उड़ीसा में कंधमाल से लगभग 350 किमी दूर स्थित केंद्रपाड़ा का ग्राम केरड़ागढ़ करीब दो वर्ष पूर्व समाचारों की सुर्खियों में था। इस गांव के दलित समाज के कुछ युवक वहींके जगन्नाथ मंदिर में सवर्णाें के समान सिंहद्वार से प्रवेश कर गए थे। इसकी प्रतिक्रिया में पुजारियों ने ठाकुर जी की पूजा अर्चना बंद कर दी। उच्च न्यायालय के दखल के बाद प्रशासन द्वारा दलितों के मंदिर प्रवेश की तिथि तय की गई। नियत तिथि पर पुजारियों के उकसाने पर आस-पास के गावों के लगभग पांच हजार लोग मंदिर घेर कर बैठ गए। समाज के उच्च तबके का यह रुख देखकर दलित बस्ती में सन्नाटा छा गया। पूजा के सामान, फूल-मालाएं, ढोल मंजीरे-सब रखे के रखे रह गये। वह दिन उन्हें सामाजिक विकलांगता से मुक्त कर हमेशा के लिए उनकी जिंदगी बदल देता, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यह पूछने पर कि दलितों का प्रवेश क्यों नहीं है, पुजारियों ने बताया कि उनके प्रवेश की परंपरा नहीं है। उल्टे ही मुझसे उन्होंने पूछा कि ये यहीं क्यों प्रवेश चाहते हैं, जब कहीं भी प्रवेश नहीं है। कहीं प्रवेश नहीं है? क्या मतलब? मैंने कहा-पुरी के जगन्नाथ मंदिर में तो प्रवेश है। उन्होंने दलील दी कि जाति छिपाकर तो प्रवेश हो जाता है। अगर दलित मंदिर में प्रवेश नहीं पाएगा तो तो क्यों हिंदू रहेगा? आजादी के 60 वर्ष बाद भी यह मानसिकता है तो हम कहां जाएंगे? इतिहास के भूले हुए पृष्ठों में डा. अंबेडकर का नासिक में कालाराम मंदिर प्रवेश आंदोलन याद आता है। तब भी प्रवेश नहीं मिला था। इसके पूर्व वह अपने को सनातनी हिंदू मानते थे। इस घटना के बाद येवला में उन्होंने घोषणा कि मैं हिंदू नहीं मरूंगा! उस घटना के 78 वर्ष बाद आज हम इतिहास के उन्हीं पायदानों पर खड़े रह गए हैं। जिन्हें हम दलित आदिवासी कहते हैं वह मूल भारतीय समाज है। जो अपने ही समाज का मंदिर प्रवेश रोकता है वह विश्व के अन्य धर्माें से कैसे मुकाबला करेगा? धर्म संसदों में जाति व्यवस्था तोड़ने की, धर्म के सशक्तीकरण की, अंतरजातीय विवाहों एवं सामाजिक समरसता की बात नहीं उठती। हमारे दलित व आदिवासी आदिदेव शिव के पुत्र हैं। मंदिरों-शिवालों पर पहला हक उनका है। कर्मकांडियों ने उन्हें ही बहिष्कृत कर दिया।
14वीं शती के पूर्व कश्मीर बौद्धों और ब्राह्मंाणों की भूमि था। रिनझिन तिब्बती मूल का शासक था। सैन्य शक्ति के बल पर कश्मीर का शासक बना। यह सोचकर कि जनता का धर्म ही शासक का धर्म होना चाहिए, उसने ब्राह्मंाण विद्वानों को बुला भेजा और कहा कि मैं हिंदू धर्म में दीक्षित होना चाहता हूं। कश्मीर के कर्मकांडी ब्राह्मंाण यह तय ही नहीं कर सके कि रिनझिन को किस वर्ण में रखा जाए? उन्होंने कहा कि तुम्हें हिंदू नहीं बनाया जा सकता। रिनझिन मजबूरन इस्लाम ग्रहण करता है। आगे चलकर वर्ष 1938 में सुल्तान सिकंदर ने घाटी के हिंदुओं को इस्लाम ग्रहण करने के लिए एक माह का समय दिया। एक माह बाद कश्मीर घाटी में जो कत्ले आम हुआ उसकी भारत के इतिहास में दूसरी कोई मिसाल नहीं मिलती। तब से लेकर आज तक हमारे हिंदू समाज ने कोई सबक नहीं सीखा। हिंदू धर्म में अन्य मतावलंबियों के प्रवेश की बात दूर, अपने ही लोगों के धर्म में पुन: प्रवेश की कोई व्यवस्था ही नहीं है। यह कर्मकांडियों की असफलता है। इनकी अकर्मण्यताओं ने हिंदू समाज को मतांतरण का लक्ष्य बना दिया है। हम जातियों की दीवार गिराने को राजी नहीं हैं, चाहे पूरा मकान ध्वस्त हो जाए। धार्मिक मठाधीशों ने कभी सोचा ही नहीं कि हिंदू धर्म में नया कोई क्यों दीक्षित नहीं होता? धर्म को शोषण का माध्यम बनाने वालों ने दक्षिण भारत में किसी समाज को क्षत्रिय या वैश्य घोषित ही नहीं किया। सबको शूद्र बनाए रखा, जिससे कि कर्मकांडियों के वर्चस्व को कोई चुनौती न दे सके। अब हमें लगता है कि विदेशी मजहबों के सम्मुख लक्ष्मणानंद सरस्वती का कार्य कितना मुश्किल था। वे धर्मयोद्धा ही नहीं, भारतीयता के सैनिक थे।