Tuesday, July 15, 2008

अलगाववादियों के अभियान

देश के दूसरे राज्यों से आकर जम्मू-कश्मीर में काम करके रोजी-रोटी कमाने वाले मजदूरों के खिलाफ अलगाववादियों ने एक बार फिर अभियान छेड़ दिया है। हालांकि हुर्रियत कान्फ्रेंस ने ऐसे तत्वों से फिलहाल अल्टीमेटम वापस लेने की अपील भी की है, लेकिन इसका कोई खास असर अल्टीमेटम देने वालों पर नहीं पड़ रहा है। यह अपील हुर्रियत ने सिर्फ कुछ दिनों के लिए की है, ताकि जनमत उनके खिलाफ न हो जाए। जबकि मजदूरों के खिलाफ अलगाववादियों के अल्टीमेटम और उनके अभियान का असर पूरे राज्य पर पड़ रहा है। इससे बाहरी राज्यों से आकर यहां काम करने वाले मजदूर तो प्रभावित हो ही रहे हैं, राज्य की कृषि और अर्थव्यवस्था पर भी इसका बुरा असर पड़ रहा है। हालत यह है कि घाटी में बाहरी मजदूरों के खिलाफ ऐसा माहौल बना दिया गया है कि कोई वहां टिके ही नहीं। पहले तो उन्हें कश्मीर छोड़ने की धमकी दी गई। इसके बाद उन्हें घरों से बाहर निकाल कर पीटने और उनकी जमा-पूंजी छीनने जैसा जघन्य कृत्य भी किया गया। हैरत की बात यह है कि ऐसे अराजक तत्वों को रोकने वाला इस राज्य में कोई नहीं है। असामाजिक तत्व पूरे राज्य में अपनी मनमर्जी चला रहे हैं। जब जैसा चाहें फरमान जारी कर देते हैं और लोग उसे मानने के लिए विवश होते हैं, पर पुलिस प्रशासन इनके खिलाफ कोई कार्रवाई करने में स्वयं को सक्षम नहीं पाता है। देश के दूसरे राज्यों से यहां आकर मजदूरी करने वाले लोगों के खिलाफ अभियान यहां कोई पहली बार नहीं चलाया जा रहा है। इसके पहले भी ऐसा हो चुका है। पहले उनके साथ सिर्फ लूटपाट की त्रासदी होती थी। मजदूरों की जमापूंजी छीनकर उन्हें भगा दिया जाता था। लेकिन अब स्थितियां ज्यादा बदतर हो गई हैं। बात केवल उनकी जमापूंजी छीनने तक सीमित नहीं रही। अब उनकी राष्ट्रीयता की भावना को आहत करने की पूरी कोशिश की जा रही है। ऐसी जगह पर जहां वे निराश्रित, अकेले और कमजोर हैं, उनकी गैरत को ललकारा जा रहा है। मजदूरों को पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगाने के लिए विवश किया जा रहा है। ऐसा राष्ट्रविरोधी कार्य करने की तुलना में आम भारतीय कश्मीर छोड़कर वापस अपने राज्य में लौट जाना पसंद करता है। दुखद बात यह है कि जम्मू-कश्मीर की सरकार या पुलिस-प्रशासन ऐसे तत्वों के खिलाफ कोई भी प्रभावी कदम उठाने में पूरी तरह नाकाम है। ऐसी स्थिति में अलगाववादियों पर काबू पाना वहां कैसे संभव होगा, यह सोचने की बात है। सच तो यह है कि कश्मीर में अलगाववादी पूरी तरह हावी होते जा रहे हैं। शासन और प्रशासन यह सब देख रहा है। इसके बावजूद वह कोई ठोस और प्रभावी कदम अलगाववादियों के खिलाफ नहीं उठा पा रहा है। वे जब जहां चाहते हैं हड़ताल करवा देते हैं। कभी धरना, कभी प्रदर्शन और कभी दंगे जैसे हालात बना देते हैं। यहां तक कि पाकिस्तानी झंडा फहराने जैसा राष्ट्रद्रोही कार्य भी वहां किया जा चुका है। ऐसा करने वाले लोग वहां आज भी खुलेआम घूम रहे हैं, क्योंकि उन्हें राजनीतिक संरक्षण प्राप्त है। यही नहीं, इनके राष्ट्रविरोधी प्रदर्शनों में स्थानीय नागरिकों को अक्सर न चाहते हुए भी शामिल होना पड़ता है। चूंकि स्थानीय प्रशासन आम लोगों की सुरक्षा कर पाने में नाकाम है, लिहाजा आम नागरिकों को इनके इशारे पर नाचना पड़ता है। वे जो कुछ भी चाहते हैं, वह उन्हें करना पड़ता है। आतंकवादियों को आम नागरिकों के घरों में शरण देने से लेकर उनके हथियार और गोला-बारूद छिपाने तक के अपराध आम जनता को इसीलिए करने पड़ते हैं। जाहिर है, जिनके पास भाग कर जाने के लिए भी कोई जगह नहीं है और जो पूरी तरह अलगाववादियों की दया पर ही निर्भर हैं, उन्हें उनके इशारों पर नाचना ही पड़ेगा। यह प्रशासनिक तंत्र की कमजोरी का ही नतीजा है, जो वहां अलगाववादी तत्व पूरे माहौल पर हावी हो गए हैं। अभी हाल ही में श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को अस्थायी निर्माण के लिए जंगल की जमीन दिए जाने को लेकर जो कुछ हुआ वह प्रशासनिक तंत्र की कमजोरी का ही नतीजा है। अगर प्रशासनिक तंत्र मजबूत इच्छाशक्ति के साथ काम कर रहा होता तो वहां इस बात को लेकर किसी तरह का बवाल होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। परंतु इस मसले पर वहां पूरा बवाल हुआ और पूरा प्रशासन आम तौर पर मूकदर्शक बन कर देखता रहा। कश्मीरी पंडितों को अपने घर-खेत छोड़कर बाहर भागना पड़ा। आज वे दिल्ली और देश के अन्य शहरों में शरणार्थियों की तरह जिंदगी जी रहे हैं। पुरखों की संपत्ति से तो उन्हें वंचित होना ही पड़ा। यह आखिर किसकी कमजोरी है? भारतभूमि से प्रेम की कीमत उन्हें अपनी ही संपत्ति से वंचित होकर और अपने ही देश में शरणार्थी की तरह जीवन जीकर चुकानी पड़ रही है। इन सारी स्थितियों के लिए जिम्मेदार आखिर किसे माना जाए? अलगाववादी तत्व पूरे कश्मीर में खुलेआम घूम रहे हैं। वहां वे युवकों-युवतियों को वरगला रहे हैं। शरीफ नागरिकों को धमका रहे हैं और उन्हें पाकिस्तान के समर्थन तथा भारत के विरोध के लिए मजबूर कर रहे हैं। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो सरकार को मालूम न हो। सब कुछ पुलिस, खुफिया एजेंसियों और प्रशासन की नजर के सामने खुलेआम हो रहा है। इसके बावजूद किसी अलगाववादी तत्व के खिलाफ न तो कोई कठोर कार्रवाई की जा रही है और न उनकी नापाक हरकतों पर रोक लगाने की कोई गंभीर कोशिश ही दिखाई दे रही है। इन हालात को देखते हुए ऐसा लगने लगा है गोया कश्मीर अब पूरी तरह अराजक तत्वों के हवाले छोड़ दिया गया है। ऐसी स्थिति में दूसरे राज्यों से यहां आए मजदूर तो लौटकर अपने घर चले जाएंगे। वे वहीं मजदूरी करके जी लेंगे या थोड़े दिन बेरोजगार रह लेंगे। फिर कहीं और चले जाएंगे। लेकिन उन स्थानीय नागरिकों का क्या होगा, जो यहीं के रहने वाले हैं? क्या वे खुद को अलगाववादियों के रहमो-करम पर जीने को विवश मान लें या फिर सरकार उनकी जान-माल की सुरक्षा का कोई बंदोबस्त करेगी? सच तो यह है कि जब तक कश्मीर में आम नागरिकों की सुरक्षा के पुख्ता बंदोबस्त नहीं हो जाते तब तक वहां शांति सुनिश्चित हो पानी मुश्किल है। उस वक्त तक वहां आम आदमी को मुट्ठी भर राष्ट्रविरोधी तत्वों के रहमो-करम पर जीना पड़ेगा। यह न तो कश्मीर और वहां की जनता के लिए सही बात होगी और न अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि के लिए ही। सरकार को इस मसले का कोई न कोई ठोस और प्रभावी समाधान तो निकालना ही पड़ेगा। बेहतर होगा कि इसके लिए अभी से ही सुनियोजित तरीके से काम शुरू कर दिया जाए। उन कारणों की पड़ताल की जाए जिनके नाते वहां पूरे माहौल पर अलगाववादी तत्व हावी हैं। इसके बाद उन पर नियंत्रण की पूरी व्यवस्था बनाई जाए और उस पर क्रमबद्ध तरीके से अमल किया जाए। यह तो अब तय ही हो चुका है कि यह काम आसानी से होने वाला नहीं है, इसलिए इस संबंध में सरकार को पूरी कड़ाई बरतने के लिए भी पहले से तैयार रहना चाहिए।(दैनिक जागरण , १५ जुलाई २००८)

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