http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-eagerly-plotting-votes-10449248.html
कट्टरवाद के तुष्टीकरण की होड़ में उत्तर प्रदेश की सरकार आतंकी गतिविधियों में लिप्त होने के आरोपियों की रिहाई के लिए बेचैन है। वस्तुत: पिछले साल विधानसभा चुनावों के दौरान ही सेक्युलर दलों में मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने के लिए होड़ लगी थी। राज्य सरकार की बेताबी चुनाव के दौरान किए गए वादों को पूरा करने का प्रयास है। सत्ता हासिल करने के कुछ समय बाद ही सरकार ने 2006 के वाराणसी बम धमाके के आरोपी वलीउल्लाह और शमीम को रिहा करने का निर्णय किया था। सरकार के इस निर्णय को अदालत में चुनौती दी गई थी, जिस पर फैसला सुनाते हुए अदालत को कड़वी टिप्पणी के लिए बाध्य होना पड़ा। न्यायाधीश आरके अग्रवाल और आरएसआर मौर्य की पीठ ने तब कहा था, आज आप उन पर से मुकदमा हटाना चाहते हैं, कल क्या उन्हें पद्म भूषण देंगे? किंतु सरकार इस फटकार से जरा भी विचलित नहीं है।
उत्तार प्रदेश सरकार कचहरी ब्लास्ट केस में गिरफ्तार मोहम्मद खालिद मुजाहिद और तारिक कासमी पर दर्ज मुकदमे वापस लेने का मन बना चुकी थी। खालिद की कोर्ट पेशी के दौरान मृत्यु हो चुकी है। सरकार ने उसके परिजनों को छह लाख रुपये मुआवजा देने की घोषणा की है। एक आरोपी आतंकी के लिए इतनी उदारता क्यों? आतंकियों के हाथों मारे जाने वाले सुरक्षा जवानों या नागरिकों के लिए सरकार ऐसी ही चिंता क्यों नहीं करती? कट्टरपंथियों का आरोप है कि इन दोनों को एसटीएफ ने फर्जी तरीके से गिरफ्तार किया था। इस शिकायत की जांच के लिए बाकायदा आरडी निमेश कमीशन का गठन किया गया था। कमीशन की रिपोर्ट में कहा गया है, 'खालिद मुजाहिद और कासमी की बाराबंकी में 22 दिसंबर, 2007 को हुई गिरफ्तारी संदिग्ध लगती है। इस गिरफ्तारी को लेकर दिए गए बयान व गवाहों पर विश्वास नहीं किया जा सकता।'
वास्तविकता क्या है? 22 दिसंबर, 2006 को दिल्ली क्त्राइम ब्रांच और आइबी ने हुजी कमांडर व डोडा, जम्मू-कश्मीर के निवासी मोहम्मद अमीन बानी को गिरफ्तार किया था। पूछताछ में बानी ने ही इन दोनों आतंकियों का खुलासा किया था। उसने बताया कि 28 नवंबर, 2006 को वह खालिद मुजाहिद से मिलने जौनपुर गया था, जहां उसकी मुलाकात आजमगढ़ के तारिक कासमी से हुई। दोनों ने कश्मीर में चल रहे आंदोलन में सक्त्रिय सहयोग के लिए हामी भरी थी। खालिद मुजाहिद तो 2004 से ही हुजी कमांडरों के संपर्क में था। हवाला के साढ़े चार लाख रुपयों के साथ गिरफ्तार बानी ने पूछताछ में बताया था कि इस रकम से हुजी के लिए असलहे व अन्य संसाधन जुटाने थे। उसने बताया कि जौनपुर निवासी मोहम्मद खालिद ने उल्फा के लोगों से असलहे खरीदने के लिए हुजी से रकम जुटाने को कहा था। बानी इसी रकम को लेने के लिए दिल्ली आया था। मोहम्मद खालिद मुजाहिद और तारिक कासमी की गिरफ्तारी से एक साल पूर्व ही खुद हुजी के कमांडर ने उनके आतंकी गतिविधियों में संलग्न होने का खुलासा कर दिया था। ऐसे में इन दोनों आतंकियों को बेगुनाह कैसे बताया जा रहा है?
