Sunday, November 17, 2013

इंडियन मुजाहिदीन ने किए धमाके!

http://www.jagran.com/news/national-indian-mujahideen-behind-bodhgaya-blasts-10547884.html
कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह भले ही बोधगया धमाकों की साजिश के लिए भाजपा की ओर इशारा कर रहे हों, लेकिन गृह मंत्रालय का संदेह इंडियन मुजाहिदीन पर ही है। गृह मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने सोमवार को कहा कि हमारे पास पहले से जानकारी थी कि आइएम महाबोधि मंदिर में धमाके की योजना बना रहा है और इस पर संदेह का कोई कारण नहीं है। उन्होंने हालांकि स्वीकार किया कि इस वारदात को अंजाम देने वाले आतंकियों का अभी तक कोई सुराग नहीं मिला है। गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने महाराष्ट्र में कहा कि महाबोधि मंदिर परिसर में 13 बम लगाए गए थे, जिनमें से दस में विस्फोट हुए।

आतंकियों को आमंत्रण

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-invitation-to-terrorists-10547880.html
अभी तक यह आम धारणा रही है कि आतंकी गतिविधियों को लेकर खुफिया ब्यूरो यानी आइबी के एलर्ट रस्मी ही हुआ करते हैं और उनमें ऐसी कोई खास जानकारी नहीं रहती कि संबंधित राज्य की पुलिस कुछ खास कर सके, लेकिन शायद ऐसा नहीं है। महाबोधि मंदिर में धमाकों के बाद यह स्पष्ट हो रहा है कि आइबी के एलर्ट काम के होते हैं और अगर उन पर ध्यान दिया जाए तो आतंकियों पर अंकुश संभव है। दुर्भाग्य से बिहार सरकार ने आइबी एलर्ट पर बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया और वह भी तब जब उसे कई बार ऐसे एलर्ट मिले। बिहार सरकार ने आइबी एलर्ट पर ध्यान देने के बजाय इस पर गौर किया कि राष्ट्रीय जांच एजेंसी रह-रहकर उसके यहां के लोगों को गिरफ्तार क्यों कर रही है? दरभंगा जिले से इन लोगों की गिरफ्तारी पर चेतने के बजाय बिहार सरकार ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी पर ही सवाल उठा दिया। उसकी आपत्तिइस पर थी कि गिरफ्तार किए जा रहे लोगों को 'दरभंगा माड्यूल' का हिस्सा क्यों बताया जा रहा है? उसने यह आपत्तिइसके बावजूद उठाई कि इंडियन मुजाहिदीन नामक आतंकी संगठन का कुख्यात सरगना यासीन भटकल दरभंगा जिले के एक गांव में महीनों रहकर आतंकियों को तैयार करता रहा।
यह संभवत: पहली बार है कि आतंकी धमाकों को लेकर आलोचनाओं के घेरे में आई राज्य सरकार केंद्र सरकार पर ऐसी कोई तोहमत मढ़ने की स्थिति में नहीं है कि उसकी एजेंसियों की ओर से कोई चेतावनी नहीं दी गई और जो दी भी गई वह किसी काम की नहीं थी। शायद केंद्रीय खुफिया एजेंसियों के लिए इससे ज्यादा सटीक सूचनाएं देना संभव नहीं है और अगर वे देने में सक्षम हो जाएं तो भी आगे का काम राज्य सरकारों और उनकी पुलिस को ही करना होगा। मुश्किल यह है कि राज्यों को एनसीटीसी जैसी संस्था मंजूर नहीं। वे कानून एवं व्यवस्था के मामले में केंद्र का कोई हस्तक्षेप सहने को तैयार नहीं। अपनी-अपनी पुलिस को मजबूत करने का काम भी उनकी प्राथमिकता से बाहर है। बिहार में तमाम संदिग्ध आतंकियों की गिरफ्तारी और नेपाल से लगती सीमा से उनकी घुसपैठ की प्रबल आशंका के बावजूद बिहार सरकार ने आतंक रोधी दस्ते के गठन के केंद्र सरकार के सुझाव पर ध्यान न देना बेहतर समझा।
कानून एवं व्यवस्था के तंत्र को दुरुस्त करने के मामले में जो स्थिति बिहार की है वही ज्यादातर राज्यों की भी है। राज्य सरकारें यह देखने से इन्कार कर रही हैं कि आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बने तत्व मजबूत होते जा रहे हैं और उनके मुकाबले उनका सुरक्षा तंत्र कहीं अधिक कमजोर है। आंध्र प्रदेश के नक्सलियों ने शेष देश के नक्सलियों से हाथ मिलाकर खुद को एकजुट और मजबूत कर लिया, लेकिन नक्सल प्रभावित राज्य सरकारों के मुख्यमंत्री एक के बाद एक अनगिनत बैठकों के बावजूद नक्सलवाद से निपटने के तरीकों पर एकमत नहीं हो सके हैं। यही स्थिति आतंकी तत्वों से निपटने के मामले में भी है। आतंकी संगठन इंडियन मुजाहिदीन ने दक्षिण से निकलकर उत्तार भारत में अपनी जड़ें जमा लीं और फिर भी राज्य सरकारें कई बार इस पर उलझ पड़ती हैं कि राष्ट्रीय जांच एजेंसी या किसी अन्य राज्य की पुलिस ने उसकी जानकारी के बगैर उसके यहां के किसी संदिग्ध को गिरफ्तार कैसे कर लिया। राज्यों के इस रवैये के साथ-साथ आतंकवाद को लेकर की जाने वाली सस्ती राजनीति ने भी आंतरिक सुरक्षा का बेड़ा गर्क कर रखा है। इस पर आश्चर्य नहीं कि महाबोधि मंदिर में विस्फोट होते ही सियासी बयान धमाकों की तरह गूंजने लगे। इस मामले में किसी भी दल के नेता पीछे नहीं रहे, लेकिन सबसे अव्वल रहे कांग्रेस के मुखर महासचिव दिग्विजय सिंह। कभी-कभार धीर-गंभीर, लेकिन ज्यादातर मौकों पर शरारत भरे बयान देने में माहिर दिग्विजय सिंह ने पहले यह कहा कि गैर भाजपा शासित राज्य सतर्क रहें। इस बयान के जरिये उन्होंने यह संदेश दिया कि हो न हो भाजपा वाले ही विस्फोट कराते हैं अथवा उनसे मिले रहते हैं। जब इस बयान से उनका जी नहीं भरा तो उन्होंने ट्विटर पर यह लिख मारा, ''अमित शाह अयोध्या में भव्य मंदिर का वायदा करते हैं और मोदी बिहार के भाजपा कार्यकर्ताओं से कहते हैं कि वे नीतीश को सबक सिखाएं। अगले दिन महाबोधि में विस्फोट हो जाते हैं। क्या इसमें कोई संबंध है?'' यह सवाल की शक्ल में किया गया प्रहार है। क्या इसका मतलब ऐसा कुछ नहीं निकलता कि नरेंद्र मोदी ने पहले तो नीतीश कुमार को धमकाया और फिर किसी को भेजकर-उकसाकर महाबोधि मंदिर में धमाके करा दिए? दिग्विजय सिंह ने मोदी पर निशाना साधने के लिए बड़ी सफाई से उनके इस बयान को तोड़-मरोड़ डाला कि बिहार की जनता नीतीश कुमार को सबक सिखाएगी।
देश में जिस तरह नरेंद्र मोदी के तमाम प्रशंसक हैं उसी तरह उनके विरोधी भी बहुत हैं। स्पष्ट है कि मोदी के विरोधियों को दिग्विजय सिंह का बयान बहुत भाया होगा, लेकिन जिन तत्वों ने महाबोधि मंदिर में विस्फोट किए होंगे अथवा जो रह-रह कर विस्फोट करके देश को दहशतजदा करते रहते हैं वे तो आनंद से भर उठ होंगे। आतंकियों को आनंदित करने का यह काम कुछ और लोग भी कर रहे हैं। फिलहाल इस काम में सीबीआइ भी मशगूल दिख रही है। इशरत जहां मुठभेड़ कांड की जांच के बहाने उसने आइबी की ऐसी घेरेबंदी कर रखी है कि वह त्राहिमाम की हालत में आ गई है। आश्चर्यजनक यह है कि कोई भी आइबी की गुहार सुनने को तैयार नहीं-न राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और न ही प्रधानमंत्री। शायद संकीर्ण राजनीतिक हितों की पूर्ति के लोभ में केंद्रीय सत्ता के नीति-नियंता यह भूल रहे हैं कि भविष्य में आइबी से किसी तरह के अलर्ट की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? क्या मौजूदा हालात नक्सलियों, आतंकियों और अन्य देश विरोधी तत्वों को सादर आमंत्रित करने वाले नहीं नजर आते?
[लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]

