ईसाइयों और हिंदू संगठनों के बीच टकराव के मूल कारणों पर प्रकाश डाल रहे है संजय गुप्त
दैनिक जागरण २० सितम्बर २००८। लगभग डेढ़ माह पूर्व उड़ीसा के कंधमाल जिले में विश्व हिंदू परिषद से जुड़े संत लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के बाद वहां हिंदुओं और ईसाइयों के बीच भड़की हिंसा शांत होती, इसके पहले ही कर्नाटक के कुछ इलाकों में इन दोनों समुदायों के बीच तनाव व्याप्त हो गया। इस तनाव के बीच मध्यप्रदेश के जबलपुर में एक चर्च पर हमले की सूचना आई। हिंदुओं और ईसाइयों के बीच तनावपूर्ण रिश्ते शुभ नहीं। यह चिंताजनक है कि इन समुदायों के बीच पनपे वैमनस्य के मूल कारणों की अनदेखी की जा रही है। कंधमाल में लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के इतने दिनों बाद भी यह स्पष्ट नहीं कि उन्हे किसने मारा-नक्सलियों ने या ईसाई चरमपंथियों ने? न केवल लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के लिए जिम्मेदार लोगों की पहचान आवश्यक है, बल्कि उन तत्वों पर लगाम भी जरूरी है जो राज्य में अराजकता पैदा कर रहे है। केंद्र का कहना है कि भाजपा के समर्थन के कारण नवीन पटनायक सरकार उग्र हिंदू संगठनों को नियंत्रित नहीं कर रही है। केंद्र के नेताओं ने कुछ ऐसा ही आरोप कर्नाटक सरकार पर भी लगाया है, जहां कुछ गिरजाघरों पर हमले किए गए है। केंद्र ने कर्नाटक और उड़ीसा को चेतावनी देने के बाद मध्य प्रदेश और केरल को भी चेताया है। भले ही इस पर विवाद हो कि केंद्र ने उड़ीसा और कर्नाटक को अनुच्छेद 355 के तहत चेतावनी दी या नहीं, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि उसका रवैया सख्त है। क्या यह विचित्र नहीं कि केंद्र ने ऐसी सख्ती न तो महाराष्ट्र सरकार के संदर्भ में दिखाई और न ही असम सरकार को लेकर, जबकि इन दोनों राज्यों में हिंदी भाषियों को रह-रह कर आतंकित किया गया। यह शर्मनाक है कि असम में हिंदी भाषियों की हत्या और उसके कारण उनके पलायन पर भी केंद्र को अपनी जिम्मेदारी का अहसास नहीं हुआ।
उड़ीसा एवं कर्नाटक में बजरंग दल जिस तरह आक्रामक तेवरों के साथ कानून अपने हाथ में लेकर ईसाइयों के धार्मिक स्थलों को निशाना बना रहा है उससे उसकी छवि लगातार गिर रही है। हिंदू हितों की रक्षा के लिए सक्रिय यह संगठन बेलगाम हो रहा है। एक ऐसे समय जब देश इस्लामी आतंकवाद से बुरी तरह त्रस्त है तब हिंदू संगठनों की उग्रता शांति एवं सद्भाव के लिए एक बड़ा खतरा है। यदि बजरंग दल इसी तरह की गतिविधियां जारी रखता है तो उस पर पाबंदी लग सकती है। ऐसा होने पर उसकी छवि एक आतंकी संगठन के रूप में उभरना तय है और यदि ऐसा कुछ होता है तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की किरकिरी होना स्वाभाविक है। बजरंग दल यह तर्क दे सकता है कि देश के नीति-नियंता हिंदू संस्कृति का अपमान करने वालों को खुली छूट प्रदान कर रहे है इसलिए वह अपने तरीके से अन्याय का प्रतिकार कर रहा है। इसमें दो राय नहीं कि मतांतरण में लिप्त मिशनरियों पर अंकुश नहीं लगाया जा रहा, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि बजरंग दल मनमानी पर उतर आए और हिंदू समाज एवं राष्ट्र की छवि की परवाह न करे। यह संगठन जिस राह पर चल रहा है उससे किसी का भी हित नहीं होने वाला। कम से कम भाजपा को तो यह अनुभूति होनी चाहिए कि वह बजरंग दल को नियंत्रित न करके आग से खेलने का काम कर रही है। धीरे-धीरे यह धारणा गहराती जा रही है कि भाजपा शासित राज्यों में यह संगठन ईसाइयों और मुसलमानों के प्रति असहिष्णु हो उठता है और उसे सत्ता का संरक्षण मिलता है। यह स्थिति भाजपा के लिए गहन चिंता का कारण बननी चाहिए।
पिछले लगभग दो दशकों से देश में जैसे सामाजिक बदलाव हो रहे है उससे हिंदू संस्कृति पर आंच आ रही है। बात चाहे पूर्वोत्तर में बांग्लादेशी घुसपैठियों की हो या देश के विभिन्न भागों में ईसाई मिशनरियों के मतांतरण अभियान की-इस सबका दुष्प्रभाव अब साफ दिखने लगा है। समस्या यह है कि हमारे ज्यादातर राजनीतिक दल न तो बांग्लादेशी घुसपैठियों की बढ़ती आबादी को लेकर चिंतित है और न ही निर्धन एवं अशिक्षित व्यक्तियों को मतांतरित किए जाने पर। कुछ राजनेता तो बांग्लादेशी घुसपैठियों के प्रति भी नरम है और मतांतरण में लिप्त मिशनरियों के प्रति भी। वे यह मानने को तैयार नही कि इस सबसे हिंदू संस्कृति प्रभावित हो रही है। बांग्लादेशी नागरिकों की घुसपैठ और ईसाई मिशनरियों की अवांछित सक्रियता पर भाजपा हमेशा यह कहती रही है कि एक सोची समझी साजिश के तहत हिंदू अस्मिता पर आघात किया जा रहा है, लेकिन तथाकथित सेकुलर दल उसकी सही बात सुनने को तैयार नहीं।
इस पर कोई संशय नहीं हो सकता कि संविधान में ऐसी कोई छूट नहीं दी गई है कि ईसाई मत प्रचारक मनमाने तरीके से भारत के लोगों का मतांतरण कर सकें या फिर पड़ोसी देश के लोग बेरोक-टोक आकर यहां बसते रहे। चूंकि ईसाई मिशनरियां छल-छद्म और प्रलोभन के जरिये निर्धन तबकों को मतांतरित कर रही हैं इसलिए विश्व हिंदू परिषद मतांतरित लोगों की घर वापसी यानी मूल धर्म में वापसी का अभियान चलाने के लिए बाध्य है। यदि ईसाई मिशनरियों को मतांतरण की छूट दी जाती रहेगी तो घर वापसी के अभियान चलते रहेगे और चलते रहने भी चाहिए। उड़ीसा में हिंदुओं और ईसाइयों के बीच तनाव का मूल कारण मतांतरण ही है। राज्य में कुई भाषी कंध और पण जातियों के बीच टकराव की स्थिति है। वैसे तो कंध जनजाति और पण दलित, दोनों आरक्षण के दायरे में हैं,पर कंध जनजाति के लोग मतांतरित होने के बाद भी आरक्षण का लाभ उठाते रहते हैं, जबकि पण दलित मतांतरित होने की स्थिति में आरक्षण के दायरे से बाहर हो जाते हैं। बड़े पैमाने पर ईसाई मत अपनाने वाले पण खुद को कुई भाषी बताकर अपने लिए जनजाति का दर्जा मांग रहे हैं। इस मांग को ईसाई मिशनरियां और वोट के लोभ में कुछ कथित सेकुलर दल समर्थन दे रहे हैं। कंध जनजाति के लोगों को लगता है कि यदि पण लोगों की मांग मान ली गई तो उनके अधिकार छिन जाएंगे। उन्हें यह भी लगता है कि उन्हें अपने मूल धर्म में बने रहने का खामियाजा उठाना पड़ सकता है। उनका भय जायज है, पर सेकुलर दल यह समझने के लिए तैयार नहीं। कर्नाटक में भी तनाव की जड़ में ईसाई मिशनरियों की अति सक्रियता है। देश को इस पर गौर करना होगा कि ईसाई मिशनरियां क्या कर रही हैं? कर्नाटक में मिशनरियों द्वारा वितरित की जा रही सत्यदर्शिनी नामक पुस्तिका में यहां तक कहा गया है कि भगवान राम तो मूर्ख थे। ऐसी ही बातें अन्य देवी देवताओं के बारे में कही गई हैं। क्या दुनिया का कोई भी समाज अपने देवताओं के बारे में ऐसी भाषा सहन करेगा?
मतांतरण व्यक्ति विशेष का निजी मौलिक अधिकार है। पूजा पद्धति पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं हो सकता। विडंबना यह है कि हमारे देश में सामूहिक मतांतरण होता है। यह सहज संभव नहीं कि कोई एक बस्ती रातों-रात अपनी आस्था बदलने के लिए तैयार हो जाए। इस संदर्भ में यह नहीं भूलना चाहिए कि जो लोग मतांतरित हो रहे है वे गरीब और अशिक्षित है। उनके अभावों को दूर करने के लिए उन्हे तरह-तरह के प्रलोभन दिए जाते है और फिर आस्था बदलने की शर्त रखी जाती है। यह एक यथार्थ है कि हर राष्ट्र की एक संस्कृति होती है और उसकी आत्मा उस संस्कृति में बसती है। भारत की आत्मा उसके हिंदुत्व प्रधान चरित्र में है। बांग्लादेशी घुसपैठियों और मतांतरित ईसाइयों के कारण जैसा समाज बन रहा है वह भारत की परिकल्पना के प्रतिकूल है।