जिन युवकों पर आतंकवाद में शामिल होने का आरोप है, उन्हें सेक्युलर दल न केवल अपनी ओर से 'क्लीन चिट' थमा रहे हैं, बल्कि भारत की न्यायिक व्यवस्था को दुनिया की नजरों में कलंकित करने का भी कुप्रयास कर रहे हैं। यह कैसी मानसिकता है? अभी कुछ समय पूर्व सेक्युलर दलों के नेताओं ने प्रधानमंत्री से मिलकर जेलों में बंद कथित निर्दोष मुसलमानों को रिहा करने की अपील की थी। इस देश की न्याय व्यवस्था को कलंकित करने का प्रयास करने वाले सेक्युलरिस्टों को अजमल कसाब का दृष्टांत सामने रखना चाहिए। ज्वलंत साक्ष्यों और सैकड़ों प्रत्यक्षदर्शियों की गवाही के बावजूद कसाब को दंडित करने में न्यायपालिका को चार साल लग गए। इस लंबी न्यायिक प्रक्त्रिया में कसाब को अपना पक्ष रखने का पर्याप्त अवसर भी दिया गया।
इस तरह की क्षुद्र राजनीति से जहां एक ओर आतंकवाद को प्रोत्साहन मिलता है वहीं सुरक्षा बलों का मनोबल भी टूटता है। वस्तुत: यह विकृत मानसिकता वोट बैंक की सेक्युलर राजनीति से प्रेरित है। इसी मानसिकता के कारण देश की संप्रभुता के प्रतीक संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु की फांसी की सजा लंबे समय तक अधर में लटकाए रखी गई। कश्मीर के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद ने पत्र लिखकर केंद्र सरकार को चेतावनी दी थी कि अफजल को फांसी देने से कानून एवं व्यवस्था बिगड़ने का खतरा है तो वर्तमान मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला घाटी में फिर से आतंकवाद के जिंदा होने की धमकी देते रहे। क्या सेक्युलर नेताओं का यह रवैया मुसलमानों के राष्ट्रप्रेम पर प्रश्न नहीं लगाता? क्या तथाकथित सेक्युलर दल यह मानकर चलते हैं कि भारत के साधारण मुसलमान की सहानुभूति भारत के साथ न होकर आतंकियों के साथ है? क्या यह धारणा भारत के आम मुसलमानों के साथ अन्याय नहीं है? कांग्रेसनीत संप्रग सरकार ने सत्ता में आते ही राजग सरकार द्वारा लागू पोटा को निरस्त कर दिया था। सेक्युलरवादियों का आरोप था कि सांप्रदायिक भाजपा ने मुसलमानों को प्रताड़ित करने के लिए पोटा जैसा कानून बनाया था। आतंकवाद से निपटने के लिए कड़े कानून नहीं होने का परिणाम है कि आज कश्मीर से कन्याकुमारी तक इस्लामी चरमपंथियों के हौसले बुलंद हैं। इस देश की जांच एजेंसियों या पुलिस पर मुस्लिम समाज के उत्पीड़न का आरोप समझ से परे है। न तो पुलिस और न ही सरकार ने आतंकवाद को लेकर मुस्लिम समुदाय को कठघरे में खड़ा किया है। अभी हाल में दिल्ली के बाटला हाउस मुठभेड़ में सेक्युलरिस्टों ने आतंकियों के हाथों शहीद हुए जवानों की अनदेखी कर इस मुठभेड़ को फर्जी साबित करने की कोशिश की थी। मुसलमानों को अपने समुदाय में छिपे उन भेड़ियों की तलाश करनी चाहिए जो दहशतगदरें को पनाह देते हैं। मुंबई पर इतना बड़ा आतंकी हमला हुआ, क्या वह सीमा पार कर अचानक घुस आए जिहादियों के द्वारा संभव था?
मुस्लिम कट्टरपंथियों के साथ कांग्रेस व उसके सेक्युलर संगियों का गठजोड़ नया नहीं है। शाहबानो से लेकर अब्दुल नसीर मदनी तक सेक्युलर विकृतियां सभ्य समाज के लिए गंभीर खतरा हैं। कोयंबटूर बम धमाके के आरोपी मदनी को पैरोल पर रिहा करने के लिए कांग्रेस और मार्क्सवादियों ने होली की छुट्टी वाले दिन सदन का विशेष सत्र आयोजित कर सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया था। अभी मदनी कर्नाटक पुलिस की गिरफ्त में है। केरल में उसका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए कांग्रेस और मार्क्सवादियों में होड़ लगी रहती है। आज यदि सेक्युलर दल आतंकवाद के आरोप में जेलों में बंद मुस्लिम युवाओं से सहानुभूति प्रकट कर रहे हैं तो आश्चर्य कैसा?
