असम में कोकराझाड़ समेत कुछ अन्य जिलों में व्यापक गुटीय हिंसा के बाद देश के विभिन्न हिस्सों में अफवाहों का जा दौर चला और उसके दुष्परिणामस्वरूप पूर्वोत्तर के लोगों को जिस तरह निशाना बनाया गया उससे आंतरिक सुरक्षा का कमजोर ढांचा ही सामने आया। रही-सही कसर कर्नाटक, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों से पूर्वोत्तर के लोगों के पलायन ने पूरी कर दी। यह पलायन आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर केंद्र सरकार की नाकामी को उजागर करता है। इससे अधिक शर्मनाक और क्या होगा कि देश के एक हिस्से में उभरे सांप्रदायिक तनाव की प्रतिक्रिया देश के अलग-अलग हिस्सों में व्यक्त की जाए और राज्य सरकारों के साथ-साथ केंद्रीय सत्ता इस पर अंकुश लगाने में अक्षम साबित हो? यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है कि पूर्वोत्तर के लोगों को अलग-अलग राज्यों में निशाना बनाया जा रहा है और इसके चलते वे अपने घरों की ओर भाग रहे हैं। इस मामले में पहला दोष असम सरकार का है, जो अपने यहां भड़की हिंसा पर रोक लगाने में असफल साबित हुई। असम सरकार की नाकामी को ढकने का प्रयास केंद्रीय सत्ता ने किया। नतीजा यह हुआ कि वहां की हिंसा के बहाने अन्य राच्यों में शरारती तत्व सक्रिय हो गए। चूंकि असम में कांग्रेस की ही सरकार है इसलिए केंद्रीय सत्ता ने न तो वहां भड़की हिंसा के बुनियादी कारणों की तह में जाने की कोशिश की और न ही यह देखने-समझने की कि राच्य सरकार अपने दायित्वों का सही तरह पालन कर रही है या नहीं? असम में भड़की हिंसा पर बोडो समुदाय का आरोप है कि बांग्लादेश से अवैध रूप से आकर बसे लोगों के कारण पूरे क्षेत्र का जनसांख्यिकीय स्वरूप बदल गया है। बोडो समुदाय की नाराजगी का एक कारण यह भी है कि 1985 में राजीव गांधी सरकार द्वारा किए गए समझौते को पूरी तरह लागू नहीं किया गया। पिछले डेढ़-दो दशकों में असम में बांग्लादेश से आए लोगों की आबादी जिस तरह बढ़ी है उससे स्थानीय समुदाय के लोगों को अपने संसाधन हाथ से खिसकते नजर आ रहे हैं। असम में भड़की हिंसा पर राच्य सरकार शुरू से ही हकीकत पर पर्दा डालते नजर आई। पहले उसकी ओर से यह आरोप लगाया गया कि सेना ने देर से हस्तक्षेप किया और फिर हिंसा भड़कने के अलग-अलग कारण बताने की होड़ लग गई। चूंकि असम सरकार ने वस्तुस्थिति समझकर सही कदम उठाने से इन्कार किया इसलिए हिंसा ने गंभीर रूप धारण कर लिया। स्थिति की गंभीरता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि करीब तीन लाख लोग राहत शिविरों में शरण लेने के लिए मजबूर हैं और खुद मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि हालात सामान्य होने में दो-तीन माह का समय लगेगा। पता नहीं क्यों केंद्रीय सत्ता अभी भी बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ को लेकर अपनी आंखें बंद किए हुए है? जब अनेक स्नोतों से यह सामने आ चुका है कि पिछले तीन-चार दशकों में असम में बांग्लादेशी नागरिकों की आबादी कई गुना बढ़ गई है और सुप्रीम कोर्ट भी इस घुसपैठ को लेकर केंद्र सरकार को फटकार लगा चुका है तब हाथ पर हाथ धरकर बैठने का क्या मतलब? बांग्लादेश से आए लोगों का मुद्दा असम की एक पुरानी समस्या है और इसे लेकर खूब राजनीति भी होती रही है। एक समय उल्फा और असम गण परिषद की मान्यता यह थी कि असम में बाहर से आए सभी लोगों को निकाला जाना चाहिए। उनके निशाने पर बांग्लादेश और साथ ही देश के अन्य हिस्सों से आए लोग भी थे। एक समय इस मुद्दे ने राष्ट्रीय समस्या का रूप ले लिया था। बाद में न केवल उल्फा की विभाजनकारी रणनीति पर अंकुश लगाया गया, बल्कि राजनीतिक रूप से असम गण परिषद भी हाशिये पर चला गया। असम गण परिषद के कमजोर होने का फायदा कांग्रेस को मिला और