गुजरात विधानसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी की प्रभावशाली जीत का निहितार्थ तलाश रहे हैं स्वप्न दासगुप्ता
गत 23 दिसंबर को नरेंद्र मोदी ने गुजरात में भाजपा को लगातार चौथी बार जीत दिला दी। बेशक इस जीत के मुख्य विजेता मोदी ही हैं-इसलिए कि दो चरणों में गुजरात की जनता ने जो मतदान किया था वह 182 विधायकों के निर्वाचन से अधिक मोदी के नाम पर जनमत संग्रह अधिक था। ऊपरी तौर पर भले ही कांग्रेस अकेले पराजित नजर आए, लेकिन यथार्थ यह है कि मोदी की असाधारण जीत तीन अन्य समूहों की पराजय है। ये समूह हैं-सेकुलर बौद्धिक वर्ग, मीडिया और आरएसएस नेतृत्व। राज्य कांग्रेस इन सभी में सबसे सम्मानित पराजित समूह है। उसने चुनावी अभियान की शुरुआत छिपे रुस्तम के रूप में की थी। गुजरात में कांग्रेस के पास एक भी ऐसा नेता नहीं था जो मोदी के विशाल कद का मुकाबला कर सके। उसे इस तथ्य का भी ज्ञान था कि बिजली, पानी और सुरक्षा जैसे मूलभूत विषयों पर राज्य सरकार के पिछले प्रदर्शन को देखते हुए किसी असरदार सत्ता विरोधी लहर की संभावना नहीं है। स्थानीय स्तर पर सत्ता विरोधी भावनाओं को ईंधन देने की उम्मीदें भी तब धुल गईं जब मोदी ने 127 में से 48 विधायकों के टिकट काट दिए। कांग्रेस ने यह भी समझ लिया था कि 2002 के दंगों पर फिर से जोर देना विवेकपूर्ण नहीं होगा। इन स्थितियों में कांग्रेस ने एक प्रतिबद्ध लड़ाई लड़ी और एक बड़ी संख्या में लोगों को यह समझाने में सफल भी रही कि वह भाजपा की गाड़ी को पलटने की स्थिति में है। संभावित जीत का भ्रम केवल पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिले मतों के आधार पर ही नहीं था, बल्कि कांग्रेस यह सोचकर भी आशान्वित थी कि मोदी सरकार के कामकाज से नाराज कुछ जातियों का समर्थन यदि क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम वर्गो के साथ जुड़ जाए तो उसे निर्णायक बढ़त मिल सकती है। कुछ क्षेत्रों में किसानों के असंतोष तथा बिजली भुगतान के मामले में मोदी सरकार के दृढ़ रवैये से उपजी नाराजगी को भी कांग्रेस अपने पक्ष में मान रही थी। कांग्रेस के पास नि:संदेह कुछ इक्के थे, लेकिन उसने सही पत्ते नहीं चले। गुजरात में कांग्रेस ने मोदी के व्यक्तित्व को स्थानीय मुद्दों से मिलाने की कोशिश की, जबकि भाजपा इस चुनाव को मोदी पर जनमत संग्रह बनाना चाहती थी। यह सही है कि भाजपा को सोनिया गांधी की मौत के सौदागर वाली टिप्पणी से लाभ हुआ, लेकिन यदि यह टिप्पणी नहीं भी की गई होती तो भाजपा किसी और तरीके से राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति कांग्रेस की प्रतिबद्धता पर सवाल खड़े करती। इस मामले में सोनिया गांधी को निशाना बनाना निश्चित रूप से दिग्विजय सिंह को कठघरे में खड़े करने से कहींअधिक दमदार था जिन्होंने गुजरात में हिंदू आतंकवाद होने की बात कही थी। बावजूद इसके गुजरात के इस चुनाव में सेकुलरिज्म ही प्रमुख मुद्दा नहीं था। सच तो यह है कि इसे कोई भी मुद्दा नहीं बनाना चाहता था-यहां तक कि कांग्रेस भी नहीं। वास्तव में कांग्रेस ने सेकुलरिज्म-कम्युनलिज्म मुद्दे को एकदम नीचे रखकर चुनाव