Wednesday, March 12, 2008

भारत के लिए नया खतरा

नेपाल को इस्लामी आतंकवाद के नए केंद्र के रूप में देख रहे हैं बलबीर पुंज
नेपाल की राजनीति में वर्चस्व कायम करने के बाद माओवादियों का भारत और हिंदू विरोधी चेहरा एक बार फिर हाल में भारत-नेपाल सीमा पर बेनकाब हुआ। नेपाल की हिंदूवादी पहचान पर माओवादियों का आघात अकारण नहीं था। नेपाल नरेश को हिंदू परंपरा के संरक्षक के रूप में देखा जाता था। नेपाल में राजशाही के खिलाफ खड़े हुए माओवादी या उन्हें संरक्षण देने वाले साम्यवादी सऊदी अरब जैसे मुस्लिम देश में लोकतंत्र के लिए आवाज क्यों नहीं उठाते? पाकिस्तान और बांग्लादेश में सैन्यशाही चली आ रही है, क्या माओवादी वहां जनतंत्र के लिए क्रांति छेड़ने का साहस दिखाएंगे? नेपाल नरेश को पदच्युत कर नेपाल में लोकतंत्र लाने के नाम पर जो खूनी क्रांति माओवादियों ने छेड़ रखी थी उसके मूल में ही वस्तुत: हिंदू विरोध और भारत के प्रति नफरत की भावना प्रमुख थी। अन्यथा विगत 25 दिसंबर को माओवादियों के संगठन यंग कम्युनिस्ट लीग द्वारा भारत-नेपाल सीमा पर भारत विरोधी नारेबाजी करने का क्या औचित्य था? इस संगठन के कामरेडों ने न केवल अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन किया, बल्कि सीमा के पिलर संख्या 7 से भारतीय सीमा में टनकपुर बैराज तक घुसपैठ कर भारत के विरुद्ध विषवमन किया। नेपाल के ब्रह्मदेव नगर मंडी की सीमा से भारत में घुसपैठ करने वाले माओवादियों ने भारत मुर्दाबाद और भारतीय सेनाओं नेपाल छोड़ो जैसे नारे लगाए। भारत-नेपाल सीमा पर सीमा विभाजित करने के लिए लगाए गए पिलरों में अंकित भारत शब्द को खरोंच कर मिटा दिया गया। आम नेपाली भारत को पितृदेश और पुण्यभूमि के रूप में देखते हैं। सदियों से वे विराट हिंदू संस्कृति के अंग रहे हैं। आज भी यह परंपरा अक्षुण्ण है। पशुपतिनाथ से कन्याकुमारी तक संपूर्ण हिंदू समाज के श्रद्धा और सम्मान के प्रतीक एवं तीर्थस्थल भारत और नेपाल में समान रूप से पूजनीय हैं। भारत-नेपाल के बीच यह घनिष्ठ संबंध न तो माओवादी विचारधारा के अनुकूल था और न ही इस्लामी साम्राज्यवाद को यह रास आया। जेहादी कठमुल्लों और माओवादियों का प्रयास है कि नेपाल को भारत से दूरकर चीन के करीब कर दिया जाए और उसे भारत के खिलाफ इस्लामी आतंकवाद के केंद्र के रूप में उपयोग किया जाए। नेपाली संविधान में नेपाल को हिंदू गणराज्य के रूप में घोषित किया गया था, किंतु वहां भी हिंदुत्व की अवधारणा के अनुसार सभी मतों-पंथों को समान अधिकार प्राप्त थे। राजप्रासाद-नारायण हिती पैलेस के सामने ही नेपाल की सबसे बड़ी मस्जिद का होना इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। 1991 के सर्वेक्षण के अनुसार 89.5 प्रतिशत नेपालियों ने अपनी पहचान हिंदू बताई थी, जबकि अन्य में 5.3 प्रतिशत बौद्ध और 2.7 प्रतिशत मुसलमान थे। ईसाइयों की आबादी भी नेपाल में न्यून है। फिर नेपाल को सेकुलर राष्ट्र घोषित करने की हड़बड़ी क्यों थी? इस जल्दबाजी के पीछे जहां माओवादियों का दबाव था वहीं यह इस्लामी साम्राज्यवादी ताकतों की साजिश का हिस्सा भी है। संपूर्ण एशिया में खलीफा का साम्राज्य स्थापित करने के लक्ष्य में भारत सबसे बड़ा अवरोध है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हिमालय की तराइयों में बसे नेपाल को निशाना बनाया गया। इस बात के पुख्ता सबूत हैं कि आईएसआई भारत में सक्रिय अलगाववादी ताकतों के साथ मिलकर भारत को खंडित करने की साजिश में जुटी है। पीपुल्स वार ग्रुप और नेपाली माओवादी संगठनों को आईएसआई का खुला समर्थन प्राप्त है। भारत की करीब 1860 किलोमीटर सीमा नेपाल के साथ सटी हुई है। उत्तराखंड के चार, उत्तर प्रदेश के छह, बिहार के सात, पश्चिम बंगाल का एक और सिक्किम के दो जिलों के साथ नेपाल के 27 जिले संबद्ध हैं। इसके साथ ही इन जिलों में मुसलमानों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। नेपाल के कंचनपुर, कैलाली, बरदिया और बांके जिले उत्तर प्रदेश के बहराइच से लेकर बनबसा तक सटे हुए हैं। मुस्लिम बहुल इलाकों में माओवादियों का प्रभुत्व सबसे ज्यादा है। इसका लाभ उठाकर आईएसआई माओवादियों का प्रयोग भारत के खिलाफ अपने पारंपरिक षड्यंत्र में कर रही है। विडंबना यह है कि भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए नक्सलवाद को सबसे बड़ा खतरा स्वीकारने वाले प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह सच स्वीकारना नहीं चाहते। नेपाल की सीमा से लेकर आंध्र प्रदेश के दंडकारण्य तक नक्सली-माओवादियों ने रेड कारिडोर बना रखा है, किंतु प्रधानमंत्री इस समस्या की व्यापकता को स्वीकारना नहीं चाहते। यदि वह नक्सली समस्या को सामाजिक-आर्थिकसमस्या मानते हैं तो इस्लामी जेहाद को महज मुट्ठी भर पथभ्रष्ट युवाओं की करतूत बताते हैं। साम्यवादी और उनके सहोदर-नक्सलवादी और माओवादियों की विचारधारा में क्या लोकतंत्र और बहुलतावादी संस्कृति के लिए कोई स्थान है? धर्म को जनता की अफीम मानने वाले साम्यवादियों का इतिहास अधिनायकवादी रहा है। अपनी विचारधारा दूसरों पर थोपने के लिए उन्होंने सदैव हिंसा को अस्त्र बनाया है। नंदीग्राम की हिंसा ताजा घटनाक्रम है, जहां मा‌र्क्सवादियों के खिलाफ आवाज उठाने के कारण नंदीग्रामवासियों को सत्तातंत्र की मिलीभगत से माकपाइयों की हिंसा का शिकार होना पड़ा। यह केवल पश्चिम बंगाल में नहीं हो रहा। वामपंथियों के दूसरे प्रभाव क्षेत्र केरल में भी माकपाई हिंसा का शिकार सभ्य समाज बन रहा है। वर्तमान सत्ता अधिष्ठान यदि नक्सली-माओवादी समस्या के प्रति उदासीन है तो इसका सबसे बड़ा कारण साम्यवादी हैं। यदि पचास व साठ के दशक के सत्ता अधिष्ठान में मुट्ठी भर कम्युनिस्टों की घुसपैठ थी तो आज कम्युनिस्ट खेमा वर्तमान सरकार में प्रभावी भूमिका में है। पं. नेहरू के समय से ही वामपंथी व्यवस्था को भीतर से खोखला करने में लगे हैं। यदि 1962 का कड़वा स्वाद उन्हें नहीं मिलता तो संभवत: भारतीय सत्ता अधिष्ठान कम्युनिस्टों के हाथों गिरवी हो जाता। इंदिरा गांधी की अधिनायकवादी मानसिकता कम्युनिस्टों के समर्थन से ही पुष्ट होती रही। उन्होंने कम्युनिस्टों को जो सबसे बड़ा तोहफा दिया वह है दिल्ली का जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय। नेपाल के माओवादी नेता बाबूराम भट्टाराई, पुष्पकमल दहल उर्फ प्रचंड हों या भारत के सीताराम येचुरी या प्रकाश करात-ये सब जेएनयू की ही देन हैं। भट्टाराई ने एक बार कहा था, मैंने मा‌र्क्सवाद का क-ख-ग जेएनयू में सीखा। जब नेपाल में शांति स्थापित करने के लिए माओवादियों को निमंत्रित किया गया तब भट्टाराई ने राजनीतिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हिंसा और हत्या को न्यायोचित ठहराते हुए कहा था, बंदूकों ने अपना काम पूरा किया है। वार्ता के लिए तैयार होने का अर्थ है कि हमारी सशस्त्र क्रांति विजयी रही। वस्तुत: कम्युनिस्टों की आस्था कभी भी लोकतंत्र पर रही नहीं, वे अपने विस्तार के लिए इसे एक माध्यम मात्र मानते हैं। कम्युनिस्ट यह मानते हैं कि सत्ता बंदूक की नली से आती है और इसीलिए माओवादियों और नक्सलियों को उनका खुला समर्थन प्राप्त है। सवाल देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांगे्रेस का है, जो एक ओर पंथनिरपेक्षता और प्रजातांत्रिक मूल्यों की सबसे बड़ी झंडाबरदार होने का दावा करती है और दूसरी ओर वोट बैंक के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा और सभ्य समाज पर मंडराते खतरों की अनदेखी भी करती है। (लेखक भाजपा के राष्ट्रीय सचिव हैं)
दैनिक जागरण January 8, Tuesday, 2008

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