http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-cap-mark-secularism-vaccine-10306939.html
देश में तमाम लोग ऐसे हैं जिन्हें यह लगता है कि प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी उपयुक्त उम्मीदवार नहीं हैं, लेकिन बहुत से लोग उन्हें इस पद के लिए श्रेष्ठ उम्मीदवार मान रहे हैं। यह पहले से स्पष्ट था कि नीतीश कुमार ऐसे लोगों में नहीं हैं। वह एक बार पहले भी नरेंद्र मोदी का नाम लिए बगैर उन्हें पीएम पद के लिए खारिज कर चुके हैं। तब उन्होंने एक साक्षात्कार के जरिये ऐसा किया था। अब सार्वजनिक भाषण के जरिये किया। पिछली बार की तरह इस बार भी उन्होंने मोदी का नाम नहीं लिया, लेकिन कम अक्ल लोग भी यह समझ गए होंगे कि उन्होंने मोदी के कपड़े-लत्तो उतारने की कोशिश की है। हालांकि वह मोदी का उपहास उड़ाए बगैर भी उन्हें पीएम पद के दावेदार के तौर पर खारिज कर सकते थे, लेकिन उन्होंने तो उनकी लानत-मलानत करते हुए उन्हें गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर भी असफल करार दिया। उन्हें केवल गुजरात का विकास ही रास नहीं आया, बल्कि वहां के लोगों की उद्यमशीलता और उसके समुद्री किनारे से भी परेशानी हुई। अब जद-यू के छोटे-बड़े नेता भले यह कहें कि देखिए, नीतीशजी ने किसी का नाम नहीं लिया, लेकिन कोई परम मूर्ख ही होगा जो यह कहेगा कि क्या वह गुजरात के मुख्यमंत्री की बात कर रहे थे, जिनका नाम नरेंद्र मोदी है? अगर गुजरात के लोगों में उद्यमशीलता है और वहां समंदर भी है तो इससे किसी को कोई शिकायत कैसे हो सकती है? आश्चर्यजनक रूप से नीतीश कुमार को है। उन्होंने गुजरात के विकास में कुछ खामियां भी खोज निकालीं। इसमें कोई बुराई नहीं। यह काम कोई भी आसानी से कर सकता है-ठीक वैसे ही जैसे बिहार के सुशासन में तमाम विसंगतियां गिनाई जा सकती हैं। कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि गुजरात में राम राज्य है और वहां हर तरफ खुशहाली छाई है। खुद मोदी ने भी कहा है कि अभी तो सिर्फ गढ्डे भरे जा सके हैं। नरेंद्र मोदी के आलोचक कुछ भी कहें, यह एक सच्चाई है कि गुजरात में विकास हुआ है। इसी तरह यह भी एक सच्चाई है कि नीतीश के शासन में बिहार की बदहाली दूर हुई है। जिस तरह मोदी के तौर-तरीकों से असहमत हुआ जा सकता है वैसे ही नीतीश कुमार की रीति-नीति से भी। यह स्वाभाविक है कि दोनों नेताओं में जब-तब तुलना भी होती है और उन्हें भावी प्रधानमंत्री के तौर पर भी देखा जाता है। यह भी स्पष्ट है कि नीतीश के मुकाबले कहीं अधिक लोग नरेंद्र मोदी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में देख रहे हैं। हालांकि नीतीश कुमार खुद को प्रधानमंत्री का दावेदार नहीं बताते, लेकिन उनके दल के तमाम नेता ऐसा ही कहते हैं। इस नतीजे पर पहुंचने के पर्याप्त कारण हैं कि नीतीश की परेशानी यह है कि उनके मुकाबले नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता कहीं अधिक बढ़ गई है। मामला तुम्हारी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफेद कैसे वाला लगता है। इसमें कुछ भी गलत नहीं कि नीतीश कुमार भी प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रखें। यह अधिकार हर राजनेता को है, लेकिन नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी की निंदा करके उन्हें नहीं पछाड़ सकते- इसलिए और भी नहीं, क्योंकि जब मोदी अपना अहंकार तजकर सहिष्णुता का परिचय दे रहे हैं तब नीतीश असहिष्णुता के साथ-साथ अहंकार का भी प्रदर्शन कर रहे हैं। वह मोदी और उनके बहाने भाजपा को तबसे अपमानित करते चले आ रहे हैं जब बिहार भाजपा ने दोनों नेताओं के हाथ मिलाते फोटो एक विज्ञापन में प्रकाशित करा दिए थे। तब उन्होंने भाजपा नेताओं का भोज रद कर दिया था। इस बार उन्होंने भाजपा नेताओं के साथ भोज कर मोदी को रद कर दिया।
नरेंद्र मोदी से नीतीश कुमार की परेशानी का दूसरा कारण बिहार का मुस्लिम वोट बैंक है। वह इससे चिंतित हैं कि मोदी को स्वीकार करने से उनका मुस्लिम वोट बैंक खिसक सकता है। आज की राजनीति में हर नेता को अपने वोट बैंक की चिंता करने का अधिकार है, लेकिन एक खास समुदाय के वोटों की परवाह करना पंथनिरपेक्षता नहीं है। नि:संदेह टोपी पहनना और टीका लगाना भी पंथनिरपेक्षता नहीं है। यह तो पंथनिरपेक्षता के नाम पर किया जाने वाला पाखंड है। अगर इस तरह के पाखंड को पंथनिरपेक्षता मान लिया जाएगा अथवा उसकी ऐसी सरल व्याख्या की जाएगी तो उसका और विकृत रूप सामने आना तय है। क्या नीतीश कुमार यह कहना चाहते हैं कि यदि मोदी मौलवी के हाथों टोपी पहन लेते तो वह उनकी नजर में पंथनिरपेक्ष हो जाते? पता नहीं वैसा होता तो नीतीश का नजरिया कैसा होता, लेकिन उन्हें उन सवालों का जवाब देना चाहिए कि जब वह वाजपेयी सरकार में रेलमंत्री थे तब उन्हें नरेंद्र मोदी क्यों स्वीकार थे?
अगर भाजपा को नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने का अधिकार है तो जदयू को उससे अलग होने का। यदि भाजपा-जदयू का नाता टूटता है, जिसके प्रबल आसार नजर आने लगे हैं तो इससे शायद ही किसी को हैरत हो, लेकिन अगर आम चुनाव टोपी-टीका छाप पंथनिरपेक्षता के आधार पर लड़े गए और विकास का मसला नेपथ्य में चला गया तो इससे देश का बेड़ा गर्क होना तय है। टोपी-टीका छाप पंथनिरपेक्षता को मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ने से विकास के साथ-साथ भ्रष्टाचार का मसला भी किनारे हो सकता है। अगर ऐसा होता है तो इससे सबसे ज्यादा खुशी कांग्रेस को होगी, जिसके नेतृत्व वाली केंद्रीय सत्ता भ्रष्टाचार के सारे रिकार्ड तोड़ने के बाद इस ताक में है कि कैसे विकास के मुद्दे को किनारे कर और सांप्रदायिकता का हौवा खड़ा करके अगले आम चुनाव लड़े जाएं। यह हैरत की बात है कि नरेंद्र मोदी और उनकी नीतियों के खिलाफ गर्जन-तर्जन करने वाले नीतीश कुमार ने केंद्रीय सत्ता के कुशासन के खिलाफ एक शब्द नहीं कहा। वह मोदी के प्रति कठोर हो सकते हैं, लेकिन आखिर भारत की सबसे भ्रष्ट सरकार के प्रति नरम कैसे हो सकते हैं?
[लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]
देश में तमाम लोग ऐसे हैं जिन्हें यह लगता है कि प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी उपयुक्त उम्मीदवार नहीं हैं, लेकिन बहुत से लोग उन्हें इस पद के लिए श्रेष्ठ उम्मीदवार मान रहे हैं। यह पहले से स्पष्ट था कि नीतीश कुमार ऐसे लोगों में नहीं हैं। वह एक बार पहले भी नरेंद्र मोदी का नाम लिए बगैर उन्हें पीएम पद के लिए खारिज कर चुके हैं। तब उन्होंने एक साक्षात्कार के जरिये ऐसा किया था। अब सार्वजनिक भाषण के जरिये किया। पिछली बार की तरह इस बार भी उन्होंने मोदी का नाम नहीं लिया, लेकिन कम अक्ल लोग भी यह समझ गए होंगे कि उन्होंने मोदी के कपड़े-लत्तो उतारने की कोशिश की है। हालांकि वह मोदी का उपहास उड़ाए बगैर भी उन्हें पीएम पद के दावेदार के तौर पर खारिज कर सकते थे, लेकिन उन्होंने तो उनकी लानत-मलानत करते हुए उन्हें गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर भी असफल करार दिया। उन्हें केवल गुजरात का विकास ही रास नहीं आया, बल्कि वहां के लोगों की उद्यमशीलता और उसके समुद्री किनारे से भी परेशानी हुई। अब जद-यू के छोटे-बड़े नेता भले यह कहें कि देखिए, नीतीशजी ने किसी का नाम नहीं लिया, लेकिन कोई परम मूर्ख ही होगा जो यह कहेगा कि क्या वह गुजरात के मुख्यमंत्री की बात कर रहे थे, जिनका नाम नरेंद्र मोदी है? अगर गुजरात के लोगों में उद्यमशीलता है और वहां समंदर भी है तो इससे किसी को कोई शिकायत कैसे हो सकती है? आश्चर्यजनक रूप से नीतीश कुमार को है। उन्होंने गुजरात के विकास में कुछ खामियां भी खोज निकालीं। इसमें कोई बुराई नहीं। यह काम कोई भी आसानी से कर सकता है-ठीक वैसे ही जैसे बिहार के सुशासन में तमाम विसंगतियां गिनाई जा सकती हैं। कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि गुजरात में राम राज्य है और वहां हर तरफ खुशहाली छाई है। खुद मोदी ने भी कहा है कि अभी तो सिर्फ गढ्डे भरे जा सके हैं। नरेंद्र मोदी के आलोचक कुछ भी कहें, यह एक सच्चाई है कि गुजरात में विकास हुआ है। इसी तरह यह भी एक सच्चाई है कि नीतीश के शासन में बिहार की बदहाली दूर हुई है। जिस तरह मोदी के तौर-तरीकों से असहमत हुआ जा सकता है वैसे ही नीतीश कुमार की रीति-नीति से भी। यह स्वाभाविक है कि दोनों नेताओं में जब-तब तुलना भी होती है और उन्हें भावी प्रधानमंत्री के तौर पर भी देखा जाता है। यह भी स्पष्ट है कि नीतीश के मुकाबले कहीं अधिक लोग नरेंद्र मोदी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में देख रहे हैं। हालांकि नीतीश कुमार खुद को प्रधानमंत्री का दावेदार नहीं बताते, लेकिन उनके दल के तमाम नेता ऐसा ही कहते हैं। इस नतीजे पर पहुंचने के पर्याप्त कारण हैं कि नीतीश की परेशानी यह है कि उनके मुकाबले नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता कहीं अधिक बढ़ गई है। मामला तुम्हारी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफेद कैसे वाला लगता है। इसमें कुछ भी गलत नहीं कि नीतीश कुमार भी प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रखें। यह अधिकार हर राजनेता को है, लेकिन नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी की निंदा करके उन्हें नहीं पछाड़ सकते- इसलिए और भी नहीं, क्योंकि जब मोदी अपना अहंकार तजकर सहिष्णुता का परिचय दे रहे हैं तब नीतीश असहिष्णुता के साथ-साथ अहंकार का भी प्रदर्शन कर रहे हैं। वह मोदी और उनके बहाने भाजपा को तबसे अपमानित करते चले आ रहे हैं जब बिहार भाजपा ने दोनों नेताओं के हाथ मिलाते फोटो एक विज्ञापन में प्रकाशित करा दिए थे। तब उन्होंने भाजपा नेताओं का भोज रद कर दिया था। इस बार उन्होंने भाजपा नेताओं के साथ भोज कर मोदी को रद कर दिया।
नरेंद्र मोदी से नीतीश कुमार की परेशानी का दूसरा कारण बिहार का मुस्लिम वोट बैंक है। वह इससे चिंतित हैं कि मोदी को स्वीकार करने से उनका मुस्लिम वोट बैंक खिसक सकता है। आज की राजनीति में हर नेता को अपने वोट बैंक की चिंता करने का अधिकार है, लेकिन एक खास समुदाय के वोटों की परवाह करना पंथनिरपेक्षता नहीं है। नि:संदेह टोपी पहनना और टीका लगाना भी पंथनिरपेक्षता नहीं है। यह तो पंथनिरपेक्षता के नाम पर किया जाने वाला पाखंड है। अगर इस तरह के पाखंड को पंथनिरपेक्षता मान लिया जाएगा अथवा उसकी ऐसी सरल व्याख्या की जाएगी तो उसका और विकृत रूप सामने आना तय है। क्या नीतीश कुमार यह कहना चाहते हैं कि यदि मोदी मौलवी के हाथों टोपी पहन लेते तो वह उनकी नजर में पंथनिरपेक्ष हो जाते? पता नहीं वैसा होता तो नीतीश का नजरिया कैसा होता, लेकिन उन्हें उन सवालों का जवाब देना चाहिए कि जब वह वाजपेयी सरकार में रेलमंत्री थे तब उन्हें नरेंद्र मोदी क्यों स्वीकार थे?
अगर भाजपा को नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने का अधिकार है तो जदयू को उससे अलग होने का। यदि भाजपा-जदयू का नाता टूटता है, जिसके प्रबल आसार नजर आने लगे हैं तो इससे शायद ही किसी को हैरत हो, लेकिन अगर आम चुनाव टोपी-टीका छाप पंथनिरपेक्षता के आधार पर लड़े गए और विकास का मसला नेपथ्य में चला गया तो इससे देश का बेड़ा गर्क होना तय है। टोपी-टीका छाप पंथनिरपेक्षता को मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ने से विकास के साथ-साथ भ्रष्टाचार का मसला भी किनारे हो सकता है। अगर ऐसा होता है तो इससे सबसे ज्यादा खुशी कांग्रेस को होगी, जिसके नेतृत्व वाली केंद्रीय सत्ता भ्रष्टाचार के सारे रिकार्ड तोड़ने के बाद इस ताक में है कि कैसे विकास के मुद्दे को किनारे कर और सांप्रदायिकता का हौवा खड़ा करके अगले आम चुनाव लड़े जाएं। यह हैरत की बात है कि नरेंद्र मोदी और उनकी नीतियों के खिलाफ गर्जन-तर्जन करने वाले नीतीश कुमार ने केंद्रीय सत्ता के कुशासन के खिलाफ एक शब्द नहीं कहा। वह मोदी के प्रति कठोर हो सकते हैं, लेकिन आखिर भारत की सबसे भ्रष्ट सरकार के प्रति नरम कैसे हो सकते हैं?
[लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]