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Monday, April 14, 2014

जाति विमर्श के बिखरे सूत्र


http://www.newsview.in/reviews/21848
क्या आप जानते हैं कि भारत की जाति-विषयक समस्या या परिघटना पर कितनी पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं? एक अमेरिकी भारतविद् ने 5000 पुस्तकों की सूची बनाई थी, जो भारतीय जातियों से संबंधित हैं । यह तो सन् 1946 तक की सूची है, अर्थात जब पुस्तकों का प्रकाशन तकनीकी दृष्टि से एक लंबा, श्रमसाध्य काम होता था। अनुमान किया जा सकता है कि आज यदि ऐसी सूची कोई बनाए तो वह संख्या क्या होगी। लग सकता है कि हजारों अध्ययन, अवलोकन, विश्लेषण आदि के बाद जाति पर कहने, लिखने के लिए अब क्या बचा होगा? किंतु बात कुछ उलटी ही है। न केवल जाति संबंधी चर्चा यथावत रुचि का विषय है, बल्कि दिनों-दिनों उसमें नए-नए लोग, संस्थाएं और एजेंसियां जुड़ रही हैं। जैसा पहले था, आज भी इनमें तीन चौथाई से अधिक संख्या विदेशियों की है, खासकर अमेरिकी यूरोपीय लेखकों, संस्थाओं की। एक नई बात यह जुड़ी है कि अब जाति संबंधी लेखन और वाचन बौद्धिक, अकादमिक कार्य के साथ-साथ सक्रिय एक्टिविज्म और कूटनीति से भी जुड़ गया है। दलित ‘एडवोकेसी’ और दलित ‘मानवाधिकार’ आज एक बड़े अंतरराष्ट्रीय कारोबार के रूप में स्थापित हो चुका है। यह दूसरी बात है कि इस गंभीर अंतरराष्ट्रीय गतिविधि में स्वयं भारतीय दलित लेखक और पत्रकार पिछली पंक्तियों में ही कहीं पर हैं।
वेंडी डोनीगर ने अपनी विवादित पुस्तक ‘द हिंदूज: एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री’ और आमतौर पर अपनी पूरी इंडोलॉजी के संबंध में पूरी ठसक से कहा था कि उनके लिए भारतीय लेखक, विद्वान या आम लोग केवल ‘नेटिव इनफॉर्मर’ भर हो सकते हैं। उन तथ्यों की व्याख्या और निष्कर्ष निकालने का अधिकार हिंदुओं का नहीं, बल्कि वेंडी जैसे विदेशियों का है। ठीक वही स्थिति अंतरराष्ट्रीय दलित-विमर्श और एक्टिविच्म में भारतीय दलितों की है। उन्हें पद, सुविधाएं, विदेश-यात्रा और भाषण देने के निमंत्रण आदि खूब मिलते हैं, लेकिन इस घोषित-अघोषित शर्त पर कि उन्हें एक दी गई ‘लाइन’ को ही दुहराना है अथवा उसकी पुष्टि में ही सब कुछ कहना है। इस स्थिति को बड़ी आसानी से उन तमाम वेबसाइटों पर स्वयं देखा जा सकता है जो ‘दलित-मुक्ति’ के लिए समर्पित हैं। डॉ. अंबेडकर के अधिकांश अनुयायी ही नहीं, बल्कि मायावती, रामविलास पासवान आदि सभी प्रमुख दलित नेता ईसाइयत से जोड़कर अपना कल्याण नहीं देखते हैं। महाराष्ट्र में नव-बौद्ध अंबेडकरवादियों में विपाश्शना जैसी बौद्ध-शिक्षा का आकर्षण बढ़ा है। भारत में दलितों और जाति-संबंधों की व्याख्या करने का काम किनके हाथों में है, यह जानना भी कठिन नहीं।
उदाहरण के लिए हाल में एक प्रमुख ‘बहुजन-दलित-ओबीसी’ विमर्श पत्रिका ने नए साल 2014 का अपना कैलेंडर प्रकाशित किया। इसमें सरस्वतीपूजा, रामनवमी, कृष्णाष्टमी, दुर्गापूजा तथा दीपावली ही नहीं, देश के गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता-दिवस तक को निष्कासित कर दिया है। उसमें 15 अगस्त एक सामान्य, बेरंग दिन है। उसके बदले पूरे कैलेंडर में अनेक ईसाई विभूतियों, त्योहारों और मिशनरियों को स्थान दिया गया है। इस कैलेंडर में स्वामी श्रद्धानंद तक को स्थान नहीं मिला, जो दलितों के लिए उतने ही बड़े कर्मयोगी थे जितने डॉ. अंबेडकर। श्रद्धानंद को भूलकर विलियम कैरी जैसे उग्र ईसाई-मिशनरी की जयंती कैलेंडर में मौजूद है। जाति-विमर्श, दलित-ओबीसी चिंता को ईसाई-धमरंतरण प्रचार तथा दलितों के ‘सशक्तीकरण’ या ‘रक्षा’ के नाम पर अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक मंचों को भारत-विरोधी बनाने की ऐसी खुली निश्चिंतता दिखाती है कि भारतीय राजनेता और बुद्धिजीवी कितने गाफिल या दुर्बल हैं। हमारे वामपंथी लेखकों और कुछ जातिवादी पत्रकारों को सामने मुखौटे की तरह रखकर यह खुला हिंदू-विरोधी, भारत-विरोधी घातक खेल चल रहा है। यदि चिंता की बात यह नहीं तो और क्या है? ऐसे मंच डॉ. अंबेडकर, भगवान बुद्ध या भगत सिंह का उपयोग सिर्फ दिखावे के लिए कर रहे हैं। जैसे-जैसे उनकी ताकत बढ़ती जाएगी वे सबको किनारे करते जाएंगे। यह सब डॉ. अंबेडकर की उस चेतावनी को सटीक दिखाता है जो उन्होंने 1956 में बौद्ध-दीक्षा लेते हुए कही थी। उनके शब्दों में, बौद्ध धर्म भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है और इसलिए मेरा धमरंतरण भारतीय संस्कृति और इतिहास को क्षति न पहुंचाए, इसकी मैंने सावधानी रखी है। यह एक अत्यंत गंभीर संदेश था, जिसमें स्पष्ट कहा गया कि ईसाइयत या इस्लाम में धमरंतरण भारतीय संस्कृति और इतिहास को चोट पहुंचाता है। आज देश-विदेश में अनेकानेक साधन-संपन्न और राजनीतिक रूप से सक्रिय ईसाई मिशनरी संगठन दलित-विमर्श, दलित-शोध, दलित-एमपावरमेंट आदि में जमकर निवेश कर रहे हैं। उन्होंने अच्छे-अच्छे लेखकों, प्रवक्ताओं को अपने साधन-संपन्न अकादमिक संस्थानों से जोड़कर देश-विदेश में हिंदू-विरोधी प्रचार को जबर्दस्त गति दी है। डॉ. अंबेडकर ने इसी को भारतीय इतिहास और संस्कृति को क्षति पहुंचाना समझा था। राजीव मल्होत्रा की हाल की चर्चित पुस्तक ‘ब्रेकिंग इंडिया..’ में इसके सप्रमाण उदाहरण विस्तार से मिलते हैं। दलितों, वंचितों की पैरोकारी के नाम पर हिंदू धर्म, समाज और भारत-विरोधी कूटनीति खुलकर चलाई जा रही है। धन, सुविधा और पद देकर ईसाई मिशनरियों ने भारत के अनेक वामपंथी और दलित लेखकों, वक्ताओं को नियुक्त कर लिया है ताकि उन्हीं के माध्यम से हिंदू धर्म और भारत को कमजोर किया जा सके।
अभी समय है कि हम जाति-विमर्श का सूत्र अपने हाथों में लें। झूठे और राजनीति-प्रेरित प्रचार का नोटिस लें। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मिशनरियों के अभियान का मुंहतोड़ उत्तर देना जरूरी समझें। अन्यथा श्रद्धानंद की तरह कल स्वयं अंबेडकर को भी गुम कर दिया जाएगा। केवल ‘विकास’ और बिजली-पानी सड़क पर केंद्रित राजनीति और घोषणा पत्रों का यह दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष है कि भारतीय समाज, संस्कृति और धर्म, सब कुछ को विदेशियों और सांस्कृतिक आक्रमणकारियों के हाथों तोड़ने-मरोड़ने की खुली छूट दे दी गई है।
[लेखक एस. शंकर, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]

Thursday, April 3, 2014

हिन्दुओं को अपमान सहने की आदत क्यों

http://www.punjabkesari.in/news/article-232630
(तरुण विजय) मुगल, ब्रिटिश और उसके बाद नेहरूवादी सैकुलर तंत्र ने इस देश में आग्रही हिन्दू बनना अपराध घोषित कर दिया था। देशभक्ति और मातृभूमि के प्रति समर्पण की चरम सीमा तक जाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों को आज भी सरकारी नौकरी के योग्य नहीं माना जाता और इस बारे में केन्द्र तथा विभिन्न राज्य सरकारों ने अधिघोषणा जारी की हुई है, जो रद्द नहीं की गई। 15 अगस्त तथा 26 जनवरी के दिन लालकिले और जनपथ पर जो भव्य परेड तथा राष्ट्रीय ध्वज फहराने के कार्यक्रम होते हैं, उनमें अनेक भयानक आरोपों से घिरे मंत्री और राजनेता बुलाए जाते हैं। जिस मुस्लिम लीग ने भारत का विभाजन करवाया, उसके सदस्य और पदाधिकारी भी आमंत्रित किए जाते हैं और उनमें से एक तो केन्द्रीय मंत्रिमंडल के भी सदस्य बनाए गए।

लेकिन कभी विश्व के सबसे बड़े हिन्दू संगठन, जो भारत का महान देशभक्त संगठन है, उसे अधिकृत तौर पर न तो राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के यहां चाय पर या राष्ट्रीय दिवसों के कार्यक्रमों में भारत शासन की ओर से अथवा राज्य सरकार की भी ओर से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पदाधिकारी के नाते आमंत्रित किया जाता है। अब कुछ भाजपा की राज्य सरकारों ने यदि उन्हें बुलाया हो तो यह अलग बात है। हिन्दुत्व की विचारधारा से आप लाख असहमत हो सकते हैं लेकिन उस विचारधारा को मानने वालों को त्याज्य, अस्पृश्य, अनामंत्रित और सूचीविहीन वर्ग में रखना अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक छुआछूत का उदाहरण है। भारत के 82,000 से ज्यादा समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में सामान्यत: कांग्रेस, वामपंथी या सीधे-सीधे कहें तो उन लेखकों, पत्रकारों और सम्पादकों का प्रभुत्व है, जिनका एक ही मकसद है-हिन्दुत्व की विचारधारा का विरोध। महानगरों से छपने वाले तथाकथित राष्ट्रीय अंग्रेजी समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं में हर दिन जिन लोगों के स्तंभ और लेख छपते हैं, उनमें हिन्दुत्व अथवा भारत के आग्रही हिन्दू समाज की उस विचारधारा का संभवत: एक प्रतिशत भी प्रतिनिधित्व नहीं होता जो राष्ट्रीयता के उस प्रवाह को मानते हैं जिसे श्री अरविन्द और लाल-बाल-पाल की त्रयी ने परिभाषित किया था। 

देश में ऐसे सैंकड़ों आई.ए.एस., आई.एफ.एस. और आई.पी.एस. अधिकारी होंगे जो बालपन से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को मानते हैं और उसे देश के लिए हितकारी समझते हैं लेकिन उनमें से एक भी सरकारी नौकरी में यह कहते हुए डरता है क्योंकि ऐसा घोषित करने पर उसके विरुद्ध तत्काल सरकारी कार्रवाई हो जाएगी। सरकार में कम्युनिस्ट पार्टी का समर्थक होने पर कोई दिक्कत नहीं है- जिस कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों को पं. नेहरू की सरकार ने 1962 के युद्ध में चीन का साथ देने के अपराध में गिरफ्तार किया था जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्यों को 1962 में देश की सेवा और सैनिकों का साथ देने के कारण 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में पूर्ण गणवेश में नेहरू सरकार ने शामिल किया था।

हिन्दुत्व समर्थक का परिचय मिलते ही कार्पोरेट जगत और सामाजिक क्षेत्र में एक भिन्न दृष्टि से देखे जाने का चलन कांग्रेस और वामपंथियों ने शुरू किया जिनके राज में हजारों सिख मारे गए, सबसे ज्यादा हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए, सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार की घटनाएं हुईं, संविधान का उल्लंघन हुआ, आपातकाल लगा, व्यक्तिगत स्वतंत्रताएं समाप्त हुईं, देश पिछड़ गया, महिलाएं असुरक्षित हुईं और विदेशों में भारत की छवि खराब हुई, वे केवल मीडिया पर अपने प्रभुत्व एवं सरकारी तंत्र के दुरुपयोग से स्वयं को सैकुलर, शांतिप्रिय, संविधान के रक्षक और मुस्लिम हित ङ्क्षचतक के रूप में दिखाते रहे।

सलमान रुशदी की पुस्तक ‘सेटेनिक वर्सेज’ पर जो प्रतिबंध की वकालत करते रहे, वही हिन्दू धर्म पर लिखी वैंडी डॉनिगर की अपमानजनक पुस्तक को बेचने की वकालत करते रहे। हिन्दुओं पर आघात आघात नहीं लेकिन अहिन्दुओं पर ताना भी कसा गया और जिसकी सबने ङ्क्षनदा भी की हो तो भी वह प्राण लेने वाला गुनाह मान लिया जाता है। कश्मीर से पांच लाख हिन्दू आज भी बाहर हैं। भारत के किसी गांव से 5 गैर-हिन्दू भी यदि किसी भेदभाव के शिकार होकर निकाल दिए जाएं तो दुनिया भर में तब तक तूफान मचा रहेगा जब तक वे 500 सिपाहियों के संरक्षण में वापस नहीं लौटा दिए जाते। भारत की दर्जनों राजनीतिक पार्टियों के चुनाव घोषणा पत्र में वह एक पंक्ति को ही दिखा दें  जिसमें कहा गया हो कि अगर उस पार्टी की सरकार आएगी तो वह ससम्मान और ससुरक्षा कश्मीरी हिन्दुओं की घर वापसी घोषित करेगी। सिवाय भाजपा के और कौन कहता है? इसका कारण क्या है?

जो लोग फिलस्तीन के मुस्लिम दर्द पर बोलते हैं, इसराईल के विरुद्ध दिल्ली में प्रदर्शन करते हैं और बम फोड़ते हैं, जिन्हें इस्लामी मालदीव और चीन के सिंकियांग में मुस्लिम मोह पर चीनी कार्रवाई से दर्द होता है, वे अपने ही रक्तबंधु हिन्दुओं के पाकिस्तान और बंगलादेश में अमानुषिक उत्पीडऩ पर खामोश क्यों रहते हैं?

गत एक सप्ताह में पाकिस्तान में 2 हिन्दू मंदिर अपवित्र किए गए, मूर्ति जला दी गई और हिन्दुओं का अपमान किया गया। इसके विरोध में आपने कहीं कोई आवाज सुनी? अब इस समाचार में मंदिर की जगह मस्जिद लिखिए और फिर सोचिए कि अगर हमारे या हमारे मुल्क के आसपास कहीं गैर-मुस्लिमों ने मस्जिदों के साथ यही काम किया होता तो क्या नतीजा निकलता?

हिन्दुओं को अपना अपमान सहन करने, अपना दुख पीने और अपने ऊपर होने वाले आघात स्वाभाविक मानने की आदत क्यों हो गई है? क्यों आग्रही हिन्दू उस शासन में जो उनके राजस्व और वोट से चलता है, केवल इसलिए तिरस्कृत और सूचीविहीन किया जाना स्वीकार कर लेते हैं कि वे हिन्दुत्व समर्थक हैं? अस्पृश्यता और तिरस्कार का जितना भयानक दंश हिन्दुत्व समर्थकों ने झेला है, वैसा नाजियों के हाथों यहूदियों ने भी नहीं झेला होगा।  

Friday, March 28, 2014

राजनीतिक एजैंडे से बाहर हिंदू वेदना

http://www.punjabkesari.in/news/article-230703
(तरुण विजय) दो दिन पूर्व राज्यसभा टी.वी. पर एंकर महोदया ने आम पार्टी के प्रतिनिधि से पूछा कि वैसे तो आपके नेता अरविंद केजरीवाल सांप्रदायिकता से लडऩे की बातें करते हैं लेकिन वाराणसी पहुंचते ही उन्होंने गंगा स्नान किया और मंदिर में दर्शन किया। आप प्रतिनिधि बेचारे शब्द ढूंढने लगे कि क्या जवाब दें और यही कह पाए कि वे परिवार सहित काशी गए थे इसलिए गंगा स्नान किया। ‘इंटेलैक्चुअल माडर्निटी’ जैसे भारी-भरकम अंग्रेजी शब्द हिंदी कार्यक्रम में इस्तेमाल करते हुए उन एंकर बहन का एक ही प्रहार था कि अगर सांप्रदायिकता से लडऩा है तो फिर मंदिर जाने का क्या अर्थ है? मैंने उनसे पूछा कि क्या इंटेलैक्चुअल माडॢनटी का अर्थ सिर्फ हिंदुओं पर इस रूप में लागू होता है कि जब तक वे मंदिर जाएंगे तब तक सैक्युलर नहीं कहलाएंगे। क्या अन्य गैर-हिंदुओं से वह यह प्रश्र करने का साहस करपातीं?

अभी पिछले सप्ताह पेशावर में जेहादियों ने एक गुरुद्वारे पर हमला किया। एक सिख नागरिक, पेशावर के प्रसिद्ध वैद्य परमजीत सिंह की हत्या कर दी गई। वहां हड़ताल हुई, पूरे पाकिस्तान में उसका शोर उठा लेकिन हिंदुस्तान और उसकी राजधानी दिल्ली में सिर्फ चुनाव पसरा रहा। एक-दूसरे पर अभद्र भाषा में आरोप-प्रत्यारोप, मोहल्ले की भाषा राष्ट्रीय चुनाव चर्चा का माध्यम बनती रही लेकिन पाकिस्तान के हिंदुओं और सिखों पर आघात पर चार लोगों ने भी इंडिया गेट या चाणक्यपुरी में प्रदर्शन नहीं किया, न कोई बयान आया, न किसी नेता को यह कहने की जरूरत महसूस हुई कि पाकिस्तान में हर रोज होने वाली इन वारदातों पर रोक लगाने के लिए हम जनमत संगठित करेंगे। यह स्थिति तब हुई थी जब कुछ समय पहले बंगलादेश में जमाते-इस्लामी के तालिबानों ने सैंकड़ों हिंदुओं के घर जला दिए थे, महिलाओं पर अत्याचार किया था और फिर हिंदू शरणार्थियों की एक बाढ़ भारत की ओर मुड़ी थी।

तमिलनाडु के जिन मछुआरों को श्रीलंका सरकार द्वारा अवैध रूप से पकड़कर 2-2 महीने जेल में रखा जाता है, उनकी नौकाएं तथा जाल तोड़ दिए जाते हैं, वे लगभग सभी हिंदू होते हैं। उनके विषयमें सामान्यत: ऐसा मान लिया जाता है कि अगर किसीको बोलना भी है तो तमिलनाडु के नेताओं और संगठनों को बोलने दीजिए। हमारा उनसे क्या संबंध है?

एक समय था जब रामसेतु को लेकर पूरे देश में हजारों प्रदर्शन हुए और एक करोड़ से ज्यादा हस्ताक्षर राष्ट्रपति को सौंपे गए। पर अब न रामसेतु और न ही तमिलनाडु के हजारों मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने के सर्वोच्च न्यायालय में डा. सुब्रह्मण्यम स्वामी द्वारा दर्ज जनहित याचिका पर ऐतिहासिक फैसले को लेकर कोई राष्ट्रव्यापी विचार तरंग दौड़ती है। मेरठ में कुछ भटके हुए कश्मीरी लड़कों ने भारत-पाकिस्तान मैच के दौरान पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाए तो हर पार्टी के नेता बोले, मुख्यधारा के संपादकों ने संपादकीय लिखे, भाषण और सैमीनार हुए। 5 लाख कश्मीरी अभी भी शरणार्थी हैं, शंकराचार्य पहाड़ी को तख्ते सुलेमान और अनंतनाग को इस्लामाबाद लिखा जा रहा है। सरकारी वैबसाइट और पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के नामपट्टों में ऐसे नामों का जिक्र होता है लेकिन यह राजनीतिक मुद्दा भी नहीं है, चुनाव घोषणा-पत्र या भाषण और सैमीनारों की तो बात ही छोड़ दीजिए।

भारत का एक मन भी है, उसका चैतन्य है, वह र्सिफ रोटी-कपड़ा और मकान पर जिंदा भौतिक काया मात्र ही नहीं है। इसीलिए श्री अरविंद ने भवानी-भारती की कल्पना सामने रखते हुए कहा था कि, ‘हमारे लिए भारत नदियों, पहाड़ों, मकानों, जंगलों और भीड़ का समुच्चय नहीं वरन् साक्षात जगत-जननी माता है।’ जैसे-जैसे राजनीति के छल और द्वंद्व में यह भाव तिरोहित होता गया और जहां तक राजनेताओं का वोट बैंक है, वहीं से भारतीय परंपराओं और हिंदुत्व की प्रखर एवं क्षमाबोध रहित आवाजें दबनी और दबाई जानी शुरू हो गईं। अगर केवल बिजली, पानी और सड़क का मामला लिया जाए तो यह हिंदुत्व की परम वैभव की कल्पना में स्वत: सन्निहित है।

जिस धर्म के अनुयायी जीवन में लक्ष्मी, दुर्गा और सरस्वती के बिना अपने भाव विश्व की कल्पना नहीं कर सकते, उनके बारे में यह कहना कि हिंदुत्व की बात छोड़कर सड़क, पानी, बिजली की बात करो क्योंकि हिंदुत्व का अर्थ है पिछड़ापन, सांप्रदायिकता, अल्पसंख्यक विरोध, बैलगाड़ी युग और प्रगतिशीलता का विरोध, तो यह सत्य से मुंह मोडऩा होगा। 

तालिबान और जेहाद केवल बंदूक और शारीरिक ङ्क्षहसा से ही नहीं होता। हिंदुओं के विरुद्ध शब्द हिंसा तथाकथित सैक्युलर मीडिया और जेहादी मानसिकता के तत्वों का एक बड़ा हथियार रहा है। वे कभी भी यह स्वीकार नहीं कर सकते कि लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती की आराधना का अर्थ ही उद्योग, व्यापार, आर्थिक विकास, शिक्षा और प्रौद्योगिकी, वैज्ञानिक मानसिकता के साथ नित्य नूतन मानवहितवर्धक अन्वेषण तथा गवेषणाएं, सैन्य विकास, शत्रु को परास्त करने के लिए हर प्रकार की शक्ति का अर्जन और आत्मनिर्भरता है।

केवल घंटी बजाकर कर्मकांड करना हिंदू का स्वभाव नहीं है बल्कि वैदिक परम्पराओं और विरासत को समसामायिक संदर्भों में पुन: व्याख्यायित करते हुए धर्म पर छाने वाली काई, कीचड़, धूल को साफ करने के लिए पाखंड खंडिनी पताका का स्वागत हमने करके दिखाया है। एक ऐसे समय में जब विश्व की प्रबल शक्तियां भारत के पुनरोदय के विरुद्ध जी-जान से षड्यंत्रों में व्यस्त हैं उस समय हमें अपनी विरासत पर टेक बराबर जमाए रखनी होगी और आंतरिक झगड़ों तथा कोलाहल से दूर रहना होगा। यह समय बहस और तर्क-वितर्क का नहीं, चेहरे, नाम और पहचान पर सवाल जडऩे का नहीं, अपनी  विरासत और हिम्मत को बिसारने का नहीं। एक बड़ी हुंकार से विजय को थामना, यही अपने हिंदुत्व और नागरिकत्व को सार्थक करना है।
 

Sunday, November 17, 2013

चुनावों का सांप्रदायीकरण

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-communalism-elections-10587411.html
कांग्रेस प्रवक्ता ने आतंकी संगठन इंडियन मुजाहिदीन के गठन और इसके अस्तित्व की तार्किकता पर असाधारण बयान जारी किया है। इस संगठन को अवैध गतिविविधि (निरोधक) अधिनियम के तहत आतंकी संगठन घोषित किया गया है। संप्रग सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगा रखा है। अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने इसे विदेशी आतंकी संगठनों की सूची में शामिल किया है। इंग्लैंड में भी यह निषिद्ध है। गंभीर राजनीतिक विश्लेषकों की समझ से परे है कि कांग्रेस के आधिकारिक प्रवक्ता इस प्रतिबंधित संगठन के गठन को कैसे तर्कसंगत ठहरा रहे हैं। उनका कहना है कि इस संगठन का गठन 2002 के गुजरात दंगों के बाद हुआ है।
संप्रग अपने अस्तित्व के दसवें साल में है। जैसे-जैसे आम चुनाव नजदीक आ रहे हैं संप्रग को सत्ता विरोधी रुझान का भय सता रहा है। संप्रग में नेतृत्व की विफलता स्पष्ट है। इसका नेतृत्व अप्रभावी है। इसकी सरकार लोगों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पाई है। सरकार को नहीं सूझ रहा है कि अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर कैसे लाया जाए। संप्रग ने भ्रष्टाचार को नए दिशासूचक सिद्धांत के रूप में राज्य की नीति में शामिल कर लिया है। संप्रग के दस साल का कुशासन अब बता रहा है कि कैसे भारत की विकास गाथा को ध्वस्त कर दिया गया। संप्रग के शासन के घटिया ट्रैक रिकॉर्ड के बाद आगामी चुनाव में प्रभावी और स्वच्छ सरकार मुख्य मुद्दा बन गया है। कांग्रेस की पारंपरिक रणनीति है कि अगर वह शासन में विफल हो गई है तो अपने आखिरी उपाय को आजमाएगी यानी कांग्रेस के प्रथम परिवार के तथाकथित करिश्मे को भुनाने का प्रयास करेगी। दुर्भाग्य से यह करिश्मा भी बेअसर साबित हो रहा है। संप्रग का मौजूदा नेतृत्व अप्रभावी है और नए नेतृत्व में नेतृत्व करने का गुण ही नहीं है।
शासन के संकट और नेतृत्व के अभाव का सामना कर रहा संप्रग हताशाजनक रूप से ऐसी रणनीति पर चल रहा है, जिससे लोगों का ध्यान गंभीर मुद्दों से हट जाए। उसका पूरा प्रयास है कि भारत की विकास गाथा को पटरी से उतारने वाला मुद्दा चुनाव में प्रमुखता हासिल न कर पाए। ऐसे में संप्रग के सामने केवल एक विकल्प बचता है। देश के राजतंत्र का सांप्रदायीकरण करके चुनावी मुद्दे को बदल दे। जो भी लोग संप्रग को सत्ता से बेदखल करना चाहते हैं उन्हें यह बात समझनी चाहिए कि चुनाव में मुख्य मुद्दा शासन ही बना रहना चाहिए, जिससे संप्रग कन्नी काट रहा है।
पिछले कुछ सप्ताह से संप्रग नेता राजतंत्र के सांप्रदायीकरण की नीति पर तेजी से बढ़ रहे हैं। इसके तीन स्पष्ट संकेतक हैं। पहला, संप्रग ने अपने हमले नरेंद्र मोदी पर केंद्रित कर रखे हैं। गुजरात में शुरुआत में कांग्रेस नरेंद्र मोदी पर हमले की रणनीति पर ही चली थी। कांग्रेस के साथ अपनी राजनीतिक जंग में मोदी हमेशा भारी पड़े। चुनावों में मोदी का प्रदर्शन बेहतर रहा। इस रणनीति से फायदा मिलने के बजाय नुकसान होने के कारण कांग्र्रेस ने वैकल्पिक रणनीति अपनाई और यह दर्शाया कि जहां तक उसके चुनाव अभियान का संबंध है, मोदी का कोई अस्तित्व ही नहीं है। केंद्र में प्रथम चरण में कांग्रेस की रणनीति मोदी पर तगड़े हमले करने की है। इस प्रक्त्रिया में वह मोदी को केंद्रीय मंच ही उपलब्ध करा रही है। जल्द ही संप्रग को इन हमलों की प्रति-उत्पादकता का अहसास होगा और वह अपनी वैकल्पिक रणनीति पर उतर आएगी और मोदी की उपेक्षा का दिखावा करेगी। दूसरे, इशरत जहां मामले में सीबीआइ के माध्यम से केंद्र सरकार की रणनीति हैरान करने वाली है। इस मामले में सीबीआइ लश्करे-तैयबा से मृतकों के संबंधों की अनदेखी कर रही है। इस प्रकार उसने पूरे भारत की सुरक्षा व्यवस्था को दांव पर लगा दिया है। कथित पीड़ितों के लश्करे-तैयबा से संबंधों पर पहली चार्जशीट में चुप्पी क्यों साधी जाती है? क्या खुफिया ब्यूरो ने इस आतंकी नेटवर्क के बारे में कश्मीर से अपने स्नोतों से जानकारी जुटाई थी? क्या भारत का सुरक्षा तंत्र और हमारी खुफिया एजेंसियां लश्करे-तैयबा की बातचीत रिकॉर्ड करने, उन पर निगरानी रखने और उनसे पूछताछ करने का अधिकार नहीं रखतीं? क्या ये तमाम उपाय आतंकवाद पर अंकुश लगाने के लिए हैं या फिर एक अपराध की साजिश रचने के लिए?
इस सवाल का जवाब इसमें निहित है कि कथित पीड़ितों के लश्करे-तैयबा से संबंध थे या नहीं? सरकार की जांच एजेंसी के नाते सीबीआइ ने लश्करे-तैयबा से इनके संबंधों पर चुप्पी साध ली। डेविड हेडली से इस आतंकी गिरोह के लश्करे-तैयबा से संबंधों के बारे में एनआइए की पूछताछ संबंधी पैरा 168 किसने मिटा दिया है? सीबीआइ इस हद तक चली गई कि उसने लश्करे-तैयबा के आतंकियों और उनके भारतीय संपकरें के आवाज के नमूनों को भी स्वीकार नहीं किया है। क्या सीबीआइ ने कुछ पुलिसवालों से साठगांठ कर ली है, जो कथित मुठभेड़ में शामिल थे और जो आरोपी से गवाह बन चुके हैं। ऐसा करके वे देश के खुफिया तंत्र और सुरक्षा ढांचे का अपमान करना चाहते हैं। मुठभेड़ की तह में जाए बगैर मैं यह सवाल इसलिए उठाता हूं, क्योंकि ये संकेत हैं कि लश्करे-तैयबा के आतंकियों को शहीद और भारत के सुरक्षा और खुफिया तंत्र को खलनायक सिद्ध करने के सायास प्रयास किए जा रहे हैं। क्या यह वोट बैंक के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा को दांव पर लगाने की सायास रणनीति नहीं है?
तीसरे, इसी संदर्भ में इंडियन मुजाहिदीन पर शकील अहमद के बयान की पड़ताल होनी चाहिए। 9/11 के बाद विभिन्न आतंकी समूहों पर वैश्रि्वक ध्यानाकर्षण रहा है। पाकिस्तान पर भारत में सीमापार से आतंकवाद फैलाने का आरोप था। 9/11 से पाकिस्तान पर अपनी धरती से आतंकी गतिविधियां बंद करने का जबरदस्त दबाव पड़ा। राजग सरकार ने सिमी पर प्रतिबंध लगाया था। इस परिप्रेक्ष्य में इंडियन मुजाहिदीन का गठन हुआ। पाकिस्तान एक ऐसा संगठन खड़ा करना चाहता था जो भारतीय लगे और जिसमें बड़ी संख्या में भारतीय काम करें। बम बनाने की तकनीक और पैसा सीमापार से मुहैया कराया गया। इस संगठन में भारतीयों की मौजूदगी के कारण भारत में हर आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान अपनी संलिप्तता से आसानी से इन्कार कर पाया। अपने गठन से ही इंडियन मुजाहिदीन भारत में बड़े हमलों का जिम्मेदार रहा है। कांग्रेस प्रवक्ता ने इतिहास का पुनर्लेखन करने का प्रयास किया है। उनका प्रयास इंडियन मुजाहिदीन को गुजरात दंगों के शिकार लोगों के संगठन के रूप में प्रस्तुत करने का है। वह इंडियन मुजाहिदीन के गठन के पीछे पाकिस्तान की रणनीति की अनदेखी कर रहे हैं। यह राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे के सांप्रदायीकरण का एक और हताशापूर्ण प्रयास है।
[लेखक अरुण जेटली, राज्यसभा में विपक्ष के नेता हैं]

आतंकियों को आमंत्रण

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-invitation-to-terrorists-10547880.html
अभी तक यह आम धारणा रही है कि आतंकी गतिविधियों को लेकर खुफिया ब्यूरो यानी आइबी के एलर्ट रस्मी ही हुआ करते हैं और उनमें ऐसी कोई खास जानकारी नहीं रहती कि संबंधित राज्य की पुलिस कुछ खास कर सके, लेकिन शायद ऐसा नहीं है। महाबोधि मंदिर में धमाकों के बाद यह स्पष्ट हो रहा है कि आइबी के एलर्ट काम के होते हैं और अगर उन पर ध्यान दिया जाए तो आतंकियों पर अंकुश संभव है। दुर्भाग्य से बिहार सरकार ने आइबी एलर्ट पर बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया और वह भी तब जब उसे कई बार ऐसे एलर्ट मिले। बिहार सरकार ने आइबी एलर्ट पर ध्यान देने के बजाय इस पर गौर किया कि राष्ट्रीय जांच एजेंसी रह-रहकर उसके यहां के लोगों को गिरफ्तार क्यों कर रही है? दरभंगा जिले से इन लोगों की गिरफ्तारी पर चेतने के बजाय बिहार सरकार ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी पर ही सवाल उठा दिया। उसकी आपत्तिइस पर थी कि गिरफ्तार किए जा रहे लोगों को 'दरभंगा माड्यूल' का हिस्सा क्यों बताया जा रहा है? उसने यह आपत्तिइसके बावजूद उठाई कि इंडियन मुजाहिदीन नामक आतंकी संगठन का कुख्यात सरगना यासीन भटकल दरभंगा जिले के एक गांव में महीनों रहकर आतंकियों को तैयार करता रहा।
यह संभवत: पहली बार है कि आतंकी धमाकों को लेकर आलोचनाओं के घेरे में आई राज्य सरकार केंद्र सरकार पर ऐसी कोई तोहमत मढ़ने की स्थिति में नहीं है कि उसकी एजेंसियों की ओर से कोई चेतावनी नहीं दी गई और जो दी भी गई वह किसी काम की नहीं थी। शायद केंद्रीय खुफिया एजेंसियों के लिए इससे ज्यादा सटीक सूचनाएं देना संभव नहीं है और अगर वे देने में सक्षम हो जाएं तो भी आगे का काम राज्य सरकारों और उनकी पुलिस को ही करना होगा। मुश्किल यह है कि राज्यों को एनसीटीसी जैसी संस्था मंजूर नहीं। वे कानून एवं व्यवस्था के मामले में केंद्र का कोई हस्तक्षेप सहने को तैयार नहीं। अपनी-अपनी पुलिस को मजबूत करने का काम भी उनकी प्राथमिकता से बाहर है। बिहार में तमाम संदिग्ध आतंकियों की गिरफ्तारी और नेपाल से लगती सीमा से उनकी घुसपैठ की प्रबल आशंका के बावजूद बिहार सरकार ने आतंक रोधी दस्ते के गठन के केंद्र सरकार के सुझाव पर ध्यान न देना बेहतर समझा।
कानून एवं व्यवस्था के तंत्र को दुरुस्त करने के मामले में जो स्थिति बिहार की है वही ज्यादातर राज्यों की भी है। राज्य सरकारें यह देखने से इन्कार कर रही हैं कि आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बने तत्व मजबूत होते जा रहे हैं और उनके मुकाबले उनका सुरक्षा तंत्र कहीं अधिक कमजोर है। आंध्र प्रदेश के नक्सलियों ने शेष देश के नक्सलियों से हाथ मिलाकर खुद को एकजुट और मजबूत कर लिया, लेकिन नक्सल प्रभावित राज्य सरकारों के मुख्यमंत्री एक के बाद एक अनगिनत बैठकों के बावजूद नक्सलवाद से निपटने के तरीकों पर एकमत नहीं हो सके हैं। यही स्थिति आतंकी तत्वों से निपटने के मामले में भी है। आतंकी संगठन इंडियन मुजाहिदीन ने दक्षिण से निकलकर उत्तार भारत में अपनी जड़ें जमा लीं और फिर भी राज्य सरकारें कई बार इस पर उलझ पड़ती हैं कि राष्ट्रीय जांच एजेंसी या किसी अन्य राज्य की पुलिस ने उसकी जानकारी के बगैर उसके यहां के किसी संदिग्ध को गिरफ्तार कैसे कर लिया। राज्यों के इस रवैये के साथ-साथ आतंकवाद को लेकर की जाने वाली सस्ती राजनीति ने भी आंतरिक सुरक्षा का बेड़ा गर्क कर रखा है। इस पर आश्चर्य नहीं कि महाबोधि मंदिर में विस्फोट होते ही सियासी बयान धमाकों की तरह गूंजने लगे। इस मामले में किसी भी दल के नेता पीछे नहीं रहे, लेकिन सबसे अव्वल रहे कांग्रेस के मुखर महासचिव दिग्विजय सिंह। कभी-कभार धीर-गंभीर, लेकिन ज्यादातर मौकों पर शरारत भरे बयान देने में माहिर दिग्विजय सिंह ने पहले यह कहा कि गैर भाजपा शासित राज्य सतर्क रहें। इस बयान के जरिये उन्होंने यह संदेश दिया कि हो न हो भाजपा वाले ही विस्फोट कराते हैं अथवा उनसे मिले रहते हैं। जब इस बयान से उनका जी नहीं भरा तो उन्होंने ट्विटर पर यह लिख मारा, ''अमित शाह अयोध्या में भव्य मंदिर का वायदा करते हैं और मोदी बिहार के भाजपा कार्यकर्ताओं से कहते हैं कि वे नीतीश को सबक सिखाएं। अगले दिन महाबोधि में विस्फोट हो जाते हैं। क्या इसमें कोई संबंध है?'' यह सवाल की शक्ल में किया गया प्रहार है। क्या इसका मतलब ऐसा कुछ नहीं निकलता कि नरेंद्र मोदी ने पहले तो नीतीश कुमार को धमकाया और फिर किसी को भेजकर-उकसाकर महाबोधि मंदिर में धमाके करा दिए? दिग्विजय सिंह ने मोदी पर निशाना साधने के लिए बड़ी सफाई से उनके इस बयान को तोड़-मरोड़ डाला कि बिहार की जनता नीतीश कुमार को सबक सिखाएगी।
देश में जिस तरह नरेंद्र मोदी के तमाम प्रशंसक हैं उसी तरह उनके विरोधी भी बहुत हैं। स्पष्ट है कि मोदी के विरोधियों को दिग्विजय सिंह का बयान बहुत भाया होगा, लेकिन जिन तत्वों ने महाबोधि मंदिर में विस्फोट किए होंगे अथवा जो रह-रह कर विस्फोट करके देश को दहशतजदा करते रहते हैं वे तो आनंद से भर उठ होंगे। आतंकियों को आनंदित करने का यह काम कुछ और लोग भी कर रहे हैं। फिलहाल इस काम में सीबीआइ भी मशगूल दिख रही है। इशरत जहां मुठभेड़ कांड की जांच के बहाने उसने आइबी की ऐसी घेरेबंदी कर रखी है कि वह त्राहिमाम की हालत में आ गई है। आश्चर्यजनक यह है कि कोई भी आइबी की गुहार सुनने को तैयार नहीं-न राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और न ही प्रधानमंत्री। शायद संकीर्ण राजनीतिक हितों की पूर्ति के लोभ में केंद्रीय सत्ता के नीति-नियंता यह भूल रहे हैं कि भविष्य में आइबी से किसी तरह के अलर्ट की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? क्या मौजूदा हालात नक्सलियों, आतंकियों और अन्य देश विरोधी तत्वों को सादर आमंत्रित करने वाले नहीं नजर आते?
[लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]

आतंकवाद पर आत्मघाती रवैया

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-suicide-attitude-on-terrorism-10537062.html
जब इशरत जहां पुलिस गोलीकांड मामले में आरोपपत्र दाखिल होने के पूर्व से ही तूफान खड़ा किया जा रहा था तो फिर आरोपपत्र आने के बाद उसे बवंडर में परिणत करने की कोशिश बिल्कुल स्वाभाविक है। हालांकि जिस तरह खुफिया ब्यूरो के अधिकारी से लेकर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी, अमित शाह आदि के नाम आने से लेकर उनके भविष्य तक का आकलन पहले ही कर दिया गया था वैसा कुछ हुआ नहीं। हां, कुछ लोगों के लिए संतोष का विषय यह है कि आरोपपत्र में सीबीआइ ने जांच जारी रखने की बात कही है। दुर्भाग्य से इस आरोपपत्र की गलत व्याख्या भी की जा रही है। ऐसा माहौल बनाया जा रहा है मानो सीबीआइ ने अपनी जांच में इशरत जहां सहित मारे गए चारों को बिल्कुल निर्दोष साबित कर दिया है। इशरत जहां मामले के दो पहलू हैं। एक यह कि वह और उसके साथियों ने वाकई पुलिस के साथ भिड़ंत की या उन्हें पकड़ने के बाद मारा गया? दो, क्या वे चारों निर्दोष थे या आतंकवाद या अपराध से उनका रिश्ता था? आरोपपत्र में केवल यह कहा गया है कि 15 जून 2004 को अहमदाबाद के नरोदा इलाके में मारी गई इशरत एवं उनके तीन साथियों ने पुलिस से मुठभेड़ नहीं की थी, वे पहले से पुलिस के कब्जे में थे, जिन्हें मारकर मुठभेड़ की झूठी कथा में परिणत कर दिया गया। नि:संदेह इस मामले में पहले आई रिपोटरें से भी पुलिस की भूमिका संदेह के घेरे में आती हैं। मसलन, 9 सितंबर 2009 को मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट न्यायमूर्ति एसपी तमांग की जांच रिपोर्ट। इसमें भी उनके पास हथियार रखने की बात थी। इसमें कहा गया था कि उप महानिरीक्षक डीजी बंजारा एवं पुलिस आयुक्त केआर कौशिक ने इशरत जहां, जावेद गुलाम शेख उर्फ प्राणेश पिल्लई, अमजद अली उर्फ राजकुमार राणा और जीशान अली को महाराष्ट्र में ठाणे व अन्य जगहों से उठाया और 14 जून की रात्रि में 10-12 बजे के बीच गोली मार दी, लेकिन तमांग की रिपोर्ट व्यापक जांच के बजाय पोस्टमार्टम रिपोर्ट, मृत्यु के कारण संबंधी रिपोर्ट, फोरेंसिक निष्कर्ष एवं सबडिविजनल मजिस्ट्रेट की प्राथमिक छानबीन पर आधारित थी।
सीबीआइ आरोपपत्र से उनके आतंकवादी न होने का प्रमाण नहीं मिलता। सीबीआइ आरोपपत्र के अनुसार उसने इस पहलू की जांच की ही नहीं। क्यों नहीं की? तो जवाब है कि उच्च न्यायालय ने ऐसा करने को नहीं कहा। खैर, पुलिस ने दावा किया था कि वे चारों मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या के इरादे से आए थे और लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादी थे। इसके भी दो पहलू हैं। एक यह कि उनके आतंकवादी होने की सूचना कहां से आई थी? यह साफ है कि केंद्रीय खुफिया ब्यूरो ने पहले इसकी छानबीन की, फिर गुजरात एवं यहां तक कि महाराष्ट्र पुलिस को भी इसकी जानकारी दी। यानी यह गुजरात पुलिस की अपनी सूचना पर कार्रवाई नहीं थी। सीबीआइ कह रही है कि खुफिया ब्यूरो ने पहले अमजद अली उर्फ राजकुमार राणा और जीशान अली को गिरफ्तार किया, फिर इशरत और उसके साथी जावेद गुलाम शेख उर्फ प्राणेश पिल्लई को गिरफ्तार किया गया था। इन चारों को आइबी ने दो तीन हफ्ते तक अपनी हिरासत में रखा, फिर गुजरात पुलिस को सौंप दिया।
प्रश्न है कि अगर खुफिया ब्यूरो कोई सूचना देता है तो जिम्मेदारी उसकी होगी या राच्य की? अगर राच्य की पुलिस को केंद्रीय खुफिया ब्यूरो के तत्कालीन संयुक्त निदेशक राजेंद्र कुमार ने सूचना दी तो जिम्मेदारी उनकी है और वे अकेले तो इस ऑपरेशन में संलग्न थे नहीं। इसमें वहां के मुख्यमंत्री कैसे षड्यंत्र में शामिल हो सकते हैं। अब आएं उनके आतंकवादी होने और न होने के आरोप पर। आइबी द्वारा सीबीआइ को लिखे पत्र के अनुसार सितंबर 2009 में अमेरिका में पकड़े गए पाकिस्तान मूल के लश्कर-ए-तैयबा आतंकी डेविड कोलमैन हेडली ने एफबीआइ के सामने अपने कुबूलनामे में लिखा है कि इशरत जहां और उसके साथी लश्कर से जुड़े थे और वह स्वयं एक फिदायीन थी। जो तथ्य सामने आ रहे हैं उनके अनुसार केंद्रीय खुफिया ब्यूरो के अधिकारी पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादी मुजम्मिल का फोन ट्रेस कर रहे थे। इस दौरान सुराग मिला कि जीशान जौहर नामक आतंकवादी 26 अप्रैल 2004 को अहमदाबाद आया है एवं छद्म पहचान के साथ गोता हाउसिंग बोर्ड में रुका है। इसी दौरान दूसरी सूचना 27 मई को अमजद अली राणा के कालूपुल-अहमदाबाद रेलवे स्टेशन के सामने स्थित होटल में ठहरने की जानकारी मिली।
सीबीआइ का कहना है कि पुलिस ने राणा को उठा लिया। तत्पश्चात चारों को 15 जून 2004 को पूर्वी अहमदाबाद में मार गिराया गया। यह मान लिया जाए कि उन्हें उठाकर मारा गया तब भी उनके आतंकवादी होने का संदेह पुख्ता अवश्य होता है। अमेरिका गए राष्ट्रीय जांच एजेंसी एवं कानून मंत्रालय के चार सदस्यीय दल ने वहां क्या जानकारी प्राप्त की उसे देश के सामने लाया जाए। 6 अगस्त 2009 को अपने पहले हलफनामे में गृह मंत्रालय ने इशरत और उसके साथियों को लश्कर आतंकी बताते हुए मुठभेड़ की सीबीआइ जांच का विरोध किया था। दो महीने के भीतर ही हलफनामा बदल दिया गया था। क्यों? जाहिर है, फर्जी मुठभेड़ के आरोप की आड़ में हमें उतावलेपन और केवल मोदी विरोध की भावना में आतंकवादी या संदेहास्पद गतिविधियों वाले पहलू को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। फर्जी मुठभेड़ बिल्कुल अनुचित है, परंतु यह देश की सुरक्षा का मामला है। आतंकवादी रडार में शीर्ष पर होने वाले देश के लिए ऐसा रवैया आत्मघाती होगा। अगर हम आतंकवादियों की खुफिया जानकारी और परवर्ती कार्रवाई में लगी आइबी, पुलिस या सरकारों को ही कठघरे में खड़ा करेंगे तो इससे आतंकवादियों और देश विरोधियों का ही हौसला बढ़ेगा।
[लेखक अवधेश कुमार, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]

