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Sunday, February 24, 2013

सेक्युलर तंत्र पर सवाल

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-questions-on-secular-system-10133330.html

भारतीय संसद पर 13 दिसंबर, 2001 को हुए आतंकी हमले की साजिश में शामिल अफजल गुरु को फांसी दिए जाने के बाद कश्मीर घाटी में हिंसा और विरोध प्रदर्शन क्या रेखांकित करता है? क्या भारत की अस्मिता और लोकतंत्र के प्रतीक पर आक्रमण करने का षड्यंत्र रचने वाले आतंकी के मानवाधिकार की चिंता होनी चाहिए? क्या निरपराधों की जान लेने वाले आतंकी की सजा माफ होने योग्य थी? कश्मीर घाटी में चार दिनों का शोक मनाने का निर्णय इस बात की पुष्टि करता है कि इस देश में ऐसे जिहादी तत्व भी हैं जिनका शरीर भारत में भले हो, किंतु उनका मन और आत्मा पाकिस्तान की जिहादी संस्कृति के साथ है। ऐसे ही लोगों के सहयोग से पाकिस्तान भारत को रक्तरंजित करने के अपने एजेंडे में कामयाब हो रहा है।
संसद पर हमले की साजिश पाकिस्तान पोषित लश्करे-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद द्वारा रची गई थी। जांच में जम्मू-कश्मीर के बारामूला में रहने वाले मेडिकल छात्र अफजल का नाम स्थानीय साजिशकर्ता के रूप में सामने आया। 2002 में विशेष अदालत ने अफजल को फांसी की सजा सुनाई थी, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपनी मुहर लगा दी थी। उसके बाद से ही मानवाधिकारवादी संगठन और सेक्युलर दल अफजल की सजा माफ करने की मांग कर रहे थे। अफजल की पत्‍‌नी ने भी राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका भेजकर उसे माफ करने की गुहार लगाई थी। मुंबई में हुए आतंकी हमले में जिंदा पकड़े गए अजमल कसाब को फांसी दिए जाने के बाद अब अफजल को फांसी दे दी गई है, किंतु सारा घटनाक्रम कुछ गंभीर सवाल खड़े करता है। अदालत का निर्णय होने के बाद सजा देने में इतना लंबा विलंब क्यों? क्या यह वोट बैंक की राजनीति का अंग है?
जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन मुख्यमंत्री और अभी केंद्र में मंत्री गुलाम नबी आजाद ने पत्र लिखकर केंद्र सरकार से अफजल की सजा माफ करने की अपील की थी। क्यों वर्तमान मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को भय है कि अफजल की फांसी से जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद एक बार फिर जिंदा हो जाएगा और राज्य व केंद्र दोनों के लिए संकट खड़ा करेगा? इसका क्या अर्थ निकाला जाए? अभी हाल ही में दिल्ली में जघन्य दुष्कर्म कांड हुआ। कल को इस कांड के आरोपियों के समर्थन में धरना-प्रदर्शन व हिंसा होने लगे तो क्या उनकी सजा लंबित कर दी जाए या उन्हें सजा से मुक्त कर दिया जाए? इस आधार पर तो जिस गुनहगार की जितनी साम‌र्थ्य होगी वह उतनी ही हिंसा और उपद्रव मचाकर सरकार को झुकने को मजबूर कर सकता है। ऐसे अराजक माहौल में कानून का राज और देश की सुरक्षा कैसे संभव है?
दिल्ली उच्च न्यायालय के बाहर 7 दिसंबर, 2011 को हुए बम धमाके की जिम्मेदारी लेते हुए 'हरकत-उल-जिहाद अल-इस्लामी' नामक जिहादी संगठन ने मेल भेजकर यह धमकी दी थी कि अफजल की सजा माफ नहीं की गई तो ऐसे ही कई और बम धमाके होंगे। भारत को रक्तरंजित करने में जुटे पाक पोषित जिहादियों का मनोबल यदि बढ़ा है तो उसके लिए कांग्रेसनीत सत्ता अधिष्ठान की नीतियां जिम्मेदार हैं।
भारत में सेक्युलरवाद इस्लामी चरमपंथ को पोषित करने का पर्याय है। इस अवसरवादी कुत्सित मानसिकता के कारण ही असम में स्थानीय बोडो नागरिकों की पहचान व मान-सम्मान अवैध बांग्लादेशियों के हाथों रौंदा जा रहा है तो मुंबई में बांग्लादेशी और रोहयांग मुसलमानों के समर्थन में रैली निकाली जाती है। पाकिस्तानी झंडा लहराया जाता है और शहीद जवानों की स्मृति में बनाए गए अमर जवान च्योति को तोड़ा जाता है। सेक्युलर सत्तातंत्र द्वारा मिलने वाले मानव‌र्द्धन का ही परिणाम है कि आतंकवादी मेल भेजकर पूरे देश को लहूलुहान करने की धमकी देते हैं। हैदराबाद में एक विधायक भड़काऊ भाषण देता है और उपस्थित हजारों की भीड़ मजहबी जुनून में राष्ट्रविरोधी नारे लगाती है, किंतु ऐसी घटनाओं पर सेक्युलर तंत्र खामोश रहता है। बहुसंख्यकों को पंथनिरपेक्षता, बहुलतावाद और प्रजातंत्र का पाठ पढ़ाने वाले स्वयंभू मानवाधिकारी चुप्पी साधे रहते हैं। क्यों?
स्वयंभू मानवाधिकारियों का आरोप है कि अफजल को न्याय नहीं मिला, उसके साथ जांच एजेंसियों ने नाइंसाफी की। वामपंथी विचारधारा से प्रेरित लेखिका अरुंधती राय ने पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिख-लिख कर भारतीय कानून एवं व्यवस्था और जांच एजेंसियों को कठघरे में खड़ा किया। जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री रह चुकीं महबूबा मुफ्ती एक कदम आगे हैं। पाकिस्तान की जेल में एक भारतीय नागरिक सरबजीत गलत पहचान के कारण बंद है। भारत सरकार ने उसे रिहा करने की अपील की है। महबूबा ने अफजल की तुलना सरबजीत से करते हुए केंद्र सरकार को दोहरे मापदंड नहीं अपनाने की नसीहत दे डाली थी। इन दिनों आतंकी मामलों में जेल में बंद युवा मुसलमानों को रिहा करने को लेकर सेक्युलर दलों में बड़ी बेचैनी है। हाल ही में सेक्युलर दलों के कुनबे ने प्रधानमंत्री से मिलकर इस मामले में दखल देने की अपील की थी। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने विधानसभा चुनाव के दौरान ऐसे बंदियों को रिहा करने का वादा भी किया था। सत्ता मिलने पर सपा ने आरोपियों को रिहा करने की कवायद भी शुरू कर दी थी, किंतु अदालत ने राच्य सरकार को कड़ी फटकार लगाई।
भारत पर मुसलमानों के साथ भेदभाव व उनके शोषण का आरोप समझ से परे है। पुख्ता सुबूतों और जीती-जागती तस्वीरों में कैद अजमल कसाब को मुंबई में निरपराधों की लाशें बिछाते पकड़ा गया, किंतु उसे भी पूरी निष्पक्ष न्यायिक प्रक्त्रिया के बाद ही फांसी की सजा दी गई। इस देश में अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों की कीमत पर बराबरी से अधिक अधिकार और संसाधन उपलब्ध कराए जा रहे हैं। उनके लिए अलग से आरक्षण की बात हो रही है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला अधिकार बताते हैं। ऐसे में भेदभाव बरते जाने का आरोप निराधार है। इस देश के मुसलमान पिछड़े हैं तो इसके लिए सेक्युलर दल ही जिम्मेदार हैं, जो वोट बैंक की राजनीति के कारण उनकी मध्यकालीन मानसिकता को संरक्षण प्रदान करते हैं। अफजल को फांसी देने में हुई देरी इस कुत्सित राजनीति को ही रेखांकित करती है।
[लेखक बलबीर पुंज, राच्यसभा सदस्य हैं]

संघ की छवि के साथ खिलवाड़

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-messing-with-the-image-of-the-union-10105285.html

केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे का यह वक्तव्य कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं भारतीय जनता पार्टी के प्रशिक्षण शिविरों में आतंकवाद फैलाने का प्रशिक्षण दिया जाता है, इन दोनों संगठनों को जानने और इनके शिविरों में प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले लोगों के लिए अत्यंत आघातकारी है। गत लगभग 60 सालों से मेरा संबंध संघ से रहा है और मैंने सैकड़ों प्रशिक्षण शिविरों में भाग लिया है। मैं दावे के साथ कहता हूं कि कभी किसी भी स्तर पर आतंकवाद की रत्ती भर आशंका नजर नहीं आई। एक समय था जब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू संघ को जड़-मूल से समाप्त करने की बात करते रहे, किंतु वह भी संघ की राष्ट्रनिष्ठा से इतना अधिक प्रभावित थे कि 1963 में गणतंत्र दिवस पर उन्होंने संघ के स्वयंसेवकों की परेड देखी। उन्होंने विभिन्न राष्ट्र-हित के मुद्दों पर चर्चा करने के लिए सरसंघचालक गोलवलकर के साथ कम से कम तीन मुलाकातें तथा पत्राचार किए थे। संघ का कथित आतंकवाद कभी कोई मुद्दा रहा ही नहीं। तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने पंडित नेहरू को स्पष्ट शब्दों में लिखा था कि गांधीजी की ह्त्या में संघ का हाथ नहीं। ताशकंद जाने के पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने गोलवलकरजी से चर्चा की थी। उनके समय में भी संघ का कथित आतंकवाद कभी कोई मुद्दा रहा ही नहीं। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निकट सहयोगी द्वारका प्रसाद मिश्र एवं संघ के वरिष्ठ प्रचारक दत्ताोपंत ठेंगड़ी के बीच अच्छे संबंध तभी से थे जब द्वारका प्रसाद मिश्र मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे।
कांग्रेस के एक अन्य प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव और सरसंघचालक रच्जू भैया के बीच मधुर संबंध थे और वे दोनों राष्ट्रहित के अनेक मुद्दों पर आपस में बातचीत किया करते थे। तब भी किसी ने संघ को आतंकवाद से नहीं जोड़ा। गांधीजी, मदनमोहन मालवीय एवं जयप्रकाश नारायण ने खुलकर संघ की प्रशंसा की थी। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल अनेक भूमिगत कांग्रेस नेताओं को संघ के लोगों ने अपने घरों में शरण दी थी। देश के प्रसिद्ध राष्ट्रवादी नेता आरिफ मोहम्मद खान 2004 के लोकसभा चुनाव अभियान में संघ, भाजपा तथा गोलवलकरजी की प्रशंसा करते देखे-सुने गए थे। वह यह सिद्ध करते थे कि संघ और भाजपा दरअसल मुसलमानों के सच्चे दोस्त हैं। सरसंघचालक केसी सुदर्शन की प्रेरणा से राष्ट्रवादी मुस्लिम मंच का गठन हुआ था, जो देश में सामाजिक समरसता स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
यह हास्यास्पद है कि कुछ लोग गृहमंत्री के उस वक्तव्य को विचार प्रकट करने के उनके संविधान प्रदत्त अधिकार से जोड़कर उनको क्लीन चिट दे रहे हैं। ऐसे लोग भूल जाते हैं कि शिंदे कोई साधारण नागरिक नहीं, बल्कि देश के गृहमंत्री हैं। यदि उनकी निगाह में संघ और भाजपा आतंकवादी संगठन हैं तो उन्हें अपने कर्तव्य का पालन करते हुए अविलंब इन दोनों संगठनों पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए। पता नहीं वह किस रिपोर्ट के आधार पर यह दावा कर रहे हैं कि उनके पास संघ और भाजपा के प्रशिक्षण शिविरों में आतंकवाद की ट्रेनिंग दिए?जाने के प्रमाण हैं। अगर ऐसे कोई प्रमाण वास्तव में उनके पास हैं तो उन्हें कोरी बयानबाजी करने के स्थान पर संघ और भाजपा के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए। भले ही चौतरफा घिरने के बाद शिंदे यह कह रहे हों कि उनके बयान को गलत रूप में पेश किया गया, लेकिन हर कोई यह समझ रहा है कि वह वोट बैंक की राजनीति कर रहे हैं। एक अन्य विचित्र दलील भी अक्सर सुनने को मिलती रहती है और वह यह कि भाजपा सांप्रदायिक दल है, क्योंकि उसमें नरेंद्र मोदी सरीखे नेता हैं, जिन पर गुजरात दंगों का दाग लगा हुआ है। इसीलिए यदि भाजपा के नेतृत्व वाले राजग ने मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए आगे किया तो नीतीश कुमार का दल जनता दल यूनाइटेड राजग से संबंध विच्छेद कर लेगा। ऐसी स्थिति में उनकी पार्टी सहित देश के सारे तथाकथित सेक्युलर दल कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन से मिल जाएंगे। क्या कांग्रेस वाकई सेक्युलर है? जरा कुछ तथ्यों पर निगाह डालें। 1984 के दंगों में 3000 सिखों की हत्या हुई थी, तब केंद्र में कांग्रेस की ही सरकार थी। सिख विरोधी दंगों के संदर्भ में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सार्वजनिक रूप से टिप्पणी की थी कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तब धरती हिलती ही है। 1948 में हैदराबाद में बड़े पैमाने पर मुसलमानों की हत्याएं हुईं। सुंदरलाल समिति ने उस कत्लेआम पर जो जांच रिपोर्ट नेहरू सरकार को दी थी वह आज तक प्रकाशित नहीं की गई। वह रिपोर्ट आज भी ठंडे बस्ते में पड़ी है और कांग्रेस की सेक्युलरिच्म की नीति पर हंस रही है। यह भी विचित्र है कि सेक्युलरिच्म के सिलसिले में बड़ी-बड़ी बातें करने वाले देश के प्रमुख इतिहासकार और पत्रकार गुजरात के अलावा अन्य स्थानों पर हुए दंगों पर मौन रहना ही बेहतर समझते हैं। अपने देश में साहित्यकार और पत्रकार भले ही हैदराबाद में हुए? कत्लेआम पर मौन रहे हों, लेकिन स्काटलैंड में जन्मे साहित्यकार विलियम डैरिम्पिल ने अपनी एक पुस्तक में सुंदरलाल समिति के तथ्यों को सबके सामने ला दिया था। यह सेक्युलरिच्म के नाम पर अपनाए जाने वाले दोहरे आचरण का ही उदाहरण है कि दंगों के मामले में भाजपा को घेरने वाले राजनीतिक दल और कथित सेक्युलर बौद्धिक वर्ग कांग्रेस अथवा अन्य दलों के शासनकाल में हुईं सांप्रदायिक दंगों की घटनाओं पर कुछ नहीं बोलता।
[लेखक डॉ.बलराम मिश्र, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]

उप्र में आतंकवाद की आड़ में बंद मुस्लिमों की रिहाई जल्द

http://www.jagran.com/news/national-early-release-under-the-guise-of-terrorism-off-the-muslims-cm-10082781.html
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा है कि उनकी पार्टी ने चुनाव घोषणा पत्र में स्पष्ट तौर यह वादा किया था कि दहशतगर्दी के खिलाफ कार्रवाई की आड़ में प्रदेश के जिन बेकसूर मुस्लिमों नौजवानों को जेलों में डाला गया है उन्हें रिहा कराया जाएगा। साथ ही उनके पुनर्वास के लिए मुआवजे के साथ इंसाफ भी दिया जाएगा। चुनाव घोषणा पत्र के सभी वादों को पूरा करने के लिए सरकार कृत संकल्पित हैं। इस संबंध में कार्यवाही भी प्रारंभ कर दी गई है।

राजनीति का निम्नतम स्तर

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-lowest-level-of-politics-10081251.html

केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे द्वारा भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर आतंकी प्रशिक्षण शिविर चलाने का आरोप लगाने से सबसे ज्यादा हानि किसकी हुई है? अधिकांश भारतवासी जहां एक तरफ भाजपा और संघ के राष्ट्रवादी चरित्र से परिचित हैं, वहीं शिंदे के रिकॉर्ड के कारण उन्हें गंभीरता से नहीं लेते। शिंदे के इस गैर जिम्मेदार बयान का कुप्रभाव सबसे अधिक भारत पर पड़ेगा। पाकिस्तान हमेशा यह दावा करता रहा है कि उसके यहां होने वाली आतंकी गतिविधियों को न तो सरकार और न ही सेना का समर्थन प्राप्त है। उसका कुतर्क यह भी है कि वह भी दूसरे देशों की तरह आतंकवाद से पीड़ित है। अब पाकिस्तान भारत के गृहमंत्री के बयान को अंतरराष्ट्रीय मंचों से उठाकर यह साबित करना चाहेगा कि आतंकवाद को प्रोत्साहन देने के लिए यदि कोई कसूरवार है तो वह भारत है। भारत अब तक कहता आया है कि यहां आतंकवाद सीमा पार से आता है, शिंदे के बयान के बाद दुनिया की नजरों में भारत की जहां हास्यास्पद स्थिति हो गई है, वहीं पाकिस्तान के हाथ मजबूत हुए हैं।
कांग्रेस वोट बैंक की राजनीति के कारण हिंदू आतंक का हौवा खड़ा करना चाहती है, जिसके कारण अंतत: पाकिस्तान और पाक पोषित आतंकी संगठनों का मनोबल बढ़ रहा है। भारत के बहुलतावादी ताने-बाने को ध्वस्त करने के लिए एक गहरी साजिश रची जा रही है। मुंबई पर हमला करने आए आतंकियों के हाथों में कलावा बंधा होना व माथे पर तिलक होना और हमले के पूर्व से कांग्रेसी नेताओं की ओर से 'भगवा आतंक' का हौवा खड़ा करना क्या महज संयोग हो सकता है? मुंबई हमलों में महाराष्ट्र आतंक निरोधी दस्ते के प्रमुख हेमंत करकरे की मौत के बाद कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने यह दावा किया था कि करकरे ने फोन पर बात कर उनसे हिंदूवादी संगठनों से अपनी जान का खतरा बताया था और अब शिंदे द्वारा 'हिंदू आतंकवाद' का रहस्योद्घाटन कांग्रेस की वोट बैंक की राजनीति के निम्नतम स्तर पर उतर आने का ही संकेत करता है। सारा घटनाक्त्रम एक गहरी साजिश का परिणाम है। शिंदे ने न केवल समग्र रूप से हिंदू समाज को अपमानित किया है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय जगत में सहिष्णु व बहुलतावादी भारत की छवि बिगाड़ने का काम भी किया है। सच्चाई यह है कि मालेगांव और समझौता एक्सप्रेस में हुए बम धमाकों के बाद से ही वोट बैंक की राजनीति करने वाली कांग्रेस ने तथ्यों को दबाते हुए 'भगवा आतंक', जो अब 'हिंदू आतंक' में बदल चुका है, का हौवा खड़ा करना शुरू कर दिया। सरकारी मशीनरियों के दुरुपयोग से जो मनगढ़ंत कहानी खड़ी की गई है, तथ्य व साक्ष्य उसकी पुष्टि नहीं करते।
एक जुलाई, 2009 को अमेरिकी ट्रेजरी डिपार्टमेंट ने चार लोगों के संबंध में एक प्रेस नोट जारी किया था। इनमें कराची आधारित लश्करे-तैयबा के आतंकी आरिफ कासमानी का उल्लेख है। उस रिपोर्ट के आधार पर एक अंग्रेजी पत्रिका के 4 जुलाई, 2009 के अंक में रक्षा विशेषज्ञ बी. रमन का लेख प्रकाशित हुआ था। उस लेख से कांग्रेस की घृणित साजिश का पर्दाफाश होता है। उक्त रिपोर्ट के अंश यहां उद्घृत हैं, 'आरिफ कासमानी अन्य आतंकी संगठनों के साथ लश्करे तैयबा का मुख्य समन्वयकर्ता है और उसने लश्कर की आतंकी गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कासमानी ने लश्कर के साथ मिलकर आतंकी घटनाओं को अंजाम दिया, जिनमें जुलाई, 2006 में मुंबई और फरवरी, 2007 में पानीपत में समझौता एक्सप्रेस में हुए बम धमाके शामिल हैं। सन 2005 में लश्कर की ओर से कासमानी ने धन उगाहने का काम किया और भारत के कुख्यात अपराधी दाऊद इब्राहीम से जुटाए गए धन का उपयोग जुलाई, 2006 में मुंबई की ट्रेनों में बम धमाकों में किया। कासमानी ने अलकायदा को भी वित्तीय व अन्य मदद दी। कासमानी के सहयोग के लिए अलकायदा ने 2006 और 2007 के बम धमाकों के लिए आतंकी उपलब्ध कराए।' संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका द्वारा लश्कर और कासमानी को प्रतिबंधित करने के छह महीने बाद पाकिस्तान के आंतरिक मंत्री रहमान मलिक ने स्वयं यह स्वीकार किया था कि समझौता बम धमाकों में पाकिस्तानी आतंकियों का हाथ था, किंतु अपने यहां वोट बैंक की राजनीति के कारण जो कांग्रेसी साजिश चल रही थी उसका ताना-बाना सीमा पार भी बुना गया। रहमान ने अपने उपरोक्त कथन में कहा, 'लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित ने कुछ पाकिस्तान स्थित आतंकियों का इस्तेमाल समझौता एक्सप्रेस में बम धमाका करने के लिए किया।'
समझौता एक्सप्रेस में हुए बम धमाकों में जुटी जांच एजेंसियों ने भी पहले इसके लिए सिमी और लश्कर को जिम्मेदार ठहराया था। सिमी के महासचिव सफदर नागौरी, उसके भाई कमरुद्दीन नागौरी और अमिल परवेज का बेंगलूर में अप्रैल, 2007 में नारको टेस्ट हुआ। उसमें पाया गया कि पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठन की मदद से सिमी ने बम धमाकों को अंजाम दिया है और सिमी के एहतेशाम सिद्दीकी व नसीर को मुख्य कसूरवार बताया गया। हाल ही में अमेरिकी अदालत ने मुंबई हमलों के दौरान छह अमेरिकी नागरिकों की हत्या के लिए डेविड हेडली को पैंतीस साल की सजा सुनाई है। हेडली ने मुंबई समेत भारत के कई ठिकानों की रेकी थी। अमेरिका के खोजी पत्रकार सेबेस्टियन रोटेला ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि हेडली की तीसरी पत्नी फैजा ओतल्हा ने 2008 में ही यह कबूल कर लिया था कि समझौता बम धमाकों में हेडली का हाथ है।
स्वाभाविक प्रश्न है कि इतने साक्ष्यों के होते हुए भी सरकार समझौता एक्सप्रेस बम धमाकों के लिए हिंदू संगठनों को कसूरवार साबित करने पर क्यों तुली है? मालेगांव धमाकों में भी सिमी की संलिप्तता सामने आने के बावजूद सत्ता अधिष्ठान साधु-संतों को कसूरवार बताने के लिए बलतंत्र के बूते साक्ष्यों को दबाने पर तुला है। मालेगांव बम धमाकों को लेकर कर्नल पुरोहित और उनके सहयोगियों के खिलाफ अदालत में जो आरोप पत्र पेश किया गया है उसमें कहा गया है कि आरोपी आइएसआइ से धन लेने के कारण संघ प्रमुख मोहन भागवत और संघ प्रचारक इंद्रेश कुमार की हत्या की योजना बना रहे थे। यदि कथित हिंदू आतंकी संघ प्रमुख की हत्या करना चाहते थे तो फिर संघ पर आतंकी प्रशिक्षण शिविर चलाने का आरोप कैसे लगाया जा सकता है? शिंदे को अपने कहे की समझ भी है? मुंबई हमलों की साजिश में पाकिस्तानी सेना और जमात उद दवा की संलिप्तता के पुख्ता प्रमाण अमेरिकी जांच एजेंसी के पास है, किंतु कांग्रेस 'हिंदू आतंकवाद' का हौवा खड़ा कर रही है। क्यों? ऐसा करने के लिए किसका दबाव है या इस काम का पारितोषिक उसे क्या मिला है? क्या सरकार वोट बैंक की राजनीति के लिए असली गुनहगारों को बचाना चाहती है?
[लेखक बलबीर पुंज, राच्यसभा के सदस्य हैं]

'विश्वरूपम' की रिलीज पर फैसला 28 जनवरी

http://navbharattimes.indiatimes.com/tn-bends-to-pressure-suspends-release-of-kamal-haasans-viswaroopam-for-2-weeks/moviearticleshow/18159009.cms
चेन्नै।। मुस्लिम संगठनों के विरोध प्रदर्शन के बाद कमल हासन की फिल्म 'विश्वरूपम' पर तमिलनाडु सरकार की रोक का मामला मद्रास हाईकोर्ट तक पहुंच गया है। हाईकोर्ट के जज फिल्म देखने के बाद 28 जनवरी को इसकी रिलीज पर फैसला देंगे।

