Saturday, April 27, 2013

बेंगलुरु ब्लास्ट: इंडियन मुजाहिदीन शक के घेरे में

http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/19604783.cms
बेंगलुरु में हुए विस्फोट के एकबार फिर यह साबित हो गया है कि खुफिया तंत्र पूरी तरह 'अक्षम' है। हालत यह है कि विस्फोट के कई घंटे बाद तक जांच एजेंसियां यह बताने की स्थिति में नहीं है कि विस्फोट के पीछे किसका हाथ है। गृह मंत्रालय की तरफ से भी आधिकारिक तौर पर कोई जानकारी नहीं दी गई है। लेकिन सीनियर अधिकारी मान रहे हैं कि जो लोग हैदराबाद बम विस्फोटों के पीछे थे, उन्होंने ही इस विस्फोट को अंजाम दिया है।

हमें भारत में ही मारकर अंतिम संस्कार कर दो..

http://www.jagran.com/news/national-deport-our-bodies-to-pakistan-not-us-10310815.html
नई दिल्ली। संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार आयोग को पाकिस्तान में हिंदुओं के साथ हो रहे अत्याचारों की दासता जब सुनाई जा रही थी तब मानवता भी शर्म सार थी। बुधवार को राजधानी दिल्ली के लोधी रोड स्थित संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्यालय के बाहर पाकिस्तान से आए हिंदुओं ने जमकर प्रदर्शन किया तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव के नाम एक ज्ञापन भी सौंपा।

बेंगलुरु में BJP दफ्तर के पास IED से ब्लास्ट, 16 घायल

http://navbharattimes.indiatimes.com/india/south-india/explosion-near-bjp-office-in-bangalore/articleshow/19591807.cms
चुनावी रंग में रंगा बेंगलुरु बुधवार सुबह एक ब्लास्ट से दहल गया। ब्लास्ट बेंगलुरु के मलेश्वरम में बीजेपी दफ्तर के बाहर एक मोटरसाइकल में हुआ। इसमें 8 पुलिसवालों समेत 16 लोग घायल हो गए।ब्लास्ट इतना तगड़ा था कि तीन कारें और कई मोटरसाइकलें जल गईं। शुरुआती रिपोर्ट्स में ब्लास्ट वैन के एलपीजी सिलेंडर में होने की खबर आई, लेकिन बाद में बेंगलुरु के पुलिस कमिश्नर ने साफ कि ब्लास्ट मोटरसाइकल में हुआ। एनआईए ने शुरुआती जांच के बाद बताया कि ब्लास्ट इंप्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस (आईईडी) से किया गया। ब्लास्ट के पीछे आतंकी हमले की साजिश जताई जा रही है, लेकिन फिलहाल इसकी पुष्टि नहीं हुई है।
 

पंथनिरपेक्षता का पाखंड

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-the-hypocrisy-of-secularism-10310065.html
नरेंद्र मोदी द्वारा इंडिया फ‌र्स्ट के रूप में सेक्युलरिज्म की नई परिभाषा देने से फिर एक विवाद पैदा हुआ और इस विवाद को बढ़ाने का काम जद (यू) नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की तीखी आलोचना कर किया। नरेंद्र मोदी पर नीतीश कुमार के हमलों से यह बहस तेज हो गई है कि आखिर सेक्युलरिज्म है क्या बला? राजनीति में जिस सेक्युलरिज्म की दुहाई दी जाती है वह दरअसल झूठी और विकृत पंथनिरपेक्षता से अधिक और कुछ नहीं। यह वोट बटोरने का एक जरिया मात्र है। सेक्युलरिज्म पर सारा विवाद और छींटाकशी इसलिए होती रहती है, क्योंकि हमारे देश में इसकी कोई आधिकारिक परिभाषा नहीं है। न संविधान में, न संसद में कानून बना कर, न सुप्रीम कोर्ट के किसी निर्णय में सेक्यूलरिज्म का कोई अर्थ बताया गया है। सबसे बुरी बात तो यह कि इसे पारिभाषित करने के प्रयास को भी बाधित किया जाता है! नेतागण, सुप्रीम कोर्ट और प्रभावी बुद्धिजीवी वर्ग सबने इसे अस्पष्ट रहने देने की सिफारिश की है। यह सामान्य बात नहीं, क्योंकि इसी के सहारे भारत में एक विशेष प्रकार की राजनीति का दबदबा बना है, जिसकी धार हिंदू विरोधी है और इसी को कवच बनाकर देश-विदेश की भारत-विरोधी शक्तियां भी अपना कारोबार करती हैं।
ध्यान देने पर यह किसी को भी दिख सकता है। यहां बौद्धिक विचार-विमर्श में हिंदू शब्द प्राय: केवल उपहास या गाली के रूप में इस्तेमाल हो रहा है। प्रसिद्ध पत्रकार तवलीन सिंह के अनुसार भारत में प्रचलित सेक्युलरिच्म हिंदू सभ्यता के विरुद्ध चुनौती बन गया है। भारतीय सभ्यता अपने उत्कर्ष पर हिंदू सभ्यता ही थी, जिसने संपूर्ण विश्व को गणित से लेकर दर्शन, धर्म और साहित्य तक हर क्षेत्र में अनमोल उपहार दिए, किंतु आज भारत में यह बात कहना हिंदू सांप्रदायिकता है। उसी तरह इंडिया फ‌र्स्ट कहने पर भी आपत्तिकी जा रही है। इन बातों का निहितार्थ बहुत गंभीर है। ऐसे प्रसंग हमारे देश के बौद्धिक वातावरण पर एक टिप्पणी है कि किस तरह एक विकृत मतवाद ने लोगों को इतना दिग्भ्रमित कर दिया है कि वे देखकर भी नहीं देख पाते। प्रसिद्ध इतिहासकार रमेश चंद्र मजूमदार ने 1965 में ही स्पष्ट देखा था किए इस देश में मुस्लिम संस्कृति और भारतीय संस्कृति की चर्चा की जा सकती है, मगर हिंदू संस्कृति की नहीं। हिंदू शब्द केवल नकारात्मक अथरें में प्रयोग किया जाता है। याद रहे, यह तब की बात है जब न राम-जन्मभूमि आंदोलन था, न विश्व हिंदू परिषद थी। मगर तब भी हिंदू शब्द का प्रयोग पोंगापंथी, सांप्रदायिक, फासिस्ट संदर्भ में ही होता था। चार दशक में आज वह विष भी बन गया जिससे पुस्तकों, पदों, संस्थानों को मुक्त करने का अभियान चलाना पड़ता है।
दुनिया के सबसे बड़े हिंदू देश में हिंदू-विरोध ही सेक्युलरिच्म की और बौद्धिकता की कसौटी बन गया है। इसी से संभव होता है कि एक समुदाय के मजहबी शिक्षा-संस्थानों को अनुदान मिले, जबकि दूसरे को अपनी औपचारिक शिक्षा में महान दार्शनिक ग्रंथों को पढ़ने की अनुमति भी न दी जाए। अपरिभाषित सेक्युलरिच्म के डंडे से ही हिंदू मंदिरों पर सरकारी कब्जा कर लिया जाता है। इतना ही नहीं कई बड़े मंदिरों की आमदनी से दूसरे समुदाय के धार्मिक कर्मकांडों को करोड़ों का अनुदान दिया जाता है। एक ही काम के लिए ईसाई कार्यकर्ता को पद्म भूषण दिया जाता है, जबकि हिंदू समाजसेवी को सांप्रदायिक कहकर लांछित किया जाता है। नितांत अप्रमाणित आरोप पर भी हिंदू धर्माचार्य गिरफ्तार कर अपमानित किए जाते हैं, जबकि दूसरे धमरें के धर्मगुरुओं को देशद्रोही बयान देने, संरक्षित पशुओं को अवैध रूप से अपने घर में लाकर बंद रखने पर भी छुआ तक नहीं जाता। उल्टे राजनीतिक निर्णयों में उन्हें विश्वास में लेकर उनकी शक्ति बढ़ा दी जाती है। भयंकर आतंकवादी को भी लादेनजी और अफजल साहब का सम्मानित संबोधन दिया जाता है, जबकि देश के सबसे बड़े योगाचार्य को ठग कहा जाता है। यदि सेक्युलरिच्म वैधानिक रूप से परिभाषित हो गया तो ये सभी मनमानियां नहीं की जा सकेंगी। इसकी अस्पष्टता का ही करिश्मा है कि शिक्षा, संस्कृति और राजनीति हर क्षेत्र में भारत में अन्य समुदायों को हिंदुओं से अधिक अधिकार मिले हुए हैं।
कहने को अभी देश में सेक्युलरिच्म की कम से कम चार परिभाषाएं हैं, यद्यपि कोई भी वास्तविक नहीं। अलग-अलग सेक्युलरवादी इच्छानुसार इनका उपयोग करते हैं। एक परिभाषा 1973 में न्यायाधीश एचआर खन्ना ने दी कि राच्य मजहब के आधार पर किसी नागरिक के विरुद्ध पक्षपात नहीं करेगा। कुछ वर्ष बाद दूसरी परिभाषा कांग्रेस पार्टी ने दी-सर्वधर्म समभाव। तीसरी परिभाषा भाजपा ने दी-न्याय सब को, तरजीह किसी को नहीं। चौथी परिभाषा नहीं एक टिप्पणी है। किंतु सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और मानवाधिकार आयोग के पूर्व अध्यक्ष एमएन वेंकटचलैया की होने के कारण इसका महत्व है। इसके अनुसार सेक्युलरिच्म का अर्थ बहुसंख्यक समुदाय के विरुद्ध नहीं हो सकता। यह टिप्पणी प्रकारांतर मानती है कि व्यवहार में इसका यही अर्थ हो गया है। यहां याद करना जरूरी है कि स्वयं संविधान निर्माता डॉ. अंबेडकर ने भारतीय संविधान को सेक्युलर नहीं माना था, क्योंकि यह विभिन्न समुदायों के बीच भेदभाव करता है।
कांग्रेस ने 1976 में इमरजेंसी के दौरान 42वां संशोधन करके संविधान की प्रस्तावना में सेक्युलर शब्द जबरन जोड़ दिया। बाद में आई जनता सरकार ने 1978 में 45वें संशोधन द्वारा कांग्रेस वाली परिभाषा को ही वैधानिक रूप देने की कोशिश की। लोकसभा में यह पारित भी हो गया। पर राच्यसभा में कांग्रेस ने ही इसे पारित नहीं होने दिया। यह इस बात का पक्का प्रमाण है कि संविधान की प्रस्तावना में सेक्युलर शब्द गर्हित उद्देश्य से जोड़ा गया था, इसीलिए उसे जानबूझकर अपरिभाषित रखा गया ताकि जब जैसे चाहे, दुरुपयोग किया जाए। इस अन्याय को सुप्रीम कोर्ट ने भी दूर नहीं किया। उसने एसआर बोम्मई बनाम भारत सरकार मामले के निर्णय में लिख दिया कि सेक्युलरिच्म एक लचीला शब्द है, जिसका अपरिभाषित रहना ही ठीक है। जबकि ऐसा कहना ही कानून की धारणा के विरुद्ध है। जिसे संविधान और शासन का आधारभूत सिद्धांत कहा जाता है उसे परिभाषित होने से रोकने का आधार क्या है? एक अर्थ पसंद नहीं तो दूसरा सही, पर कोई पक्का वैधानिक अर्थ तो होना ही चाहिए। इससे हीलाहवाली करने पर आम जनता को समझने में कठिनाई नहीं होगी कि सेक्युलरिच्म को अपरिभाषित रखना विभिन्न समुदायों के बीच दूरी और झगड़ा बनाए रखने का पक्का औजार है।
[लेखक एस. शंकर, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]

Tuesday, April 16, 2013

टोपी-टीका छाप पंथनिरपेक्षता

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-cap-mark-secularism-vaccine-10306939.html
देश में तमाम लोग ऐसे हैं जिन्हें यह लगता है कि प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी उपयुक्त उम्मीदवार नहीं हैं, लेकिन बहुत से लोग उन्हें इस पद के लिए श्रेष्ठ उम्मीदवार मान रहे हैं। यह पहले से स्पष्ट था कि नीतीश कुमार ऐसे लोगों में नहीं हैं। वह एक बार पहले भी नरेंद्र मोदी का नाम लिए बगैर उन्हें पीएम पद के लिए खारिज कर चुके हैं। तब उन्होंने एक साक्षात्कार के जरिये ऐसा किया था। अब सार्वजनिक भाषण के जरिये किया। पिछली बार की तरह इस बार भी उन्होंने मोदी का नाम नहीं लिया, लेकिन कम अक्ल लोग भी यह समझ गए होंगे कि उन्होंने मोदी के कपड़े-लत्तो उतारने की कोशिश की है। हालांकि वह मोदी का उपहास उड़ाए बगैर भी उन्हें पीएम पद के दावेदार के तौर पर खारिज कर सकते थे, लेकिन उन्होंने तो उनकी लानत-मलानत करते हुए उन्हें गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर भी असफल करार दिया। उन्हें केवल गुजरात का विकास ही रास नहीं आया, बल्कि वहां के लोगों की उद्यमशीलता और उसके समुद्री किनारे से भी परेशानी हुई। अब जद-यू के छोटे-बड़े नेता भले यह कहें कि देखिए, नीतीशजी ने किसी का नाम नहीं लिया, लेकिन कोई परम मूर्ख ही होगा जो यह कहेगा कि क्या वह गुजरात के मुख्यमंत्री की बात कर रहे थे, जिनका नाम नरेंद्र मोदी है? अगर गुजरात के लोगों में उद्यमशीलता है और वहां समंदर भी है तो इससे किसी को कोई शिकायत कैसे हो सकती है? आश्चर्यजनक रूप से नीतीश कुमार को है। उन्होंने गुजरात के विकास में कुछ खामियां भी खोज निकालीं। इसमें कोई बुराई नहीं। यह काम कोई भी आसानी से कर सकता है-ठीक वैसे ही जैसे बिहार के सुशासन में तमाम विसंगतियां गिनाई जा सकती हैं। कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि गुजरात में राम राज्य है और वहां हर तरफ खुशहाली छाई है। खुद मोदी ने भी कहा है कि अभी तो सिर्फ गढ्डे भरे जा सके हैं। नरेंद्र मोदी के आलोचक कुछ भी कहें, यह एक सच्चाई है कि गुजरात में विकास हुआ है। इसी तरह यह भी एक सच्चाई है कि नीतीश के शासन में बिहार की बदहाली दूर हुई है। जिस तरह मोदी के तौर-तरीकों से असहमत हुआ जा सकता है वैसे ही नीतीश कुमार की रीति-नीति से भी। यह स्वाभाविक है कि दोनों नेताओं में जब-तब तुलना भी होती है और उन्हें भावी प्रधानमंत्री के तौर पर भी देखा जाता है। यह भी स्पष्ट है कि नीतीश के मुकाबले कहीं अधिक लोग नरेंद्र मोदी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में देख रहे हैं। हालांकि नीतीश कुमार खुद को प्रधानमंत्री का दावेदार नहीं बताते, लेकिन उनके दल के तमाम नेता ऐसा ही कहते हैं। इस नतीजे पर पहुंचने के पर्याप्त कारण हैं कि नीतीश की परेशानी यह है कि उनके मुकाबले नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता कहीं अधिक बढ़ गई है। मामला तुम्हारी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफेद कैसे वाला लगता है। इसमें कुछ भी गलत नहीं कि नीतीश कुमार भी प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रखें। यह अधिकार हर राजनेता को है, लेकिन नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी की निंदा करके उन्हें नहीं पछाड़ सकते- इसलिए और भी नहीं, क्योंकि जब मोदी अपना अहंकार तजकर सहिष्णुता का परिचय दे रहे हैं तब नीतीश असहिष्णुता के साथ-साथ अहंकार का भी प्रदर्शन कर रहे हैं। वह मोदी और उनके बहाने भाजपा को तबसे अपमानित करते चले आ रहे हैं जब बिहार भाजपा ने दोनों नेताओं के हाथ मिलाते फोटो एक विज्ञापन में प्रकाशित करा दिए थे। तब उन्होंने भाजपा नेताओं का भोज रद कर दिया था। इस बार उन्होंने भाजपा नेताओं के साथ भोज कर मोदी को रद कर दिया।
नरेंद्र मोदी से नीतीश कुमार की परेशानी का दूसरा कारण बिहार का मुस्लिम वोट बैंक है। वह इससे चिंतित हैं कि मोदी को स्वीकार करने से उनका मुस्लिम वोट बैंक खिसक सकता है। आज की राजनीति में हर नेता को अपने वोट बैंक की चिंता करने का अधिकार है, लेकिन एक खास समुदाय के वोटों की परवाह करना पंथनिरपेक्षता नहीं है। नि:संदेह टोपी पहनना और टीका लगाना भी पंथनिरपेक्षता नहीं है। यह तो पंथनिरपेक्षता के नाम पर किया जाने वाला पाखंड है। अगर इस तरह के पाखंड को पंथनिरपेक्षता मान लिया जाएगा अथवा उसकी ऐसी सरल व्याख्या की जाएगी तो उसका और विकृत रूप सामने आना तय है। क्या नीतीश कुमार यह कहना चाहते हैं कि यदि मोदी मौलवी के हाथों टोपी पहन लेते तो वह उनकी नजर में पंथनिरपेक्ष हो जाते? पता नहीं वैसा होता तो नीतीश का नजरिया कैसा होता, लेकिन उन्हें उन सवालों का जवाब देना चाहिए कि जब वह वाजपेयी सरकार में रेलमंत्री थे तब उन्हें नरेंद्र मोदी क्यों स्वीकार थे?
अगर भाजपा को नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने का अधिकार है तो जदयू को उससे अलग होने का। यदि भाजपा-जदयू का नाता टूटता है, जिसके प्रबल आसार नजर आने लगे हैं तो इससे शायद ही किसी को हैरत हो, लेकिन अगर आम चुनाव टोपी-टीका छाप पंथनिरपेक्षता के आधार पर लड़े गए और विकास का मसला नेपथ्य में चला गया तो इससे देश का बेड़ा गर्क होना तय है। टोपी-टीका छाप पंथनिरपेक्षता को मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ने से विकास के साथ-साथ भ्रष्टाचार का मसला भी किनारे हो सकता है। अगर ऐसा होता है तो इससे सबसे ज्यादा खुशी कांग्रेस को होगी, जिसके नेतृत्व वाली केंद्रीय सत्ता भ्रष्टाचार के सारे रिकार्ड तोड़ने के बाद इस ताक में है कि कैसे विकास के मुद्दे को किनारे कर और सांप्रदायिकता का हौवा खड़ा करके अगले आम चुनाव लड़े जाएं। यह हैरत की बात है कि नरेंद्र मोदी और उनकी नीतियों के खिलाफ गर्जन-तर्जन करने वाले नीतीश कुमार ने केंद्रीय सत्ता के कुशासन के खिलाफ एक शब्द नहीं कहा। वह मोदी के प्रति कठोर हो सकते हैं, लेकिन आखिर भारत की सबसे भ्रष्ट सरकार के प्रति नरम कैसे हो सकते हैं?
[लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]

साल अयोध्या में विवादित स्थल पर राम नवमी पूजा में अड़चन

http://aajtak.intoday.in/story/no-ram-navmi-puja-at-ayodhya-site-this-year-district-administration-1-727447.html
अयोध्या में विवादित स्थल पर पिछले 64 सालों से चली आ रही राम नवमी के दिन पूजा की परंपरा को अब बाधा का सामना करना पड़ सकता है क्योंकि जिला प्रशासन ने इलाके में किसी तरह धार्मिक कार्यक्रम की अनुमति न देने का फैसला किया है.

Monday, April 15, 2013

येद्दयुरप्पा देंगे मुस्लिमों को दो हजार करोड़ का पैकेज

http://www.jagran.com/news/national-yeddyurappa-promises-rs-2000cr-budget-allocation-for-muslims-10299208.html
कर्नाटक में अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येद्दयुरप्पा सत्ता पाने के लिए मुसलमानों और किसानों को लुभाने की कोशिशें शुरू कर दी हैं। भाजपा छोड़कर नई पार्टी बनाने वाले येद्दयुरप्पा ने शनिवार को अपनी कर्नाटक जनता पार्टी का घोषणापत्र जारी किया जिसमें उन्होंने किसानों, बुनकरों और मछुआरों के एक लाख तक का कर्ज माफ करने और मुसलमानों के लिए बजट में दो हजार करोड़ रुपये का पैकेज देने का एलान किया है।

'लव जिहाद' बयान पर फंसे कर्नाटक के डेप्युटी CM

http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/19515847.cms
ईश्वरप्पा ने शिमोगा में एक कार्यक्रम में कहा था, 'पिछले आठ महीनों में शिमोगा में 68 ब्राह्मण लड़कियों से मुस्लिम समुदाय के लड़कियों ने बहला-फुसलाकर गलत हरकतें कीं और बाद में उन्हें छोड़ दिया। मेरे पास इन आरोपों को साबित करने के लिए कागज हैं। शिमोगा शहर की ब्राह्मण लड़कियां 'लव जिहाद' की शिकार हैं।'

बांग्लादेशी हिंदुओं को बचाएं ओबामा

http://www.jagran.com/news/world-obama-asked-to-protect-religious-minorities-in-bangladesh-10293984.html
बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं के खिलाफ बढ़ते अत्याचार के बीच गुरुवार को बांग्लादेशी मूल के हिंदुओं ने अमेरिकी राष्ट्रपति के आधिकारिक आवास व्हाइट हाउस के बाहर प्रदर्शन किया।

Thursday, April 11, 2013

जबरदस्ती उठाकर कर लेते थे निकाह

http://www.bhaskar.com/article/HAR-AMB-girls-are-being-kidnapped-and-found-married-4231821-PHO.html?HF-11=
वे पाकिस्तान के नागरिक हैं लेकिन बरसों से भारत में आबाद जिंदगी बसर कर रहे हैं। हिंदुस्तान इन्हें नागरिकता नहीं देता और पाक इन्हें स्वीकारने का तैयार नहीं। यहां रहने के लिए उन्हें हर साल वीजा की अवधि बढ़वाने के लिए पाकिस्तान एम्बेसी के चक्कर काटने पड़ते हैं। 17 साल से भारत और पाकिस्तान के कानून के बीच फंसे इन लोगों में अधिकतर बूढ़े हो चले हैं।