Wednesday, January 21, 2009

Hindu outrage over fundraising con job

Fijilive, २० जनवरी, २००९, Fiji’s largest Hindu organization wants police to stop a group of people who are using its name to swindle money from members of the public.

Shree Sanatan Dharam Pratinidhi Sabha of Fiji secretary Vijendra Pratap told Fijlive, “that somebody had tried to use the name of a Hindu temple to get money out of people” recently.

“What we are worried about is that there could be so many people out there who will be using the name of religion to take money from people,” he said.

“We will be going to the police to find out how this could be stopped.”

Pratap said they were called yesterday by a concerned person asking them about a temple which according to the Sabha listing does not exist.

“What had happened is that a group of people are using letterheads and fictitious temple names to make money saying they are organizing fund drives. What we are going to do is give a list of registered temples to the Provincial Council Offices, which then can be used as a reference by the Councils to issue permits.

“This is also considered blasphemy, when you use the god and religion to con people, god will punish these people.”

Police are advising the general public to check permits of those collecting funds in the name of those affected by the recent floods.

Police spokeswoman Ema Mua said people collecting donations should carry with them a permit.

“People will also be aware that corporate bodies such as the Hibiscus Committee and radio stations are collecting money. It is advisable that people who want to help donate money into these bank accounts instead of giving it to people who come knocking on their doors,” she said.

अस्मिता पर आघात

तरुण विजय

दैनिक जागरण, १२ जवारी 2००९, नेपाल के माओवादी प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड ने पशुपतिनाथ मंदिर को निशाने पर लेकर 'जनवादी क्रांति' शुरू करने का जो प्रयास किया वह तीव्र जनरोष के कारण विफल रहा और उन्हे भारतीय मूल के पुजारियों को पुन: बहाल करने पर विवश होना पड़ा। तात्कालिक रूप से यह भले ही हिंदू समाज के लिए राहत की बात हो, लेकिन इसके दूरगामी संकेत चिंताजनक है। प्रचंड के नेतृत्व में माओवादी नेपाल के अन्य गणतंत्रात्मक दलों को प्रभा हीन कर नए संविधान निर्माण के तुरंत बाद होने वाले चुनावों में अपने बल पर बहुमत प्राप्त करना चाहते है। मुख्य उद्देश्य है चीन की भांति नेपाल में एकतंत्रात्मक कम्युनिस्ट शासन स्थापित करना। इसके लिए उन्हे जिस प्रकार के तंत्रात्मक सहयोग एवं शासकीय उपकरणों की सहायता आवश्यक होगी उन सब साधनों को अपने कब्जे में करने के लिए उनके कदम उठ चुके हैं। सेना में माओवादी संगठन पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के गुरिल्ला लड़ाकों की भर्ती, पुलिस पर माओवादी झुकाव वाले अधिकारियों की नियुक्ति द्वारा नियंत्रण, न्यायपालिका और मीडिया में निचले स्तर से माओवादियों की भर्ती और प्रभाव वृद्धि के बाद उन्होंने हिंदू नेपाल के प्रतीक पशुपतिनाथ मंदिर की मर्यादा हनन कर राष्ट्रवादी हिंदुओं का उसी प्रकार तेज भंग करने का सुविचारित कदम उठाया जैसे बाबर तथा औरंगजेब ने अयोध्या में रामजन्मभूमि एवं मथुरा में गोविंद देव के मंदिर ध्वस्त कर किया था। जहां विभिन्न शासकीय अंगों पर माओवादी संगठनात्मक नियंत्रण से पार्टी को अगले चुनाव में मनमाफिक परिणाम हासिल करने में मदद मिलेगी वहीं हिंदू श्रेष्ठता और उच्चता के सभी प्रतिमान खंडित कर नेपाल को भारत से दूर करने की दिशा में निर्णायक अध्याय रचा जा सकेगा, जिसे प्रचंड के लोग 'नए नेपाल' का मूल मुद्दा मानते हैं। पिछले दिनों प्रचंड ने यह कहकर चौंका दिया था कि नेपाल के लिए भारत से संबंधों को संतुलित करने के लिए चीन तथा पाकिस्तान से दोस्ती बढ़ाना जरूरी है।

पशुपतिनाथ मंदिर नेपाल की हिंदू अस्मिता और राष्ट्रीयता की पहचान के रूप में विश्व में मान्य है। वहां हिंदुओं को प्रभावहीन दिखाकर वे 'नए नेपाल' के लाल-स्वप्न को साकार करने के लिए वैसे ही बढ़ सकते है जैसे अक्टूबर क्रांति के बाद बोल्शेविक छा गए थे। गत वर्ष सितंबर में जब प्रचंड अपनी प्रथम राजनीतिक यात्रा पर भारत आए थे तो मुझे उनसे कुछ देर वार्ता का अवसर मिला था। बातचीत में उन्होंने स्पष्ट कहा-'भाई, हम भी तो हिंदू हैं, हम हिंदू धर्म के खिलाफ क्यों काम करेगे?' भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह के यहां एक कार्यक्रम में वह बोले कि जब तक अयोध्या और जनकपुर है तब तक भारत-नेपाल संबंध कोई बिगाड़ नहीं सकता। ऐसा लगता है माओवादी अपनी राजनीतिक स्थिति सुदृढ़ होने तक राजनयिक विनय ओढ़ना जरूरी समझते है। उनकी वास्तविक मंशा का परिचय यंग कम्युनिस्ट लीग के कार्यो और सरकार की हिंदुओं के प्रति संवेदनहीनता से मिलता है। आश्चर्य की बात यह है कि जिन माओवादियों ने चीन को अपना प्रेरक देश माना, जिन्होंने 15 हजार नेपालियों की हत्या की, जिसके निशाने पर गत डेढ़ दशक में केवल हिंदू प्रतीक के प्रतिमान रहे, जिन्होंने सबसे पहले नेपाल के हिंदू राष्ट्र वाले संवैधानिक अलंकरण को हटाया उन पर भारत के नेता तुरंत कैसे विश्वास कर लेते है? यदि विश्व के हिंदू संगठनों और समाज ने एकजुट होकर नेपाल में बहुलतावादी लोकतंत्र के गैर-कम्युनिस्ट स्वरूप को बचाने तथा नेपाल की सांस्कृतिक एवं धार्मिक पहचान बनाए रखने के लिए दबाव नहीं बनाया तो यह स्वाभिमानी धर्मनिष्ठ देश भारत के लिए वैसा ही भू-राजनीतिक सिरदर्द बन जाएगा जैसे बांग्लादेश व पाकिस्तान हैं। चीन की मंशा यही है। वह भारत के तीव्र गति से बढ़ रहे विकास को बांधने के लिए जैसे पाकिस्तान का उपयोग करता है वैसे ही अब नेपाल उसका परोक्ष सामरिक उपकरण बन गया है। पशुपतिनाथ मंदिर की व्यवस्था अपने नियंत्रण में लेने के लिए माओवादियों का प्रहार पूरे परिदृश्य का छोटा, परंतु महत्वपूर्ण संकेत है। असल में नेपाल के कम्युनिस्टों की नजर मंदिर की आय पर है। 1800 वर्ष पूर्व स्थापित यह प्राचीन मंदिर भारत-नेपाल प्रगाढ़ संबंधों की सबसे शक्तिशाली गारंटी है। यहां के पुजारी भारत के हों अथवा नेपाल के, यह प्रश्न सदा गौण रहा, क्योंकि पुजारी की नियुक्ति की एकमात्र कसौटी उसका तंत्र विद्या में निष्णात होना और ऋग्वेद संपूर्णत: कंठस्थ होने के साथ-साथ पारिवारिक परंपरा से शुद्ध शाकाहारी होनी मानी जाती है। विधि-विधान से पूजन की परंपरा को माओवादियों ने खंडित किया है। कम्युनिस्टों का यह कलुष दोनों देशों के प्राचीन संबंधों पर काली छाया न डाले, इसके लिए भारत सरकार और समाज के सभी वर्गों को दृढ़ता दिखानी होगी।


जिहादी रणनीति का सच

एस.शकंर
दैनिक जागरण, १३ जवारी २००९, जब इजरायल पर हिजबुल्ला और हमास जैसे आतंकी संगठनों के हमले शुरू होते है तो विरोध की प्रतिक्रियाएं सुनाई नहीं पड़तीं। न तो मानवीय संकट का राग अलापा जाता है, न ही अपील और आपत्तियों के स्वर उठते है। दूसरी ओर इजरायल द्वारा अपनी रक्षा के लिए प्रतिक्रियात्मक प्रहार शुरू करते ही निंदा, प्रदर्शन और अपीलों का दौर शुरू हो जाता है। दिसंबर में हमास ने इजरायल पर राकेट हमले शुरू किए। इजरायल की कार्रवाई जवाबी है, फिर भी आलोचना के निशाने पर वही है। जबसे इजरायल बना है तभी से उसे तरह-तरह के शत्रुओं की घृणा, प्रहार का सामना करना पड़ रहा है। पिछले तीन वर्ष से ईरान के राष्ट्रपति इजरायल को दुनिया से मिटा देने की कई बार घोषणाएं कर चुके है। क्यों दुनिया के मानवता प्रेमी ईरान की वह भ‌र्त्सना, निंदा नहींकरते जो इजरायल द्वारा आत्मरक्षा में की गई कार्रवाइयों पर होती है? इजरायल की पूर्वी और पश्चिमी सीमा पर वेस्ट बैंक और गाजा अर्थात फलस्तीनी सत्ता पर कुख्यात आतंकी संगठन हमास दो वर्ष से काबिज है। हमास का लक्ष्य है इजरायल को मिटाना। इजरायल के उत्तर अर्थात लेबनान के दक्षिणी क्षेत्र में शिया आतंकी संगठन हिजबुल्ला का राज है। हिजबुल्ला का नियंत्रण ईरान के हाथ में है, जो उसे सैन्य और वित्तीय मदद देता है। इस प्रकार हमास, हिजबुल्ला, ईरान, सीरिया आदि कई शक्तियां इजरायल को खत्म करने का खुलेआम उद्देश्य रखती है। ऐसे में यह कहना कि हमास के हमलों पर इजरायल की प्रतिक्रिया आनुपातिक होनी चाहिए, निरी प्रवंचना ही है।

आतंकी पश्चिमी भय और बुद्धिजीवियों के भोलेपन का जमकर लाभ उठाते है। यहां अनुपात का प्रश्न ही नहीं, मूल बात अस्तित्व-रक्षा की है। गाजा उस भूमि पर स्थित है जिसे तीन वर्ष पहले इजरायल ने अपनी बसी-बसाई आबादी को हटाकर स्वेच्छा से खाली कर दिया था, ताकि सुलह-शांति का कोई मार्ग निकले। आज वहीं से उस पर राकेट से हमले हो रहे है। डेढ़ वर्ष पहले हिजबुल्ला ने यही किया था, अब हमास कर रहा है। गाजा को खाली करने के बदले इजरायल को अरब देशों, सुन्नी हमास और शिया हिजबुल्ला जैसे आतंकी संगठनों से क्या मिला? आतंकी तत्व नरमी को डर और कायरता समझते है। अलग-अलग रूपों में जिहादी राजनीति केवल फलस्तीन ही नहीं, दुनिया के हर क्षेत्र में कमोबेश सक्रिय है, किंतु इसकी रणनीति और विचारधारा को समझा नहीं गया है। उसे हम प्राय: अपनी मनोवृत्ति के अनुरूप देखने की गलती करते है। जैसे सभी घाव मरहम से ठीक नहीं होते उसी तरह हरेक राजनीतिक संघर्ष बातचीत या लेन-देन से नहीं सुलझ सकता। जिहादी राजनीति के अपने नियम है। उन्हे पाकिस्तान, फलस्तीन से लेकर दारफर तक पहचाना जा सकता है। अलकायदा, हमास, हिजबुल्ला, लश्करे-तैयबा, इंडियन मुजाहिदीन आदि सैकड़ों संगठन खुलेआम जिहाद में लगे है। इसके अलावा ईरान, सीरिया, सऊदी अरब, सूडान आदि कई देशों में सत्ताधारी हलकों से जब-तब प्रत्यक्ष या प्रच्छन्न जिहादी राजनीति का संचालन या सहयोग होता रहता है। उनकी भिन्नताएं अपनी जगह है, किंतु उनके क्रिया-कलाप की सैद्धांतिक-व्यवहारिक समानताएं अधिक महत्वपूर्ण है। उसी में उनकी शक्ति और कमजोरी की थाह मिलती है। जिहादी रणनीति सदैव हमला करने की है। इसके लिए उसे किसी बहाने की जरूरत नहीं पड़ती। कारण ढूंढने का काम तो उलटे पीड़ित समाजों के बुद्धिजीवी करते है। सभी जिहादी सीधे नागरिक आबादी को मारते हैं, जैसा कि भारत में पिछले 15 वर्ष से मार रहे है। यदि जांच-पड़ताल भी की जाए तो वे 'निर्दोष मुसलमानों' को पीड़ित करने का आरोप लगाएंगे। जिहादियों को विश्वास है कि उनके शत्रु जीत नहीं सकते। दबावों से उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता और वार्ता से वे कायल होने वाले नहीं।

