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Saturday, August 2, 2008

अमरनाथ विवाद: जम्मू में सेना तैनात

जम्मू। जम्मू-कश्मीर में अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन दिये जाने की मांग को लेकर पिछले कई दिनों से चल रहे प्रदर्शन के मद्देनजर लगाए गए कर्फ्यू के उल्लंघन से उपजे तनाव के हालात को काबू में करने के लिए सेना ने आज यहां फ्लैगमार्च किया। सेना के प्रवक्ता लेफ्टिनेंट कर्नल एस। डी. गोस्वामी ने बताया कि स्थिति से निबटने के लिए स्थानीय प्रशासन के सहयोग के आग्रह पर नौवीं कमान की ‘टाइगर फोर्स’ को जम्मू में तैनात किया गया पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच कल हुई ताजा झडपों में दो लोगों की मौत हो गयी थी और कई अन्य घायल हो गये थे और जम्मू और सांबा जिलों में फिर से कर्फ्यू लागू कर दिया गया। उल्लेखनीय है कि ‘श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड’ संघर्ष समिति के बैनर तले जम्मू क्षेत्र के लोग एसएएसबी अमरनाथ यात्रियों को अस्थायी आवास बनाने के लिए वन भूमि का आंवटन बहाल करने की मांग को लेकर आंदोलनरत है। (CNBC,२ अगस्त २००८)

जमीन की जंग में दो और कुर्बान

सांबा: श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड की जमीन के लिए जारी जंग ने दो और लोगों की कुर्बानी ले ली है। शुक्रवार को आंदोलनकारियों पर हुई पुलिस फायरिंग में जिले के दो लोगों की मौत हो गई। इससे जमीन के लिए शहादत देने वालों की संख्या अब पांच हो गई है। शुक्रवार को बोर्ड की भूमि छीनने के खिलाफ जारी प्रदर्शन उग्र हो जाने के बाद पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर फायरिंग शुरू कर दी। इसमें दो लोगों की मौके पर ही मौत हो गई जबकि तीन दर्जन से अधिक लोग घायल हो गए। घायलों को उपचार के लिए सांबा जिला अस्पताल ले जाया गया जहां गंभीर रूप से घायल छह लोगों को जीएमसी जम्मू रेफर कर दिया गया। वहीं जीएमसी में लाए गए दो आंदोलनकारियों को मृत घोषित कर दिया गया। चार लोग इस अस्पताल में उपचाराधीन हैं। गोलीबारी में मारे गए लोगों की पहचान जुगल किशोर पुत्र हरबंस संब्याल और सुनील सिंह पुत्र भारत सिंह के रूप में हुई है जबकि जीएमसी लाए गए घायलों में पवन पुत्र सतपाल, जतिंद्र सिंह पुत्र जयपाल, संदीप सिंह पुत्र पराग सिंह और मोहन सिंह पुत्र नानक सिंह शामिल हैं।
सांबा में प्रदर्शनकारियों पर हुई फायरिंग से भड़ककर लोगों ने तहसील मुख्यालय को जला दिया। रात को प्रदर्शनकारियों द्वारा लगाई गई आग में पहले दरवाजे जले और फिर आग मुख्यालय के भीतर रखे रिकार्ड तक पहुंच गई जिससे काफी रिकार्ड राख हो गया। इसके बाद डीसी ने क‌र्फ्यू लगा दिया। इसके बावजूद हजारों की संख्या में प्रदर्शनकारी रात को सड़कों पर उतर आए। राष्ट्रीय राजमार्ग स्थित मेन चौक पर उन्होंने टायर जलाकर प्रदर्शन किए और बम-बम भोले के जयकारे लगाए। प्रदर्शनकारियों ने डीसी के खिलाफ नारेबाजी भी की।
आईजी जम्मू के राजेंद्रा ने इस पूरे घटनाक्रम में पुलिस का हाथ होने से इंकार करते हुए कहा कि जिस समय यह घटना घटी पुलिस उस समय मौके पर मौजूद नहीं थी। गोलीबारी सांबा में शुक्रवार शाम उस समय हुई जब प्रशासन ने क्षेत्र में क‌र्फ्यू लगाए जाने की घोषणा की। क‌र्फ्यू की सूचना मिलते ही सांबा के मेन चौक पर धरने पर बैठे लोगों ने प्रदर्शन शुरू कर दिया और वहां पुलिस व रैपिड एक्शन फोर्स के जवान भी पहुंच गए। प्रदर्शनकारियों ने पुलिस पर पथराव करना शुरू कर दिया। पुलिस ने भी पहले हवा में गोलियां चलाई और बाद में उनपर आंसू गैस के गोले दागने शुरू कर दिए। प्रदर्शनकारियों का कहना है कि इस पर भी जब वे पीछे हटने को तैयार न हुए तो पुलिस ने उनपर गोलियां बरसानी शुरू कर दीं जिसमें दो लोगों की मौके पर ही मौत हो गई जबकि 35 लोग गंभीर रूप से घायल हो गए। बाद में घायलों को सांबा के जिला अस्पताल ले जाया गया जहां गंभीर रूप से घायल छह लोगों को जीएमसी अस्पताल रेफर कर दिया गया। इनमें दो लोगों को जीएमसी में मृत लाया घोषित कर दिया गया जबकि बाकी चार लोगों का उपचार जीएमसी में चल रहा है। तनाव को देखते हुए जीएमसी में अतिरिक्त पुलिस बल तैनात कर दिया गया है।
इस बीच प्रदर्शनकारियों ने डीसी सांबा सौरभ भगत के आवास का घेराव किया। उन्होंने पहले गेट पर लगी नेमप्लेट तोड़ दी और फिर गेट पर टायर जलाकर प्रदर्शन किया। प्रदर्शनकारी डीसी के घर में घुसने का प्रयास कर रहे थे कि इतने में ही वहां सेना के जवान आ गए और उन्होंने प्रदर्शनकारियों को रोका। प्रदर्शनकारियों ने डीसी आवास के बगल में स्थित रेस्ट हाउस का सामान सड़क पर फेंककर उसे आग लगा दिया। इस झड़प के दौरान प्रदर्शनकारियों के हत्थे चढ़े पुलिसकर्मियों पीटा गया। एक सीआरपीएफ का जवान भी प्रदर्शनकारियों के हत्थे चढ़ गया जिसे चेतावनी देकर छोड़ दिया गया कि फिर कभी सांबा के शूरवीरों पर हाथ न उठाना। इस घटना के बाद प्रदर्शनकारियों ने सांबा पुलिस स्टेशन को भी जलाने का प्रयास किया। वहां भी कुछ गोलियां हवा में चलाई गई जिसके बाद प्रदर्शनकारी पीछे हट गए। इस घटना के बाद सांबा के मुख्य चौक पर एकत्र होकर प्रदर्शनकारियों ने टायर जलाना शुरू कर दिए। डीसी सांबा को सेना ने सुरक्षित वहां से निकाल लिया।(दैनिक जागरण , २ अगस्त २००८ )

Thursday, July 17, 2008

जम्मू में फिर बंद में बंध गई जिंदगी

जागरण संवाददाता, जम्मू : शहर व इसके आसपास के तमाम इलाकों में बुधवार को आम जनजीवन फिर हिंदू संगठनों के बंद में बंधी रही। शहर व कस्बों में बाजार पूरी तरह बंद रहे और शिक्षा संस्थानों समेत बैंकों में अवकाश रहा। सरकारी कार्यालयों में भी कर्मचारियों की उपस्थित कम रहने से कामकाज प्रभावित रहा। सड़कों पर दिनभर सन्नाटा पसरा रहा। कुछेक इलाकों में ही थोड़ी देर के लिए वाहनों की आवाजाही हो पाई। इससे सबसे ज्यादा परेशानी माता वैष्णो देवी के श्रद्धालुओं को पेश आई। हिंदू संगठनों की अमरनाथ यात्रा संघर्ष समिति के आह्वान पर बुधवार को जम्मू पूर्ण बंद रहा। शहर की प्राइवेट बस यूनियन, मेटाडोर यूनियन, आटो यूनियन व टैक्सी यूनियन ने भी बंद को पूर्ण समर्थन दिया। यहां तक कि रेहड़ी वालों ने भी कारोबार बंद रखा। (दैनिक जागरण, 17 जुलाई, 2008)

