Tuesday, March 18, 2008

हिंसक राजनीतिक दर्शन

कन्नूर हिंसा के लिए माकपा कार्यकर्ताओं को दोषी ठहरा रहे हैं बलबीर पुंज

केरल का कन्नूर जिला मा‌र्क्सवाद हिंसा से सुलग रहा है। कन्नूर भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना स्थली है, जिसे मा‌र्क्सवादी गर्व से भारत का लेनिनग्राद कहते हैं। कन्नूर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य 1943 में प्रारंभ हुआ और तब से ही माकपा का दुर्ग माने जाने वाले इस क्षेत्र में हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों के कार्यकर्ताओं पर माकपाई हिंसा जारी है। संघ की बढ़ती साख से घबराए मा‌र्क्सवादियों ने 1969 में एक संघ कार्यकर्ता की बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी थी। 1994 में पेशे से शिक्षक और संघ के कार्यकर्ता 35 वर्षीय जयकृष्णन को कन्नूर के एक स्कूल में विद्यार्थियों से भरी कक्षा में काट कर मार डाला गया था। वे छात्र शायद ही उम्र भर उस वीभत्स कांड को भूल पाएंगे। पिछले चालीस सालों में 250 से अधिक लोग माकपाई हिंसा में मारे गए हैं। सैकड़ों जीवन भर के लिए विकलांग कर दिए गए। बर्बरता ऐसी कि मृतकों या घायलों के चित्र मात्र देख आत्मा सिहर उठे। कन्नूर से त्रिशूर और कोट्टयम से तिरुअनंतपुरम तक संघ, भारतीय जनता पार्टी, विहिप, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ आदि हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों के कार्यकर्ता मा‌र्क्सवादी गुंडों के निशाने पर हैं। इसके विरोध में जब हाल में माकपा के दिल्ली स्थित मुख्यालय पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने के लिए भाजपा कार्यकर्ता एकत्रित हुए तो उन पर मुख्यालय के अंदर से पथराव किया गया। बर्बर हिंसा के बल पर अपना वर्चस्व कायम करने के अभ्यस्त मा‌र्क्सवादी कन्नूर हिंसा पर खेद प्रकट करने की जगह संसद में भी सीनाजोरी कर रहे हैं। संसद में हंगामा खड़ा कर वे कन्नूर की हिंसा को छिपाने की कोशिश में लगे हैं। उनका यह पैंतरा नया नहीं है। अभी कुछ समय पूर्व ही पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में सरकार समíथत जिस तरह मा‌र्क्सवादी कामरेडों द्वारा बड़े पैमाने पर हिंसा की गई थी उसे भी देश और मीडिया की नजरों से छिपाने की पूरी कोशिश की गई थी। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल ने तब इस हिंसा की कड़ी आलोचना करते हुए सरकार को कठघरे में खड़ा किया था। केरल के हिंसाग्रस्त कन्नूर जिले की असली तस्वीर क्या है, यह केरल उच्च न्यायालय के न्यायाधीश वी. कुमार की टिप्पणी से स्पष्ट है। उन्होंने कहा है, सरकार और पुलिस के समर्थन से की गई यह हिंसा दिल दहलाने वाली है। उन्होंने पुलिस की भूमिका पर टिप्पणी करते हुए कहा, पुलिस का नया चेहरा देखने को मिला, वह एक पार्टी विशेष के नौकर की तरह काम कर रही है..हिंसा रोकने का एकमात्र विकल्प कन्नूर को केंद्रीय सुरक्षा बलों के हवाले करना है। व्यवस्थातंत्र पर मा‌र्क्सवादी कार्यकर्ताओं के शिकंजे का यह अपवाद नहीं है। सत्तर के दशक में पश्चिम बंगाल की कांग्रेस-कम्युनिस्टों की मिली-जुली सरकार में शामिल मा‌र्क्सवादियों ने अपनी कार्यसूची और भूमि सुधार कानूनों को लागू करने के लिए बड़े पैमाने पर राज्यवार हिंसा का दौर चलाया था। प्रशासन और पुलिस का राजनीतिकरण करने के कारण 1977 में मा‌र्क्सवादियों को अपना वर्चस्व कायम करने में बड़ी मदद मिली। इस मा‌र्क्सवादी हिंसा के विरोध में तब कांग्रेसी मुख्यमंत्री अजय मुखर्जी अपनी ही सरकार के खिलाफ धरने पर बैठे थे। यह स्थापित सत्य है कि जो भी व्यक्ति या संगठन मा‌र्क्सवादी विचारों से सहमत नहीं होते उन्हें मा‌र्क्सवादी सहन नहीं कर पाते। दिल्ली में माकपा का एक चेहरा है तो पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में अलग। नंदीग्राम की हिंसा बताती है कि अपने विरोधियों से निपटने के लिए मा‌र्क्सवादी किस हद तक जा सकते हैं। साठ के दशक से पूर्व और उसके बाद सत्ता हथियाने के लिए कम्युनिस्टों ने हिंसा का किस तरह सहारा लिया, यह सर्वविदित है। तीस के दशक में छिटपुट हिंसा की घटनाओं के साथ ये देश भर में आंदोलन खड़ा करने में क्षणिक रूप से सफल हुए थे, किंतु कांग्रेस प्रमुख राजनीतिक पार्टी बनी रही और मजदूर संघों में राष्ट्रवादी ताकतों का वर्चस्व रहा। 40 के दशक में कम्युनिस्टों को सुनहरा अवसर मिला। ब्रितानियों के खिलाफ राष्ट्रवाद के उफान के दमन पर वे ब्रितानियों के संग हो लिए। बड़े पैमाने पर राष्ट्रवादी नेता जेल में कैद थे। इससे कम्युनिस्टों को भारतीय राजनीति, खासकर मजदूर संघों में सेंधमारी करने का उपयुक्त अवसर मिला। 1964 में कम्युनिस्ट आंदोलन के कुछ वैचारिक प्रश्नों पर हुए वाद-विवाद में पी. सुंदरय्या, एके गोपालन, हरिकिशन सिंह सुरजीत आदि कम्युनिस्ट नेताओं ने लिखा था, हमारे देश में शांति के पथ को अपरिहार्य बताना अपने आप को और दूसरों को धोखा देना है। 1964 का यह दस्तावेज, जो माओ की हिंसक क्रांति पर आधारित था, वास्तव में अंतत: सीपीआई के उद्भव का आधार बना। तब से लेकर आज तक मा‌र्क्सवाद का यह घटक लोकतांत्रिक प्रक्रिया में आने के बावजूद लगातार अपनी गतिविधियों से यह प्रमाणित करता रहा है कि विरोधी स्वर को दबाने के लिए वह हिंसा के किसी भी स्तर तक उतर सकता है। हिंसा और दमन का विरोध करने वाले केरल के केआर गौरी और पश्चिम बंगाल के मोहित सेन जैसे कामरेडों को इसीलिए धक्के मार निकाल बाहर किया गया था। पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में कम्युनिस्टों का जो प्रभाव है वह उनकी हिंसा की राजनीति के बल पर ही स्थापित हुआ है। कन्नूर मा‌र्क्सवादियों के वर्चस्व वाले उत्तरी मालाबार का मुख्यालय है। नंदीग्रामवासियों की तरह मालाबार के लोग भी अब मा‌र्क्सवाद के विरोध में मुखर हो उठे हैं। कथित मा‌र्क्सवादी शहीदों के नाम पर जनता से धन उगाही, आतंकवाद को समर्थन, छिटपुट व्यापार से लेकर भवन निर्माण तक में मा‌र्क्सवादी पार्टी की तानाशाही, नागरिकों से आय के हिस्से से पार्टी के लिए चंदे की वसूली, रोजगार में माकपा कार्यकर्ताओं को प्राथमिकता जैसे दमन व शोषण के अनगिनत कार्यो के खिलाफ मालाबार की जनता अब उठ खड़ी हुई है। मा‌र्क्सवादी विचारधारा के खिलाफ आम आदमी का यह विद्रोह मा‌र्क्सवादियों के लिए असहनीय है। वस्तुत: राष्ट्रवादी विचारधारा से कोसों की दूरी होने के कारण भारतीय जनमानस में मा‌र्क्सवाद अपनी पैठ नहीं बना पाया है। इसीलिए मा‌र्क्सवादी अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए हिंसा का सहारा लेते है। उन्हें पता है कि वर्ग-संघर्ष की दुकानदारी भारत में नहीं चल सकती। साम्यवाद दुनिया भर से सिमटता जा रहा है। ऐसे में मा‌र्क्सवादियों को अपने अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा राष्ट्रवादी ताकतों से लगता है। आश्चर्य नहीं कि भाजपा और संघ परिवार मा‌र्क्सवादियों के निशाने पर रहते हैं। यह सही है कि हिंसा के बदले हिंसा भारतीय परंपरा की पहचान नहीं है, किंतु अनवरत हिंसा का प्रतिकार क्या हो सकता है? हिंसा? अंततोगत्वा सभ्य समाज को ही भारत की बहुलतावादी परंपरा की रक्षा के लिए मा‌र्क्सवादियों की हिंसा के खिलाफ गोलबंद होना होगा। कन्नूर की ये दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं मा‌र्क्सवादी विचारधारा में कोई अपवाद नहीं है। कम्युनिस्टों को हिंसा के माध्यम से अपनी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के दमन और प्रताडि़त करने का विश्वव्यापी अनुभव है। सोवियत संघ से लेकर, कम्युनिस्ट चीन, कंबोडिया, क्यूबा में करोड़ों निर्दोषों की हत्या कम्युनिस्टों के रक्तरंजित इतिहास में दर्ज हैं। यदि कन्नूर में फैली इस हिंसा को समाप्त नहीं किया गया तो यह कालांतर में दावानल बन सकता है। (दैनिक जागरण , १८ मार्च २००८ )

Saturday, March 15, 2008

आस्था पर अनगिनत हमले

श्रीराम और भारतीय संस्कृति के अपमान के पीछे सोची-समझी रणनीति देख रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित

राष्ट्रीय आपदा की घड़ी है। भारतीय संस्कृति, इतिहास और आस्था पर हमलों की बाढ़ है। हिंदू आहत हैं। कांग्रेस और मा‌र्क्सवादी समूह श्रीराम को काव्य कल्पना मानते हैं। केंद्र ने रामसेतु मसले पर अपने हलफनामे में उन्हें कल्पना बताया था। गजब का राष्ट्रीय प्रतिकार हुआ। हलफनामा वापसी का ऐलान हुआ। केंद्र ने नया हलफनामा बनाया। नए हलफनामे में भी श्रीराम के अस्तित्व पर प्रश्नवाचक चिह्न है। केंद्र सरकार के खास घटक द्रमुक के प्रमुख श्रीराम को गाली दे चुके हैं। श्रीराम इतिहास हैं, सच्चाई हैं, राष्ट्र-जीवन की श्रद्धा हैं। चीन के लिऊ ताओत्स किंग में श्रीराम हैं। थाई देश की रामकियेन, इंडोनेशिया की ककविन,लाओस की फालाम और पोम्मचाक जैसी प्रतिष्ठित रचनाएं श्रीराम की अंतरराष्ट्रीय साक्ष्य हैं। बावजूद इसके दिल्ली विश्वविद्यालय की बीए द्वितीय वर्ष की किताब कल्चर इन एंशिऐंट इंडिया में राम, सीता और हनुमान पर असभ्य टिप्पणियां हैं। उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले से एक संस्था द्वारा जारी भड़काऊ सीडी में श्रीराम को हत्यारा दिखाया जा रहा है। आस्था के धारावाहिक अपमानों से हिंदू गुस्से में हैं। असुरक्षा बोध भी बढ़ा है। संस्कृति ही राष्ट्र की प्राण ऊर्जा होती है। डा.अंबेडकर ने संस्कृति को ही भारतीय एकता का प्रमुख तत्व बताया था। राममनोहर लोहिया ने श्रीराम को उत्तर-दक्षिण एकता का देवता बताया। उन्होंने कहा कि राम की पूर्णता मर्यादित व्यक्तित्व में है। उन जैसा मर्यादित व्यक्तित्व कहीं और नहीं-न इतिहास में, न कल्पना में। लोहिया ने चित्रकूट में रामायण मेला लगवाया और कहा कि राम, रामायण और तुलसी का महत्व हमारे सांस्कृतिक जीवन में सर्वोपरि है। महात्मा गांधी ने भारत के लिए राम राज्य का प्रतीक चुना था। दुनिया में ढेर सारी राजनीतिक प्रणालियां हैं। तमाम तरह के संविधान हैं, लेकिन राम राज्य तो बस एक ही था। राम भारत के मन की अभीप्सा हैं। वाल्मीकि ने रामायण में श्रीराम के गुण बताए, वे नित्य प्रशांत हैं, स्थितप्रज्ञ हैं, मृदुभाषी-प्रियंवद हैं। क्रोध पर विजयी हैं। दिक्-काल के ज्ञाता हैं। वे अर्थशास्त्री हैं। वे लोकसंग्रही हैं, दुष्टों के निग्रही भी हैं। वे सर्वलोकप्रिय हैं। काल उनके पीछे चलता था। दिल्ली विश्वविद्यालय की किताब को लेकर जबर्दस्त प्रदर्शन हुए। सरकारी हलफनामे और रामसेतु को लेकर भी राष्ट्रीय उत्ताप है। सच्ची रामायण के प्रश्न पर उत्तर प्रदेश विधानसभा में संपूर्ण विपक्ष ने एक स्वर से विरोध किया। राम विरोधी ऐसी सभी घटनाओं के पीछे वोट की राजनीति है। सच्ची रामायण के लेखक रामास्वामी नायकर पहले कांग्रेसी थे। कांग्रेस में मनचाही प्रतिष्ठा नहीं मिली। उन्होंने द्रविण कड़गम का रास्ता पकड़ा। निशाना बने श्रीराम। श्रीराम की मूर्तियों को अपमानित किया गया। करुणानिधि ने श्रीराम को पियक्कड़ कहा। संप्रग ने उनसे पूछताछ नहीं की। श्रीराम का चित्र संविधान की मूल प्रति पर भी है। भारत का लोकजीवन सीता को माता कहता है। दिल्ली विश्वविद्यालय की किताब के अनुसार रावण और लक्ष्मण ने सीता से दु‌र्व्यवहार किया। सीडी में भी श्रीराम का अपमानजनक चित्रण है। सहिष्णुता की भी एक मर्यादा रेखा होती है। डेनमार्क में छपे कार्टून पर भारत में आग लग गई। तसलीमा नसरीन के सहज लेखन पर हिंसा हो गई। अल्पसंख्यक संप्रदाय की आस्था ही यहां की सरकारों के लिए आस्था है। बहुसंख्यक संप्रदाय की आस्था के साथ खिलवाड़ जारी है। श्रीराम और भारतीय संस्कृति के अपमान के पीछे एक सोची-समझी अंतरराष्ट्रीय रणनीति है। ईसाई साम्राज्यवाद और इस्लामी विस्तारवाद भारत की हिंदू संख्या घटाना चाहते हैं। ईसाई मिशनरियां लंबे अर्से से हिंदुत्व को कमतर और ईसाइयत को श्रेष्ठतम बता रही हैं। इस्लामी विस्तारवाद भारत की हिंदू बहुसंख्या से निबटने में असफल रहा। भारत को इस्लामी मुल्क बनाना उनका पुराना ख्वाब है, लेकिन भारतीय संस्कृति, राम, कृष्ण और शिव जैसे सम्मोहक चरित्र और प्रखर हिंदुत्ववादी चेतना दोनों के मार्ग में बाधा है। संप्रग सरकार के चार बरस ऐसी अंतरराष्ट्रीय ताकतों के लिए मुफीद रहे। अंतरराष्ट्रीय ईसाई-इस्लामी ताकतों ने भारत को विशेष सहूलियत वाला क्षेत्र पाया। भारतीय अर्थव्यवस्था के इतिहास में पहली दफा बजट भी सांप्रदायिक हो गया। मुस्लिम बहुल इलाकों में बिजली, हिंदू बहुल गांव में अंधाकुप। क्या राम के अपमान वाली किताब का संयोजन प्रधानमंत्री की पुत्री डा. उपदिंर सिंह ने यों ही किया? यह सब कुछ भारत विरोधी अंतरराष्ट्रीय रणनीति का हिस्सा है। भारत सारी दुनिया की आंख की किरकिरी है। भारतीय राष्ट्र भाव का मूल स्त्रोत सतत जिज्ञासा, विज्ञान और दर्शन है। आस्था और विज्ञान का ऐसा समन्वय दुनिया के किसी दर्शन में नहीं पाया जाता। भारतीय संस्कृति और आस्था को हिलाकर ही ईसाइयत/इस्लाम का वर्चस्व बढ़ाया जा सकता है। श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन ने भारतीय राष्ट्र-भाव को आसमान तक पहुंचाया था। राम भारत का मन हैं, सत्य हैं, सौंदर्य हैं और लोककल्याण का बिंब, प्रतिबिंब हैं। राम और राष्ट्रीयत्व तथा राष्ट्रीयत्व और हिंदुत्व पर्यायवाची हैं। सो श्रीराम ही सबका निशाना हैं। भारत प्राचीन काल से जनतंत्री है, पंथनिरपेक्ष भी है। भारत की छद्म सेकुलर राजनीति घोर सांप्रदायिक है। हिंदू आस्थाओं का अपमान और ईसाई, इस्लामी आस्थाओं का सम्मान सभी गैर भाजपा दलों का मुख्य एजेंडा है। हिंदुत्व को सांप्रदायिक और कट्टरपंथी अलगाववाद को राष्ट्रीयत्व बताया जा रहा है। श्रीराम को गाली देकर क्या मिलेगा? श्रीराम से प्रेरित होना, प्रेरणा लेना, तद्नुसार संयम और मर्यादा वाला राष्ट्रजीवन गढ़ना आधुनिक भारत का कर्तव्य है। आस्था का सम्मान विश्व सभ्यता की न्यूनतम शर्त है। ध्यान रहे कि आस्था तर्क से नहीं चलती। आस्था की जड़ें इतिहास में हैं। आस्था जांचती है, परखती है। द्वंद्व, प्रतिद्वंद्व चलते हैं। करोड़ों तर्क चलते हैं, तब कोई व्यक्ति मर्यादा पुरुषोत्तम बनता है। (लेखक उप्र सरकार के पूर्व मंत्री हैं), दैनिक जागरण , March 14, Friday , 2008



Wednesday, March 12, 2008

तसलीमा बनाम मकबूल

इन दोनों व्यक्तियों के जरिये सेकुलर खेमे की विकृत सोच उजागर कर रहे हैं बलबीर पुंज

आमी बाड़ी जाबो, आमी बाड़ी जेते चाई, कोलकाता से वामपंथी सरकार द्वारा निकाल बाहर किए जाने के बाद से ही पश्चिम बंगाल लौटने की लगातार गुहार लगा रहीं बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा नसरीन इन पंक्तियों के लिखते समय अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान चिकित्सा केंद्र में अपना उपचार करा रही हैं। मानसिक यंत्रणा से जूझ रही तसलीमा को देश निकाले की धमकी और चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन को महिमामंडित करने का क्या अर्थ है? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर भारत माता और हिंदू देवी-देवताओं के अपमानजनक चित्र बनाने वाले को भारत रत्न से सम्मानित करने की मांग का क्या औचित्य है? आखिर तसलीमा का अपराध क्या है कि उन्हें जान की सुरक्षा और रहने के ठिकाने की चिंता के साये में जीवन गुजारना पड़ रहा है? हिंदू भावनाओं को आघात पहुंचाने के कारण अदालती कार्रवाइयों से बचने के लिए विदेश में छिपे मकबूल के पक्ष में तो सारे सेकुलरिस्ट खड़े हैं, किंतु तसलीमा को शरण दिए जाने पर वही खेमा आपे से बाहर क्यों है? तसलीमा और मकबूल के प्रति जो दोहरा रवैया अपनाया जा रहा है वह वस्तुत: पंथनिरपेक्षता के विकृत पक्ष को ही उजागर करता है। बांग्लादेश के अल्पसंख्यक हिंदुओं पर वहां के बहुसंख्यक मुसलमानों द्वारा किए गए अत्याचार पर आधारित तसलीमा की पुस्तक लज्जा के प्रकाशन के बाद बांग्लादेश सरकार ने उन्हें देश छोड़ने का फरमान जारी किया। उसके बाद से ही वह निर्वासित जिंदगी गुजार रही हैं। कुछ समय से तसलीमा ने भारत में शरण ले रखी है। लंबे समय से वह भारत सरकार से भारतीय नागरिकता प्रदान करने की गुहार कर रही हैं। भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1955 के खंड 6 के अंतर्गत ऐसे व्यक्ति को भारतीय नागरिकता के योग्य बताया गया है, जिसने विज्ञान, दर्शन, कला, साहित्य, विश्व शांति और मानव कल्याण के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान दिया हो। संवैधानिक पंथनिरपेक्षता के संदर्भ में तसलीमा के विचारों को कई पश्चिमी देश सम्मान भाव से देखते हैं, किंतु सेकुलर भारत उन्हें तिरस्कार का पात्र समझता है। क्यों? तसलीमा नसरीन की पुस्तक लज्जा सेकुलर भारत के लिए सचमुच लज्जा की बात साबित हो रही है। 1993 में लिखी इस पुस्तक ने मानवीय संवेदनाओं को झकझोर दिया था। उन्हें बांग्लादेशी कठमुल्लों के फतवे से जान बचाकर देश छोड़ भागना पड़ा। 1971 में बांग्लादेश को एक पंथनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में मुक्त कराया गया था, किंतु सच यह है कि वह आज इस्लामी जेहादियों का दूसरा सबसे बड़ा गढ़ है। 1988 में उसने पंथनिरपेक्षता को तिलांजलि दे खुद को इस्लामी राष्ट्र घोषित कर लिया। बांग्लादेश में तसलीमा का दमन आश्चर्य की बात नहीं, किंतु पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक भारत की क्या मजबूरी है? सेकुलरवाद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर मकबूल का समर्थन करने वाले सेकुलरिस्ट और कम्युनिस्ट तसलीमा का विरोध क्यों कर रहे हैं? क्या सेकुलरवाद हिंदू मान्यताओं और प्रतीकों को कलंकित करने का साधन है? क्या ऐसा इसलिए कि हिंदुओं में प्रतिरोध करने की क्षमता कम है या वे आवेश में आकर विवेक का त्याग नहीं करते? पैगंबर साहब का अपमानजनक कार्टून बनाने वाले के खिलाफ सड़क से लेकर संसद तक निंदा करने वाले सेकुलरिस्ट मकबूल के मामले में क्यों मौन रह जाते हैं? किसी भी मजहब की आस्था पर आघात करना यदि उचित नहीं है तो हिंदुओं की आस्था पर आघात करने वाले कलाकारों-संगठनों को संरक्षण किस तर्क पर दिया जाता है? मकबूल फिदा हुसैन के जीवन को कोई खतरा नहीं है। संपूर्ण सेकुलर सत्ता अधिष्ठान उनके स्वागत में तत्पर है। सेकुलरिस्ट उन्हें भारत रत्न से सम्मानित करने की मांग करते हैं, जामिया मिलिया विश्वविद्यालय उन्हें पीएचडी की उपाधि से सम्मानित करता है और इस अवसर पर केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह उपस्थित रहते हैं। न्यायपालिका की विश्वसनीयता और प्रामाणिकता अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित है। संसद पर हमला करने के आरोप में एहसान गुरु का बरी होना इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। यदि मकबूल को अपने देश की न्यायपालिका पर विश्वास है और अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति को न्यायोचित ठहराने की क्षमता है तो उन्हें भारत आकर अदालत में अपना पक्ष रखना चाहिए। किंतु मदर टेरेसा, मरियम, अपनी मां-बेटी को वस्त्राभूषण के साथ सम्मानजनक ढंग से चित्रित करने और हिंदू देवी-देवताओं को अपमानजनक और नग्न चित्रित करने वाले मकबूल आखिर किस तर्क पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का लाभ उठा पाएंगे? संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(अ) द्वारा नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी गई है, किंतु इसमें कुछ निषेध भी हैं। जनहित में मर्यादा और सदाचरण की रक्षा के लिए सरकार इस पर प्रतिबंध भी लगा सकती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग करते हुए समाज के किसी वर्ग की आस्था, उसकी धार्मिक भावनाओं को आहत करने, सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाने के आरोप में भारतीय दंड विधान की धारा 153 ए के अंतर्गत सजा का प्रावधान भी है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग करने का जो तर्क तसलीमा पर लागू होता है वह मकबूल पर लागू क्यों नहीं होता? तसलीमा को देश से निकालने पर आमादा सेकुलरिस्ट उसी आरोप में मकबूल को यहां की कानून-व्यवस्था के दायरे में लाने की मांग क्यों नहीं करते? वस्तुत: तसलीमा के भारत में रहने से सेकुलरिस्टों को दो तरह के डर ज्यादा सताते हैं। एक तो उन्हें यह डर है कि उनका थोक वोट बैंक (मुसलमान मतदाता) उनसे बिदक जाएगा और दूसरा, चूंकि मुसलमानों के कट्टरवादी वर्ग में हिंसात्मक प्रतिक्रिया करने की क्षमता ज्यादा है, इसलिए स्वाभाविक रूप से उनकी ब्लैकमेलिंग ताकत भी ज्यादा है। पश्चिम बंगाल में इस वर्ष पंचायत चुनाव होने हैं। नंदीग्राम हिंसा को लेकर जिस तरह जमायते हिंद के बैनर तले मुसलमानों ने वर्तमान वाममोर्चा सरकार के खिलाफ सड़कों पर उग्र आंदोलन किया उससे माकपाइयों का घबराना स्वाभाविक है। इस आक्रोश को दबाने के लिए ही तसलीमा नसरीन को पश्चिम बंगाल से निकाला गया और अब उन्हें देश छोड़कर जाने के लिए मजबूर किया जा रहा है। भारत ने शरणार्थियों को शरण देने में कभी कंजूसी नहीं की। पारसी आए, हमने गले लगाया। केरल के तट पर व्यापारी रूप में इस्लाम के अनुयायी आए तो हमने उन्हें मोपला (स्थानीय भाषा में दामाद) कहकर सम्मानित किया। हालांकि इसका पारितोषिक हमें मोपला दंगों के रूप में मिला, किंतु हमारे आतिथ्य संस्कार में कमी नहीं आई। यहूदी हमारी बहुलावादी संस्कृति व सर्वधर्मसमभाव के सबसे बड़े साक्षी हैं। शेष दुनिया में जब उनका उत्पीड़न हो रहा था तब हमने उन्हें शरण दी। दलाई लामा भारत की इस परंपरा को कैसे भूल सकते हैं? उन्हें शरण देने के कारण जब-तब चीन के साथ हमारे संबंध कटु हो उठते हैं, किंतु क्या हमने कभी उन्हें निकालने की बात भी सोची? यदि कम्युनिस्टों के दबाव में संप्रग सरकार तसलीमा को देश से निकालती है तो यह न केवल भारतीय परंपराओं के प्रतिकूल होगा, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय पंथनिरपेक्षता की विकृति को भी रेखांकित करेगा। (लेखक भाजपा के राष्ट्रीय सचिव हैं) , दैनिक जागरण, February 5, Tuesday, 2008

