Wednesday, March 12, 2008

पंथनिरपेक्षता की पड़ताल

नरेन्द्र मोदी की जीत के बाद उनके विरोधियों के वक्तव्यों की जांच-परख कर रहे हैं राजीव सचान

हाल में निजी यात्रा पर प्रतापगढ़ पहुंचे मारीशस के राष्ट्रपति अनिरुद्ध जगन्नाथ ने यह कहने में कोई संकोच नहीं किया कि हम हिंदुत्व का पूरी तरह अनुसरण कर रहे हैं। क्या भारत का कोई सत्तारूढ़ राजनेता ऐसा बयान दे सकता है? ऐसा कोई बयान देने के पहले उसे दस बार सोचना पड़ सकता है और फिर भी यदि वह ऐसा बयान दे दे तो यह लगभग तय है कि देश भर के कथित पंथनिरपेक्षतावादी उस पर चढ़ाई कर देंगे और यदि ऐसा कोई राजनेता भाजपा से जुड़ा हो तब तो उसकी खैर ही नहीं। उसकी लानत-मलानत करने के साथ उसके त्यागपत्र की मांग भी हो सकती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि हमारे देश में हिंदुत्व एक हेय शब्द बना दिया गया है। जो हिंदुत्व की बात करे वह सांप्रदायिक है। जो हिंदुत्व का विरोध करे और यहां तक कि उसे बढ़चढ़कर लांछित करे और अपमानित करे वह पंथनिरेपक्ष है-प्रगतिशील है। ऐसा व्यक्ति दूसरों का इसका प्रमाणपत्र भी दे सकता है कि वह पंथनिरपेक्ष है अथवा सांप्रदायिक? ऐसे अनेक लोग इसी तरह का प्रमाणपत्र बांटकर अपनी राजनीतिक-गैर राजनीतिक दुकानें चला रहे हैं। ऐसे लोग हिंदुत्व और उसकी बात करने वालों को किस तरह लांछित करते हैं, इसके ताजा उदाहरण नरेंद्र मोदी हैं। नरेन्द्र मोदी की जीत को सांप्रदायिक ताकतों की जीत साबित करने की हरसंभव कोशिश की जा रही है। कांग्रेस के नेता कपिल सिब्बल ने फरमाया है कि मोदी ऐसी चीज हैं जिनसे कांग्रेस नफरत करती है। यह कांग्रेस की साफगोई नहीं, बल्कि उसकी उन लोगों के प्रति नफरत है जो हिंदुत्व की बात करते हैं। यह तब है जब नरेन्द्र मोदी ने चुनाव के दौरान हिंदुत्व से अधिक विकास की चर्चा की। सच तो यह है कि नरेन्द्र मोदी ने विकास के मुद्दों के बल पर ही चुनाव जीतने की कोशिश की थी, लेकिन मौत का सौदागर वाली टिप्पणी के बाद वह अपनी रणनीति बदलने के लिए विवश हुए। इसमें दो राय नहींकि उन्होंने अपने चुनावी भाषणों में राम सेतु का मुद्दा उठाया, लेकिन क्या इस मुद्दे पर बात करना सांप्रदायिक कहा जाएगा? यदि राम सेतु की बात करना सांप्रदायिक है तो फिर इसका मतलब है कि उस पर पेश हलफनामा वापस लेकर कांग्रेस ने भी सांप्रदायिक कार्ड खेला? नरेन्द्र मोदी की जीत पर अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव और गुजरात मामलों के प्रभारी बीके हरिप्रसाद हार की पूरी जिम्मेदारी स्वीकार करते हुए यह बोले हैं कि हम चुनाव हार चुके हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि सांप्रदायिक ताकतों का विरोध छोड देंगे। ऐसी ही साफगोई अन्य लोगों ने भी दिखाई। लालू यादव के अनुसार सभी पंथनिरपेक्ष दलों के लिए समय आ गया है कि वे सबक लें और सांप्रदायिक तथा फासीवादी ताकतों के खिलाफ एकजुट हों। यह वही लालू यादव हैं जिन्होंने बिहार में शासन करते समय पंथनिरपेक्षता की माला तो खूब जपी, लेकिन यह भूल गए कि विकास किस चिडि़या का नाम है? पूर्व प्रधानमंत्री एवं जनमोर्चा के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रताप सिंह की नजर में गुजरात विधानसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी की जीत संप्रदाय विशेष के प्रति घृणा पर आधारित है। वाम दलों ने वैसी ही प्रतिक्रिया व्यक्त की जैसी उनसे उम्मीद थी, लेकिन उस पर गौर करना जरूरी है। भाकपा के राष्ट्रीय महासचिव डी राजा ने कहा कि कांग्रेस को यह समझना होगा कि अकेले पंथनिरपेक्षता पर्याप्त नहीं है और पंथनिरपेक्ष दलों को गुजरात चुनाव परिणाम से सबक लेने की जरूरत है। उन्हें सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ अपने संघर्ष को और तेज करना चाहिए। इसी स्वर में माकपा पोलित ब्यूरो ने कहा कि इस समय सबसे जरूरी है हिंदुत्व की सांप्रदायिक विचारधारा के खिलाफ संघर्ष को पूरी प्रतिबद्घता के साथ तेज करना तथा मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के खिलाफ लोगों को खड़ा करना। बयान में यह भी कहा गया है कि चुनाव परिणामों से स्पष्ट हो गया कि जहां सांप्रदायिकता की जड़ें गहरी हैं वहां केवल चुनाव के जरिये उन्हें परास्त नहीं