Wednesday, August 22, 2012

पलायन मामले में जांच के दायरे में केरल का संगठन

असम में हुई हिंसा के बाद भड़काउ एसएमएस और एमएमएस भेजने में संदिग्ध भूमिका के लिए केरल का एक संगठन पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया खुफिया एजेंसियों की जांच के दायरे में है। 
http://www.livehindustan.com/news/desh/national/article1-story-39-39-254034.html

पाक में हिंदू-मुस्लिम बच्चों के क्लास अलग-अलग

अटारी, जागरण संवाददाता। पाकिस्तान में हिंदुओं व सिखों के साथ क्या हो रहा है, यह उन चेहरों को देखने से बयां हो जाता है जो हर दिन समझौता एक्सप्रेस से अपने पूरे परिवार के साथ भारत आ रहे हैं। सोमवार को पाकिस्तान से 41 लोग भारत आए।
http://www.jagran.com/news/national-pak-hindu-muslim-children-class-individually-9585770.html

कट्टरता का पोषण


अधिकारिक तौर पर उन्हें अफवाहों का सौदागर, शरारती तत्व और राष्ट्रद्रोही बताया जा रहा है। उन्हें यह सब कहें या फिर इससे भी अधिक किंतु कटु सच्चाई यह है कि भारत को इस तथ्य का सामना करना होगा कि ये दुष्ट लोग बड़े जोशोखरोश से अपने अभियान की सफलता का जश्न मना रहे हैं। जरा इन तथ्यों पर गौर फरमाएं। 11 अगस्त को मुंबई के आजाद मैदान पर 50,000 लोगों की भीड़ जमा होती है और वह फसाद शुरू कर देती है। वाहन जला दिए जाते हैं, महिला पुलिसकर्मियों के साथ छेड़छाड़ होती है, दुकानों के शीशे तोड़ दिए जाते हैं और यहां तक कि अमर जवान ज्योति का अनादर किया जाता है। यह सब असम और म्यांमार में मुसलमानों के उत्पीड़न से उपजे रोष में किया गया। भयाक्रांत करने वाली घटनाओं के दो दिनों के भीतर बेंगलूर, हैदराबाद, पुणे, चेन्नई आदि शहरों में रहने वाले उत्तरपूर्व के लोगों के मोबाइल पर डरावना एसएमएस आया कि 20 अगस्त तक शहर छोड़ दें या फिर परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहें। पिछले रविवार की शाम को उत्तरपूर्व के लोगों ने बड़े पैमाने पर कूच शुरू कर दिया। करीब 25,000 लोगों ने छोटे झोलों में सामान भरा और अपना घर, पढ़ाई, कामकाज छोड़कर गुवाहाटी के लिए सबसे पहली उपलब्ध ट्रेन पकड़ने के लिए निकल पड़े। यहां तक कि सरकार, संसद और प्रबुद्ध नागरिकों ने इन घबराए हुए नागरिकों को आश्वस्त करने का प्रयास किया कि उन्हें डरने की जरूरत नहीं है, किंतु मुंबई के आजाद मैदान में भीड़ द्वारा कारें फूंकने, दुकानों की खिड़कियां तोड़ने की घटनाओं और 17 अगस्त को लखनऊ, इलाहाबाद में हुए उग्र प्रदर्शनों ने इस प्रयास पर पानी फेर दिया। एक अंग्रेजी अखबार की वेबसाइट पर प्रकाशित खबर के अनुसार लखनऊ में पचास से अधिक लोगों ने गौतम बुद्ध पार्क पर हमला बोल दिया और बुद्ध की एक मूर्ति को खंडित कर दिया। इस दौरान उन्होंने फोटोग्राफ भी खिंचवाए। वे भी असम और म्यांमार की घटनाओं का विरोध कर रहे थे। केवल नौ दिनों के भीतर इन शरारती तत्वों और राष्ट्रविरोधी लोगों ने तीन निश्चित लक्ष्यों को पूरा कर लिया। पहला यह कि उन्होंने बड़े सुस्पष्ट ढंग से यह जता दिया कि बात जब मुसलमानों की होती है, भूगोल के बजाय समुदाय की अहमियत होती है। उन्होंने भाजपा और बहुत से असमियों के दावे की खिल्ली उड़ाई कि कोकराझाड़ में दंगे भारतीय और विदेशियों के बीच हुए थे। उन्होंने पूरे भारत के सामने अकड़ दिखाते हुए जताया कि उनकी पहचान पूरी तरह बाहरियों और विदेशियों के साथ जुड़ी है। साथ ही उन्होंने प्रदर्शित किया कि जब मुस्लिम हितों की बात आती है तो राष्ट्रीय सीमाएं बेमानी हो जाती हैं। अतीत में तुर्की के खलीफा भी भारत में मुद्दा बन गए थे। हाल ही में, फिलीस्तीन पीड़ित के प्रतीक के रूप में उभरा था। अब म्यांमार में रोहिंग्याओं को गले लगाने के लिए रोष अपनी हदें पार कर चुका है। शरारती तत्वों ने दूसरा लक्ष्य यह साधा कि उन्होंने भारत की भावनात्मक एकता पर जबरदस्त आघात कर दिया। कुछ समय से भारत के शहरों में उत्तरपूर्व के लोगों, खासतौर पर महिलाओं को प्रताड़ना झेलनी पड़ी है। उत्तरपूर्व के लोगों की वाजिब शिकायत है कि मुख्यभूमि में उन्हें लोगों की अवमानना का शिकार होना पड़ता है। जैसे ही शांत आतंक के शिकार असम और उत्तरपूर्व के अपने ठिकानों पर पहुंचेंगे और अपने-अपने हालात बयान करेंगे, उनमें अलगाव की भावना और प्रबल होगी। आने वाले समय में यह याद नहीं रहेगा कि स्थानीय पुलिस, प्रशासन और स्वयंसेवी समूहों ने उत्तारपूर्व के लोगों का विश्वास जीतने का पुरजोर प्रयास किया, बल्कि इतिहास में दर्ज होगा कि भारत की मुख्यधारा इन लोगों के लिए असुरक्षित हो गई है, कि जातीय और क्षेत्रीय आग्रहों के कारण वे निशाने पर आ गए हैं, कि उनका भारत के साथ कोई संबंध नहीं है। जो 25,000 या इसके करीब लोग भयभीत होकर अपने घर लौटे हैं उन्हें