ईसाई मिशनरियों की सक्रियता पर एस शंकर का चिंतन
दैनिक जागरण १९ सितम्बर २००८। स्वतंत्रता से पहले जब महात्मा गांधी ने अस्पृश्यता के विरोध में अपना आंदोलन शुरू किया तब ईसाई मिशनरी बड़े अप्रसन्न हुए। उनका कहना था कि गांधीजी हिंदू धर्म के मूल तत्वों से छेड़छाड़ कर रहे है। ईश्वर जाने, अस्पृश्यता हिंदू धर्म का मूल तत्व कब से हो गया? फिर जब त्रावणकोर के मुख्यमंत्री सीपी रामस्वामी अय्यर ने हरिजनों के लिए राज्य के सब मंदिरों के दरवाजे खोल दिए तब मिशनरियों की चिंता का ठिकाना न रहा। इस कदम का सबसे कड़ा विरोध ईसाईयों ने किया, शुद्धतावादी ब्राह्मणों ने नहीं! यहां तक कि कैंटरबरी के आर्क बिशप ने भी इस पर आक्रोश जताया। उनके शब्दों में, ''इससे हरिजनों को ईसाई बनाने के प्रयासों को गहरा धक्का लगेगा।'' गांधीजी ने बार-बार कहा था कि मिशनरियों के काम में मानवतावादी भाव नहीं है। वे अपनी संख्या बढ़ाने की जुगत में रहते है। दलितों और आदिवासियों के प्रति मिशनरी दृष्टि आज भी वही है। वे पिछड़े और उत्पीड़ितों के हमदर्द नहीं, शिकारी है। यही उन क्षेत्रों में अशांति का कारण है, जहां मिशनरी सक्रिय हैं। गुजरात का भूकंप हो, एशिया में सुनामी हो या इराक में तबाही, जब भी विपदाएं आती है तो मिशनरी संगठनों के मुंह से लार टपकने लगती है कि अब उन्हे 'आत्माओं की फसल' काटने अर्थात बेबस लोगों का मतांतरण कराने का अवसर मिलेगा। वे इसे छिपाते भी नहीं। तीन वर्ष पहले सुनामी प्रभावित देशों में ईसाई मिशनरी संगठनों ने सहायता के बदले मतांतरण के खुले सौदे की पेशकश की थी। मदुरई से भी ऐसा समाचार आया था। जकार्ता में 'वर्ल्ड हेल्प' नामक अमेरिकी मिशनरी संगठन ने पचास अनाथ बच्चों की सहायता से इसलिए हाथ खींच लिया, क्योंकि इंडोनेशिया सरकार ने उन्हे ईसाइयत में मतांतरित न करने का स्पष्ट निर्देश दिया था। इसके बावजूद हमारे मीडिया में राहत के लिए मिशनरियों की वाहवाही की जाती है, जबकि वनवासी कल्याण आश्रम जैसे संगठनों की नि:स्वार्थ सेवाओं का उल्लेख भी नहीं होता। गांधीजी मानते थे कि ईसाई मिशनरियों द्वारा मतांतरण कराना दुनिया में अनावश्यक अशांति फैलाना है। उड़ीसा की घटनाएं इसका नवीनतम प्रमाण है। उत्तर-पूर्वी भारत में अंग्रेजी राज के समय से चल रहे आक्रामक मतांतरण कार्यक्रम के विषैले, अलगाववादी परिणाम प्रत्यक्ष देखे जा रहे है। ईसाई मिशनरियों की 'लिबरेशन थियोलाजी' पूरे विश्व में कुख्यात है। उसकी साम्राज्यवादी अंतर्वस्तु कोई भी व्यक्ति देख सकता है। फिर 1977-97 के बीच वीएस नायपाल ने ईरान, मलेशिया, इंडोनेशिया, पाकिस्तान के लोगों की मानसिकता का प्रत्यक्ष अध्ययन करके यही पाया कि सामी मजहबों में मतांतरित लोगों में अपनी ही संस्कृति, इतिहास, पूर्वजों से दूर होकर एक तरह के मनोरोग से ग्रस्त होने की प्रवृत्ति पाई जाती है। ईसाइयत या इस्लाम में मतांतरण किसी की निजी आस्था बदलने भर की बात नहीं है। हमें स्वामी विवेकानंद की चेतावनी को सदैव याद रखना चाहिए कि जब हिंदू धर्म से कोई व्यक्ति मतांतरित होकर ईसाई या मुसलमान बनता है तो केवल हमारा एक व्यक्ति कम नहीं होता, बल्कि एक दुश्मन भी बढ़ता है। असम, कश्मीर और उड़ीसा की घटनाएं अलग-अलग ऐतिहासिक काल में ठीक इसी की पुष्टि करती है। हम इस कड़वी सच्चाई से जितना भी कतराना चाहे, किंतु यदि इस पर विचार नहीं करते तो हमारा भविष्य चिंताजनक है। झाबुआ, डांग, क्योंझर और अब कंधमाल-पिछले दस वर्षो में देश के विभिन्न भागों में हो रही हिंसा मतांतरण की मिशनरी राजनीति का ही परिणाम है, किंतु इन घटनाओं पर विचार-विमर्श में इस बिंदु की सबसे अधिक उपेक्षा होती है। इसका सबसे बड़ा दोष वामपंथी बौद्धिकों पर है, जो मीडिया, राजनीतिक और अकादमिक जगत पर सर्वाधिक प्रभाव रखते है।
अब यह छिपी बात नहीं है कि हमारे वामपंथी बुद्धिजीवी वैसी किसी समस्या की चर्चा नहीं करते जिससे उन्हे लगता है कि भाजपा को फायदा होगा। मिशनरी और विदेशी शक्तियां उनकी इस प्रवृत्ति को अच्छी तरह पहचान कर अपने हित में जमकर इस्तेमाल करती है। इसीलिए चाहे परमाणु नीति हो, पर्यावरण मुद्दे हों, आर्थिक सुधार हों, कश्मीर या गुजरात की हिंसा या ईसाई मतांतरणकारियों का बचाव-हर कहीं हमारे वामपंथी पश्चिमी इरादों के सहर्ष प्रचारक बने मिलते है। मिशनरी एजेंसियों की ढिठाई के पीछे भी यही ताकत है। इसीलिए वे चीन या अरब देशों में इतने आक्रामक नहीं हो पाते। पश्चिमी सरकारे ईसाई मिशनरी संगठनों को दुनिया भर में मतांतरण कराने के योजनाबद्ध प्रयासों को आर्थिक, राजनीतिक, कूटनीतिक सहायता देती हैं। अमेरिकी सरकार भी ईसाइयत विस्तार को विदेश नीति का अपिरहार्य अंग मानती है।
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