दिग्विजय सिंह ने हाफिज सईद को 'साहब' कहकर संबोधित किया

http://navbharattimes.indiatimes.com/india/national-india/now-digvijay-singh-calls-hafiz-as-sahab/articleshow/18114412.cms
अपने बयानों के कारण हमेशा विवाद में रहने वाले कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने एक बार फिर विवादित बयान दे डाला है। उन्होंने मुंबई हमलों सहित भारत में किए गए कई आतंकी हमलों का मुख्य साजिशकर्ता हाफिज सईद के लिए सम्मानजनक शब्द 'साहब' का इस्तेमाल किया है। दिग्विजय के इस बयान की निंदा हो रही है।

लोकतंत्र के प्रति अक्षम्य अपराध

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-unforgivable-crime-against-democracy-10052868.html
अकबरुद्दीन ओवैसी के पिछले माह आंध्र प्रदेश में दिए भड़काऊ भाषण से भारत के उदार, पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक माहौल में जीने वाले हर नागरिक को धक्का लगा होगा। हालांकि उन्हें इस पर कोई हैरानी नहीं हुई होगी जो यहां 20वीं सदी से चले आ रहे कट्टरवादी मुस्लिम नेताओं के द्वेषपूर्ण व्यवहार और इस संदर्भ में कांग्रेस पार्टी के मौन से परिचित हैं। राजनेता धार्मिक, जातिगत आधार पर और यहां तक कि महिलाओं के खिलाफ भी भड़काऊ बयानबाजी करते रहे हैं, लेकिन मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लमीन के नेता ओवैसी ने हर सीमा लांघ दी। चौंकाने वाली बात तो यह है कि ओवैसी आज के लोकतांत्रिक भारत में भी मध्ययुगीन विचारों में जी रहे हैं। यदि हम देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल की तुष्टीकरण की नीति को देखें तो इसमें हैरानी नहीं होनी चाहिए। देश में छद्म पंथनिरपेक्षता को बढ़ावा इसी दल ने दिया। कांग्रेस ने ही उस संस्कृति को जन्म दिया जिसमें पंथनिरपेक्षता को हिंदू-विरोध से जोड़ा गया और ओवैसी जैसे लोगों का दुस्साहस बढ़ता गया। चूंकि कांग्रेस आजादी से पहले अंतरिम सरकार में और आजादी के बाद भी सबसे ज्यादा समय तक सत्ता में रही, इसलिए देश में पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक माहौल को बिगाड़ने के लिए प्रथमदृष्टया यही जिम्मेदार है। इतिहास बताता है कि मुस्लिम नेताओं की सांप्रदायिक राजनीति ने कैसे देश का विभाजन कर दिया और कैसे देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने छद्म पंथनिरपेक्षता को बढ़ावा दिया। हालांकि डॉ. भीमराव अंबेडकर, सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे नेता भांप गए थे कि यह नीति लोकतांत्रिक भारत के भविष्य के लिए ठीक नहीं, लेकिन नेहरू सुनना ही नहीं चाहते थे। आजादी के बाद अंबेडकर ने तुष्टीकरण के परिणामों के प्रति सबसे पहले चेताया था। उन्होंने अपनी किताब थॉट्स ऑन पाकिस्तान में 1940 में मुस्लिम समुदाय की मांगों पर कहा है कि कांग्रेस जो नीति अपना रही है वह देश के लिए अनिष्टकारी होगी। अंबेडकर ने लिखा है, समर्थन हासिल करने के लिए तुष्टीकरण की नीति अपनाना हिंदुओं पर किए जाने वाले अत्याचार में शामिल होना है। तुष्टीकरण की कोई सीमा नहीं होती। तुष्टीकरण की नीति हिंदुओं को भी उसी भय की स्थिति में डाल देगी जिसमें कभी हिटलर के प्रति अपनाई गई तुष्टीकरण की नीति ने उनके साथियों को डाल दिया था। अंबेडकर अलग इस्लामिक राष्ट्र- पाकिस्तान के बनने के पक्ष में थे। चूंकि यह माना जा रहा था कि भारत के 90 फीसद मुसलमान पाकिस्तान बनने के पक्ष में हैं, अंबेडकर ने पूर्वानुमान लगाया था कि एक बार पाकिस्तान बन जाने पर व्यापक आबादी की अदलाबदली होगी। परिणामस्वरूप तुष्टीकरण खत्म हो जाएगा। इस पूर्वाभास के बावजूद अंबेडकर छद्म पंथनिरपेक्षता से आजाद, पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक भारत को पहुंचने वाले नुकसान का आकलन करने में असफल रहे। जैसा कि हम जानते हैं विभाजन में व्यापक आबादी की अदलाबदली नहीं हुई, बल्कि कांग्रेस ने मुस्लिम समुदाय को भरोसेमंद वोट बैंक के रूप में देखना शुरू कर दिया। नेहरू के बाद मुस्लिम वोट बढ़ाने के लिए तुष्टीकरण की नीतियों को आगे बढ़ाने की बारी इंदिरा गांधी की थी। उनके बाद राजीव गांधी ने पारिवारिक परंपरा को आगे बढ़ाया और उस न्यायिक फैसले को पलटने के लिए कानून में संशोधन का निर्णय लिया जिसमें मुस्लिम महिलाओं को संबंध-विच्छेद के बाद मुआवजे का अधिकार दिया गया था। यह फैसला उन्होंने मुस्लिम समुदाय के दबाव में लिया था। उसके बाद से ही मुस्लिम तुष्टीकरण कांग्रेस की नीतियों का अहम हिस्सा बन गया। दूसरे राजनीतिक दलों ने भी इसका अनुकरण किया। कांग्रेस को मुस्लिम लीग और ओवैसी के एमआइएम जैसे सांप्रदायिक दलों से गठबंधन करने का भी कोई अफसोस नहीं था। पिछले 20 सालों की इन घटनाओं ने ऐसे मुस्लिम नेताओं का हौसला बढ़ाया जो मुस्लिम युवाओं में हिंदुओं के प्रति नफरत भर रहे हैं और धार्मिक सौहार्द्र बिगाड़ने का कोई मौका नहीं जाने देते। यही कारण है कि मुस्लिम युवाओं ने बिना सोचे समझे पिछले साल मुंबई के आजाद मैदान में अमर ज्योति का अपमान किया और ऐसी ही तोड़फोड़ लखनऊ और दूसरी जगहों पर भी की। अब अकबरुद्दीन ओवैसी हिंदुओं के प्रति नफरत फैलाते हुए सामने आए हैं। इंटरनेट से पहले के जमाने में ऐसे भड़काऊ भाषणों का प्रसार रोकना आसान था। इंटरनेट आने के बाद कुछ लोग भड़काऊ भाषण यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म पर अपलोड कर देते हैं और यह बुरी तरह फैल जाता है। इसलिए ओवैसी ने जो हानि लोकतांत्रिक और पंथनिरपेक्ष ताने-बाने को पहुंचाई है वह सिर्फ आंध्र प्रदेश तक सीमित नहीं है। दुनियाभर के लाखों हिंदुओं ने उनका नफरत भरा भाषण सुना है। यदि भारत ओवैसी जैसे लोगों के साथ सख्ती से पेश नहीं आता है तो इससे धार्मिक सौहार्द्र का माहौल तो बिगड़ेगा ही, दोनों समुदायों के गरीब और निर्दोष लोगों को भी नुकसान होगा। इस संदर्भ में हमें ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल की दी गई सलाह को याद करना चाहिए। द्वितीय विश्व युद्ध से पहले जर्मनी के तुष्टीकरण की ब्रिटिश नीति को लेकर चर्चिल ने कहा था, यदि तुम तब भी अपने अधिकार के लिए नहीं लड़ोगे जब बिना रक्तपात के आसानी से जीत सकते हो, यदि तब भी नहीं लड़ोगे जब तुम्हारी जीत तय हो और इसके लिए बड़ी कीमत भी नहीं चुकानी पड़े तो एक दिन ऐसा आएगा जब तुम्हें खुद अपने विरुद्ध लड़ाई लड़नी होगी और उसमें बचने की संभावना बहुत कम होगी। आज हर उस भारतीय नागरिक को तुष्टीकरण पर चर्चिल की यह बात याद रखनी चाहिए जो उदार और लोकतांत्रिक माहौल की कद्र करता है। वरना एक दिन लोकतांत्रिक भारत भी अपने विरुद्ध लड़ाई की स्थिति में होगा और बचने की संभावना बहुत कम होगी।

मुस्लिम यूनिवर्सिटी के लिए जमीन नहीं देंगेः बीजेपी

http://navbharattimes.indiatimes.com/other-cities/bangalore/chennai/bjp-says-will-not-give-ground-for-muslim-university/articleshow/18055096.cms
 कर्नाटक में सत्तारूढ़ बीजेपी ने कहा कि वह मंध्या जिले के श्रीरंगपटना में केंद्र द्वारा प्रस्तावित टीपू मुस्लिम यूनिवर्सिटी खोलने के लिए जमीन नहीं देगी। पार्टी ने आरोप लगाया कि वह शिक्षण संस्थान ''राष्ट्र विरोधी तत्वों के पनपने का स्थल बन जाएगा।'' बहरहाल, केंद्रीय अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री के रहमान खान ने कहा कि यूनिवर्सिटी स्थापित की जाएगी।

मुसलमानों को रिझाने में जुटी कांग्रेस

http://www.jagran.com/news/national-congress-ered-muslim-in-uttarpradesh-10035474.html
लखनऊ [आनंद राय]। बारहवीं पंचवर्षीय योजना में अल्पसंख्यकों के विकास के लिए आवंटित धनराशि और स्ट्राइव फार एमिनेंस एंड इंपावरमेंट के चेयरमैन मौलाना फजलुर रहीम मुजाद्दीदी के सहारे कांग्रेस मुसलमानों को रिझाने में जुट गयी है। सेमिनारों की सीरीज शुरू कर कांग्रेस ने इस अभियान की कमान मौलाना के हाथों में सौंपी है। इस कवायद को लोकसभा चुनाव की तैयारी से भी जोड़ा जा रहा है।

Monday, January 7, 2013

तुष्टीकरण का विकल्प

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-opinion-10000560.html

नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में आने की संभावना से कांग्रेस के कुछ रणनीतिकार प्रसन्न भी हैं। उन्हें लगता है कि तब तो सारे देश के मुस्लिम वोट इकट्ठा होकर स्वत: कांग्रेस की झोली में आ गिरेंगे! दूसरी ओर गुजरात में मोदी की लगातार तीसरी जीत पर जनता दल [यू] के नेता असहज हैं। उन्होंने नरेंद्र मोदी को औपचारिक बधाई देने से भी परहेज किया। वे चुप और खिन्न भी हैं, क्योंकि अब राजग द्वारा जनता दल [यू] नेता को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की आशाएं धूल में मिल गई हैं। तीसरी ओर समाजवादी पार्टी सब कुछ छोड़ मुस्लिम आरक्षण की पैरवी करती दिख रही है।
ये तीनों ही बातें देश की राजनीति में मुस्लिम वोट की बढ़ती ताकत के लक्षण हैं, किंतु साथ ही दूसरी प्रक्रिया भी चल रही है। गुजरात में मुस्लिम मतदाताओं ने भी बड़ी संख्या में भाजपा को समर्थन दिया है। इसे समझने की आवश्यकता है। आखिर जिस मोदी को विगत दस वर्ष से सारी दुनिया में मुस्लिम-विरोधी बताकर प्रचारित किया गया, उसी को स्वयं गुजरात में मुसलमान समर्थन दे रहे हैं। इसमें देश की राजनीति में सेक्यूलरवाद की विकृति अथवा मुस्लिम-तुष्टिकरण के सही विकल्प की झलक मिलती है।
यदि देशहित, जनहित, सहज न्याय, विवेक से भी ऊपर मुस्लिम तुष्टीकरण हावी हो जाए, तो यह हर हाल में अनर्थकारी है। जैसाकि डॉ. भीमराव अंबेडकर ने 1940 में कहा था, मुसलमानों की मांगे हनुमानजी की पूंछ की तरह बढ़ती जाती हैं। उनके तुष्टीकरण के सिलसिले ने अगले कुछ ही वर्षो में देश का विभाजन करा दिया। मगर आज पुन: उसी रास्ते पर चलने की प्रतियोगिता हो रही है। कांग्रेस, सपा, जनता दल [यू], कम्युनिस्ट तथा कई अन्य दल इसमें लगे हैं। पिछले चुनाव घोषणापत्र में कांग्रेस ने मुसलमानों को आरक्षण देने का वादा किया और अब उसे किसी तरह पूरा करने की फिराक में भी है। यह सीधे-सीधे नहीं हो सकता क्योंकि यह संविधान और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के विरुद्ध है। अत: इसके लिए हर तरह का कानूनी छलकपट किया जा रहा है। यहां तक कि अल्पसंख्यक आरक्षण मामले पर सुप्रीम कोर्ट में अतिरिक्त सॉलीसिटर जनरल ने साफ कहा कि यह तो निचले तबके के मुस्लिमों और मतांतरित होकर ईसाई बने लोगों के लिए ही है। बौद्धों या पारसियों के लिए यह उप-कोटा है ही नहीं! दूसरे शब्दों में, अल्पसंख्यक के नाम पर दी जाने वाली विशेष सुविधाएं केवल एक समुदाय के लिए हैं!
इतना कुछ पाकर भी कई मुस्लिम नेता कांग्रेस से नाराज रहे हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश, असम, बंगाल तो छोड़िए, गुजरात में भी कांग्रेस को मुस्लिम वोट कम ही मिले। जब कांग्रेस को वोट देते भी हैं, तो भंगिमा सदैव शिकायती रही कि लाचारीवश तुम्हें वोट दे रहे हैं। हर मुस्लिम नेता दोहराता है कि मुसलमानों का वोट-बैंक रूप में इस्तेमाल हो रहा है। जबकि इतिहास कुछ अलग ही है। पिछले सौ वर्षो से मुस्लिम नेता कांग्रेस से तरह-तरह की मांगे रखते गए हैं। उन मांगों को कांग्रेस किसी न किसी झूठी उम्मीद में मानती गई। लखनऊ पैक्ट [1916], खलीफत आंदोलन [1919-24] का समर्थन कांग्रेस ने इस आशा में किया था कि राष्ट्रीय आंदोलन में मुस्लिम साथ देंगे। गांधीजी कांग्रेस को मुस्लिमों के समक्ष वैचारिक, राजनीतिक, भावनात्मक रूप से निरंतर झुकाते गए। पर मुस्लिम मांगे बढ़ाते गए। सहयोग के बजाय कदम पीछे खींचते गए। अंतत: गांधी और कांग्रेस का पूरा इस्तेमाल कर मुस्लिम नेताओं ने देश के ही टुकड़े कर डाले। स्वतंत्र भारत में भी वही हुआ। मुस्लिम नेताओं ने कांग्रेस व अन्य दलों का भी इस्तेमाल कर इस्लामी ताकत बढ़ाई।
इसी बिंदु पर गुजरात से प्रकाश की एक किरण चमकी है। जिस नरेंद्र मोदी को बुरा-भला कहकर कांग्रेस, सपा, जनता दल [यू] जैसी अनेक पार्टियां मुस्लिम वोटों की लालसा में लगी हैं, उसी नरेंद्र मोदी को गुजरात में मुसलमानों का भी भारी समर्थन हासिल हुआ है। गुजरात में नरेंद्र मोदी को मुस्लिम वर्चस्व के इलाके में भी भरपूर समर्थन मिला है। यहां तक कि कांग्रेस के महत्वपूर्ण दिग्गज अहमद पटेल के गृह इलाके भरूच की सभी पांचों सीटें भाजपा को मिली हैं। अहमदाबाद, सूरत और वडोदरा क्षेत्र की कुल 50 में से 43 सीटें भी भाजपा को गई, जहां खासी मुस्लिम आबादी है। यह ठीक से समझने की जरूरत है। क्योंकि इसी में न केवल मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति का सकारात्मक विकल्प, बल्कि पूरी सांप्रदायिक राजनीति की काट की कुंजी भी मिलती है। वह सरल कुंजी यह है कि हमारे नेताओं को केवल राष्ट्रीय हित के आधार पर निर्णय लेने चाहिए। मुस्लिम वोटों के लोभ और तदनुरूप तुष्टिकरण में नहीं पड़ना चाहिए। तभी मुस्लिम भी राष्ट्रीय धारा में आएंगे! जबकि तुष्टीकरण उल्टे उन्हें और अलग, और दूर, और कट्टरपंथी बनाएगा।
श्रीअरविंद ने कहा था कि चाटुकारिता से हिंदू-मुस्लिम एकता नहीं बनाई जा सकती। यदि विगत दस वर्षो में गुजरात देश का सबसे शांत और उन्नतिशील प्रांत बना है तो इसलिए क्योंकि नरेंद्र मोदी की सरकार ने जनहित मात्र को ध्यान में रखकर सारे निर्णय लिए। हिंदूवादियों द्वारा भी उनकी आलोचना इसीलिए हुई, क्योंकि मोदी ने जैसे कोई मुस्लिम तुष्टीकरण नहीं किया, वैसे ही किसी हिंदूवादी पक्षपात से भी स्वयं को दूर रखा। नतीजा सामने है- हिंदू और मुसलमान, दोनों ने मोदी को वोट दिया और लगातार दे रहे हैं। आज तुष्टीकरण करने वाला कोई दल और नेता मुस्लिम वोटों के प्रति आश्वस्त नहीं है, जबकि सामुदायिक भेदभाव से ऊपर उठकर काम करने वाले नरेंद्र मोदी को हिंदू और मुस्लिम दोनों ही बार-बार वोट दे रहे हैं। मुसलमान अपने-आप मोदी के साथ आ गए हैं, क्योंकि मोदी ने स्वयं को सभी गुजरातियों की सेवा में लगा रखा है। क्या यही पूरे देश में नहीं होना चाहिए?
[एस शंकर: लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं]

