दैनिक जागरण, १८ सितम्बर २००८. कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जो आगे चलकर बड़े संकट का सबब बन जाती हैं। उन पर तत्काल ध्यान नहीं दिया जाना इसका मुख्य कारण होता है। ऐसी ही एक घटना है उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के मौलवीगंज से सिमी प्रमुख शहबाज की गिरफ्तारी के पूर्व गुजरात के गृहमंत्री अमित शाह का केंद्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल से फोन पर किया गया यह अनुरोध कि वह मुख्यमंत्री मायावती से संपर्क कर इस व्यक्ति के बारे में मिली सूचनाओं की छानबीन का अनुरोध करें। शिवराज पाटिल ने अमित शाह की बात इस कान से सुनकर उस कान से निकाल दी। यदि गुजरात की पुलिस ने उत्तर प्रदेश की पुलिस से सीधा संपर्क न किया होता तो शायद शहबाज गिरफ्तार न होता। इस घटना से दो महत्वपूर्ण प्रश्न उभरते हैं, जो हमारी व्यवस्था में खतरनाक राजनीतिक राग-द्वेष के कारण उत्पन्न घातक स्थिति को उजागर करते हैं।
शिवराज पाटिल अपने दायित्व के प्रति कितने 'जिम्मेदार' हैं, इसके कई सबूत सामने आ चुके हैं। चाहे आतंकियों से निपटने के लिए कई राज्यों द्वारा बनाए गए कानूनों को स्वीकृति देने का मामला हो या फिर पाकिस्तान की जेल में बंद सरबजीत और संसद पर हमले के आरोप में फांसी की सजा पाए अफजल के मामले की तुलना हो-उनके चौंकाने वाले कथनों की लंबी फेहरिश्त है। अमित शाह और शिवराज पाटिल के वार्तालाप और उसके उपसंहार के जो समाचार प्रकाशित हुए हैं उससे जहां भारत सरकार के प्रमुख कर्णधारों की 'जिम्मेदारी' के प्रति गंभीरता का पता चलता है वहीं एक संवैधानिक सवाल भी खड़ा हो जाता है। शिवराज पाटिल ने मायावती से क्यों बात नहीं की? क्या उन्हें भय था कि ऐसा करने पर उनकी संरक्षक नाराज हो जाएंगी या फिर उन्होंने इस मामले को बहुत मामूली समझ लिया? हमारी जो संघात्मक व्यवस्था है उसमें केंद्र राज्यों के बीच सेतु का दायित्व निभाता है। एक राज्य से दूसरे राज्य के संबंधों और समस्याओं को निपटाने में केंद्र मध्यस्थता और सहायक की भूमिका निभाता है। शिवराज पाटिल की कार्यप्रणाली और गुजरात पुलिस के उत्तर प्रदेश पुलिस से सीधे संपर्क से केंद्र की भूमिका पर प्रश्नचिह्न खड़ा हो गया है। मैं शिवराज पाटिल के 'व्यक्तित्व' पर विवाद नहीं करना चाहता, लेकिन प्रत्येक नागरिक को यह जानने का हक तो है ही कि हमारे देश का गृहमंत्री संविधान की मर्यादाओं का पालन कर रहा है या नहीं? अब तक इसका सकारात्मक उत्तर नहीं मिला है। शायद यही कारण है कि किसी अरुंधति राय को कश्मीर की आजादी की वकालत करने का हक मिल गया है। शायद इसी आचरण का प्रभाव है कि देश के एक छोटे से भाग में पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे के साथ प्रदर्शन होता है, शायद इसी आचरण का परिणाम है कि पाकिस्तान के हस्तक बनकर देश भर में विस्फोटों से अराजकता उत्पन्न करने वाले के प्रति सहानुभूति प्रगट करने का सिलसिला चल निकला है। शायद यही कारण है कि जहां केंद्रीय प्रशासन तंत्र सिमी पर प्रतिबंध जारी रखने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में पैरवी कर रहा है वहीं केंद्रीय मंत्रिमंडल के कुछ सदस्य खुलेआम इस संगठन को देशभक्ति का प्रमाणपत्र दे रहे हैं। केंद्रीय गृहमंत्री असम में बांग्लादेशी घुसपैठियों के बारे में अदालती समीक्षा को भी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। दलीय आधार पर केवल कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन बुलाकर जो शुरुआत संप्रग सरकार ने की उसका परिणाम यह हुआ कि भाजपा ने भी अपने मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन बुला लिया। हमारी अवधारणा है कि चाहे केंद्र हो या राज्य, लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत किसी न किसी दल के नेतृत्व में सरकार बनती है, लेकिन सरकार 'राजनीतिक दल' की नहीं होती। मनमोहन सरकार ने इस मान्यता को ही ध्वस्त कर दिया। राष्ट्रीय परिषद या इसी प्रकार की वे संस्थाएं जो संघात्मक ढांचे को एकात्मता के सूत्र में बांधे रखने के लिए हैं, विलुप्त होती जा रही हैं। संसद, जहां देश भर की समस्याओं का संज्ञान लिया जाता है, निष्प्रभावी कर दी गई है। गृह मंत्रालय ने जम्मू को जलने और कश्मीर के उन्मादियों को देशघाती अभियान चलाने का मौका क्यों दिया? क्या देशद्रोह से भी बड़ा कोई अपराध हो सकता है और क्या देश से अलग होने के 'हक' की वकालत करने वालों से बड़ा कोई अपराधी है? इन अपराधियों से क्यों नहीं निपटा जा रहा? कुछ लोगों के इस आकलन से सहमत हुआ जा सकता है कि शिवराज पाटिल भले ही गृहमंत्री हों, लेकिन दायित्व निर्वहन के मामले में पद के अनुरूप उनकी हैसियत नहीं स्थापित हो पाई है। यही बात प्रधानमंत्री के बारे में भी कही जाती है तो फिर प्रश्न यह उठता है कि जिसकी हैसियत है वह कौन है?