लड़ा। कांग्रेस के मुस्लिम नेताओं को चुनाव अभियान से दूर रखा गया। गैर-सरकारी संगठनों और मानवाधिकार समूहों के कतिपय सितारे कार्यकर्ता भी या तो अहमदाबाद पहुंचे ही नहींऔर यदि गए भी तो खुलकर सामने नहींआए। गुजरात की बात आते ही प्रखर हो जाने वाले वामपंथी नेता तो गुजरात में जैसे अदृश्य हो गए थे। मजेदार बात यह है कि गुजरात के चुनावों में धर्म का एकमात्र हस्तक्षेप कुछ हिंदू संतों के मोदी विरोधी अभियान के रूप में देखने को मिला, जिसे कांग्रेस का समर्थन हासिल था। 16 दिसंबर को एक रहस्यमयी हिंदू संस्था की ओर से एक विज्ञापन भी जारी किया गया, जिसमें मोदी को एक मुस्लिम को सम्मानित करते तथा जूते पहनकर आरती में भाग लेते दिखाया गया। इस कोशिश का तर्क स्पष्ट था। यह उम्मीद की गई कि हिंदुओं की नाराजगी और सत्ता विरोधी भावनाओं का मिश्रण मोदी को धराशायी कर देगा। मोदी के खिलाफ अभियान के केंद्र में मीडिया था। गुजरात में मीडिया एक निर्विकार पर्यवेक्षक के बजाय सक्रिय प्रतिभागी था। मीडिया ने तो जैसे मोदी की हार सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। यह मीडिया की इसी सक्रियता का नतीजा था कि परिणाम आने के दिन लोगों ने यह सोचकर टेलीविजन सेट आन किए कि वे एक ऐसे राजनेता का पतन देखने जा रहे हैं जिसकी तुलना हिटलर जैसे तानाशाह से की जा रही है। परिणाम इसके एकदम विपरीत आए। गुजरात की जीत ने मोदी को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में राष्ट्रीय मंच पर उभार दिया जो अपने विरोधियों को चुनौती दे सकता है और फिर भी जीत हासिल कर सकता है। यदि मीडिया खुद गढ़े गए झूठ के जाल में नहीं फंसता तो गुजरात के चुनाव परिणामों का प्रभाव शुद्ध रूप से क्षेत्रीय ही बना रहता। मीडिया ने आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व के साथ मोदी की दूरी को सामने लाने में कोई कोताही नहीं बरती। आरएसएस का एक प्रभावशाली वर्ग मोदी को उनके अडि़यल रवैये के कारण सबक सिखाना चाहता था। शायद इसीलिए संघ परिवार को तटस्थ रहने का निर्देश दिया गया। यह ऐसा निर्देश था जिस पर शायद ही जमीनी स्तर पर अमल किया गया हो। भाजपा नेतृत्व के एक वर्ग ने भी मोदी के करीब जाने की कोशिश नहीं की। मोदी का यह विरोध हालांकि मतदान करीब आने के साथ कुछ कमजोर हुआ-खासकर यह स्पष्ट होने के साथ चुनाव में मोदी बढ़त पर हैं। आदर्श रूप से तो गुजरात के चुनावों का प्रभाव राज्य के बाहर तक नहीं फैलना चाहिए, लेकिन यह निर्वाचन नि:संदेह असाधारण है-न केवल मुद्दों के मामले में, बल्कि सत्ता बचाने की कोशिश कर रहे व्यक्ति के विरोधियों की गिनती के मामले में भी। यदि मोदी की जीत ने राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण कर लिया है तो इसका एकमात्र कारण उनकी एक जीत में निहित चार जीतें हैं। वस्तुत: विरोधियों ने मोदी को राष्ट्रीय विषय बना दिया है। ऐसा लगता है कि महात्मा गांधी के बाद कोई अन्य गुजराती राष्ट्रीय एजेंडा तय करने की स्थिति में है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं) Dainik Jagran, December 31, Monday , 2007
No comments:
Post a Comment