हाल में निजी यात्रा पर प्रतापगढ़ पहुंचे मारीशस के राष्ट्रपति अनिरुद्ध जगन्नाथ ने यह कहने में कोई संकोच नहीं किया कि हम हिंदुत्व का पूरी तरह अनुसरण कर रहे हैं। क्या भारत का कोई सत्तारूढ़ राजनेता ऐसा बयान दे सकता है? ऐसा कोई बयान देने के पहले उसे दस बार सोचना पड़ सकता है और फिर भी यदि वह ऐसा बयान दे दे तो यह लगभग तय है कि देश भर के कथित पंथनिरपेक्षतावादी उस पर चढ़ाई कर देंगे और यदि ऐसा कोई राजनेता भाजपा से जुड़ा हो तब तो उसकी खैर ही नहीं। उसकी लानत-मलानत करने के साथ उसके त्यागपत्र की मांग भी हो सकती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि हमारे देश में हिंदुत्व एक हेय शब्द बना दिया गया है। जो हिंदुत्व की बात करे वह सांप्रदायिक है। जो हिंदुत्व का विरोध करे और यहां तक कि उसे बढ़चढ़कर लांछित करे और अपमानित करे वह पंथनिरेपक्ष है-प्रगतिशील है। ऐसा व्यक्ति दूसरों का इसका प्रमाणपत्र भी दे सकता है कि वह पंथनिरपेक्ष है अथवा सांप्रदायिक? ऐसे अनेक लोग इसी तरह का प्रमाणपत्र बांटकर अपनी राजनीतिक-गैर राजनीतिक दुकानें चला रहे हैं। ऐसे लोग हिंदुत्व और उसकी बात करने वालों को किस तरह लांछित करते हैं, इसके ताजा उदाहरण नरेंद्र मोदी हैं। नरेन्द्र मोदी की जीत को सांप्रदायिक ताकतों की जीत साबित करने की हरसंभव कोशिश की जा रही है। कांग्रेस के नेता कपिल सिब्बल ने फरमाया है कि मोदी ऐसी चीज हैं जिनसे कांग्रेस नफरत करती है। यह कांग्रेस की साफगोई नहीं, बल्कि उसकी उन लोगों के प्रति नफरत है जो हिंदुत्व की बात करते हैं। यह तब है जब नरेन्द्र मोदी ने चुनाव के दौरान हिंदुत्व से अधिक विकास की चर्चा की। सच तो यह है कि नरेन्द्र मोदी ने विकास के मुद्दों के बल पर ही चुनाव जीतने की कोशिश की थी, लेकिन मौत का सौदागर वाली टिप्पणी के बाद वह अपनी रणनीति बदलने के लिए विवश हुए। इसमें दो राय नहींकि उन्होंने अपने चुनावी भाषणों में राम सेतु का मुद्दा उठाया, लेकिन क्या इस मुद्दे पर बात करना सांप्रदायिक कहा जाएगा? यदि राम सेतु की बात करना सांप्रदायिक है तो फिर इसका मतलब है कि उस पर पेश हलफनामा वापस लेकर कांग्रेस ने भी सांप्रदायिक कार्ड खेला? नरेन्द्र मोदी की जीत पर अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव और गुजरात मामलों के प्रभारी बीके हरिप्रसाद हार की पूरी जिम्मेदारी स्वीकार करते हुए यह बोले हैं कि हम चुनाव हार चुके हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि सांप्रदायिक ताकतों का विरोध छोड देंगे। ऐसी ही साफगोई अन्य लोगों ने भी दिखाई। लालू यादव के अनुसार सभी पंथनिरपेक्ष दलों के लिए समय आ गया है कि वे सबक लें और सांप्रदायिक तथा फासीवादी ताकतों के खिलाफ एकजुट हों। यह वही लालू यादव हैं जिन्होंने बिहार में शासन करते समय पंथनिरपेक्षता की माला तो खूब जपी, लेकिन यह भूल गए कि विकास किस चिडि़या का नाम है? पूर्व प्रधानमंत्री एवं जनमोर्चा के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रताप सिंह की नजर में गुजरात विधानसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी की जीत संप्रदाय विशेष के प्रति घृणा पर आधारित है। वाम दलों ने वैसी ही प्रतिक्रिया व्यक्त की जैसी उनसे उम्मीद थी, लेकिन उस पर गौर करना जरूरी है। भाकपा के राष्ट्रीय महासचिव डी राजा ने कहा कि कांग्रेस को यह समझना होगा कि अकेले पंथनिरपेक्षता पर्याप्त नहीं है और पंथनिरपेक्ष दलों को गुजरात चुनाव परिणाम से सबक लेने की जरूरत है। उन्हें सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ अपने संघर्ष को और तेज करना चाहिए। इसी स्वर में माकपा पोलित ब्यूरो ने कहा कि इस समय सबसे जरूरी है हिंदुत्व की सांप्रदायिक विचारधारा के खिलाफ संघर्ष को पूरी प्रतिबद्घता के साथ तेज करना तथा मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के खिलाफ लोगों को खड़ा करना। बयान में यह भी कहा गया है कि चुनाव परिणामों से स्पष्ट हो गया कि जहां सांप्रदायिकता की जड़ें गहरी हैं वहां केवल चुनाव के जरिये उन्हें परास्त नहीं किया जा सकता। कुछ और स्वरों को सुने जाने की जरूरत है, जैसे कि इंडियन नेशनल ओवरसीज कांग्रेस का स्वर। इस संगठन ने कहा कि गुजरात विधानसभा चुनाव जीतने के लिए नरेन्द्र मोदी ने सांप्रदायिक कार्ड खेला। संगठन के महासचिव जार्ज अब्राहम ने कहा कि यह स्पष्ट है कि नरेन्द्र मोदी ने एक बार फिर मतदाताओं के डर और बेचैनी से खेला। उनके मुताबिक यदि यह विकास के नाम पर दिया गया जनादेश है तो भी भाजपा ने ऐसे किसी कार्यक्रम की चर्चा नहीं की जिसमें समाज के सभी वर्गों को समाहित करने पर बल देने की बात हो। अमेरिका स्थित एक अन्य संगठन इंडियन नेशनल मुस्लिम कौंसिल ने चुनाव परिणामों पर अपेक्षा के अनुरूप निराशा तो जताई ही, यह भी कहा कि गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की वापसी हिंदूवादी समूहों द्वारा राज्य में डर और सांप्रदायिक नफरत को सघन करने का परिणाम है। इस संगठन की राय में गुजरात नरसंहार के लिए जिम्मेदार ठहराए गए व्यक्ति के फिर जीतने से भारत की पंथनिरपेक्ष और बहुलवादी राष्ट्र की छवि को नुकसान पहुंचेगा। जाहिर है कि जिन्हें नहीं मानना वे अब भी नहीं मानेंगे कि नरेंद्र मोदी ने विकास के बल पर चुनावी जीत हासिल की है। उनके विरोधी, जिनमें राजनीतिक व्यक्ति भी हैं और गैर राजनीतिक भी, यही रट लगाए हैं कि वह सांप्रदायिक राजनीति की वजह से चुनाव जीतने में सफल रहे। इस मान्यता और मानसिकता का कोई इलाज नहीं, क्योंकि कुछ लोगों ने यह तय कर रखा है कि हिंदुत्व की बात करना संाप्रदायिक है। यदि चुनाव समाप्त होने के बाद भी चुनाव आयोग की आचार संहिता प्रभावी रहती तो संभवत: इस आयोग को वैसी ही नोटिस जारी करने के लिए विवश होना पड़ता जैसे कि उसने नरेन्द्र मोदी, सोनिया गांधी, दिग्विजय सिंह आदि को जारी की थीं, क्योंकि गुजरात चुनाव परिणामों को लेकर मोदी और भाजपा विरोधी दलों-संगठनों की ओर से जो कुछ कहा जा रहा है वह गुजरात की जनता का भी निरादर है और उसके द्वारा दिए गए जनादेश का भी। ऐसा निरादर खुद को पंथनिरपेक्ष साबित करने के लिए किया जा रहा है। क्या यही है पंथनिरपेक्षता? (लेखक दैनिक जागरण में सहायक संपादक हैं)
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