दमन पर शर्मनाक मौन


मलेशिया में हिंदुओं के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ भारत सरकार की चुप्पी पर निराशा जता रहे हैं प्रकाश सिंह

मलेशिया में भारतीय मूल के हिंदुओं का जिस तरह दमन हो रहा है वह बड़े खेद का विषय है। उससे भी अधिक शर्म की बात यह है कि भारत की करीब सभी पार्टियों ने इस विषय पर मौन साध रखा है। भारत सरकार तक ने मलेशिया में भारतीय मूल के हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों के सामने आंख पर जैसे पट्टी बांध ली है। लगता है कि भारतीयों और विशेष तौर पर बहुसंख्यक समुदाय को कहीं भी अपमानित किया जा सकता है। अतीत में तालिबान ने अफगानिस्तान से हिंदुओं को खदेड़ा। बांग्लादेश में हिंदुओं पर अत्याचार हुए। इससे पहले युगांडा और फिजी में भारतीय मूल के लोगों के साथ अन्याय की कहानी इतिहास के पन्नों में लिखी जा चुकी है। उसी क्रम में अब मलेशिया का नाम जोड़ा जा सकता है। वास्तविकता यह है कि मलेशिया में भारतीय मूल के लोगों में काफी समय से असंतोष की चिंगारी भड़क रही थी। ये भारतीय ब्रिटिश हूकूमत के दौरान वहां काम के लिए भेजे गए थे। इनमें लगभग 70 प्रतिशत तमिल श्रमिक थे। बाद में कुछ संपन्न तमिल भी गए, जिन्होंने व्यापार में अपनी पहचान बनाई। फिर भी आर्थिक दृष्टि से भारतीय मूल के लोगों के साथ मलेशिया में भेदभाव किया जाता रहा है। राजनीतिक दृष्टि से भी उनका कोई वजन नहीं है। 1957 में राजकीय सेवाओं में उनका प्रतिनिधित्व करीब 40 प्रतिशत था। यह 2005 तक गिरकर मात्र 2 प्रतिशत रह गया। 1980 के बाद मलेशिया में कट्टरपंथियों की पकड़ बराबर बढ़ती गई। मलेशिया में हिंदू मंदिरों को ध्वस्त करने की प्रक्रिया कई वर्षो से चली आ रही थी। दलील यह दी जाती है कि ये मंदिर सरकारी या प्राइवेट जमीन पर बने हैं, इसलिए इनका गिराया जाना आवश्यक है, पर तथ्य यह है कि जो मंदिर गिराए गए वे वर्षों से बने थे। कुछ तो सौ वर्षो से भी अधिक पुराने थे। करीब 150 मंदिर अब तक धराशायी किए जा चुके हैं। यह नीति मस्जिदों पर नहीं लागू की जाती। पिछली 30 अक्टूबर को जावा के पुराने महामरीअम्मन मंदिर को ध्वस्त किया गया। इससे स्थानीय हिंदुओं में भयंकर रोष हुआ। तत्पश्चात हिंदू राइट्स एक्शन फोर्स (हिंड्राफ), जो मलेशिया के हिंदू संगठनों का एक समूह है, ने तय किया कि एक रैली निकाली जाएगी। पुलिस ने प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी, फिर भी करीब बीस हजार व्यक्ति क्वालालंपुर में पेट्रोनास टावर के पास एकत्र हुए। वे महात्मा गांधी का पोस्टर लेकर चल रहे थे-यह दिखाने के लिए कि वे अहिंसा में विश्वास करते हैं। पुलिस सख्ती से पेश आई। आंसू गैस व पानी की धार से उन्हें तितर-बितर किया गया। प्रदर्शनकारियों के नेताओं को हिरासत में लिया गया। हिंड्राफ के पांच प्रमुख नेताओं को आंतरिक सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत गिरफ्तार किया जा चुका है। इस अधिनियम के अंतर्गत किसी व्यक्ति को दो साल तक बिना मुकदमा चलाए जेल में रखा जा सकता है। इन नेताओं के विरुद्ध देशद्रोह का आरोप है। पुलिस कार्रवाई का समर्थन करते हुए मलेशिया के प्रधानमंत्री ने कहा कि वह स्वतंत्रता को अहमियत देते हैं, पर शांति व्यवस्था बनाए रखना उससे भी ज्यादा जरूरी है। मलेशिया की पुलिस ने हिंदू नेताओं पर श्रीलंका के लिट्टे से भी गठबंधन का आरोप लगाया है। इसका हिंदू नेताओं ने कड़े शब्दों में खंडन किया है। स्पष्ट है कि पुलिस ने हिंदू प्रदर्शनकारियों के विरुद्ध आतंकवाद का झूठा आरोप इसलिए लगाया है ताकि उनकी करने कार्रवाई को बल मिल सके। सच यह है कि मलेशिया में भारतीयों ने राजनीतिक, आर्थिक, मजहबी भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाई थी। मंदिरों के लगातार तोड़े जाने से उनकी भावनाओं को बहुत ठेस पहुंची थी, कई मंदिरों से तो उन्हें मूर्तियां भी नहींउठाने दिया और उन्हें तोड़ दिया गया। भारतीयों के पास सड़क पर उतरकर अपना विरोध प्रकट करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था, परंतु मलेशिया सरकार ने इस लोकतांत्रिक विरोध का दमन किया। मानवाधिकारों के उल्लंघन का नंगा नाच हुआ। भारत सरकार ने शुरू में तो कुछ ऐसे बयान दिए जिससे लगा कि वह भारतीय मूल के लोगों के हितों की रक्षा करेगी, पर जब मलेशिया सरकार ने कहा कि यह उनका आंतरिक मामला है और खासतौर पर जब भारतीयों पर आतंकवाद का आरोप लगाया गया तब हमारे नेता पीछे हट गए। सरकार में बैठे लोगों ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि भारतीयों पर लगे आरोपों में कितनी सच्चाई है? अन्य पार्टियों का मौन भी समझ से बाहर है। भाजपा अपनी अंर्तकलह से शायद इतनी परेशान है कि उसे इस विषय पर सोचने का समय ही नहीं मिला। विश्व हिंदू परिषद को तो जैसे लकवा मार गया है। शंकराचार्य सोए हुए हैं। धर्मगुरुओं ने भी इस मुद्दे पर कुछ कहना आवश्यक नहीं समझा। मानवाधिकार संगठन तो तभी उत्तेजित होते हैं जब अल्पसंख्यकों या आतंकवादियों के मानवाधिकारों की बात आती है। यह संतोषजनक होने के साथ-साथ भारत के लिए शर्म की बात है कि ब्रिटेन और अमेरिका में भारतीय मूल के हिंदुओं ने मलेशिया में हो रहे अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाई है। ब्रिटेन में लेबर फ्रेंड्स आफ इंडिया के चेयरमैन स्टीफेन पाउंड और विभिन्न पार्टियों के सांसदों ने ब्रिटिश सरकार से अनुरोध किया है कि वह मलेशिया सरकार पर मंदिरों को न तोड़ने के लिए दबाव डाले। अमेरिका के इंटरनेशनल रिलिजस फ्रीडम से संबंधित कमीशन ने राष्ट्रपति बुश को लिखकर कहा है कि वह मलेशिया सरकार से तुरंत कहें कि मंदिरों की पवित्रता बनाए रखी जाए। गृह मंत्रालय के प्रवक्ता ने भी कहा कि अमेरिकी सरकार यह अपेक्षा करती है कि जिन लोगों के विरुद्ध मलेशियाई सरकार कार्रवाई कर रही है उनके लोकतांत्रिक अधिकारों का सम्मान किया जाए, लेकिन हमारे अपने देश में भारतीय मूल के लोगों के पक्ष में कोई सशक्त आवाज नहीं उठ रही है और उनके पक्ष में केवल पश्चिम में लोग बोल रहे हैं। यह स्थिति अपने आत्मसम्मान के प्रति हमारी प्रतिबद्घता पर सवाल उठाती है। (लेखक उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी हैं) , दैनिक जागरण, January 1, Tuesday, 2008

