Tuesday, November 11, 2008

हाथ से फिसलते हालात

असम में कई दशकों से जारी अशांति के कारणों की तह तक जा रहे है जगमोहन

दैनिक जागरण, १० नवम्बर २००८, देश के अधिकांश भागों में स्थितियां बिगड़ती जा रही हैं और भारत सरकार आतंकवाद और विध्वंस की रक्तरंजित घटनाओं को रोकने में असमर्थ नजर आ रही है। एक बुखार उतरता है तो दूसरा चढ़ जाता है। वर्ष 2000 से लेकर अब तक भारत पर 80 आतंकी हमले हो चुके हैं। नवीनतम है 30 अक्टूबर को असम में हुए सिलसिलेवार बम धमाके, जिनमें लगभग 80 लोग मारे गए। जिस निरंतरता और निर्भीकता के साथ इन धमाकों को अंजाम दिया गया है उससे पता चलता है कि हमारा शासन तंत्र कितना कमजोर हो गया है और हमारी आत्मकेंद्रित व नकारात्मक राजनीति ने कितनी क्षुद्रता के साथ इसे बेड़ी में बांध दिया है। त्रासदी यह है कि हमारे राजनीतिक दलों के लिए सत्ता और अल्पकालिक लाभ पाने के तुच्छ साधन अधिक महत्वपूर्ण हैं, न कि राष्ट्रीय सुरक्षा और इसका दीर्घकालीन कल्याण। यह घातक चूक जितनी स्पष्टता के साथ असम के मामले में दिखाई पड़ती है उतनी अन्यत्र कहीं नहीं। यहां भारतीय जनतंत्र के जन्म के साथ ही संक्रमण फैल गया था।

पूर्वी पाकिस्तान, जो अब बांग्लादेश है, के राजनेताओं ने भूमि हथियाने के एजेंडे के तहत असम में संक्रमण फैलाना शुरू कर दिया था। शेख मुजीबुर्रहमान ने खुलेआम घोषणा की थी, ''चूंकि असम में जंगल, खनिज संसाधन तथा पेट्रोलियम पदार्थ प्रचुरता में हैं इसलिए आर्थिक सुदृढ़ता के लिए पूर्वी पाकिस्तान में असम को मिला देना चाहिए।'' 1950 में संसद का ध्यान घुसपैठ की ओर खींचा गया। गृहमंत्री वल्लभभाई पटेल ने इस मामले की गंभीरता को महसूस किया। त्वरित कार्रवाई करते हुए उन्होंने आव्रजन अधिनियम 1950 पारित कराया, किंतु दिसंबर, 1950 में सरदार पटेल की मृत्यु के तुरंत बाद इस अधिनियम के संबंध में अनेक मुद्दे खड़े कर दिए गए। अंतत: 1957 में इसे निरस्त कर दिया गया। यह असम के हितों और राष्ट्र की सुरक्षा के प्रयासों पर पहला बड़ा आघात था। सुरक्षा इस हद तक जोखिम में डाल दी गई कि 1962 के चीन हमले के दौरान असम में खासे बड़े तबके ने पाकिस्तान के झंड़े फहराए। इस तरह की घटनाओं के मद्देनजर घुसपैठ निषेध योजना लागू की गई। योजनानुसार एक न्यायाधिकरण को नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर 1951 के आधार पर घुसपैठियों की शिनाख्त करनी थी। तत्कालीन मुख्यमंत्री बीपी चलिहा ने इसे बड़े जोर-शोर से लागू किया। 1964 से 1967 तक दो लाख 40 हजार घुसपैठियों को चिह्निंत कर लिया गया। इसके अलावा 1967 से 1970 के बीच भी 20,800 बांग्लादेशियों की शिनाख्त हुई, किंतु संकीर्ण राजनीतिक आग्रह इसके रास्ते में आ गए। फखरुद्दीन अली अहमद ने यह प्रचारित करना शुरू कर दिया कि अगर चलिहा अपना यह अभियान जारी रखते हैं तो कांग्रेस पार्टी न केवल असम में, बल्कि पूरे देश में मुस्लिम वोट खो देगी। वोट बैंक राजनीति की जीत हुई। घुसपैठ रोकने की योजना वस्तुत: त्याग दी गई और न्यायाधिकरण को भंग कर दिया गया। यह घुसपैठ में लिप्त ताकतों की एक और जीत थी।