[लेखक बलबीर पुंज, राज्यसभा सदस्य हैं]
कट्टरवाद के तुष्टीकरण की होड़ में उत्तर प्रदेश की सरकार आतंकी गतिविधियों में लिप्त होने के आरोपियों की रिहाई के लिए बेचैन है। वस्तुत: पिछले साल विधानसभा चुनावों के दौरान ही सेक्युलर दलों में मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने के लिए होड़ लगी थी। राज्य सरकार की बेताबी चुनाव के दौरान किए गए वादों को पूरा करने का प्रयास है। सत्ता हासिल करने के कुछ समय बाद ही सरकार ने 2006 के वाराणसी बम धमाके के आरोपी वलीउल्लाह और शमीम को रिहा करने का निर्णय किया था। सरकार के इस निर्णय को अदालत में चुनौती दी गई थी, जिस पर फैसला सुनाते हुए अदालत को कड़वी टिप्पणी के लिए बाध्य होना पड़ा। न्यायाधीश आरके अग्रवाल और आरएसआर मौर्य की पीठ ने तब कहा था, आज आप उन पर से मुकदमा हटाना चाहते हैं, कल क्या उन्हें पद्म भूषण देंगे? किंतु सरकार इस फटकार से जरा भी विचलित नहीं है।
उत्तार प्रदेश सरकार कचहरी ब्लास्ट केस में गिरफ्तार मोहम्मद खालिद मुजाहिद और तारिक कासमी पर दर्ज मुकदमे वापस लेने का मन बना चुकी थी। खालिद की कोर्ट पेशी के दौरान मृत्यु हो चुकी है। सरकार ने उसके परिजनों को छह लाख रुपये मुआवजा देने की घोषणा की है। एक आरोपी आतंकी के लिए इतनी उदारता क्यों? आतंकियों के हाथों मारे जाने वाले सुरक्षा जवानों या नागरिकों के लिए सरकार ऐसी ही चिंता क्यों नहीं करती? कट्टरपंथियों का आरोप है कि इन दोनों को एसटीएफ ने फर्जी तरीके से गिरफ्तार किया था। इस शिकायत की जांच के लिए बाकायदा आरडी निमेश कमीशन का गठन किया गया था। कमीशन की रिपोर्ट में कहा गया है, 'खालिद मुजाहिद और कासमी की बाराबंकी में 22 दिसंबर, 2007 को हुई गिरफ्तारी संदिग्ध लगती है। इस गिरफ्तारी को लेकर दिए गए बयान व गवाहों पर विश्वास नहीं किया जा सकता।'
वास्तविकता क्या है? 22 दिसंबर, 2006 को दिल्ली क्त्राइम ब्रांच और आइबी ने हुजी कमांडर व डोडा, जम्मू-कश्मीर के निवासी मोहम्मद अमीन बानी को गिरफ्तार किया था। पूछताछ में बानी ने ही इन दोनों आतंकियों का खुलासा किया था। उसने बताया कि 28 नवंबर, 2006 को वह खालिद मुजाहिद से मिलने जौनपुर गया था, जहां उसकी मुलाकात आजमगढ़ के तारिक कासमी से हुई। दोनों ने कश्मीर में चल रहे आंदोलन में सक्त्रिय सहयोग के लिए हामी भरी थी। खालिद मुजाहिद तो 2004 से ही हुजी कमांडरों के संपर्क में था। हवाला के साढ़े चार लाख रुपयों के साथ गिरफ्तार बानी ने पूछताछ में बताया था कि इस रकम से हुजी के लिए असलहे व अन्य संसाधन जुटाने थे। उसने बताया कि जौनपुर निवासी मोहम्मद खालिद ने उल्फा के लोगों से असलहे खरीदने के लिए हुजी से रकम जुटाने को कहा था। बानी इसी रकम को लेने के लिए दिल्ली आया था। मोहम्मद खालिद मुजाहिद और तारिक कासमी की गिरफ्तारी से एक साल पूर्व ही खुद हुजी के कमांडर ने उनके आतंकी गतिविधियों में संलग्न होने का खुलासा कर दिया था। ऐसे में इन दोनों आतंकियों को बेगुनाह कैसे बताया जा रहा है?