मुलायम ने मांगा मुसलमानों के लिए आरक्षण

http://www.livehindustan.com/news/desh/national/article1-story-39-39-290708.html
सरकारी नौकरियों में काम कर रहे अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों को पदोन्नति में आरक्षण दिए जाने के विरोध के कारण अलग-थलग पड़ी समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने सोमवार को कहा कि सरकार को मुसलमानों को आरक्षण देने की दिशा में काम करना चाहिए। मुलायम ने यह धमकी भी दी कि पदोन्नति में आरक्षण आया तो वह संप्रग को समर्थन के बारे में विचार करेंगे।

अल्पसंख्यकों के लिए होंगे पढ़ाई के खास इंतजाम

http://www.jagran.com/news/national-education-for-minorities-government-provide-to-specific-arrangements-9948330.html
नई दिल्ली, [राजकेश्वर सिंह]। सच्चर कमेटी की सिफारिशों पर अमल के बहाने पिछले लोकसभा चुनाव में सिर्फ अल्पसंख्यक बहुल जिलों में कांग्रेस को 30 सीटों का फायदा देख चुकी सरकार अब अल्पसंख्यकों से जुड़े मुद्दों पर और ध्यान केंद्रित करेगी। इनमें पढ़ाई और रोजगार के अवसर सबसे ऊपर हैं। अल्पसंख्यकों की बड़ी आबादी वाले सौ कस्बों व शहरों में बेहतर तालीम, कौशल विकास [स्किल डेवलपमेंट] और व्यावसायिक शिक्षा की खास पहल होगी। अल्पसंख्यक बहुल उन छोटे कस्बों में महिला डिग्री कॉलेज खोलने पर भी फोकस होगा, जहां सकल दाखिला दर [जीईआर] काफी कम है।

अब तारिक व खालिद से भी मुकदमें होंगे वापस!

http://www.jagran.com/uttar-pradesh/varanasi-city-9830317.html
वाराणसी : लखनऊ व फैजाबाद कचहरी में 23 नवंबर 2007 को हुए सीरियल बम ब्लास्ट के दो आरोपियों पर से भी मुकदमें वापस लेने की तैयारी है। इनपर गोरखपुर में हुए ब्लास्ट का भी आरोप है। इन तीनों ब्लास्ट के दोनों आरोपी बाराबंकी से गिरफ्तार किए गए थे। प्रदेश के गृह विभाग की मानें तो आतंकवाद के नाम पर आरोपी बनाए गए तारिक कासमी व खालिद मुजाहिद निर्दोष हैं और अब उनपर दर्ज अभियोगों की वापसी होनी है। प्रदेश गृह विभाग के विशेष सचिव राजेंद्र प्रसाद ने संबंधित जिलाधिकारियों से मुकदमों व आरोपियों के विवरण उपलब्ध कराने को पत्र लिखा है।

बनारस धमाका: वलीउल्लाह, शमीम से वापस होंगे मुकदमे!

http://www.jagran.com/news/national-varanasi-blast-9827588.html
संकटमोचन व कैंट स्टेशन पर 7 मार्च 2006 को हुए सीरियल बम ब्लास्ट के आरोपी वलीउल्लाह व शमीम पर से प्रदेश सरकार ने गुपचुप मुकदमा वापसी की तैयारी शुरू कर दी है। सरकार के विशेष सचिव राजेंद्र कुमार की ओर से इस बाबत पत्र जिला प्रशासन को भेजा गया है।

बंटने को है मुस्लिम लड़कियों को अनुदान

http://www.jagran.com/news/national-grant-soon-divided-between-the-muslim-girls-mulayam-9781100.html
लखनऊ [जाब्यू]। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने सोमवार को कहा कि मुस्लिम लड़कियों को अनुदान बांटे जाने की बस तारीख तय होनी है। सरकार ने कक्षा 10 पास मुस्लिम लड़कियों को आगे की शिक्षा ग्रहण करने अथवा विवाह के लिए 30 हजार रुपये अनुदान देने निर्णय किया है। उन्होंने कहा कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में स्वीकार किया गया है कि मुस्लिमों की हालत अनुसूचित जाति/जनजाति से भी बदतर है, ऐसे में उनकी बदहाली को देखते हुए सपा ने मुस्लिम छात्राओं के लिए विशेष अनुदान का प्रावधान किया है।

Monday, October 15, 2012

यूपी में कभी भी भड़क सकते हैं सांप्रदायिक दंगे: आईबी

http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/16528206.cms
आईबी ने केंद्र को आगाह किया है कि आने वाले दिनों में उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक हिंसा विस्फोटक रूप ले सकती है। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में जब से समाजवादी पार्टी ने सत्ता संभाली है, तब से यूपी के कई हिस्सों से सांप्रदायिक हिंसा के मामले सामने आए हैं। अब तक इस तरह की 7 घटनाएं हो चुकी हैं। ऐसे में इंटेलिजेंस ब्यूरो ने चिंता जाहिर की है, कि आने वाले दिनों में हालात और खराब हो सकते हैं।

Tuesday, September 11, 2012

बांग्लादेशियों को वापस नहीं भेज सकते : गोगाई

http://www.jagran.com/news/national-assam-alone-cannot-stop-infiltration-says-tarun-9635872.html
असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने कहा है बांग्लादेशियों को वह राज्य से बाहर नहीं निकाल सकते हैं। उन्होंने कहा कि बांग्लादेश से आए शरणार्थियों की पहचान करना उनका काम जरूर है, लेकिन बांग्लादेशियों को राज्य से बाहर करने का काम उनका नहीं है। उन्होंने इस मुद्दे पर गेंद केंद्र के पाले में फेंक दी है। उन्होंने कहा कि यह काम केंद्र सरकार का है।

यूपी: अल्पसंख्यक छात्राओं को मिलेगा 30 हजार का अनुदान

http://www.amarujala.com/National/minority-girl-students-get-30-thousand-grant-in-up-31491.html
उत्तर प्रदेश सरकार ने कक्षा दस पास करने वाली अल्पसंख्यक बालिकाओं को एक और तोहफा दिया। अल्पसंख्यक समुदाय के गरीब परिवार की छात्राओं को ‘बालिका शिक्षा अनुदान’ योजना के तहत 30,000 रुपये दिए जाएंगे।

