मजहब के आधार पर संसाधनों के आवंटन को खतरनाक बता रहे हैं बलबीर पुंज
राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में 11वीं पंचवर्षीय योजना के प्रारूप को हरी झंडी मिल गई। इस बैठक से एक-दो दिन पूर्व इंस्टीट्यूट आफ इकोनोमिक ग्रोथ के स्वर्ण जयंती समारोह में सब्सिडी की वर्तमान व्यवस्था पर सवाल उठाते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि हम समानता के नाम पर सब्सिडी पर बहुत ज्यादा खर्च करते हैं। इससे न तो क्षमता बढ़ रही है और न ही समानता के लक्ष्य पूरे हो पा रहे हैं। आगे उन्होंने कहा था, पंथनिरपेक्ष आधार पर उच्च आर्थिक विकास दर को बनाए रखने के लिए सुधारों को आगे बढ़ाने की जरूरत है। राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में इन्हींअर्थशास्त्री प्रधानमंत्री का भाषण एक सेकुलर राजनीतिज्ञ जैसा हो गया। बैठक में उन्होंने भाजपा के मुख्यमंत्रियों द्वारा 15 सूत्रीय कार्यक्रम पर व्यक्त की गई चिंता को दरकिनार करते हुए दावा किया कि मजहब के आधार पर संसाधनों का आवंटन विभाजनकारी नहीं है। इस बात में कोई संदेह नहीं कि देश में कुछ वर्ग अभी भी विकास से दूर हैं इसलिए उनको विकास का लाभ मिल सके, इसकी व्यवस्था होनी चाहिए। जाति के आधार पर तो आरक्षण को इस आधार पर न्यायोचित ठहराया जा सकता है कि वर्ण व्यवस्था के रहते सभी जातियों को विकास के समान अवसर नहीं मिल पाए, परंतु यह तर्क मुसलमानों पर हर्गिज लागू नहीं हो सकता। करीब 600 वर्षो तक भारत में इस्लाम का शासन रहा। मुसलमान बादशाहों के काल में अल्पसंख्यक होने के बाद भी अधिकांश उच्च पद मुसलमानों को ही उपलब्ध होते थे। कुछ अपवाद छोड़ दें तो हिंदुओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता था। सरकार के इस निर्णय से दो महत्वपूर्ण बिंदु रेखांकित होते हैं। यदि संविधान सभा में सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण की बहस को देखें तो विडंबनापूर्ण स्थिति उभर कर सामने आती है। स्वतंत्रता पूर्व और आजादी के ठीक बाद कांग्रेस ने मजहब के आधार पर आरक्षण का विरोध किया। परिणामस्वरूप, सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण के पैरोकारों ने कांग्रेस को हिंदूवादी और बनियावादी विशेषणों से अलंकृत किया था। मजहबी आरक्षण के समर्थन में कांग्रेस ही आज मुस्लिम लीग के पुराने कुतर्को को दोहरा रही है। इस आरक्षण की प्रमुख विरोधी भारतीय जनता पार्टी को आज आजादी से पूर्व मुस्लिम लीग द्वारा प्रयुक्त विशेषणों से नवाजा जा रहा है। मजहब के आधार पर आरक्षण के सवाल पर संविधान सभा में लंबी बहस छिड़ी थी। बाकायदा इसके लिए एक सलाहकार समिति का गठन हुआ, जिसमें 50 से अधिक सदस्य शामिल थे। इस समिति में मुसलमानों समेत अन्य अल्पसंख्यक समुदाय के प्रतिनिधि भी थे। इस समिति के अध्यक्ष एससी मुखर्जी एक ईसाई थे। मुस्लिमों के प्रतिनिधि रूप में मौलाना अबुल कलाम आजाद, अब्दुल समद खान, हिफजुर रहमान, सैय्यद अली जहीर, अब्दुल कयूम अंसारी, चौधरी खलीकुजमां, सैय्यद जफर इमाम, हाजी अब्दुल सत्तर, हाजी इसाक सेठ प्रमुख थे। समिति में जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल भी शामिल थे। सलाहकार समिति की रिपोर्ट के आधार पर संविधान सभा में 27 एवं 28 अगस्त, 1947 को अल्पसंख्यक मामलों पर बहस हुई। जैसे ही बहस प्रारंभ हुई, मद्रास से मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि बी. पोकर ने मुस्लिम समुदाय के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की व्यवस्था को आगे भी बढ़ाए रखने का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव का समर्थन मुस्लिम लीग के ही चौधरी खलीकुजमां ने भी किया। यह उल्लेखनीय है कि खलीकुजमां ने अलग पाकिस्तान के प्रस्ताव का भी समर्थन किया था। उन्होंने 1937 में संयुक्त प्रांत की सरकार में घुसने की पूरी कोशिश की थी। आजाद भारत में मुसलमानों के हित के लिए संविधान सभा में जिरह करने वाला यह व्यक्ति संविधान सभा की चर्चा के फौरन बाद ही पाकिस्तान पलायन कर गया। उनकी राष्ट्रभक्ति और उनका दायित्व बोध सहज समझा जा सकता है। मजहब आधारित आरक्षण की मांग का विरोध करते हुए सरदार पटेल ने तब कहा था, पृथक निर्वाचन मंडल की व्यवस्था हमारी राजनीति में जहर का काम कर रही है। जिन अंग्रेजों ने इस पद्धति को लागू किया उनमें से अधिकांश यह स्वीकार करते हैं। आपने अपने आपको पृथक राष्ट्र कहा, हमने स्वीकार कर लिया, किंतु यहां शेष 80 प्रतिशत भारत में क्या आप स्वीकार करते हैं कि यहां भी एक राष्ट्र होना चाहिए? या आप चाहते हैं कि यहां अब भी दो राष्ट्र की बात चलती रहे? काफी बहस के बाद अंतत: सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण की मांग ठुकरा दी गई। दूसरा बिंदु यह है कि क्या मुसलमानों के तथाकथित पिछड़ेपन के लिए शेष समाज जिम्मेदार है? क्या मुसलमानों के पिछड़ेपन के लिए हिंदुओं को आरक्षण के रूप में हर्जाना भरने के लिए विवश करना न्यायोचित है? मुसलमानों के पिछड़ेपन के कारणों का निदान किए बिना क्या उनका विकास संभव है? 2001 की जनगणना के अनुसार झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु में मुसलमानों की साक्षरता दर हिंदुओं से अधिक है। केंद्र शासित दादर नगर हवेली में हिंदुओं की साक्षरता दर यदि 56.5 प्रतिशत है तो मुसलमानों में यह अनुपात 80.4 प्रतिशत है। अंडमान निकोबार में हिंदुओं की साक्षरता 81.3 तो मुसलमानों की साक्षरता 89.8 प्रतिशत है। कटु सत्य यह है कि साक्षरता दर अधिक होने के साथ मुसलमानों में संतानोत्पत्ति की दर भी हिंदुओं के मुकाबले बहुत अधिक है। केरल में मुस्लिम साक्षरता दर 89.4 प्रतिशत होने के बावजूद मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि दर 36 प्रतिशत है। तुलना में यहां हिंदुओं की वृद्धि दर 20 प्रतिशत है। महाराष्ट्र में मुस्लिम साक्षरता दर 78 प्रतिशत होने के साथ ही मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर हिंदुओं के मुकाबले 52 प्रतिशत अधिक है। छत्तीसगढ़ में मुस्लिम साक्षरता दर 82.5 प्रतिशत है, जबकि उनकी जनसंख्या वृद्धि दर हिंदुओं के मुकाबले 37 प्रतिशत अधिक है। स्पष्ट है कि मुसलमानों की वर्तमान दशा के लिए न तो उनकी अशिक्षा और न ही मुसलमानों के प्रति समाज के अन्य वर्गो का कथित दुराग्रह जिम्मेदार है। एक से अधिक पत्नी, एक परिवार में आठ-दस बच्चे, आधुनिक शिक्षा के प्रति नकारात्मक रवैया क्या उनकी पश्चगामी मानसिकता को रेखांकित नहीं करता? क्या यह सच नहीं कि सेकुलरिस्ट इस पश्चगामी मानसिकता को पोषित करते हैं? क्या मुसलमानों के पिछड़ेपन के लिए मजहबी मान्यताएं कारण नहीं हैं? क्यों परिवार नियोजन इस्लाम में अस्वीकृत है? क्यों मुसलमान महिलाओं को पर्दे में रख उनके बाहर काम करने पर बंदिशें लगाई जाती हैं? अन्य समुदायों की महिलाएं कामकाज कर अर्थोपार्जन कर रही हैं। देश के श्रम क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी 23.6 प्रतिशत है। 27.5 प्रतिशत हिंदू, 28.7 प्रतिशत ईसाई और 20.2 प्रतिशत सिख महिलाएं यदि पुरुषों के साथ काम कर सकती है तो मुस्लिम महिलाएं क्यों नहीं? श्रम क्षेत्र में मुस्लिम महिलाओं की केवल 14.1 प्रतिशत ही भागीदारी क्यों है? जब तक इन प्रश्नों के उत्तर ईमानदारी से नहीं खोजे जाते तब तक ऐसी योजनाओं से समग्र समाज का विकास संभव नहीं है, बल्कि इतना तय है कि ऐसी व्यवस्था से सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ेगा। वस्तुत: वोट बैंक की शतरंज पर विभाजनकारी प्रवृत्ति को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। दैनिक जागरण (लेखक भाजपा के राष्ट्रीय सचिव हैं)
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