वह पिछले तीन चुनाव जीतने में सफल रही। लंबे समय तक सत्ता में रहने से जो कमियां शासन में आ जाती है वे असम सरकार में भी नजर आ रही हैं, विशेषकर कानून एवं व्यवस्था के मोर्चे पर। असम के साथ-साथ देश के अन्य क्षेत्रों में स्थितियां इसलिए और अधिक खराब होती गईं, क्योंकि मोबाइल और इंटरनेट के जरिये सांप्रदायिक तनाव फैलाने वाले तत्वों पर लगाम नहीं लगाई जा सकी। मुंबई में तो असम हिंसा के विरोध में आयोजित प्रदर्शन अराजकता में तब्दील हो गया। केंद्र सरकार ने थोक में किए जाने वाले एसएमएस और एमएमएस पर रोक लगाने का निर्णय तब लिया जब कर्नाटक, आंध्र और महाराष्ट्र में रह रहे पूर्वोत्तर के लोग बड़े पैमाने पर पलायन के लिए विवश हो गए। भले ही प्रधानमंत्री और गृहमंत्री यह आश्वासन दे रहे हैं कि स्थितियां नियंत्रण में हैं, लेकिन यह कैसा नियंत्रण है कि पूर्वोत्तर के लोग यह भरोसा नहीं कर पा रहे हैं कि उनकी वास्तव में सुरक्षा की जाएगी? फिलहाल इस निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी कि नए गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियों से सही तरह से निपट नहीं पा रहे हैं, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि उनके पदभार संभालने के बाद से एक के बाद एक ऐसी घटनाएं सामने आ रही हैं जो उनके लिए किसी परीक्षा से कम नहीं। यह स्वाभाविक ही है कि प्रमुख विपक्षी दल भाजपा आंतरिक सुरक्षा के मामलों को आक्रामक ढंग से उठा रही है। पूर्वोत्तर के लोगों को निशाना बनाए जाने के मामले में प्रधानमंत्री ने जिस तरह केवल भाजपा शासित कर्नाटक के मुख्यमंत्री से बात करना जरूरी समझा उससे भाजपा को केंद्र सरकार पर हमला करने का मौका मिला। वैसे भाजपा को ध्यान रखना होगा कि बांग्लादेशी नागरिकों को निकालना आसान नहीं। खुद उसके नेतृत्व वाली राजग सरकार इस दिशा में कुछ ठोस नहीं कर सकी थी। केंद्र सरकार के लिए न केवल यह आवश्यक है कि वह पूर्वोत्तर के लोगों को सुरक्षा का अहसास कराए, बल्कि उसे इसकी तह में जाना होगा कि क्या असम में हिंसा के पीछे कोई बड़ी साजिश थी? केंद्र सरकार को समस्या की जड़ यानी बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ को रोकने के ठोस प्रयास भी करने होंगे। असम में अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशी नागरिकों को चिन्हित करना कोई सरल कार्य नहीं है। केंद्र सरकार को राजनीतिक स्वार्थो की परवाह करने के बजाय दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देना होगा। किसी क्षेत्र के सीमित संसाधनों पर जब एक समुदाय का दबाव अत्यधिक बढ़ जाता है तो दूसरे समुदायों की समस्याएं बढ़ती हैं। असम के एक हिस्से में भड़की हिंसा का असर जिस तरह देश के अन्य हिस्सों पर पड़ा और पूर्वोत्तर के हजारों लोग पलायन के लिए मजबूर गए उससे इसका पता चलता है कि किस तरह शरारती तत्व इस हिंसा को हिंदू बनाम मुसलमान का रूप देने में सक्षम हो गए। इससे यह भी जाहिर हुआ कि शेष देश के लोगों को पूर्वोत्तर की समझ नहीं है। इस स्थिति के लिए एक हद तक केंद्रीय सत्ता भी जिम्मेदार है, जो पूर्वोत्तर को हमेशा रियायतों से प्रभावित करने की कोशिश में रहती है। यही कारण है कि इस क्षेत्र के लोगों का सामाजिक और राजनीतिक तौर पर शेष देश से वैसा मिश्रण नहीं हुआ जैसा अन्य इलाके के लोगों का हुआ है। स्थितियां तभी बदलेंगी जब पूर्वोत्तर के च्यादा से च्यादा लोग देश के अन्य हिस्सों में काम-काज के लिए आते रहेंगे। अगर किसी भी कारण से वे भयभीत होंगे तो इससे पूर्वोत्तर की भी समस्याएं बढ़ेंगी और शेष देश की भी। [संजय गुप्त]
http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-opinion1-9580149.html
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