सुरक्षा पर भारी पड़ते स्वार्थ

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-opinion-9644739.html
असम में हाल में जो जातीय संघर्ष हुआ उसके बारे में बहुत भ्रातिया हैं। समस्या को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है। 1947 में जब देश का बंटवारा हुआ उस समय भारी संख्या में पूर्वी पाकिस्तान से हिंदू शरणार्थी आए। कालातर में जब पाकिस्तानी फौजों ने बंगालियों के विरुद्घ दमन चक्र चलाया तब मुसलमान भी भारी संख्या में भारत के सीमावर्ती प्रदेशों में आए। 1971 में पाकिस्तान के टूटने और बाग्लादेश के सृजन पश्चात यह आशा हुई कि सभी जातिया और संप्रदाय के लोग साप्रदायिक सौहार्द के वातावरण में बाग्लादेश में रहेंगे, परंतु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। शेख मुजीब की 1975 में हत्या कर दी गई और बाद में जनरल इरशाद ने इस्लाम को राजधर्म की मान्यता दी। इसके बाद बाग्लादेश में हिंदू, बौद्घ, ईसाई और जनजातिया यानी सभी वर्ग के अल्पसंख्यकों पर अत्यधिक अत्याचार हुए। आर्थिक कारणों से भारी संख्या में मुसलमानों ने बाग्लादेश से पलायन किया। ऐसा समझा जाता है कि बाग्लादेश से भारत आने वालों में 70 प्रतिशत मुसलमान और 30 प्रतिशत हिंदू व अन्य संप्रदायों के लोग थे। बाग्लादेश से घुसपैठ के अकाट्य प्रमाण हैं। इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज के अनुसार 1951 व 1961 के बीच करीब 35 लाख लोग पूर्वी पाकिस्तान से चले गए थे। बाग्लादेश के चुनाव आयोग ने भी पाया कि 1991 व 1995 के बीच करीब 61 लाख मतदाता देश से गायब हो गए। स्पष्ट है कि ये सभी व्यक्ति भारत के सीमावर्ती प्रदेशों में घुसपैठ कर चुके थे। 1996 में भी बाग्लादेश के चुनाव आयोग को मतदाता सूची से 1,20,000 नागरिकों के नाम काटने पडे़ थे, क्योंकि उनका कहीं अता-पता नहीं था। इतना सब होने के बाद भी बाग्लादेश के नेता जब यह कहते हैं कि उनके देश से अनधिकृत ढंग से पलायन नहीं हुआ तो उनकी गुस्ताखी की दाद देनी पड़ती है। भारत सरकार ने इस मुद्दे को बाग्लादेश सरकार से कभी गंभीरता से नहीं उठाया। 1998 में असम के तत्कालीन गवर्नर, जनरल एसके सिन्हा ने राष्ट्रपति को लिखे एक पत्र में चेतावनी दी थी कि बाग्लादेश से जिस तरह आबादी भारत में चली आ रही है, अगर उसका प्रवाह बना रहा तो वह दिन दूर नहीं जब असम के मूल निवासी अपने ही प्रदेश में अल्पसंख्यक हो जाएंगे और हो सकता है कि असम के कुछ जनपद भारत से कटकर अलग हो जाएं। चेतावनी का भारत सरकार पर कोई असर नहीं हुआ। कारगिल लड़ाई के बाद भारत सरकार ने चार टॉस्क फोर्सो का गठन किया था। इनमें से एक जो सीमा प्रबंधन से संबंधित थी उसके प्रमुख माधव गोडबोले भूतपूर्व गृह सचिव थे। इस टॉस्क फोर्स ने बड़ी निष्पक्ष आख्या प्रस्तुत की। गोडबोले ने अपनी रिपोर्ट में दो टूक शब्दों में लिखा कि बाग्लादेश से आबादी का जो अनधिकृत पलायन हो रहा है उसके बारे में सभी को मालूम है, परंतु दुर्भाग्य से समस्या से निपटने के लिए कोई आम सहमति नहीं बन पा रही है। टॉस्क फोर्स के आकलन के अनुसार सन् 2000 में बाग्लादेश से आए घुसपैठियों की संख्या लगभग 1.5 करोड़ थी। पिछले 12 वर्षो में यह संख्या बढ़कर कम से कम दो करोड़ तो हो ही गई होगी। 2001 में एक मंत्रि समूह ने टॉस्क फोर्स की रिपोर्ट पर अपनी टिप्पणी देते हुए कहा कि इतनी भारी संख्या में बाग्लादेशियों की उपस्थिति देश की सुरक्षा और सामाजिक सौहार्द के लिए एक खतरा है। यह प्रकरण सुप्रीम कोर्ट के सामने भी गया। 12 जुलाई 2005 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि बाग्लादेशियों के भारी संख्या में अतिक्रमण के कारण असम में आतरिक अव्यवस्था और वाह्य आक्रमण जैसी स्थिति है और निर्देश दिया कि जो बाग्लादेशी भारत में अनधिकृत तरीके से घुस आए हैं उन्हें देश में रहने का कोई अधिकार नहीं है और उन्हें भारत से निकाला जाए। भारत सरकार ने टॉस्क रिपोर्ट की संस्तुतियों की अनदेखी की, मंत्रि समूह की चेतावनी पर कोई ध्यान नहीं दिया और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की अवहेलना की। घुसपैठिए प्रथम चरण में तो याचक थे। स्थानीय नेताओं ने इन्हें अपना वोट बैंक बनाया और असम के निवासी होने के प्रमाण पत्र दिलाए। धीरे-धीरे इन लोगों ने जमीनें भी खरीदनी शुरू कर दी। इस तरह इन्होंने अपना आर्थिक आधार बना लिया। वर्तमान में जिसे तृतीय चरण कहा जा सकता है, अब ये घुसपैठिए अपनी राजनीतिक शक्ति का प्रदर्शन कर रहे हैं। 2008 में दरंग और उदलगिरी जनपदों में बोडो जनजाति और घुसपैठियों में दंगे हुए थे। इनमें 55 व्यक्तियों की जानें गई थीं। हाल में कोकराझाड़, धुबड़ी और अन्य जनपदों में जो हिंसा हुई वह भी 2008 की घटनाओं की पुनरावृत्ति थी, केवल जनपद बदल गए थे। भारतीय सेना के जाने के बाद ही स्थिति पर नियंत्रण पाया जा सका। सवाल यह है कि अब इस समस्या से निपटा कैसे जाए। इस विषय पर मेरे तीन सुझाव हैं। पहला तो यह कि राजीव गाधी की पहल पर 1985 में जो असम समझौता हुआ था उसको आधार मान कर जो भी लोग एक जनवरी 1966 और 24 मार्च 1971 के बीच असम आए थे उनका पता लगाकर उनका नाम मतदाता सूची से काट दिया जाए और जो लोग 25 मार्च 1971 के बाद आए थे उनका पता लगाने के बाद उन्हें वैधानिक तरीके से अपने देश वापस भेज दिया जाए। दूसरा, अगर यह मान लिया जाए कि इतने वर्षो बाद बाग्लादेशियों को वापस भेजना संभव नहीं तो कम से कम यह सुनिश्चित किया जाए कि इनको वोट देने का कोई अधिकार न हो और वह अचल संपत्ति भी न खरीद सकें। इन बाग्लादेशियों को वर्क परमिट दिया जाए, जिससे उन्हें रोजी कमाने का अधिकार तो हो, परंतु भारतीय नागरिक के सामान्य अधिकार न हों? तीसरा यह कि बंग्लादेश सीमा पर तार लगाने का जो कार्य चल रहा है उसे अतिशीघ्र पूरा किया जाए। नेशनल माइनॉरिटी कमीशन के अनुसार असम में जो हिंसा हुई थी वह बोडो और प्रवासी मुसलमानों के बीच थी। यह निष्कर्ष भ्रामक है कि यह मुसलमान आज की तारीख में भले प्रवासी हो गए हों, परंतु सब जानते हैं कि ये बाग्लादेश से आए थे और इन्होंने फर्जी दस्तावेज बनवा लिए हैं। एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स ने माइनॉरिटी कमीशन की रिपोर्ट की आलोचना करते हुए कहा कि वह बोडो के बारे में पूर्वाग्रह दिखाती हैं। बोडो वास्तव में अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहे हैं। असम के मुख्यमंत्री ने अपने एक बयान में कहा कि प्रदेश में एक ज्वालामुखी सुलग रहा है। यह सही है, सरकार ने अपनी सैनिक शक्ति से स्थिति पर नियंत्रण तो पा लिया है, परंतु यह चिंगारी सुलगती रहेगी। जो नेतृत्व अपने राजनीतिक स्वार्थ के आगे नहीं सोचता और जिसके लिए राष्ट्रीय सुरक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण सत्ता में बने रहना है वह अपनी अकर्मण्यता और अदूरदर्शिता के दलदल में फंसता जाएगा।

Thursday, August 30, 2012

विकृत सेक्युलरवाद


असम में आग क्यों लगी और 11 अगस्त को मुंबई के आजाद मैदान में पाकिस्तानी झंडे क्यों लहराए गए? मुंबई के बाद पुणे, बेंगलूर, हैदराबाद, लखनऊ, कानपुर और इलाहाबाद में रोहयांग और बांग्लादेशी मुसलमानों के समर्थन में हिंसा क्यों हुई? क्यों पूर्वोत्तर के करीब पचास हजार लोग विभिन्न शहरों से रोजी-रोटी छोड़ पलायन को मजबूर हुए? क्या देश यह आशा कर सकता है कि अब असम जैसी हिंसा आगे नहीं होगी? प्रधानमंत्री के बयानों को देखते हुए यह आशा बेमानी लगती है। विगत 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से बोलते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था, असम में हिंसा की घटनाएं दुर्भाग्यपूर्ण हैं। हमारी सरकार हिंसा के पीछे के कारणों को जानने के लिए हरसंभव कदम उठाएगी। असम में तीन बार से कांग्रेस का शासन है, किंतु उन्होंने यह भी कहा कि हमारी सरकार यह नहीं जानती कि समस्या की जड़ क्या है? ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री को छोड़कर सभी जानते हैं कि समस्या का क्या कारण है। असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने स्वीकार किया है कि भारत में सांप्रदायिक हिंसा फैलाना पाकिस्तान पोषित भारतीय नेटवर्क की साजिश थी। केंद्रीय गृह सचिव आरके सिंह ने दावा किया है कि खुफिया एजेंसियों ने यह पता लगा लिया है कि पाकिस्तानी नेटवर्क से दंगा फैलाने के लिए आपत्तिाजनक एमएमएस और तस्वीरें भेजी गईं, जिन्हें यहां बैठे पाकिस्तानी पिट्ठुओं ने भारतीय मुसलमानों को भड़काने के लिए प्रसारित किया।
भारत को हजार घाव देना पाकिस्तान का जिहादी एजेंडा है। अन्य देशों में बाढ़ आदि प्राकृतिक आपदाओं के समय खींची गई तस्वीरें और एमएमएस पाकिस्तान से भेजे गए। पाकिस्तान अपने मकसद में कामयाब हो पा रहा है, क्योंकि उसके एजेंडे को पूरा करने के लिए उसे जो मानसिकता और हाथ चाहिए वे यहां बेरोकटोक पोषित हो रहे हैं। देश के कई हिस्सों में इस्लामी चरमपंथियों द्वारा बड़े पैमाने पर की गई हिंसा और तोड़फोड़ से यह साफ हो चुका है कि भारत में एक वर्ग ऐसा है जो तन से तो भारत में है, किंतु मन पाकिस्तान से जुड़ा है। ऐसे देशघातकों को जब राजनीतिक संरक्षण प्रदान किया जाता है तो स्वाभाविक तौर पर प्रश्न खड़े होते हैं, किंतु विडंबना यह है कि ऐसी मानसिकता के विरोध को सांप्रदायिक ठहराने की कोशिश होती है। क्यों?
इसी सेक्युलर सरकार की एक बानगी पिछले साल जून के महीने की है, जब काला धन वापस लाने के लिए रामदेव दिल्ली स्थित रामलीला मैदान में अनशन पर डटे थे। आधी रात को रामलीला मैदान पुलिस छावनी में बदल गया, अनशनकारियों पर पुलिस ने अंधाधुंध लाठियां भांजी। बाबा रामदेव को गिरफ्तार कर उन्हें रातोरात दिल्ली की सीमा से बाहर कर दिया गया। एक ओर आधी रात को वंदेमातरम् और भारत माता का जयघोष करने वालों को सरकार बर्बरता से पीटती है और दूसरी ओर पाकिस्तानी झंडे लहराने और शहीद स्मारक को तोड़ने वाले लोगों को मनमानी की छूट देती है। क्यों?
मुंबई के आजाद मैदान में एकत्रित भीड़ का बांग्लादेशी घुसपैठियों या म्यांमारी रोहयांग मुसलमानों से क्या रिश्ता है और उन्हें इन विदेशियों के समर्थन में आंदोलन करने की छूट क्यों दी गई? इस देश में राष्ट्रहित की बात करना सेक्युलर मापदंड में जहां गुनाह है, वहीं इस्लामी चरमपंथ को पोषित करना सेक्युलरवाद की कसौटी बन गया है। इस दोहरे सेक्युलरवादी चरित्र के कारण ही कट्टरपंथियों को बल मिलता है, जिसके कारण कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक आतंक का खौफ पसरा है। संसद पर आतंकी हमला करने की साजिश में फांसी की सजा प्राप्त अफजल को सरकारी मेहमान बनाए रखना सेक्युलरिस्टों के दोहरे चरित्र का जीवंत साक्ष्य है। कौन-सा ऐसा स्वाभिमानी राष्ट्र होगा, जो अपनी संप्रभुता पर हमला करने वालों की तीमारदारी करेगा?
असम की समस्या बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण है। इन बांग्लादेशियों को सुनियोजित तरीके से असम और अन्य पूर्वोत्तर प्रांतों सहित पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड आदि राज्यों के सीमांत क्षेत्रों में बसाया गया है। इनके कारण ही उन क्षेत्रों के जनसंख्या स्वरूप में भारी बदलाव आया है और वहां के स्थानीय नागरिक कई क्षेत्रों में अल्पसंख्यक की स्थिति में आ गए हैं और असुरक्षित अनुभव करते हैं। असम के मामले में तो गुवाहाटी उच्च न्यायालय का कहना है कि वे राच्य में किंगमेकर बन गए हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने सन 2005 के बाद 2006 में भी सरकार को बांग्लादेशी नागरिकों को देश से बाहर करने का निर्देश दिया है, किंतु बांग्लादेशी नागरिकों के निष्कासन पर सरकार खामोश है। असम में इतनी बड़ी हिंसा हुई, स्थानीय बोडो लोगों को उनके घरों और जमीनों से खदेड़ भगाया गया। विदेशियों के हाथों अपने सम्मान, अस्तित्व और पहचान लुटता देख जब स्थानीय लोगों ने कड़ा प्रतिरोध करना शुरू किया तो सभी सेक्युलर दलों को शांति और सद्भाव की चिंता सताने लगी। हिंसा भड़कने के प्रारंभिक तीन-चार दिनों तक राच्य और केंद्र सरकार दोनों सोई थीं। क्यों? अभी हाल में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने असम हिंसा पर अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी है। इसमें बताया गया है कि दंगे मुसलमानों और बोडो के बीच छिड़े। रिपोर्ट में मुसलमानों को अल्पसंख्यक और बोडो को बहुसंख्यक बताया गया है। अल्पसंख्यक होने का सेक्युलर मापदंड आखिर है क्या? क्या मुसलमान होना ही अल्पसंख्यक होने का आधार है, चाहे उनका संख्या बल कितना भी हो?
असम में अल्पसंख्यक कौन हैं? असम बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण मुस्लिम बहुल राच्य बनने की राह पर है। कोकराझाड़, धुबड़ी, चिरांग और बरपेटा जिले हिंसा के सर्वाधिक शिकार रहे। कोकराझाड़ के भोवरागुड़ी में भारतीय मतावलंबियों की जनसंख्या 1991 से 2001 के बीच एक प्रतिशत तो दोतमा तहसील में 16 प्रतिशत घटी है, जबकि इसी अवधि में मुसलमानों की आबादी 26 प्रतिशत बढ़ी है। धुबड़ी जिले के बगरीबाड़ी, छापर और दक्षिणी सलमारा में भारतीय मतावलंबियों की आबादी क्रमश: 4, 2 और 23 प्रतिशत घटी, वहीं इन तहसीलों में मुसलमानों की जनसंख्या इसी अवधि में क्रमश: 30.5, 37.39, और 21 फीसदी बढ़ी। अन्यत्र यही हाल है। आबादी में यह बदलाव उन अवैध बांग्लादेशियों के कारण हुआ है, जिन्हें बसाकर जहां पाकिस्तान अपने एजेंडे को साकार करना चाहता है, वहीं कांग्रेस सेक्युलरवाद के नाम पर उन्हें संरक्षण प्रदान कर अपनी सत्ता अजर-अमर करना चाहती है। कांग्रेसी नेता देवकांत बरुआ ने इंदिरा गांधी को यूं ही नहीं कहा था कि अली और कुली असम में कांग्रेस के हाथ से गद्दी कभी जाने नहीं देंगे। इसी मानसिकता ने देश को रक्तरंजित विभाजन के लिए अभिशप्त किया। विकृत सेक्युलरवाद के कारण आज असम सुलग रहा है और मुंबई में पाकिस्तानी झंडे लहराए गए तो आश्चर्य कैसा?
[लेखक बलबीर पुंज, राच्यसभा सदस्य हैं]