा गया है। रिजर्व बैंक से जारी इन सिक्कों को लेकर मुस्लिम संगठनों ने विरोध जताया है।

वोट बटोरने की बेताबी

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-eagerly-plotting-votes-10449248.html
कट्टरवाद के तुष्टीकरण की होड़ में उत्तर प्रदेश की सरकार आतंकी गतिविधियों में लिप्त होने के आरोपियों की रिहाई के लिए बेचैन है। वस्तुत: पिछले साल विधानसभा चुनावों के दौरान ही सेक्युलर दलों में मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने के लिए होड़ लगी थी। राज्य सरकार की बेताबी चुनाव के दौरान किए गए वादों को पूरा करने का प्रयास है। सत्ता हासिल करने के कुछ समय बाद ही सरकार ने 2006 के वाराणसी बम धमाके के आरोपी वलीउल्लाह और शमीम को रिहा करने का निर्णय किया था। सरकार के इस निर्णय को अदालत में चुनौती दी गई थी, जिस पर फैसला सुनाते हुए अदालत को कड़वी टिप्पणी के लिए बाध्य होना पड़ा। न्यायाधीश आरके अग्रवाल और आरएसआर मौर्य की पीठ ने तब कहा था, आज आप उन पर से मुकदमा हटाना चाहते हैं, कल क्या उन्हें पद्म भूषण देंगे? किंतु सरकार इस फटकार से जरा भी विचलित नहीं है।
उत्तार प्रदेश सरकार कचहरी ब्लास्ट केस में गिरफ्तार मोहम्मद खालिद मुजाहिद और तारिक कासमी पर दर्ज मुकदमे वापस लेने का मन बना चुकी थी। खालिद की कोर्ट पेशी के दौरान मृत्यु हो चुकी है। सरकार ने उसके परिजनों को छह लाख रुपये मुआवजा देने की घोषणा की है। एक आरोपी आतंकी के लिए इतनी उदारता क्यों? आतंकियों के हाथों मारे जाने वाले सुरक्षा जवानों या नागरिकों के लिए सरकार ऐसी ही चिंता क्यों नहीं करती? कट्टरपंथियों का आरोप है कि इन दोनों को एसटीएफ ने फर्जी तरीके से गिरफ्तार किया था। इस शिकायत की जांच के लिए बाकायदा आरडी निमेश कमीशन का गठन किया गया था। कमीशन की रिपोर्ट में कहा गया है, 'खालिद मुजाहिद और कासमी की बाराबंकी में 22 दिसंबर, 2007 को हुई गिरफ्तारी संदिग्ध लगती है। इस गिरफ्तारी को लेकर दिए गए बयान व गवाहों पर विश्वास नहीं किया जा सकता।'
वास्तविकता क्या है? 22 दिसंबर, 2006 को दिल्ली क्त्राइम ब्रांच और आइबी ने हुजी कमांडर व डोडा, जम्मू-कश्मीर के निवासी मोहम्मद अमीन बानी को गिरफ्तार किया था। पूछताछ में बानी ने ही इन दोनों आतंकियों का खुलासा किया था। उसने बताया कि 28 नवंबर, 2006 को वह खालिद मुजाहिद से मिलने जौनपुर गया था, जहां उसकी मुलाकात आजमगढ़ के तारिक कासमी से हुई। दोनों ने कश्मीर में चल रहे आंदोलन में सक्त्रिय सहयोग के लिए हामी भरी थी। खालिद मुजाहिद तो 2004 से ही हुजी कमांडरों के संपर्क में था। हवाला के साढ़े चार लाख रुपयों के साथ गिरफ्तार बानी ने पूछताछ में बताया था कि इस रकम से हुजी के लिए असलहे व अन्य संसाधन जुटाने थे। उसने बताया कि जौनपुर निवासी मोहम्मद खालिद ने उल्फा के लोगों से असलहे खरीदने के लिए हुजी से रकम जुटाने को कहा था। बानी इसी रकम को लेने के लिए दिल्ली आया था। मोहम्मद खालिद मुजाहिद और तारिक कासमी की गिरफ्तारी से एक साल पूर्व ही खुद हुजी के कमांडर ने उनके आतंकी गतिविधियों में संलग्न होने का खुलासा कर दिया था। ऐसे में इन दोनों आतंकियों को बेगुनाह कैसे बताया जा रहा है?
जिन युवकों पर आतंकवाद में शामिल होने का आरोप है, उन्हें सेक्युलर दल न केवल अपनी ओर से 'क्लीन चिट' थमा रहे हैं, बल्कि भारत की न्यायिक व्यवस्था को दुनिया की नजरों में कलंकित करने का भी कुप्रयास कर रहे हैं। यह कैसी मानसिकता है? अभी कुछ समय पूर्व सेक्युलर दलों के नेताओं ने प्रधानमंत्री से मिलकर जेलों में बंद कथित निर्दोष मुसलमानों को रिहा करने की अपील की थी। इस देश की न्याय व्यवस्था को कलंकित करने का प्रयास करने वाले सेक्युलरिस्टों को अजमल कसाब का दृष्टांत सामने रखना चाहिए। ज्वलंत साक्ष्यों और सैकड़ों प्रत्यक्षदर्शियों की गवाही के बावजूद कसाब को दंडित करने में न्यायपालिका को चार साल लग गए। इस लंबी न्यायिक प्रक्त्रिया में कसाब को अपना पक्ष रखने का पर्याप्त अवसर भी दिया गया।
इस तरह की क्षुद्र राजनीति से जहां एक ओर आतंकवाद को प्रोत्साहन मिलता है वहीं सुरक्षा बलों का मनोबल भी टूटता है। वस्तुत: यह विकृत मानसिकता वोट बैंक की सेक्युलर राजनीति से प्रेरित है। इसी मानसिकता के कारण देश की संप्रभुता के प्रतीक संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु की फांसी की सजा लंबे समय तक अधर में लटकाए रखी गई। कश्मीर के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद ने पत्र लिखकर केंद्र सरकार को चेतावनी दी थी कि अफजल को फांसी देने से कानून एवं व्यवस्था बिगड़ने का खतरा है तो वर्तमान मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला घाटी में फिर से आतंकवाद के जिंदा होने की धमकी देते रहे। क्या सेक्युलर नेताओं का यह रवैया मुसलमानों के राष्ट्रप्रेम पर प्रश्न नहीं लगाता? क्या तथाकथित सेक्युलर दल यह मानकर चलते हैं कि भारत के साधारण मुसलमान की सहानुभूति भारत के साथ न होकर आतंकियों के साथ है? क्या यह धारणा भारत के आम मुसलमानों के साथ अन्याय नहीं है? कांग्रेसनीत संप्रग सरकार ने सत्ता में आते ही राजग सरकार द्वारा लागू पोटा को निरस्त कर दिया था। सेक्युलरवादियों का आरोप था कि सांप्रदायिक भाजपा ने मुसलमानों को प्रताड़ित करने के लिए पोटा जैसा कानून बनाया था। आतंकवाद से निपटने के लिए कड़े कानून नहीं होने का परिणाम है कि आज कश्मीर से कन्याकुमारी तक इस्लामी चरमपंथियों के हौसले बुलंद हैं। इस देश की जांच एजेंसियों या पुलिस पर मुस्लिम समाज के उत्पीड़न का आरोप समझ से परे है। न तो पुलिस और न ही सरकार ने आतंकवाद को लेकर मुस्लिम समुदाय को कठघरे में खड़ा किया है। अभी हाल में दिल्ली के बाटला हाउस मुठभेड़ में सेक्युलरिस्टों ने आतंकियों के हाथों शहीद हुए जवानों की अनदेखी कर इस मुठभेड़ को फर्जी साबित करने की कोशिश की थी। मुसलमानों को अपने समुदाय में छिपे उन भेड़ियों की तलाश करनी चाहिए जो दहशतगदरें को पनाह देते हैं। मुंबई पर इतना बड़ा आतंकी हमला हुआ, क्या वह सीमा पार कर अचानक घुस आए जिहादियों के द्वारा संभव था?
मुस्लिम कट्टरपंथियों के साथ कांग्रेस व उसके सेक्युलर संगियों का गठजोड़ नया नहीं है। शाहबानो से लेकर अब्दुल नसीर मदनी तक सेक्युलर विकृतियां सभ्य समाज के लिए गंभीर खतरा हैं। कोयंबटूर बम धमाके के आरोपी मदनी को पैरोल पर रिहा करने के लिए कांग्रेस और मा‌र्क्सवादियों ने होली की छुट्टी वाले दिन सदन का विशेष सत्र आयोजित कर सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया था। अभी मदनी कर्नाटक पुलिस की गिरफ्त में है। केरल में उसका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए कांग्रेस और मा‌र्क्सवादियों में होड़ लगी रहती है। आज यदि सेक्युलर दल आतंकवाद के आरोप में जेलों में बंद मुस्लिम युवाओं से सहानुभूति प्रकट कर रहे हैं तो आश्चर्य कैसा?
[लेखक बलबीर पुंज, राज्यसभा सदस्य हैं]

