Wednesday, August 22, 2012

कट्टरता का पोषण


अधिकारिक तौर पर उन्हें अफवाहों का सौदागर, शरारती तत्व और राष्ट्रद्रोही बताया जा रहा है। उन्हें यह सब कहें या फिर इससे भी अधिक किंतु कटु सच्चाई यह है कि भारत को इस तथ्य का सामना करना होगा कि ये दुष्ट लोग बड़े जोशोखरोश से अपने अभियान की सफलता का जश्न मना रहे हैं। जरा इन तथ्यों पर गौर फरमाएं। 11 अगस्त को मुंबई के आजाद मैदान पर 50,000 लोगों की भीड़ जमा होती है और वह फसाद शुरू कर देती है। वाहन जला दिए जाते हैं, महिला पुलिसकर्मियों के साथ छेड़छाड़ होती है, दुकानों के शीशे तोड़ दिए जाते हैं और यहां तक कि अमर जवान ज्योति का अनादर किया जाता है। यह सब असम और म्यांमार में मुसलमानों के उत्पीड़न से उपजे रोष में किया गया। भयाक्रांत करने वाली घटनाओं के दो दिनों के भीतर बेंगलूर, हैदराबाद, पुणे, चेन्नई आदि शहरों में रहने वाले उत्तरपूर्व के लोगों के मोबाइल पर डरावना एसएमएस आया कि 20 अगस्त तक शहर छोड़ दें या फिर परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहें। पिछले रविवार की शाम को उत्तरपूर्व के लोगों ने बड़े पैमाने पर कूच शुरू कर दिया। करीब 25,000 लोगों ने छोटे झोलों में सामान भरा और अपना घर, पढ़ाई, कामकाज छोड़कर गुवाहाटी के लिए सबसे पहली उपलब्ध ट्रेन पकड़ने के लिए निकल पड़े। यहां तक कि सरकार, संसद और प्रबुद्ध नागरिकों ने इन घबराए हुए नागरिकों को आश्वस्त करने का प्रयास किया कि उन्हें डरने की जरूरत नहीं है, किंतु मुंबई के आजाद मैदान में भीड़ द्वारा कारें फूंकने, दुकानों की खिड़कियां तोड़ने की घटनाओं और 17 अगस्त को लखनऊ, इलाहाबाद में हुए उग्र प्रदर्शनों ने इस प्रयास पर पानी फेर दिया। एक अंग्रेजी अखबार की वेबसाइट पर प्रकाशित खबर के अनुसार लखनऊ में पचास से अधिक लोगों ने गौतम बुद्ध पार्क पर हमला बोल दिया और बुद्ध की एक मूर्ति को खंडित कर दिया। इस दौरान उन्होंने फोटोग्राफ भी खिंचवाए। वे भी असम और म्यांमार की घटनाओं का विरोध कर रहे थे। केवल नौ दिनों के भीतर इन शरारती तत्वों और राष्ट्रविरोधी लोगों ने तीन निश्चित लक्ष्यों को पूरा कर लिया। पहला यह कि उन्होंने बड़े सुस्पष्ट ढंग से यह जता दिया कि बात जब मुसलमानों की होती है, भूगोल के बजाय समुदाय की अहमियत होती है। उन्होंने भाजपा और बहुत से असमियों के दावे की खिल्ली उड़ाई कि कोकराझाड़ में दंगे भारतीय और विदेशियों के बीच हुए थे। उन्होंने पूरे भारत के सामने अकड़ दिखाते हुए जताया कि उनकी पहचान पूरी तरह बाहरियों और विदेशियों के साथ जुड़ी है। साथ ही उन्होंने प्रदर्शित किया कि जब मुस्लिम हितों की बात आती है तो राष्ट्रीय सीमाएं बेमानी हो जाती हैं। अतीत में तुर्की के खलीफा भी भारत में मुद्दा बन गए थे। हाल ही में, फिलीस्तीन पीड़ित के प्रतीक के रूप में उभरा था। अब म्यांमार में रोहिंग्याओं को गले लगाने के लिए रोष अपनी हदें पार कर चुका है। शरारती तत्वों ने दूसरा लक्ष्य यह साधा कि उन्होंने भारत की भावनात्मक एकता पर जबरदस्त आघात कर दिया। कुछ समय से भारत के शहरों में उत्तरपूर्व के लोगों, खासतौर पर महिलाओं को प्रताड़ना झेलनी पड़ी है। उत्तरपूर्व के