बांग्लादेशी घुसपैठियों को खुलेआम समर्थन देने की नीति 1979-80 में उजागर हो गई जब 1979 की मतदाता सूची के आधार पर चुनाव संपन्न कराए गए। इस सूची में काफी बड़ी संख्या में बांग्लादेशियों को भी शामिल किया गया। मुख्य चुनाव आयुक्त ने खुद इस बात को सार्वजनिक रूप से कहा कि 1961 से 1971 के बीच असम की जनसंख्या 35 फीसदी बढ़ गई। परिणामस्वरूप असम के लोगों में असंतोष व्याप्त हो गया और वहां जनांदोलन शुरू हो गया। आंदोलन की शुरुआत तो आल असम स्टूडेंट यूनियन ने की थी, किंतु इसे हिंसा के रास्ते पर यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट आफ असम ले गया। 1983 के विधानसभा चुनाव ने आग में घी डालने का काम किया। 1980 से 1985 के बीच का काल सबसे हिंसक घटनाओं का साक्षी रहा। इनमें कुख्यात नेल्ली और गोहपुर नरसंहार शामिल हैं। दुर्भाग्य से इस रक्तरंजित दौर में भी केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी ने वोट बैंक को अक्षुण्ण रखने के लिए अपने संकीर्ण राजनीतिक आग्रहों से मुक्त होने की कोशिश नहीं की। इसके विपरीत उसने संदिग्ध घुसपैठियों को कानूनी ढाल मुहैया कराने के प्रयास जारी रखे। 1983 में अवैध घुसपैठ अधिनियम पारित किया गया। नए कानून के प्रावधान ऐसे थे कि घुसपैठियों की पहचान और उनका निष्कासन बेहद मुश्किल हो गया। असम समझौते के बाद फिर से विधानसभा के चुनाव कराए गए। इसमें आल असम स्टूडेंट यूनियन के राजनीतिक अंग असम गण परिषद (अगप) ने सत्ता संभाली। लगा कि अब शांति स्थापित हो जाएगी, किंतु अगप का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा। अगप सरकार की सबसे बड़ी विफलता अवैध रूप से सीमापार करने वाले बांग्लादेशियों को वापस न भेज पाने की रही।

अगप सरकार ने न तो केंद्रीय सरकार पर आईएमडीटी अधिनियम में संशोधन करने या इसे निरस्त करने का दबाव बनाया और न ही इस कानून में प्रदत्त प्रावधानों के अनुसार उचित कार्रवाई करके घुसपैठियों को बाहर निकालने का प्रयास किया। अनुमानित 30 लाख घुसपैठियों में से सिर्फ पांच सौ को ही बांग्लादेश वापस भेजा गया। केंद्र सरकार का रवैया और भी निंदनीय रहा। असम समझौते का पालन करने में इसने खरापन नहीं दिखाया। मीडिया और कुछ अन्य मंचों से आवाज उठाने के बावजूद असम में बांग्लादेशियों की घुसपैठ का सिलसिला चलता रहा। 1994 और 1997 के तीन साल के कालांतर में असम के 17 विधानसभा क्षेत्रों में मतदाताओं की संख्या में तीस प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी हुई तथा 40 विधानसभा क्षेत्रों में 20 प्रतिशत से अधिक की, जबकि इस अवधि में अखिल भारतीय मतदाताओं की औसत वृद्धि मात्र सात प्रतिशत ही थी। भारत सरकार के नुकसानदायक प्रयोजनों में से एक यह रहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी समस्याएं हल करने के लिए वह एक साथ कड़ा और नरम रुख अपनाती रही। आपरेशन बजरंग और आपरेशन राइनो, दोनों सैन्य अभियानों को बीच में ही रोक दिया गया। यही नहीं, हितेश्वर सैकिया सरकार ने तो 400 कट्टर उग्रवादियों को रिहा कर दिया। सरकार ने आत्मसमर्पण करने वाले उल्फा उग्रवादियों के पुनर्वास और अन्य विशेष सुविधाओं के लिए एक योजना भी चलाई।

इस योजना के सकारात्मक पक्ष सीमित रहे, जबकि नकारात्मक पहलू अहम साबित हुए। लोगों में यह संदेश गया कि नौकरी, ऋण और अन्य सुविधाएं प्राप्त करने के लिए कठोर परिश्रम करने के बजाय आतंकवादी बना जाए। सैकिया मंत्रिमंडल ने एक बड़ा पाप यह किया कि वह राज्य के मूलभूत लक्ष्यों से विमुख हो गई और आत्मसमर्पण करने वालों की संख्या बढ़ाने में जुट गई। इससे न्याय के मूल सिद्धांत व कानून एवं व्यवस्था भंग होने के साथ-साथ समाज में तनाव व्याप्त हो गया और प्रशासन उलझनों में फंस गया। उल्फा के सदस्यों को उग्रवाद की धारा से वापस लाने के लिए क्षमादान देना तो समझ में आता है, किंतु उन्हें विशेष लाभ पहुंचाना तो नागरिकों को अपराध करने और अपनी मांग मनवाने के लिए हिंसा के रास्ते पर चलने को प्रेरित करने के समान है। सरकार इस बात को भूल गई कि बैल को काबू करने के लिए सींग पकड़े जाते हैं, न कि उसे अच्छे आचरण के वायदे पर ढीला छोड़ दिया जाता है।


छह गोवंशी बरामद, चार तस्कर गिरफ्तार

गोरखपुर, 09 नवम्बर। खजनी थाने की पुलिस ने रविवार को मुखबिर की सूचना पर वध के लिए ले जाए जा रहे दैनिक जागरण, १० नवम्बर, २००८. छह गोवंशी बरामद किया। चार तस्करों को गिरफ्तार किया गया। इनके खिलाफ गोवध निवारण अधिनियम के तहत कार्रवाई की गयी है। पूछताछ में अभियुक्तों ने पुलिस को बताया कि वे पशुओं को वध के लिए प. बंगाल ले जा रहे थे।

