Friday, August 24, 2012

असम समस्या की जड़


उत्तरपूर्व के लोगों का बेंगलूर, मुंबई और पुणे से हजारों की संख्या में पलायन 16 अगस्त, 1946 की याद दिलाता है जिसे मोहम्मद अली जिन्ना के आव्हान पर डाइरेक्ट एक्शन डे घोषित किया गया था। इसके बाद हिंसा का जो तांडव शुरू हुआ उसकी परिणति देश के विभाजन में हुई। तब विश्व इतिहास में आबादी का सबसे बड़ा स्थानांतरण हुआ था। इस बार भी बड़ी संख्या में आबादी का पलायन हुआ है, जो देश की सीमा के अंदर है। इससे बड़ी संख्या में पलायन सिर्फ बंटवारे के समय हुआ था। इस आग को भड़काने में सबसे बड़ी भूमिका रही सोशल मीडिया की। शरारती तत्वों ने भारत को अस्थिर करने के लिए इसका कुत्सित इस्तेमाल किया। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने साफ कहा है कि अधिकतर एसएमएस/एमएमएस पाकिस्तान से भेजे गए थे। गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने पाकिस्तान के आंतरिक सुरक्षा मामलों के मंत्री से बात भी की है, लेकिन जैसा कि होता आया है पाकिस्तान ने अपना हाथ होने से साफ इन्कार कर दिया है। वैसे उसने प्रमाण मिलने पर कार्रवाई करने का भारत को भरोसा दिया है। पाकिस्तान ने स्थिति का लाभ उठाते हुए जातीय संघर्ष को सांप्रदायिक दंगे का रूप देने की पुरजोर कोशिश की। उसने प्राकृतिक आपदा से हुए हादसों की तस्वीरों को तोड़-मरोड़कर इंटरनेट पर अपलोड कर यह दुष्प्रचार करने का कुत्सित प्रयास किया कि मुसलमानों को बेरहमी से मारा जा रहा है। असम की समस्या जातीय है, सांप्रदायिक नहीं। यदि उसी संख्या में बांग्लादेशी मुसलमान की जगह हिंदू वहां बसते तो भी स्थानीय नागरिकों का उनसे संघर्ष होता। बोडो जनजाति का दावा है कि वे वहां के मूल निवासी हैं। वहां के महान वैष्णव संत शंकर देव ने उन्हें म्लेच्छ कहा है। इससे बोडो काफी आहत हैं और उन्होंने शंकर देव के लेखन पर प्रतिबंध लगाने की मांग की है। जो भी हो, असम की समस्या की जड़ में है बांग्लादेश से लगातार आ रहा जनसैलाब जो आजादी के बाद भी नहीं रुका और जिससे असम की आबादी की शक्ल बदल गई है। असम के कम से कम छह जिलों में मुसलमान आज बहुसंख्यक हैं। असम में अवैध घुसपैठ या स्थानांतरण की शुरुआत 19वीं सदी के प्रारंभ में हुई, जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी बंगाली मुसलमानों को ब्रम्हपुत्र घाटी में खेतों में काम करने के लिए लाई। तीस साल के अंदर बंगाल से आने वाले मुसलमान असम के चार जिलों में बस गए थे। उन्होंने जंगल को साफ किया तथा बंजर भूमि में उत्पादन शुरू किया। उनकी आबादी इस कदर बढ़ी कि 1931 में जनगणना आयुक्त सीएस मुलेन ने जनगणना रिपोर्ट में भविष्यवाणी की, जहां कहीं भी खाली जमीन है वहां पूर्वी बंगाल के लोग बस रहे हैं। पिछले 25 वर्षो में बिना किसी हंगामे या ज्यादा शोर-शराबे के पांच लाख की आबादी बंगाल से असम आकर प्रत्यारोपित हो चुकी है। एक समय आएगा जब शिवसागर एकमात्र जिला बचेगा जिसे असमी अपना कह सकेंगे। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए सरकार ने लाइन सिस्टम शुरू किया, जिसने हर जिले में एक खास क्षेत्र को चिन्हित किया जहां पलायन कर आने वाले बंगाली मुस्लिम बस सकते थे। परंतु 1944-45 में सादुल्लाह खान के नेतृत्व वाली मुस्लिम लीग सरकार ने इस व्यवस्था को खत्म कर कामरूप, दारांग तथा नवगांव जिलों में पूर्वी बंगाल से आने वाले मुसलमानों को बसने की छूट दे दी। ऐसा करने का उद्देश्य बताया गया- धान की पैदावार बढ़ाना। जिन्ना के निजी सचिव ने उनसे वादा किया था कि वह उन्हें पाकिस्तान के लिए असम तश्तरी पर परोस कर देंगे। स्वाधीनता के बाद भी बांग्लादेश से आबादी का पलायन जारी रहा। इससे यह प्रमाणित होता है कि मजहब के नाम पर हुए बंटवारे से समस्या का समाधान नहीं हुआ। महात्मा गांधी एवं जवाहरलाल नेहरू मजहब के आधार पर विभाजन के बिल्कुल खिलाफ थे। उनका कहना था कि यदि अंतत: विभाजन ही होना है तो यह क्षेत्रीय आधार पर होना चाहिए, धार्मिक आधार पर नहीं। परंतु जिन्ना ने उनकी बात नहीं मानी। जब सितंबर, 1946 में उनसे पूछा गया कि क्या वह हिंदुस्तान के सारे मुसलमानों को पाकिस्तान ले जा पाएंगे, तो उनका जवाब था कि वह पाकिस्तान में हिंदुओं को रखना पसंद करेंगे ताकि यदि भविष्य में हिंदुस्तान में मुसलमानों के साथ अन्याय होता है तो ऐसा ही वह हिंदुओं के साथ पाकिस्तान में कर सकें। यानी वह हिंदुओं को ब्लैकमेल करने के उद्देश्य से पाकिस्तान में रखना चाहते थे। वैसे संविधान सभा में जिन्ना ने अपने बहुचर्चित भाषण में कहा था कि पाकिस्तान में सभी धर्मावलंबी अमन-चैन से एकदूसरे के साथ रह पाएंगे। यदि पाकिस्तान को पंथनिरपेक्ष राष्ट्र ही होना था, जहां सभी धर्मो को मानने वालों को समान अधिकार और सम्मान के साथ रहने का हक मिलता तो फिर विभाजन की जरूरत ही क्या थी? विभाजन के बाद भी बांग्लादेश से अवैध पलायनकर्ताओं का आना जारी रहा। इसके विरोध में पूरे राज्य में व्यापक आंदोलन ऑल असम स्टुडेंट्स यूनियन के नेतृत्व में चला। अंत में 1985 में राजीव गांधी ने आसु के साथ समझौता किया, जिसमें तय हुआ कि 25 मार्च, 1971 के दिन या उसके बाद आने वाले बांग्लादेशियों की पहचान कर उन्हें वापस बांग्लादेश भेजा जाएगा। इस समझौते को सख्ती से लागू करने की जरूरत है। यह स्पष्ट करना जरूरी है कि असम के लोगों का विरोध स्थानीय मुसलमानों से नहीं है, वरन अवैध घुसपैठियों से है।
[लेखक सुधांशु रंजन, वरिष्ठ पत्रकार हैं]