Tuesday, October 1, 2013

दोहरे मापदंड का प्रमाण

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-proof-of-double-standards-10527947.html
पिछले दिनों 'शबे बारात' के मौके पर रात को दिल्ली की सड़कों पर एक समुदाय विशेष के युवाओं ने जमकर हुड़दंग मचाया। पिछले साल भी इस मौके पर ऐसा ही अराजक माहौल था। मोटरसाइकिल पर सवार हजारों गुंडों ने कानून एवं व्यवस्था की धज्जियां उड़ा दीं। एक-एक मोटरसाइकिल पर तीन-चार गुंडे बैठे थे। किसी ने भी हेलमेट नहीं पहना था और ट्रैफिक के हर कानून का उल्लंघन करते हुए घंटों गुंडागर्दी का तांडव किया। निजी वाहनों में सफर कर रही महिलाओं के साथ बदतमीजी की गई और उन्हें अश्लील इशारे किए गए। ट्रैफिक जाम में फंसी कारों के ऊपर खड़े होकर उत्पाती नाचते रहे। पुलिस मूकदर्शक बनी रही। प्रश्न उठता है कि इन असामाजिक तत्वों के आगे प्रशासन पंगु क्यों था और इन गुंडों को दुस्साहस की प्रेरणा कहां से मिलती है?
दैनिक जागरण बधाई का पात्र है, जिसने पूरी साफगोई से मामले को विस्तार से सामने रखा। यह घटनाक्त्रम सेक्युलर व्यवस्था के दोहरे मापदंडों को रेखांकित करता है। यह केवल दिल्ली तक ही सीमित नहीं है। देश के अन्य हिस्सों, खासतौर पर पश्चिम उत्तार प्रदेश में भी ऐसी घटनाएं आम हैं। दहशतगर्द यदि मुस्लिम समुदाय से जुड़े होते हैं तो प्रशासन मौन साध लेता है। अधिकारियों को 'ऊपर' से कार्रवाई न करने का आदेश होता है। समाज की शांति भंग करने वाले जहां बेखौफ हैं, वहीं इस देश की कानून एवं व्यवस्था पर विश्वास रखने वाले आम नागरिक हुड़दंगियों के रहमोकरम पर हैं। दो साल पूर्व इसी जून के महीने में कालेधन और भ्रष्टाचार को लेकर बाबा रामदेव द्वारा छेड़े गए जन आंदोलन को दिल्ली पुलिस ने अपने लाठीबल से कुचल दिया था। भारत माता की जय बोलने वाले एक निहत्थे समूह को आधी रात पुलिसिया बर्बरता का शिकार बनाने वाली व्यवस्था ऐसे मामलों में क्यों खामोश रहती है? आज दिल्ली पुलिस की मर्दानगी कहां खो गई? मुस्लिम समुदाय के कट्टरपंथी तत्वों द्वारा हिंसा के बल पर कानून एवं व्यवस्था को हाशिये पर डालने के अनेक उदाहरण हैं। पुरानी दिल्ली स्थित सुभाष पार्क में मेट्रो रेल निगम की ओर से रेल पटरी बिछाने के लिए की जा रही खुदाई में जब एक ढांचा सामने आया तो उस पर मुस्लिम समुदाय के रहनुमाओं ने फौरन अपनी दावेदारी ठोंक दी। खुदाई में अभी केवल एक दीवार ही मिली थी और उसे मस्जिद का अवशेष घोषित कर मस्जिद खड़ी कर दी गई। यहां चल रहे अवैध निर्माण कार्य को रोकने का साहस किसी भी सरकारी एजेंसी में नहीं था। मामला जब उच्चतम न्यायालय के संज्ञान में पहुंचा तो अदालत ने वहां निर्माण कार्य पर रोक लगाने का आदेश सुनाया, किंतु इस आदेश की तामील कराने जब पुलिस विवादित स्थल पर पहुंची तो स्थानीय मुस्लिम आबादी के एक बड़े वर्ग ने पुलिस पर हल्ला बोल दिया। घंटों सड़क पर बलवाइयों का खौफ छाया रहा और आम आदमी को जानोमाल के जोखिम से दोचार होना पड़ा। अदालती आदेश की अवहेलना और सड़क पर बलवा करने की इस घटना पर सेक्युलरिस्ट खामोश रहे। क्यों? देश का कानून और सेक्युलरिस्टों की सक्त्रियता अल्पसंख्यकों से जुड़े मामलों में लकवाग्रस्त क्यों हो जाती है? अगस्त, 2012 में मुंबई के आजाद मैदान में असम दंगों के खिलाफ आयोजित विरोध प्रदर्शन का हिंसा पर उतर आना कट्टरपंथियों के बढ़े दुस्साहस का एक और प्रमाण है। स्थानीय मुस्लिम संगठन रजा अकादमी के आह्वान पर जनसभा में शामिल होने के बहाने हजारों की संख्या में एकत्रित भीड़ ने पुलिस की गाड़ियां जला डालीं, न्यूज चैनलों की ओबी वैन जलाई गई और आसपास की दुकानों को लूटपाट के बाद आग के हवाले कर दिया गया। इस दौरान पाकिस्तानी झंडे भी लहराए गए। इसके साथ ही पुणे, हैदराबाद आदि शहरों में पूर्वोत्तार के लोगों पर भी हमले किए गए। प्रश्न यह है कि एक समुदाय विशेष के कट्टरपंथी वर्ग को इस देश की कानून एवं व्यवस्था का खौफ क्यों नहीं है? अपनी हर उचित-अनुचित मांग को पूरा करने के लिए जब-तब हिंसा की प्रेरणा उसे कौन देता है?
दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में दिल्ली विकास प्राधिकरण की जमीन पर अवैध रूप से बनाई गई एक मस्जिद को ढहाने के लिए जब अधिकारी पहुंचे तो इसी तरह हिंसा के बल पर सुरक्षा जवानों और अधिकारियों को खदेड़ भगाया गया। दिल्ली के ही जोरबाग इलाके में अदालत के आदेश पर एक विवादित स्थल पर प्रवेश की अनुमति नहीं है, किंतु हिंसा के बल पर उसमें जबरन प्रवेश करने की जब-तब कोशिशें होती हैं। पुलिस मौन रहती है, जबकि आसपास के आम नागरिक खौफ के वातावरण में जीने को अभिशप्त हैं। क्यों? असम के दंगों के दौरान सेक्युलरिस्टों का वीभत्स चेहरा बेनकाब हुआ था। अवैध रूप से बस चुके बांग्लादेशी घुसपैठिए अब वहां के स्थानीय बोडो जनजातीय लोगों को हिंसा के बल पर मार भगाना चाहते हैं। उनकी पहचान मिटाने पर आमादा हैं, किंतु कांग्रेस दशकों से बांग्लादेशी घुसपैठियों को संरक्षण प्रदान कर रही है, जिनके वोट बैंक के बूते वह असम की सत्ता पर कुंडली मारे बैठी है।
क्या वोट बैंक की राजनीति के लिए इन अवैध घुसपैठियों को इसलिए शरणार्थी मान लेना चाहिए कि वे मुस्लिम हैं? रोहयांग म्यांमारी और बांग्लादेशी घुसपैठियों का भारत से दूर-दूर का संपर्क नहीं है, फिर भी उन्हें संरक्षण दिलाने के लिए सेक्युलर दलों का एक बड़ा तबका चिंताग्रस्त है, किंतु उन हजारों हिंदुओं के लिए कोई फिक्रमंद दिखाई नहीं देता जो मजहबी उत्पीड़न और हिंसा से खौफजदा होकर बांग्लादेश और पाकिस्तान से पलायन कर अपने वतन लौटे हैं।
भारत में यदि मुस्लिम समाज में कट्टरवादी हावी हो रहे हैं और मजहबी जुनून को हवा मिल रही है तो इसका बड़ा श्रेय सेक्युलरिस्टों को जाता है, जो वोट बैंक की राजनीति के कारण मुस्लिम कट्टरपंथ को आंख बंद कर पोषित करते हैं। यही कारण है कि सीमा पार बैठी शक्तियां स्थानीय मुस्लिम युवाओं को काफिर और जिहाद के नाम पर उकसाने में सफल हो रही हैं। सेक्युलरिस्ट अशिक्षा को इस्लामी आतंक की प्रमुख वजह बताते आए हैं, किंतु कड़वी सच्चाई यह है कि मुस्लिम समुदाय के एक बड़े वर्ग में मौजूद कट्टरपंथी मानसिकता ही वह उर्वर भूमि है जिसमें जिहाद की फसल लहलहा रही है। वस्तुत: सेक्युलरिस्टों के दोहरे मापदंड सामाजिक शांति, सौहार्द और भारत के परंपरागत बहुलतावादी समाज के लिए गंभीर खतरा हैं।
[लेखक बलबीर पुंज, भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं]