जानकारी के अनुसार खजनी थाने के दारोगा ज्ञानेन्द्र कुमार, इफ्तेखार खां, सिपाही मूलचंद्र, गोकुल प्रसाद आदि की टीम ने मुखबिर की सूचना पर धांधूपार के पास घेराबंदी कर रामअवध, भरत तथा मेघा निवासीगण बउरहवा थाना खलीलाबाद कोतवाली, जिला संत कबीरनगर एवं राममिलन निवासी सतहरा थाना खजनी को गिरफ्तार किया। उनकेकब्जे से 3 गाय व 3 बछड़े बरामद किए गए। चारों पशुओं को पैदल हांक कर ले जा रहे थे। पूछताछ के आधार पर पुलिस ने बताया कि वे चारों पशु तस्कर हैं। पशुओं को जुटा कर वध के लिए प. बंगाल ले जाते हैं।

धार्मिक स्थल पर अवैध निर्माण से तनाव

दैनिक जागरण, १० नवम्बर २००८, फर्रुखाबाद। फतेहगढ़ के मोहल्ला मछली टोला स्थित मजार पर निर्माण कार्य कराये जाने को लेकर रविवार को विवाद की स्थिति बनने से स्थानीय नागरिकों में तनाव है। नगर मजिस्ट्रेट ने बिना अनुमति के किये जा रहे निर्माण को रुकवाने के लिये कोतवाली फतेहगढ़ को निर्देश दिये। देर शाम तक पुलिस के हस्तक्षेप न किये जाने के कारण विवाद की स्थिति बनी रही।

मछली टोला में कसाई खाने के निकट स्थित एक मजार पर निर्माण कार्य शनिवार को प्रारंभ किया गया। निर्माण कार्य की प्रकृति को लेकर निर्माण में लगे श्रद्धालुओं और स्थानीय लोगों के बीच विवाद की स्थिति उत्पन्न हो गई। दोनों पक्षों के लोगों के एकत्र होने के कारण बनी तनाव पूर्ण स्थिति को देखते हुये निर्माण कार्य रुकवाने के लिये नगर मजिस्ट्रेट को प्रार्थनापत्र दिया। नगर मजिस्ट्रेट देवकृष्ण तिवारी ने प्रभारी निरीक्षक को तत्काल निर्माण कार्य रुकवाने के आदेश दिये। देर शाम तक पुलिस की ओर से हस्तक्षेप न किये जाने के कारण मोहल्ले में विवाद की स्थिति बनी हुई है।

संवाददाता के अनुसार प्रभारी निरीक्षक लाल सिंह ने बताया कि मौके पर दरोगा मिहीलाल को जांच करने भेजा गया था। दोनों पक्षों में समझौता होने की संभावना को देखते हुये कोई कार्रवाई नहीं की गई।

बम बना रहे दो आरएसएस कार्यकताओं की मौत

दैनिक जागरण, १० नवम्बर २००८, कन्नूर। चेरुवनचेरी में सोमवार की सुबह एक बम फटने से दो लोगों की मौत हो गई। यह जगह कन्नूर से 35 किलो मीटर दूर संवेदनशील थालासेरी शहर के निकट है। दोनों मरने वालों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ [आरएसएस] का कार्यकर्ता बताया जा रहा है।

सुबह करीब साढ़े सात बजे हुए विस्फोट में प्रदीपन और दिलीपन की मौत हो गई। इन दोनों की उम्र तीस साल के आसपास थी। बताया जाता है कि दोनों एक झाड़ी के पीछे बैठकर बम बना रहे थे तभी उसमें विस्फोट हो गया। पुलिस का कहना है कि दोनों आरएसएस के कार्यकर्ता थे। कन्नवम पुलिस थाना क्षेत्र में हुई इस घटना के बाद पुलिस महानिरीक्षक वी शांताराम के नेतृत्व में वरिष्ठ पुलिस अधिकारी घटनास्थल पर पहुंच गए हैं।

