Friday, September 19, 2008

आतंक से न लड़ने का उदाहरण

आतंकवाद के खिलाफ केंद्र सरकार की प्रतिबद्धता को खोखला बता रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित

दैनिक जागरण १९ सितम्बर २००८। दुर्भाग्य अकेले नहीं आता,अपना लाव-लश्कर भी साथ लाता है। केंद्र महंगाई, जम्मू-कश्मीर और आतंवाद सहित सभी मोर्चो पर पहले से ही हलकान है कि प्रशासनिक सुधार आयोग ने आतंकवाद पर वर्तमान कानून नाकाफी बताकर उसे कठघरे में खड़ा कर दिया। आयोग ने आतंकवाद पर सख्त कानून और संघीय जांच एजेंसी की सिफारिश की है, आतंकी तत्वों की जमानत को जटिल बनाने और पुलिस रिमांड की अवधि बढ़ाने का आग्रह भी किया है। आतंकवाद को पाठ्यक्रम में शामिल करने का सुझाव अनूठा है। आयोग ने अपनी रिपोर्ट बीते जून में ही प्रधामनंत्री और गृहमंत्री को सौंपी थी। सरकार इसे दबाए बैठी थी। सोनिया, मनमोहन और पाटिल आतंकवाद पर वर्तमान कानूनों को पर्याप्त बता रहे थे कि दिल्ली आतंकी बम विस्फोट से फुफकारता सांप फिर फन उठाकर खड़ा हो गया। आतंकवाद धारावाहिक है। समूचे देश में दहशत है। केंद्र की मिमियाहट भी धारावाहिक है: देशवासी धैर्य से काम लें, आतंकवाद कायराना हमला है, दोषी पकड़े जाएंगे वगैरह..वगैरह। प्रतिपक्षी भाजपा का विरोध भी धारावाहिक है: पोटा जरूरी था, संप्रग आतंकवाद पर नरम है। हम सत्ता में आएंगे तो ठीक से लड़ेंगे।'' बावजूद इसके बुनियादी सवाल अधर में हैं।

आतंकी अपराधियों की खोजबीन या गिरफ्तारी ही अहम् सवाल नहीं है। अहम् सवाल है आतंकी संगठनों का असली मकसद। सिमी, इंडियन मुजाहिदीन या हुजी वगैरह में सिर्फ नाम का फर्क हैं। सबका मकसद भारत को इस्लामी शरीय वाला राष्ट्र बनाना ही है। सिमी ने अपने स्थापना सम्मेलन में ही अपने इस मकसद का ऐलान कर दिया था। आतंकियों की हिंसा सामान्य आपराधिक कार्रवाई नहीं है। ऐसी हिंसा भारत के पंथनिरपेक्ष संविधान और राष्ट्र-राज्य से सीधा युद्ध है। आतंकी भारत में इस्लामी संविधान और मजहबी राष्ट्र चाहते हैं। इक्का-दुक्का राष्ट्रवादी दल और संगठन ही मजहबी आक्रामकता के विरोधी हैं। कांग्रेस, सपा, बसपा, राजद और वाम दलों समेत ढेर सारे रामविलास पासवान इस आक्रामकता और आतंकी हिंसा के प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष समर्थक हैं। मुसलमान दमदार वोट बैंक हैं, लेकिन एक अरब हिंदू कहां जाएं? क्या करें? उन्हें तय करना है कि क्या वे भी भारत में इस्लामी शरीय वाला मुस्लिम राष्ट्र चाहते हैं? वोट बैंकवादी दल और नेता आतंकवाद से नहीं लड़ सकते। प्रशासनिक सुधार आयोग के नेता मोइली वरिष्ठ कांग्रेसी हैं, लेकिन उन्हें चुनावी वर्ष में ही कड़े कानून की जरूरत का इलहाम हुआ। सारी दुनिया में आतंक विरोधी कड़े कानून है। पोटा कांग्रेस ने ही हटाया था। आतंकी हिंसा ने इसी सरकार में 4538 नागरिकों और 1771 सुरक्षा बलों का वध किया है। राष्ट्र राज्य तो भी मूकदर्शक है और हमलावरों का समर्थक है। सुप्रीम कोर्ट ने विदेशी घुसपैठ को विदेशी आक्रमण बताया था। केंद्र ने विदेशी इनकमिंग फ्री ही रखी है। क्या संविधान फेल हो गया है? संविधान मसौदे के रचनाकार डा.अंबेडकर को ऐसी ही आशंका थी। उन्होंने कहा था, ''संविधान भी हिंदुओं और मुसलमानों का गैर दोस्ताना संघ बनाएगा। संविधान हिंदुओं और मुसलमानों के बीच समझौता होगा। संविधान की सफलता के लिए भी एक तीसरी ताकत की जरूरत होगी।'' (पाकिस्तान आर पार्टीशन आफ इंडिया, पृष्ठ 340)

अंबेडकर ने राष्ट्रीय एकता के लिए पाकिस्तान का समर्थन किया और लिखा, ''पाकिस्तान बनने से भी हिंदुस्तान सांप्रदायिक समस्या से मुक्त नहीं होगा। पाकिस्तान सजातीय देश बन सकता है, लेकिन हिंदुस्तान एक मिश्रित देश है। मुसलमान समूचे देश में छितरे हुए हैं। हिंदुस्तान को सजातीय देश बनाने का एक मात्र तरीका है जनसंख्या की अदला-बदली। जब तक ऐसा नहीं किया जाता, अल्पसंख्यकों की समस्या बनी रहेगी।'' (वही पृष्ठ 117) डा.अंबेडकर की बातें सच निकलीं, लेकिन उनके नाम पर वोट बैंक बनाने वाले बसपा जैसे दल भी उनके विचार के विरोधी और अल्पसंख्यकवादी हैं तथा उनका इतिहासबोध शून्य हैं। भारत ने समूचे मुस्लिम समाज को प्यार दिया, संविधान में एक समान अधिकार के अलावा अतिरिक्त विशेषाधिकार भी दिए। राष्ट्रजीवन के सभी क्षेत्रों में उन्हें सम्मान मिले। हमारे राजनीतिक दल उनके सामने मिमियाते रहते हैं बावजूद इसके इमाम बुखारी आजमगढ़ जाकर आतंकी अबू बशर को निर्दोष बताते हैं। उलेमा और मौलवी अलगाववादी सांप्रदायिक बयानबाजी करते हैं। देवबंद के इस्लामी सम्मेलन में आतंकवाद के आरोपियों को 'जेल में बंद निर्दोष' बताया गया। आतंकी घटनाओं में देशी मुस्लिम नवयुवक धड़ाधड़ शामिल हो रहे हैं। प्रत्येक आतंकी घटना में निर्दोषों का खून बहता है। सरकार आतंकियों पर कड़ी कार्रवाई नहीं करती। संदिग्ध मुस्लिम बस्तियों में पुलिस प्रवेश नहीं करती। मुस्लिम भावनाओं के डर से ही गोहत्या पर भी अखिल भारतीय कानून नहीं है।

राष्ट्र-राज्य और संविधान को भी चुनौती देने जैसी सुविधा विश्व के किसी इस्लामी राष्ट्र में भी नहीं है। इमाम, उलेमा और मौलवी ही बताएं कि आखिरकार रास्ता क्या है? वे सिमी, इंडियन मुजाहिदीन और समूचे आतंकवाद के विरूद्ध खुलकर मैदान में क्यों नहीं आते? डा.अंबेडकर ने राष्ट्रगठन के पक्ष में कई पैने सवाल उठाए थे, ''क्या हिंदू-मुस्लिम एकता जरूरी है? यदि हां तो पृथक कौम/राष्ट्र की विचारधारा के बावजूद क्या यह एकता संभव है? यदि हां तो क्या इसे तुष्टीकरण या किसी समझौते से प्राप्त करना चाहिए? यदि तुष्टीकरण से तो कौन सी नई सुविधाएं मुसलमानों को दी जा सकती है? अगर समझौते से तो समझौते की शर्ते कया हों?''

आज अंधाधुंध तुष्टीकरण जारी है, लेकिन नतीजा शून्य है। इस दफा मुस्लिम सांप्रदायिकता के आधार पर केंद्रीय बजट भी बना और धन आवंटन भी हुआ, लेकिन नतीजा नहीं निकला। संविधान विरोधी मजहबी आरक्षण की भी तैयारी है। आतंकी अफजल पर भी सरकारी मेहरबानी है। कट्टरपंथी संविधान विरोधी आचरण के लिए स्वतंत्र हैं। प्रधानमंत्री ने देश के संसाधनों पर उनका पहला हक माना। तुष्टीकरण, आत्मसमर्पण और जी हजूरी की इंतहा है बावजूद इसके इसी मुल्क के निवासी आतंकी निर्दोष भारतवासियों को मार रहे हैं। उलेमा चुप हैं।

धीरे-धीरे एक अरब हिंदुओं का असुरक्षा बोध गहरा रहा है। संविधान गया, संस्कृति और अमूल्य जिंदगी भी जा रही है। सभी दल अल्पसंख्यकवादी हैं, अकेली भाजपा क्या कर लेगी? आतंकवाद से रक्षा और आंतरिक सुरक्षा की कोई और कारगर स्वतंत्र, संवैधानिक संस्था बनाने पर विचार होना चाहिए। फेडरेल एजेंसी भी आखिरकार नपुंसक राजनीति के इशारे पर ही होगी। सुप्रीम कोर्ट के नियंत्रण, पर्यवेक्षण और अधीक्षण में आंतरिक सुरक्षा और तद्विषयक कानूनों की समीक्षा होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट संविधान का संरक्षक हैं। आतंकवाद सीधे संविधान और राष्ट्र राज्य पर हमला है। सर्वोच्च न्यायपीठ स्वयं पहल करें, क्योंकि सरकार नाम की संस्था मर चुकी है। विधायिका ने बुरी तरह से निराश किया है। अब न्यायपालिका से ही उम्मीदें हैं। उम्मीदें 'आमजन संसद' से भी हैं। दूसरा कोई विकल्प नहीं। लोग आगे आएं, घर में रहेंगे तो भी मारे जाएंगे। आक्रामक सैनिक भाव ही श्रेष्ठतम आत्मरक्षा है।


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