एस.शकंर
दैनिक जागरण, १३ जवारी २००९, जब इजरायल पर हिजबुल्ला और हमास जैसे आतंकी संगठनों के हमले शुरू होते है तो विरोध की प्रतिक्रियाएं सुनाई नहीं पड़तीं। न तो मानवीय संकट का राग अलापा जाता है, न ही अपील और आपत्तियों के स्वर उठते है। दूसरी ओर इजरायल द्वारा अपनी रक्षा के लिए प्रतिक्रियात्मक प्रहार शुरू करते ही निंदा, प्रदर्शन और अपीलों का दौर शुरू हो जाता है। दिसंबर में हमास ने इजरायल पर राकेट हमले शुरू किए। इजरायल की कार्रवाई जवाबी है, फिर भी आलोचना के निशाने पर वही है। जबसे इजरायल बना है तभी से उसे तरह-तरह के शत्रुओं की घृणा, प्रहार का सामना करना पड़ रहा है। पिछले तीन वर्ष से ईरान के राष्ट्रपति इजरायल को दुनिया से मिटा देने की कई बार घोषणाएं कर चुके है। क्यों दुनिया के मानवता प्रेमी ईरान की वह भर्त्सना, निंदा नहींकरते जो इजरायल द्वारा आत्मरक्षा में की गई कार्रवाइयों पर होती है? इजरायल की पूर्वी और पश्चिमी सीमा पर वेस्ट बैंक और गाजा अर्थात फलस्तीनी सत्ता पर कुख्यात आतंकी संगठन हमास दो वर्ष से काबिज है। हमास का लक्ष्य है इजरायल को मिटाना। इजरायल के उत्तर अर्थात लेबनान के दक्षिणी क्षेत्र में शिया आतंकी संगठन हिजबुल्ला का राज है। हिजबुल्ला का नियंत्रण ईरान के हाथ में है, जो उसे सैन्य और वित्तीय मदद देता है। इस प्रकार हमास, हिजबुल्ला, ईरान, सीरिया आदि कई शक्तियां इजरायल को खत्म करने का खुलेआम उद्देश्य रखती है। ऐसे में यह कहना कि हमास के हमलों पर इजरायल की प्रतिक्रिया आनुपातिक होनी चाहिए, निरी प्रवंचना ही है।
आतंकी पश्चिमी भय और बुद्धिजीवियों के भोलेपन का जमकर लाभ उठाते है। यहां अनुपात का प्रश्न ही नहीं, मूल बात अस्तित्व-रक्षा की है। गाजा उस भूमि पर स्थित है जिसे तीन वर्ष पहले इजरायल ने अपनी बसी-बसाई आबादी को हटाकर स्वेच्छा से खाली कर दिया था, ताकि सुलह-शांति का कोई मार्ग निकले। आज वहीं से उस पर राकेट से हमले हो रहे है। डेढ़ वर्ष पहले हिजबुल्ला ने यही किया था, अब हमास कर रहा है। गाजा को खाली करने के बदले इजरायल को अरब देशों, सुन्नी हमास और शिया हिजबुल्ला जैसे आतंकी संगठनों से क्या मिला? आतंकी तत्व नरमी को डर और कायरता समझते है। अलग-अलग रूपों में जिहादी राजनीति केवल फलस्तीन ही नहीं, दुनिया के हर क्षेत्र में कमोबेश सक्रिय है, किंतु इसकी रणनीति और विचारधारा को समझा नहीं गया है। उसे हम प्राय: अपनी मनोवृत्ति के अनुरूप देखने की गलती करते है। जैसे सभी घाव मरहम से ठीक नहीं होते उसी तरह हरेक राजनीतिक संघर्ष बातचीत या लेन-देन से नहीं सुलझ सकता। जिहादी राजनीति के अपने नियम है। उन्हे पाकिस्तान, फलस्तीन से लेकर दारफर तक पहचाना जा सकता है। अलकायदा, हमास, हिजबुल्ला, लश्करे-तैयबा, इंडियन मुजाहिदीन आदि सैकड़ों संगठन खुलेआम जिहाद में लगे है। इसके अलावा ईरान, सीरिया, सऊदी अरब, सूडान आदि कई देशों में सत्ताधारी हलकों से जब-तब प्रत्यक्ष या प्रच्छन्न जिहादी राजनीति का संचालन या सहयोग होता रहता है। उनकी भिन्नताएं अपनी जगह है, किंतु उनके क्रिया-कलाप की सैद्धांतिक-व्यवहारिक समानताएं अधिक महत्वपूर्ण है। उसी में उनकी शक्ति और कमजोरी की थाह मिलती है। जिहादी रणनीति सदैव हमला करने की है। इसके लिए उसे किसी बहाने की जरूरत नहीं पड़ती। कारण ढूंढने का काम तो उलटे पीड़ित समाजों के बुद्धिजीवी करते है। सभी जिहादी सीधे नागरिक आबादी को मारते हैं, जैसा कि भारत में पिछले 15 वर्ष से मार रहे है। यदि जांच-पड़ताल भी की जाए तो वे 'निर्दोष मुसलमानों' को पीड़ित करने का आरोप लगाएंगे। जिहादियों को विश्वास है कि उनके शत्रु जीत नहीं सकते। दबावों से उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता और वार्ता से वे कायल होने वाले नहीं।
हिजबुल्ला और हमास ने लेबनान या गाजा में जानबूझकर नागरिक बस्तियों के बीच अपने सैनिक ठिकाने बनाए है, ताकि वे बच्चों, स्त्रियों को ढाल बना सकें। आम नागरिकों की हमास या हिजबुल्ला को परवाह नहीं, मगर वे दुनिया भर में प्रचार करेगे कि इजरायल निर्दोष लोगों की हत्या कर रहा है। यदि हमास, हिजुबल्ला, लश्कर जैसे संगठनों के दस्तावेज, पर्चो या दूसरी सामग्री पर ध्यान दें तो स्पष्ट दिखता है कि वे यहूदियों, हिंदुओं के विरुद्ध घृणा फैलाते है। जिहादी रणनीति का यही मूल तत्व है। फलस्तीन हो या कश्मीर, कमोबेश उनके तौर-तरीके समान है। जिहादी आतंकवाद के व्यवहार को ठीक-ठीक पहचान कर उपाय सोचें, तब दिखेगा कि उससे और उसकी विचारधारा से खुली, लंबी लड़ाई के अलावा कोई विकल्प नही। जब हम आसान समाधान की दुराशा छोड़ देंगे और लड़ाई स्वीकार करेगे तभी जिहादी आतंकवाद के अंत की शुरुआत होगी।