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-opinion2-9592398.html

खांटी भारतीय हैं पूर्वोत्तर की जनजातियां

पूर्वोत्तर की जिन जनजातियों को शेष भारत में चिंकी और चीनी कहकर चिढ़ाया जाता है, वे खांटी भारतीय हैं। ये अपने आप को न सिर्फ रामायण-महाभारत के पात्रों का वंशज मानती हैं, बल्कि अपने पूर्वजों की परंपराओं को जीवित भी रखे हुए हैं।
http://www.jagran.com/news/national-north-east-people-are-typical-indian-9594068.html

Wednesday, August 22, 2012

315 ईसाई फिर हिंदू धर्म में वापस

हरहुआ : स्थानीय मुर्दहा गांव स्थित ब्रह्म बाबा मंदिर में 315 ईसाइयों ने फिर हिंदू धर्म स्वीकार कर लिया। ये आसपास के गांवों के 22 परिवारों से हैं। हवन कुंड में आहुतियां दीं और संकल्प लिया। संत रविदास धर्म रक्षा समिति व सुहेलदेव रक्षा समिति ने पूजन अनुष्ठान कराया और उनके मूल धर्म में वापसी कराई।
http://www.jagran.com/uttar-pradesh/varanasi-city-9585091.html

पुणे विस्फोटों के पीछे आईएम का संस्थापक सदस्य साजिद: सूत्र

पुणे में हाल में हुए सिलसिलेवार धमाकों की जांच कर रही सुरक्षा एजेंसियों ने दावा किया है कि प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन इंडियन मुजाहिदीन का संस्थापक मोहम्मद साजिद हमले के पीछे मुख्य संदिग्ध है।
http://www.livehindustan.com/news/desh/national/article1-story-39-39-253756.html

मुंबई पुलिस कमिश्नर अरूप पटनायक पर बरसे ठाकरे

मुंबई।। आजाद मैदान में हिंसा से निबटने को लेकर महाराष्ट्र सरकार की आलोचना करते हुए शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे ने सोमवार को आरोप लगाया कि पुलिस आयुक्त अरूप पटनायक पुलिस बल का मनोबल गिरा रहे हैं।
http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/15572484.cms

अमरनाथ गुफा तक सड़क बनाने की योजना नहीं

श्रीनगर। ऑल पार्टी हुर्रियत काफ्रेंस के उदारवादी गुट के चेयरमैन मीरवाइज मौलवी उमर फारूक द्वारा अमरनाथ की पवित्र गुफा तक सड़क बनाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश का विरोध करने के बाद वादी में 2008 की पुनरावृत्ति होने की आशका है। इसे देखते हुए राज्य सरकार ने रविवार को बालटाल से पवित्र गुफा तक सड़क बनाने की किसी भी योजना से इन्कार कर दिया।
http://www.jagran.com/news/national-to-the-holy-cave-of-amarnath-street-plan-9582984.html

रोजगार योजनाओं में अब अल्पसंख्यकों को आरक्षण

वाराणसी : डेढ़ दशक से अधिक समय से संचालित स्वर्ण जयंती ग्रामीण स्वरोजगार योजना (एसजीएसवाई) में अल्पसंख्यकों के लिए 15 प्रतिशत फंड आरक्षित किया गया है। केन्द्र सरकार द्वारा कुछ दिनों पूर्व प्रारंभ महत्वाकांक्षी योजना राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन में भी अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण के प्रावधान किए गए हैं।
http://www.jagran.com/uttar-pradesh/varanasi-city-9585294.html

पलायन मामले में जांच के दायरे में केरल का संगठन

असम में हुई हिंसा के बाद भड़काउ एसएमएस और एमएमएस भेजने में संदिग्ध भूमिका के लिए केरल का एक संगठन पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया खुफिया एजेंसियों की जांच के दायरे में है। 
http://www.livehindustan.com/news/desh/national/article1-story-39-39-254034.html

पाक में हिंदू-मुस्लिम बच्चों के क्लास अलग-अलग

अटारी, जागरण संवाददाता। पाकिस्तान में हिंदुओं व सिखों के साथ क्या हो रहा है, यह उन चेहरों को देखने से बयां हो जाता है जो हर दिन समझौता एक्सप्रेस से अपने पूरे परिवार के साथ भारत आ रहे हैं। सोमवार को पाकिस्तान से 41 लोग भारत आए।
http://www.jagran.com/news/national-pak-hindu-muslim-children-class-individually-9585770.html

