Wednesday, March 12, 2008

नाकामी छिपाने की कोशिश

मीडिया के एक वर्ग पर गुजरात के चुनाव परिणाम की गलत समीक्षा करने का आरोप लगा रहे हैं राजनाथ सिंह सूर्य
गुजरात में नरेन्द्र मोदी की करिश्माई जीत के बाद जो लोग इस तरह के निष्कर्ष निकाल रहे हैं कि मोदी की तो जीत हुई, लेकिन भाजपा हार गई या संघ परिवार के मंसूबों पर पानी फेर गया वे निश्चित रूप से झेंप मिटाने वाली अभिव्यक्तियां हैं। ऐसे विचार वही लोग व्यक्त कर रहे हैं जो गुजरात में मोदी को हराने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार थे। राजनीतिक लोग ऐसा आचरण करें तो उसे एक हद तक स्वाभाविक माना जा सकता है, लेकिन जब लोकतंत्र का प्रहरी और सत्य का उद्घाटन करने के लिए समाचार देने का दावा करने वाला मीडिया जगत इस प्रकार की अभिव्यक्तियां करता है तो आश्चर्य होता है। मीडिया के ऐसे तत्वों को चुनाव के दौरान अपने अभियान का गुजरात की जनता पर पड़े प्रभाव का संज्ञान लेकर अपनी हैसियत का आकलन कर लेना चाहिए, लेकिन ऐसा करने के बजाय वे राजनीतिक लोगों के समान अपनी झेंप मिटाने के लिए समाचार गढ़ने का सिलसिला जारी रखे हैं। निश्चय ही ऐसे मीडियाकर्मियों के अभियान का गुजरात की जनता पर कोई असर नहीं हुआ, लेकिन गुजरात के बाहर का माहौल भाजपा के पराजय की आशंका से तब तक बाहर नहीं निकल सका जब तक चुनाव परिणाम नहीं आ सके। क्या मीडियाकर्मियों को अपने आचरण की समीक्षा नहीं करनी चाहिए? उसे यदि सत्य के उद्घाटन के दावे को पुष्ट रखना है तो इस प्रकार के आचरण से बचना होगा। उम्मीद यह की जाती है कि गुजरात की जनता ने सुशासन के प्रति जो आस्था व्यक्त की है उसे गहराई से समझा जाएगा, क्योंकि आज यह कोई भी देख सकता है कि देश में सुशासन का संकट है। यह देश में सुशासन के अभाव का ही परिणाम है कि आज जनता के बीच निराशा और कुंठा का माहौल है। यह स्थिति केवल गुजरात में नहीं है। इसका कारण नेतृत्व की श्रेष्ठता और उसके प्रति लोगों की निष्ठा है। कांग्रेस ने गुजरात चुनाव में हार स्वीकार कर ली, लेकिन मीडिया का एक तबका आज भी हार मानने के लिए तैयार नहीं है। मीडिया का यह वह तबका है जो लेखों, समाचारों, टीवी चैनल के प्रसारणों में किसी घटना के लिए किसी न किसी की जिम्मेदारी तय करने पर अटका रहता है, लेकिन अब जब स्वयं के लिए वैसा अवसर आया है तब बगलें झांकने लगा है। चुनाव के बाद की समीक्षाओं में यह प्राय: सभी ने बताने का प्रयास किया कि 2002 के मुकाबले भाजपा की दस सीटें कम हो गईं, लेकिन इस तथ्य को शायद ही किसी ने प्रगट करना समीचीन समझा हो कि 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 91 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त मिली थी। इसी आंकड़े को कांग्रेस की सफलता का आधार माना जा रहा था। भाजपा के विद्रोहियों के साथ-साथ कतिपय जातियों में विद्रोह का भी अतिशय ढिंढोरा पीटा गया, लेकिन चुनाव बाद मीडिया में यह तथ्य उजागर नहीं किया गया कि 2004 के मुकाबले कांग्रेस की 32 सीटें कम हो गईं। कांग्रेस इस तथ्य को छिपाने का प्रयास करे, यह स्वाभाविक है, लेकिन मीडिया क्यों छिपा रहा है? निश्चय ही एक मामले में मीडिया के इन तत्वों ने सत्य से परहेज नहीं किया और वह है भाजपा विद्रोहियों की प्रभावहीनता तथा जातीय विद्रोह का आधारहीन होना। जिन लोगों ने इन दोनों तथ्यों को भाजपा के पराजित होने का मुख्य आधार बताने का भरपूर प्रयास किया था उन्होंने इनके अप्रभावी रहने के कारणों में जाने की आवश्यकता नहीं समझी। यदि हम इतिहास पर नजर डालें तो केवल एक बार 1977 को छोड़कर जब जनमानस आपात स्थिति के कारण त्राहिमाम कर रहा था, दूसरा कोई ऐसा अवसर चुनावी राजनीति में नहीं दिखाई पड़ा जब विद्रोहियों के सहारे किसी दल को सफलता मिली हो। उस चुनाव में कांग्रेस से विद्रोह करने वालों को जनता पार्टी में शामिल होने के कारण सफलता मिली थी, न कि उनके शामिल होने से जनता पार्टी को। गुजरात में कांग्रेस ने लगातार अपने कैडर के बजाय भाजपा विद्रोहियों पर भरोसा जताया। 2002 में उसने शंकर सिंह वाघेला और 2007 में केशूभाई पटेल, कांशीराम राणा तथा सुरेश मेहता पर अपनी बाजी लगाई। अतीत के इन सेनानियों में वर्तमान महानायक को परास्त करने की क्षमता उसी प्रकार नहीं है जैसे महाभारत में भीष्म या द्रोणाचार्य में अर्जुन के संदर्भ में नहीं थी। किसी भी राजनेता पर उसके विरोधी भ्रष्टाचार, चरित्रहीनता, जातीयता या भाई-भतीजावाद का आरोप लगाते हैं, लेकिन मोदी पर उनके घोर शत्रुओं, कांग्रेस या मीडिया में भी किसी में ऐसा आरोप लगाने का साहस नहीं हुआ। क्यों? इसी क्यों को यदि समझने की कोशिश की जाए तो गुजरात का चुनाव परिणाम स्वाभाविक लगेगा। तब गुजरात प्रशासनिक व्यवस्था के मामले में अनुकरणीय माडल के रूप में सामने आएगा। जो लोग संघ परिवार के मंसूबों पर पानी फिर जाने के रूप में चुनाव परिणाम को देख रहे है वे वही लोग हंै जो यह मानते हैं कि संघ का कैडर ही भाजपा का कैडर है। यदि यह सही है तो भाजपा के साथ-साथ उसके विरोधी पक्ष की चुनावी व्यवस्था का भी आकलन करना चाहिए। रोड शो में उमड़ी भीड़ कौतूहल युक्त हो सकती है, परिणामकारी नहीं। यह बात एक बार फिर साबित हो गई है। संघ शिक्षा से दीक्षित स्वयंसेवकों ने जिस प्रकार गुजरात में बूथ तक की व्यवस्था बनाई थी उसी का परिणाम है कि गुजरात पहला राज्य साबित हुआ है जहां एक बूथ पर भी पुन: मतदान नहीं हुआ। गुजरात की जनता ने मोदी को घेरने के सारे चक्रव्यूह को इसलिए ध्वस्त कर दिया, क्योंकि उन्हें मोदी में वह सब मिला जो नेतृत्व प्रदान करने वाले के व्यक्तित्व में अपेक्षित होता है। मोदी ने कहा भी है कि स्वयंसेवक के रूप में दायित्व के प्रति निष्ठा और समर्पण से उन्होंने अपने कर्तव्य पालन को सदैव प्राथमिकता दी है। मोदी डा. हेडगेवार की कल्पना में आदर्श स्वयंसेवक साबित हुए हैं। यही कारण है कि गुजरात की जनता ने सभी विषाक्त हमलों को नाकाम कर दिया। (लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं) दैनिक जागरण ,January 10, Thursday, 2008

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