Saturday, April 27, 2013

पंथनिरपेक्षता का पाखंड

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-the-hypocrisy-of-secularism-10310065.html
नरेंद्र मोदी द्वारा इंडिया फ‌र्स्ट के रूप में सेक्युलरिज्म की नई परिभाषा देने से फिर एक विवाद पैदा हुआ और इस विवाद को बढ़ाने का काम जद (यू) नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की तीखी आलोचना कर किया। नरेंद्र मोदी पर नीतीश कुमार के हमलों से यह बहस तेज हो गई है कि आखिर सेक्युलरिज्म है क्या बला? राजनीति में जिस सेक्युलरिज्म की दुहाई दी जाती है वह दरअसल झूठी और विकृत पंथनिरपेक्षता से अधिक और कुछ नहीं। यह वोट बटोरने का एक जरिया मात्र है। सेक्युलरिज्म पर सारा विवाद और छींटाकशी इसलिए होती रहती है, क्योंकि हमारे देश में इसकी कोई आधिकारिक परिभाषा नहीं है। न संविधान में, न संसद में कानून बना कर, न सुप्रीम कोर्ट के किसी निर्णय में सेक्यूलरिज्म का कोई अर्थ बताया गया है। सबसे बुरी बात तो यह कि इसे पारिभाषित करने के प्रयास को भी बाधित किया जाता है! नेतागण, सुप्रीम कोर्ट और प्रभावी बुद्धिजीवी वर्ग सबने इसे अस्पष्ट रहने देने की सिफारिश की है। यह सामान्य बात नहीं, क्योंकि इसी के सहारे भारत में एक विशेष प्रकार की राजनीति का दबदबा बना है, जिसकी धार हिंदू विरोधी है और इसी को कवच बनाकर देश-विदेश की भारत-विरोधी शक्तियां भी अपना कारोबार करती हैं।
ध्यान देने पर यह किसी को भी दिख सकता है। यहां बौद्धिक विचार-विमर्श में हिंदू शब्द प्राय: केवल उपहास या गाली के रूप में इस्तेमाल हो रहा है। प्रसिद्ध पत्रकार तवलीन सिंह के अनुसार भारत में प्रचलित सेक्युलरिच्म हिंदू सभ्यता के विरुद्ध चुनौती बन गया है। भारतीय सभ्यता अपने उत्कर्ष पर हिंदू सभ्यता ही थी, जिसने संपूर्ण विश्व को गणित से लेकर दर्शन, धर्म और साहित्य तक हर क्षेत्र में अनमोल उपहार दिए, किंतु आज भारत में यह बात कहना हिंदू सांप्रदायिकता है। उसी तरह इंडिया फ‌र्स्ट कहने पर भी आपत्तिकी जा रही है। इन बातों का निहितार्थ बहुत गंभीर है। ऐसे प्रसंग हमारे देश के बौद्धिक वातावरण पर एक टिप्पणी है कि किस तरह एक विकृत मतवाद ने लोगों को इतना दिग्भ्रमित कर दिया है कि वे देखकर भी नहीं देख पाते। प्रसिद्ध इतिहासकार रमेश चंद्र मजूमदार ने 1965 में ही स्पष्ट देखा था किए इस देश में मुस्लिम संस्कृति और भारतीय संस्कृति की चर्चा की जा सकती है, मगर हिंदू संस्कृति की नहीं। हिंदू शब्द केवल नकारात्मक अथरें में प्रयोग किया जाता है। याद रहे, यह तब की बात है जब न राम-जन्मभूमि आंदोलन था, न विश्व हिंदू परिषद थी। मगर तब भी हिंदू शब्द का प्रयोग पोंगापंथी, सांप्रदायिक, फासिस्ट संदर्भ में ही होता था। चार दशक में आज वह विष भी बन गया जिससे पुस्तकों, पदों, संस्थानों को मुक्त करने का अभियान चलाना पड़ता है।
दुनिया के सबसे बड़े हिंदू देश में हिंदू-विरोध ही सेक्युलरिच्म की और बौद्धिकता की कसौटी बन गया है। इसी से संभव होता है कि एक समुदाय के मजहबी शिक्षा-संस्थानों को अनुदान मिले, जबकि दूसरे को अपनी औपचारिक शिक्षा में महान दार्शनिक ग्रंथों को पढ़ने की अनुमति भी न दी जाए। अपरिभाषित सेक्युलरिच्म के डंडे से ही हिंदू मंदिरों पर सरकारी कब्जा कर लिया जाता है। इतना ही नहीं कई बड़े मंदिरों की आमदनी से दूसरे समुदाय के धार्मिक कर्मकांडों को करोड़ों का अनुदान दिया जाता है। एक ही काम के लिए ईसाई कार्यकर्ता को पद्म भूषण दिया जाता है, जबकि हिंदू समाजसेवी को सांप्रदायिक कहकर लांछित किया जाता है। नितांत अप्रमाणित आरोप पर भी हिंदू धर्माचार्य गिरफ्तार कर अपमानित किए जाते हैं, जबकि दूसरे धमरें के धर्मगुरुओं को देशद्रोही बयान देने, संरक्षित पशुओं को अवैध रूप से अपने घर में लाकर बंद रखने पर भी छुआ तक नहीं जाता। उल्टे राजनीतिक निर्णयों में उन्हें विश्वास में लेकर उनकी शक्ति बढ़ा दी जाती है। भयंकर आतंकवादी को भी लादेनजी और अफजल साहब का सम्मानित संबोधन दिया जाता है, जबकि देश के सबसे बड़े योगाचार्य को ठग कहा जाता है। यदि सेक्युलरिच्म वैधानिक रूप से परिभाषित हो गया तो ये सभी मनमानियां नहीं की जा सकेंगी। इसकी अस्पष्टता का ही करिश्मा है कि शिक्षा, संस्कृति और राजनीति हर क्षेत्र में भारत में अन्य समुदायों को हिंदुओं से अधिक अधिकार मिले हुए हैं।
कहने को अभी देश में सेक्युलरिच्म की कम से कम चार परिभाषाएं हैं, यद्यपि कोई भी वास्तविक नहीं। अलग-अलग सेक्युलरवादी इच्छानुसार इनका उपयोग करते हैं। एक परिभाषा 1973 में न्यायाधीश एचआर खन्ना ने दी कि राच्य मजहब के आधार पर किसी नागरिक के विरुद्ध पक्षपात नहीं करेगा। कुछ वर्ष बाद दूसरी परिभाषा कांग्रेस पार्टी ने दी-सर्वधर्म समभाव। तीसरी परिभाषा भाजपा ने दी-न्याय सब को, तरजीह किसी को नहीं। चौथी परिभाषा नहीं एक टिप्पणी है। किंतु सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और मानवाधिकार आयोग के पूर्व अध्यक्ष एमएन वेंकटचलैया की होने के कारण इसका महत्व है। इसके अनुसार सेक्युलरिच्म का अर्थ बहुसंख्यक समुदाय के विरुद्ध नहीं हो सकता। यह टिप्पणी प्रकारांतर मानती है कि व्यवहार में इसका यही अर्थ हो गया है। यहां याद करना जरूरी है कि स्वयं संविधान निर्माता डॉ. अंबेडकर ने भारतीय संविधान को सेक्युलर नहीं माना था, क्योंकि यह विभिन्न समुदायों के बीच भेदभाव करता है।
कांग्रेस ने 1976 में इमरजेंसी के दौरान 42वां संशोधन करके संविधान की प्रस्तावना में सेक्युलर शब्द जबरन जोड़ दिया। बाद में आई जनता सरकार ने 1978 में 45वें संशोधन द्वारा कांग्रेस वाली परिभाषा को ही वैधानिक रूप देने की कोशिश की। लोकसभा में यह पारित भी हो गया। पर राच्यसभा में कांग्रेस ने ही इसे पारित नहीं होने दिया। यह इस बात का पक्का प्रमाण है कि संविधान की प्रस्तावना में सेक्युलर शब्द गर्हित उद्देश्य से जोड़ा गया था, इसीलिए उसे जानबूझकर अपरिभाषित रखा गया ताकि जब जैसे चाहे, दुरुपयोग किया जाए। इस अन्याय को सुप्रीम कोर्ट ने भी दूर नहीं किया। उसने एसआर बोम्मई बनाम भारत सरकार मामले के निर्णय में लिख दिया कि सेक्युलरिच्म एक लचीला शब्द है, जिसका अपरिभाषित रहना ही ठीक है। जबकि ऐसा कहना ही कानून की धारणा के विरुद्ध है। जिसे संविधान और शासन का आधारभूत सिद्धांत कहा जाता है उसे परिभाषित होने से रोकने का आधार क्या है? एक अर्थ पसंद नहीं तो दूसरा सही, पर कोई पक्का वैधानिक अर्थ तो होना ही चाहिए। इससे हीलाहवाली करने पर आम जनता को समझने में कठिनाई नहीं होगी कि सेक्युलरिच्म को अपरिभाषित रखना विभिन्न समुदायों के बीच दूरी और झगड़ा बनाए रखने का पक्का औजार है।
[लेखक एस. शंकर, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]

Tuesday, April 16, 2013

टोपी-टीका छाप पंथनिरपेक्षता

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-cap-mark-secularism-vaccine-10306939.html
देश में तमाम लोग ऐसे हैं जिन्हें यह लगता है कि प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी उपयुक्त उम्मीदवार नहीं हैं, लेकिन बहुत से लोग उन्हें इस पद के लिए श्रेष्ठ उम्मीदवार मान रहे हैं। यह पहले से स्पष्ट था कि नीतीश कुमार ऐसे लोगों में नहीं हैं। वह एक बार पहले भी नरेंद्र मोदी का नाम लिए बगैर उन्हें पीएम पद के लिए खारिज कर चुके हैं। तब उन्होंने एक साक्षात्कार के जरिये ऐसा किया था। अब सार्वजनिक भाषण के जरिये किया। पिछली बार की तरह इस बार भी उन्होंने मोदी का नाम नहीं लिया, लेकिन कम अक्ल लोग भी यह समझ गए होंगे कि उन्होंने मोदी के कपड़े-लत्तो उतारने की कोशिश की है। हालांकि वह मोदी का उपहास उड़ाए बगैर भी उन्हें पीएम पद के दावेदार के तौर पर खारिज कर सकते थे, लेकिन उन्होंने तो उनकी लानत-मलानत करते हुए उन्हें गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर भी असफल करार दिया। उन्हें केवल गुजरात का विकास ही रास नहीं आया, बल्कि वहां के लोगों की उद्यमशीलता और उसके समुद्री किनारे से भी परेशानी हुई। अब जद-यू के छोटे-बड़े नेता भले यह कहें कि देखिए, नीतीशजी ने किसी का नाम नहीं लिया, लेकिन कोई परम मूर्ख ही होगा जो यह कहेगा कि क्या वह गुजरात के मुख्यमंत्री की बात कर रहे थे, जिनका नाम नरेंद्र मोदी है? अगर गुजरात के लोगों में उद्यमशीलता है और वहां समंदर भी है तो इससे किसी को कोई शिकायत कैसे हो सकती है? आश्चर्यजनक रूप से नीतीश कुमार को है। उन्होंने गुजरात के विकास में कुछ खामियां भी खोज निकालीं। इसमें कोई बुराई नहीं। यह काम कोई भी आसानी से कर सकता है-ठीक वैसे ही जैसे बिहार के सुशासन में तमाम विसंगतियां गिनाई जा सकती हैं। कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि गुजरात में राम राज्य है और वहां हर तरफ खुशहाली छाई है। खुद मोदी ने भी कहा है कि अभी तो सिर्फ गढ्डे भरे जा सके हैं। नरेंद्र मोदी के आलोचक कुछ भी कहें, यह एक सच्चाई है कि गुजरात में विकास हुआ है। इसी तरह यह भी एक सच्चाई है कि नीतीश के शासन में बिहार की बदहाली दूर हुई है। जिस तरह मोदी के तौर-तरीकों से असहमत हुआ जा सकता है वैसे ही नीतीश कुमार की रीति-नीति से भी। यह स्वाभाविक है कि दोनों नेताओं में जब-तब तुलना भी होती है और उन्हें भावी प्रधानमंत्री के तौर पर भी देखा जाता है। यह भी स्पष्ट है कि नीतीश के मुकाबले कहीं अधिक लोग नरेंद्र मोदी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में देख रहे हैं। हालांकि नीतीश कुमार खुद को प्रधानमंत्री का दावेदार नहीं बताते, लेकिन उनके दल के तमाम नेता ऐसा ही कहते हैं। इस नतीजे पर पहुंचने के पर्याप्त कारण हैं कि नीतीश की परेशानी यह है कि उनके मुकाबले नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता कहीं अधिक बढ़ गई है। मामला तुम्हारी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफेद कैसे वाला लगता है। इसमें कुछ भी गलत नहीं कि नीतीश कुमार भी प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रखें। यह अधिकार हर राजनेता को है, लेकिन नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी की निंदा करके उन्हें नहीं पछाड़ सकते- इसलिए और भी नहीं, क्योंकि जब मोदी अपना अहंकार तजकर सहिष्णुता का परिचय दे रहे हैं तब नीतीश असहिष्णुता के साथ-साथ अहंकार का भी प्रदर्शन कर रहे हैं। वह मोदी और उनके बहाने भाजपा को तबसे अपमानित करते चले आ रहे हैं जब बिहार भाजपा ने दोनों नेताओं के हाथ मिलाते फोटो एक विज्ञापन में प्रकाशित करा दिए थे। तब उन्होंने भाजपा नेताओं का भोज रद कर दिया था। इस बार उन्होंने भाजपा नेताओं के साथ भोज कर मोदी को रद कर दिया।
नरेंद्र मोदी से नीतीश कुमार की परेशानी का दूसरा कारण बिहार का मुस्लिम वोट बैंक है। वह इससे चिंतित हैं कि मोदी को स्वीकार करने से उनका मुस्लिम वोट बैंक खिसक सकता है। आज की राजनीति में हर नेता को अपने वोट बैंक की चिंता करने का अधिकार है, लेकिन एक खास समुदाय के वोटों की परवाह करना पंथनिरपेक्षता नहीं है। नि:संदेह टोपी पहनना और टीका लगाना भी पंथनिरपेक्षता नहीं है। यह तो पंथनिरपेक्षता के नाम पर किया जाने वाला पाखंड है। अगर इस तरह के पाखंड को पंथनिरपेक्षता मान लिया जाएगा अथवा उसकी ऐसी सरल व्याख्या की जाएगी तो उसका और विकृत रूप सामने आना तय है। क्या नीतीश कुमार यह कहना चाहते हैं कि यदि मोदी मौलवी के हाथों टोपी पहन लेते तो वह उनकी नजर में पंथनिरपेक्ष हो जाते? पता नहीं वैसा होता तो नीतीश का नजरिया कैसा होता, लेकिन उन्हें उन सवालों का जवाब देना चाहिए कि जब वह वाजपेयी सरकार में रेलमंत्री थे तब उन्हें नरेंद्र मोदी क्यों स्वीकार थे?
अगर भाजपा को नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने का अधिकार है तो जदयू को उससे अलग होने का। यदि भाजपा-जदयू का नाता टूटता है, जिसके प्रबल आसार नजर आने लगे हैं तो इससे शायद ही किसी को हैरत हो, लेकिन अगर आम चुनाव टोपी-टीका छाप पंथनिरपेक्षता के आधार पर लड़े गए और विकास का मसला नेपथ्य में चला गया तो इससे देश का बेड़ा गर्क होना तय है। टोपी-टीका छाप पंथनिरपेक्षता को मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ने से विकास के साथ-साथ भ्रष्टाचार का मसला भी किनारे हो सकता है। अगर ऐसा होता है तो इससे सबसे ज्यादा खुशी कांग्रेस को होगी, जिसके नेतृत्व वाली केंद्रीय सत्ता भ्रष्टाचार के सारे रिकार्ड तोड़ने के बाद इस ताक में है कि कैसे विकास के मुद्दे को किनारे कर और सांप्रदायिकता का हौवा खड़ा करके अगले आम चुनाव लड़े जाएं। यह हैरत की बात है कि नरेंद्र मोदी और उनकी नीतियों के खिलाफ गर्जन-तर्जन करने वाले नीतीश कुमार ने केंद्रीय सत्ता के कुशासन के खिलाफ एक शब्द नहीं कहा। वह मोदी के प्रति कठोर हो सकते हैं, लेकिन आखिर भारत की सबसे भ्रष्ट सरकार के प्रति नरम कैसे हो सकते हैं?
[लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]

Tuesday, April 9, 2013

अमेरिका में योग का विरोध

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-yoga-in-america-opposed-10275357.html
व्हाइट हाउस में ईस्टर पर योग उद्यान बनवाया जाना महत्वपूर्ण घटना है। हालांकि स्वामी विवेकानंद ने लगभग सवा सौ वर्ष पहले अमेरिका में ही पहली बार आधुनिक विश्व को योग का संदेश दिया था, फिर भी चार दशक पहले तक भी ज्यादातर पश्चिमी लोग योगाभ्यास को हिंदू एक्रोबेटिक कहते थे। स्थिति तेजी से बदली और आज पूरी दुनिया में योग को सम्मान मिला। हालांकि कट्टरपंथी ईसाइयों ने इसे हिंदू धर्म-चिंतन को परोक्ष रूप से बढ़ावा देने का प्रयास बताते हुए आलोचना की। स्कूलों में योग शिक्षा देने के विरुद्ध कैलिफोर्निया में पहले ही एक मुकदमा चल रहा है। राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने भाषण में योग को धार्मिक क्रियाकलाप न बताकर इसके स्वास्थ्य संबंधी पंथनिरपेक्ष लाभ का ध्यान दिलाया जाए। असल में योग सिर्फ व्यायाम नहीं, बल्कि मानवता के सबसे महान दर्शन, चिंतन का ही एक अभिन्न अंग है।
इसका सबसे सरल प्रमाण यह है कि जिन महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में योग की व्याख्या दी, स्वयं उन्होंने उन्हीं ग्रंथों में मुख्यत: आध्यात्मिक, दार्शनिक संदेश दिया है। सहस्त्राब्दियों पहले कही गई वे बातें यदि आज भी लाभकारी दिखती हैं तो उनकी शाश्वत सच्चाई में कोई शंका नहीं बचती। आज भी स्वामी विवेकानंद से लेकर महर्षि अरविंद, स्वामी शिवानंद और सत्यानंद तक किसी भी सच्चे योगी ने योगाभ्यास को हिंदू धर्म-चिंतन से अलग करके नहीं दिखाया। वस्तुत: सभी ने निरपवाद रूप से योग विधियों को संपूर्ण जीवन दृष्टि के अंग रूप में प्रस्तुत किया। इन योग गुरुओं की संपूर्ण शिक्षाओं में योग से स्वास्थ्य लाभ की चर्चा कम और आध्यात्मिक, चारित्रिक उत्थान का विचार अधिक है। यह तो उनके यूरोपीय अनुयायियों ने अपनी सीमित समझ से योग की स्वास्थ्य उपयोगिता पर बल दिया।
योग को उस सीमित दायरे में देखना उचित नहीं। ऐसा करना ऐसा ही है जैसे केवल वर्णमाला के ज्ञान को ही संपूर्ण भाषा का ज्ञान मान लेना अथवा किसी पुस्तक की भूमिका को ही पूरी पुस्तक समझ कर शेष वृहत भाग को छोड़ देना। योग दर्शन मुख्यत: एक जीवन दृष्टि है जिससे मनुष्य इस संसार में सार्थक जीवन जीते हुए निरंतर अपने उत्थान की ओर बढ़ता है और अंतत: मानव आत्मा पूर्ण रूप से परमात्मा से मिल कर मुक्ति पाती है। गीता के अठारहों अध्याय योग शिक्षा हैं। भगवान कृष्ण ने अनेक प्रकार से समझाया है, 'समत्वं योग उच्यते'। यानी सम भाव में स्थित हो पाने तथा ज्ञान, कर्म और भक्ति तीनों या किसी भी एक में निष्णात हो सकने की क्षमता प्राप्त कर लेना ही योगी होना है। इसलिए जिसे योगाभ्यास कहा जाता है, वह तो सचेतन होने का प्रारंभिक उपक्रम भर है। यह गंभीरता से सोचने की बात है कि जब मामूली व्यायाम रूप में योगाभ्यास ने सारी दुनिया को इतना सम्मोहित किया तब योग दर्शन को संपूर्ण रूप में समझना मानवता के लिए कितनी महान उपलब्धि हो सकती है। आज जब वैज्ञानिक परीक्षण, उपयोगिता और बौद्धिकता का इतना बोलबाला है तब यदि हिंदू योग दर्शन की बातें बेकार होंगी तो मानव बुद्धि उसे स्वयं ठुकरा देगी। ऐसी स्थिति में धमकी या दबाव डालकर योग से लोगों को विमुख करने के पीछे क्या कारण हो सकता है? केवल यही कि यदि दुनिया के गैर हिंदुओं में योग के प्रति रुचि बढ़ी तो अंतत: उनका मजहबी विश्वास नष्ट हो सकता है। ईसाइयों को यह चेतावनी 24 वर्ष पहले दिवंगत पोप जॉन पाल द्वितीय ने विस्तार से एक पुस्तिका लिखकर दी थी। कुछ ऐसी ही बात मलेशिया की नेशनल फतवा काउंसिल ने भी कही, जब वहां मुसलमानों के लिए योगाभ्यास वर्जित करने का फतवा जारी हुआ। हालांकि वहां अधिकांश मुस्लिम इसे खेल-कूद के लोकप्रिय रूप में ही लेते हैं। भारतीय मुसलमानों को भी योग से परहेज करने को कहा जाता रहा है। इसलिए जब कुछ पादरियों ने ओबामा के योग उद्यान की आलोचना की तो इसे निपट अज्ञान नहीं मानना चाहिए। अधिकांश ईसाई नेता योग को स्वास्थ्य लाभ की नजर से देखने के विरोधी हैं। यूरोप के बाप्टिस्ट और आंग्लिकन चर्च ने भी स्कूल में योगाभ्यास प्रतिबंधित करने की मांग की थी। क्त्रोएशिया के स्कूलों में चर्च के दबाव में योग शिक्षा हटाई गई।
अब्राहमी धार्मिक मतवाद की दोनों धाराएं योग से एक ही कारण दूरी रखती हैं कि यह हिंदू धर्म का अंग है और इसके अभ्यास से ईसाई या मुसलमान अपने मजहब से दूर होकर हिंदू चिंतन की ओर बढ़ सकते हैं। ऐसी स्थिति में हिंदुओं का क्या कर्तव्य बनता है? सबसे पहले तो यह कि योगाभ्यास से आगे बढ़कर संपूर्ण योग दर्शन को जानें। अपनी नई पीढ़ी की नियमित शिक्षा में इस चिंतन का समुचित परिचय अनिवार्य करें। यह समझें कि यदि योग व्यायाम में इतनी शक्ति है तो उस ज्ञान में कितनी होगी जिससे योगसूत्र जैसी कालजयी रचनाएं निकलीं। इसके बाद योग विरोधियों के साथ स्वस्थ विचार-विमर्श भी चलाना जरूरी है। यह रेखांकित करना कि एक ओर किसी विचार के प्रति लोगों की स्वत: ललक और दूसरी ओर चेतावनियों के बल पर किसी मतवाद से लोगों को जोड़े रखने के प्रयत्न में कितनी बड़ी विडंबना है। ऐसा विलगाव और कृत्रिम उपाय किस काम का और यह कितने दिन कायम रहेगा? व्हाइट हाउस का योग उद्यान और उसके विरोध जैसी घटनाएं अवसर देती हैं कि हम जरूरी, मगर कठिन विषयों से बचना छोड़ें। यही हमारा धर्म है। इसमें हमारा ही नहीं संपूर्ण मानवता का हित जुड़ा है। ऐसे छोटे-छोटे प्रसंगों पर खुला विमर्श वस्तुत: बड़ी-बड़ी समस्याओं को सुलझाने के रास्ते खोल सकता है। आज नहीं तो कल यह समझना ही होगा। पंथनिरपेक्षता की झक ने भारतीय बौद्धिक वर्ग को सचेत हिंदू विरोधी बना दिया है, वरना स्वामी विवेकानंद के सवा सौ वर्ष बाद भी हमारा बौद्धिक वर्ग ऐसे प्रसंगों से नहीं कतराता।
[लेखक एस. शंकर, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]

Sunday, March 17, 2013

कश्मीर नीति की नाकामी

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-kashmir-policy-failure-10223896.html

श्रीनगर के एक पब्लिक स्कूल में सीआरपीएफ जवानों के शिविर पर किए गए आत्मघाती हमले ने जम्मू-कश्मीर में पिछले डेढ़-दो साल से चली आ रही शांति को तोड़ने के साथ ही यह भी साबित कर दिया कि इस राज्य में आतंकवाद का खतरा अभी भी कायम है। सच तो यह है कि घाटी का माहौल तभी से बिगड़ने लगा था जब संसद पर आतंकी हमले के दोषी अफजल गुरु को फांसी पर लटकाने के बाद जम्मू-कश्मीर में संकीर्ण स्वार्थो वाली राजनीति का दौर आरंभ हो गया और उसकी चपेट में विधानसभा भी आ गई। संकीर्ण स्वार्थो की इस राजनीति में न तो सत्तारूढ़ पार्टी नेशनल कांफ्रेंस पीछे है और न विपक्षी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी यानी पीडीपी। ये दोनों ही दल अफजल की फांसी को लेकर अलग-अलग तरीके से जम्मू-कश्मीर की जनता को भावनात्मक रूप से भड़काकर अपने राजनीतिक स्वार्थो का संधान करना चाहते हैं, जबकि जरूरत वहां की जनता को यह समझाने की है कि अफजल ने भारत की अस्मिता की प्रतीक संसद पर हमलाकर जघन्य अपराध किया और इस अपराध के लिए वह फांसी की सजा का हकदार था। अगर कश्मीर के राजनीतिक दल ही इस हकीकत से मुंह चुराएंगे तो फिर जनता को सही बात कैसे समझ आएगी? राजनीतिक दलों के रवैये का लाभ हुर्रियत कांफ्रेंस समेत कश्मीर के अलगाववादी संगठन उठा रहे हैं। यासीन मलिक ने अपने पाकिस्तान प्रवास के दौरान जिस तरह भारत के खिलाफ आग उगली और यहां तक कि मुंबई हमले के गुनहगार हाफिज सईद के साथ मंच भी साझा किया उससे उनके इरादे साफ हो जाते हैं।
कश्मीर के सबसे बड़े नेता माने जाने वाले शेख अब्दुल्ला के मन में अपनी रियासत को एक स्वतंत्र देश बनाने की ललक थी। इसी ललक के चलते उनके और प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के मधुर रिश्तों में कड़वाहट आई। ये रिश्ते तब और बिगड़े जब शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर को विशेष दर्जा देने की मांग करने के साथ ही उसके भारत में विलय को नकारना शुरू कर दिया। इसके चलते एक दशक से अधिक समय तक उन्हें नजरबंद भी किया गया। शेख अब्दुल्ला के बाद उनके पुत्र फारुक अब्दुल्ला के साथ भी केंद्र के रिश्ते बनते-बिगड़ते रहे। ऐसा लगता है कि उनके बेटे उमर के साथ-साथ अन्य कश्मीरी दलों के नेता अभी भी आजाद कश्मीर के मोह से ग्रस्त हैं और शायद इसीलिए कश्मीर की जनता पर तथाकथित आजादी का फितूर सवार रहता है। यह भी स्पष्ट है कि पाकिस्तान इसे हवा देता रहता है। कश्मीर के प्रति पाकिस्तान के इरादे आजादी के बाद से ही सही नहीं है। कश्मीर के मुस्लिम बहुल होने के कारण पाकिस्तान प्रारंभ से ही इस राच्य को हड़पने की फिराक में है। सीधे युद्धों में बार-बार पराजित होने के कारण पाकिस्तान ने आतंकवाद के रूप में छद्म युद्ध की मदद से कश्मीर को हड़पने की अपनी कोशिशें जारी रखी हैं। दूसरी ओर कश्मीर के संदर्भ में भारत आज भी वहीं खड़ा है जहां वह आजादी के समय था। यह तब है जब कश्मीरियों का दिल जीतने के नाम पर अब तक भारत सरकार अरबों रुपये पानी की तरह बहा चुकी है। कश्मीरियों का मन बदलना तो दूर रहा, घाटी और उसके आसपास के क्षेत्रों से जिस तरह कश्मीरी पंडितों को बेदखल किया गया उससे उनकी पाकिस्तान परस्ती का ही प्रमाण मिलता है।
भारत को यह भी समझना होगा कि समस्या की जड़ में कश्मीर को मिला विशेष राच्य का दर्जा है। यह दर्जा भले ही कश्मीरियों को संतुष्ट करने और उन्हें आजादी की राह पर न जाने देने के नाम पर दिया गया हो, लेकिन हकीकत में यह उन्हें शेष भारत से अलग-थलग करने का कारण बन रहा है। इस विशेष दर्जे के कारण ही अंतरराष्ट्रीय जगत में यह संदेश जाता है कि भारत कश्मीर को अलग नजरिये से देखता है और चूंकि यह विवादित क्षेत्र है इसलिए उसे विशेष राच्य का दर्जा प्रदान किया गया है।
अब अगर भारत जम्मू-कश्मीर के विशेष राच्य के दर्जे को वापस लेने का फैसला करता है तो हो सकता है कि कुछ समय के लिए इसका प्रबल विरोध हो, लेकिन यह तय है कि धीरे-धीरे स्थितियां सुधर जाएंगी। कश्मीर के संदर्भ में नई दिल्ली ने अभी तक जो नीतियां अपनाई हैं वे वहां के लोगों का भारत के पक्ष में मन बदलने में नाकाम सिद्ध हुई हैं। विशेष राच्य के दर्जे का वहां के राजनीतिज्ञों ने ही लाभ उठाया है। वे केंद्र सरकार द्वारा भेजे गए धन का जमकर दुरुपयोग करते हैं और साथ ही जनता के बीच ऐसा संदेश देने की कोशिश करते हैं मानो किसी दूसरे देश ने उनके लिए पैसा भेजा हो। कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को समाप्त करना ही इस राच्य के शेष भारत के साथ सही मायने में एकीकरण के लिए एकमात्र विकल्प है।
चूंकि कश्मीर के कारण ही भारत और पाकिस्तान के रिश्ते सामान्य होने की सूरत नजर नहीं आती इसलिए भारत को पाकिस्तान के प्रति अपना नजरिया बदलने की जरूरत है। कम से कम कूटनीतिक स्तर पर उसके प्रति कभी नरमी और कभी गरमी दिखाने का सिलसिला तो बंद होना ही चाहिए। पाकिस्तान के संदर्भ में व्यक्ति के साथ व्यक्ति के स्तर पर संबंध बढ़ाने की नीति तो ठीक है, लेकिन अन्य स्तरों पर रिश्ते मजबूत करने की पहल पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है। जब भी देश में कोई आतंकी घटना घटती है और उसके तार पाकिस्तान से जुड़े होने के संकेत सामने आते हैं या फिर आतंकियों की घुसपैठ की कोशिशें होती हैं तो दोनों देशों के रिश्तों में फिर कड़वाहट आ जाती है और कुछ समय बाद नए सिरे से संबंध सुधारने की कोशिश की जाती रहती हैं। उतार-चढ़ाव भरे ये रिश्ते द्विपक्षीय संबंधों को किसी नए मुकाम पर नहीं ले जाने वाले। इसका ताजा प्रमाण पाकिस्तान द्वारा भारत के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पारित करना है। भारत ने भी जवाब में ऐसा ही किया, लेकिन क्या इससे पाकिस्तान को कोई सबक मिला होगा? यहां यह भी ध्यान रहे कि मुंबई हमले के बाद पाकिस्तान के साथ सख्ती से पेश आने का जो फैसला किया गया था उस पर टिके नहीं रहा गया। इसका कारण चाहे अंतरराष्ट्रीय दबाव हो या फिर भारत की अपनी कमजोरी, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं कि पाकिस्तान ने मुंबई हमले के गुनहगारों को दंडित करने के लिए अपने स्तर पर कुछ भी नहीं किया। नियंत्रण रेखा पर भारतीय सैनिकों के साथ बर्बरता और फिर हैदराबाद की घटना के बाद भारत ने पाकिस्तान के प्रति फिर से सख्ती के संकेत दिए, लेकिन पाक प्रधानमंत्री की जयपुर यात्रा के दौरान विदेश मंत्री उन्हें दावत देने पहुंच गए। अब श्रीनगर में आतंकी हमले और पाक संसद के निंदा प्रस्ताव के बाद भारत ने फिर कठोर रवैया अपनाया है। इस सिलसिले से भारत की जनता अब आजिज आ गई है। बेहतर यह होगा कि सभी राजनीतिक दलों की एक बैठक बुलाकर कश्मीर और पाकिस्तान के संदर्भ में भारत की नीति नए सिरे से निर्धारित की जाए। यह नीति देश की होनी चाहिए, किसी राजनीतिक दल या सरकार की नहीं और उस पर लंबे समय के लिए अमल भी होना चाहिए।
[लेखक संजय गुप्त, दैनिक जागरण के संपादक हैं]

Sunday, February 24, 2013

सेक्युलर तंत्र पर सवाल

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-questions-on-secular-system-10133330.html

भारतीय संसद पर 13 दिसंबर, 2001 को हुए आतंकी हमले की साजिश में शामिल अफजल गुरु को फांसी दिए जाने के बाद कश्मीर घाटी में हिंसा और विरोध प्रदर्शन क्या रेखांकित करता है? क्या भारत की अस्मिता और लोकतंत्र के प्रतीक पर आक्रमण करने का षड्यंत्र रचने वाले आतंकी के मानवाधिकार की चिंता होनी चाहिए? क्या निरपराधों की जान लेने वाले आतंकी की सजा माफ होने योग्य थी? कश्मीर घाटी में चार दिनों का शोक मनाने का निर्णय इस बात की पुष्टि करता है कि इस देश में ऐसे जिहादी तत्व भी हैं जिनका शरीर भारत में भले हो, किंतु उनका मन और आत्मा पाकिस्तान की जिहादी संस्कृति के साथ है। ऐसे ही लोगों के सहयोग से पाकिस्तान भारत को रक्तरंजित करने के अपने एजेंडे में कामयाब हो रहा है।
संसद पर हमले की साजिश पाकिस्तान पोषित लश्करे-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद द्वारा रची गई थी। जांच में जम्मू-कश्मीर के बारामूला में रहने वाले मेडिकल छात्र अफजल का नाम स्थानीय साजिशकर्ता के रूप में सामने आया। 2002 में विशेष अदालत ने अफजल को फांसी की सजा सुनाई थी, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपनी मुहर लगा दी थी। उसके बाद से ही मानवाधिकारवादी संगठन और सेक्युलर दल अफजल की सजा माफ करने की मांग कर रहे थे। अफजल की पत्‍‌नी ने भी राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका भेजकर उसे माफ करने की गुहार लगाई थी। मुंबई में हुए आतंकी हमले में जिंदा पकड़े गए अजमल कसाब को फांसी दिए जाने के बाद अब अफजल को फांसी दे दी गई है, किंतु सारा घटनाक्रम कुछ गंभीर सवाल खड़े करता है। अदालत का निर्णय होने के बाद सजा देने में इतना लंबा विलंब क्यों? क्या यह वोट बैंक की राजनीति का अंग है?
जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन मुख्यमंत्री और अभी केंद्र में मंत्री गुलाम नबी आजाद ने पत्र लिखकर केंद्र सरकार से अफजल की सजा माफ करने की अपील की थी। क्यों वर्तमान मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को भय है कि अफजल की फांसी से जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद एक बार फिर जिंदा हो जाएगा और राज्य व केंद्र दोनों के लिए संकट खड़ा करेगा? इसका क्या अर्थ निकाला जाए? अभी हाल ही में दिल्ली में जघन्य दुष्कर्म कांड हुआ। कल को इस कांड के आरोपियों के समर्थन में धरना-प्रदर्शन व हिंसा होने लगे तो क्या उनकी सजा लंबित कर दी जाए या उन्हें सजा से मुक्त कर दिया जाए? इस आधार पर तो जिस गुनहगार की जितनी साम‌र्थ्य होगी वह उतनी ही हिंसा और उपद्रव मचाकर सरकार को झुकने को मजबूर कर सकता है। ऐसे अराजक माहौल में कानून का राज और देश की सुरक्षा कैसे संभव है?
दिल्ली उच्च न्यायालय के बाहर 7 दिसंबर, 2011 को हुए बम धमाके की जिम्मेदारी लेते हुए 'हरकत-उल-जिहाद अल-इस्लामी' नामक जिहादी संगठन ने मेल भेजकर यह धमकी दी थी कि अफजल की सजा माफ नहीं की गई तो ऐसे ही कई और बम धमाके होंगे। भारत को रक्तरंजित करने में जुटे पाक पोषित जिहादियों का मनोबल यदि बढ़ा है तो उसके लिए कांग्रेसनीत सत्ता अधिष्ठान की नीतियां जिम्मेदार हैं।
भारत में सेक्युलरवाद इस्लामी चरमपंथ को पोषित करने का पर्याय है। इस अवसरवादी कुत्सित मानसिकता के कारण ही असम में स्थानीय बोडो नागरिकों की पहचान व मान-सम्मान अवैध बांग्लादेशियों के हाथों रौंदा जा रहा है तो मुंबई में बांग्लादेशी और रोहयांग मुसलमानों के समर्थन में रैली निकाली जाती है। पाकिस्तानी झंडा लहराया जाता है और शहीद जवानों की स्मृति में बनाए गए अमर जवान च्योति को तोड़ा जाता है। सेक्युलर सत्तातंत्र द्वारा मिलने वाले मानव‌र्द्धन का ही परिणाम है कि आतंकवादी मेल भेजकर पूरे देश को लहूलुहान करने की धमकी देते हैं। हैदराबाद में एक विधायक भड़काऊ भाषण देता है और उपस्थित हजारों की भीड़ मजहबी जुनून में राष्ट्रविरोधी नारे लगाती है, किंतु ऐसी घटनाओं पर सेक्युलर तंत्र खामोश रहता है। बहुसंख्यकों को पंथनिरपेक्षता, बहुलतावाद और प्रजातंत्र का पाठ पढ़ाने वाले स्वयंभू मानवाधिकारी चुप्पी साधे रहते हैं। क्यों?
स्वयंभू मानवाधिकारियों का आरोप है कि अफजल को न्याय नहीं मिला, उसके साथ जांच एजेंसियों ने नाइंसाफी की। वामपंथी विचारधारा से प्रेरित लेखिका अरुंधती राय ने पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिख-लिख कर भारतीय कानून एवं व्यवस्था और जांच एजेंसियों को कठघरे में खड़ा किया। जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री रह चुकीं महबूबा मुफ्ती एक कदम आगे हैं। पाकिस्तान की जेल में एक भारतीय नागरिक सरबजीत गलत पहचान के कारण बंद है। भारत सरकार ने उसे रिहा करने की अपील की है। महबूबा ने अफजल की तुलना सरबजीत से करते हुए केंद्र सरकार को दोहरे मापदंड नहीं अपनाने की नसीहत दे डाली थी। इन दिनों आतंकी मामलों में जेल में बंद युवा मुसलमानों को रिहा करने को लेकर सेक्युलर दलों में बड़ी बेचैनी है। हाल ही में सेक्युलर दलों के कुनबे ने प्रधानमंत्री से मिलकर इस मामले में दखल देने की अपील की थी। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने विधानसभा चुनाव के दौरान ऐसे बंदियों को रिहा करने का वादा भी किया था। सत्ता मिलने पर सपा ने आरोपियों को रिहा करने की कवायद भी शुरू कर दी थी, किंतु अदालत ने राच्य सरकार को कड़ी फटकार लगाई।
भारत पर मुसलमानों के साथ भेदभाव व उनके शोषण का आरोप समझ से परे है। पुख्ता सुबूतों और जीती-जागती तस्वीरों में कैद अजमल कसाब को मुंबई में निरपराधों की लाशें बिछाते पकड़ा गया, किंतु उसे भी पूरी निष्पक्ष न्यायिक प्रक्त्रिया के बाद ही फांसी की सजा दी गई। इस देश में अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों की कीमत पर बराबरी से अधिक अधिकार और संसाधन उपलब्ध कराए जा रहे हैं। उनके लिए अलग से आरक्षण की बात हो रही है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला अधिकार बताते हैं। ऐसे में भेदभाव बरते जाने का आरोप निराधार है। इस देश के मुसलमान पिछड़े हैं तो इसके लिए सेक्युलर दल ही जिम्मेदार हैं, जो वोट बैंक की राजनीति के कारण उनकी मध्यकालीन मानसिकता को संरक्षण प्रदान करते हैं। अफजल को फांसी देने में हुई देरी इस कुत्सित राजनीति को ही रेखांकित करती है।
[लेखक बलबीर पुंज, राच्यसभा सदस्य हैं]

संघ की छवि के साथ खिलवाड़

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-messing-with-the-image-of-the-union-10105285.html

केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे का यह वक्तव्य कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं भारतीय जनता पार्टी के प्रशिक्षण शिविरों में आतंकवाद फैलाने का प्रशिक्षण दिया जाता है, इन दोनों संगठनों को जानने और इनके शिविरों में प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले लोगों के लिए अत्यंत आघातकारी है। गत लगभग 60 सालों से मेरा संबंध संघ से रहा है और मैंने सैकड़ों प्रशिक्षण शिविरों में भाग लिया है। मैं दावे के साथ कहता हूं कि कभी किसी भी स्तर पर आतंकवाद की रत्ती भर आशंका नजर नहीं आई। एक समय था जब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू संघ को जड़-मूल से समाप्त करने की बात करते रहे, किंतु वह भी संघ की राष्ट्रनिष्ठा से इतना अधिक प्रभावित थे कि 1963 में गणतंत्र दिवस पर उन्होंने संघ के स्वयंसेवकों की परेड देखी। उन्होंने विभिन्न राष्ट्र-हित के मुद्दों पर चर्चा करने के लिए सरसंघचालक गोलवलकर के साथ कम से कम तीन मुलाकातें तथा पत्राचार किए थे। संघ का कथित आतंकवाद कभी कोई मुद्दा रहा ही नहीं। तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने पंडित नेहरू को स्पष्ट शब्दों में लिखा था कि गांधीजी की ह्त्या में संघ का हाथ नहीं। ताशकंद जाने के पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने गोलवलकरजी से चर्चा की थी। उनके समय में भी संघ का कथित आतंकवाद कभी कोई मुद्दा रहा ही नहीं। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निकट सहयोगी द्वारका प्रसाद मिश्र एवं संघ के वरिष्ठ प्रचारक दत्ताोपंत ठेंगड़ी के बीच अच्छे संबंध तभी से थे जब द्वारका प्रसाद मिश्र मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे।
कांग्रेस के एक अन्य प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव और सरसंघचालक रच्जू भैया के बीच मधुर संबंध थे और वे दोनों राष्ट्रहित के अनेक मुद्दों पर आपस में बातचीत किया करते थे। तब भी किसी ने संघ को आतंकवाद से नहीं जोड़ा। गांधीजी, मदनमोहन मालवीय एवं जयप्रकाश नारायण ने खुलकर संघ की प्रशंसा की थी। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल अनेक भूमिगत कांग्रेस नेताओं को संघ के लोगों ने अपने घरों में शरण दी थी। देश के प्रसिद्ध राष्ट्रवादी नेता आरिफ मोहम्मद खान 2004 के लोकसभा चुनाव अभियान में संघ, भाजपा तथा गोलवलकरजी की प्रशंसा करते देखे-सुने गए थे। वह यह सिद्ध करते थे कि संघ और भाजपा दरअसल मुसलमानों के सच्चे दोस्त हैं। सरसंघचालक केसी सुदर्शन की प्रेरणा से राष्ट्रवादी मुस्लिम मंच का गठन हुआ था, जो देश में सामाजिक समरसता स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
यह हास्यास्पद है कि कुछ लोग गृहमंत्री के उस वक्तव्य को विचार प्रकट करने के उनके संविधान प्रदत्त अधिकार से जोड़कर उनको क्लीन चिट दे रहे हैं। ऐसे लोग भूल जाते हैं कि शिंदे कोई साधारण नागरिक नहीं, बल्कि देश के गृहमंत्री हैं। यदि उनकी निगाह में संघ और भाजपा आतंकवादी संगठन हैं तो उन्हें अपने कर्तव्य का पालन करते हुए अविलंब इन दोनों संगठनों पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए। पता नहीं वह किस रिपोर्ट के आधार पर यह दावा कर रहे हैं कि उनके पास संघ और भाजपा के प्रशिक्षण शिविरों में आतंकवाद की ट्रेनिंग दिए?जाने के प्रमाण हैं। अगर ऐसे कोई प्रमाण वास्तव में उनके पास हैं तो उन्हें कोरी बयानबाजी करने के स्थान पर संघ और भाजपा के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए। भले ही चौतरफा घिरने के बाद शिंदे यह कह रहे हों कि उनके बयान को गलत रूप में पेश किया गया, लेकिन हर कोई यह समझ रहा है कि वह वोट बैंक की राजनीति कर रहे हैं। एक अन्य विचित्र दलील भी अक्सर सुनने को मिलती रहती है और वह यह कि भाजपा सांप्रदायिक दल है, क्योंकि उसमें नरेंद्र मोदी सरीखे नेता हैं, जिन पर गुजरात दंगों का दाग लगा हुआ है। इसीलिए यदि भाजपा के नेतृत्व वाले राजग ने मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए आगे किया तो नीतीश कुमार का दल जनता दल यूनाइटेड राजग से संबंध विच्छेद कर लेगा। ऐसी स्थिति में उनकी पार्टी सहित देश के सारे तथाकथित सेक्युलर दल कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन से मिल जाएंगे। क्या कांग्रेस वाकई सेक्युलर है? जरा कुछ तथ्यों पर निगाह डालें। 1984 के दंगों में 3000 सिखों की हत्या हुई थी, तब केंद्र में कांग्रेस की ही सरकार थी। सिख विरोधी दंगों के संदर्भ में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सार्वजनिक रूप से टिप्पणी की थी कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तब धरती हिलती ही है। 1948 में हैदराबाद में बड़े पैमाने पर मुसलमानों की हत्याएं हुईं। सुंदरलाल समिति ने उस कत्लेआम पर जो जांच रिपोर्ट नेहरू सरकार को दी थी वह आज तक प्रकाशित नहीं की गई। वह रिपोर्ट आज भी ठंडे बस्ते में पड़ी है और कांग्रेस की सेक्युलरिच्म की नीति पर हंस रही है। यह भी विचित्र है कि सेक्युलरिच्म के सिलसिले में बड़ी-बड़ी बातें करने वाले देश के प्रमुख इतिहासकार और पत्रकार गुजरात के अलावा अन्य स्थानों पर हुए दंगों पर मौन रहना ही बेहतर समझते हैं। अपने देश में साहित्यकार और पत्रकार भले ही हैदराबाद में हुए? कत्लेआम पर मौन रहे हों, लेकिन स्काटलैंड में जन्मे साहित्यकार विलियम डैरिम्पिल ने अपनी एक पुस्तक में सुंदरलाल समिति के तथ्यों को सबके सामने ला दिया था। यह सेक्युलरिच्म के नाम पर अपनाए जाने वाले दोहरे आचरण का ही उदाहरण है कि दंगों के मामले में भाजपा को घेरने वाले राजनीतिक दल और कथित सेक्युलर बौद्धिक वर्ग कांग्रेस अथवा अन्य दलों के शासनकाल में हुईं सांप्रदायिक दंगों की घटनाओं पर कुछ नहीं बोलता।
[लेखक डॉ.बलराम मिश्र, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]

राजनीति का निम्नतम स्तर

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-lowest-level-of-politics-10081251.html

केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे द्वारा भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर आतंकी प्रशिक्षण शिविर चलाने का आरोप लगाने से सबसे ज्यादा हानि किसकी हुई है? अधिकांश भारतवासी जहां एक तरफ भाजपा और संघ के राष्ट्रवादी चरित्र से परिचित हैं, वहीं शिंदे के रिकॉर्ड के कारण उन्हें गंभीरता से नहीं लेते। शिंदे के इस गैर जिम्मेदार बयान का कुप्रभाव सबसे अधिक भारत पर पड़ेगा। पाकिस्तान हमेशा यह दावा करता रहा है कि उसके यहां होने वाली आतंकी गतिविधियों को न तो सरकार और न ही सेना का समर्थन प्राप्त है। उसका कुतर्क यह भी है कि वह भी दूसरे देशों की तरह आतंकवाद से पीड़ित है। अब पाकिस्तान भारत के गृहमंत्री के बयान को अंतरराष्ट्रीय मंचों से उठाकर यह साबित करना चाहेगा कि आतंकवाद को प्रोत्साहन देने के लिए यदि कोई कसूरवार है तो वह भारत है। भारत अब तक कहता आया है कि यहां आतंकवाद सीमा पार से आता है, शिंदे के बयान के बाद दुनिया की नजरों में भारत की जहां हास्यास्पद स्थिति हो गई है, वहीं पाकिस्तान के हाथ मजबूत हुए हैं।
कांग्रेस वोट बैंक की राजनीति के कारण हिंदू आतंक का हौवा खड़ा करना चाहती है, जिसके कारण अंतत: पाकिस्तान और पाक पोषित आतंकी संगठनों का मनोबल बढ़ रहा है। भारत के बहुलतावादी ताने-बाने को ध्वस्त करने के लिए एक गहरी साजिश रची जा रही है। मुंबई पर हमला करने आए आतंकियों के हाथों में कलावा बंधा होना व माथे पर तिलक होना और हमले के पूर्व से कांग्रेसी नेताओं की ओर से 'भगवा आतंक' का हौवा खड़ा करना क्या महज संयोग हो सकता है? मुंबई हमलों में महाराष्ट्र आतंक निरोधी दस्ते के प्रमुख हेमंत करकरे की मौत के बाद कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने यह दावा किया था कि करकरे ने फोन पर बात कर उनसे हिंदूवादी संगठनों से अपनी जान का खतरा बताया था और अब शिंदे द्वारा 'हिंदू आतंकवाद' का रहस्योद्घाटन कांग्रेस की वोट बैंक की राजनीति के निम्नतम स्तर पर उतर आने का ही संकेत करता है। सारा घटनाक्त्रम एक गहरी साजिश का परिणाम है। शिंदे ने न केवल समग्र रूप से हिंदू समाज को अपमानित किया है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय जगत में सहिष्णु व बहुलतावादी भारत की छवि बिगाड़ने का काम भी किया है। सच्चाई यह है कि मालेगांव और समझौता एक्सप्रेस में हुए बम धमाकों के बाद से ही वोट बैंक की राजनीति करने वाली कांग्रेस ने तथ्यों को दबाते हुए 'भगवा आतंक', जो अब 'हिंदू आतंक' में बदल चुका है, का हौवा खड़ा करना शुरू कर दिया। सरकारी मशीनरियों के दुरुपयोग से जो मनगढ़ंत कहानी खड़ी की गई है, तथ्य व साक्ष्य उसकी पुष्टि नहीं करते।
एक जुलाई, 2009 को अमेरिकी ट्रेजरी डिपार्टमेंट ने चार लोगों के संबंध में एक प्रेस नोट जारी किया था। इनमें कराची आधारित लश्करे-तैयबा के आतंकी आरिफ कासमानी का उल्लेख है। उस रिपोर्ट के आधार पर एक अंग्रेजी पत्रिका के 4 जुलाई, 2009 के अंक में रक्षा विशेषज्ञ बी. रमन का लेख प्रकाशित हुआ था। उस लेख से कांग्रेस की घृणित साजिश का पर्दाफाश होता है। उक्त रिपोर्ट के अंश यहां उद्घृत हैं, 'आरिफ कासमानी अन्य आतंकी संगठनों के साथ लश्करे तैयबा का मुख्य समन्वयकर्ता है और उसने लश्कर की आतंकी गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कासमानी ने लश्कर के साथ मिलकर आतंकी घटनाओं को अंजाम दिया, जिनमें जुलाई, 2006 में मुंबई और फरवरी, 2007 में पानीपत में समझौता एक्सप्रेस में हुए बम धमाके शामिल हैं। सन 2005 में लश्कर की ओर से कासमानी ने धन उगाहने का काम किया और भारत के कुख्यात अपराधी दाऊद इब्राहीम से जुटाए गए धन का उपयोग जुलाई, 2006 में मुंबई की ट्रेनों में बम धमाकों में किया। कासमानी ने अलकायदा को भी वित्तीय व अन्य मदद दी। कासमानी के सहयोग के लिए अलकायदा ने 2006 और 2007 के बम धमाकों के लिए आतंकी उपलब्ध कराए।' संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका द्वारा लश्कर और कासमानी को प्रतिबंधित करने के छह महीने बाद पाकिस्तान के आंतरिक मंत्री रहमान मलिक ने स्वयं यह स्वीकार किया था कि समझौता बम धमाकों में पाकिस्तानी आतंकियों का हाथ था, किंतु अपने यहां वोट बैंक की राजनीति के कारण जो कांग्रेसी साजिश चल रही थी उसका ताना-बाना सीमा पार भी बुना गया। रहमान ने अपने उपरोक्त कथन में कहा, 'लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित ने कुछ पाकिस्तान स्थित आतंकियों का इस्तेमाल समझौता एक्सप्रेस में बम धमाका करने के लिए किया।'
समझौता एक्सप्रेस में हुए बम धमाकों में जुटी जांच एजेंसियों ने भी पहले इसके लिए सिमी और लश्कर को जिम्मेदार ठहराया था। सिमी के महासचिव सफदर नागौरी, उसके भाई कमरुद्दीन नागौरी और अमिल परवेज का बेंगलूर में अप्रैल, 2007 में नारको टेस्ट हुआ। उसमें पाया गया कि पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठन की मदद से सिमी ने बम धमाकों को अंजाम दिया है और सिमी के एहतेशाम सिद्दीकी व नसीर को मुख्य कसूरवार बताया गया। हाल ही में अमेरिकी अदालत ने मुंबई हमलों के दौरान छह अमेरिकी नागरिकों की हत्या के लिए डेविड हेडली को पैंतीस साल की सजा सुनाई है। हेडली ने मुंबई समेत भारत के कई ठिकानों की रेकी थी। अमेरिका के खोजी पत्रकार सेबेस्टियन रोटेला ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि हेडली की तीसरी पत्नी फैजा ओतल्हा ने 2008 में ही यह कबूल कर लिया था कि समझौता बम धमाकों में हेडली का हाथ है।
स्वाभाविक प्रश्न है कि इतने साक्ष्यों के होते हुए भी सरकार समझौता एक्सप्रेस बम धमाकों के लिए हिंदू संगठनों को कसूरवार साबित करने पर क्यों तुली है? मालेगांव धमाकों में भी सिमी की संलिप्तता सामने आने के बावजूद सत्ता अधिष्ठान साधु-संतों को कसूरवार बताने के लिए बलतंत्र के बूते साक्ष्यों को दबाने पर तुला है। मालेगांव बम धमाकों को लेकर कर्नल पुरोहित और उनके सहयोगियों के खिलाफ अदालत में जो आरोप पत्र पेश किया गया है उसमें कहा गया है कि आरोपी आइएसआइ से धन लेने के कारण संघ प्रमुख मोहन भागवत और संघ प्रचारक इंद्रेश कुमार की हत्या की योजना बना रहे थे। यदि कथित हिंदू आतंकी संघ प्रमुख की हत्या करना चाहते थे तो फिर संघ पर आतंकी प्रशिक्षण शिविर चलाने का आरोप कैसे लगाया जा सकता है? शिंदे को अपने कहे की समझ भी है? मुंबई हमलों की साजिश में पाकिस्तानी सेना और जमात उद दवा की संलिप्तता के पुख्ता प्रमाण अमेरिकी जांच एजेंसी के पास है, किंतु कांग्रेस 'हिंदू आतंकवाद' का हौवा खड़ा कर रही है। क्यों? ऐसा करने के लिए किसका दबाव है या इस काम का पारितोषिक उसे क्या मिला है? क्या सरकार वोट बैंक की राजनीति के लिए असली गुनहगारों को बचाना चाहती है?
[लेखक बलबीर पुंज, राच्यसभा के सदस्य हैं]

Monday, January 7, 2013

तुष्टीकरण का विकल्प

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-opinion-10000560.html

नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में आने की संभावना से कांग्रेस के कुछ रणनीतिकार प्रसन्न भी हैं। उन्हें लगता है कि तब तो सारे देश के मुस्लिम वोट इकट्ठा होकर स्वत: कांग्रेस की झोली में आ गिरेंगे! दूसरी ओर गुजरात में मोदी की लगातार तीसरी जीत पर जनता दल [यू] के नेता असहज हैं। उन्होंने नरेंद्र मोदी को औपचारिक बधाई देने से भी परहेज किया। वे चुप और खिन्न भी हैं, क्योंकि अब राजग द्वारा जनता दल [यू] नेता को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की आशाएं धूल में मिल गई हैं। तीसरी ओर समाजवादी पार्टी सब कुछ छोड़ मुस्लिम आरक्षण की पैरवी करती दिख रही है।
ये तीनों ही बातें देश की राजनीति में मुस्लिम वोट की बढ़ती ताकत के लक्षण हैं, किंतु साथ ही दूसरी प्रक्रिया भी चल रही है। गुजरात में मुस्लिम मतदाताओं ने भी बड़ी संख्या में भाजपा को समर्थन दिया है। इसे समझने की आवश्यकता है। आखिर जिस मोदी को विगत दस वर्ष से सारी दुनिया में मुस्लिम-विरोधी बताकर प्रचारित किया गया, उसी को स्वयं गुजरात में मुसलमान समर्थन दे रहे हैं। इसमें देश की राजनीति में सेक्यूलरवाद की विकृति अथवा मुस्लिम-तुष्टिकरण के सही विकल्प की झलक मिलती है।
यदि देशहित, जनहित, सहज न्याय, विवेक से भी ऊपर मुस्लिम तुष्टीकरण हावी हो जाए, तो यह हर हाल में अनर्थकारी है। जैसाकि डॉ. भीमराव अंबेडकर ने 1940 में कहा था, मुसलमानों की मांगे हनुमानजी की पूंछ की तरह बढ़ती जाती हैं। उनके तुष्टीकरण के सिलसिले ने अगले कुछ ही वर्षो में देश का विभाजन करा दिया। मगर आज पुन: उसी रास्ते पर चलने की प्रतियोगिता हो रही है। कांग्रेस, सपा, जनता दल [यू], कम्युनिस्ट तथा कई अन्य दल इसमें लगे हैं। पिछले चुनाव घोषणापत्र में कांग्रेस ने मुसलमानों को आरक्षण देने का वादा किया और अब उसे किसी तरह पूरा करने की फिराक में भी है। यह सीधे-सीधे नहीं हो सकता क्योंकि यह संविधान और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के विरुद्ध है। अत: इसके लिए हर तरह का कानूनी छलकपट किया जा रहा है। यहां तक कि अल्पसंख्यक आरक्षण मामले पर सुप्रीम कोर्ट में अतिरिक्त सॉलीसिटर जनरल ने साफ कहा कि यह तो निचले तबके के मुस्लिमों और मतांतरित होकर ईसाई बने लोगों के लिए ही है। बौद्धों या पारसियों के लिए यह उप-कोटा है ही नहीं! दूसरे शब्दों में, अल्पसंख्यक के नाम पर दी जाने वाली विशेष सुविधाएं केवल एक समुदाय के लिए हैं!
इतना कुछ पाकर भी कई मुस्लिम नेता कांग्रेस से नाराज रहे हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश, असम, बंगाल तो छोड़िए, गुजरात में भी कांग्रेस को मुस्लिम वोट कम ही मिले। जब कांग्रेस को वोट देते भी हैं, तो भंगिमा सदैव शिकायती रही कि लाचारीवश तुम्हें वोट दे रहे हैं। हर मुस्लिम नेता दोहराता है कि मुसलमानों का वोट-बैंक रूप में इस्तेमाल हो रहा है। जबकि इतिहास कुछ अलग ही है। पिछले सौ वर्षो से मुस्लिम नेता कांग्रेस से तरह-तरह की मांगे रखते गए हैं। उन मांगों को कांग्रेस किसी न किसी झूठी उम्मीद में मानती गई। लखनऊ पैक्ट [1916], खलीफत आंदोलन [1919-24] का समर्थन कांग्रेस ने इस आशा में किया था कि राष्ट्रीय आंदोलन में मुस्लिम साथ देंगे। गांधीजी कांग्रेस को मुस्लिमों के समक्ष वैचारिक, राजनीतिक, भावनात्मक रूप से निरंतर झुकाते गए। पर मुस्लिम मांगे बढ़ाते गए। सहयोग के बजाय कदम पीछे खींचते गए। अंतत: गांधी और कांग्रेस का पूरा इस्तेमाल कर मुस्लिम नेताओं ने देश के ही टुकड़े कर डाले। स्वतंत्र भारत में भी वही हुआ। मुस्लिम नेताओं ने कांग्रेस व अन्य दलों का भी इस्तेमाल कर इस्लामी ताकत बढ़ाई।
इसी बिंदु पर गुजरात से प्रकाश की एक किरण चमकी है। जिस नरेंद्र मोदी को बुरा-भला कहकर कांग्रेस, सपा, जनता दल [यू] जैसी अनेक पार्टियां मुस्लिम वोटों की लालसा में लगी हैं, उसी नरेंद्र मोदी को गुजरात में मुसलमानों का भी भारी समर्थन हासिल हुआ है। गुजरात में नरेंद्र मोदी को मुस्लिम वर्चस्व के इलाके में भी भरपूर समर्थन मिला है। यहां तक कि कांग्रेस के महत्वपूर्ण दिग्गज अहमद पटेल के गृह इलाके भरूच की सभी पांचों सीटें भाजपा को मिली हैं। अहमदाबाद, सूरत और वडोदरा क्षेत्र की कुल 50 में से 43 सीटें भी भाजपा को गई, जहां खासी मुस्लिम आबादी है। यह ठीक से समझने की जरूरत है। क्योंकि इसी में न केवल मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति का सकारात्मक विकल्प, बल्कि पूरी सांप्रदायिक राजनीति की काट की कुंजी भी मिलती है। वह सरल कुंजी यह है कि हमारे नेताओं को केवल राष्ट्रीय हित के आधार पर निर्णय लेने चाहिए। मुस्लिम वोटों के लोभ और तदनुरूप तुष्टिकरण में नहीं पड़ना चाहिए। तभी मुस्लिम भी राष्ट्रीय धारा में आएंगे! जबकि तुष्टीकरण उल्टे उन्हें और अलग, और दूर, और कट्टरपंथी बनाएगा।
श्रीअरविंद ने कहा था कि चाटुकारिता से हिंदू-मुस्लिम एकता नहीं बनाई जा सकती। यदि विगत दस वर्षो में गुजरात देश का सबसे शांत और उन्नतिशील प्रांत बना है तो इसलिए क्योंकि नरेंद्र मोदी की सरकार ने जनहित मात्र को ध्यान में रखकर सारे निर्णय लिए। हिंदूवादियों द्वारा भी उनकी आलोचना इसीलिए हुई, क्योंकि मोदी ने जैसे कोई मुस्लिम तुष्टीकरण नहीं किया, वैसे ही किसी हिंदूवादी पक्षपात से भी स्वयं को दूर रखा। नतीजा सामने है- हिंदू और मुसलमान, दोनों ने मोदी को वोट दिया और लगातार दे रहे हैं। आज तुष्टीकरण करने वाला कोई दल और नेता मुस्लिम वोटों के प्रति आश्वस्त नहीं है, जबकि सामुदायिक भेदभाव से ऊपर उठकर काम करने वाले नरेंद्र मोदी को हिंदू और मुस्लिम दोनों ही बार-बार वोट दे रहे हैं। मुसलमान अपने-आप मोदी के साथ आ गए हैं, क्योंकि मोदी ने स्वयं को सभी गुजरातियों की सेवा में लगा रखा है। क्या यही पूरे देश में नहीं होना चाहिए?
[एस शंकर: लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं]