Monday, July 9, 2012

मुस्लिम आरक्षण का कानूनी पहलू


मुस्लिम आरक्षण का मुद्दा नए सिरे से चर्चा में है। कुछ दिनों पहले आध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने पिछड़े वर्गो के कोटा से अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने के केंद्र सरकार के फैसले को खारिज कर दिया, बावजूद इसके पश्चिम बंगाल में पिछड़ी जातियों के साथ-साथ अल्पसंख्यकों को नौकरियों में 17 फीसदी आरक्षण देने का विधेयक आम सहमति से पारित हो गया। उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में अल्पसंख्यक आरक्षण को राजनीतिक दलों ने चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश की थी। काग्रेस ने उच्च न्यायालय के फैसले के बावजूद मुस्लिम आरक्षण की आस नहीं छोड़ी है। केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद सुप्रीम कोर्ट से इस मसले पर अंतरिम राहत न मिलने के बावजूद यह उम्मीद कर रहे हैं कि अंतत: फैसला मुस्लिम आरक्षण के हक में ही आएगा। कुल मिलाकर यह मुद्दा राजनीतिक रूप से ही नहीं, बल्कि कानूनी बहस का विषय बना हुआ है।
मुस्लिम आरक्षण पर आध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के निर्णय ने कई नए सबक दिए हैं। पहला सबक यह कि सरकार को आरक्षण जैसे संवैधानिक रूप से संवेदनशील मुद्दे पर बहुत सतर्कता बरतने की जरूरत है। लोक मान्यता के खिलाफ इस निर्णय के जरिये अदालत ने मुस्लिम आरक्षण खारिज नहीं किया है, बल्कि सरकार द्वारा इसके लिए अपनाए गए तरीकों पर आपत्ति व्यक्त की है। संविधान में अनुसूचित जातियों/जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्गो, बच्चों, महिलाओं तथा कुछ पिछड़े क्षेत्रों को आरक्षण देने की व्यवस्था है, लेकिन इन सभी के लिए अनुशासनबद्ध तरीका तय किया गया है। संविधान के 93वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद-15 में खंड-5 जोड़कर यह व्यवस्था कर दी गई थी कि कानून बनाकर संस्थाओं में प्रवेश के मामले में आरक्षण दिया जा सकता है। सरकार ने मुस्लिम आरक्षण के मामले में इस संवैधानिक निर्देश का पालन नहीं किया। कानून बनाने के बजाय सरकारी आदेश जारी करके आरक्षण दे दिया गया। अत: संविधान में तय की गई प्रक्रिया का उल्लंघन किया गया है। इंदिरा साहनी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया था कि पिछड़े वर्गो को आरक्षण देते समय नई जोड़ी जाने वाली जातियों की सामाजिक, आर्थिक तथा शैक्षिक हैसियत का अध्ययन होना चाहिए और जब इस तथ्य के प्रमाण मिल जाएं कि उनकी परिस्थितिया ऐसी हैं जिसमें उन्हें विशेष आरक्षण दिए जाने की आवश्यकता है तभी आरक्षण का लाभ दिया जाना चाहिए। इसके पहले भी 2005 तथा 2007 में आध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने संविधान की अनदेखी करके दिए गए आरक्षण को असंवैधानिक घोषित कर दिया।
उच्च न्यायालय ने इन निर्णयों में दो बातों पर विशेष बल दिया था। पहला यह कि आरक्षण केवल मजहबी आधार पर नहीं होना चाहिए तथा दूसरा यह कि आरक्षण देते समय पिछड़ा वर्ग आयोग से मशविरा किया जाना चाहिए। सरकार ने पिछले दोनों निर्णयों से कोई सबक नहीं लिया। लगता है कि वह राजनीतिक लाभ पाने की बहुत जल्दी में थी और इस हड़बड़ी में उसके द्वारा किए गए आरक्षण से साफ होता है कि वह केवल धर्म के आधार पर किया गया आरक्षण है, जो संविधान के अनुच्छेद-15 और 16 द्वारा प्रतिबंधित है। सरकार यदि वाकई समाज के वंचित वर्ग को बेहतर सुविधाएं देने के प्रति ईमानदार है तो उसका संविधान सम्मत तरीका यह है कि समाज के अल्पसंख्यक या अन्य संभावित वंचित समाज की सामाजिक, आर्थिक तथा शैक्षिक हैसियत का आकलन किया जाए। अल्पसंख्यक आयोग से इसमें मदद ली जाए और शोधपरक अध्ययन के बाद इस तरह से लाभान्वित होने वाली जातियों को समानुपातिक तथा न्यायपूर्ण आरक्षण दिया जाए। आध्र प्रदेश सरकार ने इस सिद्धात का पालन नहीं किया।
आध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के सामने तथा बाद में सुप्रीम कोर्ट के सामने केंद्र सरकार की ओर से दलील दी गई थी कि उसके द्वारा लिया गया आरक्षण का फैसला धार्मिक तथा भाषायी अल्पसंख्यक आयोग तथा इसी तरह के अन्य अध्ययनों के आधार पर लिया गया था। इस दलील में कई छेद हैं। पहला यह कि भाषायी तथा धार्मिक अल्पसंख्यक आयोग का सृजन पिछड़ेपन का अध्ययन करने के लिए नहीं किया गया। इसका गठन मूलत: अल्पसंख्यकों के हालात तथा उनके साथ होने वाले भेदभाव पर नजर रखने तथा अपने सुझाव देने के लिए किया गया था। पिछड़े वर्गो के संबंध में अध्ययन करने की जिम्मेदारी पिछड़ा वर्ग आयोग को दी गई है। इसे कानून द्वारा सृजित किया गया है। इसे कई बातों के साथ ही अन्य पिछड़ा वर्गो के संबंध में अध्ययन करने, उनके हालात का आकलन करने तथा उनकी बेहतरी के लिए शोधपरक सुझाव की जिम्मेदारी सौंपी गई है। अत: पिछड़े वर्ग का लाभ देने के लिए इस आयोग से मशविरा किया जाना आवश्यक है, जो सरकार द्वारा नहीं किया गया। सरकार ने अल्पसंख्यक वर्ग के अंतर्गत आने वाली पिछड़ी जातियों को एक साथ मिलाकर 4.5 फीसदी आरक्षण मुस्लिम अल्पसंख्यकों को दे दिया। इसमें कोई दिमागी कसरत नहीं की गई। कुल मिलाकर सरकार को सबक यह मिला कि संविधान के निर्देशों का पालन करते समय सस्ती लोकप्रियता के बजाय गंभीर नीयत का परिचय दिया जाए। केवल राजनीतिक लाभ के लिए किए गए लोकलुभावन निर्णयों से नुकसान के खतरे बढ़ जाते हैं।
[डॉ. हरबंश दीक्षित: लेखक विधि मामलों के विशेषज्ञ हैं]

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