Sunday, September 15, 2013

गोवा में गोमांस की कमी से कांग्रेस-राकांपा नाराज

http://www.jagran.com/news/national-bjp-conspiracy-behind-goa-beef-shortage-say-ncp-congress-10376220.html
गोमांस की कमी को लेकर गोवा सरकार पर चर्च के हमले के बाद कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी [राकांपा] ने भी भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। विपक्ष का कहना है कि भाजपा ने अल्पसंख्यकों को सस्ता भोजन नहीं मिलने देने की साजिश रची है। राकांपा और कांग्रेस सदस्यों का दावा है कि सरकारी बूचड़खानों के खिलाफ बांबे हाई कोर्ट की गोवा पीठ में याचिका दायर करने वाला व्यक्ति भाजपा का कार्यकर्ता था। याचिका में सरकारी बूचड़खानों में अनियमितता का आरोप लगाया गया था। इसी के बाद गोवा में गोमांस की कमी शुरू हो गई।

साध्वी प्रज्ञा ठाकुर पर थर्ड डिग्री का इस्तेमाल हुआ: स्वामी अग्निवेश

http://www.jagran.com/news/national-pragya-thakur-subjected-to-third-degree-torture-swami-agnivesh-10365859.html
समाजसेवी स्वामी अग्निवेश ने आरोप लगाते हुए कहा है कि मालेगांव बम धमाकों में गिरफ्तार साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर पर जेल में थर्ड डिग्री का इस्तेमाल किया गया। जिससे उनके शरीर को क्षति पहुंची है, जबकि प्रज्ञा ठाकुर पहले से ही स्तन के कैंसर से पीड़ित हैं।

Saturday, April 27, 2013

पंथनिरपेक्षता का पाखंड

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-the-hypocrisy-of-secularism-10310065.html
नरेंद्र मोदी द्वारा इंडिया फ‌र्स्ट के रूप में सेक्युलरिज्म की नई परिभाषा देने से फिर एक विवाद पैदा हुआ और इस विवाद को बढ़ाने का काम जद (यू) नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की तीखी आलोचना कर किया। नरेंद्र मोदी पर नीतीश कुमार के हमलों से यह बहस तेज हो गई है कि आखिर सेक्युलरिज्म है क्या बला? राजनीति में जिस सेक्युलरिज्म की दुहाई दी जाती है वह दरअसल झूठी और विकृत पंथनिरपेक्षता से अधिक और कुछ नहीं। यह वोट बटोरने का एक जरिया मात्र है। सेक्युलरिज्म पर सारा विवाद और छींटाकशी इसलिए होती रहती है, क्योंकि हमारे देश में इसकी कोई आधिकारिक परिभाषा नहीं है। न संविधान में, न संसद में कानून बना कर, न सुप्रीम कोर्ट के किसी निर्णय में सेक्यूलरिज्म का कोई अर्थ बताया गया है। सबसे बुरी बात तो यह कि इसे पारिभाषित करने के प्रयास को भी बाधित किया जाता है! नेतागण, सुप्रीम कोर्ट और प्रभावी बुद्धिजीवी वर्ग सबने इसे अस्पष्ट रहने देने की सिफारिश की है। यह सामान्य बात नहीं, क्योंकि इसी के सहारे भारत में एक विशेष प्रकार की राजनीति का दबदबा बना है, जिसकी धार हिंदू विरोधी है और इसी को कवच बनाकर देश-विदेश की भारत-विरोधी शक्तियां भी अपना कारोबार करती हैं।
ध्यान देने पर यह किसी को भी दिख सकता है। यहां बौद्धिक विचार-विमर्श में हिंदू शब्द प्राय: केवल उपहास या गाली के रूप में इस्तेमाल हो रहा है। प्रसिद्ध पत्रकार तवलीन सिंह के अनुसार भारत में प्रचलित सेक्युलरिच्म हिंदू सभ्यता के विरुद्ध चुनौती बन गया है। भारतीय सभ्यता अपने उत्कर्ष पर हिंदू सभ्यता ही थी, जिसने संपूर्ण विश्व को गणित से लेकर दर्शन, धर्म और साहित्य तक हर क्षेत्र में अनमोल उपहार दिए, किंतु आज भारत में यह बात कहना हिंदू सांप्रदायिकता है। उसी तरह इंडिया फ‌र्स्ट कहने पर भी आपत्तिकी जा रही है। इन बातों का निहितार्थ बहुत गंभीर है। ऐसे प्रसंग हमारे देश के बौद्धिक वातावरण पर एक टिप्पणी है कि किस तरह एक विकृत मतवाद ने लोगों को इतना दिग्भ्रमित कर दिया है कि वे देखकर भी नहीं देख पाते। प्रसिद्ध इतिहासकार रमेश चंद्र मजूमदार ने 1965 में ही स्पष्ट देखा था किए इस देश में मुस्लिम संस्कृति और भारतीय संस्कृति की चर्चा की जा सकती है, मगर हिंदू संस्कृति की नहीं। हिंदू शब्द केवल नकारात्मक अथरें में प्रयोग किया जाता है। याद रहे, यह तब की बात है जब न राम-जन्मभूमि आंदोलन था, न विश्व हिंदू परिषद थी। मगर तब भी हिंदू शब्द का प्रयोग पोंगापंथी, सांप्रदायिक, फासिस्ट संदर्भ में ही होता था। चार दशक में आज वह विष भी बन गया जिससे पुस्तकों, पदों, संस्थानों को मुक्त करने का अभियान चलाना पड़ता है।