दुश्मन के घरेलू दोस्त


आतंकियों और उनके समर्थकों से सख्ती से निपटने में केंद्रीय सत्ता को असफल करार दे रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित

पवित्र कुरान (सूरा 2/216) में हिदायत है, तुम पर युद्ध अनिवार्य किया गया और वह तुम्हें नापसंद है। बहुत संभव है कि कोई चीज तुम्हें नापसंद हो, लेकिन वह तुम्हारे लिए अच्छी हो। जानता अल्लाह है, तुम नहीं जानते। आतंकी जेहाद को फर्ज मानकर जंग-ए-मैदान में हैं। आतंकवाद भारत के विरुद्ध युद्ध है। भारत सरकार कुरान या गीता से नहीं चलती। चलती होती तो कुरान की हिदायत या गीता (11.33) के अनुसार युद्ध को कर्तव्य मानती। भारतीय संविधान में भी साफ-साफ यही निर्देश है, भारत के प्रत्येक अंग की रक्षा, इसके लिए युद्ध, युद्ध की तैयारी, युद्ध संचालन और युद्ध समाप्ति के बाद प्रभावी सैन्य विनियोजन। बावजूद इसके केंद्र अपने संवैधानिक कर्तव्य से विमुख है। मनमोहन सिंह सरकार के साढ़े तीन वर्ष में ही 12 हृदय विदारक आतंकी घटनाएं हुई। उत्तर प्रदेश के फैजाबाद, वाराणसी और लखनऊ की कचहरियों में बम विस्फोट ताजी घटना है। रामपुर में सीआरपीएफ कैंप की घटना जम्मू-कश्मीर जैसी है। सीआरपीएफ की छावनी पर पूर्वसूचना के बावजूद हमले की कामयाबी साधारण घटना नहीं है। रामपुर हमले को लेकर केंद्र और राज्य आमने-सामने है। केंद्र के मुताबिक उसने राज्य को संभावित हमले की पूर्व सूचना दी थी। राज्य के अनुसार ढिलाई केंद्र की तरफ से है। आतंकवाद से लड़ने की जिम्मेदारी और अपने कर्तव्य निर्वहन से दोनों पल्ला झाड़ गए। बेशक पाकिस्तान जेहादी आतंकवाद का प्रायोजक है। यह भी ठीक है कि आतंकवादी पाकिस्तान से ही आते हैं। केंद्र के पास पाकिस्तान में घुसकर आतंकी कैंप नष्ट करने की राजनीतिक इच्छा शक्ति नहीं है। लचर विदेश नीति के चलते अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां भी भारत के अनुकूल नहीं हैं, लेकिन आतंकियों की सहायता करने वाले स्थानीय सहयोगियों पर ठोस कार्रवाई में आखिरकार क्या कठिनाई है? आस्तीन में घुसे सांपों को खोजने में दिक्कत क्या है? आतंकवाद की मदद करने वाले भारत के ही हैं। आखिरकार पाक आतंकवादियों को रामपुर का रास्ता किसने दिखाया? फैजाबाद, वाराणसी और लखनऊ की कचहरी में बम फोड़कर भागने वाले आतंकवादियों को किसने सुरक्षा मार्ग दिखाया? ऐसे स्थानीय/भारतीय आतंकवादियों की धरपकड़, खोजबीन में दिक्कतें क्या हैं? आतंकवादी युद्ध के मददगार और साजिश में शामिल ऐसे भारतवासियों को सामान्य आपराधिक कानूनों में गिरफ्तार किया जाता है। आतंकवाद पर अलग से कोई कानून नहीं है। पाकिस्तानी आतंकवादी भी हत्या, हत्या के प्रयास आदि सामान्य कानूनों में गिरफ्तार होते हैं और उनके भारतीय मददगार भी। लखनऊ के अधिवक्ताओं ने केंद्र से ज्यादा दिलेरी दिखाई। उन्होंने आतंकवादियों की पैरवी से इनकार किया। परिणामस्वरूप उन पर हमला हुआ। केंद्र आतंकवाद पर कड़ा कानून बनाने से क्यों भाग रहा है? सवाल यह है कि क्या आतंकवाद विरोधी कोई कड़ा कानून बनेगा? सरकार बार-बार इनकार करती है। वह किसे खुश करना चाहती है? क्या उसे पाकिस्तान के नाराज हो जाने का भय सता रहा है? या भारत के भीतर ही कोई बड़ी संगठित ताकत ही आतंकवादियों के विरुद्ध कोई कड़ा कानून नहीं बनने देती? सवाल यह है कि अफजल की फांसी बचाने के लिए केंद्र पर किसका दबाव है? आखिरकार केंद्र ने किसके दबाव में पोटा हटाया? राजग सरकार के 6 वर्ष के कार्यकाल में हुई आतंकी घटनाओं की तुलना में संप्रग शासन के सिर्फ साढ़े तीन बरस में ही ज्यादा निर्दोष मार दिए गए। सवाल राजनीतिक भी हैं। क्यों भाजपा ही आतंकवाद का सवाल बार-बार उठाती है? क्या वोट के लिए? यदि हां तो कांग्रेस भी कड़ाई से यही सवाल उठाकर अपना वोट क्यों नहीं बढ़ाती? वामदल, डीएमके, सपा और बसपा भी आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष का ऐलान क्यों नहीं करते? कह सकते हैं कि भाजपा हिंदुओं की पैरोकार और मुसलमानों की विरोधी है तो क्या आतंकवाद से किसी भी बड़े संघर्ष का मतलब भारतीय मुसलमानों के खिलाफ संघर्ष है? भारतीय मुसलमानों को आतंकवाद का समर्थक नहीं मानना चाहिए, लेकिन सवाल यह है कि अफजल की फांसी की रोक, पोटा की वापसी और आतंकवाद विरोधी किसी नए कानून के न बनाने के सरकारी ऐलान के जरिए किस संगठित शक्ति या संप्रदाय का तुष्टीकरण किया जा रहा है? दरअसल तुष्टीकरण राजनीति ने सभी मुसलमानों को आतंकवाद समर्थक मान लिया है। पोटा इसी वोट बैंक को खुश करने के लिए हटाया गया। अफजल की फांसी भी सभी मुसलमानों से जोड़ी गई है। पोटा जैसे कानून की जद में आतंकवाद समर्थक हजार दो हजार लोग ही आ सकते थे। वे मुसलमान भी हो सकते थे, दीगर पंथ मजहब वाले भी। आतंकवाद को सहूलियत देने वाली सारी नीतियां आम मुसलमान के खाते में डाली गई हैं। आश्चर्य है कि किसी बड़े मुस्लिम नेता या मौलवी ने पूरी कौम को पोटा विरोधी और आतंकवाद समर्थक मानने वाली नीति की निंदा नहीं की। आतंकवाद राष्ट्रीय संप्रभुता पर हमला है। युद्ध के मौकों पर राजनीति नहीं होती। अटल बिहारी वाजपेयी ने भारत-पाक युद्ध के दौरान सभी मतभेद भुलाकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तारीफ की थी। आज स्थिति ठीक उलटी है। प्रमुख विपक्षी दल आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में सहयोग को तत्पर है, पूरा राष्ट्र आतंकवाद से युद्ध चाहता है, लेकिन केंद्र युद्ध विरत और कर्तव्य विमुख है। केंद्र दुश्मन के दोस्तों को खुश करने में संलग्न है। कानून एवं व्यवस्था बेशक राज्यों का विषय है, लेकिन आतंकवाद महज कानून एवं व्यवस्था की समस्या नहीं है। आतंकवादियों का निशाना अब उत्तर प्रदेश है। राजनीति ने सुरक्षा बलों का मनोबल गिराया है। समूचा राष्ट्र व्यथित है। भारत चंद राजनीतिक दलों की जागीर नहीं है। इस युद्ध से राष्ट्र को स्वयं ही लड़ना होगा। हम सब पर युद्ध अनिवार्य किया गया है। (लेखक उप्र सरकार के पूर्व मंत्री हैं) दैनिक जागरण ,January 11, Friday, 2008

नाकामी छिपाने की कोशिश

मीडिया के एक वर्ग पर गुजरात के चुनाव परिणाम की गलत समीक्षा करने का आरोप लगा रहे हैं राजनाथ सिंह सूर्य
गुजरात में नरेन्द्र मोदी की करिश्माई जीत के बाद जो लोग इस तरह के निष्कर्ष निकाल रहे हैं कि मोदी की तो जीत हुई, लेकिन भाजपा हार गई या संघ परिवार के मंसूबों पर पानी फेर गया वे निश्चित रूप से झेंप मिटाने वाली अभिव्यक्तियां हैं। ऐसे विचार वही लोग व्यक्त कर रहे हैं जो गुजरात में मोदी को हराने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार थे। राजनीतिक लोग ऐसा आचरण करें तो उसे एक हद तक स्वाभाविक माना जा सकता है, लेकिन जब लोकतंत्र का प्रहरी और सत्य का उद्घाटन करने के लिए समाचार देने का दावा करने वाला मीडिया जगत इस प्रकार की अभिव्यक्तियां करता है तो आश्चर्य होता है। मीडिया के ऐसे तत्वों को चुनाव के दौरान अपने अभियान का गुजरात की जनता पर पड़े प्रभाव का संज्ञान लेकर अपनी हैसियत का आकलन कर लेना चाहिए, लेकिन ऐसा करने के बजाय वे राजनीतिक लोगों के समान अपनी झेंप मिटाने के लिए समाचार गढ़ने का सिलसिला जारी रखे हैं। निश्चय ही ऐसे मीडियाकर्मियों के अभियान का गुजरात की जनता पर कोई असर नहीं हुआ, लेकिन गुजरात के बाहर का माहौल भाजपा के पराजय की आशंका से तब तक बाहर नहीं निकल सका जब तक चुनाव परिणाम नहीं आ सके। क्या मीडियाकर्मियों को अपने आचरण की समीक्षा नहीं करनी चाहिए? उसे यदि सत्य के उद्घाटन के दावे को पुष्ट रखना है तो इस प्रकार के आचरण से बचना होगा। उम्मीद यह की जाती है कि गुजरात की जनता ने सुशासन के प्रति जो आस्था व्यक्त की है उसे गहराई से समझा जाएगा, क्योंकि आज यह कोई भी देख सकता है कि देश में सुशासन का संकट है। यह देश में सुशासन के अभाव का ही परिणाम है कि आज जनता के बीच निराशा और कुंठा का माहौल है। यह स्थिति केवल गुजरात में नहीं है। इसका कारण नेतृत्व की श्रेष्ठता और उसके प्रति लोगों की निष्ठा है। कांग्रेस ने गुजरात चुनाव में हार स्वीकार कर ली, लेकिन मीडिया का एक तबका आज भी हार मानने के लिए तैयार नहीं है। मीडिया का यह वह तबका है जो लेखों, समाचारों, टीवी चैनल के प्रसारणों में किसी घटना के लिए किसी न किसी की जिम्मेदारी तय करने पर अटका रहता है, लेकिन अब जब स्वयं के लिए वैसा अवसर आया है तब बगलें झांकने लगा है। चुनाव के बाद की समीक्षाओं में यह प्राय: सभी ने बताने का प्रयास किया कि 2002 के मुकाबले भाजपा की दस सीटें कम हो गईं, लेकिन इस तथ्य को शायद ही किसी ने प्रगट करना समीचीन समझा हो कि 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 91 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त मिली थी। इसी आंकड़े को कांग्रेस की सफलता का आधार माना जा रहा था। भाजपा के विद्रोहियों के साथ-साथ कतिपय जातियों में विद्रोह का भी अतिशय ढिंढोरा पीटा गया, लेकिन चुनाव बाद मीडिया में यह तथ्य उजागर नहीं किया गया कि 2004 के मुकाबले कांग्रेस की 32 सीटें कम हो गईं। कांग्रेस इस तथ्य को छिपाने का प्रयास करे, यह स्वाभाविक है, लेकिन मीडिया क्यों छिपा रहा है? निश्चय ही एक मामले में मीडिया के इन तत्वों ने सत्य से परहेज नहीं किया और वह है भाजपा विद्रोहियों की प्रभावहीनता तथा जातीय विद्रोह का आधारहीन होना। जिन लोगों ने इन दोनों तथ्यों को भाजपा के पराजित होने का मुख्य आधार बताने का भरपूर प्रयास किया था उन्होंने इनके अप्रभावी रहने के कारणों में जाने की आवश्यकता नहीं समझी। यदि हम इतिहास पर नजर डालें तो केवल एक बार 1977 को छोड़कर जब जनमानस आपात स्थिति के कारण त्राहिमाम कर रहा था, दूसरा कोई ऐसा अवसर चुनावी राजनीति में नहीं दिखाई पड़ा जब विद्रोहियों के सहारे किसी दल को सफलता मिली हो। उस चुनाव में कांग्रेस से विद्रोह करने वालों को जनता पार्टी में शामिल होने के कारण सफलता मिली थी, न कि उनके शामिल होने से जनता पार्टी को। गुजरात में कांग्रेस ने लगातार अपने कैडर के बजाय भाजपा विद्रोहियों पर भरोसा जताया। 2002 में उसने शंकर सिंह वाघेला और 2007 में केशूभाई पटेल, कांशीराम राणा तथा सुरेश मेहता पर अपनी बाजी लगाई। अतीत के इन सेनानियों में वर्तमान महानायक को परास्त करने की क्षमता उसी प्रकार नहीं है जैसे महाभारत में भीष्म या द्रोणाचार्य में अर्जुन के संदर्भ में नहीं थी। किसी भी राजनेता पर उसके विरोधी भ्रष्टाचार, चरित्रहीनता, जातीयता या भाई-भतीजावाद का आरोप लगाते हैं, लेकिन मोदी पर उनके घोर शत्रुओं, कांग्रेस या मीडिया में भी किसी में ऐसा आरोप लगाने का साहस नहीं हुआ। क्यों? इसी क्यों को यदि समझने की कोशिश की जाए तो गुजरात का चुनाव परिणाम स्वाभाविक लगेगा। तब गुजरात प्रशासनिक व्यवस्था के मामले में अनुकरणीय माडल के रूप में सामने आएगा। जो लोग संघ परिवार के मंसूबों पर पानी फिर जाने के रूप में चुनाव परिणाम को देख रहे है वे वही लोग हंै जो यह मानते हैं कि संघ का कैडर ही भाजपा का कैडर है। यदि यह सही है तो भाजपा के साथ-साथ उसके विरोधी पक्ष की चुनावी व्यवस्था का भी आकलन करना चाहिए। रोड शो में उमड़ी भीड़ कौतूहल युक्त हो सकती है, परिणामकारी नहीं। यह बात एक बार फिर साबित हो गई है। संघ शिक्षा से दीक्षित स्वयंसेवकों ने जिस प्रकार गुजरात में बूथ तक की व्यवस्था बनाई थी उसी का परिणाम है कि गुजरात पहला राज्य साबित हुआ है जहां एक बूथ पर भी पुन: मतदान नहीं हुआ। गुजरात की जनता ने मोदी को घेरने के सारे चक्रव्यूह को इसलिए ध्वस्त कर दिया, क्योंकि उन्हें मोदी में वह सब मिला जो नेतृत्व प्रदान करने वाले के व्यक्तित्व में अपेक्षित होता है। मोदी ने कहा भी है कि स्वयंसेवक के रूप में दायित्व के प्रति निष्ठा और समर्पण से उन्होंने अपने कर्तव्य पालन को सदैव प्राथमिकता दी है। मोदी डा. हेडगेवार की कल्पना में आदर्श स्वयंसेवक साबित हुए हैं। यही कारण है कि गुजरात की जनता ने सभी विषाक्त हमलों को नाकाम कर दिया। (लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं) दैनिक जागरण ,January 10, Thursday, 2008