भावनात्मक सदमे से उबरने में लंबा समय लगेगा। जिनकी याददास्त अच्छी है, वे जानते हैं कि 1982 के एशियाड में सिखों के साथ हुए व्यवहार की टीस अभी तक उनके मन-मस्तिष्क से निकली नहीं है। विषाद को कटुता में बदलने से रोकने के लिए तुरंत ऐसे कदम उठाए जाने जरूरी हैं, जो सुनिश्चित कर सकें कि जिन लोगों ने गुवाहाटी की ट्रेन पकड़ी है, वे अपने कार्यस्थल पर जल्द से जल्द वापस लौट आएं। राष्ट्रद्रोहियों का अंतिम मकसद था सरकार और राजनीतिक वर्ग को हताश और कमजोर कर देना। पिछले दस दिनों में जो कुछ हुआ उस पर प्रतिक्रिया जताने में अतिसंवेदनशीलता का भद्दा प्रदर्शन किया गया। खबर है कि मुंबई पुलिस कमिश्नर ने अधिक गिरफ्तारियों के खिलाफ चेतावनी जारी की थी, एक मुख्यमंत्री ने विदेश मंत्रालय पर दबाव डाला था कि म्यांमार के राजदूत को बुलाकर औपचारिक विरोध दर्ज कराएं और अल्पसंख्यक कमीशन ने असम में अवैध घुसपैठ की घटनाओं को लेकर नकार की मुद्रा अपना ली थी। राजनीतिक रूप से कांग्रेस बुरी तरह फंस गई है। उसे डर है कि दंगाइयों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई के खतरनाक चुनावी नतीजे होंगे। यहां तक कि चौथा स्तंभ, जो निर्भीकता के साथ अन्याय को उजागर करता रहा है, ने भी अपने कदम वापस खींच लिए। इसका आंशिक कारण तो समझ में आने वाला है कि पूरा सच उजागर करने का मतलब है भय और हताशा का वातावरण बनाना। हालांकि शरारती तत्व सच्चे दिल की इस मजबूरी से यही निहितार्थ तलाशेंगे कि उनके बाहुबल और निर्वाचन शक्ति के सामने सत्ता प्रतिष्ठान झुक गया है। इन घटनाओं के बाद अब शरारती तत्वों के हौसले बुलंद हो गए हैं। उन्होंने अपने पंजे पैने कर लिए हैं और यह जान गए हैं कि इनमें कितनी ताकत है। इन घटनाओं ने मुस्लिम समुदाय में भी उग्रवादियों का असर बढ़ा दिया है। उग्रवादियों ने दिखा दिया है कि उनमें अपनी चलाने की क्षमता है। पिछले सप्ताह, संसद में असम पर होने वाली बहस के दौरान हैदराबाद के सासंद ने चेताया कि अगर मुसलमानों की शिकायतों को जल्द दूर नहीं किया गया तो कट्टरता की तीसरी लहर उठ सकती है। पिछले एक पखवाड़े की घटनाओं के बाद यह देखना होगा कि वह स्पष्ट रवैये की चेतावनी दे रहे थे या फिर उसके आगमन पर नगाड़ा बजा रहे थे।
[लेखक स्वप्न दासगुप्ता, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-opinion1-9585759.html

