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चार साल पूर्व 26 नवंबर को मुंबई की सड़कों पर निरपराधों की लाशें बिछाने वाले आतंकियों में से एकमात्र जिंदा पकड़े गए अजमल कसाब को अंतत: फासी दे दी गई। कई विश्लेषकों ने इसे आतंक के एक अध्याय की समाप्ति की संज्ञा दी है। क्या यह उम्मीद सार्थक है? वास्तविकता तो यह है कि जिहाद की बुनियादी सच्चाइयों की अनदेखी कर आतंकवाद के खत्म होने की आशा करना बेमानी होने के साथ सभ्य समाज के प्रति बेईमानी भी है। कसाब को फासी दिए जाने के 24 घटों के अंदर ही कई इस्लामी आतंकी संगठनों ने भारतीयों को निशाना बनाकर बदला लेने की धमकी दी। ऐसा नहीं है कि इस्लामी कट्टरपंथियों के लिए केवल भारत और हिंदू ही दुश्मन हैं। अभी पाकिस्तान में मुहर्रम के जुलुस में शामिल शियाओं पर बहुसंख्यक सुन्नियों ने हमला कर दिया, जिसमें दर्जनों लोगों की जानें गई। ईरान में शिया बहुसंख्यक हैं। वहा सुन्नी शियाओं के निशाने पर रहते हैं। इराक में करीब हर रोज अल्पसंख्यक सुन्नियों पर बहुसंख्यक शियाओं के बम फटते हैं। इस्लाम को ही मानने वाले दो संप्रदायों के बीच यह टकराव क्यों? और उस हिंसा की प्रेरणा क्या है?
इस संदर्भ में पिछले दिनों एक अंग्रेजी दैनिक में प्रकाशित लेख में कहा गया है कि पाकिस्तान जैसे मुस्लिम बहुल राष्ट्र का बुनियादी पहलू यह है कि वहा न केवल अल्पसंख्यक समुदाय, बल्कि स्वयं इस्लाम में जो बहुसंख्यक नहीं हैं, वे भी इस्लामी व्यवस्था के स्थायी शिकार हैं। अल्पसंख्यकों की आबादी को नगण्य करने के बाद मुसलमान अब अपने ही मजहब के अल्पसंख्यक संप्रदाय से हिसाब चुकता कर रहे हैं। उन्होंने लिखा है, सन 2000 के बाद से अब तक उपमहाद्वीप में मजहबी हिंसा में हिंदुओं की अपेक्षा अपने ही मुस्लिम भाइयों के हाथों मरने वाले मुसलमानों की संख्या दस गुनी अधिक है। इसके साथ ही लेखक ने एक ऐतिहासिक सच को भी उठाया है। उन्होंने लिखा है, हिंदू बहुसंख्या के अधीन हिंदू खुशहाल हैं, किंतु सच्चाई यह है कि हिंदू बहुसंख्या के अधीन मुसलमान भी उतने ही खुशहाल हैं, क्योंकि इसके कारण इस्लाम के अंतर्गत होने वाले फसादों से संरक्षा मिल जाती है। देश विभाजन के बाद भारत में मुसलमानों की आबादी बढ़कर जहा 15 प्रतिशत हुई है वहीं पाकिस्तान में हिंदुओं की आबादी 20 प्रतिशत से घटकर आज एक प्रतिशत से कम रह गई है। सुन्नी बहुल कश्मीर घाटी को छोड़ दें तो शेष भारत में अल्पसंख्यक शिया बहुसंख्यक सुन्नियों के हमले से सुरक्षित हैं। अहमदिया, बोहरा आदि मुसलमानों के अन्य समुदाय भी हिंदू बहुल भारत में बराबरी के अधिकार से फल-फूल रहे हैं।
लेखक ने पाकिस्तान के संदर्भ में एक हास्यास्पद, किंतु इस्लामी जगत के लिए मनन करने योग्य घटना का उल्लेख किया है। पाकिस्तान के पंजाब सूबे के वित्तमंत्री राणा आसिफ महमूद ईसाई हैं। उनके पिता राणा ताज महमूद भी ईसाई थे। कुछ महीने पहले किसी ने गलती से राष्ट्रीय पंजीकरण में आसिफ महमूद का धर्म इस्लाम दर्ज कर दिया। अब महमूद इसे बदल नहीं सकते, क्योंकि इस्लाम त्यागने पर वहा मौत की सजा तय है। किसी की गलती से भी मुसलमान बन गए तो आजीवन मुसलमान रहेंगे, यह कोई फतवा नहीं है, बल्कि पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी का आदेश है। यह स्थापित सत्य है कि जहा कहीं भी मुसलमान अल्पसंख्या में होते हैं वे सेक्युलर व्यवस्था पर गहरी आस्था प्रकट करते हैं, किंतु जहा कहीं भी वे बहुसंख्या में हैं, सेक्युलरवाद एक गाली है। पाकिस्तान ही क्यों, अमरनाथ यात्रा और कश्मीरी पंडितों को लेकर कश्मीर घाटी के घटनाक्रम इस कटु सत्य को ही रेखाकित करते हैं। पाकिस्तानी आवाम में भारत विरोधी भावना अविभाजित भारत के मुसलमानों की मानसिकता की ही तार्किक परिणति है। तब मुसलमानों को यह आशका थी कि ब्रितानियों के जाने के बाद उन्हें काफिर हिंदुओं के साथ बराबरी के स्तर पर रहना होगा। जिन लोगों को रोज यही सब सिखाया जाता हो कि इस्लाम ही एकमात्र सच्चा व अंतिम पंथ है, उन्हें बहुलतावादी सनातनी संस्कृति वाले भारत के प्रति जिहाद के लिए उकसाना कठिन नहीं है। उन्हें जानबूझकर इतिहास के उस पक्ष से परिचित नहीं कराया जाता, जब ब्रिटिश उपनिवेश से पहले भारत की अधिकाश रियासतों में अल्पसंख्यक मत व पंथों को बराबरी के अधिकार से पल्लवित-पुष्पित होने का अवसर प्राप्त था।
सवाल है कि क्या पाकिस्तानी सेना कट्टरपंथियों से साठगाठ कर वहा के आवाम को भारत व हिंदू विरोध के लिए भड़काती है? वास्तविकता तो यह है कि पाकिस्तानी जेहन में मौजूद हिंदू विरोधी मानसिकता का वहा की सेना दोहन करने के साथ उसे प्रोत्साहित भी करती है। अभी कुछ समय पूर्व पाकिस्तानी पंजाब सूबे के गवर्नर सलमान तसीर की उनके ही अंगरक्षक ने हत्या कर दी थी। उस हत्यारे को वहा की आवाम ने हीरो बताया, उसके ऊपर फूल बरसाए गए, जबकि हत्यारे को सजा सुनाने वाले न्यायाधीश को पिछले दरवाजे से भागकर अपनी जान बचानी पड़ी। सलमान तसीर का कसूर इतना था कि उन्होंने ईशनिंदा कानून में बंद एक ईसाई महिला से मिलने की गलती और ईशनिंदा कानून में बदलाव लाने की वकालत की थी। ऐसी मानसिकता के रहते जिहादी फैक्ट्रियों के बंद होने की उम्मीद व्यर्थ है।
2010 में पाकिस्तानी फिल्म निर्मात्री शरमीन ओबैद को उनकी फिल्म दि चिल्ड्रेन ऑफ तालिबान के लिए एमी अवॉर्ड मिला था। इसमें बताया गया था कि किस तरह जिहादी संगठन फिदायीन तैयार करते हैं। जैशे-मोहम्मद, लश्कर, हरकत उल अंसार, जिसे अब हरकत उल मुजाहिदीन कहा जाता है, जैसे जिहादी संगठनों के लिए कट्टरपंथी तत्व गरीब व अशिक्षित परिवारों के बच्चे तलाशते हैं। उन्हें खाने और शिक्षा दिलाने के नाम पर मीलों दूर प्रशिक्षण शिविरों में भेजा जाता है। यहा एकात में उन्हें इस्लाम और केवल इस्लाम की दीक्षा दी जाती है। बाहरी दुनिया से उनका कोई संपर्क नहीं होता। इसके बाद इन बच्चों के साथ घोर अमानवीय व्यवहार किया जाता है ताकि उनके मन में अपने अस्तित्व को लेकर ही घृणा का भाव पैदा हो जाए। फिर उन्हें इस्लाम के लिए मर मिटने पर जन्नत और हूरें मिलने का पाठ पढ़ाया जाता है। जिस बच्चे के साथ इतना घोर अमानवीय व्यवहार हो रहा हो उसके लिए मौत ज्यादा मुनासिब लगती है। इसके बाद इन बच्चों को पश्चिमी देशों और भारत में मुसलमानों के कथित उत्पीड़न की फर्जी सीडी आदि दिखाई जाती है। इसका बदला लेने को मजहबी दायित्व बता उन्हें मरने-मारने के लिए सहज तैयार कर लिया जाता है। इसलिए एक कसाब के मरने से आतंकवाद का रक्तरंजित अध्याय बंद हो जाएगा, ऐसी आशा करना व्यर्थ है।
[बलबीर पुंज: लेखक राज्यसभा सदस्य हैं]