रह-रह कर होने वाले आतंकी हमलों के मूल कारणों पर प्रकाश डाल रहे हैं बलबीर पुंज
दैनिक जागरण, ०८ दिसम्बर २००८, इतिहास के काले पन्नों में 26/11 का भारत में वही स्थान है जो अमेरिका में 9/ 11 का है। भारत में लगभग हर दो मास के बाद बम विस्फोटों में निर्दोषों की हत्या होती है। ऐसी घटनाओं में मरने वालों की संख्या अब हजारों में है। 11 सितंबर ,2001 के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर, पेंटागन आदि पर हवाई हमले के बाद पिछले सात वर्र्षो में अमेरिका में एक भी आतंकवादी घटना नहीं हुई। अमेरिका और इज़राइल भारत की तुलना में जिहादी आतंकवादियों के निशाने पर अधिक हैं, फिर केवल भारत में ही आतंकवादियों को अपने नापाक मंसूबों को पूरा करने में इतनी सफलता क्यों मिल रही है? क्या यह सत्य नहीं कि लगभग सभी स्वयंभू सेकुलर दलों ने सेकुलरवाद के नाम पर कट्टरवादी मुस्लिम मानसिकता को पुष्ट करने का काम किया है? क्या जिहादी प्रवृति इसी मानसिकता की देन नहीं है?
यह ठीक है कि मुंबई में हुए हाल के नरसंहार के लिए पाकिस्तानी जिम्मेदार थे, परंतु इस महानगर पर ढाए गए इस कहर को क्या केवल इन्हीं दस लोगों ने अंजाम दिया? क्या इन आतंकवादियों को कोई स्थानीय सहयोग नहीं प्राप्त था? वर्ष 2005 से अब तक की घटनाओं में अपने ही देश में पैदा हुए, पनपे और प्रशिक्षित किए गए आतंकवादियों की संख्या कितनी है? अभी दिल्ली में बटला हाउस की पुलिस मुठभेड़ को छोड़ दें तो कितनी घटनाओं में सुरक्षा बलों ने आतंकवादियों को मार गिराने में सफलता प्राप्त की है? क्या यह सत्य नहीं कि इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार आतंकवादियों को न तो किस न्यायालय में चार्जशीट किया गया है और न ही दंडित? क्यों? संसद पर खूनी हमले के दोषी मुहम्मद अफजल को सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद भी वर्र्षो से दंडित नहीं किया गया। इससे क्या संदेश जाता है?
मुबई में हुए हमले के बाद जनाक्रोश उमड़ना स्वभाविक था और कांग्रेस में जिस तरह से आरोपों और प्रत्यायोपों का दौर शुरू हुआ वह वास्तव में ही शर्मनाक था। शेष देश और मुबई साठ घंटे के आतंकी आक्रमण से उबरे भी नहीं थे कि कांग्रेस के नेताओं में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के पद को लेकर जूतम पैजार शुरू हो गई। शीर्ष पर व्यक्ति बदलने से क्या कोई वास्तविक परिवर्तन संभव है? वर्तमान दुखद स्थिति के लिए नेतृत्व और उससे अधिक कांग्रेसी नीतियां जिम्मेदार हैं। क्या इन नीतियों में परिवर्तन होगा? क्या वोट बैंक की राजनीति के लिए राष्ट्र हितों की बलि नहीं दी जाएगी? 16 मार्च 2006 के दिन केरल विधानसभा ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित करके उस अब्दुल नसीर मदनी की रिहाई की मांग की जिस पर 1998 में कोयंबतूर बम विस्फोटों का षडयंत्र करने और विस्फोटों में 60 बेकसूर नागरिकों की हत्या का मुकदमा चल रहा था। ये विस्फोट बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवानी की हत्या के इरादे से उनकी सार्वजनिक सभा में किए गए थे।
एक दूसरे से ज्यादा बड़ा और बेहतर सेकुलर दिखने और मुस्लिम समाज का सबसे बड़ा खैरख्वाह होने के इसी उत्साह की वजह से भारत के वामपंथी दलों और यूपीए ने उत्साह के साथ आतंकवाद विरोधी पोटा कानून को भी खत्म कर दिया। इसी का नतीजा है कि भारत की अस्मिता पर बार-बार हमला करने वाले आतंकवादियों के हौसले लगातार बुलंद होते जा रहे हैं। ऐसी हरकतें करने वाले संगठनों और पार्टियों के वोटों में कितनी बढ़ोत्तारी होती है, यह तो पता नहीं पर इसमें कोई शक नहीं कि इन हरकतों से समाज की सुरक्षा में लगी एजेंसियों और सुरक्षा कर्मियों का उत्साह घटता है। आतंकवादियों के लिए भला इससे बेहतर सौगात और क्या हो सकती है?
भारतीय मुस्लिम समाज और आतंकवाद का सवाल उठते ही भारत के सेकुलरिस्ट यह दलील देने लगते हैं कि गरीबी के कारण मुस्लिम युवक आतंकवाद की राह में भटक जाते हैं, लेकिन मुंबई और दिल्ली समेत पिछले सभी आतंकवादी हमलों के लिए जिम्मेदार जिन आतंकवादी युवाओं को पकड़ा गया उनमें से अधिकांश उच्चा शिक्षा पाए हुए और खाते पीते घरों के हैं। यह दिखाता है कि असली समस्या अशिक्षा और बेरोजगारी में नहीं, बल्कि भारतीय मुस्लिम समाज पर गहरी पकड़ बनाए बैठे वे कठमुल्ला नेता हैं जो आज भी भारत को 'दारुल इस्लाम' बनाने का सपना पाले हुए हैं। वैसे भी अगर गरीबी में ही आतंकवादी पैदा होते हैं तो फिर भारत के हिंदू समाज में सबसे ज्यादा आतंकवादी होने चाहिए थे, क्योंकि यहां के निपट गरीब हिंदुओं की संख्या भारत की पूरी मुस्लिम आबादी के दुगने से भी ज्यादा है। मुंबई में हुई आतंकी घटना एक ऐसे मौके पर हुई जब महाराष्ट्र की एटीएस मालेगांव बम विस्फोटों की जांच में लगी हुई थी।
महाराष्ट्र एटीएस की जांच के हर कदम को जिस तरह मीडिया के सामने रोज-रोज परोसा जा रहा था उसे देखकर समझना मुश्किल था कि महाराष्ट्र सरकार एटीएस का इस्तेमाल बमकांड की जांच के लिए कर रही है या दुनिया को यह बताने के लिए कि दुनिया भर में फल फूल रहे इस्लामी आतंकवाद के साथ-साथ भारत में 'हिंदू आतंकवाद' भी खड़ा हो गया है। 26 नवंबर के दिन पाकिस्तानी आतंकवादियों की गोलियों से शहीद होने से ठीक एक दिन पहले एटीएस के प्रधान शहीद हेमंत करकरे ने एक टीवी न्यूज़ चैनेल को दिए अपने इंटरव्यू में इस बात को स्वीकार किया था कि एटीएस का 90 प्रतिशत समय और ताकत को मालेगांव कांड पर खर्च किया जा रहा है। क्या इस जांच का उद्देश्य आतंकवाद के स्रोतों को बंद करना नहीं बल्कि साध्वी प्रज्ञा और ले. कर्नल पुरोहित को 'हिंदू टेरर' के प्रतीकों के रूप में खड़ा करके 'सेकुलरिस्टों' के राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाना नहीं था? आतंकवादी पाकिस्तान से आए, इस पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। वाघा बार्डर पर मोमबत्तियां जला कर क्या पाकिस्तान की मानसिकता बदली जा सकती है? 1947 में जम्मू कश्मीर के भारत में विलय के बावजूद पाकिस्तान कबायलियों और उनकी आड़ में अपनी सेना को भेजकर राज्य का एक हिस्सा अपने कब्जे में लेने में कामयाब रहा था। भारत के खिलाफ मजहबी आतंकवादियों के इस पहले इस्तेमाल की सफलता के बाद उसका इसमें विश्वास लगातार बढ़ता आया है। 1980 और 90 के दशकों में पंजाब में आतंकवादी आंधी के लिए भी पाकिस्तान ही जिम्मेदार था। कश्मीर में अलगाववादी आंदोलन को आतंक का समर्थन भी पाकिस्तान से प्राप्त होता है।
पाकिस्तान और कठमुल्लों के बाद भारत में जेहादी आतंकवाद को बढ़ाने वाला तीसरा तत्व वे मुस्लिम देश हैं जो दुनिया भर में जेहादी आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए पैसे और हथियार मुहैया करा रहे हैं। अगर भारत में आतंकवाद को सचमुच खत्म करना है तो हमें इन तीनों तत्वों के प्रभाव पर नियंत्रण लगाना होगा। यह काम किसी एक पार्टी या सरकार के बस का नहीं है। इस काम के लिए सभी दलों को अपने छोटे-छोटे स्वार्थों से ऊपर उठना होगा।