Sunday, June 22, 2008

हिंदू जनजागृति समिति

मुंबई पुलिस की आतंकवाद निरोधक दस्ते ने ठाणे के थियेटर आडिटोरियम में विस्फोट के संबंध में स्थानीय दक्षिणपंथी संगठन हिंदू जनजागृति समिति के दो सदस्यों को आज गिरफ्तार किया। एक स्थानीय अदालत ने गिरफ्तार किए गए दोनों व्यक्तियों मंगेश निकम और रमेश गड़करी को 24 जून तक पुलिस हिरासत में भेज दिया। ठाणे के गड़करी रंगायतन आडिटोरियम में अमही पचुपुर्तें नामक नाटक के प्रदर्शन के दौरान चार जून को हुए हल्के विस्फोट में सात लोग घायल हो गए थे। 

इसके पहले समिति ने इस नाटक का विरोध किया था। उनका आरोप था कि नाटक में पौराणिक चरित्रों को गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया था जिससे हिन्दुओं की भावनायें आहत होती है। मुंबई 16 जून (भाषा)

Wednesday, March 12, 2008

नाकामी छिपाने की कोशिश

मीडिया के एक वर्ग पर गुजरात के चुनाव परिणाम की गलत समीक्षा करने का आरोप लगा रहे हैं राजनाथ सिंह सूर्य
गुजरात में नरेन्द्र मोदी की करिश्माई जीत के बाद जो लोग इस तरह के निष्कर्ष निकाल रहे हैं कि मोदी की तो जीत हुई, लेकिन भाजपा हार गई या संघ परिवार के मंसूबों पर पानी फेर गया वे निश्चित रूप से झेंप मिटाने वाली अभिव्यक्तियां हैं। ऐसे विचार वही लोग व्यक्त कर रहे हैं जो गुजरात में मोदी को हराने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार थे। राजनीतिक लोग ऐसा आचरण करें तो उसे एक हद तक स्वाभाविक माना जा सकता है, लेकिन जब लोकतंत्र का प्रहरी और सत्य का उद्घाटन करने के लिए समाचार देने का दावा करने वाला मीडिया जगत इस प्रकार की अभिव्यक्तियां करता है तो आश्चर्य होता है। मीडिया के ऐसे तत्वों को चुनाव के दौरान अपने अभियान का गुजरात की जनता पर पड़े प्रभाव का संज्ञान लेकर अपनी हैसियत का आकलन कर लेना चाहिए, लेकिन ऐसा करने के बजाय वे राजनीतिक लोगों के समान अपनी झेंप मिटाने के लिए समाचार गढ़ने का सिलसिला जारी रखे हैं। निश्चय ही ऐसे मीडियाकर्मियों के अभियान का गुजरात की जनता पर कोई असर नहीं हुआ, लेकिन गुजरात के बाहर का माहौल भाजपा के पराजय की आशंका से तब तक बाहर नहीं निकल सका जब तक चुनाव परिणाम नहीं आ सके। क्या मीडियाकर्मियों को अपने आचरण की समीक्षा नहीं करनी चाहिए? उसे यदि सत्य के उद्घाटन के दावे को पुष्ट रखना है तो इस प्रकार के आचरण से बचना होगा। उम्मीद यह की जाती है कि गुजरात की जनता ने सुशासन के प्रति जो आस्था व्यक्त की है उसे गहराई से समझा जाएगा, क्योंकि आज यह कोई भी देख सकता है कि देश में सुशासन का संकट है। यह देश में सुशासन के अभाव का ही परिणाम है कि आज जनता के बीच निराशा और कुंठा का माहौल है। यह स्थिति केवल गुजरात में नहीं है। इसका कारण नेतृत्व की श्रेष्ठता और उसके प्रति लोगों की निष्ठा है। कांग्रेस ने गुजरात चुनाव में हार स्वीकार कर ली, लेकिन मीडिया का एक तबका आज भी हार मानने के लिए तैयार नहीं है। मीडिया का यह वह तबका है जो लेखों, समाचारों, टीवी चैनल के प्रसारणों में किसी घटना के लिए किसी न किसी की जिम्मेदारी तय करने पर अटका रहता है, लेकिन अब जब स्वयं के लिए वैसा अवसर आया है तब बगलें झांकने लगा है। चुनाव के बाद की समीक्षाओं में यह प्राय: सभी ने बताने का प्रयास किया कि 2002 के मुकाबले भाजपा की दस सीटें कम हो गईं, लेकिन इस तथ्य को शायद ही किसी ने प्रगट करना समीचीन समझा हो कि 