सेतुसमुद्रम के पक्ष में द्रमुक ने दी जेलें भरने की धमकी

http://www.jagran.com/news/national-demand-for-sscp-not-aimed-at-publicity-says-karunanidhi-10547887.html
नागपट्टनम। भारत और श्रीलंका के बीच जहाजों के सुगम आवागमन के लिए सेतुसमुद्रम परियोजना की हिमायत करते हुए द्रमुक प्रमुख एम करुणानिधि ने कहा है कि उनका मकसद इस मुहिम से लोकप्रियता हासिल करना नहीं है। पार्टी कोषाध्यक्ष एमके स्टालिन ने चेतावनी दी है कि अगर राज्य सरकार परियोजना के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट से हलफनामा वापस नहीं लेती

मलयेशिया में धर्म परिवर्तन से जुड़ा विवादास्पद बिल वापस

http://navbharattimes.indiatimes.com/world/asian-countries/malaysia-withdraws-bill-allowing-unilateral-conversion/articleshow/20975980.cms
मलयेशियाई सरकार ने सोमवार को धर्म परिवर्तन से जुड़े एक विवादास्पद बिल को वापस ले लिया। यह बिल मां या बाप, किसी भी एक को अपने बच्चे को धर्म परिवर्तन के लिए मंजूरी देने का अधिकार देता है। बिल को लेकर खासा विवाद उस वक्त पैदा हो गया था, जब दो नाबालिग भारतीय हिंदू लड़कियों की मां की इजाजत बिना ही उन्हें इस्लाम कबूल कराया गया था।

हिंदू मुन्नानी संगठन के नेता की हत्या से रामेश्वरम में तनाव

http://www.jagran.com/news/national-hindu-munnani-leader-murdered-in-rameswaram-10546058.html
तमिलनाडु के रामेश्वरम में हिंदू मुन्नानी संगठन के एक स्थानीय नेता की हत्या कर दी गई है। इससे शहर में तनाव पैदा हो गया है। राज्य में इस संगठन के नेता पर यह दूसरा जानलेवा हमला है।

बिहार के बोधगया के महाबोधि मंदिर में सीरियल ब्लास्ट

http://navbharattimes.indiatimes.com/india/national-india/8-serial-blast-in-mahabodhi-temple/articleshow/20951739.cms
आतंकी हमले के बाद बिहार के बोधगया मंदिर को आम लोगों के लिए बंद कर दिया गया है, हालांकि वहां प्रार्थना नियमित रूप से कराई जाएगी। बिहार के डीजीपी अभयानंद ने यह जानकारी देते हुए बताया कि मंदिर को खास नुकसान नहीं हुआ है, लेकिन वहां की सुरक्षा व्यवस्था पहले से ज्यादा कड़ी कर दी गई है। इस बीच खबर है कि एनआईए की टीम बोधगया मंदिर पहुंच गई है और उसने अपनी तरह से जांच-पड़ताल शुरू कर दी है।