किया जा सकता। कुछ और स्वरों को सुने जाने की जरूरत है, जैसे कि इंडियन नेशनल ओवरसीज कांग्रेस का स्वर। इस संगठन ने कहा कि गुजरात विधानसभा चुनाव जीतने के लिए नरेन्द्र मोदी ने सांप्रदायिक कार्ड खेला। संगठन के महासचिव जार्ज अब्राहम ने कहा कि यह स्पष्ट है कि नरेन्द्र मोदी ने एक बार फिर मतदाताओं के डर और बेचैनी से खेला। उनके मुताबिक यदि यह विकास के नाम पर दिया गया जनादेश है तो भी भाजपा ने ऐसे किसी कार्यक्रम की चर्चा नहीं की जिसमें समाज के सभी वर्गों को समाहित करने पर बल देने की बात हो। अमेरिका स्थित एक अन्य संगठन इंडियन नेशनल मुस्लिम कौंसिल ने चुनाव परिणामों पर अपेक्षा के अनुरूप निराशा तो जताई ही, यह भी कहा कि गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की वापसी हिंदूवादी समूहों द्वारा राज्य में डर और सांप्रदायिक नफरत को सघन करने का परिणाम है। इस संगठन की राय में गुजरात नरसंहार के लिए जिम्मेदार ठहराए गए व्यक्ति के फिर जीतने से भारत की पंथनिरपेक्ष और बहुलवादी राष्ट्र की छवि को नुकसान पहुंचेगा। जाहिर है कि जिन्हें नहीं मानना वे अब भी नहीं मानेंगे कि नरेंद्र मोदी ने विकास के बल पर चुनावी जीत हासिल की है। उनके विरोधी, जिनमें राजनीतिक व्यक्ति भी हैं और गैर राजनीतिक भी, यही रट लगाए हैं कि वह सांप्रदायिक राजनीति की वजह से चुनाव जीतने में सफल रहे। इस मान्यता और मानसिकता का कोई इलाज नहीं, क्योंकि कुछ लोगों ने यह तय कर रखा है कि हिंदुत्व की बात करना संाप्रदायिक है। यदि चुनाव समाप्त होने के बाद भी चुनाव आयोग की आचार संहिता प्रभावी रहती तो संभवत: इस आयोग को वैसी ही नोटिस जारी करने के लिए विवश होना पड़ता जैसे कि उसने नरेन्द्र मोदी, सोनिया गांधी, दिग्विजय सिंह आदि को जारी की थीं, क्योंकि गुजरात चुनाव परिणामों को लेकर मोदी और भाजपा विरोधी दलों-संगठनों की ओर से जो कुछ कहा जा रहा है वह गुजरात की जनता का भी निरादर है और उसके द्वारा दिए गए जनादेश का भी। ऐसा निरादर खुद को पंथनिरपेक्ष साबित करने के लिए किया जा रहा है। क्या यही है पंथनिरपेक्षता? (लेखक दैनिक जागरण में सहायक संपादक हैं)

भारत के लिए नया खतरा

नेपाल को इस्लामी आतंकवाद के नए केंद्र के रूप में देख रहे हैं बलबीर पुंज
नेपाल की राजनीति में वर्चस्व कायम करने के बाद माओवादियों का भारत और हिंदू विरोधी चेहरा एक बार फिर हाल में भारत-नेपाल सीमा पर बेनकाब हुआ। नेपाल की हिंदूवादी पहचान पर माओवादियों का आघात अकारण नहीं था। नेपाल नरेश को हिंदू परंपरा के संरक्षक के रूप में देखा जाता था। नेपाल में राजशाही के खिलाफ खड़े हुए माओवादी या उन्हें संरक्षण देने वाले साम्यवादी सऊदी अरब जैसे मुस्लिम देश में लोकतंत्र के लिए आवाज क्यों नहीं उठाते? पाकिस्तान और बांग्लादेश में सैन्यशाही चली आ रही है, क्या माओवादी वहां जनतंत्र के लिए क्रांति छेड़ने का साहस दिखाएंगे? नेपाल नरेश को पदच्युत कर नेपाल में लोकतंत्र लाने के नाम पर जो खूनी क्रांति माओवादियों ने छेड़ रखी थी उसके मूल में ही वस्तुत: हिंदू विरोध और भारत के प्रति नफरत की भावना प्रमुख थी। अन्यथा विगत 25 दिसंबर को माओवादियों के संगठन यंग कम्युनिस्ट लीग द्वारा भारत-नेपाल सीमा पर भारत विरोधी नारेबाजी करने का क्या औचित्य था? इस संगठन के कामरेडों ने न केवल अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन किया, बल्कि सीमा के पिलर संख्या 7 से भारतीय सीमा में टनकपुर बैराज तक घुसपैठ कर भारत के विरुद्ध विषवमन किया। नेपाल के ब्रह्मदेव नगर मंडी की सीमा से भारत में घुसपैठ करने वाले माओवादियों ने भारत मुर्दाबाद और भारतीय सेनाओं नेपाल छोड़ो जैसे नारे लगाए। भारत-नेपाल सीमा पर सीमा विभाजित करने के लिए लगाए गए पिलरों में अंकित भारत शब्द को खरोंच कर मिटा दिया गया। आम नेपाली भारत को पितृदेश और पुण्यभूमि के रूप में देखते हैं। सदियों से वे विराट हिंदू संस्कृति के अंग रहे हैं। आज भी यह परंपरा अक्षुण्ण है। पशुपतिनाथ से कन्याकुमारी तक संपूर्ण हिंदू समाज के श्रद्धा और सम्मान के प्रतीक एवं तीर्थस्थल भारत और नेपाल में समान रूप से पूजनीय हैं। भारत-नेपाल के बीच यह घनिष्ठ संबंध न तो माओवादी विचारधारा के अनुकूल था और न ही इस्लामी साम्राज्यवाद को यह रास आया। जेहादी कठमुल्लों और माओवादियों का प्रयास है कि नेपाल को भारत से दूरकर चीन के करीब कर दिया जाए और उसे भारत के खिलाफ इस्लामी आतंकवाद के केंद्र के रूप में उपयोग किया जाए। नेपाली संविधान में नेपाल को हिंदू गणराज्य के रूप में घोषित किया गया था, किंतु वहां भी हिंदुत्व की अवधारणा के अनुसार सभी मतों-पंथों को समान अधिकार प्राप्त थे। राजप्रासाद-नारायण हिती पैलेस के सामने ही नेपाल की सबसे बड़ी मस्जिद का होना इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। 1991 के सर्वेक्षण के अनुसार 89.5 प्रतिशत नेपालियों ने अपनी पहचान हिंदू बताई थी, जबकि अन्य में 5.3 प्रतिशत बौद्ध और 2.7 प्रतिशत मुसलमान थे। ईसाइयों की आबादी भी नेपाल में न्यून है। फिर नेपाल को सेकुलर राष्ट्र घोषित करने की हड़बड़ी क्यों थी? इस जल्दबाजी के पीछे जहां माओवादियों का दबाव था वहीं यह इस्लामी साम्राज्यवादी ताकतों की साजिश का हिस्सा भी है। संपूर्ण एशिया में खलीफा का साम्राज्य स्थापित करने के लक्ष्य में भारत सबसे बड़ा अवरोध है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हिमालय की तराइयों में बसे नेपाल को निशाना बनाया गया। इस बात के पुख्ता सबूत हैं कि आईएसआई भारत में सक्रिय अलगाववादी ताकतों के साथ मिलकर भारत को खंडित करने की साजिश में जुटी है। पीपुल्स वार ग्रुप और नेपाली माओवादी संगठनों को आईएसआई का खुला समर्थन प्राप्त है। भारत की करीब 1860 किलोमीटर सीमा नेपाल के साथ सटी हुई है। उत्तराखंड के चार, उत्तर प्रदेश के छह, बिहार के सात, पश्चिम बंगाल का एक और सिक्किम के दो जिलों के साथ नेपाल के 27 जिले संबद्ध हैं। इसके साथ ही इन जिलों में मुसलमानों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। नेपाल के कंचनपुर, कैलाली, बरदिया और बांके जिले उत्तर प्रदेश के बहराइच से लेकर बनबसा तक सटे हुए हैं। मुस्लिम बहुल इलाकों में माओवादियों का प्रभुत्व सबसे ज्यादा है। इसका लाभ उठाकर आईएसआई माओवादियों का प्रयोग भारत के खिलाफ अपने पारंपरिक षड्यंत्र में कर रही है। विडंबना यह है कि भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए नक्सलवाद को सबसे बड़ा खतरा स्वीकारने वाले प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह सच स्वीकारना नहीं चाहते। नेपाल की सीमा से लेकर आंध्र प्रदेश के दंडकारण्य तक नक्सली-माओवादियों ने रेड कारिडोर बना रखा है, किंतु प्रधानमंत्री इस समस्या की व्यापकता को स्वीकारना नहीं चाहते। यदि वह नक्सली समस्या को सामाजिक-आर्थिकसमस्या मानते हैं तो इस्लामी जेहाद को महज मुट्ठी भर पथभ्रष्ट युवाओं की करतूत बताते हैं। साम्यवादी और उनके सहोदर-नक्सलवादी और माओवादियों की विचारधारा में क्या लोकतंत्र और बहुलतावादी संस्कृति के लिए कोई स्थान है? धर्म को जनता की अफीम मानने वाले साम्यवादियों का इतिहास अधिनायकवादी रहा है। अपनी विचारधारा दूसरों पर थोपने के लिए उन्होंने सदैव हिंसा को अस्त्र बनाया है। नंदीग्राम की हिंसा ताजा घटनाक्रम है, जहां मा‌र्क्सवादियों के खिलाफ आवाज उठाने के कारण नंदीग्रामवासियों को सत्तातंत्र की मिलीभगत से माकपाइयों की हिंसा का शिकार होना पड़ा। यह केवल पश्चिम बंगाल में नहीं हो रहा। वामपंथियों के दूसरे प्रभाव क्षेत्र केरल में भी माकपाई हिंसा का शिकार सभ्य समाज बन रहा है। वर्तमान सत्ता अधिष्ठान यदि नक्सली-माओवादी समस्या के प्रति उदासीन है तो इसका सबसे बड़ा कारण साम्यवादी हैं। यदि पचास व साठ के दशक के सत्ता अधिष्ठान में मुट्ठी भर कम्युनिस्टों की घुसपैठ थी तो आज कम्युनिस्ट खेमा वर्तमान सरकार में प्रभावी भूमिका में है। पं. नेहरू के समय से ही वामपंथी व्यवस्था को भीतर से खोखला करने में लगे हैं। यदि 1962 का कड़वा स्वाद उन्हें नहीं मिलता तो संभवत: भारतीय सत्ता अधिष्ठान कम्युनिस्टों के हाथों गिरवी हो जाता। इंदिरा गांधी की अधिनायकवादी मानसिकता कम्युनिस्टों के समर्थन से ही पुष्ट होती रही। उन्होंने कम्युनिस्टों को जो सबसे बड़ा तोहफा दिया वह है दिल्ली का जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय। नेपाल के माओवादी नेता बाबूराम भट्टाराई, पुष्पकमल दहल उर्फ प्रचंड हों या भारत के सीताराम येचुरी या प्रकाश करात-ये सब जेएनयू की ही देन हैं। भट्टाराई ने एक बार कहा था, मैंने मा‌र्क्सवाद का क-ख-ग जेएनयू में सीखा। जब नेपाल में शांति स्थापित करने के लिए माओवादियों को निमंत्रित किया गया तब भट्टाराई ने राजनीतिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हिंसा और हत्या को न्यायोचित ठहराते हुए कहा था, बंदूकों ने अपना काम पूरा किया है। वार्ता के लिए तैयार होने का अर्थ है कि हमारी सशस्त्र क्रांति विजयी रही। वस्तुत: कम्युनिस्टों की आस्था कभी भी लोकतंत्र पर रही नहीं, वे अपने विस्तार के लिए इसे एक माध्यम मात्र मानते हैं। कम्युनिस्ट यह मानते हैं कि सत्ता बंदूक की नली से आती है और इसीलिए माओवादियों और नक्सलियों को उनका खुला समर्थन प्राप्त है। सवाल देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांगे्रेस का है, जो एक ओर पंथनिरपेक्षता और प्रजातांत्रिक मूल्यों की सबसे बड़ी झंडाबरदार होने का दावा करती है और दूसरी ओर वोट बैंक के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा और सभ्य समाज पर मंडराते खतरों की अनदेखी भी करती है। (लेखक भाजपा के राष्ट्रीय सचिव हैं)
दैनिक जागरण January 8, Tuesday, 2008

मोदी की जीत का मतलब

गुजरात विधानसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी की प्रभावशाली जीत का निहितार्थ तलाश रहे हैं स्वप्न दासगुप्ता
गत 23 दिसंबर को नरेंद्र मोदी ने गुजरात में भाजपा को लगातार चौथी बार जीत दिला दी। बेशक इस जीत के मुख्य विजेता मोदी ही हैं-इसलिए कि दो चरणों में गुजरात की जनता ने जो मतदान किया था वह 182 विधायकों के निर्वाचन से अधिक मोदी के नाम पर जनमत संग्रह अधिक था। ऊपरी तौर पर भले ही कांग्रेस अकेले पराजित नजर आए, लेकिन यथार्थ यह है कि मोदी की असाधारण जीत तीन अन्य समूहों की पराजय है। ये समूह हैं-सेकुलर बौद्धिक वर्ग, मीडिया और आरएसएस नेतृत्व। राज्य कांग्रेस इन सभी में सबसे सम्मानित पराजित समूह है। उसने चुनावी अभियान की शुरुआत छिपे रुस्तम के रूप में की थी। गुजरात में कांग्रेस के पास एक भी ऐसा नेता नहीं था जो मोदी के विशाल कद का मुकाबला कर सके। उसे इस तथ्य का भी ज्ञान था कि बिजली, पानी और सुरक्षा जैसे मूलभूत विषयों पर राज्य सरकार के पिछले प्रदर्शन को देखते हुए किसी असरदार सत्ता विरोधी लहर की संभावना नहीं है। स्थानीय स्तर पर सत्ता विरोधी भावनाओं को ईंधन देने की उम्मीदें भी तब धुल गईं जब मोदी ने 127 में से 48 विधायकों के टिकट काट दिए। कांग्रेस ने यह भी समझ लिया था कि 2002 के दंगों पर फिर से जोर देना विवेकपूर्ण नहीं होगा। इन स्थितियों में कांग्रेस ने एक प्रतिबद्ध लड़ाई लड़ी और एक बड़ी संख्या में लोगों को यह समझाने में सफल भी रही कि वह भाजपा की गाड़ी को पलटने की स्थिति में है। संभावित जीत का भ्रम केवल पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिले मतों के आधार पर ही नहीं था, बल्कि कांग्रेस यह सोचकर भी आशान्वित थी कि मोदी सरकार के कामकाज से नाराज कुछ जातियों का समर्थन यदि क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम वर्गो के साथ जुड़ जाए तो उसे निर्णायक बढ़त मिल सकती है। कुछ क्षेत्रों में किसानों के असंतोष तथा बिजली भुगतान के मामले में मोदी सरकार के दृढ़ रवैये से उपजी नाराजगी को भी कांग्रेस अपने पक्ष में मान रही थी। कांग्रेस के पास नि:संदेह कुछ इक्के थे, लेकिन उसने सही पत्ते नहीं चले। गुजरात में कांग्रेस ने मोदी के व्यक्तित्व को स्थानीय मुद्दों से मिलाने की कोशिश की, जबकि भाजपा इस चुनाव को मोदी पर जनमत संग्रह बनाना चाहती थी। यह सही है कि भाजपा को सोनिया गांधी की मौत के सौदागर वाली टिप्पणी से लाभ हुआ, लेकिन यदि यह टिप्पणी नहीं भी की गई होती तो भाजपा किसी और तरीके से राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति कांग्रेस की प्रतिबद्धता पर सवाल खड़े करती। इस मामले में सोनिया गांधी को निशाना बनाना निश्चित रूप से दिग्विजय सिंह को कठघरे में खड़े करने से कहींअधिक दमदार था जिन्होंने गुजरात में हिंदू आतंकवाद होने की बात कही थी। बावजूद इसके गुजरात के इस चुनाव में सेकुलरिज्म ही प्रमुख मुद्दा नहीं था। सच तो यह है कि इसे कोई भी मुद्दा नहीं बनाना चाहता था-यहां तक कि कांग्रेस भी नहीं। वास्तव में कांग्रेस ने सेकुलरिज्म-कम्युनलिज्म मुद्दे को एकदम नीचे रखकर चुनाव लड़ा। कांग्रेस के मुस्लिम नेताओं को चुनाव अभियान से दूर रखा गया। गैर-सरकारी संगठनों और मानवाधिकार समूहों के कतिपय सितारे कार्यकर्ता भी या तो अहमदाबाद पहुंचे ही नहींऔर यदि गए भी तो खुलकर सामने नहींआए। गुजरात की बात आते ही प्रखर हो जाने वाले वामपंथी नेता तो गुजरात में जैसे अदृश्य हो गए थे। मजेदार बात यह है कि गुजरात के चुनावों में धर्म का एकमात्र हस्तक्षेप कुछ हिंदू संतों के मोदी विरोधी अभियान के रूप में देखने को मिला, जिसे कांग्रेस का समर्थन हासिल था। 16 दिसंबर को एक रहस्यमयी हिंदू संस्था की ओर से एक विज्ञापन भी जारी किया गया, जिसमें मोदी को एक मुस्लिम को सम्मानित करते तथा जूते पहनकर आरती में भाग लेते दिखाया गया। इस कोशिश का तर्क स्पष्ट था। यह उम्मीद की गई कि हिंदुओं की नाराजगी और सत्ता विरोधी भावनाओं का मिश्रण मोदी को धराशायी कर देगा। मोदी के खिलाफ अभियान के केंद्र में मीडिया था। गुजरात में मीडिया एक निर्विकार पर्यवेक्षक के बजाय सक्रिय प्रतिभागी था। मीडिया ने तो जैसे मोदी की हार सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। यह मीडिया की इसी सक्रियता का नतीजा था कि परिणाम आने के दिन लोगों ने यह सोचकर टेलीविजन सेट आन किए कि वे एक ऐसे राजनेता का पतन देखने जा रहे हैं जिसकी तुलना हिटलर जैसे तानाशाह से की जा रही है। परिणाम इसके एकदम विपरीत आए। गुजरात की जीत ने मोदी को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में राष्ट्रीय मंच पर उभार दिया जो अपने विरोधियों को चुनौती दे सकता है और फिर भी जीत हासिल कर सकता है। यदि मीडिया खुद गढ़े गए झूठ के जाल में नहीं फंसता तो गुजरात के चुनाव परिणामों का प्रभाव शुद्ध रूप से क्षेत्रीय ही बना रहता। मीडिया ने आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व के साथ मोदी की दूरी को सामने लाने में कोई कोताही नहीं बरती। आरएसएस का एक प्रभावशाली वर्ग मोदी को उनके अडि़यल रवैये के कारण सबक सिखाना चाहता था। शायद इसीलिए संघ परिवार को तटस्थ रहने का निर्देश दिया गया। यह ऐसा निर्देश था जिस पर शायद ही जमीनी स्तर पर अमल किया गया हो। भाजपा नेतृत्व के एक वर्ग ने भी मोदी के करीब जाने की कोशिश नहीं की। मोदी का यह विरोध हालांकि मतदान करीब आने के साथ कुछ कमजोर हुआ-खासकर यह स्पष्ट होने के साथ चुनाव में मोदी बढ़त पर हैं। आदर्श रूप से तो गुजरात के चुनावों का प्रभाव राज्य के बाहर तक नहीं फैलना चाहिए, लेकिन यह निर्वाचन नि:संदेह असाधारण है-न केवल मुद्दों के मामले में, बल्कि सत्ता बचाने की कोशिश कर रहे व्यक्ति के विरोधियों की गिनती के मामले में भी। यदि मोदी की जीत ने राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण कर लिया है तो इसका एकमात्र कारण उनकी एक जीत में निहित चार जीतें हैं। वस्तुत: विरोधियों ने मोदी को राष्ट्रीय विषय बना दिया है। ऐसा लगता है कि महात्मा गांधी के बाद कोई अन्य गुजराती राष्ट्रीय एजेंडा तय करने की स्थिति में है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं) Dainik Jagran, December 31, Monday , 2007

विभाजनकारी राजनीति

मजहब के आधार पर संसाधनों के आवंटन को खतरनाक बता रहे हैं बलबीर पुंज
राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में 11वीं पंचवर्षीय योजना के प्रारूप को हरी झंडी मिल गई। इस बैठक से एक-दो दिन पूर्व इंस्टीट्यूट आफ इकोनोमिक ग्रोथ के स्वर्ण जयंती समारोह में सब्सिडी की वर्तमान व्यवस्था पर सवाल उठाते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि हम समानता के नाम पर सब्सिडी पर बहुत ज्यादा खर्च करते हैं। इससे न तो क्षमता बढ़ रही है और न ही समानता के लक्ष्य पूरे हो पा रहे हैं। आगे उन्होंने कहा था, पंथनिरपेक्ष आधार पर उच्च आर्थिक विकास दर को बनाए रखने के लिए सुधारों को आगे बढ़ाने की जरूरत है। राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में इन्हींअर्थशास्त्री प्रधानमंत्री का भाषण एक सेकुलर राजनीतिज्ञ जैसा हो गया। बैठक में उन्होंने भाजपा के मुख्यमंत्रियों द्वारा 15 सूत्रीय कार्यक्रम पर व्यक्त की गई चिंता को दरकिनार करते हुए दावा किया कि मजहब के आधार पर संसाधनों का आवंटन विभाजनकारी नहीं है। इस बात में कोई संदेह नहीं कि देश में कुछ वर्ग अभी भी विकास से दूर हैं इसलिए उनको विकास का लाभ मिल सके, इसकी व्यवस्था होनी चाहिए। जाति के आधार पर तो आरक्षण को इस आधार पर न्यायोचित ठहराया जा सकता है कि वर्ण व्यवस्था के रहते सभी जातियों को विकास के समान अवसर नहीं मिल पाए, परंतु यह तर्क मुसलमानों पर हर्गिज लागू नहीं हो सकता। करीब 600 वर्षो तक भारत में इस्लाम का शासन रहा। मुसलमान बादशाहों के काल में अल्पसंख्यक होने के बाद भी अधिकांश उच्च पद मुसलमानों को ही उपलब्ध होते थे। कुछ अपवाद छोड़ दें तो हिंदुओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता था। सरकार के इस निर्णय से दो महत्वपूर्ण बिंदु रेखांकित होते हैं। यदि संविधान सभा में सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण की बहस को देखें तो विडंबनापूर्ण स्थिति उभर कर सामने आती है। स्वतंत्रता पूर्व और आजादी के ठीक बाद कांग्रेस ने मजहब के आधार पर आरक्षण का विरोध किया। परिणामस्वरूप, सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण के पैरोकारों ने कांग्रेस को हिंदूवादी और बनियावादी विशेषणों से अलंकृत किया था। मजहबी आरक्षण के समर्थन में कांग्रेस ही आज मुस्लिम लीग के पुराने कुतर्को को दोहरा रही है। इस आरक्षण की प्रमुख विरोधी भारतीय जनता पार्टी को आज आजादी से पूर्व मुस्लिम लीग द्वारा प्रयुक्त विशेषणों से नवाजा जा रहा है। मजहब के आधार पर आरक्षण के सवाल पर संविधान सभा में लंबी बहस छिड़ी थी। बाकायदा इसके लिए एक सलाहकार समिति का गठन हुआ, जिसमें 50 से अधिक सदस्य शामिल थे। इस समिति में मुसलमानों समेत अन्य अल्पसंख्यक समुदाय के प्रतिनिधि भी थे। इस समिति के अध्यक्ष एससी मुखर्जी एक ईसाई थे। मुस्लिमों के प्रतिनिधि रूप में मौलाना अबुल कलाम आजाद, अब्दुल समद खान, हिफजुर रहमान, सैय्यद अली जहीर, अब्दुल कयूम अंसारी, चौधरी खलीकुजमां, सैय्यद जफर इमाम, हाजी अब्दुल सत्तर, हाजी इसाक सेठ प्रमुख थे। समिति में जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल भी शामिल थे। सलाहकार समिति की रिपोर्ट के आधार पर संविधान सभा में 27 एवं 28 अगस्त, 1947 को अल्पसंख्यक मामलों पर बहस हुई। जैसे ही बहस प्रारंभ हुई, मद्रास से मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि बी. पोकर ने मुस्लिम समुदाय के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की व्यवस्था को आगे भी बढ़ाए रखने का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव का समर्थन मुस्लिम लीग के ही चौधरी खलीकुजमां ने भी किया। यह उल्लेखनीय है कि खलीकुजमां ने अलग पाकिस्तान के प्रस्ताव का भी समर्थन किया था। उन्होंने 1937 में संयुक्त प्रांत की सरकार में घुसने की पूरी कोशिश की थी। आजाद भारत में मुसलमानों के हित के लिए संविधान सभा में जिरह करने वाला यह व्यक्ति संविधान सभा की चर्चा के फौरन बाद ही पाकिस्तान पलायन कर गया। उनकी राष्ट्रभक्ति और उनका दायित्व बोध सहज समझा जा सकता है। मजहब आधारित आरक्षण की मांग का विरोध करते हुए सरदार पटेल ने तब कहा था, पृथक निर्वाचन मंडल की व्यवस्था हमारी राजनीति में जहर का काम कर रही है। जिन अंग्रेजों ने इस पद्धति को लागू किया उनमें से अधिकांश यह स्वीकार करते हैं। आपने अपने आपको पृथक राष्ट्र कहा, हमने स्वीकार कर लिया, किंतु यहां शेष 80 प्रतिशत भारत में क्या आप स्वीकार करते हैं कि यहां भी एक राष्ट्र होना चाहिए? या आप चाहते हैं कि यहां अब भी दो राष्ट्र की बात चलती रहे? काफी बहस के बाद अंतत: सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण की मांग ठुकरा दी गई। दूसरा बिंदु यह है कि क्या मुसलमानों के तथाकथित पिछड़ेपन के लिए शेष समाज जिम्मेदार है? क्या मुसलमानों के पिछड़ेपन के लिए हिंदुओं को आरक्षण के रूप में हर्जाना भरने के लिए विवश करना न्यायोचित है? मुसलमानों के पिछड़ेपन के कारणों का निदान किए बिना क्या उनका विकास संभव है? 2001 की जनगणना के अनुसार झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु में मुसलमानों की साक्षरता दर हिंदुओं से अधिक है। केंद्र शासित दादर नगर हवेली में हिंदुओं की साक्षरता दर यदि 56.5 प्रतिशत है तो मुसलमानों में यह अनुपात 80.4 प्रतिशत है। अंडमान निकोबार में हिंदुओं की साक्षरता 81.3 तो मुसलमानों की साक्षरता 89.8 प्रतिशत है। कटु सत्य यह है कि साक्षरता दर अधिक होने के साथ मुसलमानों में संतानोत्पत्ति की दर भी हिंदुओं के मुकाबले बहुत अधिक है। केरल में मुस्लिम साक्षरता दर 89.4 प्रतिशत होने के बावजूद मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि दर 36 प्रतिशत है। तुलना में यहां हिंदुओं की वृद्धि दर 20 प्रतिशत है। महाराष्ट्र में मुस्लिम साक्षरता दर 78 प्रतिशत होने के साथ ही मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर हिंदुओं के मुकाबले 52 प्रतिशत अधिक है। छत्तीसगढ़ में मुस्लिम साक्षरता दर 82.5 प्रतिशत है, जबकि उनकी जनसंख्या वृद्धि दर हिंदुओं के मुकाबले 37 प्रतिशत अधिक है। स्पष्ट है कि मुसलमानों की वर्तमान दशा के लिए न तो उनकी अशिक्षा और न ही मुसलमानों के प्रति समाज के अन्य वर्गो का कथित दुराग्रह जिम्मेदार है। एक से अधिक पत्नी, एक परिवार में आठ-दस बच्चे, आधुनिक शिक्षा के प्रति नकारात्मक रवैया क्या उनकी पश्चगामी मानसिकता को रेखांकित नहीं करता? क्या यह सच नहीं कि सेकुलरिस्ट इस पश्चगामी मानसिकता को पोषित करते हैं? क्या मुसलमानों के पिछड़ेपन के लिए मजहबी मान्यताएं कारण नहीं हैं? क्यों परिवार नियोजन इस्लाम में अस्वीकृत है? क्यों मुसलमान महिलाओं को पर्दे में रख उनके बाहर काम करने पर बंदिशें लगाई जाती हैं? अन्य समुदायों की महिलाएं कामकाज कर अर्थोपार्जन कर रही हैं। देश के श्रम क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी 23.6 प्रतिशत है। 27.5 प्रतिशत हिंदू, 28.7 प्रतिशत ईसाई और 20.2 प्रतिशत सिख महिलाएं यदि पुरुषों के साथ काम कर सकती है तो मुस्लिम महिलाएं क्यों नहीं? श्रम क्षेत्र में मुस्लिम महिलाओं की केवल 14.1 प्रतिशत ही भागीदारी क्यों है? जब तक इन प्रश्नों के उत्तर ईमानदारी से नहीं खोजे जाते तब तक ऐसी योजनाओं से समग्र समाज का विकास संभव नहीं है, बल्कि इतना तय है कि ऐसी व्यवस्था से सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ेगा। वस्तुत: वोट बैंक की शतरंज पर विभाजनकारी प्रवृत्ति को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। दैनिक जागरण (लेखक भाजपा के राष्ट्रीय सचिव हैं)

सीमा पार सुलगती आग

पाकिस्तान में व्याप्त अशांति के लिए वहां की कट्टरपंथी विचारधारा को जिम्मेदार बता रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित

पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों में है। पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की हत्या अंतरराष्ट्रीय खबर थी और हत्या को हादसा बताने वाली सरकारी सफाई भी। बेनजीर की वसीयत के मुताबिक पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी नाबालिग पुत्र के नाम हो गई। यह भी बड़ी खबर थी। गोया पार्टी भी एक प्रापर्टी थी। पाकिस्तान भी राष्ट्र नहीं है। यह कट्टरपंथी आक्रामक समूहों और सेना की प्रापर्टी है। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी का मालिकाना मसला वसीयत से सुलट गया। प्रापर्टी पाकिस्तान को लेकर मुसलसल जंग है। यहां कोई संप्रभु संवैधानिक सत्ता भी नहीं है। सिर्फ 60 साल की उम्र के इस मुल्क ने 4 संविधान बनाए। 32 साल तक सेना का राज रहा। इसके अलावा भी 10 साल तक सेना ने ही परोक्ष हुकूमत की, सिर्फ 18 साल ही अप्रत्यक्ष लोकतंत्र रहा। अभी भी सेना का ही राज है। बेनजीर भुट्टो की हत्या कोई अस्वाभाविक घटना नहीं है। पांच माह पहले ही लाल मस्जिद में कार्रवाई हुई थी। इसके पहले न्यायपालिका का सरेआम कत्ल हुआ। पाकिस्तान जेहादी आतंकवाद की विश्वविख्यात यूनिवर्सिटी है। रक्त पिपासु जेहादी आतंकियों पर आईएसआई और सेना का कवच है। आईएसआई और जेहादी आतंकियों के साथ कट्टरपंथी मौलानाओं की दुआएं हैं। भारत सबका दुश्मन नंबर एक है, लेकिन भारतीय हुक्मरान इससे बेखबर हैं। पाकिस्तान के जन्म का आधार मजहबी अलगाववाद था। राष्ट्र मजहब से नहीं बनते। राष्ट्र निर्माण का आधार संस्कृति होती है। मजहबी अलगाववादियों ने अपनी प्राचीन सांस्कृतिक विरासत को नहीं स्वीकारा। नई संस्कृति का निर्माण वे कर नहीं पाए। उन्होंने प्राचीन भारतीय इतिहास को भी खारिज किया। नया झूठा इतिहास लिखा गया। नई पीढ़ी ने भारत को शत्रु पढ़ा। मदरसे जेहाद सिखाने का केंद्र बने। मदरसा तालीम का विरोध बेनजीर ने किया था। अमेरिकी दबाव में मुशर्रफ ने भी किया था, लेकिन जहर मदरसों के आगे भी था। प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के सलाहकार रहे इतिहासकार केके अजीज ने द पाकिस्तानी हिस्टोरियन नामक शोध में पाकिस्तानी पाठ्य पुस्तकों के जहर की शिनाख्त की है। अजीज की किताब के मुताबिक कक्षा 2 की पाठ्य पुस्तक में उल्लेख है-पं. नेहरू ने कहा कि आजादी के बाद हिंदुस्तान में हिंदुओं की सरकार होगी। कायदे आजम जिन्ना ने कहा कि यहां मुसलमान भी रहते हैं। मुसलमानों को अलग हुकूमत चाहिए। हिंदू विरोध के ही नजरिए से तैयार कक्षा 3 की पाठ्य पुस्तक में लिखा है, राजा जयपाल ने महमूद गजनवी के मुल्क में घुसने की कोशिश की। महमूद ने राजा को हरा दिया, लाहौर को हथिया लिया और इस्लामी हुकूमत कायम की। सच बात यह है कि पंजाब कभी इस्लाम राज्य नहीं था। महमूद आक्रांता और लुटेरा था। पाकिस्तान की नई पीढ़ी उसे हीरो पढ़ रही है। कक्षा 4 की किताब के अनुसार जब अंग्रेज ने इलाके (भारत का उल्लेख नहीं) पर हमला किया तो मुसलमानों के खिलाफ गैर मुसलमानों (हिंदुओं) ने उनका साथ दिया। अंग्रेजों ने सारा मुल्क फतेह किया। कक्षा 5 की किताब में उल्लेख है-मुस्लिम और हिंदू सभ्यताओं में विवाद हुआ। आजाद मुल्क (पाकिस्तान) की जरूरत हुई। पाकिस्तान का सिद्धांत आया। भारत (हिंदुओं) की दुष्टता थी। सर सैय्यद अहमद खां ने ऐलान किया कि मुसलमानों को एक अलग राष्ट्र के रूप में संगठित करना चाहिए। किताबों में 1965 के भारत-पाक युद्ध में पाकिस्तान को विजयी बताया गया। जेहाद और इसी किस्म के इतिहास को पढ़कर औसत पाकिस्तानी नौजवान आतंकी बनता है। कट्टरपंथी मौत के बाद जन्नत की गारंटी देते हैं। कुछ बरस पहले जंग ने लाहौर के करीब स्थित मरकज अलदावत अलअरशद नाम की इस्लामी यूनिवर्सिटी के मुख्य कर्ता-धर्ता और लश्करे तैयबा के प्रमुख प्रो. हाफिज सईद का इंटरव्यू छापा था। उसने भारतीय मुसलमानों से भारत के खिलाफ जेहाद अपील की थी-इसलिए कि हिंदुओं ने मुसलमानों का जीना हराम कर दिया है। जंग ने पूछा कि मुसलमान निकलकर कहां जाएं? क्या पाकिस्तान उन्हें संभाल लेगा? सईद ने जवाब दिया, इसका जवाब सरकार दे। 1948, 1965 और 1971 में हमने संधि की, गलती की। यह न करते तो दिल्ली और कलकत्ता पर हमारा कब्जा होता। सईद जैसे लोग जो कुछ बोलते हैं वही वहां के बच्चों को पढ़ाया जाता है। सईद ने जंग से कहा कि हमारे पैगंबर के मुताबिक अधिक बच्चे देने वाली बीबी से निकाह करना चाहिए। बड़ी आबादी वाली कौम ही दूसरों पर छा जाती है। भारत के तमाम हिस्सों में बढ़ी मुस्लिम आबादी से जनसंख्या संतुलन गड़बड़ाया है। तिस पर भी 11वीं योजना के मसौदे में मजहब आधारित 15 सूत्रीय तुष्टीकरण प्रोग्राम नत्थी किया गया। डा.अंबेडकर भारत की हिंदू-मुस्लिम साझा राष्ट्रीयता को असंभव मानते थे। उन्होंने तीखे सवाल उठाए, क्या भारत के राजनीतिक विकास के लिए हिंदू, मुस्लिम एकता जरूरी है? यदि तुष्टीकरण से तो कौन सी नई सुविधाएं उन्हें दी जाएं? अगर समझौते से तो शर्तें क्या होंगी? सभी पाकिस्तानी हुक्मरान भारत विरोधी थे। भुट्टो भी, बेनजीर भी, नवाज शरीफ भी और परवेज मुशर्रफ भी। पाकिस्तान के पास परमाणु बम है। भारत विरोधी जेहादी जज्बा है। फिलहाल वहां गृहयुद्ध के हाल हैं, लेकिन विरोधी पड़ोसी के घर गृहयुद्ध का भी असर पड़ोस पर पड़ता है। पाकिस्तान का भूगोल भारत-पाक सीमाओं पर जरूर खत्म होता है, लेकिन पाकिस्तान एक विचारधारा भी है। पाकिस्तान जैसा उग्र कट्टरपंथ भारत में भी है। इसीलिए आतंकवादी अपने इसी देश में भी मदद पाते हैं। पाकिस्तान की आग का धुंआ भारत में भी है। राष्ट्र इसी धुंए से बेचैन है। पशु-पक्षी भी पड़ोसी धमक सुनकर चौकन्ने होते हैं। अपने ऊपर आती है तो पलटवार भी करते हैं, लेकिन भारतीय राजनीतिज्ञ सिर्फ सेंसेक्स उछाल देखकर ही उछल रहे हैं। (लेखक उप्र सरकार के पूर्व मंत्री हैं) दैनिक जागरण, January 4, Friday, 2008