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 91 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त मिली थी। इसी आंकड़े को कांग्रेस की सफलता का आधार माना जा रहा था। भाजपा के विद्रोहियों के साथ-साथ कतिपय जातियों में विद्रोह का भी अतिशय ढिंढोरा पीटा गया, लेकिन चुनाव बाद मीडिया में यह तथ्य उजागर नहीं किया गया कि 2004 के मुकाबले कांग्रेस की 32 सीटें कम हो गईं। कांग्रेस इस तथ्य को छिपाने का प्रयास करे, यह स्वाभाविक है, लेकिन मीडिया क्यों छिपा रहा है? निश्चय ही एक मामले में मीडिया के इन तत्वों ने सत्य से परहेज नहीं किया और वह है भाजपा विद्रोहियों की प्रभावहीनता तथा जातीय विद्रोह का आधारहीन होना। जिन लोगों ने इन दोनों तथ्यों को भाजपा के पराजित होने का मुख्य आधार बताने का भरपूर प्रयास किया था उन्होंने इनके अप्रभावी रहने के कारणों में जाने की आवश्यकता नहीं समझी। यदि हम इतिहास पर नजर डालें तो केवल एक बार 1977 को छोड़कर जब जनमानस आपात स्थिति के कारण त्राहिमाम कर रहा था, दूसरा कोई ऐसा अवसर चुनावी राजनीति में नहीं दिखाई पड़ा जब विद्रोहियों के सहारे किसी दल को सफलता मिली हो। उस चुनाव में कांग्रेस से विद्रोह करने वालों को जनता पार्टी में शामिल होने के कारण सफलता मिली थी, न कि उनके शामिल होने से जनता पार्टी को। गुजरात में कांग्रेस ने लगातार अपने कैडर के बजाय भाजपा विद्रोहियों पर भरोसा जताया। 2002 में उसने शंकर सिंह वाघेला और 2007 में केशूभाई पटेल, कांशीराम राणा तथा सुरेश मेहता पर अपनी बाजी लगाई। अतीत के इन सेनानियों में वर्तमान महानायक को परास्त करने की क्षमता उसी प्रकार नहीं है जैसे महाभारत में भीष्म या द्रोणाचार्य में अर्जुन के संदर्भ में नहीं थी। किसी भी राजनेता पर उसके विरोधी भ्रष्टाचार, चरित्रहीनता, जातीयता या भाई-भतीजावाद का आरोप लगाते हैं, लेकिन मोदी पर उनके घोर शत्रुओं, कांग्रेस या मीडिया में भी किसी में ऐसा आरोप लगाने का साहस नहीं हुआ। क्यों? इसी क्यों को यदि समझने की कोशिश की जाए तो गुजरात का चुनाव परिणाम स्वाभाविक लगेगा। तब गुजरात प्रशासनिक व्यवस्था के मामले में अनुकरणीय माडल के रूप में सामने आएगा। जो लोग संघ परिवार के मंसूबों पर पानी फिर जाने के रूप में चुनाव परिणाम को देख रहे है वे वही लोग हंै जो यह मानते हैं कि संघ का कैडर ही भाजपा का कैडर है। यदि यह सही है तो भाजपा के साथ-साथ उसके विरोधी पक्ष की चुनावी व्यवस्था का भी आकलन करना चाहिए। रोड शो में उमड़ी भीड़ कौतूहल युक्त हो सकती है, परिणामकारी नहीं। यह बात एक बार फिर साबित हो गई है। संघ शिक्षा से दीक्षित स्वयंसेवकों ने जिस प्रकार गुजरात में बूथ तक की व्यवस्था बनाई थी उसी का परिणाम है कि गुजरात पहला राज्य साबित हुआ है जहां एक बूथ पर भी पुन: मतदान नहीं हुआ। गुजरात की जनता ने मोदी को घेरने के सारे चक्रव्यूह को इसलिए ध्वस्त कर दिया, क्योंकि उन्हें मोदी में वह सब मिला जो नेतृत्व प्रदान करने वाले के व्यक्तित्व में अपेक्षित होता है। मोदी ने कहा भी है कि स्वयंसेवक के रूप में दायित्व के प्रति निष्ठा और समर्पण से उन्होंने अपने कर्तव्य पालन को सदैव प्राथमिकता दी है। मोदी डा. हेडगेवार की कल्पना में आदर्श स्वयंसेवक साबित हुए हैं। यही कारण है कि गुजरात की जनता ने सभी विषाक्त हमलों को नाकाम कर दिया। (लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं) दैनिक जागरण ,January 10, Thursday, 2008

मोदी की जीत का मतलब

गुजरात विधानसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी की प्रभावशाली जीत का निहितार्थ तलाश रहे हैं स्वप्न दासगुप्ता
गत 23 दिसंबर को नरेंद्र मोदी ने गुजरात में भाजपा को लगातार चौथी बार जीत दिला दी। बेशक इस जीत के मुख्य विजेता मोदी ही हैं-इसलिए कि दो चरणों में गुजरात की जनता ने जो मतदान किया था वह 182 विधायकों के निर्वाचन से अधिक मोदी के नाम पर जनमत संग्रह अधिक था। ऊपरी तौर पर भले ही कांग्रेस अकेले पराजित नजर आए, लेकिन यथार्थ यह है कि मोदी की असाधारण जीत तीन अन्य समूहों की पराजय है। ये समूह हैं-सेकुलर बौद्धिक वर्ग, मीडिया और आरएसएस नेतृत्व। राज्य कांग्रेस इन सभी में सबसे सम्मानित पराजित समूह है। उसने चुनावी अभियान की शुरुआत छिपे रुस्तम के रूप में की थी। गुजरात में कांग्रेस के पास एक भी ऐसा नेता नहीं था जो मोदी के विशाल कद का मुकाबला कर सके। उसे इस तथ्य का भी ज्ञान था कि बिजली, पानी और सुरक्षा जैसे मूलभूत विषयों पर राज्य सरकार के पिछले प्रदर्शन को देखते हुए किसी असरदार सत्ता विरोधी लहर की संभावना नहीं है। स्थानीय स्तर पर सत्ता विरोधी भावनाओं को ईंधन देने की उम्मीदें भी तब धुल गईं जब मोदी ने 127 में से 48 विधायकों के टिकट काट दिए। कांग्रेस ने यह भी समझ लिया था कि 2002 के दंगों पर फिर से जोर देना विवेकपूर्ण नहीं होगा। इन स्थितियों में कांग्रेस ने एक प्रतिबद्ध लड़ाई लड़ी और एक बड़ी संख्या में लोगों को यह समझाने में सफल भी रही कि वह भाजपा की गाड़ी को पलटने की स्थिति में है। संभावित जीत का भ्रम केवल पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिले मतों के आधार पर ही नहीं था, बल्कि कांग्रेस यह सोचकर भी आशान्वित थी कि मोदी सरकार के कामकाज से नाराज कुछ जातियों का समर्थन यदि क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम वर्गो के साथ जुड़ जाए तो उसे निर्णायक बढ़त मिल सकती है। कुछ क्षेत्रों में किसानों के असंतोष तथा बिजली भुगतान के मामले में मोदी सरकार के दृढ़ रवैये से उपजी नाराजगी को भी कांग्रेस अपने पक्ष में मान रही थी। कांग्रेस के पास नि:संदेह कुछ इक्के थे, लेकिन उसने सही पत्ते नहीं चले। गुजरात में कांग्रेस ने मोदी के व्यक्तित्व को स्थानीय मुद्दों से मिलाने की कोशिश की, जबकि भाजपा इस चुनाव को मोदी पर जनमत संग्रह बनाना चाहती थी। यह सही है कि भाजपा को सोनिया गांधी की मौत के सौदागर वाली टिप्पणी से लाभ हुआ, लेकिन यदि यह टिप्पणी नहीं भी की गई होती तो भाजपा किसी और तरीके से राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति कांग्रेस की प्रतिबद्धता पर सवाल खड़े करती। इस मामले में सोनिया गांधी को निशाना बनाना निश्चित रूप से दिग्विजय सिंह को कठघरे में खड़े करने से कहींअधिक दमदार था जिन्होंने गुजरात में हिंदू आतंकवाद होने की बात कही थी। बावजूद इसके गुजरात के इस चुनाव में सेकुलरिज्म ही प्रमुख मुद्दा नहीं था। सच तो यह है कि इसे कोई भी मुद्दा नहीं बनाना चाहता था-यहां तक कि कांग्रेस भी नहीं। वास्तव में कांग्रेस ने सेकुलरिज्म-कम्युनलिज्म मुद्दे को एकदम नीचे रखकर चुनाव लड़ा। कांग्रेस के मुस्लिम नेताओं को चुनाव अभियान से दूर रखा गया। गैर-सरकारी संगठनों और मानवाधिकार समूहों के कतिपय सितारे कार्यकर्ता भी या तो अहमदाबाद पहुंचे ही नहींऔर यदि गए भी तो खुलकर सामने नहींआए। गुजरात की बात आते ही प्रखर हो जाने वाले वामपंथी नेता तो गुजरात में जैसे अदृश्य हो गए थे। मजेदार बात यह है कि गुजरात के चुनावों में धर्म का एकमात्र हस्तक्षेप कुछ हिंदू संतों के मोदी विरोधी अभियान के रूप में देखने को मिला, जिसे कांग्रेस का समर्थन हासिल था। 16 दिसंबर को एक रहस्यमयी हिंदू संस्था की ओर से एक विज्ञापन भी जारी किया गया, जिसमें मोदी को एक मुस्लिम को सम्मानित करते तथा जूते पहनकर आरती में भाग लेते दिखाया गया। इस कोशिश का तर्क स्पष्ट था। यह उम्मीद की गई कि हिंदुओं की नाराजगी और सत्ता विरोधी भावनाओं का मिश्रण मोदी को धराशायी कर देगा। मोदी के खिलाफ अभियान के केंद्र में मीडिया था। गुजरात में मीडिया एक निर्विकार पर्यवेक्षक के बजाय सक्रिय प्रतिभागी था। मीडिया ने तो जैसे मोदी की हार सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। यह मीडिया की इसी सक्रियता का नतीजा था कि परिणाम आने के दिन लोगों ने यह सोचकर टेलीविजन सेट आन किए कि वे एक ऐसे राजनेता का पतन देखने जा रहे हैं जिसकी तुलना हिटलर जैसे तानाशाह से की जा रही है। परिणाम इसके एकदम विपरीत आए। गुजरात की जीत ने मोदी को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में राष्ट्रीय मंच पर उभार दिया जो अपने विरोधियों को चुनौती दे सकता है और फिर भी जीत हासिल कर सकता है। यदि मीडिया खुद गढ़े गए झूठ के जाल में नहीं फंसता तो गुजरात के चुनाव परिणामों का प्रभाव शुद्ध रूप से क्षेत्रीय ही बना रहता। मीडिया ने आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व के साथ मोदी की दूरी को सामने लाने में कोई कोताही नहीं बरती। आरएसएस का एक प्रभावशाली वर्ग मोदी को उनके अडि़यल रवैये के कारण सबक सिखाना चाहता था। शायद इसीलिए संघ परिवार को तटस्थ रहने का निर्देश दिया गया। यह ऐसा निर्देश था जिस पर शायद ही जमीनी स्तर पर अमल किया गया हो। भाजपा नेतृत्व के एक वर्ग ने भी मोदी के करीब जाने की कोशिश नहीं की। मोदी का यह विरोध हालांकि मतदान करीब आने के साथ कुछ कमजोर हुआ-खासकर यह स्पष्ट होने के साथ चुनाव में मोदी बढ़त पर हैं। आदर्श रूप से तो गुजरात के चुनावों का प्रभाव राज्य के बाहर तक नहीं फैलना चाहिए, लेकिन यह निर्वाचन नि:संदेह असाधारण है-न केवल मुद्दों के मामले में, बल्कि सत्ता बचाने की कोशिश कर रहे व्यक्ति के विरोधियों की गिनती के मामले में भी। यदि मोदी की जीत ने राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण कर लिया है तो इसका एकमात्र कारण उनकी एक जीत में निहित चार जीतें हैं। वस्तुत: विरोधियों ने मोदी को राष्ट्रीय विषय बना दिया है। ऐसा लगता है कि महात्मा गांधी के बाद कोई अन्य गुजराती राष्ट्रीय एजेंडा तय करने की स्थिति में है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं) Dainik Jagran, December 31, Monday , 2007