आतंकवाद पर आत्मघाती रवैया

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-suicide-attitude-on-terrorism-10537062.html
जब इशरत जहां पुलिस गोलीकांड मामले में आरोपपत्र दाखिल होने के पूर्व से ही तूफान खड़ा किया जा रहा था तो फिर आरोपपत्र आने के बाद उसे बवंडर में परिणत करने की कोशिश बिल्कुल स्वाभाविक है। हालांकि जिस तरह खुफिया ब्यूरो के अधिकारी से लेकर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी, अमित शाह आदि के नाम आने से लेकर उनके भविष्य तक का आकलन पहले ही कर दिया गया था वैसा कुछ हुआ नहीं। हां, कुछ लोगों के लिए संतोष का विषय यह है कि आरोपपत्र में सीबीआइ ने जांच जारी रखने की बात कही है। दुर्भाग्य से इस आरोपपत्र की गलत व्याख्या भी की जा रही है। ऐसा माहौल बनाया जा रहा है मानो सीबीआइ ने अपनी जांच में इशरत जहां सहित मारे गए चारों को बिल्कुल निर्दोष साबित कर दिया है। इशरत जहां मामले के दो पहलू हैं। एक यह कि वह और उसके साथियों ने वाकई पुलिस के साथ भिड़ंत की या उन्हें पकड़ने के बाद मारा गया? दो, क्या वे चारों निर्दोष थे या आतंकवाद या अपराध से उनका रिश्ता था? आरोपपत्र में केवल यह कहा गया है कि 15 जून 2004 को अहमदाबाद के नरोदा इलाके में मारी गई इशरत एवं उनके तीन साथियों ने पुलिस से मुठभेड़ नहीं की थी, वे पहले से पुलिस के कब्जे में थे, जिन्हें मारकर मुठभेड़ की झूठी कथा में परिणत कर दिया गया। नि:संदेह इस मामले में पहले आई रिपोटरें से भी पुलिस की भूमिका संदेह के घेरे में आती हैं। मसलन, 9 सितंबर 2009 को मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट न्यायमूर्ति एसपी तमांग की जांच रिपोर्ट। इसमें भी उनके पास हथियार रखने की बात थी। इसमें कहा गया था कि उप महानिरीक्षक डीजी बंजारा एवं पुलिस आयुक्त केआर कौशिक ने इशरत जहां, जावेद गुलाम शेख उर्फ प्राणेश पिल्लई, अमजद अली उर्फ राजकुमार राणा और जीशान अली को महाराष्ट्र में ठाणे व अन्य जगहों से उठाया और 14 जून की रात्रि में 10-12 बजे के बीच गोली मार दी, लेकिन तमांग की रिपोर्ट व्यापक जांच के बजाय पोस्टमार्टम रिपोर्ट, मृत्यु के कारण संबंधी रिपोर्ट, फोरेंसिक निष्कर्ष एवं सबडिविजनल मजिस्ट्रेट की प्राथमिक छानबीन पर आधारित थी।
सीबीआइ आरोपपत्र से उनके आतंकवादी न होने का प्रमाण नहीं मिलता। सीबीआइ आरोपपत्र के अनुसार उसने इस पहलू की जांच की ही नहीं। क्यों नहीं की? तो जवाब है कि उच्च न्यायालय ने ऐसा करने को नहीं कहा। खैर, पुलिस ने दावा किया था कि वे चारों मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या के इरादे से आए थे और लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादी थे। इसके भी दो पहलू हैं। एक यह कि उनके आतंकवादी होने की सूचना कहां से आई थी? यह साफ है कि केंद्रीय खुफिया ब्यूरो ने पहले इसकी छानबीन की, फिर गुजरात एवं यहां तक कि महाराष्ट्र पुलिस को भी इसकी जानकारी दी। यानी यह गुजरात पुलिस की अपनी सूचना पर कार्रवाई नहीं थी। सीबीआइ कह रही है कि खुफिया ब्यूरो ने पहले अमजद अली उर्फ राजकुमार राणा और जीशान अली को गिरफ्तार किया, फिर इशरत और उसके साथी जावेद गुलाम शेख उर्फ प्राणेश पिल्लई को गिरफ्तार किया गया था। इन चारों को आइबी ने दो तीन हफ्ते तक अपनी हिरासत में रखा, फिर गुजरात पुलिस को सौंप दिया।
प्रश्न है कि अगर खुफिया ब्यूरो कोई सूचना देता है तो जिम्मेदारी उसकी होगी या राच्य की? अगर राच्य की पुलिस को केंद्रीय खुफिया ब्यूरो के तत्कालीन संयुक्त निदेशक राजेंद्र कुमार ने सूचना दी तो जिम्मेदारी उनकी है और वे अकेले तो इस ऑपरेशन में संलग्न थे नहीं। इसमें वहां के मुख्यमंत्री कैसे षड्यंत्र में शामिल हो सकते हैं। अब आएं उनके आतंकवादी होने और न होने के आरोप पर। आइबी द्वारा सीबीआइ को लिखे पत्र के अनुसार सितंबर 2009 में अमेरिका में पकड़े गए पाकिस्तान मूल के लश्कर-ए-तैयबा आतंकी डेविड कोलमैन हेडली ने एफबीआइ के सामने अपने कुबूलनामे में लिखा है कि इशरत जहां और उसके साथी लश्कर से जुड़े थे और वह स्वयं एक फिदायीन थी। जो तथ्य सामने आ रहे हैं उनके अनुसार केंद्रीय खुफिया ब्यूरो के अधिकारी पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादी मुजम्मिल का फोन ट्रेस कर रहे थे। इस दौरान सुराग मिला कि जीशान जौहर नामक आतंकवादी 26 अप्रैल 2004 को अहमदाबाद आया है एवं छद्म पहचान के साथ गोता हाउसिंग बोर्ड में रुका है। इसी दौरान दूसरी सूचना 27 मई को अमजद अली राणा के कालूपुल-अहमदाबाद रेलवे स्टेशन के सामने स्थित होटल में ठहरने की जानकारी मिली।
सीबीआइ का कहना है कि पुलिस ने राणा को उठा लिया। तत्पश्चात चारों को 15 जून 2004 को पूर्वी अहमदाबाद में मार गिराया गया। यह मान लिया जाए कि उन्हें उठाकर मारा गया तब भी उनके आतंकवादी होने का संदेह पुख्ता अवश्य होता है। अमेरिका गए राष्ट्रीय जांच एजेंसी एवं कानून मंत्रालय के चार सदस्यीय दल ने वहां क्या जानकारी प्राप्त की उसे देश के सामने लाया जाए। 6 अगस्त 2009 को अपने पहले हलफनामे में गृह मंत्रालय ने इशरत और उसके साथियों को लश्कर आतंकी बताते हुए मुठभेड़ की सीबीआइ जांच का विरोध किया था। दो महीने के भीतर ही हलफनामा बदल दिया गया था। क्यों? जाहिर है, फर्जी मुठभेड़ के आरोप की आड़ में हमें उतावलेपन और केवल मोदी विरोध की भावना में आतंकवादी या संदेहास्पद गतिविधियों वाले पहलू को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। फर्जी मुठभेड़ बिल्कुल अनुचित है, परंतु यह देश की सुरक्षा का मामला है। आतंकवादी रडार में शीर्ष पर होने वाले देश के लिए ऐसा रवैया आत्मघाती होगा। अगर हम आतंकवादियों की खुफिया जानकारी और परवर्ती कार्रवाई में लगी आइबी, पुलिस या सरकारों को ही कठघरे में खड़ा करेंगे तो इससे आतंकवादियों और देश विरोधियों का ही हौसला बढ़ेगा।
[लेखक अवधेश कुमार, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]

खाड़ी की दौलत से केरल में बढ़ रहा धार्मिक उन्माद?

केरल में मुस्लिम समुदाय के लोगों की इनकम बढ़ाने में काफी हद तक खाड़ी देशों के इकनॉमिक बूम का योगदान है, लेकिन पिछले 4 दशक के दौरान बढ़ी इस ताकत के कुछ नेगेटिव पहलू भी सामने आ रहे हैं। इससे समुदाय के कुछ लोगो में रैडिकलिज़म को भी हवा मिली है।
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Tuesday, October 1, 2013

बलियाः हिंसक झड़प मामले में 7 गिरफ्तार

http://navbharattimes.indiatimes.com/-///---7-/articleshow/20863269.cms
उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में उभांव थाना के कुंडैल नियामतअली गांव में रविवार को दलित और मुस्लिम वर्ग के बीच हुई हिंसक झड़प के मामले में पुलिस ने सोमवार को दोनों पक्षों के सात लोगों को गिरफ्तार किया है। यह जानकारी पुलिस ने दी।

दोहरे मापदंड का प्रमाण

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-proof-of-double-standards-10527947.html
पिछले दिनों 'शबे बारात' के मौके पर रात को दिल्ली की सड़कों पर एक समुदाय विशेष के युवाओं ने जमकर हुड़दंग मचाया। पिछले साल भी इस मौके पर ऐसा ही अराजक माहौल था। मोटरसाइकिल पर सवार हजारों गुंडों ने कानून एवं व्यवस्था की धज्जियां उड़ा दीं। एक-एक मोटरसाइकिल पर तीन-चार गुंडे बैठे थे। किसी ने भी हेलमेट नहीं पहना था और ट्रैफिक के हर कानून का उल्लंघन करते हुए घंटों गुंडागर्दी का तांडव किया। निजी वाहनों में सफर कर रही महिलाओं के साथ बदतमीजी की गई और उन्हें अश्लील इशारे किए गए। ट्रैफिक जाम में फंसी कारों के ऊपर खड़े होकर उत्पाती नाचते रहे। पुलिस मूकदर्शक बनी रही। प्रश्न उठता है कि इन असामाजिक तत्वों के आगे प्रशासन पंगु क्यों था और इन गुंडों को दुस्साहस की प्रेरणा कहां से मिलती है?
दैनिक जागरण बधाई का पात्र है, जिसने पूरी साफगोई से मामले को विस्तार से सामने रखा। यह घटनाक्त्रम सेक्युलर व्यवस्था के दोहरे मापदंडों को रेखांकित करता है। यह केवल दिल्ली तक ही सीमित नहीं है। देश के अन्य हिस्सों, खासतौर पर पश्चिम उत्तार प्रदेश में भी ऐसी घटनाएं आम हैं। दहशतगर्द यदि मुस्लिम समुदाय से जुड़े होते हैं तो प्रशासन मौन साध लेता है। अधिकारियों को 'ऊपर' से कार्रवाई न करने का आदेश होता है। समाज की शांति भंग करने वाले जहां बेखौफ हैं, वहीं इस देश की कानून एवं व्यवस्था पर विश्वास रखने वाले आम नागरिक हुड़दंगियों के रहमोकरम पर हैं। दो साल पूर्व इसी जून के महीने में कालेधन और भ्रष्टाचार को लेकर बाबा रामदेव द्वारा छेड़े गए जन आंदोलन को दिल्ली पुलिस ने अपने लाठीबल से कुचल दिया था। भारत माता की जय बोलने वाले एक निहत्थे समूह को आधी रात पुलिसिया बर्बरता का शिकार बनाने वाली व्यवस्था ऐसे मामलों में क्यों खामोश रहती है? आज दिल्ली पुलिस की मर्दानगी कहां खो गई? मुस्लिम समुदाय के कट्टरपंथी तत्वों द्वारा हिंसा के बल पर कानून एवं व्यवस्था को हाशिये पर डालने के अनेक उदाहरण हैं। पुरानी दिल्ली स्थित सुभाष पार्क में मेट्रो रेल निगम की ओर से रेल पटरी बिछाने के लिए की जा रही खुदाई में जब एक ढांचा सामने आया तो उस पर मुस्लिम समुदाय के रहनुमाओं ने फौरन अपनी दावेदारी ठोंक दी। खुदाई में अभी केवल एक दीवार ही मिली थी और उसे मस्जिद का अवशेष घोषित कर मस्जिद खड़ी कर दी गई। यहां चल रहे अवैध निर्माण कार्य को रोकने का साहस किसी भी सरकारी एजेंसी में नहीं था। मामला जब उच्चतम न्यायालय के संज्ञान में पहुंचा तो अदालत ने वहां निर्माण कार्य पर रोक लगाने का आदेश सुनाया, किंतु इस आदेश की तामील कराने जब पुलिस विवादित स्थल पर पहुंची