लोगों की वाजिब शिकायत है कि मुख्यभूमि में उन्हें लोगों की अवमानना का शिकार होना पड़ता है। जैसे ही शांत आतंक के शिकार असम और उत्तरपूर्व के अपने ठिकानों पर पहुंचेंगे और अपने-अपने हालात बयान करेंगे, उनमें अलगाव की भावना और प्रबल होगी। आने वाले समय में यह याद नहीं रहेगा कि स्थानीय पुलिस, प्रशासन और स्वयंसेवी समूहों ने उत्तारपूर्व के लोगों का विश्वास जीतने का पुरजोर प्रयास किया, बल्कि इतिहास में दर्ज होगा कि भारत की मुख्यधारा इन लोगों के लिए असुरक्षित हो गई है, कि जातीय और क्षेत्रीय आग्रहों के कारण वे निशाने पर आ गए हैं, कि उनका भारत के साथ कोई संबंध नहीं है। जो 25,000 या इसके करीब लोग भयभीत होकर अपने घर लौटे हैं उन्हें भावनात्मक सदमे से उबरने में लंबा समय लगेगा। जिनकी याददास्त अच्छी है, वे जानते हैं कि 1982 के एशियाड में सिखों के साथ हुए व्यवहार की टीस अभी तक उनके मन-मस्तिष्क से निकली नहीं है। विषाद को कटुता में बदलने से रोकने के लिए तुरंत ऐसे कदम उठाए जाने जरूरी हैं, जो सुनिश्चित कर सकें कि जिन लोगों ने गुवाहाटी की ट्रेन पकड़ी है, वे अपने कार्यस्थल पर जल्द से जल्द वापस लौट आएं। राष्ट्रद्रोहियों का अंतिम मकसद था सरकार और राजनीतिक वर्ग को हताश और कमजोर कर देना। पिछले दस दिनों में जो कुछ हुआ उस पर प्रतिक्रिया जताने में अतिसंवेदनशीलता का भद्दा प्रदर्शन किया गया। खबर है कि मुंबई पुलिस कमिश्नर ने अधिक गिरफ्तारियों के खिलाफ चेतावनी जारी की थी, एक मुख्यमंत्री ने विदेश मंत्रालय पर दबाव डाला था कि म्यांमार के राजदूत को बुलाकर औपचारिक विरोध दर्ज कराएं और अल्पसंख्यक कमीशन ने असम में अवैध घुसपैठ की घटनाओं को लेकर नकार की मुद्रा अपना ली थी। राजनीतिक रूप से कांग्रेस बुरी तरह फंस गई है। उसे डर है कि दंगाइयों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई के खतरनाक चुनावी नतीजे होंगे। यहां तक कि चौथा स्तंभ, जो निर्भीकता के साथ अन्याय को उजागर करता रहा है, ने भी अपने कदम वापस खींच लिए। इसका आंशिक कारण तो समझ में आने वाला है कि पूरा सच उजागर करने का मतलब है भय और हताशा का वातावरण बनाना। हालांकि शरारती तत्व सच्चे दिल की इस मजबूरी से यही निहितार्थ तलाशेंगे कि उनके बाहुबल और निर्वाचन शक्ति के सामने सत्ता प्रतिष्ठान झुक गया है। इन घटनाओं के बाद अब शरारती तत्वों के हौसले बुलंद हो गए हैं। उन्होंने अपने पंजे पैने कर लिए हैं और यह जान गए हैं कि इनमें कितनी ताकत है। इन घटनाओं ने मुस्लिम समुदाय में भी उग्रवादियों का असर बढ़ा दिया है। उग्रवादियों ने दिखा दिया है कि उनमें अपनी चलाने की क्षमता है। पिछले सप्ताह, संसद में असम पर होने वाली बहस के दौरान हैदराबाद के सासंद ने चेताया कि अगर मुसलमानों की शिकायतों को जल्द दूर नहीं किया गया तो कट्टरता की तीसरी लहर उठ सकती है। पिछले एक पखवाड़े की घटनाओं के बाद यह देखना होगा कि वह स्पष्ट रवैये की चेतावनी दे रहे थे या फिर उसके आगमन पर नगाड़ा बजा रहे थे।
[लेखक स्वप्न दासगुप्ता, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-opinion1-9585759.html

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