संविधान में प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और उनके सहयोगियों की ही हैसियत का प्रावधान है। यदि कोई गैर सांविधानिक हैसियत है तो क्यों है और फिर क्या इन सभी स्थितियों के लिए उसे जिम्मेदार ठहराना चाहिए? विधान तो उन्हें जिम्मेदार मानता है जो संबंधित दायित्व के निर्वहन की शपथ लेते हैं। केंद्रीय प्रशासन तंत्र के उपयोग और उसके कार्य करने की व्यवस्था पर इतने प्रश्नचिह्न पहले कभी नहीं लगे थे जितने अब लगे हैं। इस स्थिति में मुख्यमंत्रियों से प्रशासनिक मामले में तथा नीतियों पर अमल को लेकर संपर्क करने में गृह मंत्रालय अपने दायित्व निर्वहन में पूर्णत: असफल साबित हुआ है। इसी का परिणाम है कि न केवल देश घाती गतिविधियों में इजाफा हुआ है, बल्कि इन गतिविधियों में संलग्न लोगों के प्रति मजहबी आधार पर सहानुभूति बटोरने के प्रयास थामे नहीं थम रहे। विडंबना यह है कि गृह मंत्रालय को संचालित करने वाले राजनीतिक पदधारक अपने ही तंत्र की सूचनाओं, आकलन और तथ्यपरक जानकारियों के अनुरूप आचरण का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। विश्व के किसी भी सार्वभौमिक सत्ता वाले स्वतंत्र देश में ऐसी निष्क्रियता का उदाहरण नहीं मिलेगा।
शिवराज पाटिल अपने दायित्व के प्रति कितने 'जिम्मेदार' हैं, इसके कई सबूत सामने आ चुके हैं। चाहे आतंकियों से निपटने के लिए कई राज्यों द्वारा बनाए गए कानूनों को स्वीकृति देने का मामला हो या फिर पाकिस्तान की जेल में बंद सरबजीत और संसद पर हमले के आरोप में फांसी की सजा पाए अफजल के मामले की तुलना हो-उनके चौंकाने वाले कथनों की लंबी फेहरिश्त है। अमित शाह और शिवराज पाटिल के वार्तालाप और उसके उपसंहार के जो समाचार प्रकाशित हुए हैं उससे जहां भारत सरकार के प्रमुख कर्णधारों की 'जिम्मेदारी' के प्रति गंभीरता का पता चलता है वहीं एक संवैधानिक सवाल भी खड़ा हो जाता है। शिवराज पाटिल ने मायावती से क्यों बात नहीं की? क्या उन्हें भय था कि ऐसा करने पर उनकी संरक्षक नाराज हो जाएंगी या फिर उन्होंने इस मामले को बहुत मामूली समझ लिया? हमारी जो संघात्मक व्यवस्था है उसमें केंद्र राज्यों के बीच सेतु का दायित्व निभाता है। एक राज्य से दूसरे राज्य के संबंधों और समस्याओं को निपटाने में केंद्र मध्यस्थता और सहायक की भूमिका निभाता है। शिवराज पाटिल की कार्यप्रणाली और गुजरात पुलिस के उत्तर प्रदेश पुलिस से सीधे संपर्क से केंद्र की भूमिका पर प्रश्नचिह्न खड़ा हो गया है। मैं शिवराज पाटिल के 'व्यक्तित्व' पर विवाद नहीं करना चाहता, लेकिन प्रत्येक नागरिक को यह जानने का हक तो है ही कि हमारे देश का गृहमंत्री संविधान की मर्यादाओं का पालन कर रहा है या नहीं? अब तक इसका सकारात्मक उत्तर नहीं मिला है। शायद यही कारण है कि किसी अरुंधति राय को कश्मीर की आजादी की वकालत करने का हक मिल गया है। शायद इसी आचरण का प्रभाव है कि देश के एक छोटे से भाग में पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे के साथ प्रदर्शन होता है, शायद इसी आचरण का परिणाम है कि पाकिस्तान के हस्तक बनकर देश भर में विस्फोटों से अराजकता उत्पन्न करने वाले के प्रति सहानुभूति प्रगट करने का सिलसिला चल निकला है। शायद यही कारण है कि जहां केंद्रीय प्रशासन तंत्र सिमी पर प्रतिबंध जारी रखने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में पैरवी कर रहा है वहीं केंद्रीय मंत्रिमंडल के कुछ सदस्य खुलेआम इस संगठन को देशभक्ति का प्रमाणपत्र दे रहे हैं। केंद्रीय गृहमंत्री असम में बांग्लादेशी घुसपैठियों के बारे में अदालती समीक्षा को भी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। दलीय आधार पर केवल कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन बुलाकर जो शुरुआत संप्रग सरकार ने की उसका परिणाम यह हुआ कि भाजपा ने भी अपने मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन बुला लिया। हमारी अवधारणा है कि चाहे केंद्र हो या राज्य, लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत किसी न किसी दल के नेतृत्व में सरकार बनती है, लेकिन सरकार 'राजनीतिक दल' की नहीं होती। मनमोहन सरकार ने इस मान्यता को ही ध्वस्त कर दिया। राष्ट्रीय परिषद या इसी प्रकार की वे संस्थाएं जो संघात्मक ढांचे को एकात्मता के सूत्र में बांधे रखने के लिए हैं, विलुप्त होती जा रही हैं। संसद, जहां देश भर की समस्याओं का संज्ञान लिया जाता है, निष्प्रभावी कर दी गई है। गृह मंत्रालय ने जम्मू को जलने और कश्मीर के उन्मादियों को देशघाती अभियान चलाने का मौका क्यों दिया? क्या देशद्रोह से भी बड़ा कोई अपराध हो सकता है और क्या देश से अलग होने के 'हक' की वकालत करने वालों से बड़ा कोई अपराधी है? इन अपराधियों से क्यों नहीं निपटा जा रहा? कुछ लोगों के इस आकलन से सहमत हुआ जा सकता है कि शिवराज पाटिल भले ही गृहमंत्री हों, लेकिन दायित्व निर्वहन के मामले में पद के अनुरूप उनकी हैसियत नहीं स्थापित हो पाई है। यही बात प्रधानमंत्री के बारे में भी कही जाती है तो फिर प्रश्न यह उठता है कि जिसकी हैसियत है वह कौन है?
संविधान में प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और उनके सहयोगियों की ही हैसियत का प्रावधान है। यदि कोई गैर सांविधानिक हैसियत है तो क्यों है और फिर क्या इन सभी स्थितियों के लिए उसे जिम्मेदार ठहराना चाहिए? विधान तो उन्हें जिम्मेदार मानता है जो संबंधित दायित्व के निर्वहन की शपथ लेते हैं। केंद्रीय प्रशासन तंत्र के उपयोग और उसके कार्य करने की व्यवस्था पर इतने प्रश्नचिह्न पहले कभी नहीं लगे थे जितने अब लगे हैं। इस स्थिति में मुख्यमंत्रियों से प्रशासनिक मामले में तथा नीतियों पर अमल को लेकर संपर्क करने में गृह मंत्रालय अपने दायित्व निर्वहन में पूर्णत: असफल साबित हुआ है। इसी का परिणाम है कि न केवल देश घाती गतिविधियों में इजाफा हुआ है, बल्कि इन गतिविधियों में संलग्न लोगों के प्रति मजहबी आधार पर सहानुभूति बटोरने के प्रयास थामे नहीं थम रहे। विडंबना यह है कि गृह मंत्रालय को संचालित करने वाले राजनीतिक पदधारक अपने ही तंत्र की सूचनाओं, आकलन और तथ्यपरक जानकारियों के अनुरूप आचरण का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। विश्व के किसी भी सार्वभौमिक सत्ता वाले स्वतंत्र देश में ऐसी निष्क्रियता का उदाहरण नहीं मिलेगा।
No comments:
Post a Comment