तो स्थानीय मुस्लिम आबादी के एक बड़े वर्ग ने पुलिस पर हल्ला बोल दिया। घंटों सड़क पर बलवाइयों का खौफ छाया रहा और आम आदमी को जानोमाल के जोखिम से दोचार होना पड़ा। अदालती आदेश की अवहेलना और सड़क पर बलवा करने की इस घटना पर सेक्युलरिस्ट खामोश रहे। क्यों? देश का कानून और सेक्युलरिस्टों की सक्त्रियता अल्पसंख्यकों से जुड़े मामलों में लकवाग्रस्त क्यों हो जाती है? अगस्त, 2012 में मुंबई के आजाद मैदान में असम दंगों के खिलाफ आयोजित विरोध प्रदर्शन का हिंसा पर उतर आना कट्टरपंथियों के बढ़े दुस्साहस का एक और प्रमाण है। स्थानीय मुस्लिम संगठन रजा अकादमी के आह्वान पर जनसभा में शामिल होने के बहाने हजारों की संख्या में एकत्रित भीड़ ने पुलिस की गाड़ियां जला डालीं, न्यूज चैनलों की ओबी वैन जलाई गई और आसपास की दुकानों को लूटपाट के बाद आग के हवाले कर दिया गया। इस दौरान पाकिस्तानी झंडे भी लहराए गए। इसके साथ ही पुणे, हैदराबाद आदि शहरों में पूर्वोत्तार के लोगों पर भी हमले किए गए। प्रश्न यह है कि एक समुदाय विशेष के कट्टरपंथी वर्ग को इस देश की कानून एवं व्यवस्था का खौफ क्यों नहीं है? अपनी हर उचित-अनुचित मांग को पूरा करने के लिए जब-तब हिंसा की प्रेरणा उसे कौन देता है?
दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में दिल्ली विकास प्राधिकरण की जमीन पर अवैध रूप से बनाई गई एक मस्जिद को ढहाने के लिए जब अधिकारी पहुंचे तो इसी तरह हिंसा के बल पर सुरक्षा जवानों और अधिकारियों को खदेड़ भगाया गया। दिल्ली के ही जोरबाग इलाके में अदालत के आदेश पर एक विवादित स्थल पर प्रवेश की अनुमति नहीं है, किंतु हिंसा के बल पर उसमें जबरन प्रवेश करने की जब-तब कोशिशें होती हैं। पुलिस मौन रहती है, जबकि आसपास के आम नागरिक खौफ के वातावरण में जीने को अभिशप्त हैं। क्यों? असम के दंगों के दौरान सेक्युलरिस्टों का वीभत्स चेहरा बेनकाब हुआ था। अवैध रूप से बस चुके बांग्लादेशी घुसपैठिए अब वहां के स्थानीय बोडो जनजातीय लोगों को हिंसा के बल पर मार भगाना चाहते हैं। उनकी पहचान मिटाने पर आमादा हैं, किंतु कांग्रेस दशकों से बांग्लादेशी घुसपैठियों को संरक्षण प्रदान कर रही है, जिनके वोट बैंक के बूते वह असम की सत्ता पर कुंडली मारे बैठी है।
क्या वोट बैंक की राजनीति के लिए इन अवैध घुसपैठियों को इसलिए शरणार्थी मान लेना चाहिए कि वे मुस्लिम हैं? रोहयांग म्यांमारी और बांग्लादेशी घुसपैठियों का भारत से दूर-दूर का संपर्क नहीं है, फिर भी उन्हें संरक्षण दिलाने के लिए सेक्युलर दलों का एक बड़ा तबका चिंताग्रस्त है, किंतु उन हजारों हिंदुओं के लिए कोई फिक्रमंद दिखाई नहीं देता जो मजहबी उत्पीड़न और हिंसा से खौफजदा होकर बांग्लादेश और पाकिस्तान से पलायन कर अपने वतन लौटे हैं।
भारत में यदि मुस्लिम समाज में कट्टरवादी हावी हो रहे हैं और मजहबी जुनून को हवा मिल रही है तो इसका बड़ा श्रेय सेक्युलरिस्टों को जाता है, जो वोट बैंक की राजनीति के कारण मुस्लिम कट्टरपंथ को आंख बंद कर पोषित करते हैं। यही कारण है कि सीमा पार बैठी शक्तियां स्थानीय मुस्लिम युवाओं को काफिर और जिहाद के नाम पर उकसाने में सफल हो रही हैं। सेक्युलरिस्ट अशिक्षा को इस्लामी आतंक की प्रमुख वजह बताते आए हैं, किंतु कड़वी सच्चाई यह है कि मुस्लिम समुदाय के एक बड़े वर्ग में मौजूद कट्टरपंथी मानसिकता ही वह उर्वर भूमि है जिसमें जिहाद की फसल लहलहा रही है। वस्तुत: सेक्युलरिस्टों के दोहरे मापदंड सामाजिक शांति, सौहार्द और भारत के परंपरागत बहुलतावादी समाज के लिए गंभीर खतरा हैं।
[लेखक बलबीर पुंज, भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं]