Tuesday, April 9, 2013

जारी है मुस्लिम युवाओं को फंसाने का सिलसिला: दिग्विजय

http://www.jagran.com/news/national-muslim-youth-trapping-continues-digvijay-singh-10257885.html
कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह इस बात पर आज भी कायम हैं कि बटला हाउस मुठभेड़ सही नहीं थी। हालांकि उन्होंने यह भी माना कि वह अपनी पार्टी को इस मामले की न्यायिक जांच के लिए तैयार नहीं कर सके।

सोशल साइट पर टिप्पणी से भिवंडी में तनाव, मामला दर्ज

http://www.jagran.com/news/national-tension-in-bhiwandi-after-comment-on-social-networking-site-case-registered-10254308.html
ठाणे। सोशल नेटवर्किंग साइट पर भड़काऊ टिप्पणी को लेकर मुंबई के नजदीक संवेदनशील शहर भिवंडी में गुरुवार को तनाव फैल गया। हालात को नियंत्रित करने के लिए पुलिस दोनों समुदाय के नेताओं की मदद ले रही है। साथ ही उसने लोगों से संयम बनाए रखने की अपील की है।

Sunday, March 17, 2013

'हिन्दू बेटियों को नहीं दिया जाएगा अनुदान'

उत्तर प्रदेश सरकार ने आज साफ किया कि मुस्लिम लड़कियों की तरह निर्धन हिन्दू लड़कियों को अनुदान देने की कोई योजना नहीं है। उत्तर प्रदेश सरकार (हमारी बेटी उसका कल) योजना के तहत मुस्लिम लडकियों को तीस हजार रूपये का अनुदान उच्च शिक्षा के तहत देती है।
http://www.punjabkesari.in/news/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%82-%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%9F%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%8B-%E0%A4%A8%E0%A4%B9%E0%A5%80%E0%A4%82-%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%97%E0%A4%BE-%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%A8-113466

पाकिस्तान से पलायन कर रहे हिन्दू परिवार

http://www.pressnote.in/jodhpur-news_197003.html
पाकिस्तान से पलायन कर हिन्दू परिवार लगातार भारत का रूख कर रहे हैं। भारत और पाकिस्तान को जोड़ने वाली अंतरराष्ट्रीय ट्रेन थार एक्सप्रेस में रविवार को 640 यात्रियों का जत्था भगत की कोठी स्टेशन पहुंचा।

मानवाधिकार समर्थकों का सच

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-human-rights-advocates-true-10223897.html

जानी-मानी लेखिका मधु किश्वर ने हाल ही में कहा था कि दुनिया में कहीं भी मानवाधिकार समुदाय इतना समझौतापरस्त और दलीय नहीं है जितना भारत में। भारत के मानवाधिकारवादियों का देश के लोगों से कोई सरोकार नहीं है। उन्हें तो अपने अमेरिकी आकाओं की परवाह है, जहां से पैसा मिलता है। वस्तुत: मानवाधिकार आंदोलन का अपहरण हो चुका है। विविध प्रकार के समूहों ने प्रचार व प्रपंच के सहारे मानवाधिकार का अर्थ ही बदल डाला है। यह सामान्य तथ्य है कि नक्सलियों द्वारा किए जाते अपहरण, फिरौती, हत्याओं पर मानवाधिकारी मौन रहते हैं। मानव वे भी हैं जिनका अपहरण, हत्या होती है, किंतु उनकी निरी उपेक्षा क्या बताती है? उलटे मानवाधिकारी जमात जिहादियों और अलगाववादियों की प्रचारात्मक मदद करती हैं। मानवाअधिकार सिद्धांत और व्यवहार में अपराधी-अधिकार में बदल चुका है। जब भी आतंकवादी हमले होते हैं और निर्दोष जानें जाती हैं, मानवाधिकारों के पैरोकार मौन रहते हैं, किंतु जैसे ही सुरक्षाकर्मियों के हाथों किसी आतंकवादी या संदिग्ध की मृत्यु होती है वे आसमान सिर पर उठा लेते हैं। पहले कहा जाता है कि मृतक निर्दोष था, पर जब किसी मृतक का आतंकवादी, अपराधी होना प्रमाणित भी रहता है जैसे बटला हाउस मुठभेड़ या सोहराबुद्दीन मामले में हुआ तब भी पुलिस पर ही लांछन लगाया जाता है। यानी मानवाधिकार का व्यावहारिक अर्थ हो जाता है-अपराधियों को हर हाल में प्रश्रय और पुलिस पर हर हाल में प्रहार। मुंबई आतंकवादी हमले में पकड़े गए अजमल कसाब के खान-पान और स्वास्थ्य की चिंता, अपहरण दर अपहरण कर रहे माओवादियों पर चुप्पी और अब अफजल गुरु के अवशेष और परिवार को सम्मान देने की चिंता भी वही चीज है।
दूसरी ओर आतंकवादियों से लड़ने वाले सिपाहियों, सैनिकों का पक्ष रखने कम ही लोग आते हैं। जब कहीं आतंकवाद प्रबल होता है तो वहां मीडिया, राजनीतिक दल, न्यायाधीश डरे रहते हैं, किंतु जब आतंकवाद पराजित होता है तब उन कार्रवाइयों में शामिल पुलिस अधिकारियों के पीछे वही मीडिया, न्यायपालक और दल हाथ धोकर पड़ जाते हैं। यह सब मानवाधिकार के नाम पर होता है। 16 वर्ष पहले तरनतारन के पूर्व-पुलिस अधीक्षक अजीत सिंह संधू ने आत्महत्या कर ली थी। तरनतारन एक समय आतंकवाद का भयानक गढ़ था। वहां आतंकवादियों से मुठभेड़ में कई बार संधू ने निर्भीक अगुवाई की थी। भिंडरावाले टाइगर फोर्स के कुख्यात आतंकवादियों से छुटकारा दिलाया था। ऐसे अधिकारी को बाद में यह चिट लिखकर आत्महत्या करनी पड़ी कि ऐसी जलालत की जिंदगी से मर जाना अच्छा है! संधू पर मानवाधिकार उल्लंघन के 43 मामले चल रहे थे। 1989 से 1997 तक एक भी अपराध प्रमाणित नहीं हुआ था, किंतु महीनों से उनका हर दिन कोर्ट का चक्कर लगाते बीतता था।
पंजाब या कश्मीर के आतंकवाद ने 1962, 1965 या 1971 के युद्धों से अधिक जानें ली हैं, इसलिए आतंकवाद को सामान्य अपराध समझना और आतंकवादियों व उनके सहयोगियों को नागरिक कानूनों की सुरक्षा देना आत्मघाती भूल है। उनके पैरोकारों की कथनी-करनी से भी स्पष्ट है कि वे भारत-विखंडन की राजनीति में लगे हैं। उनके लिए यही मानवाधिकार है! सैनिकों को जिस राष्ट्रीय झंडे के सम्मान के लिए जान देने के लिए तैयार किया जाता है उसी को अरुंधती राय 'कपड़े का टुकड़ा' कहती हैं 'जो मुदरें को ढकने के काम आता है।' इस प्रकार, मानवाधिकार देश की रक्षा करने वाली सेना का मजाक उड़ाने और इस प्रकार देश को तोड़ने की पैरोकारी का नाम हो जाता है। आतंकवाद से लड़ना अघोषित युद्ध है। उससे हिचकिचाते हुए लड़ने का अर्थ है पराजय को आमंत्रण देना। हमारे मानवाधिकारवादी इसी काम में लगे हैं। यह संयोग नहीं कि सुरक्षा बलों के हाथों हुई ऊंच-नीच पर जो लोग आसमान सिर पर उठा लेते हैं वे कभी जिहादियों या नक्सलवादियों की हिंसा पर मुंह नहीं खोलते। लश्करे-तैयबा, हिज्बुल-मुजाहिदीन, जैशे-मुहम्मद, पीपुल्स-वार, एमसीसी, इंडियन मुजाहिदीन जैसे संगठनों ने घोषित रूप से हजारों निर्दोष, निहत्थे लोगों को मारा है, किंतु उन हत्याओं पर मानवाधिकारवादी न कभी प्रदर्शनी लगाता है, न गोष्ठी करता है, न गुहार लगाता है। इसीलिए सुरक्षा बलों की कथित ज्यादतियों पर आरोपों की झड़ी कभी खत्म नहीं होती। जम्मू-कश्मीर सरकार ने जनवरी 1992 से सितंबर 1996 के बीच सुरक्षा बलों के विरुद्ध ऐसी कुल 2600 शिकायतों की जांच की थी। उसने पाया कि उनमें 2288 मामले निराधार थे।
अवकाश प्राप्त ले. जनरल बीटी पंडित के खिलाफ उस दौरान कुल 184 रिट याचिकाएं दायर की गई थीं। डेढ़ साल बाद उनके रिटायरमेंट तक उनमें से 175 याचिकाओं को हाई कोर्ट ने निराधार पाया था। इनमें से अधिकांश मुकदमे सुरक्षा बलों का मनोबल तोड़ने के लिए ही किए गए थे। आज भी वही हो रहा है। झूठे आरोपों, उनसे उपजे मुकदमों के जंजाल से सुरक्षाकर्मियों की भी तो रक्षा होनी चाहिए! नहीं तो विदेशी धन और भारत-विरोधी भावना से चलने वाले संगठन और मानवाधिकारवादी देश का मनोबल तोड़ कर रख देंगे। मानवाधिकारवादी जिहादियों, नक्सलियों को दूसरे मनुष्यों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण और विशेषाधिकारी बताते हैं। ऐसे मानवाधिकारियों की शब्दावली और प्रस्ताव वही होते हैं जो उन्हें अनुदान देने वाली विदेशी संस्थाओं के हैं। अफजल-कसाब प्रसंगों के बाद हमारे मानवाधिकारवादियों की असलियत स्पष्ट हो जानी चाहिए थी। भारत के विरुद्ध युद्ध छेड़ने वालों का बचाव करना ही उनका मुख्य काम है। इन्होंने मानवाधिकारी मुकदमेबाजी को ऐसी कला में बदल लिया है जो आतंकवादियों को प्रोत्साहित करती है।
[लेखक एस. शंकर, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]

कश्मीर नीति की नाकामी

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-kashmir-policy-failure-10223896.html

श्रीनगर के एक पब्लिक स्कूल में सीआरपीएफ जवानों के शिविर पर किए गए आत्मघाती हमले ने जम्मू-कश्मीर में पिछले डेढ़-दो साल से चली आ रही शांति को तोड़ने के साथ ही यह भी साबित कर दिया कि इस राज्य में आतंकवाद का खतरा अभी भी कायम है। सच तो यह है कि घाटी का माहौल तभी से बिगड़ने लगा था जब संसद पर आतंकी हमले के दोषी अफजल गुरु को फांसी पर लटकाने के बाद जम्मू-कश्मीर में संकीर्ण स्वार्थो वाली राजनीति का दौर आरंभ हो गया और उसकी चपेट में विधानसभा भी आ गई। संकीर्ण स्वार्थो की इस राजनीति में न तो सत्तारूढ़ पार्टी नेशनल कांफ्रेंस पीछे है और न विपक्षी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी यानी पीडीपी। ये दोनों ही दल अफजल की फांसी को लेकर अलग-अलग तरीके से जम्मू-कश्मीर की जनता को भावनात्मक रूप से भड़काकर अपने राजनीतिक स्वार्थो का संधान करना चाहते हैं, जबकि जरूरत वहां की जनता को यह समझाने की है कि अफजल ने भारत की अस्मिता की प्रतीक संसद पर हमलाकर जघन्य अपराध किया और इस अपराध के लिए वह फांसी की सजा का हकदार था। अगर कश्मीर के राजनीतिक दल ही इस हकीकत से मुंह चुराएंगे तो फिर जनता को सही बात कैसे समझ आएगी? राजनीतिक दलों के रवैये का लाभ हुर्रियत कांफ्रेंस समेत कश्मीर के अलगाववादी संगठन उठा रहे हैं। यासीन मलिक ने अपने पाकिस्तान प्रवास के दौरान जिस तरह भारत के खिलाफ आग उगली और यहां तक कि मुंबई हमले के गुनहगार हाफिज सईद के साथ मंच भी साझा किया उससे उनके इरादे साफ हो जाते हैं।
कश्मीर के सबसे बड़े नेता माने जाने वाले शेख अब्दुल्ला के मन में अपनी रियासत को एक स्वतंत्र देश बनाने की ललक थी। इसी ललक के चलते उनके और प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के मधुर रिश्तों में कड़वाहट आई। ये रिश्ते तब और बिगड़े जब शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर को विशेष दर्जा देने की मांग करने के साथ ही उसके भारत में विलय को नकारना शुरू कर दिया। इसके चलते एक दशक से अधिक समय तक उन्हें नजरबंद भी किया गया। शेख अब्दुल्ला के बाद उनके पुत्र फारुक अब्दुल्ला के साथ भी केंद्र के रिश्ते बनते-बिगड़ते रहे। ऐसा लगता है कि उनके बेटे उमर के साथ-साथ अन्य कश्मीरी दलों के नेता अभी भी आजाद कश्मीर के मोह से ग्रस्त हैं और शायद इसीलिए कश्मीर की जनता पर तथाकथित आजादी का फितूर सवार रहता है। यह भी स्पष्ट है कि पाकिस्तान इसे हवा देता रहता है। कश्मीर के प्रति पाकिस्तान के इरादे आजादी के बाद से ही सही नहीं है। कश्मीर के मुस्लिम बहुल होने के कारण पाकिस्तान प्रारंभ से ही इस राच्य को हड़पने की फिराक में है। सीधे युद्धों में बार-बार पराजित होने के कारण पाकिस्तान ने आतंकवाद के रूप में छद्म युद्ध की मदद से कश्मीर को हड़पने की अपनी कोशिशें जारी रखी हैं। दूसरी ओर कश्मीर के संदर्भ में भारत आज भी वहीं खड़ा है जहां वह आजादी के समय था। यह तब है जब कश्मीरियों का दिल जीतने के नाम पर अब तक भारत सरकार अरबों रुपये पानी की तरह बहा चुकी है। कश्मीरियों का मन बदलना तो दूर रहा, घाटी और उसके आसपास के क्षेत्रों से जिस तरह कश्मीरी पंडितों को बेदखल किया गया उससे उनकी पाकिस्तान परस्ती का ही प्रमाण मिलता है।
भारत को यह भी समझना होगा कि समस्या की जड़ में कश्मीर को मिला विशेष राच्य का दर्जा है। यह दर्जा भले ही कश्मीरियों को संतुष्ट करने और उन्हें आजादी की राह पर न जाने देने के नाम पर दिया गया हो, लेकिन हकीकत में यह उन्हें शेष भारत से अलग-थलग करने का कारण बन रहा है। इस विशेष दर्जे के कारण ही अंतरराष्ट्रीय जगत में यह संदेश जाता है कि भारत कश्मीर को अलग नजरिये से देखता है और चूंकि यह विवादित क्षेत्र है इसलिए उसे विशेष राच्य का दर्जा प्रदान किया गया है।
अब अगर भारत जम्मू-कश्मीर के विशेष राच्य के दर्जे को वापस लेने का फैसला करता है तो हो सकता है कि कुछ समय के लिए इसका प्रबल विरोध हो, लेकिन यह तय है कि धीरे-धीरे स्थितियां सुधर जाएंगी। कश्मीर के संदर्भ में नई दिल्ली ने अभी तक जो नीतियां अपनाई हैं वे वहां के लोगों का भारत के पक्ष में मन बदलने में नाकाम सिद्ध हुई हैं। विशेष राच्य के दर्जे का वहां के राजनीतिज्ञों ने ही लाभ उठाया है। वे केंद्र सरकार द्वारा भेजे गए धन का जमकर दुरुपयोग करते हैं और साथ ही जनता के बीच ऐसा संदेश देने की कोशिश करते हैं मानो किसी दूसरे देश ने उनके लिए पैसा भेजा हो। कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को समाप्त करना ही इस राच्य के शेष भारत के साथ सही मायने में एकीकरण के लिए एकमात्र विकल्प है।
चूंकि कश्मीर के कारण ही भारत और पाकिस्तान के रिश्ते सामान्य होने की सूरत नजर नहीं आती इसलिए भारत को पाकिस्तान के प्रति अपना नजरिया बदलने की जरूरत है। कम से कम कूटनीतिक स्तर पर उसके प्रति कभी नरमी और कभी गरमी दिखाने का सिलसिला तो बंद होना ही चाहिए। पाकिस्तान के संदर्भ में व्यक्ति के साथ व्यक्ति के स्तर पर संबंध बढ़ाने की नीति तो ठीक है, लेकिन अन्य स्तरों पर रिश्ते मजबूत करने की पहल पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है। जब भी देश में कोई आतंकी घटना घटती है और उसके तार पाकिस्तान से जुड़े होने के संकेत सामने आते हैं या फिर आतंकियों की घुसपैठ की कोशिशें होती हैं तो दोनों देशों के रिश्तों में फिर कड़वाहट आ जाती है और कुछ समय बाद नए सिरे से संबंध सुधारने की कोशिश की जाती रहती हैं। उतार-चढ़ाव भरे ये रिश्ते द्विपक्षीय संबंधों को किसी नए मुकाम पर नहीं ले जाने वाले। इसका ताजा प्रमाण पाकिस्तान द्वारा भारत के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पारित करना है। भारत ने भी जवाब में ऐसा ही किया, लेकिन क्या इससे पाकिस्तान को कोई सबक मिला होगा? यहां यह भी ध्यान रहे कि मुंबई हमले के बाद पाकिस्तान के साथ सख्ती से पेश आने का जो फैसला किया गया था उस पर टिके नहीं रहा गया। इसका कारण चाहे अंतरराष्ट्रीय दबाव हो या फिर भारत की अपनी कमजोरी, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं कि पाकिस्तान ने मुंबई हमले के गुनहगारों को दंडित करने के लिए अपने स्तर पर कुछ भी नहीं किया। नियंत्रण रेखा पर भारतीय सैनिकों के साथ बर्बरता और फिर हैदराबाद की घटना के बाद भारत ने पाकिस्तान के प्रति फिर से सख्ती के संकेत दिए, लेकिन पाक प्रधानमंत्री की जयपुर यात्रा के दौरान विदेश मंत्री उन्हें दावत देने पहुंच गए। अब श्रीनगर में आतंकी हमले और पाक संसद के निंदा प्रस्ताव के बाद भारत ने फिर कठोर रवैया अपनाया है। इस सिलसिले से भारत की जनता अब आजिज आ गई है। बेहतर यह होगा कि सभी राजनीतिक दलों की एक बैठक बुलाकर कश्मीर और पाकिस्तान के संदर्भ में भारत की नीति नए सिरे से निर्धारित की जाए। यह नीति देश की होनी चाहिए, किसी राजनीतिक दल या सरकार की नहीं और उस पर लंबे समय के लिए अमल भी होना चाहिए।
[लेखक संजय गुप्त, दैनिक जागरण के संपादक हैं]

