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नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में आने की संभावना से कांग्रेस के कुछ रणनीतिकार प्रसन्न भी हैं। उन्हें लगता है कि तब तो सारे देश के मुस्लिम वोट इकट्ठा होकर स्वत: कांग्रेस की झोली में आ गिरेंगे! दूसरी ओर गुजरात में मोदी की लगातार तीसरी जीत पर जनता दल [यू] के नेता असहज हैं। उन्होंने नरेंद्र मोदी को औपचारिक बधाई देने से भी परहेज किया। वे चुप और खिन्न भी हैं, क्योंकि अब राजग द्वारा जनता दल [यू] नेता को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की आशाएं धूल में मिल गई हैं। तीसरी ओर समाजवादी पार्टी सब कुछ छोड़ मुस्लिम आरक्षण की पैरवी करती दिख रही है।
ये तीनों ही बातें देश की राजनीति में मुस्लिम वोट की बढ़ती ताकत के लक्षण हैं, किंतु साथ ही दूसरी प्रक्रिया भी चल रही है। गुजरात में मुस्लिम मतदाताओं ने भी बड़ी संख्या में भाजपा को समर्थन दिया है। इसे समझने की आवश्यकता है। आखिर जिस मोदी को विगत दस वर्ष से सारी दुनिया में मुस्लिम-विरोधी बताकर प्रचारित किया गया, उसी को स्वयं गुजरात में मुसलमान समर्थन दे रहे हैं। इसमें देश की राजनीति में सेक्यूलरवाद की विकृति अथवा मुस्लिम-तुष्टिकरण के सही विकल्प की झलक मिलती है।
यदि देशहित, जनहित, सहज न्याय, विवेक से भी ऊपर मुस्लिम तुष्टीकरण हावी हो जाए, तो यह हर हाल में अनर्थकारी है। जैसाकि डॉ. भीमराव अंबेडकर ने 1940 में कहा था, मुसलमानों की मांगे हनुमानजी की पूंछ की तरह बढ़ती जाती हैं। उनके तुष्टीकरण के सिलसिले ने अगले कुछ ही वर्षो में देश का विभाजन करा दिया। मगर आज पुन: उसी रास्ते पर चलने की प्रतियोगिता हो रही है। कांग्रेस, सपा, जनता दल [यू], कम्युनिस्ट तथा कई अन्य दल इसमें लगे हैं। पिछले चुनाव घोषणापत्र में कांग्रेस ने मुसलमानों को आरक्षण देने का वादा किया और अब उसे किसी तरह पूरा करने की फिराक में भी है। यह सीधे-सीधे नहीं हो सकता क्योंकि यह संविधान और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के विरुद्ध है। अत: इसके लिए हर तरह का कानूनी छलकपट किया जा रहा है। यहां तक कि अल्पसंख्यक आरक्षण मामले पर सुप्रीम कोर्ट में अतिरिक्त सॉलीसिटर जनरल ने साफ कहा कि यह तो निचले तबके के मुस्लिमों और मतांतरित होकर ईसाई बने लोगों के लिए ही है। बौद्धों या पारसियों के लिए यह उप-कोटा है ही नहीं! दूसरे शब्दों में, अल्पसंख्यक के नाम पर दी जाने वाली विशेष सुविधाएं केवल एक समुदाय के लिए हैं!
इतना कुछ पाकर भी कई मुस्लिम नेता कांग्रेस से नाराज रहे हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश, असम, बंगाल तो छोड़िए, गुजरात में भी कांग्रेस को मुस्लिम वोट कम ही मिले। जब कांग्रेस को वोट देते भी हैं, तो भंगिमा सदैव शिकायती रही कि लाचारीवश तुम्हें वोट दे रहे हैं। हर मुस्लिम नेता दोहराता है कि मुसलमानों का वोट-बैंक रूप में इस्तेमाल हो रहा है। जबकि इतिहास कुछ अलग ही है। पिछले सौ वर्षो से मुस्लिम नेता कांग्रेस से तरह-तरह की मांगे रखते गए हैं। उन मांगों को कांग्रेस किसी न किसी झूठी उम्मीद में मानती गई। लखनऊ पैक्ट [1916], खलीफत आंदोलन [1919-24] का समर्थन कांग्रेस ने इस आशा में किया था कि राष्ट्रीय आंदोलन में मुस्लिम साथ देंगे। गांधीजी कांग्रेस को मुस्लिमों के समक्ष वैचारिक, राजनीतिक, भावनात्मक रूप से निरंतर झुकाते गए। पर मुस्लिम मांगे बढ़ाते गए। सहयोग के बजाय कदम पीछे खींचते गए। अंतत: गांधी और कांग्रेस का पूरा इस्तेमाल कर मुस्लिम नेताओं ने देश के ही टुकड़े कर डाले। स्वतंत्र भारत में भी वही हुआ। मुस्लिम नेताओं ने कांग्रेस व अन्य दलों का भी इस्तेमाल कर इस्लामी ताकत बढ़ाई।
इसी बिंदु पर गुजरात से प्रकाश की एक किरण चमकी है। जिस नरेंद्र मोदी को बुरा-भला कहकर कांग्रेस, सपा, जनता दल [यू] जैसी अनेक पार्टियां मुस्लिम वोटों की लालसा में लगी हैं, उसी नरेंद्र मोदी को गुजरात में मुसलमानों का भी भारी समर्थन हासिल हुआ है। गुजरात में नरेंद्र मोदी को मुस्लिम वर्चस्व के इलाके में भी भरपूर समर्थन मिला है। यहां तक कि कांग्रेस के महत्वपूर्ण दिग्गज अहमद पटेल के गृह इलाके भरूच की सभी पांचों सीटें भाजपा को मिली हैं। अहमदाबाद, सूरत और वडोदरा क्षेत्र की कुल 50 में से 43 सीटें भी भाजपा को गई, जहां खासी मुस्लिम आबादी है। यह ठीक से समझने की जरूरत है। क्योंकि इसी में न केवल मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति का सकारात्मक विकल्प, बल्कि पूरी सांप्रदायिक राजनीति की काट की कुंजी भी मिलती है। वह सरल कुंजी यह है कि हमारे नेताओं को केवल राष्ट्रीय हित के आधार पर निर्णय लेने चाहिए। मुस्लिम वोटों के लोभ और तदनुरूप तुष्टिकरण में नहीं पड़ना चाहिए। तभी मुस्लिम भी राष्ट्रीय धारा में आएंगे! जबकि तुष्टीकरण उल्टे उन्हें और अलग, और दूर, और कट्टरपंथी बनाएगा।
श्रीअरविंद ने कहा था कि चाटुकारिता से हिंदू-मुस्लिम एकता नहीं बनाई जा सकती। यदि विगत दस वर्षो में गुजरात देश का सबसे शांत और उन्नतिशील प्रांत बना है तो इसलिए क्योंकि नरेंद्र मोदी की सरकार ने जनहित मात्र को ध्यान में रखकर सारे निर्णय लिए। हिंदूवादियों द्वारा भी उनकी आलोचना इसीलिए हुई, क्योंकि मोदी ने जैसे कोई मुस्लिम तुष्टीकरण नहीं किया, वैसे ही किसी हिंदूवादी पक्षपात से भी स्वयं को दूर रखा। नतीजा सामने है- हिंदू और मुसलमान, दोनों ने मोदी को वोट दिया और लगातार दे रहे हैं। आज तुष्टीकरण करने वाला कोई दल और नेता मुस्लिम वोटों के प्रति आश्वस्त नहीं है, जबकि सामुदायिक भेदभाव से ऊपर उठकर काम करने वाले नरेंद्र मोदी को हिंदू और मुस्लिम दोनों ही बार-बार वोट दे रहे हैं। मुसलमान अपने-आप मोदी के साथ आ गए हैं, क्योंकि मोदी ने स्वयं को सभी गुजरातियों की सेवा में लगा रखा है। क्या यही पूरे देश में नहीं होना चाहिए?
[एस शंकर: लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं]
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