हिंदू हितों (सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक) को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से प्रभावित करने वाली घटनाओं से सम्बंधित प्रमाणिक सोत्रों ( राष्ट्रिय समाचार पत्र, पत्रिका) में प्रकाशित संवादों का संकलन।
Saturday, July 19, 2008
अल्पसंख्यकों पर कुछ यूं फिदा हुए सरकारी बैंक
Thursday, July 17, 2008
बांग्लादेश में हिंदुओं के लिए नई मुसीबत
जम्मू में फिर बंद में बंध गई जिंदगी
Wednesday, July 16, 2008
कश्मीरियत की असलियत
चूंकि कांग्रेस और बुद्धिजीवी वर्ग के हिंदू यह प्रश्न नहीं पूछते इसलिए कश्मीरी मुसलमान शेष भारत पर धौंस जमाना अपना अधिकार मानते है। वस्तुत: इसमें इस्लामी अहंकारियों से अधिक घातक भूमिका सेकुलर-वामपंथी हिंदुओं की है। कई समाचार चैनलों ने अमरनाथ यात्रियों के विरुद्ध कश्मीरी मुसलमानों द्वारा की गई हिंसा पर सहानुभूतिपूर्वक दिखाया कि 'कश्मीर जल रहा है'। मानों मुसलमानों का रोष स्वाभाविक है, जबकि यात्री पड़ाव के लिए दी गई भूमि वापस ले लेने के बाद जम्मू में हुए आंदोलन पर एक चैनल ने कहा कि यह बीजेपी की गुंडागर्दी है। भारत के ऐसे पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और नेताओं ने ही अलगावपरस्त और विशेषाधिकार की चाह रखने वाले मुस्लिम नेताओं की भूख बढ़ाई है। इसीलिए कश्मीरी मुसलमानों ने भारत के ऊपर धीरे-धीरे एक औपनिवेशिक धौंस कायम कर ली है। वे उदार हिंदू समाज का शुक्रगुजार होने के बजाय उसी पर अहसान जताने की भंगिमा दिखाते है। पीडीपी ने कांग्रेस के प्रति ठीक यही किया है। इस अहंकारी भंगिमा और विशेषाधिकारी मानसिकता को समझना चाहिए। यही कश्मीरी मुसलमानों की 'कश्मीरियत' है। यह मानसिकता शेष भारत अर्थात हिंदुओं का मनमाना शोषण करते हुए भी उल्टे सदैव शिकायती अंदाज रखती है। जो अंदाज छह वर्षो से मुफ्ती और महबूबा ने दिखाया वही फारुख अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर का भी था। वाजपेयी सरकार में मंत्री रहते हुए भी उनकी पार्टी ने लोकसभा में वाजपेयी सरकार के विश्वास मत के पक्ष में वोट नहीं दिया था। वह मंत्री पद का सुख भी ले रहे थे और उस पद को देने वाले के विरोध का अंदाज भी रखते थे। जैसे अभी मुफ्ती ने कांग्रेस का दोहन किया उसी तरह जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री के रूप में फारुक अब्दुल्ला ने भाजपा का दोहन किया। पूरे पांच वर्ष वह प्रधानमंत्री वाजपेयी से मनमानी इच्छाएं पूरी कराते रहे। जम्मू और लद्दाख क्षेत्र कश्मीरी मुसलमानों की अहमन्यता और शोषण का शिकार रहा है।
जम्मू और लद्दाख भारत का पूर्ण अंग बनकर रहना चाहते है। इन क्षेत्रों को स्वायत्त क्षेत्र या केंद्र शासित प्रदेश बनाने की मांग लंबे समय से स्वयं भाजपा करती रही। फिर भी केंद्र में छह साल शासन में रहकर भी उसने फारुक अब्दुल्ला को खुश रखने के लिए जम्मू और लद्दाख की पूरी उपेक्षा कर दी। यहां तक कि पिछले विधानसभा चुनाव में फारुक अब्दुल्ला को जिताने की खातिर भाजपा ने जम्मू-कश्मीर में गंभीरता से चुनाव ही नहीं लड़ा। बावजूद इसके जैसे ही लोकसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन पराजित हुआ, फारुख ने उससे तुरंत पल्ला झाड़ लिया। इस मानसिकता को समझे बिना कश्मीरी मुसलमानों को समझना असंभव है। वाजपेयी सरकार के दौरान एक तरफ फारुख अब्दुल्ला ने तरह-तरह की योजनाओं के लिए केंद्र से भरपूर सहायता ली, जबकि उसी बीच जम्मू-कश्मीर विधानसभा में राज्य की 'और अधिक स्वायत्तता' के लिए प्रस्ताव पारित कराया। एक तरह से यह वाजपेयी के साथ विश्वासघात जैसा ही था। यदि वह प्रस्ताव लागू हो तो जम्मू-कश्मीर में मुख्यमंत्री नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री होगा। साथ ही वे तमाम चीजें होंगी जो उसे लगभग एक स्वतंत्र देश बना देंगी,मगर उसके सारे तामझाम, ठाट-बाट, सुरक्षा से लेकर विकास तक का पूरा खर्चा शेष भारत को उठाते रहना होगा। इस तरह कश्मीरी मुसलमान एक ओर भारत से अलग भी रहना चाहते है और दूसरी तरफ इसी भारत के गृहमंत्री, उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति और मौका मिले तो प्रधानमंत्री भी होना चाहते है। मुफ्ती मुहम्मद सईद, फारुख अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला तथा अन्य कश्मीरी मुस्लिम नेताओं के तमाम राजनीतिक लटके-झटके केवल एक भाव दर्शाते है कि वे भारत से खुश नहीं है। यही कश्मीरियत की असलियत है। कश्मीरी मुस्लिम नेतै, चाहे वे किसी भी राजनीतिक धारा के हों, शेष भारतवासियों को बिना कुछ दिए उनसे सिर्फ लेते रहना चाहते है। इस मनोविज्ञान को समझना और इसका इलाज करना बहुत जरूरी है, अन्यथा विस्थापित कश्मीरी हिंदू लेखिका क्षमा कौल के अनुसार पूरे भारत का हश्र कश्मीर जैसा हो जाएगा। दैनिक जागरण, 16 जुलाई 2008)
Tuesday, July 15, 2008
अलगाववादियों के अभियान
Sunday, June 22, 2008
हिंदू जनजागृति समिति
इसके पहले समिति ने इस नाटक का विरोध किया था। उनका आरोप था कि नाटक में पौराणिक चरित्रों को गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया था जिससे हिन्दुओं की भावनायें आहत होती है। मुंबई 16 जून (भाषा)
Wednesday, April 23, 2008
नेपाल में भारत की हार
नेपालियों की मनोदशा भांपने में मिली विफलता को भारत की भूल बता रहे हैं कुलदीप नैयर
नेपाल के चुनाव परिणाम से भारत को हैरानी नहीं होनी चाहिए। भारत पहले राजशाही के साथ डटा रहा और फिर एक नाकारा राजनीतिक दल के साथ। यह नई दिल्ली की असफलता है कि वह नेपाली जनता की मनोदशा का अनुमान लगाने में विफल रही। यह चिंता की बात होनी चाहिए, क्योंकि भारत और नेपाल के संबंधों का विस्तार कुछ माह का नहीं अपितु वर्षो का है। नेपाल के लोगों की सोच बदल रही थी, किंतु कल्पनालोक में खोई नई दिल्ली राजशाही और अपनी पुरानी मित्र नेपाली कांग्रेस को बचाने में लगी रही। अब नेपाल नरेश जाने ही वाले हैं। भारत ने अधिकारिक बयान दिया है कि उसका सरोकार काठमांडू की नई सरकार से है। इससे जाहिर है कि वहां जो हुआ, भारत की इच्छा के विपरीत हुआ और अब जब वैसा हो ही गया है तो वह उसे स्वीकार्य है। नई दिल्ली की चाहत चाहे जो हो, लोगों ने चुनाव में नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) को चुन लिया है। उनके चुनाव पर टीका-टिप्पणी करने वाले हम कौन होते हैं! जनादेश माओवादियों के पक्ष में और भारत के विरुद्ध है। नेपाली देख रहे थे कि नई दिल्ली उनके मामलों में बेवजह टांग अड़ा रहा है। माओवादियों ने चुनाव सभाओं में भारत के बड़े भाई तुल्य रवैये का मुद्दा उछाला था। नेपाल के साथ हमारी संधि भी नेपालियों के मनमाफिक नहीं है। हमें उसे बहुत पहले ही निरस्त कर देना चाहिए था। जब उनकी यही इच्छा थी तो हमने ऐसा क्यों नहीं किया? मैं यह भी नहीं समझ पा रहा कि पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति कार्टर ने अमेरिका से नेपाल में हुए परिवर्तन को मान्यता देने का अनुरोध क्यों किया है? अमेरिका विश्व का सर्वाधिक शक्तिशाली लोकतंत्र है। उसे यह एहसास होना चाहिए कि चाहे कितना भी अप्रिय क्यों न हो, स्वतंत्र और निष्पक्ष निर्वाचन का परिणाम ही निर्णायक और अंतिम होता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई देश किसी दूसरे देश की सरकार को पसंद करता है या नहीं। महत्व तो जनता की स्वतंत्र इच्छा का है। कार्टर चुनाव के पर्यवेक्षक रहे हैं इसलिए उन्हें यह बात बेहतर ढंग से पता होनी चाहिए। नेपालियों ने जो किया है उसे समझने और सराहने वाले लोग अब भी बहुत कम हैं। वहां सामंती समाज है, जो लगभग 235 वर्ष तक इस धारणा से ग्रस्त रहा कि महाराजा ही ईश्वर है और उसी के शासन में समृद्धि है। वहां इतनी अधिक असमानताएं हैं कि अतीत के विरुद्ध उठी आवाज को समर्थन नहीं मिलता। उम्मीद जाग रही है कि अब उनकी हालत में सुधार आएगा। माओवादी नेता प्रचंड ने इन्हीं परिस्थितियों का इस्तेमाल किया है। दो वर्ष पूर्व जब राजशाही के खात्मे की की मांग के समर्थन में सारा काठमांडू सड़कों पर उमड़ पड़ा था तो यह शोषित समाज की स्वयं को स्वतंत्र करने की उत्कंठा ही थी। देश को गणराज्य में बदलने के आश्वासन ने जनता में बदलाव की उम्मीद जगा दी। उन्होंने परिवर्तन के पक्ष में मतदान किया है। उन्हें भरोसा है कि लोगों की स्थिति में सुधार होगा। माओवादी इस कारण चुनाव में विजयी नहीं हुए हैं कि मतदाता उनकी विचारधारा से प्रभावित हैं। मतदाताओं को भरोसा है कि माओवादियों ने एक अलग अर्थव्यवस्था लाने का जो वचन दिया है उसे पूरा कर वे उन्हें गरीबी से उबारेंगे। यह सच है कि लोग भयभीत भी थे। माओवादी वर्षो से बंदूक के बल पर गांवों में अपनी हुकूमत चला रहे थे। यह भी कोई छिपी बात नहीं कि माओवादियों ने अपने सारे हथियार नहीं सौंपे, जबकि चुनाव से काफी समय पहले उन्होंने ऐसा करने पर सहमति जताई थी। इसके बावजूद लोगों के सामने कोई विकल्प नहीं था। महाराजा को वे खारिज कर चुके थे। वे फिर से नेपाली कांग्रेस की शरण में जाना नहीं चाहते थे, जिसे उन्होंने बार-बार परखा था और उनके हाथ निराशा ही लगी थी। यह देखना मजेदार था कि चुनावी पोस्टरों में कार्ल मार्क्स, लेनिन और एंगेल्स के चित्रों के साथ स्टालिन को भी स्थान दिया गया। स्टालिन ने उन लाखों लोगों को मौत के घाट उतार दिया था, जिन्होंने उनसे असहमत होने का साहस दिखाया था। स्टालिन की तस्वीर कोलकाता स्थित माकपा के मुख्यालय में भी टंगी हुई है, जबकि वह मुख्यधारा में शामिल है और लोकतांत्रिक प्रणाली में आस्था जताती है। नेपाल में माओवादी भी जब सत्ता संभालेंगे तो ऐसा ही करेंगे। अगर उनसे मोहभंग हुआ तो तब होगा, जब वे अपना वचन नहीं निभा पाएंगे। माकपा के मामले में पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में ऐसा ही हुआ है। कौन जानता है कि नेपाल में माओवादी भी इसी बात को तर्कसंगत मानने लगें कि पूंजीवादी प्रणाली में कल्याणकारी राज्य की स्थापना संभव नहीं है, जैसा कि माकपा कर रही है। भारत में नक्सलवादी, जिन्हें माओवादी भी कहा जाता है, जो कुछ कर रहे हैं, मैं उसका घोर विरोधी हूं। वे खूनखराबे और आपराधिक गतिविधियों में लिप्त हैं। वे लोकतांत्रिक प्रणाली के प्रति अपने विरोध को नहीं छिपाते। वे मुख्यधारा में भी शामिल नहीं होना चाहते। उनकी आस्था जोर जबरदस्ती में है, आम सहमति में नहीं। यही एक ठोस कारण है कि नेपाल और भारत के माओवादी हाथ नहीं मिला पाएंगे। इनमें से एक व्यवस्था के स्थापित मूल्यों के प्रति आस्थावान है जबकि दूसरा उसके खिलाफ है। भारतीय माओवादी नेपाली माओवादियों के चरमपंथी गुटों को समर्थन दे सकते हैं ताकि पशुपति से तिरुपति तक लाल गलियारे का विस्तार हो सके। नेपाल का उदाहरण दक्षिण एशियाई क्षेत्र को सीख दे सकता है, अगर वह लेना चाहे तो। निर्धनता दुस्साहसिक प्रतिकार को जन्म देती है। सामंती व्यवस्था लोकतंत्र को नकारती है। नैराश्यभाव और हताशा का बोध लोगों को विद्रोह पर आमादा करता है। वे तब विद्रोह के रास्ते पर चलते हैं, जब यह मान लेते हैं कि दमनकारी व्यवस्था से मुक्ति पाने के लिए हिंसा के अलावा कोई चारा नहीं है। लोकतंत्र जनता को नाकारा और दमनकारी शासन के खिलाफ वोट का शांतिपूर्ण विकल्प प्रदान करता है। नेपालियों ने यही किया है। अब माओवादियों को इस सवाल का जवाब देना है कि क्या उनमें लोगों की हालत सुधारने की योग्यता और संकल्प शक्ति है। जिस चुनाव में माओवादी विजयी हुए हैं वह संविधान सभा के गठन हेतु हुआ है। यदि संविधान में वादे साकार रूप नहीं ले पाए तो लोग ही माओवादियों को उखाड़ फेंकेंगे। जब मैं काठमांडू में कुछ माओवादी नेताओं से मिला था तो उन्होंने कहा था कि यदि वे चुनाव में हार गए तो भी हथियार नहीं उठाएंगे। लोकतंत्र इसी तरह कारगर होता है। लोग अपने कर्णधारों को बदल देते हैं। मैं इस बारे में सुनिश्चित नहीं हूं कि जो माओवादी हिंसा के बल पर उभरे हैं वे यदि सत्ता को हाथ से खिसकता महसूस करेंगे तो अपने वचन को निभाएंगे या नहीं? महात्मा गांधी कहते थे कि यदि साधन दूषित होंगे तो परिणाम भी दूषित ही आएंगे। दुर्भाग्य से भारत गांधीजी की सलाह पर नहीं चल सका, हालांकि उसने आजादी अहिंसात्मक उपायों से ही प्राप्त की। अमेरिका निरंतर अहसास दिला रहा है कि उसने दमनकारी कानूनों से समझौता किया है। दरअसल, आज अमेरिका में इतना बदलाव आ चुका है कि वह पहचान में ही नहीं आ रहा है। नेपाल के माओवादियों को उसका अनुसरण नहीं करना चाहिए। उन्होंने देश-दुनिया को फिर से बंदूक न उठाने का जो वचन दिया है उस पर जिज्ञासु लोगों की नजरें लगी रहेंगी। (लेखक जाने-माने स्तंभकार हैं) दैनिक जागरण, April 23, Wednesday , 2008
Saturday, April 19, 2008
आतंक पर अधूरी पहल
बंगलादेशी प्रवासियों से सुरक्षा को खतरा
Friday, April 4, 2008
सोचा-समझा दुष्प्रचार
यह विश्वास करना कठिन है कि ऐसा जानबूझकर किया जा रहा है, लेकिन यह सही है कि नैतिक मूल्य गिराने वाले तथा भारतीय अस्मिता को चोट पहुंचाने वाले कारनामों का सिलसिला बढ़ता जा रहा है। दुर्भाग्य से ऐसे कारनामों के विरोध को भगवा ब्रिगेड का हंगामा कहकर दबाने की कोशिश की जाती है। ऐसा लगता है कि इस देश में अब उन लोगों का ही वर्चस्व बढ़ता जा रहा है जिनके लिए नैतिकता, निष्ठा, आस्था और अस्मिता के बजाय वाचालता, उच्छृंखलता, दुष्टता और पैशाचिकता का अधिक महत्व है। पिछले दिनों जब दिल्ली विश्वविद्यालय के एक पाठ्यक्रम में राम-सीता-हनुमान के संदर्भ में कुत्सित उद्धरणों के संदर्भ में भी यही देखने को मिला। यह पहला मौका नहीं है जब कुत्सित अभिव्यक्ति पर आपत्ति को भगवा ब्रिगेड का हंगामा कहकर उसके तथ्यों को छिपाने का प्रयास किया गया हो। प्राचीन देवी-देवताओं के अश्लील चित्र बनाने को कलाकार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला देकर कुछ लोगों ने सेकुलर भारत के लिए महत्वपूर्ण माना। उन्हीं लोगों ने किसी कार्टूनिस्ट का सिर काटकर लाने पर पचास करोड़ के इनाम की घोषणा करने वाले की निंदा नहीं की। राम-कृष्ण के अस्तित्व को नष्ट करने और रामायण-महाभारत को कपोल-कल्पित गाथा मानने वालों ने अब आगे बढ़कर इनके आदर्श पात्रों के चरित्र चित्रण के लिए वाल्मीकि, कंबन या गोस्वामी तुलसीदास जैसे लेखकों का सहारा लेने के बजाय किन्हीं रामानुजम द्वारा लिखित पुस्तक को अधिकृत माना। यह कहा गया कि विद्यार्थियों में भारत की विविधता पूर्ण विरासत की समझ बढ़ाने और उसके प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए यह आवश्यक है ताकि वे अकादमिक ढंग से तार्किक रूप में बिना किसी संकोच या नकारात्मकता के विश्लेषण कर सकें। समझ बढ़ाने, विविधता को समझने और बिना संकोच विश्लेषण कर सकने लायक समझ बढ़ाने के लिए रामायण के जो तथ्य प्रस्तुत किए गए हैं उन पर नजर डालना उपयुक्त होगा। इस पुस्तक के कुछ तथ्य इस प्रकार हैं। रावण और मंदोदरी के कोई संतान नहीं थी। दोनों ने शिव पूजा की। शिवजी ने उन्हें पुत्र प्राप्ति के लिए आम खाने को दिया। गलती से सारे आम रावण ने खा लिए और उसे गर्भ ठहर गया। रावण के नौ माह गर्भधारण की व्यथा भी इस अध्याय में दी गई है। गर्भ की व्यथा से पीडि़त रावण ने छींक मारी और सीता का जन्म हुआ। सीता रावण की पुत्री थी, जिसे उन्होंने जनकपुरी के खेत में त्याग दिया था। हनुमान एक तुच्छ छोटा सा बंदर था। वह लंका में स्ति्रयों का आमोद-प्रमोद देखने के लिए वह खिड़कियों से ताक-झांक करता था। रावण का वध राम ने नहीं, लक्ष्मण ने किया। दिल्ली विश्वविद्यालय के बीए आनर्स द्वितीय वर्ष के लिए कल्चर इन एंसियेंट इंडिया नामक जिस पुस्तक में यह सब और इसी तरह का और बहुत कुछ शामिल किया गया है उसका संकलन और संपादन डा. उपेंद्र कौर ने किया है, जो देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पुत्री हैं। संकोच और नकारात्मकता से प्रभावित न होने के लिए पुरुष के गर्भधारण से अधिक वैज्ञानिक समझ और क्या हो सकती है? जिस रावण के एक लखपूत सवा लख नाती थे उसे संतानविहीन और जो लाखों वर्षो से भारतीय मर्यादा के प्रतीक हैं उन्हें तुच्छ साबित करने से अधिक विविधता को समझने का और कौन सा उदाहरण दिया जा सकता है? इसी संकलन में लिखा है कि प्राचीन भारत में स्ति्रयां बेची और खरीदी जाती थीं। मैं नहीं समझता कि संकलनकर्ता का उपरोक्त उद्धरणों में विश्वास होगा या इन तथ्यों को शिक्षा नीति निर्धारित करने वाले अधिकृत मानते होंगे। कम से कम अर्जुन सिंह के बारे में तो यह दावा किया ही जा सकता है। फिर भी प्राचीन भारत की अनुभूति कराने के इस प्रकट के प्रयासों की निरंतरता क्यों है? इसे समझने के लिए एक और उदाहरण संभवत: उपयुक्त होगा, जो बड़े जोर-शोर से प्रचारित होने वाली यौन शिक्षा की पाठ्य सामग्री में वर्णित है। पाठ्य सामग्री में यह कहा गया है कि यौन संबंध केवल एक सहज शारीरिक क्रिया है, इसका नैतिकता, पवित्रता और आध्यात्मिकता से कोई संबंध नहीं हैं। एड्म को जानिए वाले भाग में सहवास के ऐसे अप्राकृतिक तरीकों का वर्णन किया गया है जिससे एड्स से बचा जा सकता है। मैं क्या करूं शीर्षक का यह उदाहरण क्या समझाने के लिए है-मैं ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ती हूं। मैंने क्लास रूम में एक लड़के के साथ यौन संबंध बनाए। अब वह दबाव डाल रहा है कि मैं उसके दोस्तों के साथ भी यौन संबंध बनाऊं, मैं क्या करूं? यौन शिक्षा के लिए इसी तरह के जो दर्जनों उदाहरण दिए गए हैं उनका उल्लेख करने का साहस मुझमें नहीं है। यह पुस्तक किस प्रकार की यौन शिक्षा को बढ़ावा देगी? क्या ऐसे पाठ्यक्रम और निकृष्ट साहित्य पर रोष प्रकट करना भगवा ब्रिगेड का हंगामा है? हम कैसी संस्कृति का स्वरूप पेश कर रहे हैं? जीवन में विश्वास, आस्था और संकल्प शक्ति पैदा करने वाले आचरण को हेय तथा पशुवत भावना को सहज स्वाभाविक बताकर जो कुछ समझाने का काम हमारे समझदार लोग कर रहे हैं उनकी मानसिकता को समझने के लिए एक और उदाहरण पेश है। रामसेतु का विरोध कर रहे तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि ने साक्षात्कार में कहा कि राम और सीता भाई-बहन थे। ऐसा तुलसीदास की रामायण में लिखा है। साक्षात्कारकर्ता ने उनसे पूछा कि क्या उन्होंने स्वयं ऐसा पढ़ा है तो उनका उत्तर था-हां मैंने पढ़ा है। अब आप इस पर क्या प्रतिक्रिया करेंगे? कुत्सितता का प्रचार-प्रसार अज्ञानता के कारण नहीं, बल्कि जानबूझकर सोची-समझी रणनीति के तहत किया जा रहा है ताकि हम अपनी अस्मिता से कटकर अमेरिकी कचरा प्रवृत्ति के गुलाम हो जाएं। उद्योग, व्यापार, राजनीति, शिक्षा-सभी क्षेत्रों में यही प्रयास प्रगतिशीलता का पर्याय बन गया है। (लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं)