Sunday, March 17, 2013

मानवाधिकार समर्थकों का सच

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-human-rights-advocates-true-10223897.html

जानी-मानी लेखिका मधु किश्वर ने हाल ही में कहा था कि दुनिया में कहीं भी मानवाधिकार समुदाय इतना समझौतापरस्त और दलीय नहीं है जितना भारत में। भारत के मानवाधिकारवादियों का देश के लोगों से कोई सरोकार नहीं है। उन्हें तो अपने अमेरिकी आकाओं की परवाह है, जहां से पैसा मिलता है। वस्तुत: मानवाधिकार आंदोलन का अपहरण हो चुका है। विविध प्रकार के समूहों ने प्रचार व प्रपंच के सहारे मानवाधिकार का अर्थ ही बदल डाला है। यह सामान्य तथ्य है कि नक्सलियों द्वारा किए जाते अपहरण, फिरौती, हत्याओं पर मानवाधिकारी मौन रहते हैं। मानव वे भी हैं जिनका अपहरण, हत्या होती है, किंतु उनकी निरी उपेक्षा क्या बताती है? उलटे मानवाधिकारी जमात जिहादियों और अलगाववादियों की प्रचारात्मक मदद करती हैं। मानवाअधिकार सिद्धांत और व्यवहार में अपराधी-अधिकार में बदल चुका है। जब भी आतंकवादी हमले होते हैं और निर्दोष जानें जाती हैं, मानवाधिकारों के पैरोकार मौन रहते हैं, किंतु जैसे ही सुरक्षाकर्मियों के हाथों किसी आतंकवादी या संदिग्ध की मृत्यु होती है वे आसमान सिर पर उठा लेते हैं। पहले कहा जाता है कि मृतक निर्दोष था, पर जब किसी मृतक का आतंकवादी, अपराधी होना प्रमाणित भी रहता है जैसे बटला हाउस मुठभेड़ या सोहराबुद्दीन मामले में हुआ तब भी पुलिस पर ही लांछन लगाया जाता है। यानी मानवाधिकार का व्यावहारिक अर्थ हो जाता है-अपराधियों को हर हाल में प्रश्रय और पुलिस पर हर हाल में प्रहार। मुंबई आतंकवादी हमले में पकड़े गए अजमल कसाब के खान-पान और स्वास्थ्य की चिंता, अपहरण दर अपहरण कर रहे माओवादियों पर चुप्पी और अब अफजल गुरु के अवशेष और परिवार को सम्मान देने की चिंता भी वही चीज है।
दूसरी ओर आतंकवादियों से लड़ने वाले सिपाहियों, सैनिकों का पक्ष रखने कम ही लोग आते हैं। जब कहीं आतंकवाद प्रबल होता है तो वहां मीडिया, राजनीतिक दल, न्यायाधीश डरे रहते हैं, किंतु जब आतंकवाद पराजित होता है तब उन कार्रवाइयों में शामिल पुलिस अधिकारियों के पीछे वही मीडिया, न्यायपालक और दल हाथ धोकर पड़ जाते हैं। यह सब मानवाधिकार के नाम पर होता है। 16 वर्ष पहले तरनतारन के पूर्व-पुलिस अधीक्षक अजीत सिंह संधू ने आत्महत्या कर ली थी। तरनतारन एक समय आतंकवाद का भयानक गढ़ था। वहां आतंकवादियों से मुठभेड़ में कई बार संधू ने निर्भीक अगुवाई की थी। भिंडरावाले टाइगर फोर्स के कुख्यात आतंकवादियों से छुटकारा दिलाया था। ऐसे अधिकारी को बाद में यह चिट लिखकर आत्महत्या करनी पड़ी कि ऐसी जलालत की जिंदगी से मर जाना अच्छा है! संधू पर मानवाधिकार उल्लंघन के 43 मामले चल रहे थे। 1989 से 1997 तक एक भी अपराध प्रमाणित नहीं हुआ था, किंतु महीनों से उनका हर दिन कोर्ट का चक्कर लगाते बीतता था।
पंजाब या कश्मीर के आतंकवाद ने 1962, 1965 या 1971 के युद्धों से अधिक जानें ली हैं, इसलिए आतंकवाद को सामान्य अपराध समझना और आतंकवादियों व उनके सहयोगियों को नागरिक कानूनों की सुरक्षा देना आत्मघाती भूल है। उनके पैरोकारों की कथनी-करनी से भी स्पष्ट है कि वे भारत-विखंडन की राजनीति में लगे हैं। उनके लिए यही मानवाधिकार है! सैनिकों को जिस राष्ट्रीय झंडे के सम्मान के लिए जान देने के लिए तैयार किया जाता है उसी को अरुंधती राय 'कपड़े का टुकड़ा' कहती हैं 'जो मुदरें को ढकने के काम आता है।' इस प्रकार, मानवाधिकार देश की रक्षा करने वाली सेना का मजाक उड़ाने और इस प्रकार देश को तोड़ने की पैरोकारी का नाम हो जाता है। आतंकवाद से लड़ना अघोषित युद्ध है। उससे हिचकिचाते हुए लड़ने का अर्थ है पराजय को आमंत्रण देना। हमारे मानवाधिकारवादी इसी काम में लगे हैं। यह संयोग नहीं कि सुरक्षा बलों के हाथों हुई ऊंच-नीच पर जो लोग आसमान सिर पर उठा लेते हैं वे कभी जिहादियों या नक्सलवादियों की हिंसा पर मुंह नहीं खोलते। लश्करे-तैयबा, हिज्बुल-मुजाहिदीन, जैशे-मुहम्मद, पीपुल्स-वार, एमसीसी, इंडियन मुजाहिदीन जैसे संगठनों ने घोषित रूप से हजारों निर्दोष, निहत्थे लोगों को मारा है, किंतु उन हत्याओं पर मानवाधिकारवादी न कभी प्रदर्शनी लगाता है, न गोष्ठी करता है, न गुहार लगाता है। इसीलिए सुरक्षा बलों की कथित ज्यादतियों पर आरोपों की झड़ी कभी खत्म नहीं होती। जम्मू-कश्मीर सरकार ने जनवरी 1992 से सितंबर 1996 के बीच सुरक्षा बलों के विरुद्ध ऐसी कुल 2600 शिकायतों की जांच की थी। उसने पाया कि उनमें 2288 मामले निराधार थे।
अवकाश प्राप्त ले. जनरल बीटी पंडित के खिलाफ उस दौरान कुल 184 रिट याचिकाएं दायर की गई थीं। डेढ़ साल बाद उनके रिटायरमेंट तक उनमें से 175 याचिकाओं को हाई कोर्ट ने निराधार पाया था। इनमें से अधिकांश मुकदमे सुरक्षा बलों का मनोबल तोड़ने के लिए ही किए गए थे। आज भी वही हो रहा है। झूठे आरोपों, उनसे उपजे मुकदमों के जंजाल से सुरक्षाकर्मियों की भी तो रक्षा होनी चाहिए! नहीं तो विदेशी धन और भारत-विरोधी भावना से चलने वाले संगठन और मानवाधिकारवादी देश का मनोबल तोड़ कर रख देंगे। मानवाधिकारवादी जिहादियों, नक्सलियों को दूसरे मनुष्यों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण और विशेषाधिकारी बताते हैं। ऐसे मानवाधिकारियों की शब्दावली और प्रस्ताव वही होते हैं जो उन्हें अनुदान देने वाली विदेशी संस्थाओं के हैं। अफजल-कसाब प्रसंगों के बाद हमारे मानवाधिकारवादियों की असलियत स्पष्ट हो जानी चाहिए थी। भारत के विरुद्ध युद्ध छेड़ने वालों का बचाव करना ही उनका मुख्य काम है। इन्होंने मानवाधिकारी मुकदमेबाजी को ऐसी कला में बदल लिया है जो आतंकवादियों को प्रोत्साहित करती है।
[लेखक एस. शंकर, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]

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