हिजबुल्ला और हमास ने लेबनान या गाजा में जानबूझकर नागरिक बस्तियों के बीच अपने सैनिक ठिकाने बनाए है, ताकि वे बच्चों, स्त्रियों को ढाल बना सकें। आम नागरिकों की हमास या हिजबुल्ला को परवाह नहीं, मगर वे दुनिया भर में प्रचार करेगे कि इजरायल निर्दोष लोगों की हत्या कर रहा है। यदि हमास, हिजुबल्ला, लश्कर जैसे संगठनों के दस्तावेज, पर्चो या दूसरी सामग्री पर ध्यान दें तो स्पष्ट दिखता है कि वे यहूदियों, हिंदुओं के विरुद्ध घृणा फैलाते है। जिहादी रणनीति का यही मूल तत्व है। फलस्तीन हो या कश्मीर, कमोबेश उनके तौर-तरीके समान है। जिहादी आतंकवाद के व्यवहार को ठीक-ठीक पहचान कर उपाय सोचें, तब दिखेगा कि उससे और उसकी विचारधारा से खुली, लंबी लड़ाई के अलावा कोई विकल्प नही। जब हम आसान समाधान की दुराशा छोड़ देंगे और लड़ाई स्वीकार करेगे तभी जिहादी आतंकवाद के अंत की शुरुआत होगी।


अल्पसंख्यक अपने अधिकारों से महरूम

दैनिक जागरण, २० जनवरी २००८, नई दिल्ली। उपराष्ट्रपति मुहम्मद हामिद अंसारी ने मंगलवार को कहा कि कानून के सामने अल्पसंख्यक देश के सभी अधिकारों के लाभार्थी हैं लेकिन हकीकत इससे परे है और इस बात की पुष्टि भी हो चुकी है।

अंसारी ने कहा कि इस हकीकत के चलते देश का सर्वागीण विकास प्रभावित हो रहा है इस लिए इस स्थिति में सुधार लाए जाने की सख्त जरूरत है।

उपराष्ट्रपति ने मंगलवार को यहां राज्य अल्पसंख्यक आयोगों के वार्षिक सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए यह टिप्पणी की। अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के संदर्भ में उपराष्ट्रपति ने कहा कि कुछ हाल की और कुछ पहले की घटनाओं के चलते अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के मामले में चिंताएं बनी हुई हैं। उन्होंने कहा कि शासन द्वारा सुरक्षा मुहैया नहीं करा पाना इस मामले में चिंता का बड़ा विषय है। अदालतों के फैसलों से भी इस बात की पुष्टि होती है।

अंसारी ने कहा कि इस संबंध में जनमानस और मानवाधिकार संगठनों की शिकायतों को देखते हुए सुधारात्मक कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। उपराष्ट्रपति ने कहा कि देश में लगभग हर छठा व्यक्ति अल्पसंख्यक है और उनकी आबादी करीबन 20 करोड़ है। कानून की नजर में वे सभी अधिकारों के लाभार्थी हैं लेकिन हकीकत इससे परे है और इसकी पुष्टि भी हो चुकी है। इससे देश का सर्वागीण विकास प्रभावित हुआ है।

उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग और इस तरह के राज्य आयोगों का गठन अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा और उनमें विश्वास बहाल करने के लिए किया गया था लेकिन अनुभव दर्शाते है कि उनकी शिकायतें दूर करने का तंत्र भी कुछ हद तक सफल नहीं रहा है।

अंसारी ने इस कमी को दूर करने के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और अनुसूचित जाति आयोग की तर्ज पर अल्पसंख्यक आयोग को भी जांच के अधिकार देने की वकालत की। उन्होंने कहा कि इसी तरह अल्पसंख्यकों के लिए अनुसूचित जाति एवं जनजाति उत्पीडन निवारक कानून की तर्ज पर कोई कानून बनाने के बारे में भी विचार करना चाहिए। उपराष्ट्रपति ने कहा कि सच्चर समिति की रिपोर्ट के बाद अल्पसंख्यकों के उत्थान के लिए कई स्तर पर कार्य किए जा रहे हैं लेकिन जरूरत इस बात की है कि उनके क्रियान्वयन पर नजर रखने के लिए भी कारगर तंत्र स्थापित किए जाएं। इस अवसर पर मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने कहा कि उन्होंने मदरसों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की शिक्षा को केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड और भारतीय स्कूल शिक्षा बोर्ड परिषद के समकक्ष मानने की सिफारिश को स्वीकार कर लिया है।

सिंह ने कहा कि इसके अलावा केंद्रीय मदरसा बोर्ड गठित करने का मामला भी विचाराधीन है। केंद्रीय श्रम मंत्री आस्कर फर्नाडिस ने कहा कि अल्पसंख्यकों का उत्थान वर्तमान समय में जरूरी है और इसके लिए उन्हें बड़े पैमाने पर तकनीकी शिक्षा उपलब्ध कराई जानी चाहिए ताकि वे स्वावलंबी बन सकें।

अगले सत्र में पेश होगा मदरसा बिल

दैनिक जागरण, २० जनवरी २००९, नई दिल्ली। मदरसों में शिक्षा का स्तर सुधारने के इरादे से सरकार केंद्रीय मदरसा बोर्ड की स्थापना करने के वास्ते संसद के अगले सत्र में विधेयक लाएगी।

केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने मंगलवार को राज्य अल्पसंख्यक आयोगों के वार्षिक सम्मेलन में कहा कि अल्पसंख्यकों की एक अर्से से मांग रही है कि ऐसा बोर्ड बनाया जाए और इसके मद्देनजर संसद के अगले सत्र में यह विधेयक पेश किया जाएगा। सिंह ने कहा कि उनके मंत्रालय के मदरसा शिक्षा की तरफ विशेष ध्यान दिया है और हाल में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड [सीबीएसई] और भारतीय स्कूल शिक्षा बोर्ड परिषद [सीओबीएसई] से सिफारिश की है कि मदरसा प्रमाणपत्र को सीबीएसई के बराबर माना जाए, ताकि मदरसों से शिक्षा प्राप्त व्यक्ति भी सरकारी नौकरियों के योग्य हों।

सिंह ने कहा कि अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थानों के वास्ते एक विशेष निकाय राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान आयोग का गठन इसलिए किया गया है, ताकि अपने पंसद के शिक्षण संस्थान खोलने और चलाने के अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा हो सके। बाटला हाउस मुठभेड़ की न्यायिक जांच की मांग संबंधी एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि यह मांग सरकार की नजर में है और व्यक्तिगत तौर पर उनका मानना है कि अच्छा होगा कि अगर इस घटना के संबंध में स्थिति स्पष्ट हो सके। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा चलाए जा रहे सरस्वती शिशु मंदिर स्कूलों के खिलाफ कार्रवाई करने के बारे में पत्रकारों के सवालों के जवाब में सिंह ने कहा कि इन स्कूलों के पाठ्यक्रम में कुछ अवांछित सामग्री है और उनका मंत्रालय मामले की जांच कर रहा है। उन्होंने लेकिन यह भी कहा कि वह जल्दबाजी में कोई कदम नहीं उठाना चाहते क्योंकि किसी भी संगठन की राजनीतिक तौर पर निशाना बनाने की उनकी कोई मंशा नहीं है।

फिर बाहर निकला बटला हाउस का जिन्न

दैनिक जागरण, 20 जनवरी २००९, नई दिल्ली। केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह ने बटला हाउस के भूत को एक बार फिर खड़ा कर दिया है। उन्होंने मंगलवार को मांग की कि मामले की न्यायिक जांच की जानी चाहिए। उधर, विपक्षी भाजपा ने इसकी कड़ी निंदा करते हुए इसे आतंकवाद और पाक समर्थक बयान बताया।

अर्जुन सिंह ने संवाददाताओं से कहा कि लोकतंत्र में बेहतर यही होता है कि मामले स्पष्ट हों। उनका मानना है कि घटना की न्यायिक जांच से मामला स्पष्ट हो सकेगा। अर्जुन सिंह ने संकेत दिया कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इस बारे में विचार कर रहे हैं। हालांकि उन्होंने इसे प्रधानमंत्री के विशेषाधिकार का मामला बताते हुए कोई ब्यौरा देने से इनकार कर दिया।

उधर, भाजपा ने अर्जुन सिंह के इस बयान पर कड़ी आपत्ति जताते हुए कहा कि यह आतंकियों का समर्थन करने और उस मुठभेड़ में मारे गए पुलिस अधिकारी महेश चंद शर्मा की शहादत को चुनौती है। उन्होंने कहा कि सिंह का बयान एक अन्य केंद्रीय मंत्री अब्दुल रहमान अंतुले के समान है जिसमें उन्होंने मुंबई आतंकी हमले में शहीद हुए हेमंत करकरे की शहादत पर सवाल उठाया था और इसका फायदा उठाकर पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ भी मोर्चा खोल दिया।

भाजपा प्रवक्ता राजीव प्रताप रूडी ने कहा कि अंतुले के बाद एक अन्य केंद्रीय मंत्री द्वारा आतंकियों का इस तरह खुला समर्थन किए जाने के संबंध में स्वयं प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को तुरंत स्पष्टीकरण देना चाहिए।

दिल्ली में गत 13 सितंबर को हुए बम विस्फोटों में कथित रूप से शामिल इंडियन मुजाहिद्दीन के दो संदिग्ध आतंकी जामिया नगर में पुलिस के साथ हुई मुठभेड़ में मारे गए थे। इस घटना में एक पुलिस इंस्पेक्टर भी मारा गया।

बटला हाउस इलाके के लोगों सहित कई मुस्लिम संगठनों, समाजवादी पार्टी और जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय आदि ने इस मामले की न्यायिक जांच की मांग की थी।

Monday, January 5, 2009

पहली बार पशुपतिनाथ मंदिर में नहीं हुई पूजा

01 जनवरी 2009,इंडो-एशियन न्यूज सर्विस, काठमांडू। नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर के भारतीय पुजारियों को हटाने के कारण पैदा हुए विवाद से गुरुवार को इतिहास में पहली बार लोगों को पूजा से वंचित होना पड़ा।

माओवादी सरकार के दबाव के कारण मंदिर के तीन दक्षिण भारतीय पुजारियों ने पिछले महीने इस्तीफा दे दिया था और पशुपतिनाथ क्षेत्र विकास न्यास (पीएडीटी) ने मामले के सर्वोच्च न्यायालय में होने के बावजूद दो नेपाली पुजारियों की नियुक्ति कर दी थी।

भारतीय पुजारियों के चार सहयोगी जिनको ‘राजभंडारी’ के नाम से जाना जाता है, ने बुधवार को सर्वोच्च न्यायालय में इस कदम के खिलाफ याचिका दायर की थी।

सर्वोच्च न्यायालय ने पीएडीटी को नई नियुक्तियां रोकने का आदेश दिया था।

राजभंडारियों का आरोप है कि न्यास ने सभी प्रावधानों का उल्लंघन करते हुए राजनीतिक दबाव में पुजारियों की नियुक्ति की है। नेपाली पुजारियों को मंदिर में घुसने से रोकने के लिए राजभंडारियों ने गुरुवार को मुख्य दरवाजे पर ताला लगा दिया था।

बहरहाल, पीएडीटी अधिकारियों ने बलपूर्वक दरवाजा खोलकर नए पुजारियों को मंदिर में भेज दिया। इससे काफी विवाद पैदा हो गया। क्षेत्र में तनाव फैलने के बाद भारी संख्या में सुरक्षा बल घटनास्थल पर भेजे गए और पहली बार श्रद्धालु पूजा करने से वंचित रह गए।

स्थानीय लोग इसे एक अपशकुन के रूप में देख रहे हैं।

Monday, December 29, 2008

सहमे हुए हैं बांग्लादेश के हिंदू

बीबीसी , 26 दिसंबर, २००८, बांग्लादेश की राजधानी का पुराना इलाक़ा बिल्कुल दिल्ली के चांदनी चौक जैसा दिखता है. वही सकरी गलियाँ और छोटी-छोटी दुकानें.
यहाँ के ताते बाज़ार और शाखारी बाज़ार में कई हिंदू रहते है. जगह-जगह हिंदू देवी देवताओं की तस्वीरें दिख जातीं हैं.
यहाँ के जगन्नाथ मंदिर के कर्ता-धर्ता और पेशे से सुनार बाबुल चंद्र दास का कहना है कि अल्पसंख्यक, ख़ासकर हिंदुओं की स्थिति यहाँ बहुत ख़राब है.
उन्होंने कहा, ''पिछले चुनावों के बाद भड़की हिंसा को हम नही भूल सकते. हमें आज भी डर है कि हम वोट डालने जाएँ या नहीं, क्योंकि बाद में हमारे ऊपर हमले भी हो सकते हैं. हमें कहा जाता है कि आप हिंदू हो भारत चले जाओ, हमने भी 1971 की आज़ादी के आंदोलन में हिस्सा लिया और अब हमारे पास कोई अधिकार नहीं है.''
नज़ारा अलग है
लेकिन ढाका के शाखारी बाज़ार का नज़ारा एकदम अलग है. यहाँ लगभग पूरी आबादी ही हिंदुओ की है. इक्का-दुक्का मुसलमान यहाँ दिख जाएँगे.
यहाँ पर होटल चला रहे दीपक नाग कहते है, ''यहाँ कोई समस्या नहीं है क्योंकि यहाँ हम मज़बूत स्थिति में है. हाँ, गाँवों में हिंदू उत्पीड़न झेलते हैं. ढाका के इस बाज़ार में कोई हमें नहीं छू सकता.''
शाखरी बाज़ार बाक़ी देश से काफ़ी अलग है. बांग्लादेश में करीब 8-10 प्रतिशत हिंदू है, पर सामाजिक कार्यकर्ताओ की मानें तो ये संख्या काफ़ी ज़्यादा है और सरकारी आँकड़े पूरी सच्चाई बयां नहीं करते.
लेखक, पत्रकार और फ़िल्मकार शहरयार कबीर कहते हैं, ''खेद की बात है की बांग्लादेश में हिंदू हाशिए पर है. उनका संसद में, प्रशासन में सही प्रतिनिधित्व नहीं है."
इस्लामी राष्ट्र
वो कहते हैं कि संविधान को ज़िया उर रहमान ने धर्मनिरपेक्ष से बदल कर इस्लामी रूप दे दिया था और फिर जनरल इरशाद ने इस्लाम को राष्ट्र धर्म का दर्जा दे दिया.
जिस भी हिंदू से बात करते हैं वो 2001 के चुनावों के बाद हुई हिंसा की याद से सिहर उठता है. शिराजपुर में पूर्णिमा नाम की 15 साल की लड़की से सामूहिक बलात्कार हुआ. बारीसाल, बागेरहाट, मानिकगंज, चिट्टागोंग समेत दक्षिण और उत्तर बांग्लादेश में अत्याचार का दौर चला. घर, मंदिर, धान की फ़सले जला दी गई. ये हिंसा महीनों चली
काजोल देबनाथ
इसके बाद हिंदू, बौद्ध, ईसाई सब दूसरे दर्जे के नागरिक हो गए. हिंदुओ से भेदभाव और उनका दमन जारी है और वर्ष 2001 के चुनाव के बाद हुई हिंसा आज भी दहशत फैला रही है.
कबीर के अनुसार देश में भय का माहौल है और जैसे-जैसे इस्लामी चरमपंथ उभर रहा है, धर्मनिरपेक्ष ताक़तों की जगह कम होती जा रही है.
हालाँकि यहाँ के हिंदू स्वयं को अल्पसंख्यक नहीं मानते और अपने को मुख्यधारा के हिस्से के रूप में देखते है. काजोल देबनाथ हिंदू बोद्ध ईसाई एकता परिषद से जुड़े हैं और वे बताते हैं कि जब पूर्वी पाकिस्तान था तब राष्ट्रीय असेंबली की 309 में से 72 सीटें अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित थीं.
उनका कहना है कि अल्पसंख्यकों ने अलग सीटों की बजाए सम्मिलित सीटों की मांग की. पर आज हालत यह है की आवामी लीग ने क़रीब 15 तो बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी ने केवल चार से पाँच अल्पसंख्यक उम्मीदवार खड़े किए हैं.
काजोल देबनाथ का कहना है, "जिस भी हिंदू से बात करते हैं वो 2001 के चुनावों के बाद हुई हिंसा की याद से सिहर उठता है. शिराजपुर में पूर्णिमा नाम की 15 साल की लड़की से सामूहिक बलात्कार हुआ. बारीसाल, बागेरहाट, मानिकगंज, चिट्टागोंग समेत दक्षिण और उत्तर बांग्लादेश में अत्याचार का दौर चला. घर, मंदिर धान की फ़सले जला दी गई. ये हिंसा महीनों चली.''
भारत का असर
ढाका विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफ़ेसर अजय राय कहते हैं, "और तो और लड़कियों के साथ बदसलूकी होती है. सिंदूर और बिंदी लगाने पर फ़िकरे कसे जाते है. भारत की घटनाओं का असर भी बांग्लादेश के हिंदू झेलते है."
अजय राय का कहना है, ''जब भारत में कुछ घटनाएँ होती हैं, जैसे गुजरात या बाबरी मस्जिद विध्वंस, यहाँ प्रतिक्रिया बहुत तीव्र होती है. बाबरी विध्वंस के बाद यहाँ हिंदू पूजा स्थलों पर कई हमले हुए. अल्पसंख्यकों की ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर लेने की समस्या लगातार बनी रहती हैं क्योंकि वे कमज़ोर है और सरकार और प्रशासन का भी साथ उन्हें नहीं मिलता.
अजय राय एक ग़ैर सरकारी संस्था संपृति मंच के ज़रिए क़ानून-व्यवस्था पर नज़र रख रहे हैं और अल्पसख्यकों से चुनाव में बेख़ौफ़ हिस्सा लेने का आह्वान कर रहे हैं. साथ ही किसी भी हिंसक घटना या डराने-धमकाने की कोशिश को चुनाव आयोग तक पहुँचा रहे हैं.
लेकिन हिंदू समुदाय चुनाव के बाद और सरकार गठन के दौर में संभावित हिंसा से अब भी चिंतित है

Friday, December 12, 2008

आतंक की उर्वर जमीन

रह-रह कर होने वाले आतंकी हमलों के मूल कारणों पर प्रकाश डाल रहे हैं बलबीर पुंज

दैनिक जागरण, ०८ दिसम्बर २००८, इतिहास के काले पन्नों में 26/11 का भारत में वही स्थान है जो अमेरिका में 9/ 11 का है। भारत में लगभग हर दो मास के बाद बम विस्फोटों में निर्दोषों की हत्या होती है। ऐसी घटनाओं में मरने वालों की संख्या अब हजारों में है। 11 सितंबर ,2001 के व‌र्ल्ड ट्रेड सेंटर, पेंटागन आदि पर हवाई हमले के बाद पिछले सात वर्र्षो में अमेरिका में एक भी आतंकवादी घटना नहीं हुई। अमेरिका और इज़राइल भारत की तुलना में जिहादी आतंकवादियों के निशाने पर अधिक हैं, फिर केवल भारत में ही आतंकवादियों को अपने नापाक मंसूबों को पूरा करने में इतनी सफलता क्यों मिल रही है? क्या यह सत्य नहीं कि लगभग सभी स्वयंभू सेकुलर दलों ने सेकुलरवाद के नाम पर कट्टरवादी मुस्लिम मानसिकता को पुष्ट करने का काम किया है? क्या जिहादी प्रवृति इसी मानसिकता की देन नहीं है?

यह ठीक है कि मुंबई में हुए हाल के नरसंहार के लिए पाकिस्तानी जिम्मेदार थे, परंतु इस महानगर पर ढाए गए इस कहर को क्या केवल इन्हीं दस लोगों ने अंजाम दिया? क्या इन आतंकवादियों को कोई स्थानीय सहयोग नहीं प्राप्त था? वर्ष 2005 से अब तक की घटनाओं में अपने ही देश में पैदा हुए, पनपे और प्रशिक्षित किए गए आतंकवादियों की संख्या कितनी है? अभी दिल्ली में बटला हाउस की पुलिस मुठभेड़ को छोड़ दें तो कितनी घटनाओं में सुरक्षा बलों ने आतंकवादियों को मार गिराने में सफलता प्राप्त की है? क्या यह सत्य नहीं कि इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार आतंकवादियों को न तो किस न्यायालय में चार्जशीट किया गया है और न ही दंडित? क्यों? संसद पर खूनी हमले के दोषी मुहम्मद अफजल को सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद भी वर्र्षो से दंडित नहीं किया गया। इससे क्या संदेश जाता है?

मुबई में हुए हमले के बाद जनाक्रोश उमड़ना स्वभाविक था और कांग्रेस में जिस तरह से आरोपों और प्रत्यायोपों का दौर शुरू हुआ वह वास्तव में ही शर्मनाक था। शेष देश और मुबई साठ घंटे के आतंकी आक्रमण से उबरे भी नहीं थे कि कांग्रेस के नेताओं में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के पद को लेकर जूतम पैजार शुरू हो गई। शीर्ष पर व्यक्ति बदलने से क्या कोई वास्तविक परिवर्तन संभव है? वर्तमान दुखद स्थिति के लिए नेतृत्व और उससे अधिक कांग्रेसी नीतियां जिम्मेदार हैं। क्या इन नीतियों में परिवर्तन होगा? क्या वोट बैंक की राजनीति के लिए राष्ट्र हितों की बलि नहीं दी जाएगी? 16 मार्च 2006 के दिन केरल विधानसभा ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित करके उस अब्दुल नसीर मदनी की रिहाई की मांग की जिस पर 1998 में कोयंबतूर बम विस्फोटों का षडयंत्र करने और विस्फोटों में 60 बेकसूर नागरिकों की हत्या का मुकदमा चल रहा था। ये विस्फोट बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवानी की हत्या के इरादे से उनकी सार्वजनिक सभा में किए गए थे।

एक दूसरे से ज्यादा बड़ा और बेहतर सेकुलर दिखने और मुस्लिम समाज का सबसे बड़ा खैरख्वाह होने के इसी उत्साह की वजह से भारत के वामपंथी दलों और यूपीए ने उत्साह के साथ आतंकवाद विरोधी पोटा कानून को भी खत्म कर दिया। इसी का नतीजा है कि भारत की अस्मिता पर बार-बार हमला करने वाले आतंकवादियों के हौसले लगातार बुलंद होते जा रहे हैं। ऐसी हरकतें करने वाले संगठनों और पार्टियों के वोटों में कितनी बढ़ोत्तारी होती है, यह तो पता नहीं पर इसमें कोई शक नहीं कि इन हरकतों से समाज की सुरक्षा में लगी एजेंसियों और सुरक्षा कर्मियों का उत्साह घटता है। आतंकवादियों के लिए भला इससे बेहतर सौगात और क्या हो सकती है?

भारतीय मुस्लिम समाज और आतंकवाद का सवाल उठते ही भारत के सेकुलरिस्ट यह दलील देने लगते हैं कि गरीबी के कारण मुस्लिम युवक आतंकवाद की राह में भटक जाते हैं, लेकिन मुंबई और दिल्ली समेत पिछले सभी आतंकवादी हमलों के लिए जिम्मेदार जिन आतंकवादी युवाओं को पकड़ा गया उनमें से अधिकांश उच्चा शिक्षा पाए हुए और खाते पीते घरों के हैं। यह दिखाता है कि असली समस्या अशिक्षा और बेरोजगारी में नहीं, बल्कि भारतीय मुस्लिम समाज पर गहरी पकड़ बनाए बैठे वे कठमुल्ला नेता हैं जो आज भी भारत को 'दारुल इस्लाम' बनाने का सपना पाले हुए हैं। वैसे भी अगर गरीबी में ही आतंकवादी पैदा होते हैं तो फिर भारत के हिंदू समाज में सबसे ज्यादा आतंकवादी होने चाहिए थे, क्योंकि यहां के निपट गरीब हिंदुओं की संख्या भारत की पूरी मुस्लिम आबादी के दुगने से भी ज्यादा है। मुंबई में हुई आतंकी घटना एक ऐसे मौके पर हुई जब महाराष्ट्र की एटीएस मालेगांव बम विस्फोटों की जांच में लगी हुई थी।

महाराष्ट्र एटीएस की जांच के हर कदम को जिस तरह मीडिया के सामने रोज-रोज परोसा जा रहा था उसे देखकर समझना मुश्किल था कि महाराष्ट्र सरकार एटीएस का इस्तेमाल बमकांड की जांच के लिए कर रही है या दुनिया को यह बताने के लिए कि दुनिया भर में फल फूल रहे इस्लामी आतंकवाद के साथ-साथ भारत में 'हिंदू आतंकवाद' भी खड़ा हो गया है। 26 नवंबर के दिन पाकिस्तानी आतंकवादियों की गोलियों से शहीद होने से ठीक एक दिन पहले एटीएस के प्रधान शहीद हेमंत करकरे ने एक टीवी न्यूज़ चैनेल को दिए अपने इंटरव्यू में इस बात को स्वीकार किया था कि एटीएस का 90 प्रतिशत समय और ताकत को मालेगांव कांड पर खर्च किया जा रहा है। क्या इस जांच का उद्देश्य आतंकवाद के स्रोतों को बंद करना नहीं बल्कि साध्वी प्रज्ञा और ले. कर्नल पुरोहित को 'हिंदू टेरर' के प्रतीकों के रूप में खड़ा करके 'सेकुलरिस्टों' के राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाना नहीं था? आतंकवादी पाकिस्तान से आए, इस पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। वाघा बार्डर पर मोमबत्तियां जला कर क्या पाकिस्तान की मानसिकता बदली जा सकती है? 1947 में जम्मू कश्मीर के भारत में विलय के बावजूद पाकिस्तान कबायलियों और उनकी आड़ में अपनी सेना को भेजकर राज्य का एक हिस्सा अपने कब्जे में लेने में कामयाब रहा था। भारत के खिलाफ मजहबी आतंकवादियों के इस पहले इस्तेमाल की सफलता के बाद उसका इसमें विश्वास लगातार बढ़ता आया है। 1980 और 90 के दशकों में पंजाब में आतंकवादी आंधी के लिए भी पाकिस्तान ही जिम्मेदार था। कश्मीर में अलगाववादी आंदोलन को आतंक का समर्थन भी पाकिस्तान से प्राप्त होता है।

पाकिस्तान और कठमुल्लों के बाद भारत में जेहादी आतंकवाद को बढ़ाने वाला तीसरा तत्व वे मुस्लिम देश हैं जो दुनिया भर में जेहादी आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए पैसे और हथियार मुहैया करा रहे हैं। अगर भारत में आतंकवाद को सचमुच खत्म करना है तो हमें इन तीनों तत्वों के प्रभाव पर नियंत्रण लगाना होगा। यह काम किसी एक पार्टी या सरकार के बस का नहीं है। इस काम के लिए सभी दलों को अपने छोटे-छोटे स्वार्थों से ऊपर उठना होगा।


मजहब के नाम पर गुनाह

मजहब के नाम पर हिंसा और आतंक फैलाने वाली मानसिकता की तह तक जा रहे हैं डा.महीप सिंह

दैनिक जागरण ३ दिसम्बर २००८, जब छोटे-बड़े धर्म-गुरु, देश के नेता और समाज के चिंतनशील व्यक्ति यह कहते हैं कि आतंकवादी का कोई धर्म, मजहब, मत या संप्रदाय नहीं होता तो मुझे बहुत विचित्र सा लगता है। यह भी कम विचित्र नहीं है कि सभी मजहबों और मतों के अगुवा यह दावा करते हुए दिखाई देते है कि हमारे मजहब या पंथ में आतंकवाद का कोई स्थान नहीं है। मनुष्य का इतिहास ऐसी दलीलों की गवाही नहीं देता। संसार में जितना नरसंहार मजहब के नाम पर हुआ है उतना दुर्दांत आक्रमणकारियों द्वारा अपने राज्यों के विस्तार के लिए भी नहीं हुआ। मेरे सम्मुख इस समय तीन शब्द हैं-धर्मयुद्ध, जिहाद और ्रक्रुसेड। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है, ''जब-जब धर्म की हानि होती है, अधर्म की वृद्धि होती है, मैं पाप का विनाश करने और धर्म की स्थापना के लिए युग-युग में प्रकट होता हूं।'' लगभग यही बात गुरु गोबिंद सिंह ने भी कही है। भगवान कृष्ण कौरवों के खिलाफ अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित करते हैं और गुरु गोबिंद सिंह मुगलों के विरुद्ध युद्ध को धर्म युद्ध मानते हैं।

जिहाद क्या है? उसकी एक परिभाषा तो यह है कि जो लोग इस्लाम की प्रभुता को स्वीकारते नहीं है उनके विरुद्ध युद्ध छेड़ना जिहाद है। उनके लिए यह धर्म युद्ध है। उदार सूफी लेखक मानते हैं कि जिहाद दो प्रकार का होता है-अल जिहाद-ए अकबर अर्थात बड़ा युद्ध। यह जिहाद व्यक्ति की अपनी वासनाओं और दुर्बलताओं के विरुद्ध है। दूसरा है-अल जिहाद ए-अगसर, जो विधर्मियों के खिलाफ लड़ा जाता है। सऊदी अरब के कट्टरपंथी वहाबी मानते है कि इस्लाम विरोधी सभी शक्तियों के विरुद्ध युद्ध करना और उन्हे किसी भी प्रकार नष्ट करना सही जिहाद है, किंतु उदार मुसलमान कहते है कि कुरान शरीफ में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि इस्लाम किसी को जबरदस्ती मुसलमान बनाने की अनुमति नहीं देता।वह तो इसके सर्वथा विरुद्ध है। उनकी धारणा यह भी है कि इस्लाम के प्रारंभिक विरोधी यहूदी और ईसाई थे। उन्होंने इस्लाम का प्रचार रोकने के लिए उसके विरुद्ध युद्ध छेड़ रखा था। इसलिए कुरान में उनके विरुद्ध युद्ध करने की अनुमति दी गई। यह अनुमति इसलिए नहीं दी गई कि मुसलमान दूसरे पर चढ़ दौड़ें, बल्कि इसलिए कि अत्याचार से पीड़ित और निस्सहाय लोगों की सहायता करे और उन्हे अत्याचारियों के पंजों से छुटकारा दिलाएं। आज सारे संसार में जो कुछ हो रहा है, और अभी-अभी मुंबई में जो कुछ हुआ उसे वे लोग कर रहे है जो अपने आपको जिहादी मानते है। वे मानते हैं कि यहूदी, ईसाई और हिंदू इस्लाम के शत्रु है।

एक अन्य शब्द है क्रुसेड। ईसाइयों और मुसलमानों के मध्य कई सदियों तक निरंतर युद्ध चलता रहा। अरब मुस्लिम आक्रमणकारियों ने एक समय यूरोप के अनेक देशों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था। स्पेन आदि देशों पर उनका अधिकार कई सदियों तक बना रहा। 11वीं से 14वीं सदी तक पश्चिमी यूरोप के ईसाई क्रुसेडर अपनी भूमि को मुस्लिम प्रभाव से मुक्त कराने के लिए युद्ध करते रहे। क्रुसेड शब्द लैटिन भाषा के क्रक्स शब्द से बना है। युद्ध के लिए जाते समय ईसाई सैनिक अपनी छाती पर पहने हुए वस्त्र पर 'क्रास' का चिह्न सिल लेते थे। ये क्रुसेड पोप के नेतृत्व में होते थे। स्पेन में उत्तारी अफ्रीका की ओर मुस्लिम सेनाओं का प्रवेश आठवीं सदी में प्रारंभ हो गया था। लगभग सात सौ वर्ष तक यहां उनका प्रभुत्व बना रहा। 11वीं सदी में ईसाइयों द्वारा क्रुसेड आरंभ हुआ और लंबे संघर्ष के पश्चात 15वीं सदी के अंत तक वहां से मुस्लिम शासन पूरी तरह समाप्त कर दिया गया। इतिहास की इस पृष्ठभूमि में जाने से मेरा इतना ही मंतव्य है कि मजहब को आधार बनाकर संसार के विभिन्न समुदायों का संघर्ष नया नहीं है। एक बात लगभग सभी पक्षों की ओर से उन सक्रिय भागीदारों से कही जाती है कि यदि तुम ऐसे महत् अभियान में मृत्यु प्राप्त करोगे तो तुम्हे स्वर्ग या जन्नत नसीब होगा और यदि तुम सफल हुए तो धरती के सभी सुख तुम्हारे चरणों में होंगे।

यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि आधुनिक युग में संसार में जिस प्रकार से वैज्ञानिक चिंतन का विकास हुआ है, लोकतंत्र की परिकल्पना ने अपने जड़ें जमाई है उससे धर्मयुद्ध और क्रुसेड शब्दों ने बड़ी सीमा तक अपनी संगति खो दी है, किंतु जिहाद शब्द अभी भी अपनी मध्ययुगीन मानसिकता से पल्ला नहीं छुड़ा सका है। प्रत्येक समुदाय में दो वर्ग स्पष्ट रूप से दिखाई देते है। अधिसंख्य लोग सभी प्रकार की विभिन्नताओं के बावजूद मिल-जुल कर शांतिपूर्वक रहना चाहते है, किंतु इसी के साथ एक अनुदार वर्ग भी उभर जाता है। उनकी संख्या अधिक नहीं होती, किंतु अपने आक्रामक तेवर के कारण वे अपने समुदाय के प्रवक्ता जैसे बन जाते है। मैं मानता हूं कि ऐसी कट्टर मानसिकता विकसित करने में उस मत के पुरोहित वर्ग की बड़ी भूमिका होती है। विश्व के कई स्थानों पर मुस्लिम समुदाय में सुन्नियों और शियाओं के बीच एक खूनी जंग छिड़ी दिखती है।

क्या मनुष्य के अस्तित्व में युद्ध एक अनिवार्य तत्व है? लगता तो यही है। 26 नवंबर की रात को मुंबई में जिहादियों द्वारा जो भीषण आक्रमण हुआ उसे अनेक समाचार पत्रों ने अपने शीर्षकों में युद्ध जैसी स्थिति घोषित किया। जाहिर है, युद्ध का स्वरूप अब बदलता जा रहा है। आज सारे संसार में जिस आतंकवाद की चर्चा हो रही है वह आमने-सामने का युद्ध नहीं है। मुंबई में आए आतंकवादियों का यह निश्चय था कि वे इस नगर के 5 हजार लोगों की हत्या करेगे। वे कौन होंगे, उनका मजहब क्या होगा-इससे उनका कोई सरोकार नहीं था। उनकी अंधाधुंध गोलाबारी का शिकार दो दर्जन से अधिक मुसलमान भी बने। मैंने प्रारंभ में ही लिखा है कि यह कहने को कोई अर्थ नहीं है कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता। देखना यह चाहिए कि आतंकियों को जन्म देने वाली उर्वरा भूमि कौन सी है और उसे खाद-पानी कहां से मिलता है?