पंथनिरपेक्षता की पड़ताल

नरेन्द्र मोदी की जीत के बाद उनके विरोधियों के वक्तव्यों की जांच-परख कर रहे हैं राजीव सचान

हाल में निजी यात्रा पर प्रतापगढ़ पहुंचे मारीशस के राष्ट्रपति अनिरुद्ध जगन्नाथ ने यह कहने में कोई संकोच नहीं किया कि हम हिंदुत्व का पूरी तरह अनुसरण कर रहे हैं। क्या भारत का कोई सत्तारूढ़ राजनेता ऐसा बयान दे सकता है? ऐसा कोई बयान देने के पहले उसे दस बार सोचना पड़ सकता है और फिर भी यदि वह ऐसा बयान दे दे तो यह लगभग तय है कि देश भर के कथित पंथनिरपेक्षतावादी उस पर चढ़ाई कर देंगे और यदि ऐसा कोई राजनेता भाजपा से जुड़ा हो तब तो उसकी खैर ही नहीं। उसकी लानत-मलानत करने के साथ उसके त्यागपत्र की मांग भी हो सकती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि हमारे देश में हिंदुत्व एक हेय शब्द बना दिया गया है। जो हिंदुत्व की बात करे वह सांप्रदायिक है। जो हिंदुत्व का विरोध करे और यहां तक कि उसे बढ़चढ़कर लांछित करे और अपमानित करे वह पंथनिरेपक्ष है-प्रगतिशील है। ऐसा व्यक्ति दूसरों का इसका प्रमाणपत्र भी दे सकता है कि वह पंथनिरपेक्ष है अथवा सांप्रदायिक? ऐसे अनेक लोग इसी तरह का प्रमाणपत्र बांटकर अपनी राजनीतिक-गैर राजनीतिक दुकानें चला रहे हैं। ऐसे लोग हिंदुत्व और उसकी बात करने वालों को किस तरह लांछित करते हैं, इसके ताजा उदाहरण नरेंद्र मोदी हैं। नरेन्द्र मोदी की जीत को सांप्रदायिक ताकतों की जीत साबित करने की हरसंभव कोशिश की जा रही है। कांग्रेस के नेता कपिल सिब्बल ने फरमाया है कि मोदी ऐसी चीज हैं जिनसे कांग्रेस नफरत करती है। यह कांग्रेस की साफगोई नहीं, बल्कि उसकी उन लोगों के प्रति नफरत है जो हिंदुत्व की बात करते हैं। यह तब है जब नरेन्द्र मोदी ने चुनाव के दौरान हिंदुत्व से अधिक विकास की चर्चा की। सच तो यह है कि नरेन्द्र मोदी ने विकास के मुद्दों के बल पर ही चुनाव जीतने की कोशिश की थी, लेकिन मौत का सौदागर वाली टिप्पणी के बाद वह अपनी रणनीति बदलने के लिए विवश हुए। इसमें दो राय नहींकि उन्होंने अपने चुनावी भाषणों में राम सेतु का मुद्दा उठाया, लेकिन क्या इस मुद्दे पर बात करना सांप्रदायिक कहा जाएगा? यदि राम सेतु की बात करना सांप्रदायिक है तो फिर इसका मतलब है कि उस पर पेश हलफनामा वापस लेकर कांग्रेस ने भी सांप्रदायिक कार्ड खेला? नरेन्द्र मोदी की जीत पर अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव और गुजरात मामलों के प्रभारी बीके हरिप्रसाद हार की पूरी जिम्मेदारी स्वीकार करते हुए यह बोले हैं कि हम चुनाव हार चुके हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि सांप्रदायिक ताकतों का विरोध छोड देंगे। ऐसी ही साफगोई अन्य लोगों ने भी दिखाई। लालू यादव के अनुसार सभी पंथनिरपेक्ष दलों के लिए समय आ गया है कि वे सबक लें और सांप्रदायिक तथा फासीवादी ताकतों के खिलाफ एकजुट हों। यह वही लालू यादव हैं जिन्होंने बिहार में शासन करते समय पंथनिरपेक्षता की माला तो खूब जपी, लेकिन यह भूल गए कि विकास किस चिडि़या का नाम है? पूर्व प्रधानमंत्री एवं जनमोर्चा के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रताप सिंह की नजर में गुजरात विधानसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी की जीत संप्रदाय विशेष के प्रति घृणा पर आधारित है। वाम दलों ने वैसी ही प्रतिक्रिया व्यक्त की जैसी उनसे उम्मीद थी, लेकिन उस पर गौर करना जरूरी है। भाकपा के राष्ट्रीय महासचिव डी राजा ने कहा कि कांग्रेस को यह समझना होगा कि अकेले पंथनिरपेक्षता पर्याप्त नहीं है और पंथनिरपेक्ष दलों को गुजरात चुनाव परिणाम से सबक लेने की जरूरत है। उन्हें सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ अपने संघर्ष को और तेज करना चाहिए। इसी स्वर में माकपा पोलित ब्यूरो ने कहा कि इस समय सबसे जरूरी है हिंदुत्व की सांप्रदायिक विचारधारा के खिलाफ संघर्ष को पूरी प्रतिबद्घता के साथ तेज करना तथा मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के खिलाफ लोगों को खड़ा करना। बयान में यह भी कहा गया है कि चुनाव परिणामों से स्पष्ट हो गया कि जहां सांप्रदायिकता की जड़ें गहरी हैं वहां केवल चुनाव के जरिये उन्हें परास्त नहीं किया जा सकता। कुछ और स्वरों को सुने जाने की जरूरत है, जैसे कि इंडियन नेशनल ओवरसीज कांग्रेस का स्वर। इस संगठन ने कहा कि गुजरात विधानसभा चुनाव जीतने के लिए नरेन्द्र मोदी ने सांप्रदायिक कार्ड खेला। संगठन के महासचिव जार्ज अब्राहम ने कहा कि यह स्पष्ट है कि नरेन्द्र मोदी ने एक बार फिर मतदाताओं के डर और बेचैनी से खेला। उनके मुताबिक यदि यह विकास के नाम पर दिया गया जनादेश है तो भी भाजपा ने ऐसे किसी कार्यक्रम की चर्चा नहीं की जिसमें समाज के सभी वर्गों को समाहित करने पर बल देने की बात हो। अमेरिका स्थित एक अन्य संगठन इंडियन नेशनल मुस्लिम कौंसिल ने चुनाव परिणामों पर अपेक्षा के अनुरूप निराशा तो जताई ही, यह भी कहा कि गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की वापसी हिंदूवादी समूहों द्वारा राज्य में डर और सांप्रदायिक नफरत को सघन करने का परिणाम है। इस संगठन की राय में गुजरात नरसंहार के लिए जिम्मेदार ठहराए गए व्यक्ति के फिर जीतने से भारत की पंथनिरपेक्ष और बहुलवादी राष्ट्र की छवि को नुकसान पहुंचेगा। जाहिर है कि जिन्हें नहीं मानना वे अब भी नहीं मानेंगे कि नरेंद्र मोदी ने विकास के बल पर चुनावी जीत हासिल की है। उनके विरोधी, जिनमें राजनीतिक व्यक्ति भी हैं और गैर राजनीतिक भी, यही रट लगाए हैं कि वह सांप्रदायिक राजनीति की वजह से चुनाव जीतने में सफल रहे। इस मान्यता और मानसिकता का कोई इलाज नहीं, क्योंकि कुछ लोगों ने यह तय कर रखा है कि हिंदुत्व की बात करना संाप्रदायिक है। यदि चुनाव समाप्त होने के बाद भी चुनाव आयोग की आचार संहिता प्रभावी रहती तो संभवत: इस आयोग को वैसी ही नोटिस जारी करने के लिए विवश होना पड़ता जैसे कि उसने नरेन्द्र मोदी, सोनिया गांधी, दिग्विजय सिंह आदि को जारी की थीं, क्योंकि गुजरात चुनाव परिणामों को लेकर मोदी और भाजपा विरोधी दलों-संगठनों की ओर से जो कुछ कहा जा रहा है वह गुजरात की जनता का भी निरादर है और उसके द्वारा दिए गए जनादेश का भी। ऐसा निरादर खुद को पंथनिरपेक्ष साबित करने के लिए किया जा रहा है। क्या यही है पंथनिरपेक्षता? (लेखक दैनिक जागरण में सहायक संपादक हैं)