कट्टरता का पोषण


अधिकारिक तौर पर उन्हें अफवाहों का सौदागर, शरारती तत्व और राष्ट्रद्रोही बताया जा रहा है। उन्हें यह सब कहें या फिर इससे भी अधिक किंतु कटु सच्चाई यह है कि भारत को इस तथ्य का सामना करना होगा कि ये दुष्ट लोग बड़े जोशोखरोश से अपने अभियान की सफलता का जश्न मना रहे हैं। जरा इन तथ्यों पर गौर फरमाएं। 11 अगस्त को मुंबई के आजाद मैदान पर 50,000 लोगों की भीड़ जमा होती है और वह फसाद शुरू कर देती है। वाहन जला दिए जाते हैं, महिला पुलिसकर्मियों के साथ छेड़छाड़ होती है, दुकानों के शीशे तोड़ दिए जाते हैं और यहां तक कि अमर जवान ज्योति का अनादर किया जाता है। यह सब असम और म्यांमार में मुसलमानों के उत्पीड़न से उपजे रोष में किया गया। भयाक्रांत करने वाली घटनाओं के दो दिनों के भीतर बेंगलूर, हैदराबाद, पुणे, चेन्नई आदि शहरों में रहने वाले उत्तरपूर्व के लोगों के मोबाइल पर डरावना एसएमएस आया कि 20 अगस्त तक शहर छोड़ दें या फिर परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहें। पिछले रविवार की शाम को उत्तरपूर्व के लोगों ने बड़े पैमाने पर कूच शुरू कर दिया। करीब 25,000 लोगों ने छोटे झोलों में सामान भरा और अपना घर, पढ़ाई, कामकाज छोड़कर गुवाहाटी के लिए सबसे पहली उपलब्ध ट्रेन पकड़ने के लिए निकल पड़े। यहां तक कि सरकार, संसद और प्रबुद्ध नागरिकों ने इन घबराए हुए नागरिकों को आश्वस्त करने का प्रयास किया कि उन्हें डरने की जरूरत नहीं है, किंतु मुंबई के आजाद मैदान में भीड़ द्वारा कारें फूंकने, दुकानों की खिड़कियां तोड़ने की घटनाओं और 17 अगस्त को लखनऊ, इलाहाबाद में हुए उग्र प्रदर्शनों ने इस प्रयास पर पानी फेर दिया। एक अंग्रेजी अखबार की वेबसाइट पर प्रकाशित खबर के अनुसार लखनऊ में पचास से अधिक लोगों ने गौतम बुद्ध पार्क पर हमला बोल दिया और बुद्ध की एक मूर्ति को खंडित कर दिया। इस दौरान उन्होंने फोटोग्राफ भी खिंचवाए। वे भी असम और म्यांमार की घटनाओं का विरोध कर रहे थे। केवल नौ दिनों के भीतर इन शरारती तत्वों और राष्ट्रविरोधी लोगों ने तीन निश्चित लक्ष्यों को पूरा कर लिया। पहला यह कि उन्होंने बड़े सुस्पष्ट ढंग से यह जता दिया कि बात जब मुसलमानों की होती है, भूगोल के बजाय समुदाय की अहमियत होती है। उन्होंने भाजपा और बहुत से असमियों के दावे की खिल्ली उड़ाई कि कोकराझाड़ में दंगे भारतीय और विदेशियों के बीच हुए थे। उन्होंने पूरे भारत के सामने अकड़ दिखाते हुए जताया कि उनकी पहचान पूरी तरह बाहरियों और विदेशियों के साथ जुड़ी है। साथ ही उन्होंने प्रदर्शित किया कि जब मुस्लिम हितों की बात आती है तो राष्ट्रीय सीमाएं बेमानी हो जाती हैं। अतीत में तुर्की के खलीफा भी भारत में मुद्दा बन गए थे। हाल ही में, फिलीस्तीन पीड़ित के प्रतीक के रूप में उभरा था। अब म्यांमार में रोहिंग्याओं को गले लगाने के लिए रोष अपनी हदें पार कर चुका है। शरारती तत्वों ने दूसरा लक्ष्य यह साधा कि उन्होंने भारत की भावनात्मक एकता पर जबरदस्त आघात कर दिया। कुछ समय से भारत के शहरों में उत्तरपूर्व के लोगों, खासतौर पर महिलाओं को प्रताड़ना झेलनी पड़ी है। उत्तरपूर्व के लोगों की वाजिब शिकायत है कि मुख्यभूमि में उन्हें लोगों की अवमानना का शिकार होना पड़ता है। जैसे ही शांत आतंक के शिकार असम और उत्तरपूर्व के अपने ठिकानों पर पहुंचेंगे और अपने-अपने हालात बयान करेंगे, उनमें अलगाव की भावना और प्रबल होगी। आने वाले समय में यह याद नहीं रहेगा कि स्थानीय पुलिस, प्रशासन और स्वयंसेवी समूहों ने उत्तारपूर्व के लोगों का विश्वास जीतने का पुरजोर प्रयास किया, बल्कि इतिहास में दर्ज होगा कि भारत की मुख्यधारा इन लोगों के लिए असुरक्षित हो गई है, कि जातीय और क्षेत्रीय आग्रहों के कारण वे निशाने पर आ गए हैं, कि उनका भारत के साथ कोई संबंध नहीं है। जो 25,000 या इसके करीब लोग भयभीत होकर अपने घर लौटे हैं उन्हें भावनात्मक सदमे से उबरने में लंबा समय लगेगा। जिनकी याददास्त अच्छी है, वे जानते हैं कि 1982 के एशियाड में सिखों के साथ हुए व्यवहार की टीस अभी तक उनके मन-मस्तिष्क से निकली नहीं है। विषाद को कटुता में बदलने से रोकने के लिए तुरंत ऐसे कदम उठाए जाने जरूरी हैं, जो सुनिश्चित कर सकें कि जिन लोगों ने गुवाहाटी की ट्रेन पकड़ी है, वे अपने कार्यस्थल पर जल्द से जल्द वापस लौट आएं। राष्ट्रद्रोहियों का अंतिम मकसद था सरकार और राजनीतिक वर्ग को हताश और कमजोर कर देना। पिछले दस दिनों में जो कुछ हुआ उस पर प्रतिक्रिया जताने में अतिसंवेदनशीलता का भद्दा प्रदर्शन किया गया। खबर है कि मुंबई पुलिस कमिश्नर ने अधिक गिरफ्तारियों के खिलाफ चेतावनी जारी की थी, एक मुख्यमंत्री ने विदेश मंत्रालय पर दबाव डाला था कि म्यांमार के राजदूत को बुलाकर औपचारिक विरोध दर्ज कराएं और अल्पसंख्यक कमीशन ने असम में अवैध घुसपैठ की घटनाओं को लेकर नकार की मुद्रा अपना ली थी। राजनीतिक रूप से कांग्रेस बुरी तरह फंस गई है। उसे डर है कि दंगाइयों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई के खतरनाक चुनावी नतीजे होंगे। यहां तक कि चौथा स्तंभ, जो निर्भीकता के साथ अन्याय को उजागर करता रहा है, ने भी अपने कदम वापस खींच लिए। इसका आंशिक कारण तो समझ में आने वाला है कि पूरा सच उजागर करने का मतलब है भय और हताशा का वातावरण बनाना। हालांकि शरारती तत्व सच्चे दिल की इस मजबूरी से यही निहितार्थ तलाशेंगे कि उनके बाहुबल और निर्वाचन शक्ति के सामने सत्ता प्रतिष्ठान झुक गया है। इन घटनाओं के बाद अब शरारती तत्वों के हौसले बुलंद हो गए हैं। उन्होंने अपने पंजे पैने कर लिए हैं और यह जान गए हैं कि इनमें कितनी ताकत है। इन घटनाओं ने मुस्लिम समुदाय में भी उग्रवादियों का असर बढ़ा दिया है। उग्रवादियों ने दिखा दिया है कि उनमें अपनी चलाने की क्षमता है। पिछले सप्ताह, संसद में असम पर होने वाली बहस के दौरान हैदराबाद के सासंद ने चेताया कि अगर मुसलमानों की शिकायतों को जल्द दूर नहीं किया गया तो कट्टरता की तीसरी लहर उठ सकती है। पिछले एक पखवाड़े की घटनाओं के बाद यह देखना होगा कि वह स्पष्ट रवैये की चेतावनी दे रहे थे या फिर उसके आगमन पर नगाड़ा बजा रहे थे।
[लेखक स्वप्न दासगुप्ता, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-opinion1-9585759.html