धार्मिक पुस्तकों के प्रकाशन पर रोक नहीं

दैनिक जागरण, ११ नवम्बर २००८, नई दिल्ली। हाईकोर्ट ने कहा है कि वर्षो पुरानी धार्मिक पुस्तकों के प्रकाशन पर रोक नहीं लगाई जा सकती है। कोई व्यक्ति मुकदमों के जरिए इस तरह के मामले में रोक लगाने की मांग नहीं कर सकता है। यह कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है कि वह इस पर सुनवाई करे। इसके लिए कानून भी बने हुए हैं।
हाईकोर्ट की जस्टिस एसएन ढींगरा की पीठ ने स्वामी दयानंद द्वारा लिखी गई पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश के प्रकाशन पर रोक लगाने से इनकार करते हुए यह टिप्पणी की है। पीठ ने निचली अदालत में चल रही सुनवाई पर भी रोक लगा दी है। पीठ ने कहा कि अगर पुरानी किताबों के प्रकाशन पर रोक लगा दी जाए, तो भविष्य में लोग बाइबिल, कुरान, गीता आदि पुस्तकों के प्रकाशन पर रोक लगाने की भी मांग कर सकते हैं। पेश मामले में मुस्लिम समुदाय के दो लोगों ने सिविल कोर्ट में अर्जी दायर कर 135 साल पुरानी धार्मिक पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश के प्रकाशन पर रोक लगाने की मांग की थी। इस मामले की सुनवाई निचली अदालत में चल रही है। इसके खिलाफ प्रकाशक सार्वदेशिक प्रेस ने हाईकोर्ट में याचिका दायर कर पूछा था कि क्या दीवानी वाद के जरिए कोई व्यक्ति वर्षो पुरानी धार्मिक पुस्तक पर रोक लगाने की मांग कर सकता है।

Monday, November 10, 2008

भारत में 'आतंकवाद' के ख़िलाफ़ फ़तवा

बीबीसी 09 नवंबर, २००८। 'आतंकवाद' के ख़िला़फ़ दारुल उलूम देवबंद के फ़तवे को आगे बढ़ाते हुए जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने भी आतंकवाद और आतंकवादियों के ख़िलाफ़ फ़तवा जारी किया है.

रविवार को हैदराबाद में इस्लामी मंच, जमीयत उलेमा-ए-हिंद के 29वें वार्षिक अधिवेशन के समापन के मौके पर यह फ़तवा जारी किया गया.

अधिवेशन में जमीयत अध्यक्ष क़ारी मोहम्मद उसमान ने फ़तवे को पढ़कर सुनाया जिसे सभी लोगों ने खड़े होकर सुना और इस बात की शपथ ली के वो आतंकवाद के ख़िलाफ़ एकजुट होंगे.

उसमान की आवाज़ पर सभा में मौजूद सभी लोगों ने, जिनमें छह हज़ार से अधिक उलेमा भी हाज़िर थे, शपथ ली कि “हम इस्लाम के पैग़ाम को आम करेंगे और ‘आतंकवाद’ की निंदा करते हैं और करते रहेंगे.”

हैदराबाद में जुटे धार्मिक नेताओं का कहना था कि इस्लाम एक अमन और शांति का मज़हब है और हर प्रकार की हिंसा को अस्वीकार करता है. इस्लाम क़त्ल और खून को अक्षम अपराध समझता है. इसलिए इस्लाम को आतंकवाद से जोड़ना ग़लत है.

याद रहे कि इसी वर्ष फरवरी और मई महीने में फ़तवा जारी करके भारत में मुसलमानों की अग्रणी धार्मिक संस्था दारुल-उलूम देवबंद ने ‘आतंकवाद’ की सभी कार्यवाहियों को इस्लाम विरोधी करार दिया था.

जमीयत के महासचिव महमूद मदनी ने बताया, "पहले इस फ़तवे पर चार मुफ़्तियों के दस्तख़त थे, अब इससे 4000 उलेमा ने अपने दस्तख़त किए हैं. इसका मक़सद हज़ारों इस्लाम के विद्वानों के माध्यम से यह संदेश देना है कि इस्लाम में आतंकवाद की कोई गुंजाइश नहीं है."

अहम पहल

ग़ौरतलब है कि हैदराबाद में जमीयत उलेमा-ए-हिंद के दो दिवसीय अधिवेशन के अंतिम दिन रविवार को एक आम सभा हुई जिनमें आंध्र प्रदेश के मुसख्यमंत्री वाईएस रेड्डी, लोकसभा के उपाध्यक्ष के रहमान ख़ान, हिंदू धार्मिक गुरू श्री रवि शंकर, स्वामी अग्निवेश, लोक सभा सदस्य अस्सदुद्दीन ओवसी और दारुल उलेम देवबंद के वाइस चांसलर भी शामिल हुए.

अधिवेशन को संबोधित करते हुए वाईएस रेड्डी ने कहा कि वो बहुत ख़ुश हैं कि उलेमा ने आतंकवाद के ख़िलाफ़ देवबंद के फ़तवे के अनुमोदन और अमन का पैग़ाम देने के लिए हैदराबाद का चुनाव किया.

मुख़्यमंत्री ने कहा, “भारत की पहचान अनेकता में एकता की है और मुसलमानों की तरक़्की के बग़ैर देश का विकास नहीं हो सकता है.” उन्होंने दावा किया कि वो अपने राज्य में अल्पसंखयकों के साथ बेहतर सलूक कर रहे हैं.

वहीं हिंदू धार्मिक गुरू श्री रवि शंकर ने सभा को संबोधित करते हुए कहा कि पैगंबर-ए-इस्लाम मोहम्मद को पूरब से ठंडी हवा आती थी और इसको क़ायम रखना ज़रूरी है. उनके अनुसार, “आतंकवाद को सहा नहीं जा सकता है. वैश्विक शांति की बहाली के लिए इसे खत्म करना आवश्यक है."

सबसे ज़्यादा तालियाँ बटोरीं बंधुआ मजदूरी और सांप्रदायिकता के सवाल पर काम कर रहे स्वामी अग्निवेश ने. उन्होंने अमरीका की ओर निशाना साधते हुए कहा कि इस्लाम को जो लोग आतंकवाद से जोड़ रहे हैं, वे दरअसल खुद आतंकवादी हैं.

उन्होंने यह भी सुझाव रखा कि मुसलमानों के पैगंबर मोहम्मद का जन्मदिन विश्व आतंकवाद विरोधी दिवस के तौर पर मनाया जाना चाहिए और इसके लिए संयुक्त राष्ट्र में पहल की जानी चाहिए.

कई प्रस्ताव पारित

अधिवेशन में कुल 21 प्रस्ताव पारित किए गए, जिनमें आतंकवाद के नाम पर पुलिस और जाँच एजेंसियों और मीडिया की पक्षपातपूर्ण भूमिका की निंदा की गई. सांप्रदायिक एकता पर भी ज़ोर दिया गया और कहा गया कि जबतक देश में शांति बहाल नहीं होती, देश की तरक़्क़ी मुमकिन नहीं है.

सच्चर कमेटी की रिपोर्ट, रंगनाथन मिश्र कमीशन की रिपोर्ट को लागू किए जाने के साथ-साथ मुसलमानों के लिए आरक्षण और दंगा निरोधक क़ानून बनाने की मांग भी की गई.

दुनिया में आए आर्थिक संकट का ज़िक्र करते हुए कहा गया कि भारत में अब ग़ैर सूदी व्यवस्था पर आधारित इस्लामिक बैंकिंग को आज़माया जाना चाहिए. अधिवेशन में दलित-मुस्लिम एकता पर भी बल दिया गया.

मालेगाँव बम धमाकों में हिंदू संगठनों के नाम आने पर जमीयत ने कहा कि किसी एक व्यक्ति के दोष को पूरे समुदाय से जोड़ना न्याय के ख़िलाफ़ है क्योंकि इससे पूरे समाज में नफ़रत को हवा मिलेगी.

ग़ौरतलब है कि ये सम्मेलन ऐसे समय पर हो रहा है जब देश में अगले वर्ष की शुरुआत में लोक सभा चुनाव होने वाले हैं और फिलहाल देश कई आतंकवादी हमलों के बाद इसके सांप्रदायीकरण के सवाल से जूझ रहा है.

हालांकि कुछ लोगों की राय में ऐसे सम्मेलनों का मक़सद सरकार को अपने संगठन की ताक़त दिखाना भी होता है.

जमीयत पर ये इल्ज़ाम इसलिए भी लगाए जाते हैं क्योंकि ये संगठन वर्ष 1919 में अपने स्थापना के समय से ही कांग्रेस पार्टी का समर्थक रहा है.

Friday, November 7, 2008

अमंगल की आहट

साध्वी प्रज्ञा मामले को राज्यसत्ता पर बहुसंख्यकों के घटते विश्वास का संकेत मान रहे हैं ए. सूर्यप्रकाश

दैनिक जागरण, ७ नवम्बर २००८, मालेगांव बम धमाकों के सिलसिले में साध्वी प्रज्ञा तथा कुछ अन्य हिंदुओं की गिरफ्तारी पर मचे शोर-शराबे के बीच हमारे समक्ष यह सवाल उभरा है कि क्या हिंदुओं के भीतर भी आतंकवाद का कीड़ा अंतत: रेंग गया अथवा यह अल्पसंख्यक वोट बैंक को अपने पाले में खींचने के लिए संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की एक और साजिश है? उम्मीद है कि जिन लोगों के पास इस मामले की जांच का जिम्मा है वे उस हायतौबा से प्रभावित हुए बिना अपना कार्य करेंगे जो इस प्रकार की परिस्थितियों में संघ परिवार को लेकर छद्म सेकुलर ब्रिगेड की ओर से सुनने को मिलती रही है। जांचकर्ताओं को ऐसे सबूत एकत्र करने होंगे जो न्यायिक समीक्षा के समक्ष टिक सकें और उन लोगों के कामों पर पूरी रोशनी डाल सकें जिन्हें गिरफ्त में लिया गया है और इस पर भी कि किन कारणों से वे आतंकवादी तौर-तरीके अपनाने की ओर उन्मुख हुए। आतंकवाद पर राजनीति ने केंद्र सरकार की विश्वसनीयता को इस हद तक क्षति तक पहुंचाई है कि कोई भी उन सूचनाओं पर भरोसा करने के लिए तैयार नहीं जो इस मामले में सामने लाई गई हैं।

जब जांच की संभावित दिशा की शुरुआती खबरें सामने आईं तो पूरे देश के हिंदू यह जानकर सन्न रह गए कि इस समुदाय के कुछ लोग, जिनमें एक साध्वी तथा सेना के कुछ पूर्व व वर्तमान अधिकारी शामिल हैं, महाराष्ट्र के मालेगांव तथा गुजरात के मोदसा में हुए बम धमाकों के सिलसिले में जांच के घेरे में हैं। यह शुरुआती आश्चर्य अब संदेह में बदलने लगा है। जो लोग इस मामले में सरकार के रुख को स्वीकार करने के लिए तैयार थे, अब अचानक अनेक कारणों से घटने लगे हैं। इसका मुख्य कारण सत्ताधारी गठबंधन के इरादों पर घटता विश्वास तथा देश को एक व सुरक्षित बनाए रखने में उंसकी असफलता है। संप्रग की विश्वसनीयता पिछले छह माह में एकदम से घटी है। इसके कारणों को जानना कठिन नहीं है। सबसे पहला है इसकी अक्षमता। दूसरा कारण है उन लोगों के संदिग्ध इरादे जो आज हम पर शासन कर रहे हैं। कानून एवं व्यवस्था तथा आर्थिक मोर्चे पर असफलता अक्षमता के क्षेत्र में आती है। जो लोग सत्ता संभाले हुए हैं उनका रिकार्ड बेहद निराशाजनक है। दूसरा कारण कहीं अधिक खतरनाक है। यह हमारे सत्ता संचालकों की हानिकारक प्रकृति सामने लाता है। यह इसलिए ज्यादा खतरनाक है, क्योंकि यह उस सबको तबाह कर सकता है जो हमने पिछले साठ वर्षो में संजोया है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सरकार के भीतर की इस खतरनाक सोच का सबसे पहले संकेत तब दिया था जब उन्होंने यह स्तब्धकारी घोषणा की थी कि देश के संसाधनों पर पहला हक मुस्लिमों का है। मैंने इससे अधिक निर्रथक बयान कभी नहीं सुना। यदि इस टिप्पणी के बाद भी मनमोहन सिंह अपने पद पर बने रह सके तो सिर्फ इसलिए कि हिंदू समाज में लोकतंत्र और पंथनिरपेक्षता की जड़ें बहुत गहरी हैं। यह चिंता की बात है कि हिंदू समाज की इस विशेषता पर आंच आने लगी है। मनमोहन सिंह ने जिस एजेंडे की शुरुआत की उसे उनके साथियों ने खूब आगे बढ़ाया। हिंदुओं के मन-मस्तिष्क में आ रहे परिवर्तन की यही मुख्य वजह है।

सत्ताधारी गठबंधन के इस एजेंडे को राजेन्द्र सच्चर समिति की रिपोर्ट से और अधिक आगे तक ले जाया गया, जो देश में मुस्लिमों की दशा से संबंधित थी। खुद गैर-जिम्मेदार तरीके से काम करने वाली यह समिति सशस्त्र बलों में सांप्रदायिक आधार पर गिनती के पक्ष में थी। समिति ने जो रिपोर्ट पेश की उसमें मुस्लिमों की तथाकथित दुर्दशा के लिए हर किसी पर आधारहीन आरोप लगाए गए। तुष्टीकरण के मामले में प्रधानमंत्री के रुख से उत्साहित कैबिनेट के अन्य सदस्य और अधिक आगे बढ़ गए। उन्होंने देश की एकता, सेकुलर ताने-बाने तथा विधि के शासन को कहीं अधिक गंभीर क्षति पहुंचाई। जिस अबू बशर को पुलिस ने अहमदाबाद और बेंगलूर बम धमाकों के मास्टरमाइंड के रूप में चिह्निंत किया उसके परिजनों के प्रति संवेदना जताने में संप्रग सरकार के मंत्री एक-दूसरे को पीछे छोड़ने की होड़ में जुट गए। अहमदाबाद और बेंगलूर के बम धमाकों में सौ से अधिक लोग मारे गए थे और अनगिनत लोग घायल हुए थे। अबू बशर की पक्षधरता करने वाले मंत्री लालू प्रसाद यादव तथा रामबिलास पासवान ने बाद में जामिया नगर मुठभेड़ पर सवाल उठाने शुरू कर दिए, जिसमें दिल्ली पुलिस के एक बहादुर अधिकारी को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। इन सभी घटनाओं ने हिंदुओं के मन को बहुत अधिक आघात पहुंचाया।

यह संभव है कि इन घटनाओं ने बहुसंख्यक समुदाय को हिंसा की ओर मोड़ दिया हो। शायद इसीलिए वे लोकतांत्रिक जीवनशैली से दूर हो रहे हैं। अन्यथा और किस तरह साध्वी प्रज्ञा, जिन्होंने धर्म और अध्यात्म के लिए संन्यास ग्रहण कर लिया तथा देश प्रेम और अनुशासन का प्रतीक माने जाने वाले सैनिकों में से कुछ की आतंकी साजिश में लिप्तता की व्याख्या की जा सकती है? अंत में कुछ बातें लोकतंत्र और उस तत्व की जो भारत और अमेरिका जैसे देशों में लोकतंत्र को टिकाए रखने का आधार है। यह है संविधान। भारत, अमेरिका, सऊदी अरब या पाकिस्तान या अन्य कोई भी देश हो, उसका संविधान समाज में बहुमत की इच्छा को परिलक्षित करता है। हर तरह की समानता की गारंटी देने वाले भारत और अमेरिका सरीखे लोकतांत्रिक संविधान वास्तव में बहुसंख्यकों द्वारा अल्पसंख्यकों को दिया गया उपहार है। यदि भारत के हिंदू पाकिस्तान के मुस्लिमों के समान संकीर्ण मानसिकता वाले होते तो हमें ऐसा संविधान नहीं मिला होता जो मानवता द्वारा व्यक्त किए गए अनेक महान विचारों को अपने अंदर समेटे हुए है। चाहे भारत हो या अमेरिका अथवा कोई अन्य देश, बहुसांस्कृतिक समाज में इस प्रकार के संविधान का टिके रहना इस पर निर्भर करता है कि उस देश की राजसत्ता की प्रकृति क्या है? वह संविधान को किस रूप में इस्तेमाल करती है? राजसत्ता को बहुमत का विश्वास हासिल होना चाहिए। जब बहुमत राज्य में विश्वास खो देता है तो लोकतंत्र अव्यवहारिक तथा निष्क्रिय हो जाता है। यदि ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई तो एकदम ढांचागत परिवर्तन उत्पन्न हो सकते हैं और इसका पहला निशाना संविधान तथा लोकतंत्र ही बनेगा।

साध्वी की गिरफ्तारी तथा सेना के कुछ पूर्व तथा वर्तमान सदस्यों की इस साजिश में संभावित संलिप्तता की बातें इस बात का पर्याप्त संकेत दे रही हैं कि राज्य पर बहुमत का विश्वास घटने लगा है। यह चिंताजनक स्थिति है, जिसकी अनदेखी नहींकी जानी चाहिए। इसमें अधिक संदेह नहीं कि इस स्थितिके लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तथा उनके कुछ गैर-जिम्मेदार सहयोगी जिम्मेदार हैं, जो आतंकियों के परिजनों के प्रति तो संवेदना प्रकट करते हैं, लेकिन आतंक से प्रभावित लोगों के परिजनों के प्रति नहीं। यदि शांति प्रिय हिंदू समाज में से कोई आतंकी कृत्यों की ओर मुड़ा है तो हमें आत्मचिंतन करना होगा। इसके पहले कि सामाजिक सुनामी लोकतंत्र,पंथनिरपेक्षता तथा उदारवाद के रूप में हमारे उन मूल्यों को तबाह कर दे जिन्हें हम सबसे अधिक सम्मान देते हैं, हमें सावधान होना होगा।


प्रधानमंत्री ने ठुकराई न्यायिक जांच की मांग

दैनिक जागरण ७ नवम्बर २००८, नई दिल्ली। राजनीतिक विवादों से घिरी बटला हाउस मुठभेड़ की न्यायिक जांच की मांग को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पूरी तरह ठुकरा दिया है। जबकि समाजवादी पार्टी और संप्रग के कुछ घटक ही नहीं बल्कि कांग्रेस के दिग्गज अल्पसंख्यक नेता भी इस मुठभेड़ की न्यायिक जांच की मांग के लिए दबाव बना रहे थे। प्रधानमंत्री ने कांग्रेस के राज्यसभा सांसद राशिद अल्वी को दो टूक कह दिया कि बटला मुठभेड़ की फिर से जांच कराना संभव नहीं है।

बटला मुठभेड़ की आगे अन्य किसी तरह की जांच की मांग पर सरकार के शीर्षस्थ स्तर पर यह दो टूक घोषणा है। इस मुठभेड़ को लेकर करीब महीने भर से राजनीतिक विवाद चल रहा है।

बटला मुठभेड़ और मालेगांव में 2006 में हुए विस्फोटों की जांच में सीबीआई तथा महाराष्ट्र सरकार के रुख की शिकायत करने के लिए राशिद अल्वी ने बुधवार को प्रधानमंत्री से मुलाकात की। इस दौरान ही मनमोहन सिंह ने बटला मुठभेड़ की और आगे जांच नहीं किए जाने की बात कही।

राशिद अल्वी ने बताया कि बटला मुठभेड़ को लेकर चौतरफा उठ रही आवाजों का हवाला देते हुए जब उन्होंने न्यायिक जांच की मांग उठाई तो प्रधानमंत्री ने इसे खारिज कर दिया। प्रधानमंत्री का कहना था कि 'इसकी अब आगे कोई जांच नहीं हो सकती।' गौरतलब है कि सपा, राजद, लोजपा ही नहीं बल्कि कांग्रेस के दिग्गज अल्पसंख्यक नेता न्यायिक जांच की मांग की वकालत कर रहे थे।

जांच की मांग ठुकराए जाने पर अल्वी ने कहा कि वे निराश हुए हैं मगर हताश नहीं और प्रधानमंत्री को पुनर्विचार के लिए पत्र लिख रहे हैं। उनका तर्क है कि केन्द्रीय विज्ञान व प्रौद्योगिकी मंत्री कपिल सिब्बल ने मुठभेड़ को फर्जी बताया था और वे सरकार का हिस्सा हैं। ऐसे में मुठभेड़ की जांच एक बार करा लेने में हर्ज ही क्या है? अल्वी अब प्रधानमंत्री को मुंबई पुलिस द्वारा मारे गए बिहारी युवक राहुल राज का उदाहरण देंगे कि किस तरह बिहार के नेताओं की एकजुट आवाज सुनकर इसकी जांच कराई गई है।

कांग्रेस नेता ने बताया कि प्रधानमंत्री ने मालेगांव में दो साल पूर्व हुए विस्फोटों के बारे में सीबीआई और महाराष्ट्र सरकार के रवैये की शिकायतों पर गंभीरता से पड़ताल कराने का वादा किया। मालेगांव में संघ से जुड़े संगठनों की कथित आतंकी गतिविधियों के बारे में अल्वी ने प्रधानमंत्री को कुछ दस्तावेज भी सौंपे जिसमें यह बताया गया है कि दो साल पहले ही महाराष्ट्र सरकार को इसकी जानकारी मिल गई थी। सीबीआई को भी इस बारे में मालूम था। अल्वी के मुताबिक सीबीआई और राज्य सरकार ने इसे छिपाने की गलती क्यों और किसके इशारे पर की, इसकी सुप्रीम कोर्ट के जज द्वारा जांच होनी चाहिए।

Heidi Klum's 'Kali act' leaves Hindus fuming

Times of India, 5 Nov 2008,NEW YORK: Supermodel Heidi Klum's costume drama, resembling the Goddess 'Kali', at a Halloween party has enraged the Hindu leaders in America,
who are demanding a public apology from her.

The leaders feel that Klum should make a public apology for posing as a sacred figure in a party, a website reported.

Indian-American community leader Rajan Zed said, "Goddess Kali is highly revered in Hinduism and she is meant to be worshipped in temples and not to be used in clubs for publicity stunts or thrown around loosely for dramatic effect."

"Hindus welcome Hollywood and other entertainment industries to immerse themselves in Hinduism, but they should take it seriously and respectfully and not just use the religion for decorating or to advance their selfish agenda," Zad said in a statement.

Various other Hindu leaders, including Jawahar L Khurana from Hindu Alliance of India, and Bhavna Shinde of Hindu Janajagruti Samiti have also criticised Klum's act of posing like Goddess Kali in a Halloween party, calling it "denigrating", the website said.

Thirty-five-year-old supermodel is a self-proclaimed lover of Indian culture.

Klum had even invited a Hindu priest from Varanasi to renew her marriage vows to her singer husband Seal in a ceremony in Mexico in May.

आरएसएस नेता की हत्या से तनाव

बीबीसी, 06 नवंबर, २००८, उड़ीसा के तनावग्रस्त कंधमाल ज़िले में संदिग्ध माओवादियों ने बुधवार को हिंदूवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) के एक नेता की हत्या कर दी.

हिंदूवादी नेता की हत्या के बाद वहाँ एक बार फिर से तनाव फैल गया है.

पुलिस के मुताबिक बुधवार को मोटरसाइकिल सवार तीन लोगों ने कुंभारीगाँव में बुधवार को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नेता धनु प्रधान की गोली मारकर हत्या कर दी.

आरोप

आरएसएस नेता के भाई आनंद प्रधान ने आरोप लगाया कि उनके भाई की हत्या कुछ स्थानीय ईसाइयों ने की है. वहीं पुलिस का कहना है कि प्रधान की हत्या माओवादियों ने की है क्योंकी वे उनकी हिटलिस्ट में थे.

कंधमाल में हुई हिंदूवादी नेता हत्या और उसके बाद फैले तनाव को देखते हुए ज़िला प्रशासन ने वहाँ गुरुवार से धारा-144 लागू कर दी है.

समाचार एजेंसियों को कंधमाल के पुलिस प्रमुख एस प्रवीण कुमार ने बताया कि स्थिति की समीक्षा होने के बाद धारा-144 हटा ली जाएगी.

प्रशासन का कहना है कि ज़िले में 30 सितंबर के बाद से हिंसा की कोई वारदात नहीं हुई है लेकिन बुधवार की घटना के बाद एक बार फिर तनाव फैल गया है.

कंधमाल में 23 अगस्त को कुछ अज्ञात लोगों ने एक आश्रम पर हमला किया था. इस हमले में विश्व हिंदू परिषद के नेता लक्ष्मणानंद सरस्वती समते पाँच लोगों की मौत हो गई थी.

इसके बाद वहाँ हिंसा भड़क उठी थी. जिसमें कई लोगों की मौत हो गई थी और हज़ारों लोगों को राहत शिविरों में शरण लेनी पड़ी थी.

राज्य में अभी भी हज़ारों लोग सरकारी राहत शिविरों में शरण लिए हुए हैं.