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अमरनाथ यात्रा के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय का हाल का निर्णय वस्तुत: सेक्युलर विकृतियों को ही उजागर करता है। लंबे समय से कश्मीर घाटी के अलगाववादी नेता और उनके संरक्षक सेक्युलर दल हिंदुओं की पावन अमरनाथ यात्रा को लेकर अवरोध खड़ा करते आए हैं। घाटी के अलगाववादी नेता जहां अपने हिंसक विरोध के बल पर अमरनाथ यात्रा को बाधित करने का कुप्रयास करते हैं, वहीं उनके संरक्षक सेक्युलर दल पर्यावरण और कानून एवं व्यवस्था की आड़ में तीर्थयात्रियों की राह में संकट खड़ा करते हैं। पिछले साल अमरनाथ यात्रा के दौरान पर्याप्त स्वास्थ्य और राहत सेवाएं नहीं होने के कारण करीब सौ से ज्यादा तीर्थयात्रियों की मृत्यु यात्रा मार्ग में हुई थी। उसका स्वत: संज्ञान सर्वोच्च न्यायालय ने लिया था। उस पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश बीएस चौहान और एस कुमार की पीठ ने पवित्र गुफा तक 'मानवीय गरिमा और सुरक्षा' के साथ तीर्थयात्रियों की यात्रा सुनिश्चित करने के लिए जम्मू-कश्मीर सरकार सहित अमरनाथ श्राइन बोर्ड को निर्देश जारी किया। पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लेख करते हुए कहा है कि प्रत्येक नागरिक को गरिमामय, सुरक्षित और स्वच्छ वातावरण में जीने का अधिकार है। हर वार्षिक अमरनाथ यात्रा में समय के बीतने के साथ तीर्थयात्रियों की मृत्युदर बढ़ रही है। स्वास्थ्य, नागरिक सुविधाओं व साफ-सफाई के मामले में तीर्थयात्रियों की कठिनाइयां लगातार बढ़ती जा रही हैं।
अमरनाथ की यात्रा दुर्गम है, राह कठिन है और अनेक दुश्वारियां हैं, किंतु आज के वैज्ञानिक युग में उन कठिनाइयों को दूर करना असंभव नहीं है। अमरनाथ यात्रा को लेकर सेक्युलर दलों की उदासीनता और अलगाववादी नेताओं का मुखर विरोध एक मानसिकता से प्रेरित है। वह मानसिकता हिंदू और हिंदुस्तान की सनातनी संस्कृति के विरोध पर केंद्रित है। वास्तविकता यह है कि अमरनाथ यात्रा को हतोत्साहित करने का अभियान नया नहीं है। घाटी से कश्मीर की मूल संस्कृति के प्रतीक कश्मीरी पंडितों के बलात निष्कासन के बाद इस्लामी कट्टरवादियों का एक लक्ष्य पूरा हो चुका है। घाटी हिंदूरहित हो चुकी है। हिंदुओं के अधिकांश पूजास्थल ध्वस्त हो चुके हैं, परंतु कुछ प्रमुख आराध्य स्थल अभी भी जीवंत हैं और जिहादियों के निशाने पर हैं। अमरनाथ यात्रा का प्रत्यक्ष व परोक्ष विरोध उसी मानसिकता का उदाहरण है।
सन 2008 में यात्रा की अवधि 55 दिनों से घटाकर 15 दिनों तक करने पर लोग सड़कों पर उतर आए थे। तीर्थयात्रियों की सुविधा हेतु अमरनाथ श्राइन बोर्ड को उपलब्ध कराई गई 40 एकड़ जमीन अलगाववादियों को रास नहीं आई थी। अलगाववादियों को खुश करने के लिए तब सेक्युलर सत्ता अधिष्ठान ने फौरन जमीन आवंटन को निरस्त भी कर दिया था, किंतु इसकी तुलना में शेष भारत में मुसलमानों के मामलों में सेक्युलर दलों के बीच उन्हें जीवन के हर क्षेत्र में अधिक से अधिक सुविधाएं देने की होड़ लगी रहती है। यहां तो सरकारी खजाने की कीमत पर मुसलमानों को हज करने मक्का-मदीना भेजा जाता है, किंतु मानसरोवर यात्रा या अमरनाथ यात्रा में हिंदुओं को बुनियादी सुविधाएं तक उपलब्ध कराने की चिंता सेक्युलर अधिष्ठान को नहीं होती। सन 2009, 2010 और 2011 में हज सब्सिडी देकर सरकार ने लगभग सवा लाख हाजियों को मक्का-मदीना की यात्रा पर भेजा। सन 2009 में 690 करोड़ और 2010 और 2011 में करीब 600 करोड़ हज सब्सिडी का भारी-भरकम बोझ सरकारी राजस्व को झेलना पड़ा, जिसकी भरपाई बहुसंख्यक समुदाय को विभिन्न करों के मद में चुकानी पड़ती है। इस पंथनिरपेक्ष देश के हिंदू नागरिक विकृत सेक्युलरवाद से पोषित हज सब्सिडी का बोझ उठाकर जजिया कर नहीं तो फिर क्या चुका रहे हैं? हज दौरे पर सरकार डॉक्टरों, नर्सो, हज अधिकारी, हज सहायक आदि की फौज साथ भेजती है। मक्का-मदीना में 90 बेड का अस्पताल और 18 डिस्पेंसरी की व्यवस्था के साथ 17 एंबुलेंस हाजियों की सेवा में तत्पर रखे जाते हैं। अमरनाथ यात्रा के लिए ऐसी सुविधा क्यों नहीं होती?
राजस्थान हिंदू बहुल है और यहां के अजमेर शरीफ में हर साल उर्स का मेला लगता है, जिसमें लाखों की संख्या में जायरीन शरीक होते हैं। दिल्ली में हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह है। मुंबई में हाजी अली की दरगाह है। उत्तराखंड में कलियार शरीफ, तमिलनाडु में नागौर दरगाह आदि कई अन्य ऐसे प्रसिद्ध दरगाह देश में और भी हैं जहां हिंदू भी उतनी ही श्रद्धा से शीश नवाते हैं। कहीं किसी भी मुस्लिम आराधना स्थल पर बहुसंख्यक हिंदुओं द्वारा उत्पात नहीं मचाया जाता। दो साल पूर्व जम्मू-कश्मीर की सरकार ने अमरनाथ यात्रा और वैष्णो देवी की यात्रा के लिए राच्य में प्रवेश करने वाले दूसरे राच्यों के वाहनों पर दो हजार रुपये का प्रवेश शुल्क लगाया था, किंतु बहुलतावाद व पंथनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाने वाले बुद्धिजीवी व राजनीतिक दल तब खामोश रहे। क्यों? कश्मीर घाटी में मुसलमान बहुसंख्यक हैं तो क्या वहां हिंदुओं का प्रवेश वर्जित कर दिया जाए? नहीं तो यह प्रवेश-कर क्यों? विभाजन से पूर्व पाकिस्तान के हिस्से में आए क्षेत्रों में हिंदू कुल जनसंख्या के एक चौथाई से भी अधिक थे। आज उनकी आबादी एक प्रतिशत से भी कम है। इन क्षेत्रों में विभाजन के दौरान करीब पांच सौ ऐतिहासिक मंदिर थे, जिनकी संख्या अब केवल 26 रह गई है। अधिकांश हिंदू तीर्थस्थल या तो जमींदोज कर दिए गए हैं या उनके खंडहर मात्र बचे हैं, जहां पूजा-अर्चना की भी समुचित व्यवस्था नहीं है। विभाजन से पूर्व लाहौर शहर की कुल आबादी में हिंदू-सिखों का अनुपात 70 प्रतिशत था। अब उनकी संख्या नगण्य है।
आज वहां हिंदू-सिखों को जान की सलामती के लिए जजिया देना पड़ता है या फिर मतांतरण के लिए विवश होना पड़ रहा है। पिछले कुछ सालों में पाकिस्तान में हिंदू युवतियों के अपहरण और उनसे बलात निकाह की घटनाएं लगातार बढ़ी हैं। हाल की एक खबर के अनुसार पाकिस्तान के सिंध प्रांत में हिंदू लड़कियों का जबरन धर्म परिवर्तन किया जा रहा है। पाक मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया है। रिपोर्ट के अनुसार सिंध में हर महीने करीब 20 से 25 हिंदू लड़कियों का जबरन धर्म परिवर्तन किया जा रहा है। क्यों? यह स्थापित सत्य है कि जहां कहीं भी मुसलमान अल्पसंख्या में होते हैं वे पंथनिरपेक्षता, संविधान और प्रजातांत्रिक मूल्यों से प्रतिबद्ध होने का दावा करते हैं, किंतु जिस किसी भी क्षेत्र में वे बहुसंख्या में आते हैं उनके लिए शरीयत कानून सर्वोपरि हो जाते हैं। अमरनाथ प्रकरण में अलगाववादियों का विरोध जहां इस कटु सत्य को रेखांकित करता है वहीं यह सेक्युलरिस्टों के दोहरेपन को भी नंगा करता है।
[लेखक बलबीर पुंज, राच्यसभा सदस्य हैं]
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