Monday, August 20, 2012

त्रासदी से जूझता पूर्वोत्तर

असम में कोकराझाड़ समेत कुछ अन्य जिलों में व्यापक गुटीय हिंसा के बाद देश के विभिन्न हिस्सों में अफवाहों का जा दौर चला और उसके दुष्परिणामस्वरूप पूर्वोत्तर के लोगों को जिस तरह निशाना बनाया गया उससे आंतरिक सुरक्षा का कमजोर ढांचा ही सामने आया। रही-सही कसर कर्नाटक, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों से पूर्वोत्तर के लोगों के पलायन ने पूरी कर दी। यह पलायन आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर केंद्र सरकार की नाकामी को उजागर करता है। इससे अधिक शर्मनाक और क्या होगा कि देश के एक हिस्से में उभरे सांप्रदायिक तनाव की प्रतिक्रिया देश के अलग-अलग हिस्सों में व्यक्त की जाए और राज्य सरकारों के साथ-साथ केंद्रीय सत्ता इस पर अंकुश लगाने में अक्षम साबित हो? यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है कि पूर्वोत्तर के लोगों को अलग-अलग राज्यों में निशाना बनाया जा रहा है और इसके चलते वे अपने घरों की ओर भाग रहे हैं। इस मामले में पहला दोष असम सरकार का है, जो अपने यहां भड़की हिंसा पर रोक लगाने में असफल साबित हुई। असम सरकार की नाकामी को ढकने का प्रयास केंद्रीय सत्ता ने किया। नतीजा यह हुआ कि वहां की हिंसा के बहाने अन्य राच्यों में शरारती तत्व सक्रिय हो गए। चूंकि असम में कांग्रेस की ही सरकार है इसलिए केंद्रीय सत्ता ने न तो वहां भड़की हिंसा के बुनियादी कारणों की तह में जाने की कोशिश की और न ही यह देखने-समझने की कि राच्य सरकार अपने दायित्वों का सही तरह पालन कर रही है या नहीं? असम में भड़की हिंसा पर बोडो समुदाय का आरोप है कि बांग्लादेश से अवैध रूप से आकर बसे लोगों के कारण पूरे क्षेत्र का जनसांख्यिकीय स्वरूप बदल गया है। बोडो समुदाय की नाराजगी का एक कारण यह भी है कि 1985 में राजीव गांधी सरकार द्वारा किए गए समझौते को पूरी तरह लागू नहीं किया गया। पिछले डेढ़-दो दशकों में असम में बांग्लादेश से आए लोगों की आबादी जिस तरह बढ़ी है उससे स्थानीय समुदाय के लोगों को अपने संसाधन हाथ से खिसकते नजर आ रहे हैं। असम में भड़की हिंसा पर राच्य सरकार शुरू से ही हकीकत पर पर्दा डालते नजर आई। पहले उसकी ओर से यह आरोप लगाया गया कि सेना ने देर से हस्तक्षेप किया और फिर हिंसा भड़कने के अलग-अलग कारण बताने की होड़ लग गई। चूंकि असम सरकार ने वस्तुस्थिति समझकर सही कदम उठाने से इन्कार किया इसलिए हिंसा ने गंभीर रूप धारण कर लिया। स्थिति की गंभीरता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि करीब तीन लाख लोग राहत शिविरों में शरण लेने के लिए मजबूर हैं और खुद मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि हालात सामान्य होने में दो-तीन माह का समय लगेगा। पता नहीं क्यों केंद्रीय सत्ता अभी भी बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ को लेकर अपनी आंखें बंद किए हुए है? जब अनेक स्नोतों से यह सामने आ चुका है कि पिछले तीन-चार दशकों में असम में बांग्लादेशी नागरिकों की आबादी कई गुना बढ़ गई है और सुप्रीम कोर्ट भी इस घुसपैठ को लेकर केंद्र सरकार को फटकार लगा चुका है तब हाथ पर हाथ धरकर बैठने का क्या मतलब? बांग्लादेश से आए लोगों का मुद्दा असम की एक पुरानी समस्या है और इसे लेकर खूब राजनीति भी होती रही है। एक समय उल्फा और असम गण परिषद की मान्यता यह थी कि असम में बाहर से आए सभी लोगों को निकाला जाना चाहिए। उनके निशाने पर बांग्लादेश और साथ ही देश के अन्य हिस्सों से आए लोग भी थे। एक समय इस मुद्दे ने राष्ट्रीय समस्या का रूप ले लिया था। बाद में न केवल उल्फा की विभाजनकारी रणनीति पर अंकुश लगाया गया, बल्कि राजनीतिक रूप से असम गण परिषद भी हाशिये पर चला गया। असम गण परिषद के कमजोर होने का फायदा कांग्रेस को मिला और वह पिछले तीन चुनाव जीतने में सफल रही। लंबे समय तक सत्ता में रहने से जो कमियां शासन में आ जाती है वे असम सरकार में भी नजर आ रही हैं, विशेषकर कानून एवं व्यवस्था के मोर्चे पर। असम के साथ-साथ देश के अन्य क्षेत्रों में स्थितियां इसलिए और अधिक खराब होती गईं, क्योंकि मोबाइल और इंटरनेट के जरिये सांप्रदायिक तनाव फैलाने वाले तत्वों पर लगाम नहीं लगाई जा सकी। मुंबई में तो असम हिंसा के विरोध में आयोजित प्रदर्शन अराजकता में तब्दील हो गया। केंद्र सरकार ने थोक में किए जाने वाले एसएमएस और एमएमएस पर रोक लगाने का निर्णय तब लिया जब कर्नाटक, आंध्र और महाराष्ट्र में रह रहे पूर्वोत्तर के लोग बड़े पैमाने पर पलायन के लिए विवश हो गए। भले ही प्रधानमंत्री और गृहमंत्री यह आश्वासन दे रहे हैं कि स्थितियां नियंत्रण में हैं, लेकिन यह कैसा नियंत्रण है कि पूर्वोत्तर के लोग यह भरोसा नहीं कर पा रहे हैं कि उनकी वास्तव में सुरक्षा की जाएगी? फिलहाल इस निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी कि नए गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियों से सही तरह से निपट नहीं पा रहे हैं, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि उनके पदभार संभालने के बाद से एक के बाद एक ऐसी घटनाएं सामने आ रही हैं जो उनके लिए किसी परीक्षा से कम नहीं। यह स्वाभाविक ही है कि प्रमुख विपक्षी दल भाजपा आंतरिक सुरक्षा के मामलों को आक्रामक ढंग से उठा रही है। पूर्वोत्तर के लोगों को निशाना बनाए जाने के मामले में प्रधानमंत्री ने जिस तरह केवल भाजपा शासित कर्नाटक के मुख्यमंत्री से बात करना जरूरी समझा उससे भाजपा को केंद्र सरकार पर हमला करने का मौका मिला। वैसे भाजपा को ध्यान रखना होगा कि बांग्लादेशी नागरिकों को निकालना आसान नहीं। खुद उसके नेतृत्व वाली राजग सरकार इस दिशा में कुछ ठोस नहीं कर सकी थी। केंद्र सरकार के लिए न केवल यह आवश्यक है कि वह पूर्वोत्तर के लोगों को सुरक्षा का अहसास कराए, बल्कि उसे इसकी तह में जाना होगा कि क्या असम में हिंसा के पीछे कोई बड़ी साजिश थी? केंद्र सरकार को समस्या की जड़ यानी बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ को रोकने के ठोस प्रयास भी करने होंगे। असम में अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशी नागरिकों को चिन्हित करना कोई सरल कार्य नहीं है। केंद्र सरकार को राजनीतिक स्वार्थो की परवाह करने के बजाय दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देना होगा। किसी क्षेत्र के सीमित संसाधनों पर जब एक समुदाय का दबाव अत्यधिक बढ़ जाता है तो दूसरे समुदायों की समस्याएं बढ़ती हैं। असम के एक हिस्से में भड़की हिंसा का असर जिस तरह देश के अन्य हिस्सों पर पड़ा और पूर्वोत्तर के हजारों लोग पलायन के लिए मजबूर गए उससे इसका पता चलता है कि किस तरह शरारती तत्व इस हिंसा को हिंदू बनाम मुसलमान का रूप देने में सक्षम हो गए। इससे यह भी जाहिर हुआ कि शेष देश के लोगों को पूर्वोत्तर की समझ नहीं है। इस स्थिति के लिए एक हद तक केंद्रीय सत्ता भी जिम्मेदार है, जो पूर्वोत्तर को हमेशा रियायतों से प्रभावित करने की कोशिश में रहती है। यही कारण है कि इस क्षेत्र के लोगों का सामाजिक और राजनीतिक तौर पर शेष देश से वैसा मिश्रण नहीं हुआ जैसा अन्य इलाके के लोगों का हुआ है। स्थितियां तभी बदलेंगी जब पूर्वोत्तर के च्यादा से च्यादा लोग देश के अन्य हिस्सों में काम-काज के लिए आते रहेंगे। अगर किसी भी कारण से वे भयभीत होंगे तो इससे पूर्वोत्तर की भी समस्याएं बढ़ेंगी और शेष देश की भी। [संजय गुप्त]
http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-opinion1-9580149.html

इलाहाबाद में दूसरे दिन भी बवाल

असम और बर्मा के मुद्दे पर निकले जुलूस के दौरान शहर में भड़की हिंसा दूसरे दिन भी जारी रही। तमाम कोशिशों के बाद भी शनिवार को चौक के हालात सामान्य नहीं हो सके। चौक में बवाल की आंच दूसरे इलाकों तक पहुंची और आधे शहर में भगदड़, पथराव के बाद बाजार बंद हो गए। जानसेनगंज के दुकानदारों ने जुलूस निकाल कर दूसरे बाजार भी बंद करा दिए। इस दौरान चौक और आसपास के इलाकों में पथराव के बाद बम भी चले।
http://www.amarujala.com/National/chaos-continues-second-day-in-Allahabad-30892.html

जब चिड़िया चुग गई खेत तब जागी सरकार

असम हिंसा की अफवाहों को लेकर सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों और सरकार दोनों का खराब रिकॉर्ड सामने आया है। सूचना तकनीक के विशेषज्ञों की नजर में अफवाहों को रोकने और उन्हें हटाने को लेकर सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटें और सरकार जिम्मेदार भूमिका निभा सकती थीं। मगर ऐसा नहीं हुआ। सरकार अब इन साइटों पर कड़ी नजर रखने की बात कर रही है। जबकि वह सूचना तकनीक कानून के तहत ऐसे अधिकारों से लैस है। वह चाहे तो वेबसाइटों पर रोक लगा कर उन पर मुकदमा चलाने का आदेश दे सकती थी। मगर ऐसा नहीं किया गया।
http://www.amarujala.com/National/assam-violence-social-media-fanning-rumours-triggering-panic-30888.html

हिंदुओं की सुरक्षा के लिए कानून बनाएगा पाकिस्तान

इस्लामाबाद।। पाकिस्तानी हिंदुओं के बड़ी तादाद में भारत जाने की खबरों के बीच राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने सिंध सरकार को एक मसौदा कानून बनाने का निर्देश दिया है। इस कानून के जरिए संविधान में संशोधन किया जाएगा ताकि दक्षिणी प्रांत में अल्पसंख्यकों के जबरन धर्मांतरण को रोका जा सके।

http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/15548773.cms

Saturday, August 18, 2012

असम हिंसा के विरोध में उप्र के तीन शहरों में उपद्रव

नई दिल्ली [जागरण न्यूज नेटवर्क]। असम और म्यांमार की हिंसा में अल्पसंख्यकों पर हुए असर के विरोध में शुक्रवार को अलविदा की नमाज के बाद कई उत्तर प्रदेश में लखनऊ, कानपुर और इलाहाबाद में भीड़ हिंसक हो उठी। इस दौरान न बीमार की परवाह की गई और न बच्चों की। न महिलाओं को देखा गया और न अपाहिज को। जिधर मन हुआ बेतहाशा ईंट-पत्थर बरसाए गए और लूटपाट की गई। लखनऊ में बुद्ध पार्क घूमने गई महिलाओं को घेरकर उनके कपड़े तक फाड़ दिए गए। मुंबई में हुए हिंसक विरोध से कोई सबक न लेते हुए सुस्त पुलिस तंत्र तब सक्रिय हुआ, जब तमाम निर्दोष चुटैल हो चुके थे और संपत्ति का भारी नुकसान हो चुका था। विरोध की बयार जम्मू-कश्मीर में भी चली लेकिन वहां लोगों के हिंसक होने की खबर नहीं है।
http://www.jagran.com/news/national-volence-in-protest-of-assam-issue-9575472.html

Friday, August 17, 2012

संसद की खतरनाक चुप्पी

विगत शनिवार को मुंबई के आजाद मैदान में असम दंगों के खिलाफ आयोजित विरोध प्रदर्शन का हिंसा पर उतर आना क्या रेखांकित करता है? स्थानीय मुस्लिम संगठन रजा अकादमी के आव्हान पर जनसभा में शामिल होने के बहाने हजारों की संख्या में एकत्रित भीड़ ने पुलिस की गाड़ियां जला डालीं, न्यूज चैनलों के ओबी वैन जलाए गए और आसपास की दुकानों को लूटपाट के बाद आग के हवाले कर दिया गया। इस दौरान पाकिस्तानी झंडे भी लहराए गए। प्रश्न यह है कि एक समुदाय विशेष के कट्टरपंथी वर्ग को देश की कानून-व्यवस्था का खौफ क्यों नहीं है? अपनी हर उचित-अनुचित मांग को पूरा करने के लिए जब-तब हिंसा की प्रेरणा उन्हें कौन देता है? मुंबई के उपरोक्त कांड से तीन कटु सत्य सामने आते हैं। पहला, देश में एक बड़ा वर्ग है, जो मजहब और मजहबी रिश्तों को देश की मिट्टी के साथ संबंध से बड़ा मानता है। नहीं तो कोई कारण नहीं था कि इस एकत्रित भीड़ की सहानुभूति बोडो लोगों के साथ ना होकर बांग्लादेशी घुसपैठियों के प्रति होती। दूसरा, उक्त विरोध प्रदर्शन में पाकिस्तानी झंडे फहराने का अर्थ यह है कि बहुत से भारतीयों की पहली प्रतिबद्धता पाकिस्तान के साथ है। तीसरा, वोट बैंक की राजनीति से मोहग्रस्त कथित सेक्युलर दलों में से किसी ने भी इस हिंसक घटना की निंदा नहीं की। उनका इस विषय में मौन रहना और पुलिस को पंगु बनाए रखना ही कट्टरपंथियों को प्रोत्साहन दे रहा है। मुंबई जैसी हिंसा वस्तुत: सेक्युलरिस्टों के दोहरे चाल-चरित्र का परिणाम है। सब जानते हैं कि असम की हिंसा के पीछे देश में अवैध रूप से घुसपैठ कर यहां बस चुके बांग्लादेशियों का हाथ है, किंतु संसद से लेकर मीडिया के एक बड़े वर्ग ने इस संबंध में चुप्पी साध रखी है। राज्य और केंद्र सरकार असम दंगों में बांग्लादेशियों का हाथ बताने से परहेज करती आई है। उच्च सदन में मैंने 8 अगस्त को बांग्लादेशी घुसपैठियों की चर्चा की थी, किंतु इस चर्चा में भाग लेने वाले अधिकांश सेक्युलर नेताओं ने लीपापोती करने का ही काम किया, इस खूनी संघर्ष के असली कारणों की चर्चा नहीं की। पूर्व गृहमंत्री पी चिदंबरम ने एक राहत शिविर का दौरा करने के बाद कहा कि असम में अब विभिन्न समुदायों के लोग रह रहे हैं। इन सब को शांति से रहना सीखना होगा। अर्थात स्थानीय जनजाति के लोगों को विदेशी घुसपैठियों द्वारा उनकी संपत्ति, सम्मान और पहचान के ऊपर होते आक्रमण के साथ समझौता करना सीखना होगा। जब सत्ता अधिष्ठान देश की संप्रभुता के साथ समझौता कर ऐसी कायरता दिखाएगा तो स्वाभाविक तौर पर अलगाववादी ताकतों को बढ़ावा मिलेगा। वस्तुत: असम के दंगे केवल असम का मामला नहीं है और ना ही यह बोडो जनजातियों तक सीमित है। करोड़ों की संख्या में अवैध रूप से घुसपैठ कर आए बांग्लादेशी नागरिक राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बन चुके हैं। यह तब और गंभीर हो जाता है, जब वोट बैंक के कारण इस देश की संप्रभुता को चुनौती देने वालों को संरक्षण प्रदान किया जाता है। बांग्लादेशी नागरिकों की संख्या करीब डेढ़ करोड़ बताई जाती है। इनके कारण देश के कई प्रांतों का जहां जनसंख्या स्वरूप तेजी से बदला है, वहीं वे कानून-व्यवस्था के लिए भी गंभीर खतरा बन रहे हैं। असम में बस चुके अवैध बांग्लादेशी नागरिकों के निष्कासन को असंभव बनाने के लिए कांग्रेस सरकार ने 1983 में जो आइएमडीटी एक्ट बनाया था, उसे सर्वोच्च न्यायालय ने सन् 2005 में असंवैधानिक बताते हुए खारिज कर दिया था। सरकार को तब यह निर्देष दिया गया था कि वह बांग्लादेशियों की पहचान और उन्हें देश से बाहर करना सुनिश्चित करे। वह काम अधर में लटकाए रखा गया है। क्यों? इसे सन 2008 में गौहाटी उच्च न्यायालय द्वारा बाग्लादेशी नागरिकों के कारण पैदा हुई विसंगति पर की गई टिप्पणी से सहज समझा जा सकता है। 61 बांग्लादेशी नागरिकों की पहचान संबंधी सुनवाई करते हुए कोर्ट ने यह नोट किया कि उनमें से अधिकांश के पास राशन कार्ड, वोटर कार्ड और पासपोर्ट हैं। उनमें से एक, जिसके पास पाकिस्तानी पासपोर्ट था, ने 1996 में असम का विधानसभा चुनाव भी लड़ा था। सांसदों-विधायकों के चुनाव और अंतत: इस देश के नीतिनिर्माण में इन बांग्लादेशियों की घुसपैठ की गंभीरता को चिह्नित करते हुए कोर्ट ने तब कहा था कि असम में बांग्लादेशी किंगमेकर बन चुके हैं। आज ये प्रवासी मुसलमान असम की राजनीति में सर्वाधिक प्रभावी हैं। बांग्लादेश से निरंतर आ रहे घुसपैठिए सार्वजनिक जमीनों में बस्तियां आबाद करने के बाद स्थानीय नागरिकों को उनके घरों से बेदखल कर खदेड़ भगाना चाहते हैं। सवाल उठता है कि यह देश क्या धर्मशाला है, जहां कभी बांग्लादेश से तो कभी म्यांमार से अवैध घुसपैठिए बेरोकटोक आ धमकते हैं और स्थानीय जनजीवन को अस्तव्यस्त करते हैं? इन अवैध घुसपैठियों को इसलिए शरणार्थी मान लेना चाहिए कि वे मुस्लिम हैं? रोहयांग म्यांमारी और बांग्लादेशी घुसपैठियों का भारत से दूर-दूर का संपर्क नहीं है, फिर भी उन्हें संरक्षण दिलाने के लिए सेक्युलर दलों का एक बड़ा तबका चिंताग्रस्त है। किंतु उन हजारों हिंदुओं के लिए कोई फिक्त्रमंद दिखाई नहीं देता जो मजहबी चरमपंथ और हिंसा से आतंकित होकर पाकिस्तान से पलायन कर भारत में शरण की उम्मीद लगाए बैठे हैं। चौदह वर्षीय मनीषा कुमारी के अपहरण और बलात मत परिवर्तन के बाद उससे जबरन निकाह की ताजा घटना के साथ विगत शुक्रवार को ढाई सौ हिंदू-सिख परिवार भारत में शरण के लिए आए हैं। उनके समर्थन में भारत 
माता की जयघोष के साथ मुंबई जैसा प्रदर्शन क्यों नहीं होता? [लेखक बलबीर पुंज, भाजपा के राच्यसभा सांसद हैं]
http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-opinion2-9570757.html

हमले के डर से पूर्वोत्तर के हजारों लोग बेंगलुरु से भागे

बेंगलुरु।। असम में हुई हिंसा की आग अब पूरे देश में फैलती जा रही है। पिछले शनिवार को इसी मुद्दे पर दंगा भड़क गया था और अब बेंगलुरु में हमले की आशंका से पूर्वोत्तर भारत के हजारों लोग शहर छोड़ कर भाग रहे हैं। बुधवार रात ही पूर्वोत्तर के करीब 5,000 लोग विशेष रेलगाड़ियों से गुवाहाटी के लिए रवाना हो गए। इस बीच, पुलिस ने भरोसा दिलाते हुए कहा है कि पूर्वोत्तर क्षेत्र के छात्रों और अन्य लोगों को निशाना बनाए जाने की चर्चाएं अफवाह हैं और इन पर ध्यान न दें।
http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/15513293.cms