Saturday, April 19, 2008

आतंक पर अधूरी पहल

आतंकवाद के खिलाफ मुस्लिम विद्वानों की पहल को अपर्याप्त मान रहे हैं राजनाथ सिंह सूर्य
देवबंद के बाद कुछ अन्य शहरों मे भीं इस्लामिक विद्वान, सामाजिक कार्यकर्तां और विचारक आतंकवाद के मुद्दे पर चर्चा कर रहे हैं और इससे संबंधित कतिपय सवालों के जवाब खोजने की चेष्टा कर रहे हैं। ऐसी ही एक चेष्टा पिछले दिनों बरेली में भी हुई। यहां यह ध्यान रहे कि जेहादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद के संस्थापक मौलाना मसूद अजहर और लश्कर-ए-तोयबा के जन्मदाता सैयद हाफिज सईद देवबंद के दारुल उलूम की शिक्षाओं से ही शिक्षित हुए हैं। इस लिहाज से यह सुखद आश्चर्य का विषय है कि दारुल उलूम परिसर में आतंकवाद के विरुद्ध पहल की शुरुआत हुई। दारुल उलूम देवबंद का स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान रहा है तथा कांग्रेस से उसके संचालकों का जुड़ाव उसके राष्ट्रवादी स्वरूप का संज्ञान कराता रहा है, किंतु शनै:-शनै: उसकी पहचान में बदलाव होता गया। पाकिस्तान ने भारत के साथ प्रत्यक्ष युद्ध में बार-बार शिकस्त खाने के बाद उसी इस्लामी आतंकवाद को हथियार बनाया जिसने अफगानिस्तान में रूढि़वादिता की पराकाष्ठा का आग्रह कर पहले रूस को पस्त किया और अब अमेरिका को नाकों चने चबवा रहा है। अमेरिका और पाकिस्तान ने जिस आतंकवाद को पाल-पोसकर पुष्ट किया वही अब इनका सबसे बड़ा शिकार बन गए हैं। भारत में गृह युद्ध फैलाने की नीयत से पाकिस्तान ने जो दस्ते तैयार किए उनके कृत्यों का ज्यों-ज्यों पर्दाफाश होने लगा त्यों-त्यों मुस्लिम समुदाय को समझ में आने लगा कि उन्हें जिस राह पर ले जाया जा रहा है वह कांटों से भरी है। स्वयं दारुल उलूम संदेह के घेरे में आ गया था तथा मदरसा शिक्षा पर प्रश्नचिह्न लगने लगा था। इसलिए मुसलमानों में यह सोच पैदा होना स्वाभाविक ही है कि आतंकी घटनाओं को अंजाम देने वाले मुट्ठी भर लोगों के कारण संपूर्ण मुस्लिम समुदाय तथा मजहबी और शिक्षा संस्थाओं पर संदेह के जो बादल छा गए हैं उनका छंटना जरूरी है। इसी घोषित उद्देश्य से अखिल भारतीय मदरसा इस्लामिया ने आतंक विरोधी सम्मेलन का आयोजन किया। प्रतिनिधियों को अधिक से अधिक संख्या में बुलाने के साथ-साथ सम्मेलन को अधिकाधिक प्रचारित करने के लिए बड़ी संख्या में पत्रकारों और टीवी चैनलों को भी आमंत्रित किया गया। सम्मेलन में करीब पचास लोगों ने भाषण दिए। इस भाषणबाजी से जो संदेश गया वह सम्मेलन के घोषित उद्देश्य के ठीक विपरीत था। सम्मेलन में कहा गया कि आतंकवाद विरोधी जांच के नाम पर निर्दोष मुस्लिम युवकों को परेशान किया जा रहा है। यह मांग भी उठाई गई कि जांच करने वाले सरकारी अधिकारियों को दंडित किया जाए। इन मांगों से वह प्रस्ताव बेमानी हो जाता है जिसमें कहा गया है कि इस्लाम शांतिप्रिय मजहब है और हिंसा व दहशतगर्दी में उसका विश्वास नहीं है। सम्मेलन में एक बार भी दहशतगर्दो से दूर रहने की अपील नहीं की गई। मैं यहां सम्मेलन में की गई अभिव्यक्तियों और मंसूबों के विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं समझता, लेकिन सम्मेलन के तत्काल बाद आतंकवादी घटनाओं के आरोप में निरुद्ध लोगों की पैरवी करने के लिए मुस्लिम लायर्स फोरम गठित करने के फैसले को नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता। उत्तर प्रदेश के विभिन्न स्थलों पर विस्फोट को अंजाम देने के आरोप में जो लोग पकड़े गए हैं उनकी पैरवी में खड़े न होने का फैसला बार एसोसिएशन ने किया है। मुस्लिम वकील भी इस बार के सदस्य हैं। तो क्या अब विधिवक्ताओं का सांप्रदायिक संगठन खड़ा होगा? यदि इस संदर्भ में मुंबई ट्रेन विस्फोटकों और संसद पर हमला करने वालों की पैरवी करने वाले वकीलों को मिलने वाली भारी-भरकम राशि की बात की जाए तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इतनी बड़ी रकम कहां से आती है? हाल ही में आतंकवादी घटनाओं से जुड़े सिमी संगठन के लोग गिरफ्तार किए गए हैं। मुस्लिम संगठन उनके बारे में मौन क्यों हैं? वैसे दारुल उलूम का सम्मेलन सभी मुस्लिम समुदायों के प्रतिनिधियों का सम्मेलन भी नहीं था। बरेलवी संप्रदाय का एक भी प्रतिनिधि इस सम्मेलन में शामिल नहीं हुआ। दारुल उलूम और जमायत-उल-उलेमा ही सम्मेलन में छाए रहे। सम्मेलन के आयोजन में मुख्य भूमिका राज्यसभा सदस्य मौलाना महमूद मदनी ने निभाई, जो राष्ट्रीय लोकदल से संबद्ध हैं। इस आयोजन के पीछे उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का खुलासा होना अभी बाकी है। कुछ संस्थाओं के एकाध प्रतिनिधि व्यक्तिगत रूप से अवश्य उपस्थित रहे। इनमें अहले-हदीस, जमात-ए-इस्लामी, फिरंगी महल, आल इंडिया दिल्ली काउंसिल और मुस्लिम पर्सनल ला का नाम गिनाया जा सकता है। यह सम्मेलन मुसलमानों को आतंकवादी गतिविधियों से अलग करने में कितना सफल होगा, यह कहना तो कठिन है, लेकिन संसद में बजट पेश होने से ठीक पहले इस सम्मेलन में व्यक्त तीखे भावों से तथाकथित सेकुलर दलों के सामने वोट बैंक खिसकने का खतरा मंडराता जरूर दिखाई पड़ रहा है। आम बजट में सांप्रदायिक आधार पर प्रावधान करने के बावजूद इन दलों को मुस्लिमों के मत अपने पाले में लाने के लिए अब और उपाय करने की जरूरत महसूस हो रही है। ये उपाय क्या होंगे, इसका खुलासा नहीं हो रहा है। आतंकवादी गतिविधियों में संलिप्त लोगों की पैरवी करने के लिए मुस्लिम लायर्स फोरम गठित करने के संकल्प पर सेकुलर खेमा वैसे ही खामोश है जिस प्रकार संसद पर हमले के आरोपी अफजल की फांसी पर कुछ नहीं कहा जा रहा। जो लोग यह सोच रहे हैं कि चुनाव के बाद पाकिस्तान भारत में आतंक फैलाना बंद कर देगा वे गलतफहमी के शिकार हैं। जिन दिनों देवबंद में सम्मेलन और मुस्लिम लायर्स फोरम गठित होने का समाचार प्रकाशित हुआ उन्हीं दिनों यह समाचार भी आया कि वैध तरीके से वीजा लेकर भारत में आने वाले 1335 पाकिस्तानी उत्तर प्रदेश के विभिन्न शहरों में गुम हो गए हैं। जिन शहरों में इनके गुम होने की सूचना दी गई है उनमें जेहादी इस्लामी संगठन अपना जाल बिछा चुके हैं। ऐसे शहरों की संख्या 37 बताई गई है। वैध रूप से भारत आए ये पाकिस्तानी कहां गुम हो गए? किन लोगों ने इनको गुम करने में मदद की है और वे कौन लोग हैं जो अवैध तरीके से नेपाल या बांग्लादेश के रास्ते आकर विस्फोटों को अंजाम दे रहे हैं? वे कौन हैं जो व्यावसायिक और तकनीकी उच्च शिक्षा प्राप्त करने वालों को भी आतंकी बना रहे हैं? इन सब के बारे में विचार करने और संपूर्ण मुस्लिम समुदाय को उनके नापाक इरादों के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास करने के बजाय केवल बयानबाजी करने से वांछित परिणाम नहीं हासिल किया जा सकता। पृथकता की सोच पनपाने वाले लोग भले ही अपने को पंथनिरपेक्ष कहते हों, पर वास्तव में वे मुस्लिम समुदाय की सांप्रदायिक आधार पर अलग पहचान बनाए रखने के निहित स्वार्थ में लगे हुए हैं। मुस्लिम समुदाय को उनके मंसूबों को समझने की जरूरत है। जरूरत है एक देश, एक जन की भावना की। इस भावना से परिपूर्ण विविधता में एकता को भारत की अस्मिता के साथ जोड़ना होगा। जब तक ऐसी जागरूकता नहीं होगी तब तक आतंकवाद के संदर्भ में उठने वाला संदेह समाप्त होने के स्थान पर और अधिक मजबूत होता रहेगा। (लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं) दैनिक जागरण, April 17, Thursday , 2008

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