वाह रे हिंदुस्तान, यहां हिंदू ही बने 'अन्य'

http://www.jagran.com/news/national-indraprastha-university-admission-form-has-no-column-for-hinduhindu-10221233.html
हिंदुस्तान में ही हिंदू अन्य की श्रेणी में आ गए हैं। यह कारनामा गुरु गोविंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय ने किया है।

इनकम टैक्स ट्राइब्यूनल ने कहा, शिव पूजन धार्मिक क्रिया नहीं है

http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/18999268.cms
ट्राब्यूनल ने कहा कि हिन्दुत्व कभी भी कोई धर्म या समुदाय नहीं रहा है। ट्राब्यूनल के मुताबिक, 'इसमें कई सारे समुदाय के लोग अलग-अलग तरीकों से अलग-अलग देवताओं को पूजते हैं। यहां तक कि हिन्दू जीवन शैली में इतनी आजादी है कि भगवान की पूजा करना भी जरूरी नहीं है।

बांग्लादेश में फूंक डाले 47 मंदिर व 700 हिंदुओं के घर

http://www.jagran.com/news/world-hindu-temples-attacked-in-bangladesh-10215337.html
बांग्लादेश में पिछले माह जब से कट्टरपंथी मुस्लिम नेता को युद्ध अपराध के लिए मौत की सजा सुनाई गई तब से मुस्लिम कट्टरपंथियों ने पूरे बांग्लादेश में दर्जनों हिंदू मंदिरों और सैकड़ों घरों पर हमला कर उन्हें जला दिया है।

शहीदों के श्रद्धांजलि सभा से सीएम साहब गायब

http://www.jagran.com/news/national-omar-abdullah-absent-tribute-to-killed-crpf-10215425.html
संसद से लेकर सड़क तक लोगों में श्रीनगर आतंकी हमले को लेकर काफी रोष है। एक तरफ संसद में विपक्ष इस मामले पर सरकार को घेर रहा था तो दूसरी तरफ जम्मू-कश्मीर में इस मामले में सीएम की संवेदनहीनता सामने आयी है।