भारत के लिए नया खतरा

नेपाल को इस्लामी आतंकवाद के नए केंद्र के रूप में देख रहे हैं बलबीर पुंज
नेपाल की राजनीति में वर्चस्व कायम करने के बाद माओवादियों का भारत और हिंदू विरोधी चेहरा एक बार फिर हाल में भारत-नेपाल सीमा पर बेनकाब हुआ। नेपाल की हिंदूवादी पहचान पर माओवादियों का आघात अकारण नहीं था। नेपाल नरेश को हिंदू परंपरा के संरक्षक के रूप में देखा जाता था। नेपाल में राजशाही के खिलाफ खड़े हुए माओवादी या उन्हें संरक्षण देने वाले साम्यवादी सऊदी अरब जैसे मुस्लिम देश में लोकतंत्र के लिए आवाज क्यों नहीं उठाते? पाकिस्तान और बांग्लादेश में सैन्यशाही चली आ रही है, क्या माओवादी वहां जनतंत्र के लिए क्रांति छेड़ने का साहस दिखाएंगे? नेपाल नरेश को पदच्युत कर नेपाल में लोकतंत्र लाने के नाम पर जो खूनी क्रांति माओवादियों ने छेड़ रखी थी उसके मूल में ही वस्तुत: हिंदू विरोध और भारत के प्रति नफरत की भावना प्रमुख थी। अन्यथा विगत 25 दिसंबर को माओवादियों के संगठन यंग कम्युनिस्ट लीग द्वारा भारत-नेपाल सीमा पर भारत विरोधी नारेबाजी करने का क्या औचित्य था? इस संगठन के कामरेडों ने न केवल अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन किया, बल्कि सीमा के पिलर संख्या 7 से भारतीय सीमा में टनकपुर बैराज तक घुसपैठ कर भारत के विरुद्ध विषवमन किया। नेपाल के ब्रह्मदेव नगर मंडी की सीमा से भारत में घुसपैठ करने वाले माओवादियों ने भारत मुर्दाबाद और भारतीय सेनाओं नेपाल छोड़ो जैसे नारे लगाए। भारत-नेपाल सीमा पर सीमा विभाजित करने के लिए लगाए गए पिलरों में अंकित भारत शब्द को खरोंच कर मिटा दिया गया। आम नेपाली भारत को पितृदेश और पुण्यभूमि के रूप में देखते हैं। सदियों से वे विराट हिंदू संस्कृति के अंग रहे हैं। आज भी यह परंपरा अक्षुण्ण है। पशुपतिनाथ से कन्याकुमारी तक संपूर्ण हिंदू समाज के श्रद्धा और सम्मान के प्रतीक एवं तीर्थस्थल भारत और नेपाल में समान रूप से पूजनीय हैं। भारत-नेपाल के बीच यह घनिष्ठ संबंध न तो माओवादी विचारधारा के अनुकूल था और न ही इस्लामी साम्राज्यवाद को यह रास आया। जेहादी कठमुल्लों और माओवादियों का प्रयास है कि नेपाल को भारत से दूरकर चीन के करीब कर दिया जाए और उसे भारत के खिलाफ इस्लामी आतंकवाद के केंद्र के रूप में उपयोग किया जाए। नेपाली संविधान में नेपाल को हिंदू गणराज्य के रूप में घोषित किया गया था, किंतु वहां भी हिंदुत्व की अवधारणा के अनुसार सभी मतों-पंथों को समान अधिकार प्राप्त थे। राजप्रासाद-नारायण हिती पैलेस के सामने ही नेपाल की सबसे बड़ी मस्जिद का होना इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। 1991 के सर्वेक्षण के अनुसार 89.5 प्रतिशत नेपालियों ने अपनी पहचान हिंदू बताई थी, जबकि अन्य में 5.3 प्रतिशत बौद्ध और 2.7 प्रतिशत मुसलमान थे। ईसाइयों की आबादी भी नेपाल में न्यून है। फिर नेपाल को सेकुलर राष्ट्र घोषित करने की हड़बड़ी क्यों थी? इस जल्दबाजी के पीछे जहां माओवादियों का दबाव था वहीं यह इस्लामी साम्राज्यवादी ताकतों की साजिश का हिस्सा भी है। संपूर्ण एशिया में खलीफा का साम्राज्य स्थापित करने के लक्ष्य में भारत सबसे बड़ा अवरोध है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हिमालय की तराइयों में बसे नेपाल को निशाना बनाया गया। इस बात के पुख्ता सबूत हैं कि आईएसआई भारत में सक्रिय अलगाववादी ताकतों के साथ मिलकर भारत को खंडित करने की साजिश में जुटी है। पीपुल्स वार ग्रुप और नेपाली माओवादी संगठनों को आईएसआई का खुला समर्थन प्राप्त है। भारत की करीब 1860 किलोमीटर सीमा नेपाल के साथ सटी हुई है। उत्तराखंड के चार, उत्तर प्रदेश के छह, बिहार के सात, पश्चिम बंगाल का एक और सिक्किम के दो जिलों के साथ नेपाल के 27 जिले संबद्ध हैं। इसके साथ ही इन जिलों में मुसलमानों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। नेपाल के कंचनपुर, कैलाली, बरदिया और बांके जिले उत्तर प्रदेश के बहराइच से लेकर बनबसा तक सटे हुए हैं। मुस्लिम बहुल इलाकों में माओवादियों का प्रभुत्व सबसे ज्यादा है। इसका लाभ उठाकर आईएसआई माओवादियों का प्रयोग भारत के खिलाफ अपने पारंपरिक षड्यंत्र में कर रही है। विडंबना यह है कि भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए नक्सलवाद को सबसे बड़ा खतरा स्वीकारने वाले प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह सच स्वीकारना नहीं चाहते। नेपाल की सीमा से लेकर आंध्र प्रदेश के दंडकारण्य तक नक्सली-माओवादियों ने रेड कारिडोर बना रखा है, किंतु प्रधानमंत्री इस समस्या की व्यापकता को स्वीकारना नहीं चाहते। यदि वह नक्सली समस्या को सामाजिक-आर्थिकसमस्या मानते हैं तो इस्लामी जेहाद को महज मुट्ठी भर पथभ्रष्ट युवाओं की करतूत बताते हैं। साम्यवादी और उनके सहोदर-नक्सलवादी और माओवादियों की विचारधारा में क्या लोकतंत्र और बहुलतावादी संस्कृति के लिए कोई स्थान है? धर्म को जनता की अफीम मानने वाले साम्यवादियों का इतिहास अधिनायकवादी रहा है। अपनी विचारधारा दूसरों पर थोपने के लिए उन्होंने सदैव हिंसा को अस्त्र बनाया है। नंदीग्राम की हिंसा ताजा घटनाक्रम है, जहां मा‌र्क्सवादियों के खिलाफ आवाज उठाने के कारण नंदीग्रामवासियों को सत्तातंत्र की मिलीभगत से माकपाइयों की हिंसा का शिकार होना पड़ा। यह केवल पश्चिम बंगाल में नहीं हो रहा। वामपंथियों के दूसरे प्रभाव क्षेत्र केरल में भी माकपाई हिंसा का शिकार सभ्य समाज बन रहा है। वर्तमान सत्ता अधिष्ठान यदि नक्सली-माओवादी समस्या के प्रति उदासीन है तो इसका सबसे बड़ा कारण साम्यवादी हैं। यदि पचास व साठ के दशक के सत्ता अधिष्ठान में मुट्ठी भर कम्युनिस्टों की घुसपैठ थी तो आज कम्युनिस्ट खेमा वर्तमान सरकार में प्रभावी भूमिका में है। पं. नेहरू के समय से ही वामपंथी व्यवस्था को भीतर से खोखला करने में लगे हैं। यदि 1962 का कड़वा स्वाद उन्हें नहीं मिलता तो संभवत: भारतीय सत्ता अधिष्ठान कम्युनिस्टों के हाथों गिरवी हो जाता। इंदिरा गांधी की अधिनायकवादी मानसिकता कम्युनिस्टों के समर्थन से ही पुष्ट होती रही। उन्होंने कम्युनिस्टों को जो सबसे बड़ा तोहफा दिया वह है दिल्ली का जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय। नेपाल के माओवादी नेता बाबूराम भट्टाराई, पुष्पकमल दहल उर्फ प्रचंड हों या भारत के सीताराम येचुरी या प्रकाश करात-ये सब जेएनयू की ही देन हैं। भट्टाराई ने एक बार कहा था, मैंने मा‌र्क्सवाद का क-ख-ग जेएनयू में सीखा। जब नेपाल में शांति स्थापित करने के लिए माओवादियों को निमंत्रित किया गया तब भट्टाराई ने राजनीतिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हिंसा और हत्या को न्यायोचित ठहराते हुए कहा था, बंदूकों ने अपना काम पूरा किया है। वार्ता के लिए तैयार होने का अर्थ है कि हमारी सशस्त्र क्रांति विजयी रही। वस्तुत: कम्युनिस्टों की आस्था कभी भी लोकतंत्र पर रही नहीं, वे अपने विस्तार के लिए इसे एक माध्यम मात्र मानते हैं। कम्युनिस्ट यह मानते हैं कि सत्ता बंदूक की नली से आती है और इसीलिए माओवादियों और नक्सलियों को उनका खुला समर्थन प्राप्त है। सवाल देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांगे्रेस का है, जो एक ओर पंथनिरपेक्षता और प्रजातांत्रिक मूल्यों की सबसे बड़ी झंडाबरदार होने का दावा करती है और दूसरी ओर वोट बैंक के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा और सभ्य समाज पर मंडराते खतरों की अनदेखी भी करती है। (लेखक भाजपा के राष्ट्रीय सचिव हैं)
दैनिक जागरण January 8, Tuesday, 2008

मोदी की जीत का मतलब

गुजरात विधानसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी की प्रभावशाली जीत का निहितार्थ तलाश रहे हैं स्वप्न दासगुप्ता
गत 23 दिसंबर को नरेंद्र मोदी ने गुजरात में भाजपा को लगातार चौथी बार जीत दिला दी। बेशक इस जीत के मुख्य विजेता मोदी ही हैं-इसलिए कि दो चरणों में गुजरात की जनता ने जो मतदान किया था वह 182 विधायकों के निर्वाचन से अधिक मोदी के नाम पर जनमत संग्रह अधिक था। ऊपरी तौर पर भले ही कांग्रेस अकेले पराजित नजर आए, लेकिन यथार्थ यह है कि मोदी की असाधारण जीत तीन अन्य समूहों की पराजय है। ये समूह हैं-सेकुलर बौद्धिक वर्ग, मीडिया और आरएसएस नेतृत्व। राज्य कांग्रेस इन सभी में सबसे सम्मानित पराजित समूह है। उसने चुनावी अभियान की शुरुआत छिपे रुस्तम के रूप में की थी। गुजरात में कांग्रेस के पास एक भी ऐसा नेता नहीं था जो मोदी के विशाल कद का मुकाबला कर सके। उसे इस तथ्य का भी ज्ञान था कि बिजली, पानी और सुरक्षा जैसे मूलभूत विषयों पर राज्य सरकार के पिछले प्रदर्शन को देखते हुए किसी असरदार सत्ता विरोधी लहर की संभावना नहीं है। स्थानीय स्तर पर सत्ता विरोधी भावनाओं को ईंधन देने की उम्मीदें भी तब धुल गईं जब मोदी ने 127 में से 48 विधायकों के टिकट काट दिए। कांग्रेस ने यह भी समझ लिया था कि 2002 के दंगों पर फिर से जोर देना विवेकपूर्ण नहीं होगा। इन स्थितियों में कांग्रेस ने एक प्रतिबद्ध लड़ाई लड़ी और एक बड़ी संख्या में लोगों को यह समझाने में सफल भी रही कि वह भाजपा की गाड़ी को पलटने की स्थिति में है। संभावित जीत का भ्रम केवल पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिले मतों के आधार पर ही नहीं था, बल्कि कांग्रेस यह सोचकर भी आशान्वित थी कि मोदी सरकार के कामकाज से नाराज कुछ जातियों का समर्थन यदि क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम वर्गो के साथ जुड़ जाए तो उसे निर्णायक बढ़त मिल सकती है। कुछ क्षेत्रों में किसानों के असंतोष तथा बिजली भुगतान के मामले में मोदी सरकार के दृढ़ रवैये से उपजी नाराजगी को भी कांग्रेस अपने पक्ष में मान रही थी। कांग्रेस के पास नि:संदेह कुछ इक्के थे, लेकिन उसने सही पत्ते नहीं चले। गुजरात में कांग्रेस ने मोदी के व्यक्तित्व को स्थानीय मुद्दों से मिलाने की कोशिश की, जबकि भाजपा इस चुनाव को मोदी पर जनमत संग्रह बनाना चाहती थी। यह सही है कि भाजपा को सोनिया गांधी की मौत के सौदागर वाली टिप्पणी से लाभ हुआ, लेकिन यदि यह टिप्पणी नहीं भी की गई होती तो भाजपा किसी और तरीके से राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति कांग्रेस की प्रतिबद्धता पर सवाल खड़े करती। इस मामले में सोनिया गांधी को निशाना बनाना निश्चित रूप से दिग्विजय सिंह को कठघरे में खड़े करने से कहींअधिक दमदार था जिन्होंने गुजरात में हिंदू आतंकवाद होने की बात कही थी। बावजूद इसके गुजरात के इस चुनाव में सेकुलरिज्म ही प्रमुख मुद्दा नहीं था। सच तो यह है कि इसे कोई भी मुद्दा नहीं बनाना चाहता था-यहां तक कि कांग्रेस भी नहीं। वास्तव में कांग्रेस ने सेकुलरिज्म-कम्युनलिज्म मुद्दे को एकदम नीचे रखकर चुनाव लड़ा। कांग्रेस के मुस्लिम नेताओं को चुनाव अभियान से दूर रखा गया। गैर-सरकारी संगठनों और मानवाधिकार समूहों के कतिपय सितारे कार्यकर्ता भी या तो अहमदाबाद पहुंचे ही नहींऔर यदि गए भी तो खुलकर सामने नहींआए। गुजरात की बात आते ही प्रखर हो जाने वाले वामपंथी नेता तो गुजरात में जैसे अदृश्य हो गए थे। मजेदार बात यह है कि गुजरात के चुनावों में धर्म का एकमात्र हस्तक्षेप कुछ हिंदू संतों के मोदी विरोधी अभियान के रूप में देखने को मिला, जिसे कांग्रेस का समर्थन हासिल था। 16 दिसंबर को एक रहस्यमयी हिंदू संस्था की ओर से एक विज्ञापन भी जारी किया गया, जिसमें मोदी को एक मुस्लिम को सम्मानित करते तथा जूते पहनकर आरती में भाग लेते दिखाया गया। इस कोशिश का तर्क स्पष्ट था। यह उम्मीद की गई कि हिंदुओं की नाराजगी और सत्ता विरोधी भावनाओं का मिश्रण मोदी को धराशायी कर देगा। मोदी के खिलाफ अभियान के केंद्र में मीडिया था। गुजरात में मीडिया एक निर्विकार पर्यवेक्षक के बजाय सक्रिय प्रतिभागी था। मीडिया ने तो जैसे मोदी की हार सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। यह मीडिया की इसी सक्रियता का नतीजा था कि परिणाम आने के दिन लोगों ने यह सोचकर टेलीविजन सेट आन किए कि वे एक ऐसे राजनेता का पतन देखने जा रहे हैं जिसकी तुलना हिटलर जैसे तानाशाह से की जा रही है। परिणाम इसके एकदम विपरीत आए। गुजरात की जीत ने मोदी को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में राष्ट्रीय मंच पर उभार दिया जो अपने विरोधियों को चुनौती दे सकता है और फिर भी जीत हासिल कर सकता है। यदि मीडिया खुद गढ़े गए झूठ के जाल में नहीं फंसता तो गुजरात के चुनाव परिणामों का प्रभाव शुद्ध रूप से क्षेत्रीय ही बना रहता। मीडिया ने आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व के साथ मोदी की दूरी को सामने लाने में कोई कोताही नहीं बरती। आरएसएस का एक प्रभावशाली वर्ग मोदी को उनके अडि़यल रवैये के कारण सबक सिखाना चाहता था। शायद इसीलिए संघ परिवार को तटस्थ रहने का निर्देश दिया गया। यह ऐसा निर्देश था जिस पर शायद ही जमीनी स्तर पर अमल किया गया हो। भाजपा नेतृत्व के एक वर्ग ने भी मोदी के करीब जाने की कोशिश नहीं की। मोदी का यह विरोध हालांकि मतदान करीब आने के साथ कुछ कमजोर हुआ-खासकर यह स्पष्ट होने के साथ चुनाव में मोदी बढ़त पर हैं। आदर्श रूप से तो गुजरात के चुनावों का प्रभाव राज्य के बाहर तक नहीं फैलना चाहिए, लेकिन यह निर्वाचन नि:संदेह असाधारण है-न केवल मुद्दों के मामले में, बल्कि सत्ता बचाने की कोशिश कर रहे व्यक्ति के विरोधियों की गिनती के मामले में भी। यदि मोदी की जीत ने राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण कर लिया है तो इसका एकमात्र कारण उनकी एक जीत में निहित चार जीतें हैं। वस्तुत: विरोधियों ने मोदी को राष्ट्रीय विषय बना दिया है। ऐसा लगता है कि महात्मा गांधी के बाद कोई अन्य गुजराती राष्ट्रीय एजेंडा तय करने की स्थिति में है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं) Dainik Jagran, December 31, Monday , 2007

विभाजनकारी राजनीति

मजहब के आधार पर संसाधनों के आवंटन को खतरनाक बता रहे हैं बलबीर पुंज
राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में 11वीं पंचवर्षीय योजना के प्रारूप को हरी झंडी मिल गई। इस बैठक से एक-दो दिन पूर्व इंस्टीट्यूट आफ इकोनोमिक ग्रोथ के स्वर्ण जयंती समारोह में सब्सिडी की वर्तमान व्यवस्था पर सवाल उठाते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि हम समानता के नाम पर सब्सिडी पर बहुत ज्यादा खर्च करते हैं। इससे न तो क्षमता बढ़ रही है और न ही समानता के लक्ष्य पूरे हो पा रहे हैं। आगे उन्होंने कहा था, पंथनिरपेक्ष आधार पर उच्च आर्थिक विकास दर को बनाए रखने के लिए सुधारों को आगे बढ़ाने की जरूरत है। राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में इन्हींअर्थशास्त्री प्रधानमंत्री का भाषण एक सेकुलर राजनीतिज्ञ जैसा हो गया। बैठक में उन्होंने भाजपा के मुख्यमंत्रियों द्वारा 15 सूत्रीय कार्यक्रम पर व्यक्त की गई चिंता को दरकिनार करते हुए दावा किया कि मजहब के आधार पर संसाधनों का आवंटन विभाजनकारी नहीं है। इस बात में कोई संदेह नहीं कि देश में कुछ वर्ग अभी भी विकास से दूर हैं इसलिए उनको विकास का लाभ मिल सके, इसकी व्यवस्था होनी चाहिए। जाति के आधार पर तो आरक्षण को इस आधार पर न्यायोचित ठहराया जा सकता है कि वर्ण व्यवस्था के रहते सभी जातियों को विकास के समान अवसर नहीं मिल पाए, परंतु यह तर्क मुसलमानों पर हर्गिज लागू नहीं हो सकता। करीब 600 वर्षो तक भारत में इस्लाम का शासन रहा। मुसलमान बादशाहों के काल में अल्पसंख्यक होने के बाद भी अधिकांश उच्च पद मुसलमानों को ही उपलब्ध होते थे। कुछ अपवाद छोड़ दें तो हिंदुओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता था। सरकार के इस निर्णय से दो महत्वपूर्ण बिंदु रेखांकित होते हैं। यदि संविधान सभा में सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण की बहस को देखें तो विडंबनापूर्ण स्थिति उभर कर सामने आती है। स्वतंत्रता पूर्व और आजादी के ठीक बाद कांग्रेस ने मजहब के आधार पर आरक्षण का विरोध किया। परिणामस्वरूप, सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण के पैरोकारों ने कांग्रेस को हिंदूवादी और बनियावादी विशेषणों से अलंकृत किया था। मजहबी आरक्षण के समर्थन में कांग्रेस ही आज मुस्लिम लीग के पुराने कुतर्को को दोहरा रही है। इस आरक्षण की प्रमुख विरोधी भारतीय जनता पार्टी को आज आजादी से पूर्व मुस्लिम लीग द्वारा प्रयुक्त विशेषणों से नवाजा जा रहा है। मजहब के आधार पर आरक्षण के सवाल पर संविधान सभा में लंबी बहस छिड़ी थी। बाकायदा इसके लिए एक सलाहकार समिति का गठन हुआ, जिसमें 50 से अधिक सदस्य शामिल थे। इस समिति में मुसलमानों समेत अन्य अल्पसंख्यक समुदाय के प्रतिनिधि भी थे। इस समिति के अध्यक्ष एससी मुखर्जी एक ईसाई थे। मुस्लिमों के प्रतिनिधि रूप में मौलाना अबुल कलाम आजाद, अब्दुल समद खान, हिफजुर रहमान, सैय्यद अली जहीर, अब्दुल कयूम अंसारी, चौधरी खलीकुजमां, सैय्यद जफर इमाम, हाजी अब्दुल सत्तर, हाजी इसाक सेठ प्रमुख थे। समिति में जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल भी शामिल थे। सलाहकार समिति की रिपोर्ट के आधार पर संविधान सभा में 27 एवं 28 अगस्त, 1947 को अल्पसंख्यक मामलों पर बहस हुई। जैसे ही बहस प्रारंभ हुई, मद्रास से मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि बी. पोकर ने मुस्लिम समुदाय के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की व्यवस्था को आगे भी बढ़ाए रखने का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव का समर्थन मुस्लिम लीग के ही चौधरी खलीकुजमां ने भी किया। यह उल्लेखनीय है कि खलीकुजमां ने अलग पाकिस्तान के प्रस्ताव का भी समर्थन किया था। उन्होंने 1937 में संयुक्त प्रांत की सरकार में घुसने की पूरी कोशिश की थी। आजाद भारत में मुसलमानों के हित के लिए संविधान सभा में जिरह करने वाला यह व्यक्ति संविधान सभा की चर्चा के फौरन बाद ही पाकिस्तान पलायन कर गया। उनकी राष्ट्रभक्ति और उनका दायित्व बोध सहज समझा जा सकता है। मजहब आधारित आरक्षण की मांग का विरोध करते हुए सरदार पटेल ने तब कहा था, पृथक निर्वाचन मंडल की व्यवस्था हमारी राजनीति में जहर का काम कर रही है। जिन अंग्रेजों ने इस पद्धति को लागू किया उनमें से अधिकांश यह स्वीकार करते हैं। आपने अपने आपको पृथक राष्ट्र कहा, हमने स्वीकार कर लिया, किंतु यहां शेष 80 प्रतिशत भारत में क्या आप स्वीकार करते हैं कि यहां भी एक राष्ट्र होना चाहिए? या आप चाहते हैं कि यहां अब भी दो राष्ट्र की बात चलती रहे? काफी बहस के बाद अंतत: सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण की मांग ठुकरा दी गई। दूसरा बिंदु यह है कि क्या मुसलमानों के तथाकथित पिछड़ेपन के लिए शेष समाज जिम्मेदार है? क्या मुसलमानों के पिछड़ेपन के लिए हिंदुओं को आरक्षण के रूप में हर्जाना भरने के लिए विवश करना न्यायोचित है? मुसलमानों के पिछड़ेपन के कारणों का निदान किए बिना क्या उनका विकास संभव है? 2001 की जनगणना के अनुसार झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु में मुसलमानों की साक्षरता दर हिंदुओं से अधिक है। केंद्र शासित दादर नगर हवेली में हिंदुओं की साक्षरता दर यदि 56.5 प्रतिशत है तो मुसलमानों में यह अनुपात 80.4 प्रतिशत है। अंडमान निकोबार में हिंदुओं की साक्षरता 81.3 तो मुसलमानों की साक्षरता 89.8 प्रतिशत है। कटु सत्य यह है कि साक्षरता दर अधिक होने के साथ मुसलमानों में संतानोत्पत्ति की दर भी हिंदुओं के मुकाबले बहुत अधिक है। केरल में मुस्लिम साक्षरता दर 89.4 प्रतिशत होने के बावजूद मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि दर 36 प्रतिशत है। तुलना में यहां हिंदुओं की वृद्धि दर 20 प्रतिशत है। महाराष्ट्र में मुस्लिम साक्षरता दर 78 प्रतिशत होने के साथ ही मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर हिंदुओं के मुकाबले 52 प्रतिशत अधिक है। छत्तीसगढ़ में मुस्लिम साक्षरता दर 82.5 प्रतिशत है, जबकि उनकी जनसंख्या वृद्धि दर हिंदुओं के मुकाबले 37 प्रतिशत अधिक है। स्पष्ट है कि मुसलमानों की वर्तमान दशा के लिए न तो उनकी अशिक्षा और न ही मुसलमानों के प्रति समाज के अन्य वर्गो का कथित दुराग्रह जिम्मेदार है। एक से अधिक पत्नी, एक परिवार में आठ-दस बच्चे, आधुनिक शिक्षा के प्रति नकारात्मक रवैया क्या उनकी पश्चगामी मानसिकता को रेखांकित नहीं करता? क्या यह सच नहीं कि सेकुलरिस्ट इस पश्चगामी मानसिकता को पोषित करते हैं? क्या मुसलमानों के पिछड़ेपन के लिए मजहबी मान्यताएं कारण नहीं हैं? क्यों परिवार नियोजन इस्लाम में अस्वीकृत है? क्यों मुसलमान महिलाओं को पर्दे में रख उनके बाहर काम करने पर बंदिशें लगाई जाती हैं? अन्य समुदायों की महिलाएं कामकाज कर अर्थोपार्जन कर रही हैं। देश के श्रम क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी 23.6 प्रतिशत है। 27.5 प्रतिशत हिंदू, 28.7 प्रतिशत ईसाई और 20.2 प्रतिशत सिख महिलाएं यदि पुरुषों के साथ काम कर सकती है तो मुस्लिम महिलाएं क्यों नहीं? श्रम क्षेत्र में मुस्लिम महिलाओं की केवल 14.1 प्रतिशत ही भागीदारी क्यों है? जब तक इन प्रश्नों के उत्तर ईमानदारी से नहीं खोजे जाते तब तक ऐसी योजनाओं से समग्र समाज का विकास संभव नहीं है, बल्कि इतना तय है कि ऐसी व्यवस्था से सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ेगा। वस्तुत: वोट बैंक की शतरंज पर विभाजनकारी प्रवृत्ति को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। दैनिक जागरण (लेखक भाजपा के राष्ट्रीय सचिव हैं)

सीमा पार सुलगती आग

पाकिस्तान में व्याप्त अशांति के लिए वहां की कट्टरपंथी विचारधारा को जिम्मेदार बता रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित

पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों में है। पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की हत्या अंतरराष्ट्रीय खबर थी और हत्या को हादसा बताने वाली सरकारी सफाई भी। बेनजीर की वसीयत के मुताबिक पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी नाबालिग पुत्र के नाम हो गई। यह भी बड़ी खबर थी। गोया पार्टी भी एक प्रापर्टी थी। पाकिस्तान भी राष्ट्र नहीं है। यह कट्टरपंथी आक्रामक समूहों और सेना की प्रापर्टी है। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी का मालिकाना मसला वसीयत से सुलट गया। प्रापर्टी पाकिस्तान को लेकर मुसलसल जंग है। यहां कोई संप्रभु संवैधानिक सत्ता भी नहीं है। सिर्फ 60 साल की उम्र के इस मुल्क ने 4 संविधान बनाए। 32 साल तक सेना का राज रहा। इसके अलावा भी 10 साल तक सेना ने ही परोक्ष हुकूमत की, सिर्फ 18 साल ही अप्रत्यक्ष लोकतंत्र रहा। अभी भी सेना का ही राज है। बेनजीर भुट्टो की हत्या कोई अस्वाभाविक घटना नहीं है। पांच माह पहले ही लाल मस्जिद में कार्रवाई हुई थी। इसके पहले न्यायपालिका का सरेआम कत्ल हुआ। पाकिस्तान जेहादी आतंकवाद की विश्वविख्यात यूनिवर्सिटी है। रक्त पिपासु जेहादी आतंकियों पर आईएसआई और सेना का कवच है। आईएसआई और जेहादी आतंकियों के साथ कट्टरपंथी मौलानाओं की दुआएं हैं। भारत सबका दुश्मन नंबर एक है, लेकिन भारतीय हुक्मरान इससे बेखबर हैं। पाकिस्तान के जन्म का आधार मजहबी अलगाववाद था। राष्ट्र मजहब से नहीं बनते। राष्ट्र निर्माण का आधार संस्कृति होती है। मजहबी अलगाववादियों ने अपनी प्राचीन सांस्कृतिक विरासत को नहीं स्वीकारा। नई संस्कृति का निर्माण वे कर नहीं पाए। उन्होंने प्राचीन भारतीय इतिहास को भी खारिज किया। नया झूठा इतिहास लिखा गया। नई पीढ़ी ने भारत को शत्रु पढ़ा। मदरसे जेहाद सिखाने का केंद्र बने। मदरसा तालीम का विरोध बेनजीर ने किया था। अमेरिकी दबाव में मुशर्रफ ने भी किया था, लेकिन जहर मदरसों के आगे भी था। प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के सलाहकार रहे इतिहासकार केके अजीज ने द पाकिस्तानी हिस्टोरियन नामक शोध में पाकिस्तानी पाठ्य पुस्तकों के जहर की शिनाख्त की है। अजीज की किताब के मुताबिक कक्षा 2 की पाठ्य पुस्तक में उल्लेख है-पं. नेहरू ने कहा कि आजादी के बाद हिंदुस्तान में हिंदुओं की सरकार होगी। कायदे आजम जिन्ना ने कहा कि यहां मुसलमान भी रहते हैं। मुसलमानों को अलग हुकूमत चाहिए। हिंदू विरोध के ही नजरिए से तैयार कक्षा 3 की पाठ्य पुस्तक में लिखा है, राजा जयपाल ने महमूद गजनवी के मुल्क में घुसने की कोशिश की। महमूद ने राजा को हरा दिया, लाहौर को हथिया लिया और इस्लामी हुकूमत कायम की। सच बात यह है कि पंजाब कभी इस्लाम राज्य नहीं था। महमूद आक्रांता और लुटेरा था। पाकिस्तान की नई पीढ़ी उसे हीरो पढ़ रही है। कक्षा 4 की किताब के अनुसार जब अंग्रेज ने इलाके (भारत का उल्लेख नहीं) पर हमला किया तो मुसलमानों के खिलाफ गैर मुसलमानों (हिंदुओं) ने उनका साथ दिया। अंग्रेजों ने सारा मुल्क फतेह किया। कक्षा 5 की किताब में उल्लेख है-मुस्लिम और हिंदू सभ्यताओं में विवाद हुआ। आजाद मुल्क (पाकिस्तान) की जरूरत हुई। पाकिस्तान का सिद्धांत आया। भारत (हिंदुओं) की दुष्टता थी। सर सैय्यद अहमद खां ने ऐलान किया कि मुसलमानों को एक अलग राष्ट्र के रूप में संगठित करना चाहिए। किताबों में 1965 के भारत-पाक युद्ध में पाकिस्तान को विजयी बताया गया। जेहाद और इसी किस्म के इतिहास को पढ़कर औसत पाकिस्तानी नौजवान आतंकी बनता है। कट्टरपंथी मौत के बाद जन्नत की गारंटी देते हैं। कुछ बरस पहले जंग ने लाहौर के करीब स्थित मरकज अलदावत अलअरशद नाम की इस्लामी यूनिवर्सिटी के मुख्य कर्ता-धर्ता और लश्करे तैयबा के प्रमुख प्रो. हाफिज सईद का इंटरव्यू छापा था। उसने भारतीय मुसलमानों से भारत के खिलाफ जेहाद अपील की थी-इसलिए कि हिंदुओं ने मुसलमानों का जीना हराम कर दिया है। जंग ने पूछा कि मुसलमान निकलकर कहां जाएं? क्या पाकिस्तान उन्हें संभाल लेगा? सईद ने जवाब दिया, इसका जवाब सरकार दे। 1948, 1965 और 1971 में हमने संधि की, गलती की। यह न करते तो दिल्ली और कलकत्ता पर हमारा कब्जा होता। सईद जैसे लोग जो कुछ बोलते हैं वही वहां के बच्चों को पढ़ाया जाता है। सईद ने जंग से कहा कि हमारे पैगंबर के मुताबिक अधिक बच्चे देने वाली बीबी से निकाह करना चाहिए। बड़ी आबादी वाली कौम ही दूसरों पर छा जाती है। भारत के तमाम हिस्सों में बढ़ी मुस्लिम आबादी से जनसंख्या संतुलन गड़बड़ाया है। तिस पर भी 11वीं योजना के मसौदे में मजहब आधारित 15 सूत्रीय तुष्टीकरण प्रोग्राम नत्थी किया गया। डा.अंबेडकर भारत की हिंदू-मुस्लिम साझा राष्ट्रीयता को असंभव मानते थे। उन्होंने तीखे सवाल उठाए, क्या भारत के राजनीतिक विकास के लिए हिंदू, मुस्लिम एकता जरूरी है? यदि तुष्टीकरण से तो कौन सी नई सुविधाएं उन्हें दी जाएं? अगर समझौते से तो शर्तें क्या होंगी? सभी पाकिस्तानी हुक्मरान भारत विरोधी थे। भुट्टो भी, बेनजीर भी, नवाज शरीफ भी और परवेज मुशर्रफ भी। पाकिस्तान के पास परमाणु बम है। भारत विरोधी जेहादी जज्बा है। फिलहाल वहां गृहयुद्ध के हाल हैं, लेकिन विरोधी पड़ोसी के घर गृहयुद्ध का भी असर पड़ोस पर पड़ता है। पाकिस्तान का भूगोल भारत-पाक सीमाओं पर जरूर खत्म होता है, लेकिन पाकिस्तान एक विचारधारा भी है। पाकिस्तान जैसा उग्र कट्टरपंथ भारत में भी है। इसीलिए आतंकवादी अपने इसी देश में भी मदद पाते हैं। पाकिस्तान की आग का धुंआ भारत में भी है। राष्ट्र इसी धुंए से बेचैन है। पशु-पक्षी भी पड़ोसी धमक सुनकर चौकन्ने होते हैं। अपने ऊपर आती है तो पलटवार भी करते हैं, लेकिन भारतीय राजनीतिज्ञ सिर्फ सेंसेक्स उछाल देखकर ही उछल रहे हैं। (लेखक उप्र सरकार के पूर्व मंत्री हैं) दैनिक जागरण, January 4, Friday, 2008