Wednesday, May 23, 2012

घुसपैठियों की शरणस्थली


पिछले दिनों दिल्ली उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद म्यांमार के हजारों अवैध घुसपैठियों को दिल्ली से बाहर निकालना संभव हुआ, जिन्हें दिल्ली पुलिस ने वसंत कुंज के समीप सुल्तानगढ़ी में शरण लेने की अनुमति दी थी, किंतु सरकार ने उन्हें देश से निकालने की अब तक कोई घोषणा नहीं की है। सेक्युलर दलों के सहयोग से देश में अब भी करीब डेढ़ करोड़ बांग्लादेशी घुसपैठिए न केवल सुरक्षित जिंदगी गुजार रहे हैं, बल्कि राशन कार्ड, मतदाता कार्ड बनवाने में भी सफल हो रहे हैं। इसलिए रोहयांग म्यांमारी घुसपैठियों की भारत में स्थायी रूप से बसने की आशंका निराधार नहीं है। रोहयांग म्यांमारी बांग्लादेश के चटगांव में हजारों बौद्ध चकमाओं के नरसंहार के अपराधी हैं, जिन्हें बांग्लादेश और म्यांमार, दोनों ने इस जघन्य कांड के लिए खदेड़ भगाया है। रोहयांग म्यांमारी नागरिक पिछले दिनों हजारों की संख्या में दिल्ली स्थित संयुक्त राष्ट्र के दफ्तर के सामने एकत्रित हुए और उससे भारत में शरणार्थी का दर्जा दिलाने की मांग की। भारत को रक्तरंजित करने में लगे विभिन्न आतंकी संगठनों के खिलाफ एक सशक्त व मजबूत एनसीटीसी नामक एजेंसी का प्रस्ताव लाकर केंद्र सरकार राज्य सरकारों से रार ठाने बैठी है। मैंने पिछले दिनों राज्यसभा में यह मामला उठाया था और सरकार से जानना चाहा था कि आखिर बिना वीजा ये लोग दिल्ली कैसे धमक आए? उन्हें संरक्षण और समर्थन देने वाले कौन से व्यक्ति या संगठन हैं?
इन सवालों का सरकार के पास कोई जवाब नहीं था। हैदराबाद, पंजाब, जम्मू, जलालाबाद, मेरठ, दिल्ली और खुर्जा में हजारों रोहयांग म्यांमारी अवैध रूप से आ बसे और सरकार को कोई जानकारी ही नहीं है। हजारों की संख्या में म्यांमार से चलकर यदि ये दिल्ली पहुंचे हैं तो किसने इतने बड़े वर्ग का नेतृत्व किया, किसने इनका वित्तपोषण किया और इन सबका समन्वय आखिर किसने किया? गृहमंत्री ने खानापूर्ति के लिए जांच कराने की बात की, किंतु यह कैसी सरकार है, जो आतंकवाद से लड़ने के लिए अभूतपूर्व कारगर एजेंसी बनाने का दावा करती है और दूसरी ओर हजारों की संख्या में अवैध घुसपैठ की उसे जानकारी तक नहीं होती? क्या यह देश धर्मशाला है, जहां कभी बांग्लादेश से तो कभी म्यांमार से अवैध घुसपैठिए बेरोकटोक आ धमकते हैं और स्थानीय जनजीवन को अस्तव्यस्त करते हैं? क्या वोट बैंक की राजनीति के लिए इन अवैध घुसपैठियों को इसलिए शरणार्थी मान लेना चाहिए कि वे मजहब विशेष के हैं? रोहयांग म्यांमारी और बांग्लादेशी घुसपैठियों का भारत से दूर-दूर का संपर्क नहीं है, फिर भी उन्हें संरक्षण दिलाने के लिए सेक्युलर दलों का एक बड़ा तबका चिंताग्रस्त है, किंतु उन हजारों हिंदुओं के लिए कोई फिक्रमंद दिखाई नहीं देता जो मजहबी चरमपंथ और हिंसा से खौफजदा होकर बांग्लादेश और पाकिस्तान से पलायन कर अपने वतन लौटे हैं। लाखों कश्मीरी पंडित अपने ही देश में बेगानों की तरह शरणार्थी शिविरों में जीवनयापन कर रहे हैं, किंतु उनकी घरवापसी की चिंता नहीं होती। क्यों? क्या इसलिए कि वे हिंदू हैं?
देश का विभाजन मजहबी जुनून के कारण हुआ। बड़े पैमाने पर रक्तपात हुआ। पाकिस्तान ने खुद को इस्लामी राष्ट्र के रूप में स्थापित कर लिया। 11 अगस्त, 1947 को मोहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान की संसद के माध्यम से यह भरोसा दिलाया था कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यक बराबरी के अधिकार से सुरक्षित रहेंगे, किंतु उनके देहावसान से वह सपना ही रह गया। इसके बाद 1950 में तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री लियाकत अली खान के बीच एक संधि हुई। इसमें भी भरोसा दिलाया गया कि विभाजन के बाद दोनों देश अपने-अपने अल्पसंख्यकों का विशेष ख्याल रखेंगे, किंतु आज स्थिति कैसी है?
भारत अपनी पंथनिरपेक्ष परंपरा के अनुसार सेक्युलर राष्ट्र है, जहां मुसलमानों को न केवल बहुसंख्यकों के बराबर अधिकार प्राप्त हैं, बल्कि वोट बैंक की राजनीति के कारण प्राय: सभी सेक्युलर दलों में उन्हें ज्यादा से च्यादा विशेषाधिकार, रियायतें और सुविधाएं दिलाने की होड़ लगी रहती है। वहीं पाकिस्तान में हिंदू और ईसाइयों की क्या स्थिति है? वहां उनके साथ तीसरे दर्जे के नागरिक की तरह व्यवहार होता है। पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के अनुसार हर महीने अकेले सिंध प्रांत में 20-25 हिंदू लड़कियों के अगवा करने, उनका जबरन मतांतरण कराने के बाद उनका मुस्लिम लड़कों से निकाह कराने की घटनाएं सामने आती हैं। दिल्ली स्थित विदेशी क्षेत्रीय निबंधन कार्यालय के अनुसार पाकिस्तान से भारत आने वाले हिंदुओं की संख्या पिछले कुछ समय में तेजी से बढ़ी है।
हाल में रिंकल नामक एक हिंदू युवती के साथ जो हुआ वह पाकिस्तान में हिंदुओं की अवस्था को समझने के लिए काफी है। 26 मार्च को पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार मोहम्मद चौधरी के समक्ष सिंध में अपने परिजनों के साथ रहने वाली 19 वर्षीय रिंकल कुमारी ने नावेद शाह नामक व्यक्ति पर अपने अपहरण का आरोप लगाते हुए उसे अपनी मां के संरक्षण में देने की गुहार लगाई। कोर्ट से जब पुलिस उसे खींचकर ले जा रही थी तो उसने बिलखते हुए मीडियाकर्मियों से कहा कि उसका जबरन मतांतरण और निकाह कराया गया है, किंतु 18 अप्रैल को मामले की सुनवाई के लिए जब वह दोबारा सर्वोच्च न्यायालय पहुंचीं तो उसने स्वेच्छा से मतांतरण और नावेद से निकाह करने की बात कबूल कर ली। कारण? सुनवाई के वक्त हजारों की संख्या में बंदूकधारियों का जमा होना। ऐसी अनेक रिंकलों की कहानी राजस्थान, गुजरात और पंजाब में शरणागत हिंदू परिवारों के सीनों में पैबस्त हैं, लेकिन जो स्वयंभू सेक्युलर दल पाकिस्तान के हिंदुओं के उत्पीड़न पर खामोश रहते हैं।
[बलबीर पुंज: लेखक भाजपा के राच्यसभा सदस्य हैं]

http://in.jagran.yahoo.com/news/opinion/general/6_3_9283960.html

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