Thursday, August 30, 2012

असम में फिर हिंसा, एक की मौत, 5 घायल

गुवाहाटी।। असम के तनावग्रस्त कोकराझार जिले में सोमवार देर रात हिंसा की तीन अलग-अलग घटनाओं में एक व्यक्ति की मौत हो गई और 5 अन्य घायल हो गए। पुलिस ने बताया कि पहली घटना सलाकाती पुलिस थाने के तहत आने वाले फुमती गांव में हुई लेकिन इसमें किसी के हताहत होने की खबर नहीं है।
http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/15880010.cms

विकृत सेक्युलरवाद


असम में आग क्यों लगी और 11 अगस्त को मुंबई के आजाद मैदान में पाकिस्तानी झंडे क्यों लहराए गए? मुंबई के बाद पुणे, बेंगलूर, हैदराबाद, लखनऊ, कानपुर और इलाहाबाद में रोहयांग और बांग्लादेशी मुसलमानों के समर्थन में हिंसा क्यों हुई? क्यों पूर्वोत्तर के करीब पचास हजार लोग विभिन्न शहरों से रोजी-रोटी छोड़ पलायन को मजबूर हुए? क्या देश यह आशा कर सकता है कि अब असम जैसी हिंसा आगे नहीं होगी? प्रधानमंत्री के बयानों को देखते हुए यह आशा बेमानी लगती है। विगत 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से बोलते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था, असम में हिंसा की घटनाएं दुर्भाग्यपूर्ण हैं। हमारी सरकार हिंसा के पीछे के कारणों को जानने के लिए हरसंभव कदम उठाएगी। असम में तीन बार से कांग्रेस का शासन है, किंतु उन्होंने यह भी कहा कि हमारी सरकार यह नहीं जानती कि समस्या की जड़ क्या है? ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री को छोड़कर सभी जानते हैं कि समस्या का क्या कारण है। असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने स्वीकार किया है कि भारत में सांप्रदायिक हिंसा फैलाना पाकिस्तान पोषित भारतीय नेटवर्क की साजिश थी। केंद्रीय गृह सचिव आरके सिंह ने दावा किया है कि खुफिया एजेंसियों ने यह पता लगा लिया है कि पाकिस्तानी नेटवर्क से दंगा फैलाने के लिए आपत्तिाजनक एमएमएस और तस्वीरें भेजी गईं, जिन्हें यहां बैठे पाकिस्तानी पिट्ठुओं ने भारतीय मुसलमानों को भड़काने के लिए प्रसारित किया।
भारत को हजार घाव देना पाकिस्तान का जिहादी एजेंडा है। अन्य देशों में बाढ़ आदि प्राकृतिक आपदाओं के समय खींची गई तस्वीरें और एमएमएस पाकिस्तान से भेजे गए। पाकिस्तान अपने मकसद में कामयाब हो पा रहा है, क्योंकि उसके एजेंडे को पूरा करने के लिए उसे जो मानसिकता और हाथ चाहिए वे यहां बेरोकटोक पोषित हो रहे हैं। देश के कई हिस्सों में इस्लामी चरमपंथियों द्वारा बड़े पैमाने पर की गई हिंसा और तोड़फोड़ से यह साफ हो चुका है कि भारत में एक वर्ग ऐसा है जो तन से तो भारत में है, किंतु मन पाकिस्तान से जुड़ा है। ऐसे देशघातकों को जब राजनीतिक संरक्षण प्रदान किया जाता है तो स्वाभाविक तौर पर प्रश्न खड़े होते हैं, किंतु विडंबना यह है कि ऐसी मानसिकता के विरोध को सांप्रदायिक ठहराने की कोशिश होती है। क्यों?
इसी सेक्युलर सरकार की एक बानगी पिछले साल जून के महीने की है, जब काला धन वापस लाने के लिए रामदेव दिल्ली स्थित रामलीला मैदान में अनशन पर डटे थे। आधी रात को रामलीला मैदान पुलिस छावनी में बदल गया, अनशनकारियों पर पुलिस ने अंधाधुंध लाठियां भांजी। बाबा रामदेव को गिरफ्तार कर उन्हें रातोरात दिल्ली की सीमा से बाहर कर दिया गया। एक ओर आधी रात को वंदेमातरम् और भारत माता का जयघोष करने वालों को सरकार बर्बरता से पीटती है और दूसरी ओर पाकिस्तानी झंडे लहराने और शहीद स्मारक को तोड़ने वाले लोगों को मनमानी की छूट देती है। क्यों?
मुंबई के आजाद मैदान में एकत्रित भीड़ का बांग्लादेशी घुसपैठियों या म्यांमारी रोहयांग मुसलमानों से क्या रिश्ता है और उन्हें इन विदेशियों के समर्थन में आंदोलन करने की छूट क्यों दी गई? इस देश में राष्ट्रहित की बात करना सेक्युलर मापदंड में जहां गुनाह है, वहीं इस्लामी चरमपंथ को पोषित करना सेक्युलरवाद की कसौटी बन गया है। इस दोहरे सेक्युलरवादी चरित्र के कारण ही कट्टरपंथियों को बल मिलता है, जिसके कारण कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक आतंक का खौफ पसरा है। संसद पर आतंकी हमला करने की साजिश में फांसी की सजा प्राप्त अफजल को सरकारी मेहमान बनाए रखना सेक्युलरिस्टों के दोहरे चरित्र का जीवंत साक्ष्य है। कौन-सा ऐसा स्वाभिमानी राष्ट्र होगा, जो अपनी संप्रभुता पर हमला करने वालों की तीमारदारी करेगा?
असम की समस्या बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण है। इन बांग्लादेशियों को सुनियोजित तरीके से असम और अन्य पूर्वोत्तर प्रांतों सहित पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड आदि राज्यों के सीमांत क्षेत्रों में बसाया गया है। इनके कारण ही उन क्षेत्रों के जनसंख्या स्वरूप में भारी बदलाव आया है और वहां के स्थानीय नागरिक कई क्षेत्रों में अल्पसंख्यक की स्थिति में आ गए हैं और असुरक्षित अनुभव करते हैं। असम के मामले में तो गुवाहाटी उच्च न्यायालय का कहना है कि वे राच्य में किंगमेकर बन गए हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने सन 2005 के बाद 2006 में भी सरकार को बांग्लादेशी नागरिकों को देश से बाहर करने का निर्देश दिया है, किंतु बांग्लादेशी नागरिकों के निष्कासन पर सरकार खामोश है। असम में इतनी बड़ी हिंसा हुई, स्थानीय बोडो लोगों को उनके घरों और जमीनों से खदेड़ भगाया गया। विदेशियों के हाथों अपने सम्मान, अस्तित्व और पहचान लुटता देख जब स्थानीय लोगों ने कड़ा प्रतिरोध करना शुरू किया तो सभी सेक्युलर दलों को शांति और सद्भाव की चिंता सताने लगी। हिंसा भड़कने के प्रारंभिक तीन-चार दिनों तक राच्य और केंद्र सरकार दोनों सोई थीं। क्यों? अभी हाल में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने असम हिंसा पर अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी है। इसमें बताया गया है कि दंगे मुसलमानों और बोडो के बीच छिड़े। रिपोर्ट में मुसलमानों को अल्पसंख्यक और बोडो को बहुसंख्यक बताया गया है। अल्पसंख्यक होने का सेक्युलर मापदंड आखिर है क्या? क्या मुसलमान होना ही अल्पसंख्यक होने का आधार है, चाहे उनका संख्या बल कितना भी हो?
असम में अल्पसंख्यक कौन हैं? असम बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण मुस्लिम बहुल राच्य बनने की राह पर है। कोकराझाड़, धुबड़ी, चिरांग और बरपेटा जिले हिंसा के सर्वाधिक शिकार रहे। कोकराझाड़ के भोवरागुड़ी में भारतीय मतावलंबियों की जनसंख्या 1991 से 2001 के बीच एक प्रतिशत तो दोतमा तहसील में 16 प्रतिशत घटी है, जबकि इसी अवधि में मुसलमानों की आबादी 26 प्रतिशत बढ़ी है। धुबड़ी जिले के बगरीबाड़ी, छापर और दक्षिणी सलमारा में भारतीय मतावलंबियों की आबादी क्रमश: 4, 2 और 23 प्रतिशत घटी, वहीं इन तहसीलों में मुसलमानों की जनसंख्या इसी अवधि में क्रमश: 30.5, 37.39, और 21 फीसदी बढ़ी। अन्यत्र यही हाल है। आबादी में यह बदलाव उन अवैध बांग्लादेशियों के कारण हुआ है, जिन्हें बसाकर जहां पाकिस्तान अपने एजेंडे को साकार करना चाहता है, वहीं कांग्रेस सेक्युलरवाद के नाम पर उन्हें संरक्षण प्रदान कर अपनी सत्ता अजर-अमर करना चाहती है। कांग्रेसी नेता देवकांत बरुआ ने इंदिरा गांधी को यूं ही नहीं कहा था कि अली और कुली असम में कांग्रेस के हाथ से गद्दी कभी जाने नहीं देंगे। इसी मानसिकता ने देश को रक्तरंजित विभाजन के लिए अभिशप्त किया। विकृत सेक्युलरवाद के कारण आज असम सुलग रहा है और मुंबई में पाकिस्तानी झंडे लहराए गए तो आश्चर्य कैसा?
[लेखक बलबीर पुंज, राच्यसभा सदस्य हैं]

छपे फोटो से खुश था अब्दुल कादिर

11 अगस्त को आजाद मैदान हिंसा के दौरान अमर जवान स्मारक पर लातों से हमला करने वाले जिस अब्दुल कादिर को मुंबई क्राइम ब्रांच ने बिहार के सीतामढ़ी शहर से गिरफ्तार किया है, वह 15 अगस्त तक मुंबई में ही था। उसे शुरुआत में पूरा भरोसा था कि उसे कभी पकड़ा नहीं जाएगा।
http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/15910553.cms

भारतीय हज यात्रियों को मिलेगा सऊदी का सिम

भारतीय हज यात्रियों के लिए एक अच्छी खबर है। सऊदी अरब में घरवालों से फोन पर बात करने के लिए अब उन्हें भटकना नहीं पड़ेगा। यहां की सऊदी टेलीकॉम कंपनी भारतीयों को सिम कार्ड देगी। यह पहली बार है जब लोगों को यात्रा शुरू करने से पहले नाम मात्र के खर्च पर यह सुविधा मिलेगी।
http://www.amarujala.com/international/Gulf%20Country/saudi-sim-cards-for-indian-haj-pilgrims-13287-7.html

Monday, August 27, 2012

नापाक चेहरे का सच


अनुभूति और आस्था न्यूनतम मानवाधिकार हैं। अपने रस, छंद और अनुभव के आधार पर जीना हरेक मनुष्य का मौलिक अधिकार है, लेकिन पाकिस्तान में हिंदू होना एक गंभीर अपराध है। एक गहन यंत्रणा, असहनीय व्यथा और तिल-तिल कर मरने वाला मनस्ताप। बेटियों को पिता, मां और भाइयों के सामने उठा लिया जाता है, दुष्कर्म होते हैं। न पुलिस सुनती है और न सरकार। कट्टरपंथी जमातों के लिए वे काफिर हैं। वे मूर्तिपूजक हैं, वे दीन पर ईमान नहीं लाते सो उन्हें जीने का अधिकार नहीं। भारत सरकार मौन है। पाकिस्तानी मीडिया बेशक प्रशंसनीय है। एक पाकिस्तानी अखबार ने जकोबाबाद में 17 वर्षीय हिंदू लड़की के अपहरण पर टिप्पणी की और ऐसी घटनाओं पर रोक लगाने की भी मांग की थी। एक अन्य समाचार पत्र ने बीते 11 अगस्त को लिखा, हिंदू व्यापारियों का अपहरण, लूट व संपत्ति पर कब्जा और धर्म विरोधी वातावरण के कारण वे मुख्यधारा से अलग हैं। ऐसा कोई मंच नहीं दिखता जहां उन्हें न्याय मिले, लेकिन भारत के मानवाधिकारवादी कथित सेक्युलर इस अंतरराष्ट्रीय उत्पीड़न पर भी मौन हैं। सारी दुनिया के हिंदू और संवेदनशील सन्न हैं और पाकिस्तानी कट्टरपंथी प्रसन्न। पाकिस्तान का जन्म स्वाभाविक नहीं था। राष्ट्र मजहब से नहीं बनते। वरना ढेर सारे मुस्लिम मुल्क न होते, लेकिन जिन्ना की मुस्लिम लीग ने मुसलमानों को अलग राष्ट्र बताया। ब्रिटिशराज, कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने मिलकर भारत बांटा। जिन्ना ने पाकिस्तान को इस्लामी रंगत वाला सेक्युलर मुल्क बनाने का दावा किया, लेकिन पाकिस्तान अपने जन्म के 24 वर्ष के भीतर ही टूट गया, पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश हो गया। वह 65 बरस बाद भी न गणतंत्र बन पाया और न एक संगठित राष्ट्र। कायदे से कायदे आजम जिन्ना की सोच में ही खोट था। हालांकि पाक संविधान में धर्मपालन की आजादी है, विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, लेकिन ईश निंदा पर सजा-ए-मौत है। विचार अभिव्यक्ति की आजादी पर तलवारें हैं। शरीय कानूनों की भी मार है। पाकिस्तानी समाज पर संविधान और सरकार का नियंत्रण नहीं। समाज कट्टरपंथी आक्रामक तत्वों के हवाले है। सरकार की दो ताकतवर भुजाए हैं-सेना और आइएसआइ। दोनों भारत विरोधी हैं, स्वाभाविक ही हिंदू विरोधी भी हैं। पाकिस्तानी कट्टरपंथी हिंदुओं को इंसान नहीं मानते। हिंदू अघोषित जिम्मी हैं। इस्लामी परंपरा के भाष्यकार अबूहनीफा [699-766 ई.] ने गैरमुस्लिमों को छूट दी थी कि वे इस्लाम या मौत के चुनाव के अलावा जजिया कर देते हुए निम्न स्थिति में जिम्मी होकर रहें। पाकिस्तान के हिंदुओं की त्रासदी नई नहीं है। सिंध के पहले हमलावर और विजेता मोहम्मद बिन कासिम ने भी यही कायदा लागू किया था। हिंदुओं का बड़ी संख्या में मतांतरण कराना या मौत के घाट उतारना कठिन था। उसने सिंध के हिंदुओं को ऐसी ही निम्न स्थिति में रहने की छूट दी थी। तुर्की और अफगान विजेताओं ने भी गैरमुस्लिमों के मामले में यही नीति अपनाई थी। भारत के मुसलमान अल्पसंख्यक कहे जाते हैं। संविधान ने उन्हें विशेष सुविधाएं दी हैं। उनकी शिक्षण संस्थाओं पर सामान्य शिक्षा कानून लागू नहीं होते। वे हज जैसी धार्मिक यात्रा पर जाते हैं, सरकार सब्सिडी देती है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह राष्ट्रीय संसाधनों पर उनका पहला अधिकार बताते हैं। वे दीगर मुल्क म्यांमार की कथित मुस्लिम उत्पीड़न की वारदात पर मुंबई, लखनऊ, कानपुर आदि में हमला करते हैं। पाकिस्तान के अल्पसंख्यक हिंदुओं को पाक संविधान में क्या अधिकार हैं? उन्हें अयोध्या, मथुरा, काशी या रामेश्वरम की तीर्थ यात्रा में पाक सरकार कोई सुविधा या सब्सिडी नहीं देती। आखिरकार भारत में अल्पसंख्यक होने का मजा और पाक में अल्पसंख्यक होने की इतनी बड़ी सजा के मुख्य कारण क्या हैं? पाकिस्तानी सरकार विश्वसनीय नहीं है। अमेरिकी विदेश विभाग ने पाकिस्तान को धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के उल्लंघन के लिए विशेष चिंता वाला देश माना है। पाकिस्तानी मानवाधिकार आयोग ने भी अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न की बात को सही पाया है। लोकसभा में यह मसला भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने 13 अगस्त को उठाया था। उन्होंने सरकार से इस मुद्दे को पाकिस्तान के साथ ही अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी रखने की मांग की। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव सहित अन्य नेताओं ने भी इस मुद्दे को गंभीर बताया। बीजद के नेता भतर्ृहरि मेहताब ने राय दी कि जो हिंदू भारत आना चाहते हैं उनके लिए दरवाजे खोल देने चाहिए। भारतीय जनता की बेचैनी वाजिब है। पाकिस्तान से भारत आए हिंदुओं की व्यथा कथा आंसुओं से भीगी है। वे वापस नहीं जाना चाहते, लेकिन केंद्र सरकार का बयान लज्जाजनक है कि वीजा अवधि समाप्ति के बाद हिंदुओं को पाकिस्तान लौटना ही होगा। सरकार उनका दुख क्यों नहीं समझती? कीट-पतंगें, पशु-पक्षी भी अपने घर को प्यार करते हैं। यहां लोग अपना घर, व्यापार और संपदा छोड़कर भाग रहे हैं और कानूनी घेरे के बावजूद नहीं लौटना चाहते तो साफ है कि पाकिस्तानी अत्याचार अब बर्दाश्त के बाहर है। बलात मतांतरण मानवाधिकार का उल्लंघन हैं। दुष्कर्म और जबरन विवाह त्रासद हैं। देश विभाजन के बाद 1951 में भारत की मुस्लिम आबादी 10.43 प्रतिशत थी और हिंदू 87.24 प्रतिशत। इसी साल पाकिस्तान की हिंदू आबादी [बांग्लादेश सहित] 22 प्रतिशत थी। 2001 की भारतीय जनगणना में यहां मुस्लिम आबादी 10.43 से बढ़कर 13.42 प्रतिशत हो गई, लेकिन पाकिस्तान की हिंदू आबादी लगभग 1.8 प्रतिशत ही रह गई। कहां गए पाकिस्तान के अल्पसंख्यक हिंदू? क्या सबके सब यों ही खुशी-खुशी मतांतरित हो गए? कोई तो वजह होगी ही। यह पाकिस्तान का घरेलू मसला नहीं है। यह मानवाधिकार उल्लंघन का अंतरराष्ट्रीय सवाल है। भारत विभाजन के समय मुस्लिम लीगी आक्त्रामकता थी। कहा गया था कि मुसलमानों को पाकिस्तान देने से सांप्रदायिक समस्या का अंत होगा, लेकिन सारा देश विभाजन के विरुद्ध था। डॉ. अंबेडकर दूरदर्शी थे। उन्होंने पाकिस्तान का समर्थन किया था, लेकिन दोनों देशों की सांप्रदायिक जनसंख्या की अदलाबदली का सुझाव भी दिया था। सांप्रदायिक समस्या समाधान के लिए ही बुल्गारिया और ग्रीस व ग्रीस व तुर्की के बीच जनसंख्या की अदलाबदली हुई थी। पाकिस्तान अपने मुल्क को हिंदूविहीन बना रहा है। कट्टरपंथी बलात मतांतरण करवा रहे हैं। केंद्र को कोई नीति तो बनानी ही होगी। सरकार श्रीलंका के तमिलों पर सहानुभूति की मुद्रा में थी। मसला यह भी दूसरे देश का था। गांधीजी तुर्की के खलीफा को लेकर भारत में आंदोलन चला रहे थे, लेकिन भारत सरकार हिंदू उत्पीड़न पर भी मौन है, क्योंकि वे वोट बैंक नहीं है।
[लेखक हृदयनारायण दीक्षित, उप्र विधानपरिषद के सदस्य हैं]

Friday, August 24, 2012

असम समस्या की जड़


उत्तरपूर्व के लोगों का बेंगलूर, मुंबई और पुणे से हजारों की संख्या में पलायन 16 अगस्त, 1946 की याद दिलाता है जिसे मोहम्मद अली जिन्ना के आव्हान पर डाइरेक्ट एक्शन डे घोषित किया गया था। इसके बाद हिंसा का जो तांडव शुरू हुआ उसकी परिणति देश के विभाजन में हुई। तब विश्व इतिहास में आबादी का सबसे बड़ा स्थानांतरण हुआ था। इस बार भी बड़ी संख्या में आबादी का पलायन हुआ है, जो देश की सीमा के अंदर है। इससे बड़ी संख्या में पलायन सिर्फ बंटवारे के समय हुआ था। इस आग को भड़काने में सबसे बड़ी भूमिका रही सोशल मीडिया की। शरारती तत्वों ने भारत को अस्थिर करने के लिए इसका कुत्सित इस्तेमाल किया। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने साफ कहा है कि अधिकतर एसएमएस/एमएमएस पाकिस्तान से भेजे गए थे। गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने पाकिस्तान के आंतरिक सुरक्षा मामलों के मंत्री से बात भी की है, लेकिन जैसा कि होता आया है पाकिस्तान ने अपना हाथ होने से साफ इन्कार कर दिया है। वैसे उसने प्रमाण मिलने पर कार्रवाई करने का भारत को भरोसा दिया है। पाकिस्तान ने स्थिति का लाभ उठाते हुए जातीय संघर्ष को सांप्रदायिक दंगे का रूप देने की पुरजोर कोशिश की। उसने प्राकृतिक आपदा से हुए हादसों की तस्वीरों को तोड़-मरोड़कर इंटरनेट पर अपलोड कर यह दुष्प्रचार करने का कुत्सित प्रयास किया कि मुसलमानों को बेरहमी से मारा जा रहा है। असम की समस्या जातीय है, सांप्रदायिक नहीं। यदि उसी संख्या में बांग्लादेशी मुसलमान की जगह हिंदू वहां बसते तो भी स्थानीय नागरिकों का उनसे संघर्ष होता। बोडो जनजाति का दावा है कि वे वहां के मूल निवासी हैं। वहां के महान वैष्णव संत शंकर देव ने उन्हें म्लेच्छ कहा है। इससे बोडो काफी आहत हैं और उन्होंने शंकर देव के लेखन पर प्रतिबंध लगाने की मांग की है। जो भी हो, असम की समस्या की जड़ में है बांग्लादेश से लगातार आ रहा जनसैलाब जो आजादी के बाद भी नहीं रुका और जिससे असम की आबादी की शक्ल बदल गई है। असम के कम से कम छह जिलों में मुसलमान आज बहुसंख्यक हैं। असम में अवैध घुसपैठ या स्थानांतरण की शुरुआत 19वीं सदी के प्रारंभ में हुई, जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी बंगाली मुसलमानों को ब्रम्हपुत्र घाटी में खेतों में काम करने के लिए लाई। तीस साल के अंदर बंगाल से आने वाले मुसलमान असम के चार जिलों में बस गए थे। उन्होंने जंगल को साफ किया तथा बंजर भूमि में उत्पादन शुरू किया। उनकी आबादी इस कदर बढ़ी कि 1931 में जनगणना आयुक्त सीएस मुलेन ने जनगणना रिपोर्ट में भविष्यवाणी की, जहां कहीं भी खाली जमीन है वहां पूर्वी बंगाल के लोग बस रहे हैं। पिछले 25 वर्षो में बिना किसी हंगामे या ज्यादा शोर-शराबे के पांच लाख की आबादी बंगाल से असम आकर प्रत्यारोपित हो चुकी है। एक समय आएगा जब शिवसागर एकमात्र जिला बचेगा जिसे असमी अपना कह सकेंगे। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए सरकार ने लाइन सिस्टम शुरू किया, जिसने हर जिले में एक खास क्षेत्र को चिन्हित किया जहां पलायन कर आने वाले बंगाली मुस्लिम बस सकते थे। परंतु 1944-45 में सादुल्लाह खान के नेतृत्व वाली मुस्लिम लीग सरकार ने इस व्यवस्था को खत्म कर कामरूप, दारांग तथा नवगांव जिलों में पूर्वी बंगाल से आने वाले मुसलमानों को बसने की छूट दे दी। ऐसा करने का उद्देश्य बताया गया- धान की पैदावार बढ़ाना। जिन्ना के निजी सचिव ने उनसे वादा किया था कि वह उन्हें पाकिस्तान के लिए असम तश्तरी पर परोस कर देंगे। स्वाधीनता के बाद भी बांग्लादेश से आबादी का पलायन जारी रहा। इससे यह प्रमाणित होता है कि मजहब के नाम पर हुए बंटवारे से समस्या का समाधान नहीं हुआ। महात्मा गांधी एवं जवाहरलाल नेहरू मजहब के आधार पर विभाजन के बिल्कुल खिलाफ थे। उनका कहना था कि यदि अंतत: विभाजन ही होना है तो यह क्षेत्रीय आधार पर होना चाहिए, धार्मिक आधार पर नहीं। परंतु जिन्ना ने उनकी बात नहीं मानी। जब सितंबर, 1946 में उनसे पूछा गया कि क्या वह हिंदुस्तान के सारे मुसलमानों को पाकिस्तान ले जा पाएंगे, तो उनका जवाब था कि वह पाकिस्तान में हिंदुओं को रखना पसंद करेंगे ताकि यदि भविष्य में हिंदुस्तान में मुसलमानों के साथ अन्याय होता है तो ऐसा ही वह हिंदुओं के साथ पाकिस्तान में कर सकें। यानी वह हिंदुओं को ब्लैकमेल करने के उद्देश्य से पाकिस्तान में रखना चाहते थे। वैसे संविधान सभा में जिन्ना ने अपने बहुचर्चित भाषण में कहा था कि पाकिस्तान में सभी धर्मावलंबी अमन-चैन से एकदूसरे के साथ रह पाएंगे। यदि पाकिस्तान को पंथनिरपेक्ष राष्ट्र ही होना था, जहां सभी धर्मो को मानने वालों को समान अधिकार और सम्मान के साथ रहने का हक मिलता तो फिर विभाजन की जरूरत ही क्या थी? विभाजन के बाद भी बांग्लादेश से अवैध पलायनकर्ताओं का आना जारी रहा। इसके विरोध में पूरे राज्य में व्यापक आंदोलन ऑल असम स्टुडेंट्स यूनियन के नेतृत्व में चला। अंत में 1985 में राजीव गांधी ने आसु के साथ समझौता किया, जिसमें तय हुआ कि 25 मार्च, 1971 के दिन या उसके बाद आने वाले बांग्लादेशियों की पहचान कर उन्हें वापस बांग्लादेश भेजा जाएगा। इस समझौते को सख्ती से लागू करने की जरूरत है। यह स्पष्ट करना जरूरी है कि असम के लोगों का विरोध स्थानीय मुसलमानों से नहीं है, वरन अवैध घुसपैठियों से है।
[लेखक सुधांशु रंजन, वरिष्ठ पत्रकार हैं]

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-opinion2-9592398.html

खांटी भारतीय हैं पूर्वोत्तर की जनजातियां

पूर्वोत्तर की जिन जनजातियों को शेष भारत में चिंकी और चीनी कहकर चिढ़ाया जाता है, वे खांटी भारतीय हैं। ये अपने आप को न सिर्फ रामायण-महाभारत के पात्रों का वंशज मानती हैं, बल्कि अपने पूर्वजों की परंपराओं को जीवित भी रखे हुए हैं।
http://www.jagran.com/news/national-north-east-people-are-typical-indian-9594068.html

Wednesday, August 22, 2012

315 ईसाई फिर हिंदू धर्म में वापस

हरहुआ : स्थानीय मुर्दहा गांव स्थित ब्रह्म बाबा मंदिर में 315 ईसाइयों ने फिर हिंदू धर्म स्वीकार कर लिया। ये आसपास के गांवों के 22 परिवारों से हैं। हवन कुंड में आहुतियां दीं और संकल्प लिया। संत रविदास धर्म रक्षा समिति व सुहेलदेव रक्षा समिति ने पूजन अनुष्ठान कराया और उनके मूल धर्म में वापसी कराई।
http://www.jagran.com/uttar-pradesh/varanasi-city-9585091.html

पुणे विस्फोटों के पीछे आईएम का संस्थापक सदस्य साजिद: सूत्र

पुणे में हाल में हुए सिलसिलेवार धमाकों की जांच कर रही सुरक्षा एजेंसियों ने दावा किया है कि प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन इंडियन मुजाहिदीन का संस्थापक मोहम्मद साजिद हमले के पीछे मुख्य संदिग्ध है।
http://www.livehindustan.com/news/desh/national/article1-story-39-39-253756.html

मुंबई पुलिस कमिश्नर अरूप पटनायक पर बरसे ठाकरे

मुंबई।। आजाद मैदान में हिंसा से निबटने को लेकर महाराष्ट्र सरकार की आलोचना करते हुए शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे ने सोमवार को आरोप लगाया कि पुलिस आयुक्त अरूप पटनायक पुलिस बल का मनोबल गिरा रहे हैं।
http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/15572484.cms