दुनिया के सबसे बड़े हिंदू देश में हिंदू-विरोध ही सेक्युलरिच्म की और बौद्धिकता की कसौटी बन गया है। इसी से संभव होता है कि एक समुदाय के मजहबी शिक्षा-संस्थानों को अनुदान मिले, जबकि दूसरे को अपनी औपचारिक शिक्षा में महान दार्शनिक ग्रंथों को पढ़ने की अनुमति भी न दी जाए। अपरिभाषित सेक्युलरिच्म के डंडे से ही हिंदू मंदिरों पर सरकारी कब्जा कर लिया जाता है। इतना ही नहीं कई बड़े मंदिरों की आमदनी से दूसरे समुदाय के धार्मिक कर्मकांडों को करोड़ों का अनुदान दिया जाता है। एक ही काम के लिए ईसाई कार्यकर्ता को पद्म भूषण दिया जाता है, जबकि हिंदू समाजसेवी को सांप्रदायिक कहकर लांछित किया जाता है। नितांत अप्रमाणित आरोप पर भी हिंदू धर्माचार्य गिरफ्तार कर अपमानित किए जाते हैं, जबकि दूसरे धमरें के धर्मगुरुओं को देशद्रोही बयान देने, संरक्षित पशुओं को अवैध रूप से अपने घर में लाकर बंद रखने पर भी छुआ तक नहीं जाता। उल्टे राजनीतिक निर्णयों में उन्हें विश्वास में लेकर उनकी शक्ति बढ़ा दी जाती है। भयंकर आतंकवादी को भी लादेनजी और अफजल साहब का सम्मानित संबोधन दिया जाता है, जबकि देश के सबसे बड़े योगाचार्य को ठग कहा जाता है। यदि सेक्युलरिच्म वैधानिक रूप से परिभाषित हो गया तो ये सभी मनमानियां नहीं की जा सकेंगी। इसकी अस्पष्टता का ही करिश्मा है कि शिक्षा, संस्कृति और राजनीति हर क्षेत्र में भारत में अन्य समुदायों को हिंदुओं से अधिक अधिकार मिले हुए हैं।
कहने को अभी देश में सेक्युलरिच्म की कम से कम चार परिभाषाएं हैं, यद्यपि कोई भी वास्तविक नहीं। अलग-अलग सेक्युलरवादी इच्छानुसार इनका उपयोग करते हैं। एक परिभाषा 1973 में न्यायाधीश एचआर खन्ना ने दी कि राच्य मजहब के आधार पर किसी नागरिक के विरुद्ध पक्षपात नहीं करेगा। कुछ वर्ष बाद दूसरी परिभाषा कांग्रेस पार्टी ने दी-सर्वधर्म समभाव। तीसरी परिभाषा भाजपा ने दी-न्याय सब को, तरजीह किसी को नहीं। चौथी परिभाषा नहीं एक टिप्पणी है। किंतु सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और मानवाधिकार आयोग के पूर्व अध्यक्ष एमएन वेंकटचलैया की होने के कारण इसका महत्व है। इसके अनुसार सेक्युलरिच्म का अर्थ बहुसंख्यक समुदाय के विरुद्ध नहीं हो सकता। यह टिप्पणी प्रकारांतर मानती है कि व्यवहार में इसका यही अर्थ हो गया है। यहां याद करना जरूरी है कि स्वयं संविधान निर्माता डॉ. अंबेडकर ने भारतीय संविधान को सेक्युलर नहीं माना था, क्योंकि यह विभिन्न समुदायों के बीच भेदभाव करता है।
कांग्रेस ने 1976 में इमरजेंसी के दौरान 42वां संशोधन करके संविधान की प्रस्तावना में सेक्युलर शब्द जबरन जोड़ दिया। बाद में आई जनता सरकार ने 1978 में 45वें संशोधन द्वारा कांग्रेस वाली परिभाषा को ही वैधानिक रूप देने की कोशिश की। लोकसभा में यह पारित भी हो गया। पर राच्यसभा में कांग्रेस ने ही इसे पारित नहीं होने दिया। यह इस बात का पक्का प्रमाण है कि संविधान की प्रस्तावना में सेक्युलर शब्द गर्हित उद्देश्य से जोड़ा गया था, इसीलिए उसे जानबूझकर अपरिभाषित रखा गया ताकि जब जैसे चाहे, दुरुपयोग किया जाए। इस अन्याय को सुप्रीम कोर्ट ने भी दूर नहीं किया। उसने एसआर बोम्मई बनाम भारत सरकार मामले के निर्णय में लिख दिया कि सेक्युलरिच्म एक लचीला शब्द है, जिसका अपरिभाषित रहना ही ठीक है। जबकि ऐसा कहना ही कानून की धारणा के विरुद्ध है। जिसे संविधान और शासन का आधारभूत सिद्धांत कहा जाता है उसे परिभाषित होने से रोकने का आधार क्या है? एक अर्थ पसंद नहीं तो दूसरा सही, पर कोई पक्का वैधानिक अर्थ तो होना ही चाहिए। इससे हीलाहवाली करने पर आम जनता को समझने में कठिनाई नहीं होगी कि सेक्युलरिच्म को अपरिभाषित रखना विभिन्न समुदायों के बीच दूरी और झगड़ा बनाए रखने का पक्का औजार है।
[लेखक एस. शंकर, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]

Tuesday, April 16, 2013

टोपी-टीका छाप पंथनिरपेक्षता

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-cap-mark-secularism-vaccine-10306939.html
देश में तमाम लोग ऐसे हैं जिन्हें यह लगता है कि प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी उपयुक्त उम्मीदवार नहीं हैं, लेकिन बहुत से लोग उन्हें इस पद के लिए श्रेष्ठ उम्मीदवार मान रहे हैं। यह पहले से स्पष्ट था कि नीतीश कुमार ऐसे लोगों में नहीं हैं। वह एक बार पहले भी नरेंद्र मोदी का नाम लिए बगैर उन्हें पीएम पद के लिए खारिज कर चुके हैं। तब उन्होंने एक साक्षात्कार के जरिये ऐसा किया था। अब सार्वजनिक भाषण के जरिये किया। पिछली बार की तरह इस बार भी उन्होंने मोदी का नाम नहीं लिया, लेकिन कम अक्ल लोग भी यह समझ गए होंगे कि उन्होंने मोदी के कपड़े-लत्तो उतारने की कोशिश की है। हालांकि वह मोदी का उपहास उड़ाए बगैर भी उन्हें पीएम पद के दावेदार के तौर पर खारिज कर सकते थे, लेकिन उन्होंने तो उनकी लानत-मलानत करते हुए उन्हें गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर भी असफल करार दिया। उन्हें केवल गुजरात का विकास ही रास नहीं आया, बल्कि वहां के लोगों की उद्यमशीलता और उसके समुद्री किनारे से भी परेशानी हुई। अब जद-यू के छोटे-बड़े नेता भले यह कहें कि देखिए, नीतीशजी ने किसी का नाम नहीं लिया, लेकिन कोई परम मूर्ख ही होगा जो यह कहेगा कि क्या वह गुजरात के मुख्यमंत्री की बात कर रहे थे, जिनका नाम नरेंद्र मोदी है? अगर गुजरात के लोगों में उद्यमशीलता है और वहां समंदर भी है तो इससे किसी को कोई शिकायत कैसे हो सकती है? आश्चर्यजनक रूप से नीतीश कुमार को है। उन्होंने गुजरात के विकास में कुछ खामियां भी खोज निकालीं। इसमें कोई बुराई नहीं। यह काम कोई भी आसानी से कर सकता है-ठीक वैसे ही जैसे बिहार के सुशासन में तमाम विसंगतियां गिनाई जा सकती हैं। कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि गुजरात में राम राज्य है और वहां हर तरफ खुशहाली छाई है। खुद मोदी ने भी कहा है कि अभी तो सिर्फ गढ्डे भरे जा सके हैं। नरेंद्र मोदी के आलोचक कुछ भी कहें, यह एक सच्चाई है कि गुजरात में विकास हुआ है। इसी तरह यह भी एक सच्चाई है कि नीतीश के शासन में बिहार की बदहाली दूर हुई है। जिस तरह मोदी के तौर-तरीकों से असहमत हुआ जा सकता है वैसे ही नीतीश कुमार की रीति-नीति से भी। यह स्वाभाविक है कि दोनों नेताओं में जब-तब तुलना भी होती है और उन्हें भावी प्रधानमंत्री के तौर पर भी देखा जाता है। यह भी स्पष्ट है कि नीतीश के मुकाबले कहीं अधिक लोग नरेंद्र मोदी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में देख रहे हैं। हालांकि नीतीश कुमार खुद को प्रधानमंत्री का दावेदार नहीं बताते, लेकिन उनके दल के तमाम नेता ऐसा ही कहते हैं। इस नतीजे पर पहुंचने के पर्याप्त कारण हैं कि नीतीश की परेशानी यह है कि उनके मुकाबले नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता कहीं अधिक बढ़ गई है। मामला तुम्हारी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफेद कैसे वाला लगता है। इसमें कुछ भी गलत नहीं कि नीतीश कुमार भी प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रखें। यह अधिकार हर राजनेता को है, लेकिन नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी की निंदा करके उन्हें नहीं पछाड़ सकते- इसलिए और भी नहीं, क्योंकि जब मोदी अपना अहंकार तजकर सहिष्णुता का परिचय दे रहे हैं तब नीतीश असहिष्णुता के साथ-साथ अहंकार का भी प्रदर्शन कर रहे हैं। वह मोदी और उनके बहाने भाजपा को तबसे अपमानित करते चले आ रहे हैं जब बिहार भाजपा ने दोनों नेताओं के हाथ मिलाते फोटो एक विज्ञापन में प्रकाशित करा दिए थे। तब उन्होंने भाजपा नेताओं का भोज रद कर दिया था। इस बार उन्होंने भाजपा नेताओं के साथ भोज कर मोदी को रद कर दिया।
नरेंद्र मोदी से नीतीश कुमार की परेशानी का दूसरा कारण बिहार का मुस्लिम वोट बैंक है। वह इससे चिंतित हैं कि मोदी को स्वीकार करने से उनका मुस्लिम वोट बैंक खिसक सकता है। आज की राजनीति में हर नेता को अपने वोट बैंक की चिंता करने का अधिकार है, लेकिन एक खास समुदाय के वोटों की परवाह करना पंथनिरपेक्षता नहीं है। नि:संदेह टोपी पहनना और टीका लगाना भी पंथनिरपेक्षता नहीं है। यह तो पंथनिरपेक्षता के नाम पर किया जाने वाला पाखंड है। अगर इस तरह के पाखंड को पंथनिरपेक्षता मान लिया जाएगा अथवा उसकी ऐसी सरल व्याख्या की जाएगी तो उसका और विकृत रूप सामने आना तय है। क्या नीतीश कुमार यह कहना चाहते हैं कि यदि मोदी मौलवी के हाथों टोपी पहन लेते तो वह उनकी नजर में पंथनिरपेक्ष हो जाते? पता नहीं वैसा होता तो नीतीश का नजरिया कैसा होता, लेकिन उन्हें उन सवालों का जवाब देना चाहिए कि जब वह वाजपेयी सरकार में रेलमंत्री थे तब उन्हें नरेंद्र मोदी क्यों स्वीकार थे?
अगर भाजपा को नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने का अधिकार है तो जदयू को उससे अलग होने का। यदि भाजपा-जदयू का नाता टूटता है, जिसके प्रबल आसार नजर आने लगे हैं तो इससे शायद ही किसी को हैरत हो, लेकिन अगर आम चुनाव टोपी-टीका छाप पंथनिरपेक्षता के आधार पर लड़े गए और विकास का मसला नेपथ्य में चला गया तो इससे देश का बेड़ा गर्क होना तय है। टोपी-टीका छाप पंथनिरपेक्षता को मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ने से विकास के साथ-साथ भ्रष्टाचार का मसला भी किनारे हो सकता है। अगर ऐसा होता है तो इससे सबसे ज्यादा खुशी कांग्रेस को होगी, जिसके नेतृत्व वाली केंद्रीय सत्ता भ्रष्टाचार के सारे रिकार्ड तोड़ने के बाद इस ताक में है कि कैसे विकास के मुद्दे को किनारे कर और सांप्रदायिकता का हौवा खड़ा करके अगले आम चुनाव लड़े जाएं। यह हैरत की बात है कि नरेंद्र मोदी और उनकी नीतियों के खिलाफ गर्जन-तर्जन करने वाले नीतीश कुमार ने केंद्रीय सत्ता के कुशासन के खिलाफ एक शब्द नहीं कहा। वह मोदी के प्रति कठोर हो सकते हैं, लेकिन आखिर भारत की सबसे भ्रष्ट सरकार के प्रति नरम कैसे हो सकते हैं?
[लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]

Tuesday, April 9, 2013

संजय दत्त से सहानुभूति तो प्रज्ञा, पुरोहित व असीमानंद से क्यों नहीं

http://www.jagran.com/news/national-sanjay-dutts-sympathisers-should-not-interfere-with-court-sentence-rss-10260868.html
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मुखपत्र 'ऑर्गेनाइजर' ने फिल्म अभिनेता संजय दत्त की सजा माफ करने की पैरवी कर रहे लोगों की जमकर आलोचना की है। इसने कहा है कि दत्त से सहानुभूति रखने वालों को अदालत की सजा में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

पाकिस्तानी हिंदुओं को शरणार्थी का दर्जा नहीं: भारत

http://www.livehindustan.com/news/videsh/indiaabroad/article1-story-2-7-318797.html
पाकिस्तान में धार्मिक उत्पीड़न का शिकार होने वाले हिंदुओं को भारत द्वारा शरणार्थी का दर्जा देने से इनकार किए जाने पर अमेरिका स्थित हिंदू अमेरिकी संस्था (एचएएफ) ने कल निराशा जाहिर की।

Sunday, March 17, 2013

मानवाधिकार समर्थकों का सच

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-human-rights-advocates-true-10223897.html

जानी-मानी लेखिका मधु किश्वर ने हाल ही में कहा था कि दुनिया में कहीं भी मानवाधिकार समुदाय इतना समझौतापरस्त और दलीय नहीं है जितना भारत में। भारत के मानवाधिकारवादियों का देश के लोगों से कोई सरोकार नहीं है। उन्हें तो अपने अमेरिकी आकाओं की परवाह है, जहां से पैसा मिलता है। वस्तुत: मानवाधिकार आंदोलन का अपहरण हो चुका है। विविध प्रकार के समूहों ने प्रचार व प्रपंच के सहारे मानवाधिकार का अर्थ ही बदल डाला है। यह सामान्य तथ्य है कि नक्सलियों द्वारा किए जाते अपहरण, फिरौती, हत्याओं पर मानवाधिकारी मौन रहते हैं। मानव वे भी हैं जिनका अपहरण, हत्या होती है, किंतु उनकी निरी उपेक्षा क्या बताती है? उलटे मानवाधिकारी जमात जिहादियों और अलगाववादियों की प्रचारात्मक मदद करती हैं। मानवाअधिकार सिद्धांत और व्यवहार में अपराधी-अधिकार में बदल चुका है। जब भी आतंकवादी हमले होते हैं और निर्दोष जानें जाती हैं, मानवाधिकारों के पैरोकार मौन रहते हैं, किंतु जैसे ही सुरक्षाकर्मियों के हाथों किसी आतंकवादी या संदिग्ध की मृत्यु होती है वे आसमान सिर पर उठा लेते हैं। पहले कहा जाता है कि मृतक निर्दोष था, पर जब किसी मृतक का आतंकवादी, अपराधी होना प्रमाणित भी रहता है जैसे बटला हाउस मुठभेड़ या सोहराबुद्दीन मामले में हुआ तब भी पुलिस पर ही लांछन लगाया जाता है। यानी मानवाधिकार का व्यावहारिक अर्थ हो जाता है-अपराधियों को हर हाल में प्रश्रय और पुलिस पर हर हाल में प्रहार। मुंबई आतंकवादी हमले में पकड़े गए अजमल कसाब के खान-पान और स्वास्थ्य की चिंता, अपहरण दर अपहरण कर रहे माओवादियों पर चुप्पी और अब अफजल गुरु के अवशेष और परिवार को सम्मान देने की चिंता भी वही चीज है।
दूसरी ओर आतंकवादियों से लड़ने वाले सिपाहियों, सैनिकों का पक्ष रखने कम ही लोग आते हैं। जब कहीं आतंकवाद प्रबल होता है तो वहां मीडिया, राजनीतिक दल, न्यायाधीश डरे रहते हैं, किंतु जब आतंकवाद पराजित होता है तब उन कार्रवाइयों में शामिल पुलिस अधिकारियों के पीछे वही मीडिया, न्यायपालक और दल हाथ धोकर पड़ जाते हैं। यह सब मानवाधिकार के नाम पर होता है। 16 वर्ष पहले तरनतारन के पूर्व-पुलिस अधीक्षक अजीत सिंह संधू ने आत्महत्या कर ली थी। तरनतारन एक समय आतंकवाद का भयानक गढ़ था। वहां आतंकवादियों से मुठभेड़ में कई बार संधू ने निर्भीक अगुवाई की थी। भिंडरावाले टाइगर फोर्स के कुख्यात आतंकवादियों से छुटकारा दिलाया था। ऐसे अधिकारी को बाद में यह चिट लिखकर आत्महत्या करनी पड़ी कि ऐसी जलालत की जिंदगी से मर जाना अच्छा है! संधू पर मानवाधिकार उल्लंघन के 43 मामले चल रहे थे। 1989 से 1997 तक एक भी अपराध प्रमाणित नहीं हुआ था, किंतु महीनों से उनका हर दिन कोर्ट का चक्कर लगाते बीतता था।
पंजाब या कश्मीर के आतंकवाद ने 1962, 1965 या 1971 के युद्धों से अधिक जानें ली हैं, इसलिए आतंकवाद को सामान्य अपराध समझना और आतंकवादियों व उनके सहयोगियों को नागरिक कानूनों की सुरक्षा देना आत्मघाती भूल है। उनके पैरोकारों की कथनी-करनी से भी स्पष्ट है कि वे भारत-विखंडन की राजनीति में लगे हैं। उनके लिए यही मानवाधिकार है! सैनिकों को जिस राष्ट्रीय झंडे के सम्मान के लिए जान देने के लिए तैयार किया जाता है उसी को अरुंधती राय 'कपड़े का टुकड़ा' कहती हैं 'जो मुदरें को ढकने के काम आता है।' इस प्रकार, मानवाधिकार देश की रक्षा करने वाली सेना का मजाक उड़ाने और इस प्रकार देश को तोड़ने की पैरोकारी का नाम हो जाता है। आतंकवाद से लड़ना अघोषित युद्ध है। उससे हिचकिचाते हुए लड़ने का अर्थ है पराजय को आमंत्रण देना। हमारे मानवाधिकारवादी इसी काम में लगे हैं। यह संयोग नहीं कि सुरक्षा बलों के हाथों हुई ऊंच-नीच पर जो लोग आसमान सिर पर उठा लेते हैं वे कभी जिहादियों या नक्सलवादियों की हिंसा पर मुंह नहीं खोलते। लश्करे-तैयबा, हिज्बुल-मुजाहिदीन, जैशे-मुहम्मद, पीपुल्स-वार, एमसीसी, इंडियन मुजाहिदीन जैसे संगठनों ने घोषित रूप से हजारों निर्दोष, निहत्थे लोगों को मारा है, किंतु उन हत्याओं पर मानवाधिकारवादी न कभी प्रदर्शनी लगाता है, न गोष्ठी करता है, न गुहार लगाता है। इसीलिए सुरक्षा बलों की कथित ज्यादतियों पर आरोपों की झड़ी कभी खत्म नहीं होती। जम्मू-कश्मीर सरकार ने जनवरी 1992 से सितंबर 1996 के बीच सुरक्षा बलों के विरुद्ध ऐसी कुल 2600 शिकायतों की जांच की थी। उसने पाया कि उनमें 2288 मामले निराधार थे।
अवकाश प्राप्त ले. जनरल बीटी पंडित के खिलाफ उस दौरान कुल 184 रिट याचिकाएं दायर की गई थीं। डेढ़ साल बाद उनके रिटायरमेंट तक उनमें से 175 याचिकाओं को हाई कोर्ट ने निराधार पाया था। इनमें से अधिकांश मुकदमे सुरक्षा बलों का मनोबल तोड़ने के लिए ही किए गए थे। आज भी वही हो रहा है। झूठे आरोपों, उनसे उपजे मुकदमों के जंजाल से सुरक्षाकर्मियों की भी तो रक्षा होनी चाहिए! नहीं तो विदेशी धन और भारत-विरोधी भावना से चलने वाले संगठन और मानवाधिकारवादी देश का मनोबल तोड़ कर रख देंगे। मानवाधिकारवादी जिहादियों, नक्सलियों को दूसरे मनुष्यों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण और विशेषाधिकारी बताते हैं। ऐसे मानवाधिकारियों की शब्दावली और प्रस्ताव वही होते हैं जो उन्हें अनुदान देने वाली विदेशी संस्थाओं के हैं। अफजल-कसाब प्रसंगों के बाद हमारे मानवाधिकारवादियों की असलियत स्पष्ट हो जानी चाहिए थी। भारत के विरुद्ध युद्ध छेड़ने वालों का बचाव करना ही उनका मुख्य काम है। इन्होंने मानवाधिकारी मुकदमेबाजी को ऐसी कला में बदल लिया है जो आतंकवादियों को प्रोत्साहित करती है।
[लेखक एस. शंकर, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]

Sunday, February 24, 2013

रामसेतु हिंदू धर्म का आवश्यक अंग नहीं

http://www.jagran.com/news/national-wont-tolerate-any-tampering-with-ram-setu-bjp-10160538.html
सेतु समुद्रम परियोजना पर केंद्र सरकार ने एक बार फिर पलटी खाई है। उसने इस मसले पर गठित आरके पचौरी समिति की रपट को खारिज करते हुए कहा है कि वह इस परियोजना का काम आगे बढ़ाना चाहती है। उसने तर्क दिया है कि इस परियोजना पर आठ सौ करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं और ऐसे में काम बंद करने का कोई मतलब नहीं। सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हलफनामे में सरकार ने यह भी कहा है कि रामसेतु हिंदू धर्म का आवश्यक अंग नहीं। इस परियोजना के तहत रामसेतु कहे जाने वाले एडम ब्रिज को तोड़कर जहाजों के आने-जाने का रास्ता तैयार करना है। भाजपा ने सरकार के ताजा रुख की कठोर आलोचना करते हुए कहा है कि रामसेतु से कोई छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं की जाएगी।

सेक्युलर तंत्र पर सवाल

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-questions-on-secular-system-10133330.html

भारतीय संसद पर 13 दिसंबर, 2001 को हुए आतंकी हमले की साजिश में शामिल अफजल गुरु को फांसी दिए जाने के बाद कश्मीर घाटी में हिंसा और विरोध प्रदर्शन क्या रेखांकित करता है? क्या भारत की अस्मिता और लोकतंत्र के प्रतीक पर आक्रमण करने का षड्यंत्र रचने वाले आतंकी के मानवाधिकार की चिंता होनी चाहिए? क्या निरपराधों की जान लेने वाले आतंकी की सजा माफ होने योग्य थी? कश्मीर घाटी में चार दिनों का शोक मनाने का निर्णय इस बात की पुष्टि करता है कि इस देश में ऐसे जिहादी तत्व भी हैं जिनका शरीर भारत में भले हो, किंतु उनका मन और आत्मा पाकिस्तान की जिहादी संस्कृति के साथ है। ऐसे ही लोगों के सहयोग से पाकिस्तान भारत को रक्तरंजित करने के अपने एजेंडे में कामयाब हो रहा है।
संसद पर हमले की साजिश पाकिस्तान पोषित लश्करे-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद द्वारा रची गई थी। जांच में जम्मू-कश्मीर के बारामूला में रहने वाले मेडिकल छात्र अफजल का नाम स्थानीय साजिशकर्ता के रूप में सामने आया। 2002 में विशेष अदालत ने अफजल को फांसी की सजा सुनाई थी, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपनी मुहर लगा दी थी। उसके बाद से ही मानवाधिकारवादी संगठन और सेक्युलर दल अफजल की सजा माफ करने की मांग कर रहे थे। अफजल की पत्‍‌नी ने भी राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका भेजकर उसे माफ करने की गुहार लगाई थी। मुंबई में हुए आतंकी हमले में जिंदा पकड़े गए अजमल कसाब को फांसी दिए जाने के बाद अब अफजल को फांसी दे दी गई है, किंतु सारा घटनाक्रम कुछ गंभीर सवाल खड़े करता है। अदालत का निर्णय होने के बाद सजा देने में इतना लंबा विलंब क्यों? क्या यह वोट बैंक की राजनीति का अंग है?
जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन मुख्यमंत्री और अभी केंद्र में मंत्री गुलाम नबी आजाद ने पत्र लिखकर केंद्र सरकार से अफजल की सजा माफ करने की अपील की थी। क्यों वर्तमान मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को भय है कि अफजल की फांसी से जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद एक बार फिर जिंदा हो जाएगा और राज्य व केंद्र दोनों के लिए संकट खड़ा करेगा? इसका क्या अर्थ निकाला जाए? अभी हाल ही में दिल्ली में जघन्य दुष्कर्म कांड हुआ। कल को इस कांड के आरोपियों के समर्थन में धरना-प्रदर्शन व हिंसा होने लगे तो क्या उनकी सजा लंबित कर दी जाए या उन्हें सजा से मुक्त कर दिया जाए? इस आधार पर तो जिस गुनहगार की जितनी साम‌र्थ्य होगी वह उतनी ही हिंसा और उपद्रव मचाकर सरकार को झुकने को मजबूर कर सकता है। ऐसे अराजक माहौल में कानून का राज और देश की सुरक्षा कैसे संभव है?
दिल्ली उच्च न्यायालय के बाहर 7 दिसंबर, 2011 को हुए बम धमाके की जिम्मेदारी लेते हुए 'हरकत-उल-जिहाद अल-इस्लामी' नामक जिहादी संगठन ने मेल भेजकर यह धमकी दी थी कि अफजल की सजा माफ नहीं की गई तो ऐसे ही कई और बम धमाके होंगे। भारत को रक्तरंजित करने में जुटे पाक पोषित जिहादियों का मनोबल यदि बढ़ा है तो उसके लिए कांग्रेसनीत सत्ता अधिष्ठान की नीतियां जिम्मेदार हैं।
भारत में सेक्युलरवाद इस्लामी चरमपंथ को पोषित करने का पर्याय है। इस अवसरवादी कुत्सित मानसिकता के कारण ही असम में स्थानीय बोडो नागरिकों की पहचान व मान-सम्मान अवैध बांग्लादेशियों के हाथों रौंदा जा रहा है तो मुंबई में बांग्लादेशी और रोहयांग मुसलमानों के समर्थन में रैली निकाली जाती है। पाकिस्तानी झंडा लहराया जाता है और शहीद जवानों की स्मृति में बनाए गए अमर जवान च्योति को तोड़ा जाता है। सेक्युलर सत्तातंत्र द्वारा मिलने वाले मानव‌र्द्धन का ही परिणाम है कि आतंकवादी मेल भेजकर पूरे देश को लहूलुहान करने की धमकी देते हैं। हैदराबाद में एक विधायक भड़काऊ भाषण देता है और उपस्थित हजारों की भीड़ मजहबी जुनून में राष्ट्रविरोधी नारे लगाती है, किंतु ऐसी घटनाओं पर सेक्युलर तंत्र खामोश रहता है। बहुसंख्यकों को पंथनिरपेक्षता, बहुलतावाद और प्रजातंत्र का पाठ पढ़ाने वाले स्वयंभू मानवाधिकारी चुप्पी साधे रहते हैं। क्यों?
स्वयंभू मानवाधिकारियों का आरोप है कि अफजल को न्याय नहीं मिला, उसके साथ जांच एजेंसियों ने नाइंसाफी की। वामपंथी विचारधारा से प्रेरित लेखिका अरुंधती राय ने पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिख-लिख कर भारतीय कानून एवं व्यवस्था और जांच एजेंसियों को कठघरे में खड़ा किया। जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री रह चुकीं महबूबा मुफ्ती एक कदम आगे हैं। पाकिस्तान की जेल में एक भारतीय नागरिक सरबजीत गलत पहचान के कारण बंद है। भारत सरकार ने उसे रिहा करने की अपील की है। महबूबा ने अफजल की तुलना सरबजीत से करते हुए केंद्र सरकार को दोहरे मापदंड नहीं अपनाने की नसीहत दे डाली थी। इन दिनों आतंकी मामलों में जेल में बंद युवा मुसलमानों को रिहा करने को लेकर सेक्युलर दलों में बड़ी बेचैनी है। हाल ही में सेक्युलर दलों के कुनबे ने प्रधानमंत्री से मिलकर इस मामले में दखल देने की अपील की थी। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने विधानसभा चुनाव के दौरान ऐसे बंदियों को रिहा करने का वादा भी किया था। सत्ता मिलने पर सपा ने आरोपियों को रिहा करने की कवायद भी शुरू कर दी थी, किंतु अदालत ने राच्य सरकार को कड़ी फटकार लगाई।
भारत पर मुसलमानों के साथ भेदभाव व उनके शोषण का आरोप समझ से परे है। पुख्ता सुबूतों और जीती-जागती तस्वीरों में कैद अजमल कसाब को मुंबई में निरपराधों की लाशें बिछाते पकड़ा गया, किंतु उसे भी पूरी निष्पक्ष न्यायिक प्रक्त्रिया के बाद ही फांसी की सजा दी गई। इस देश में अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों की कीमत पर बराबरी से अधिक अधिकार और संसाधन उपलब्ध कराए जा रहे हैं। उनके लिए अलग से आरक्षण की बात हो रही है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला अधिकार बताते हैं। ऐसे में भेदभाव बरते जाने का आरोप निराधार है। इस देश के मुसलमान पिछड़े हैं तो इसके लिए सेक्युलर दल ही जिम्मेदार हैं, जो वोट बैंक की राजनीति के कारण उनकी मध्यकालीन मानसिकता को संरक्षण प्रदान करते हैं। अफजल को फांसी देने में हुई देरी इस कुत्सित राजनीति को ही रेखांकित करती है।
[लेखक बलबीर पुंज, राच्यसभा सदस्य हैं]

संघ की छवि के साथ खिलवाड़

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-messing-with-the-image-of-the-union-10105285.html

केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे का यह वक्तव्य कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं भारतीय जनता पार्टी के प्रशिक्षण शिविरों में आतंकवाद फैलाने का प्रशिक्षण दिया जाता है, इन दोनों संगठनों को जानने और इनके शिविरों में प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले लोगों के लिए अत्यंत आघातकारी है। गत लगभग 60 सालों से मेरा संबंध संघ से रहा है और मैंने सैकड़ों प्रशिक्षण शिविरों में भाग लिया है। मैं दावे के साथ कहता हूं कि कभी किसी भी स्तर पर आतंकवाद की रत्ती भर आशंका नजर नहीं आई। एक समय था जब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू संघ को जड़-मूल से समाप्त करने की बात करते रहे, किंतु वह भी संघ की राष्ट्रनिष्ठा से इतना अधिक प्रभावित थे कि 1963 में गणतंत्र दिवस पर उन्होंने संघ के स्वयंसेवकों की परेड देखी। उन्होंने विभिन्न राष्ट्र-हित के मुद्दों पर चर्चा करने के लिए सरसंघचालक गोलवलकर के साथ कम से कम तीन मुलाकातें तथा पत्राचार किए थे। संघ का कथित आतंकवाद कभी कोई मुद्दा रहा ही नहीं। तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने पंडित नेहरू को स्पष्ट शब्दों में लिखा था कि गांधीजी की ह्त्या में संघ का हाथ नहीं। ताशकंद जाने के पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने गोलवलकरजी से चर्चा की थी। उनके समय में भी संघ का कथित आतंकवाद कभी कोई मुद्दा रहा ही नहीं। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निकट सहयोगी द्वारका प्रसाद मिश्र एवं संघ के वरिष्ठ प्रचारक दत्ताोपंत ठेंगड़ी के बीच अच्छे संबंध तभी से थे जब द्वारका प्रसाद मिश्र मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे।
कांग्रेस के एक अन्य प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव और सरसंघचालक रच्जू भैया के बीच मधुर संबंध थे और वे दोनों राष्ट्रहित के अनेक मुद्दों पर आपस में बातचीत किया करते थे। तब भी किसी ने संघ को आतंकवाद से नहीं जोड़ा। गांधीजी, मदनमोहन मालवीय एवं जयप्रकाश नारायण ने खुलकर संघ की प्रशंसा की थी। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल अनेक भूमिगत कांग्रेस नेताओं को संघ के लोगों ने अपने घरों में शरण दी थी। देश के प्रसिद्ध राष्ट्रवादी नेता आरिफ मोहम्मद खान 2004 के लोकसभा चुनाव अभियान में संघ, भाजपा तथा गोलवलकरजी की प्रशंसा करते देखे-सुने गए थे। वह यह सिद्ध करते थे कि संघ और भाजपा दरअसल मुसलमानों के सच्चे दोस्त हैं। सरसंघचालक केसी सुदर्शन की प्रेरणा से राष्ट्रवादी मुस्लिम मंच का गठन हुआ था, जो देश में सामाजिक समरसता स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
यह हास्यास्पद है कि कुछ लोग गृहमंत्री के उस वक्तव्य को विचार प्रकट करने के उनके संविधान प्रदत्त अधिकार से जोड़कर उनको क्लीन चिट दे रहे हैं। ऐसे लोग भूल जाते हैं कि शिंदे कोई साधारण नागरिक नहीं, बल्कि देश के गृहमंत्री हैं। यदि उनकी निगाह में संघ और भाजपा आतंकवादी संगठन हैं तो उन्हें अपने कर्तव्य का पालन करते हुए अविलंब इन दोनों संगठनों पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए। पता नहीं वह किस रिपोर्ट के आधार पर यह दावा कर रहे हैं कि उनके पास संघ और भाजपा के प्रशिक्षण शिविरों में आतंकवाद की ट्रेनिंग दिए?जाने के प्रमाण हैं। अगर ऐसे कोई प्रमाण वास्तव में उनके पास हैं तो उन्हें कोरी बयानबाजी करने के स्थान पर संघ और भाजपा के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए। भले ही चौतरफा घिरने के बाद शिंदे यह कह रहे हों कि उनके बयान को गलत रूप में पेश किया गया, लेकिन हर कोई यह समझ रहा है कि वह वोट बैंक की राजनीति कर रहे हैं। एक अन्य विचित्र दलील भी अक्सर सुनने को मिलती रहती है और वह यह कि भाजपा सांप्रदायिक दल है, क्योंकि उसमें नरेंद्र मोदी सरीखे नेता हैं, जिन पर गुजरात दंगों का दाग लगा हुआ है। इसीलिए यदि भाजपा के नेतृत्व वाले राजग ने मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए आगे किया तो नीतीश कुमार का दल जनता दल यूनाइटेड राजग से संबंध विच्छेद कर लेगा। ऐसी स्थिति में उनकी पार्टी सहित देश के सारे तथाकथित सेक्युलर दल कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन से मिल जाएंगे। क्या कांग्रेस वाकई सेक्युलर है? जरा कुछ तथ्यों पर निगाह डालें। 1984 के दंगों में 3000 सिखों की हत्या हुई थी, तब केंद्र में कांग्रेस की ही सरकार थी। सिख विरोधी दंगों के संदर्भ में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सार्वजनिक रूप से टिप्पणी की थी कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तब धरती हिलती ही है। 1948 में हैदराबाद में बड़े पैमाने पर मुसलमानों की हत्याएं हुईं। सुंदरलाल समिति ने उस कत्लेआम पर जो जांच रिपोर्ट नेहरू सरकार को दी थी वह आज तक प्रकाशित नहीं की गई। वह रिपोर्ट आज भी ठंडे बस्ते में पड़ी है और कांग्रेस की सेक्युलरिच्म की नीति पर हंस रही है। यह भी विचित्र है कि सेक्युलरिच्म के सिलसिले में बड़ी-बड़ी बातें करने वाले देश के प्रमुख इतिहासकार और पत्रकार गुजरात के अलावा अन्य स्थानों पर हुए दंगों पर मौन रहना ही बेहतर समझते हैं। अपने देश में साहित्यकार और पत्रकार भले ही हैदराबाद में हुए? कत्लेआम पर मौन रहे हों, लेकिन स्काटलैंड में जन्मे साहित्यकार विलियम डैरिम्पिल ने अपनी एक पुस्तक में सुंदरलाल समिति के तथ्यों को सबके सामने ला दिया था। यह सेक्युलरिच्म के नाम पर अपनाए जाने वाले दोहरे आचरण का ही उदाहरण है कि दंगों के मामले में भाजपा को घेरने वाले राजनीतिक दल और कथित सेक्युलर बौद्धिक वर्ग कांग्रेस अथवा अन्य दलों के शासनकाल में हुईं सांप्रदायिक दंगों की घटनाओं पर कुछ नहीं बोलता।
[लेखक डॉ.बलराम मिश्र, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]

राजनीति का निम्नतम स्तर

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-lowest-level-of-politics-10081251.html

केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे द्वारा भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर आतंकी प्रशिक्षण शिविर चलाने का आरोप लगाने से सबसे ज्यादा हानि किसकी हुई है? अधिकांश भारतवासी जहां एक तरफ भाजपा और संघ के राष्ट्रवादी चरित्र से परिचित हैं, वहीं शिंदे के रिकॉर्ड के कारण उन्हें गंभीरता से नहीं लेते। शिंदे के इस गैर जिम्मेदार बयान का कुप्रभाव सबसे अधिक भारत पर पड़ेगा। पाकिस्तान हमेशा यह दावा करता रहा है कि उसके यहां होने वाली आतंकी गतिविधियों को न तो सरकार और न ही सेना का समर्थन प्राप्त है। उसका कुतर्क यह भी है कि वह भी दूसरे देशों की तरह आतंकवाद से पीड़ित है। अब पाकिस्तान भारत के गृहमंत्री के बयान को अंतरराष्ट्रीय मंचों से उठाकर यह साबित करना चाहेगा कि आतंकवाद को प्रोत्साहन देने के लिए यदि कोई कसूरवार है तो वह भारत है। भारत अब तक कहता आया है कि यहां आतंकवाद सीमा पार से आता है, शिंदे के बयान के बाद दुनिया की नजरों में भारत की जहां हास्यास्पद स्थिति हो गई है, वहीं पाकिस्तान के हाथ मजबूत हुए हैं।
कांग्रेस वोट बैंक की राजनीति के कारण हिंदू आतंक का हौवा खड़ा करना चाहती है, जिसके कारण अंतत: पाकिस्तान और पाक पोषित आतंकी संगठनों का मनोबल बढ़ रहा है। भारत के बहुलतावादी ताने-बाने को ध्वस्त करने के लिए एक गहरी साजिश रची जा रही है। मुंबई पर हमला करने आए आतंकियों के हाथों में कलावा बंधा होना व माथे पर तिलक होना और हमले के पूर्व से कांग्रेसी नेताओं की ओर से 'भगवा आतंक' का हौवा खड़ा करना क्या महज संयोग हो सकता है? मुंबई हमलों में महाराष्ट्र आतंक निरोधी दस्ते के प्रमुख हेमंत करकरे की मौत के बाद कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने यह दावा किया था कि करकरे ने फोन पर बात कर उनसे हिंदूवादी संगठनों से अपनी जान का खतरा बताया था और अब शिंदे द्वारा 'हिंदू आतंकवाद' का रहस्योद्घाटन कांग्रेस की वोट बैंक की राजनीति के निम्नतम स्तर पर उतर आने का ही संकेत करता है। सारा घटनाक्त्रम एक गहरी साजिश का परिणाम है। शिंदे ने न केवल समग्र रूप से हिंदू समाज को अपमानित किया है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय जगत में सहिष्णु व बहुलतावादी भारत की छवि बिगाड़ने का काम भी किया है। सच्चाई यह है कि मालेगांव और समझौता एक्सप्रेस में हुए बम धमाकों के बाद से ही वोट बैंक की राजनीति करने वाली कांग्रेस ने तथ्यों को दबाते हुए 'भगवा आतंक', जो अब 'हिंदू आतंक' में बदल चुका है, का हौवा खड़ा करना शुरू कर दिया। सरकारी मशीनरियों के दुरुपयोग से जो मनगढ़ंत कहानी खड़ी की गई है, तथ्य व साक्ष्य उसकी पुष्टि नहीं करते।
एक जुलाई, 2009 को अमेरिकी ट्रेजरी डिपार्टमेंट ने चार लोगों के संबंध में एक प्रेस नोट जारी किया था। इनमें कराची आधारित लश्करे-तैयबा के आतंकी आरिफ कासमानी का उल्लेख है। उस रिपोर्ट के आधार पर एक अंग्रेजी पत्रिका के 4 जुलाई, 2009 के अंक में रक्षा विशेषज्ञ बी. रमन का लेख प्रकाशित हुआ था। उस लेख से कांग्रेस की घृणित साजिश का पर्दाफाश होता है। उक्त रिपोर्ट के अंश यहां उद्घृत हैं, 'आरिफ कासमानी अन्य आतंकी संगठनों के साथ लश्करे तैयबा का मुख्य समन्वयकर्ता है और उसने लश्कर की आतंकी गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कासमानी ने लश्कर के साथ मिलकर आतंकी घटनाओं को अंजाम दिया, जिनमें जुलाई, 2006 में मुंबई और फरवरी, 2007 में पानीपत में समझौता एक्सप्रेस में हुए बम धमाके शामिल हैं। सन 2005 में लश्कर की ओर से कासमानी ने धन उगाहने का काम किया और भारत के कुख्यात अपराधी दाऊद इब्राहीम से जुटाए गए धन का उपयोग जुलाई, 2006 में मुंबई की ट्रेनों में बम धमाकों में किया। कासमानी ने अलकायदा को भी वित्तीय व अन्य मदद दी। कासमानी के सहयोग के लिए अलकायदा ने 2006 और 2007 के बम धमाकों के लिए आतंकी उपलब्ध कराए।' संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका द्वारा लश्कर और कासमानी को प्रतिबंधित करने के छह महीने बाद पाकिस्तान के आंतरिक मंत्री रहमान मलिक ने स्वयं यह स्वीकार किया था कि समझौता बम धमाकों में पाकिस्तानी आतंकियों का हाथ था, किंतु अपने यहां वोट बैंक की राजनीति के कारण जो कांग्रेसी साजिश चल रही थी उसका ताना-बाना सीमा पार भी बुना गया। रहमान ने अपने उपरोक्त कथन में कहा, 'लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित ने कुछ पाकिस्तान स्थित आतंकियों का इस्तेमाल समझौता एक्सप्रेस में बम धमाका करने के लिए किया।'
समझौता एक्सप्रेस में हुए बम धमाकों में जुटी जांच एजेंसियों ने भी पहले इसके लिए सिमी और लश्कर को जिम्मेदार ठहराया था। सिमी के महासचिव सफदर नागौरी, उसके भाई कमरुद्दीन नागौरी और अमिल परवेज का बेंगलूर में अप्रैल, 2007 में नारको टेस्ट हुआ। उसमें पाया गया कि पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठन की मदद से सिमी ने बम धमाकों को अंजाम दिया है और सिमी के एहतेशाम सिद्दीकी व नसीर को मुख्य कसूरवार बताया गया। हाल ही में अमेरिकी अदालत ने मुंबई हमलों के दौरान छह अमेरिकी नागरिकों की हत्या के लिए डेविड हेडली को पैंतीस साल की सजा सुनाई है। हेडली ने मुंबई समेत भारत के कई ठिकानों की रेकी थी। अमेरिका के खोजी पत्रकार सेबेस्टियन रोटेला ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि हेडली की तीसरी पत्नी फैजा ओतल्हा ने 2008 में ही यह कबूल कर लिया था कि समझौता बम धमाकों में हेडली का हाथ है।
स्वाभाविक प्रश्न है कि इतने साक्ष्यों के होते हुए भी सरकार समझौता एक्सप्रेस बम धमाकों के लिए हिंदू संगठनों को कसूरवार साबित करने पर क्यों तुली है? मालेगांव धमाकों में भी सिमी की संलिप्तता सामने आने के बावजूद सत्ता अधिष्ठान साधु-संतों को कसूरवार बताने के लिए बलतंत्र के बूते साक्ष्यों को दबाने पर तुला है। मालेगांव बम धमाकों को लेकर कर्नल पुरोहित और उनके सहयोगियों के खिलाफ अदालत में जो आरोप पत्र पेश किया गया है उसमें कहा गया है कि आरोपी आइएसआइ से धन लेने के कारण संघ प्रमुख मोहन भागवत और संघ प्रचारक इंद्रेश कुमार की हत्या की योजना बना रहे थे। यदि कथित हिंदू आतंकी संघ प्रमुख की हत्या करना चाहते थे तो फिर संघ पर आतंकी प्रशिक्षण शिविर चलाने का आरोप कैसे लगाया जा सकता है? शिंदे को अपने कहे की समझ भी है? मुंबई हमलों की साजिश में पाकिस्तानी सेना और जमात उद दवा की संलिप्तता के पुख्ता प्रमाण अमेरिकी जांच एजेंसी के पास है, किंतु कांग्रेस 'हिंदू आतंकवाद' का हौवा खड़ा कर रही है। क्यों? ऐसा करने के लिए किसका दबाव है या इस काम का पारितोषिक उसे क्या मिला है? क्या सरकार वोट बैंक की राजनीति के लिए असली गुनहगारों को बचाना चाहती है?
[लेखक बलबीर पुंज, राच्यसभा के सदस्य हैं]