जिन युवकों पर आतंकवाद में शामिल होने का आरोप है, उन्हें सेक्युलर दल न केवल अपनी ओर से 'क्लीन चिट' थमा रहे हैं, बल्कि भारत की न्यायिक व्यवस्था को दुनिया की नजरों में कलंकित करने का भी कुप्रयास कर रहे हैं। यह कैसी मानसिकता है? अभी कुछ समय पूर्व सेक्युलर दलों के नेताओं ने प्रधानमंत्री से मिलकर जेलों में बंद कथित निर्दोष मुसलमानों को रिहा करने की अपील की थी। इस देश की न्याय व्यवस्था को कलंकित करने का प्रयास करने वाले सेक्युलरिस्टों को अजमल कसाब का दृष्टांत सामने रखना चाहिए। ज्वलंत साक्ष्यों और सैकड़ों प्रत्यक्षदर्शियों की गवाही के बावजूद कसाब को दंडित करने में न्यायपालिका को चार साल लग गए। इस लंबी न्यायिक प्रक्त्रिया में कसाब को अपना पक्ष रखने का पर्याप्त अवसर भी दिया गया।
इस तरह की क्षुद्र राजनीति से जहां एक ओर आतंकवाद को प्रोत्साहन मिलता है वहीं सुरक्षा बलों का मनोबल भी टूटता है। वस्तुत: यह विकृत मानसिकता वोट बैंक की सेक्युलर राजनीति से प्रेरित है। इसी मानसिकता के कारण देश की संप्रभुता के प्रतीक संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु की फांसी की सजा लंबे समय तक अधर में लटकाए रखी गई। कश्मीर के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद ने पत्र लिखकर केंद्र सरकार को चेतावनी दी थी कि अफजल को फांसी देने से कानून एवं व्यवस्था बिगड़ने का खतरा है तो वर्तमान मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला घाटी में फिर से आतंकवाद के जिंदा होने की धमकी देते रहे। क्या सेक्युलर नेताओं का यह रवैया मुसलमानों के राष्ट्रप्रेम पर प्रश्न नहीं लगाता? क्या तथाकथित सेक्युलर दल यह मानकर चलते हैं कि भारत के साधारण मुसलमान की सहानुभूति भारत के साथ न होकर आतंकियों के साथ है? क्या यह धारणा भारत के आम मुसलमानों के साथ अन्याय नहीं है? कांग्रेसनीत संप्रग सरकार ने सत्ता में आते ही राजग सरकार द्वारा लागू पोटा को निरस्त कर दिया था। सेक्युलरवादियों का आरोप था कि सांप्रदायिक भाजपा ने मुसलमानों को प्रताड़ित करने के लिए पोटा जैसा कानून बनाया था। आतंकवाद से निपटने के लिए कड़े कानून नहीं होने का परिणाम है कि आज कश्मीर से कन्याकुमारी तक इस्लामी चरमपंथियों के हौसले बुलंद हैं। इस देश की जांच एजेंसियों या पुलिस पर मुस्लिम समाज के उत्पीड़न का आरोप समझ से परे है। न तो पुलिस और न ही सरकार ने आतंकवाद को लेकर मुस्लिम समुदाय को कठघरे में खड़ा किया है। अभी हाल में दिल्ली के बाटला हाउस मुठभेड़ में सेक्युलरिस्टों ने आतंकियों के हाथों शहीद हुए जवानों की अनदेखी कर इस मुठभेड़ को फर्जी साबित करने की कोशिश की थी। मुसलमानों को अपने समुदाय में छिपे उन भेड़ियों की तलाश करनी चाहिए जो दहशतगदरें को पनाह देते हैं। मुंबई पर इतना बड़ा आतंकी हमला हुआ, क्या वह सीमा पार कर अचानक घुस आए जिहादियों के द्वारा संभव था?
मुस्लिम कट्टरपंथियों के साथ कांग्रेस व उसके सेक्युलर संगियों का गठजोड़ नया नहीं है। शाहबानो से लेकर अब्दुल नसीर मदनी तक सेक्युलर विकृतियां सभ्य समाज के लिए गंभीर खतरा हैं। कोयंबटूर बम धमाके के आरोपी मदनी को पैरोल पर रिहा करने के लिए कांग्रेस और मार्क्सवादियों ने होली की छुट्टी वाले दिन सदन का विशेष सत्र आयोजित कर सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया था। अभी मदनी कर्नाटक पुलिस की गिरफ्त में है। केरल में उसका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए कांग्रेस और मार्क्सवादियों में होड़ लगी रहती है। आज यदि सेक्युलर दल आतंकवाद के आरोप में जेलों में बंद मुस्लिम युवाओं से सहानुभूति प्रकट कर रहे हैं तो आश्चर्य कैसा?
[लेखक बलबीर पुंज, राज्यसभा सदस्य हैं]
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