Thursday, September 25, 2008

अपनों से बेगानापन

मतांतरण के मूल कारणों पर आर. विक्रम सिंह के विचार

दैनिक जागरण, २५ सितम्बर २००८। उडीसा , कर्नाटक और केरल की हाल की घटनाओं के बाद मतांतरण पर बहस फिर तेज हो गई है। हमारे सामने सवाल यह है कि हिंदू समाज पिछले आठ सौ वर्षाें से मतांतरण के अभियानों का लक्ष्य क्यों बना हुआ है? क्या हमारे समाज के धार्मिक नेतृत्व ने इस सवाल का सामना करने का प्रयास किया है? यदि नहीं तो क्यों? मध्यकाल में इस्लाम के मतांतरण का लक्ष्य क्षत्रिय, ब्राह्मण वर्ग रहा, जबकि ईसाई मिशनरियों ने हिंदुत्व की सीमा रेखा पर स्थिति आदिवासी समुदाय को निशाना बनाया। पूर्वाेत्तार में वे अपना झंडा गाड़ चुके हैं और अपने मजहबी साम्राज्यवाद का अलम लेकर वे मुख्य आदिवासी क्षेत्रों में बढ़ते जा रहे हैं। दुनिया में मतांतरण कहीं भी विचारों के आधार पर नहीं, बल्कि हमेशा धर्म इतर कारणों से ही हुआ है। भारत के ईसाइयों ने कभी मुस्लिमों को ईसाई बनाने या मुस्लिम धर्मगुरुओं ने ईसाइयों को मुसलमान बनाने का कोई प्रयास नहीं किया। सभी का लक्ष्य हिंदू समाज रहा है।

उड़ीसा में कंधमाल से लगभग 350 किमी दूर स्थित केंद्रपाड़ा का ग्राम केरड़ागढ़ करीब दो वर्ष पूर्व समाचारों की सुर्खियों में था। इस गांव के दलित समाज के कुछ युवक वहींके जगन्नाथ मंदिर में सवर्णाें के समान सिंहद्वार से प्रवेश कर गए थे। इसकी प्रतिक्रिया में पुजारियों ने ठाकुर जी की पूजा अर्चना बंद कर दी। उच्च न्यायालय के दखल के बाद प्रशासन द्वारा दलितों के मंदिर प्रवेश की तिथि तय की गई। नियत तिथि पर पुजारियों के उकसाने पर आस-पास के गावों के लगभग पांच हजार लोग मंदिर घेर कर बैठ गए। समाज के उच्च तबके का यह रुख देखकर दलित बस्ती में सन्नाटा छा गया। पूजा के सामान, फूल-मालाएं, ढोल मंजीरे-सब रखे के रखे रह गये। वह दिन उन्हें सामाजिक विकलांगता से मुक्त कर हमेशा के लिए उनकी जिंदगी बदल देता, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यह पूछने पर कि दलितों का प्रवेश क्यों नहीं है, पुजारियों ने बताया कि उनके प्रवेश की परंपरा नहीं है। उल्टे ही मुझसे उन्होंने पूछा कि ये यहीं क्यों प्रवेश चाहते हैं, जब कहीं भी प्रवेश नहीं है। कहीं प्रवेश नहीं है? क्या मतलब? मैंने कहा-पुरी के जगन्नाथ मंदिर में तो प्रवेश है। उन्होंने दलील दी कि जाति छिपाकर तो प्रवेश हो जाता है। अगर दलित मंदिर में प्रवेश नहीं पाएगा तो तो क्यों हिंदू रहेगा? आजादी के 60 वर्ष बाद भी यह मानसिकता है तो हम कहां जाएंगे? इतिहास के भूले हुए पृष्ठों में डा. अंबेडकर का नासिक में कालाराम मंदिर प्रवेश आंदोलन याद आता है। तब भी प्रवेश नहीं मिला था। इसके पूर्व वह अपने को सनातनी हिंदू मानते थे। इस घटना के बाद येवला में उन्होंने घोषणा कि मैं हिंदू नहीं मरूंगा! उस घटना के 78 वर्ष बाद आज हम इतिहास के उन्हीं पायदानों पर खड़े रह गए हैं। जिन्हें हम दलित आदिवासी कहते हैं वह मूल भारतीय समाज है। जो अपने ही समाज का मंदिर प्रवेश रोकता है वह विश्व के अन्य धर्माें से कैसे मुकाबला करेगा? धर्म संसदों में जाति व्यवस्था तोड़ने की, धर्म के सशक्तीकरण की, अंतरजातीय विवाहों एवं सामाजिक समरसता की बात नहीं उठती। हमारे दलित व आदिवासी आदिदेव शिव के पुत्र हैं। मंदिरों-शिवालों पर पहला हक उनका है। कर्मकांडियों ने उन्हें ही बहिष्कृत कर दिया।

14वीं शती के पूर्व कश्मीर बौद्धों और ब्राह्मंाणों की भूमि था। रिनझिन तिब्बती मूल का शासक था। सैन्य शक्ति के बल पर कश्मीर का शासक बना। यह सोचकर कि जनता का धर्म ही शासक का धर्म होना चाहिए, उसने ब्राह्मंाण विद्वानों को बुला भेजा और कहा कि मैं हिंदू धर्म में दीक्षित होना चाहता हूं। कश्मीर के कर्मकांडी ब्राह्मंाण यह तय ही नहीं कर सके कि रिनझिन को किस वर्ण में रखा जाए? उन्होंने कहा कि तुम्हें हिंदू नहीं बनाया जा सकता। रिनझिन मजबूरन इस्लाम ग्रहण करता है। आगे चलकर वर्ष 1938 में सुल्तान सिकंदर ने घाटी के हिंदुओं को इस्लाम ग्रहण करने के लिए एक माह का समय दिया। एक माह बाद कश्मीर घाटी में जो कत्ले आम हुआ उसकी भारत के इतिहास में दूसरी कोई मिसाल नहीं मिलती। तब से लेकर आज तक हमारे हिंदू समाज ने कोई सबक नहीं सीखा। हिंदू धर्म में अन्य मतावलंबियों के प्रवेश की बात दूर, अपने ही लोगों के धर्म में पुन: प्रवेश की कोई व्यवस्था ही नहीं है। यह कर्मकांडियों की असफलता है। इनकी अकर्मण्यताओं ने हिंदू समाज को मतांतरण का लक्ष्य बना दिया है। हम जातियों की दीवार गिराने को राजी नहीं हैं, चाहे पूरा मकान ध्वस्त हो जाए। धार्मिक मठाधीशों ने कभी सोचा ही नहीं कि हिंदू धर्म में नया कोई क्यों दीक्षित नहीं होता? धर्म को शोषण का माध्यम बनाने वालों ने दक्षिण भारत में किसी समाज को क्षत्रिय या वैश्य घोषित ही नहीं किया। सबको शूद्र बनाए रखा, जिससे कि कर्मकांडियों के वर्चस्व को कोई चुनौती न दे सके। अब हमें लगता है कि विदेशी मजहबों के सम्मुख लक्ष्मणानंद सरस्वती का कार्य कितना मुश्किल था। वे धर्मयोद्धा ही नहीं, भारतीयता के सैनिक थे।


Tuesday, September 23, 2008

आतंकवाद से मुकाबले के सवाल पर पक्ष-विपक्ष के रवैये पर निराशा प्रकट कर रहे हैं राजीव सचान

दैनिक जागरण २३ सितम्बर २००८। जो केंद्रीय सत्ता दिल्ली बम विस्फोटों के बाद अपनी जबरदस्त आलोचना से घबराकर आतंकवाद के खिलाफ कठोर कानून बनाने के सवाल पर यकायक सिर के बल खड़ी हो गई थी और ऐसे किसी कानून की जरूरत जताने लगी थी वह अब फिर से पुराना राग अलापने लगी है। केंद्र सरकार के एक के बाद एक प्रतिनिधि नए सिरे से आतंकवाद के खिलाफ कठोर कानून की आवश्यकता खारिज करने लगे हैं। इस मामले में वे उसी पुराने तर्क की रट लगा रहे हैं कि राजग शासन में पोटा था, फिर भी आतंकी हमले हुए-संसद में, रघुनाथ मंदिर में, अक्षरधाम में..। वे शिवराज पाटिल की अक्षमता का भी यह कहकर बचाव कर रहे हैं कि क्या जब संसद या अक्षरधाम मंदिर में हमला हुआ तब तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने त्यागपत्र दिया था? ऐसे तर्र्को को सुनकर यह सहज सवाल उठता है कि क्या भारतीय संविधान निर्माता यह लिखकर गए थे कि मई 2004 के बाद जो भी दल या दलों का समूह केंद्रीय शासन की बागडोर संभालेगा वह अपना प्रत्येक कार्य पूर्ववर्ती सरकार के आलोक में ही करेगा? उदाहरणस्वरूप यदि उस सरकार ने आंतरिक सुरक्षा की गंभीर अनदेखी की हो तो मई 2004 को सत्तारूढ़ सरकार भी ऐसा करना सुनिश्चित करेगी? इसी तरह यदि उस सरकार ने दागी नेताओं को मंत्रिपरिषद में स्थान दिया हो तो नई सरकार भी दागी नेताओं को खोजकर मंत्री बनाने का कार्य करेगी? ईश्वर न करे, लेकिन यदि कल को फिर से कोई कंधार कांड घटित हो जाए तो क्या संप्रग सरकार भी आतंकियों को यह कहकर हवाई जहाज में बैठाकर छोड़ आएगी कि देखिए राजग सरकार ने भी ऐसा ही किया था? पता नहीं संप्रग के नीति-नियंता किस मानसिकता से ग्रस्त हैं कि वे हर अच्छी-बुरी बात पर राजग सरकार का उदाहरण देने लगते हैं?

आज देश की दिलचस्पी इसमें नहीं कि राजग सरकार ने आतंकवाद के खिलाफ क्या किया था और क्या नहीं, बल्कि इसमें है कि वह खुद क्या कर रही है? दुर्भाग्य से इस सवाल का कोई जवाब नहीं है और इसलिए नहीं है, क्योंकि संप्रग सरकार आतंकवाद से निपटने के लिए बयानबाजी और बैठकें करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं कर रही है। शायद यही कारण है कि आतंकवाद कहीं अधिक गंभीर रूप ले चुका है। पहले आतंकी वारदात करने के बाद उसकी जिम्मेदारी अपने सिर लेते थे। अब बम विस्फोट होते ही वे सूचित कर देते हैं कि कृपया नोट करें कि आपके शहर में ये जो चार-छह-दस बम धमाके हो रहे हैं वे हमने किए हैं, रोक सको तो रोक लो। पहले आतंकी घटनाओं के बाद यह सामने आता था कि मारा अथवा पकड़ा गया आतंकी गुलाम कश्मीर या कराची का रहने वाला है। अब यह सामने आता है कि मारा या पकड़ा गया आतंकी मुंबई, आजमगढ़, मेरठ अथवा इंदौर का है। पहले आतंकी हमलों की साजिश सीमापार के आतंकवादी संगठन रचते थे। अब यह काम उपरोक्त शहरों के देशी आतंकी कर रहे हैं। पहले आतंकी हमलों के बाद लश्कर, जैश जैसे संगठनों के नाम चर्चा में आते थे। अब सिमी और इंडियन मुजाहिदीन की चर्चा होती है। तब और अब में एक और खतरनाक अंतर यह है कि पहले किसी आतंकवादी या आतंकी संगठन के खिलाफ कोई सहानुभूति जताने की हिम्मत नहीं करता था, लेकिन अब आतंकियों के भी हमदर्द मौजूद हैं और आतंकवादी संगठनों के भी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने एक मंत्री रामविलास पासवान से अच्छी तरह परिचित होंगे, जिन्हें इस बात से बहुत तकलीफ है कि सिमी पर पाबंदी लगा दी गई। संभवत: देश भी उन नेताओं से अच्छी तरह परिचित होगा जिनके लिए आजमगढ़ का एक गांव तब एक तीर्थस्थल सरीखा बन गया था जब वहां से अहमदाबाद बम धमाकों के आरोपी अबू बशर को गिरफ्तार किया गया था। देश को उन नेताओं पर भी गौर करना होगा जिन्होंने दिल्ली पुलिस के बहादुर इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा की शहादत पर अफसोस का एक शब्द भी प्रकट करना जरूरी नहीं समझा। इनमें से कुछ नेता वही हैं जिन्हें विगत में फलस्तीन और ईरान के हालात पर चिंतित होते देखा गया है। बावजूद इसके यदि संप्रग सरकार यह रंट्टा लगाती है कि वह आतंकवाद से निपट रही है, निपट लेगी और आतंकवाद के खिलाफ नरमी बरतने के आरोप विपक्ष के दुष्प्रचार का हिस्सा हैं तो इसका मतलब है कि वह आतंकवाद से नहीं लड़ना चाहती।

केंद्र सरकार ने आतंकवाद के मामले में जैसी रीति-नीति अपना रखी है उसे देखते हुए विपक्ष के हमलावर होने में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं, लेकिन जब देश का ध्यान आतंकवाद पर केंद्रित होना चाहिए तब मुख्य विपक्षी दल भाजपा का एक सहयोगी संगठन बजरंग दल अपना सारा ध्यान गिरजाघरों पर हमला करने में लगाए हुए है। यह तब है जब भाजपा यह मानकर चल रही है कि केंद्र की सत्ता उसके हाथ में आने वाली है। बजरंग दल को ईसाई मिशनरियों के तौर-तरीकों पर आपत्तिहो सकती है और होनी भी चाहिए, लेकिन क्या उसे उग्र रूप धारण कर उनके खिलाफ आक्रामक होने के लिए यही समय मिला था? सवाल यह भी है कि ईसाई मिशनरियों के छल-छद्म के खिलाफ हिंसा का रास्ता अपनाकर बजरंग दल बदनामी के अलावा और क्या हासिल कर लेगा? यह संभव है कि बजरंग दल के नेतृत्व को यह समझ में न आ रहा हो कि उसके कार्यकर्ता बेवकूफी कर रहे हैं, लेकिन क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा को भी यह नहीं समझ आ रहा है? हो सकता है कि उड़ीसा की नवीन पटनायक सरकार ईसाई मिशनरियों के छल-कपट की अनदेखी कर रही हो, लेकिन क्या कर्नाटक सरकार के पास भी ऐसी वैधानिक शक्ति नहीं कि वह मतांतरण में लिप्त ईसाई मतप्रचारकों के खिलाफ उचित कार्रवाई न कर सके? सवाल यह भी है कि जब भाजपा केंद्रीय सत्ता का नेतृत्व कर रही थी तब उसने ईसाई मिशनरियों पर लगाम लगाने का काम क्यों नहीं किया? कुल मिलाकर सत्तापक्ष और विपक्ष के आचरण को देखकर कोई भी इस नतीजे पर पहुंच सकता है कि जो देश आतंकवाद से लड़ना नहींजानता वह दक्षिण एशिया में स्थित है और भारत नाम से जाना जाता है तथा खुद को महाशक्ति बनने के सपने देखा करता है।


Monday, September 22, 2008

बाजार से लौट रहे युवक पर हमला, तनाव

बिलरियागंज (आजमगढ़)। जिले में साम्प्रदायिक तनाव की आंच अभी भी कहीं न कहीं भड़क जा रही है। इसकी एक बानगी रविवार को दिन में रौनापार थाना क्षेत्र के चांद पट्टी बाजार में देखने को मिली। यहां उपद्रवियों ने अपने मां के साथ बाजार से खरीदारी कर घर लौट रहे युवक पर हमला कर दिया। घायल युवक का एक निजी अस्पताल में उपचार चल रहा है।

बताते है कि रौनापार थाना क्षेत्र के पकड़ियहवा ग्राम निवासी अशोक यादव (30) पुत्र मोती यादव रविवार को दिन में अपनी मां के साथ चांद पटं्टी बाजार आया था। मां-बेटे सोमवार को पड़ने वाले जीवतपुत्रिका पर्व के लिए सामानों की खरीदारी कर वापस लौट रहे थे कि बाजार के बाहर एक वर्ग के लगभग आधा दर्जन युवक अशोक यादव पर लाठी-डण्डों से लैस होकर टूट पड़े। बेटे को मार खाते देख महिला ने शोर मचाया। शोर सुनकर अगल-बगल के लोग जब तक मौके पर जुटते तब तक हमलावर फरार हो गये थे। घायल युवक को एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया है। इस बात की जानकारी जब घायल युवक के गांव वालों को हुई तो वे दर्जनों की संख्या में लामबंद होकर चांद पटं्टी बाजार आ गये और हमलावरों की तलाश करने लगे। इसी बीच किसी ने इसकी जानकारी रौनापार थाने को दी। सूचना पाकर वहां तैनात उपनिरीक्षक मय फोर्स मौके पर पहुंच गये और घटना क्रम की जानकारी लेने के बाद हमलावर युवकों की तलाश में जुट गये। इस घटना को लेकर क्षेत्र में तनाव व्याप्त है। बताते चलें कि बुधवार को दिन में उन्हीं युवकों ने स्थानीय कस्बा निवासी अनिरुद्ध पुत्र हरदेव व प्रताप पुत्र वंशराज नामक दलित युवकों को भी बुरी तरह पीटकर घायल कर दिया था। इसकी भी शिकायत मुकामी थाने में की गयी थी लेकिन पुलिस ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। नतीजा यह कि क्षेत्र में दोनों घटनाओं को लेकर तनाव व्याप्त है। घायल अशोक यादव पक्ष की ओर से थाने में हमलावरों के विरुद्ध तहरीर दी गयी है लेकिन समाचार लिखे जाने तक प्राथमिकी दर्ज नहीं हो सकी थी।

हाटा में उपद्रव: 60 पर मुकदमा, बंद रही दुकानें

दैनिक जागरण , हाटा (कुशीनगर ), 20 सितम्बर, २००८ । सांसद योगी आदित्यनाथ की जनसभा की समाप्ति के पहले उपनगर के मेन बाजार में हुये उपद्रव, पथराव व तोड़ फोड़ की घटनाओं का असर दूसरे दिन शनिवार को भी दिखा। उप नगर में जहां शांतिपूर्ण तनाव की स्थिति दिन भर रही वहीं अफवाहें फैलने से कई बार अफरा तफरी भी दिखी। इसका सीधा असर बाजार के चहल पहल पर पड़ा और सड़कें सूनी नजर आयी। यहां तक कि दवा की अधिकांश दुकानें तक बंद दिखी।

पुलिस ने तोड़फोड़ के मामले में कुल 60 लोगों पर मुकदमा दर्ज किया है, जिसमें से 9 नामजद हैं।

बता दें कि उपनगर में शुक्रवार की सायं योगी आदित्यनाथ की सभा के समापन से पूर्व लगभग 6 बजे कुछ उपद्रवी सड़क पर लाठी, डंडा व राड लेकर उतर आये। इसके कुछ दुकानों में तोड़ फोड़ व पथराव की घटना हुई। पुलिस कप्तान ज्ञान सिंह व मुख्य विकास अधिकारी केदारनाथ तत्काल मयफोर्स मौके पर पहुंच गये तथा उपद्रवियों को पीट कर खदेड़ दिया एवं स्थिति नियंत्रण में कर लिया। इसके बाद पुलिस बल तब और बढ़ गया जब सभा सम्पन्न होने के बाद योगी गोरखपुर रवाना हो गये। कुछ ही पलों में माहौल सामान्य हो गया। उधर तेज बारिश ने भी अमन चैन बनाने में काफी सहयोग किया। रात भर पुलिस चौकसी बनी रही।

उधर शनिवार को भी पुलिस व प्रशासन काफी चौकन्ना रहा तथा उपनगर के हर चौराहे, प्रत्येक रास्ते तथा संवेदनशील चिह्नित स्थानों पर पुलिस बल का विशेष पहरा था। प्रभारी जिलाधिकारी केदारनाथ, पुलिस कप्तान ज्ञान सिंह, अपर जिलाधिकारी जे.एन. दीक्षित के दिशा निर्देशन में उप जिलाधिकारी हाटा अरुण कुमार, कसया बी.एस. चौधरी, पुलिस क्षेत्राधिकारी ज्ञानेन्द्र कुमार सिंह, स्वामीनाथ पूरे दिन भ्रमण कर शांति व्यवस्था का जायजा लिया।

उधर यूं तो शनिवार साप्ताहिक बंदी का दिन है। लेकिन आधी दुकानें ही बंद रहती रही है। शायद तनाव व आशंका का ही असर था कि सभी दुकानें बंद रही। हाल यह था कि दवा की इक्का दुक्का दुकानों को छोड़ सभी दुकानें बंद रही। स्कूल या तो बंद रहे या फिर बच्चे पढ़ने ही नहीं गये। दिन भर अफवाहे फैलती रही और कई बार अफरा तफरी में भी लोग दिखे। उधर सायं चार बजे सड़क पर ज्यादा भीड़ लगने पर पुलिस ने हल्का बल प्रयोग कर सबको यह कहते हुये खदेड़ दिया कि निषेधाज्ञा लागू है। फिलहाल समाचार लिखे जाने तक स्थिति तनावपूर्ण किन्तु नियंत्रण में थी। शुक्रवार को देर रात पुलिस अधीक्षक ज्ञान सिंह ने खुद 9 चिह्नित उपद्रवियों तथा 51 अज्ञात अराजक तत्वों के विरुद्ध मुकदमा अ.सं. 775/08 धारा 147, 148, 332, 353, 188 व 504 आई.पी.सी. के तहत प्राथमिकी दर्ज की है।

सामाजिक अशांति की अनदेखी

ईसाइयों और हिंदू संगठनों के बीच टकराव के मूल कारणों पर प्रकाश डाल रहे है संजय गुप्त

दैनिक जागरण २० सितम्बर २००८। लगभग डेढ़ माह पूर्व उड़ीसा के कंधमाल जिले में विश्व हिंदू परिषद से जुड़े संत लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के बाद वहां हिंदुओं और ईसाइयों के बीच भड़की हिंसा शांत होती, इसके पहले ही कर्नाटक के कुछ इलाकों में इन दोनों समुदायों के बीच तनाव व्याप्त हो गया। इस तनाव के बीच मध्यप्रदेश के जबलपुर में एक चर्च पर हमले की सूचना आई। हिंदुओं और ईसाइयों के बीच तनावपूर्ण रिश्ते शुभ नहीं। यह चिंताजनक है कि इन समुदायों के बीच पनपे वैमनस्य के मूल कारणों की अनदेखी की जा रही है। कंधमाल में लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के इतने दिनों बाद भी यह स्पष्ट नहीं कि उन्हे किसने मारा-नक्सलियों ने या ईसाई चरमपंथियों ने? न केवल लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के लिए जिम्मेदार लोगों की पहचान आवश्यक है, बल्कि उन तत्वों पर लगाम भी जरूरी है जो राज्य में अराजकता पैदा कर रहे है। केंद्र का कहना है कि भाजपा के समर्थन के कारण नवीन पटनायक सरकार उग्र हिंदू संगठनों को नियंत्रित नहीं कर रही है। केंद्र के नेताओं ने कुछ ऐसा ही आरोप कर्नाटक सरकार पर भी लगाया है, जहां कुछ गिरजाघरों पर हमले किए गए है। केंद्र ने कर्नाटक और उड़ीसा को चेतावनी देने के बाद मध्य प्रदेश और केरल को भी चेताया है। भले ही इस पर विवाद हो कि केंद्र ने उड़ीसा और कर्नाटक को अनुच्छेद 355 के तहत चेतावनी दी या नहीं, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि उसका रवैया सख्त है। क्या यह विचित्र नहीं कि केंद्र ने ऐसी सख्ती न तो महाराष्ट्र सरकार के संदर्भ में दिखाई और न ही असम सरकार को लेकर, जबकि इन दोनों राज्यों में हिंदी भाषियों को रह-रह कर आतंकित किया गया। यह शर्मनाक है कि असम में हिंदी भाषियों की हत्या और उसके कारण उनके पलायन पर भी केंद्र को अपनी जिम्मेदारी का अहसास नहीं हुआ।

उड़ीसा एवं कर्नाटक में बजरंग दल जिस तरह आक्रामक तेवरों के साथ कानून अपने हाथ में लेकर ईसाइयों के धार्मिक स्थलों को निशाना बना रहा है उससे उसकी छवि लगातार गिर रही है। हिंदू हितों की रक्षा के लिए सक्रिय यह संगठन बेलगाम हो रहा है। एक ऐसे समय जब देश इस्लामी आतंकवाद से बुरी तरह त्रस्त है तब हिंदू संगठनों की उग्रता शांति एवं सद्भाव के लिए एक बड़ा खतरा है। यदि बजरंग दल इसी तरह की गतिविधियां जारी रखता है तो उस पर पाबंदी लग सकती है। ऐसा होने पर उसकी छवि एक आतंकी संगठन के रूप में उभरना तय है और यदि ऐसा कुछ होता है तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की किरकिरी होना स्वाभाविक है। बजरंग दल यह तर्क दे सकता है कि देश के नीति-नियंता हिंदू संस्कृति का अपमान करने वालों को खुली छूट प्रदान कर रहे है इसलिए वह अपने तरीके से अन्याय का प्रतिकार कर रहा है। इसमें दो राय नहीं कि मतांतरण में लिप्त मिशनरियों पर अंकुश नहीं लगाया जा रहा, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि बजरंग दल मनमानी पर उतर आए और हिंदू समाज एवं राष्ट्र की छवि की परवाह न करे। यह संगठन जिस राह पर चल रहा है उससे किसी का भी हित नहीं होने वाला। कम से कम भाजपा को तो यह अनुभूति होनी चाहिए कि वह बजरंग दल को नियंत्रित न करके आग से खेलने का काम कर रही है। धीरे-धीरे यह धारणा गहराती जा रही है कि भाजपा शासित राज्यों में यह संगठन ईसाइयों और मुसलमानों के प्रति असहिष्णु हो उठता है और उसे सत्ता का संरक्षण मिलता है। यह स्थिति भाजपा के लिए गहन चिंता का कारण बननी चाहिए।

पिछले लगभग दो दशकों से देश में जैसे सामाजिक बदलाव हो रहे है उससे हिंदू संस्कृति पर आंच आ रही है। बात चाहे पूर्वोत्तर में बांग्लादेशी घुसपैठियों की हो या देश के विभिन्न भागों में ईसाई मिशनरियों के मतांतरण अभियान की-इस सबका दुष्प्रभाव अब साफ दिखने लगा है। समस्या यह है कि हमारे ज्यादातर राजनीतिक दल न तो बांग्लादेशी घुसपैठियों की बढ़ती आबादी को लेकर चिंतित है और न ही निर्धन एवं अशिक्षित व्यक्तियों को मतांतरित किए जाने पर। कुछ राजनेता तो बांग्लादेशी घुसपैठियों के प्रति भी नरम है और मतांतरण में लिप्त मिशनरियों के प्रति भी। वे यह मानने को तैयार नही कि इस सबसे हिंदू संस्कृति प्रभावित हो रही है। बांग्लादेशी नागरिकों की घुसपैठ और ईसाई मिशनरियों की अवांछित सक्रियता पर भाजपा हमेशा यह कहती रही है कि एक सोची समझी साजिश के तहत हिंदू अस्मिता पर आघात किया जा रहा है, लेकिन तथाकथित सेकुलर दल उसकी सही बात सुनने को तैयार नहीं।

इस पर कोई संशय नहीं हो सकता कि संविधान में ऐसी कोई छूट नहीं दी गई है कि ईसाई मत प्रचारक मनमाने तरीके से भारत के लोगों का मतांतरण कर सकें या फिर पड़ोसी देश के लोग बेरोक-टोक आकर यहां बसते रहे। चूंकि ईसाई मिशनरियां छल-छद्म और प्रलोभन के जरिये निर्धन तबकों को मतांतरित कर रही हैं इसलिए विश्व हिंदू परिषद मतांतरित लोगों की घर वापसी यानी मूल धर्म में वापसी का अभियान चलाने के लिए बाध्य है। यदि ईसाई मिशनरियों को मतांतरण की छूट दी जाती रहेगी तो घर वापसी के अभियान चलते रहेगे और चलते रहने भी चाहिए। उड़ीसा में हिंदुओं और ईसाइयों के बीच तनाव का मूल कारण मतांतरण ही है। राज्य में कुई भाषी कंध और पण जातियों के बीच टकराव की स्थिति है। वैसे तो कंध जनजाति और पण दलित, दोनों आरक्षण के दायरे में हैं,पर कंध जनजाति के लोग मतांतरित होने के बाद भी आरक्षण का लाभ उठाते रहते हैं, जबकि पण दलित मतांतरित होने की स्थिति में आरक्षण के दायरे से बाहर हो जाते हैं। बड़े पैमाने पर ईसाई मत अपनाने वाले पण खुद को कुई भाषी बताकर अपने लिए जनजाति का दर्जा मांग रहे हैं। इस मांग को ईसाई मिशनरियां और वोट के लोभ में कुछ कथित सेकुलर दल समर्थन दे रहे हैं। कंध जनजाति के लोगों को लगता है कि यदि पण लोगों की मांग मान ली गई तो उनके अधिकार छिन जाएंगे। उन्हें यह भी लगता है कि उन्हें अपने मूल धर्म में बने रहने का खामियाजा उठाना पड़ सकता है। उनका भय जायज है, पर सेकुलर दल यह समझने के लिए तैयार नहीं। कर्नाटक में भी तनाव की जड़ में ईसाई मिशनरियों की अति सक्रियता है। देश को इस पर गौर करना होगा कि ईसाई मिशनरियां क्या कर रही हैं? कर्नाटक में मिशनरियों द्वारा वितरित की जा रही सत्यदर्शिनी नामक पुस्तिका में यहां तक कहा गया है कि भगवान राम तो मूर्ख थे। ऐसी ही बातें अन्य देवी देवताओं के बारे में कही गई हैं। क्या दुनिया का कोई भी समाज अपने देवताओं के बारे में ऐसी भाषा सहन करेगा?

मतांतरण व्यक्ति विशेष का निजी मौलिक अधिकार है। पूजा पद्धति पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं हो सकता। विडंबना यह है कि हमारे देश में सामूहिक मतांतरण होता है। यह सहज संभव नहीं कि कोई एक बस्ती रातों-रात अपनी आस्था बदलने के लिए तैयार हो जाए। इस संदर्भ में यह नहीं भूलना चाहिए कि जो लोग मतांतरित हो रहे है वे गरीब और अशिक्षित है। उनके अभावों को दूर करने के लिए उन्हे तरह-तरह के प्रलोभन दिए जाते है और फिर आस्था बदलने की शर्त रखी जाती है। यह एक यथार्थ है कि हर राष्ट्र की एक संस्कृति होती है और उसकी आत्मा उस संस्कृति में बसती है। भारत की आत्मा उसके हिंदुत्व प्रधान चरित्र में है। बांग्लादेशी घुसपैठियों और मतांतरित ईसाइयों के कारण जैसा समाज बन रहा है वह भारत की परिकल्पना के प्रतिकूल है।


Hindu couple embraces Islam

KHANEWAL, Sept 20 (APP): A Hindu couple, belonging to Umar Kot, Sindh, embraced Islam at the hands of a local religious scholar here Saturday. Mahu Jee son of Surwa Jogi and his would-be wife Seeta daughter of Mithu Jogi embraced Islam at the hands of Maulana Azizur Rahman.

They were renamed Muhammad Ramzan and Aisha Bibi, after which their nikah was solemnised in the chamber of Ghulam Jilani and Anjum Joya advocates at the district courts.

The couple told newsmen that they had been desiring to embrace Islam since long but their respective families were resisting this move.

“Islam is the religion of truth and brotherhood, in which there is no class difference, while in Hinduism there is a caste and class system, which looks down upon the lower castes, the untouchables and the poor,” explained the convert Muhammad Ramazan.

Friday, September 19, 2008

मतांतरण का दुष्चक्र

ईसाई मिशनरियों की सक्रियता पर एस शंकर का चिंतन

दैनिक जागरण १९ सितम्बर २००८। स्वतंत्रता से पहले जब महात्मा गांधी ने अस्पृश्यता के विरोध में अपना आंदोलन शुरू किया तब ईसाई मिशनरी बड़े अप्रसन्न हुए। उनका कहना था कि गांधीजी हिंदू धर्म के मूल तत्वों से छेड़छाड़ कर रहे है। ईश्वर जाने, अस्पृश्यता हिंदू धर्म का मूल तत्व कब से हो गया? फिर जब त्रावणकोर के मुख्यमंत्री सीपी रामस्वामी अय्यर ने हरिजनों के लिए राज्य के सब मंदिरों के दरवाजे खोल दिए तब मिशनरियों की चिंता का ठिकाना न रहा। इस कदम का सबसे कड़ा विरोध ईसाईयों ने किया, शुद्धतावादी ब्राह्मणों ने नहीं! यहां तक कि कैंटरबरी के आर्क बिशप ने भी इस पर आक्रोश जताया। उनके शब्दों में, ''इससे हरिजनों को ईसाई बनाने के प्रयासों को गहरा धक्का लगेगा।'' गांधीजी ने बार-बार कहा था कि मिशनरियों के काम में मानवतावादी भाव नहीं है। वे अपनी संख्या बढ़ाने की जुगत में रहते है। दलितों और आदिवासियों के प्रति मिशनरी दृष्टि आज भी वही है। वे पिछड़े और उत्पीड़ितों के हमदर्द नहीं, शिकारी है। यही उन क्षेत्रों में अशांति का कारण है, जहां मिशनरी सक्रिय हैं। गुजरात का भूकंप हो, एशिया में सुनामी हो या इराक में तबाही, जब भी विपदाएं आती है तो मिशनरी संगठनों के मुंह से लार टपकने लगती है कि अब उन्हे 'आत्माओं की फसल' काटने अर्थात बेबस लोगों का मतांतरण कराने का अवसर मिलेगा। वे इसे छिपाते भी नहीं। तीन वर्ष पहले सुनामी प्रभावित देशों में ईसाई मिशनरी संगठनों ने सहायता के बदले मतांतरण के खुले सौदे की पेशकश की थी। मदुरई से भी ऐसा समाचार आया था। जकार्ता में 'व‌र्ल्ड हेल्प' नामक अमेरिकी मिशनरी संगठन ने पचास अनाथ बच्चों की सहायता से इसलिए हाथ खींच लिया, क्योंकि इंडोनेशिया सरकार ने उन्हे ईसाइयत में मतांतरित न करने का स्पष्ट निर्देश दिया था। इसके बावजूद हमारे मीडिया में राहत के लिए मिशनरियों की वाहवाही की जाती है, जबकि वनवासी कल्याण आश्रम जैसे संगठनों की नि:स्वार्थ सेवाओं का उल्लेख भी नहीं होता। गांधीजी मानते थे कि ईसाई मिशनरियों द्वारा मतांतरण कराना दुनिया में अनावश्यक अशांति फैलाना है। उड़ीसा की घटनाएं इसका नवीनतम प्रमाण है। उत्तर-पूर्वी भारत में अंग्रेजी राज के समय से चल रहे आक्रामक मतांतरण कार्यक्रम के विषैले, अलगाववादी परिणाम प्रत्यक्ष देखे जा रहे है। ईसाई मिशनरियों की 'लिबरेशन थियोलाजी' पूरे विश्व में कुख्यात है। उसकी साम्राज्यवादी अंतर्वस्तु कोई भी व्यक्ति देख सकता है। फिर 1977-97 के बीच वीएस नायपाल ने ईरान, मलेशिया, इंडोनेशिया, पाकिस्तान के लोगों की मानसिकता का प्रत्यक्ष अध्ययन करके यही पाया कि सामी मजहबों में मतांतरित लोगों में अपनी ही संस्कृति, इतिहास, पूर्वजों से दूर होकर एक तरह के मनोरोग से ग्रस्त होने की प्रवृत्ति पाई जाती है। ईसाइयत या इस्लाम में मतांतरण किसी की निजी आस्था बदलने भर की बात नहीं है। हमें स्वामी विवेकानंद की चेतावनी को सदैव याद रखना चाहिए कि जब हिंदू धर्म से कोई व्यक्ति मतांतरित होकर ईसाई या मुसलमान बनता है तो केवल हमारा एक व्यक्ति कम नहीं होता, बल्कि एक दुश्मन भी बढ़ता है। असम, कश्मीर और उड़ीसा की घटनाएं अलग-अलग ऐतिहासिक काल में ठीक इसी की पुष्टि करती है। हम इस कड़वी सच्चाई से जितना भी कतराना चाहे, किंतु यदि इस पर विचार नहीं करते तो हमारा भविष्य चिंताजनक है। झाबुआ, डांग, क्योंझर और अब कंधमाल-पिछले दस वर्षो में देश के विभिन्न भागों में हो रही हिंसा मतांतरण की मिशनरी राजनीति का ही परिणाम है, किंतु इन घटनाओं पर विचार-विमर्श में इस बिंदु की सबसे अधिक उपेक्षा होती है। इसका सबसे बड़ा दोष वामपंथी बौद्धिकों पर है, जो मीडिया, राजनीतिक और अकादमिक जगत पर सर्वाधिक प्रभाव रखते है।

अब यह छिपी बात नहीं है कि हमारे वामपंथी बुद्धिजीवी वैसी किसी समस्या की चर्चा नहीं करते जिससे उन्हे लगता है कि भाजपा को फायदा होगा। मिशनरी और विदेशी शक्तियां उनकी इस प्रवृत्ति को अच्छी तरह पहचान कर अपने हित में जमकर इस्तेमाल करती है। इसीलिए चाहे परमाणु नीति हो, पर्यावरण मुद्दे हों, आर्थिक सुधार हों, कश्मीर या गुजरात की हिंसा या ईसाई मतांतरणकारियों का बचाव-हर कहीं हमारे वामपंथी पश्चिमी इरादों के सहर्ष प्रचारक बने मिलते है। मिशनरी एजेंसियों की ढिठाई के पीछे भी यही ताकत है। इसीलिए वे चीन या अरब देशों में इतने आक्रामक नहीं हो पाते। पश्चिमी सरकारे ईसाई मिशनरी संगठनों को दुनिया भर में मतांतरण कराने के योजनाबद्ध प्रयासों को आर्थिक, राजनीतिक, कूटनीतिक सहायता देती हैं। अमेरिकी सरकार भी ईसाइयत विस्तार को विदेश नीति का अपिरहार्य अंग मानती है।


आतंक से न लड़ने का उदाहरण

आतंकवाद के खिलाफ केंद्र सरकार की प्रतिबद्धता को खोखला बता रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित

दैनिक जागरण १९ सितम्बर २००८। दुर्भाग्य अकेले नहीं आता,अपना लाव-लश्कर भी साथ लाता है। केंद्र महंगाई, जम्मू-कश्मीर और आतंवाद सहित सभी मोर्चो पर पहले से ही हलकान है कि प्रशासनिक सुधार आयोग ने आतंकवाद पर वर्तमान कानून नाकाफी बताकर उसे कठघरे में खड़ा कर दिया। आयोग ने आतंकवाद पर सख्त कानून और संघीय जांच एजेंसी की सिफारिश की है, आतंकी तत्वों की जमानत को जटिल बनाने और पुलिस रिमांड की अवधि बढ़ाने का आग्रह भी किया है। आतंकवाद को पाठ्यक्रम में शामिल करने का सुझाव अनूठा है। आयोग ने अपनी रिपोर्ट बीते जून में ही प्रधामनंत्री और गृहमंत्री को सौंपी थी। सरकार इसे दबाए बैठी थी। सोनिया, मनमोहन और पाटिल आतंकवाद पर वर्तमान कानूनों को पर्याप्त बता रहे थे कि दिल्ली आतंकी बम विस्फोट से फुफकारता सांप फिर फन उठाकर खड़ा हो गया। आतंकवाद धारावाहिक है। समूचे देश में दहशत है। केंद्र की मिमियाहट भी धारावाहिक है: देशवासी धैर्य से काम लें, आतंकवाद कायराना हमला है, दोषी पकड़े जाएंगे वगैरह..वगैरह। प्रतिपक्षी भाजपा का विरोध भी धारावाहिक है: पोटा जरूरी था, संप्रग आतंकवाद पर नरम है। हम सत्ता में आएंगे तो ठीक से लड़ेंगे।'' बावजूद इसके बुनियादी सवाल अधर में हैं।

आतंकी अपराधियों की खोजबीन या गिरफ्तारी ही अहम् सवाल नहीं है। अहम् सवाल है आतंकी संगठनों का असली मकसद। सिमी, इंडियन मुजाहिदीन या हुजी वगैरह में सिर्फ नाम का फर्क हैं। सबका मकसद भारत को इस्लामी शरीय वाला राष्ट्र बनाना ही है। सिमी ने अपने स्थापना सम्मेलन में ही अपने इस मकसद का ऐलान कर दिया था। आतंकियों की हिंसा सामान्य आपराधिक कार्रवाई नहीं है। ऐसी हिंसा भारत के पंथनिरपेक्ष संविधान और राष्ट्र-राज्य से सीधा युद्ध है। आतंकी भारत में इस्लामी संविधान और मजहबी राष्ट्र चाहते हैं। इक्का-दुक्का राष्ट्रवादी दल और संगठन ही मजहबी आक्रामकता के विरोधी हैं। कांग्रेस, सपा, बसपा, राजद और वाम दलों समेत ढेर सारे रामविलास पासवान इस आक्रामकता और आतंकी हिंसा के प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष समर्थक हैं। मुसलमान दमदार वोट बैंक हैं, लेकिन एक अरब हिंदू कहां जाएं? क्या करें? उन्हें तय करना है कि क्या वे भी भारत में इस्लामी शरीय वाला मुस्लिम राष्ट्र चाहते हैं? वोट बैंकवादी दल और नेता आतंकवाद से नहीं लड़ सकते। प्रशासनिक सुधार आयोग के नेता मोइली वरिष्ठ कांग्रेसी हैं, लेकिन उन्हें चुनावी वर्ष में ही कड़े कानून की जरूरत का इलहाम हुआ। सारी दुनिया में आतंक विरोधी कड़े कानून है। पोटा कांग्रेस ने ही हटाया था। आतंकी हिंसा ने इसी सरकार में 4538 नागरिकों और 1771 सुरक्षा बलों का वध किया है। राष्ट्र राज्य तो भी मूकदर्शक है और हमलावरों का समर्थक है। सुप्रीम कोर्ट ने विदेशी घुसपैठ को विदेशी आक्रमण बताया था। केंद्र ने विदेशी इनकमिंग फ्री ही रखी है। क्या संविधान फेल हो गया है? संविधान मसौदे के रचनाकार डा.अंबेडकर को ऐसी ही आशंका थी। उन्होंने कहा था, ''संविधान भी हिंदुओं और मुसलमानों का गैर दोस्ताना संघ बनाएगा। संविधान हिंदुओं और मुसलमानों के बीच समझौता होगा। संविधान की सफलता के लिए भी एक तीसरी ताकत की जरूरत होगी।'' (पाकिस्तान आर पार्टीशन आफ इंडिया, पृष्ठ 340)

अंबेडकर ने राष्ट्रीय एकता के लिए पाकिस्तान का समर्थन किया और लिखा, ''पाकिस्तान बनने से भी हिंदुस्तान सांप्रदायिक समस्या से मुक्त नहीं होगा। पाकिस्तान सजातीय देश बन सकता है, लेकिन हिंदुस्तान एक मिश्रित देश है। मुसलमान समूचे देश में छितरे हुए हैं। हिंदुस्तान को सजातीय देश बनाने का एक मात्र तरीका है जनसंख्या की अदला-बदली। जब तक ऐसा नहीं किया जाता, अल्पसंख्यकों की समस्या बनी रहेगी।'' (वही पृष्ठ 117) डा.अंबेडकर की बातें सच निकलीं, लेकिन उनके नाम पर वोट बैंक बनाने वाले बसपा जैसे दल भी उनके विचार के विरोधी और अल्पसंख्यकवादी हैं तथा उनका इतिहासबोध शून्य हैं। भारत ने समूचे मुस्लिम समाज को प्यार दिया, संविधान में एक समान अधिकार के अलावा अतिरिक्त विशेषाधिकार भी दिए। राष्ट्रजीवन के सभी क्षेत्रों में उन्हें सम्मान मिले। हमारे राजनीतिक दल उनके सामने मिमियाते रहते हैं बावजूद इसके इमाम बुखारी आजमगढ़ जाकर आतंकी अबू बशर को निर्दोष बताते हैं। उलेमा और मौलवी अलगाववादी सांप्रदायिक बयानबाजी करते हैं। देवबंद के इस्लामी सम्मेलन में आतंकवाद के आरोपियों को 'जेल में बंद निर्दोष' बताया गया। आतंकी घटनाओं में देशी मुस्लिम नवयुवक धड़ाधड़ शामिल हो रहे हैं। प्रत्येक आतंकी घटना में निर्दोषों का खून बहता है। सरकार आतंकियों पर कड़ी कार्रवाई नहीं करती। संदिग्ध मुस्लिम बस्तियों में पुलिस प्रवेश नहीं करती। मुस्लिम भावनाओं के डर से ही गोहत्या पर भी अखिल भारतीय कानून नहीं है।

राष्ट्र-राज्य और संविधान को भी चुनौती देने जैसी सुविधा विश्व के किसी इस्लामी राष्ट्र में भी नहीं है। इमाम, उलेमा और मौलवी ही बताएं कि आखिरकार रास्ता क्या है? वे सिमी, इंडियन मुजाहिदीन और समूचे आतंकवाद के विरूद्ध खुलकर मैदान में क्यों नहीं आते? डा.अंबेडकर ने राष्ट्रगठन के पक्ष में कई पैने सवाल उठाए थे, ''क्या हिंदू-मुस्लिम एकता जरूरी है? यदि हां तो पृथक कौम/राष्ट्र की विचारधारा के बावजूद क्या यह एकता संभव है? यदि हां तो क्या इसे तुष्टीकरण या किसी समझौते से प्राप्त करना चाहिए? यदि तुष्टीकरण से तो कौन सी नई सुविधाएं मुसलमानों को दी जा सकती है? अगर समझौते से तो समझौते की शर्ते कया हों?''

आज अंधाधुंध तुष्टीकरण जारी है, लेकिन नतीजा शून्य है। इस दफा मुस्लिम सांप्रदायिकता के आधार पर केंद्रीय बजट भी बना और धन आवंटन भी हुआ, लेकिन नतीजा नहीं निकला। संविधान विरोधी मजहबी आरक्षण की भी तैयारी है। आतंकी अफजल पर भी सरकारी मेहरबानी है। कट्टरपंथी संविधान विरोधी आचरण के लिए स्वतंत्र हैं। प्रधानमंत्री ने देश के संसाधनों पर उनका पहला हक माना। तुष्टीकरण, आत्मसमर्पण और जी हजूरी की इंतहा है बावजूद इसके इसी मुल्क के निवासी आतंकी निर्दोष भारतवासियों को मार रहे हैं। उलेमा चुप हैं।

धीरे-धीरे एक अरब हिंदुओं का असुरक्षा बोध गहरा रहा है। संविधान गया, संस्कृति और अमूल्य जिंदगी भी जा रही है। सभी दल अल्पसंख्यकवादी हैं, अकेली भाजपा क्या कर लेगी? आतंकवाद से रक्षा और आंतरिक सुरक्षा की कोई और कारगर स्वतंत्र, संवैधानिक संस्था बनाने पर विचार होना चाहिए। फेडरेल एजेंसी भी आखिरकार नपुंसक राजनीति के इशारे पर ही होगी। सुप्रीम कोर्ट के नियंत्रण, पर्यवेक्षण और अधीक्षण में आंतरिक सुरक्षा और तद्विषयक कानूनों की समीक्षा होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट संविधान का संरक्षक हैं। आतंकवाद सीधे संविधान और राष्ट्र राज्य पर हमला है। सर्वोच्च न्यायपीठ स्वयं पहल करें, क्योंकि सरकार नाम की संस्था मर चुकी है। विधायिका ने बुरी तरह से निराश किया है। अब न्यायपालिका से ही उम्मीदें हैं। उम्मीदें 'आमजन संसद' से भी हैं। दूसरा कोई विकल्प नहीं। लोग आगे आएं, घर में रहेंगे तो भी मारे जाएंगे। आक्रामक सैनिक भाव ही श्रेष्ठतम आत्मरक्षा है।


20 वर्ष बाद फिर हिन्दू बने ढाई सौ वाल्मीकि

दैनिक जागरण १९ सितम्बर २००८, सहसवान (बदायूं)। बीस वर्ष पूर्व ईसाई बने ढाई सौ वाल्मीकि लोगों को ग्राम खिरकवारी में धर्म जागरण समिति के प्रांत राजेश्वर सिंह के नेतृत्व में उनका शुद्धि करण कर उन्हे पुन: हिन्दू बनाया गया।

बताया जाता है कि ग्राम खिरकवारी में ईसाई मिश्नरी द्वारा न्यू अपोस्टल चर्च के प्रेमचन्द्र पुत्र बन्नू वाल्मीकि के नेतृत्व में 150 से ज्यादा लोगों ने ईसाई धर्म अपना लिया था और वहीं चर्च बनाकर पूजा अर्चना करते थे।

धर्म जागरण समिति के प्रांत प्रमुख राजेश्वर सिंह सेवा भारती के संगठन मंत्री तारा चन्द्र यादव व यज्ञाचार्य प्रणय मिश्र शास्त्री, जिला प्रचारक हिन्दू शुद्धि सभा को भी पता चला कि ईसाई मिश्नरी ने ग्राम खिरकवारी में वाल्मीकि जाति के लोगों को ईसाई बना लिया है तो वह यहां पहुंचे तथा उन्होंने वहां लोगों को हिन्दू धर्म के बारे में बताया। जिस पर ढाई सौ से ज्यादा ईसाई बने लोगों को ग्राम खिरकवारी में कार्यक्रम आयोजित कर हवन कराया। सभी लोगों ने हवन में आहुति देकर हिन्दू धर्म में पुन: आस्था व्यक्त करते हुए कहा कि वह ईसाई तो बन गये परन्तु वह घुटन महसूस कर रहे थे। आज वह अपने धर्म में पुन: लौटकर बहुत खुश हैं।

हवन में सवा सौ से ज्यादा जोड़ों ने एक साथ तथा ढाई सौ लोगों ने आहुति दी। इससे पूर्व उन्हें गंगाजल पिलाकर शुद्ध करने की रीति अपनाई गई तथा हिन्दू के बारे में बताया गया। भाजपा महिला की जिलाध्यक्षा अंजू चौहान ने महिलाओं के हाथों में कलावा बांधकर उन्हे हिन्दू धर्म की दीक्षा दी।

प्रणव मिश्र पुरोहित ने हवन कराया तथा रज्जान पाल सिंह चौहान, हर्ष वर्धन आर्य, तारा सिंह यादव, लाला हरप्रसाद, विद्याराम, शेखर संघ जिला प्रचारक राजेश जी आदि मौजूद थे।

अलकायदा से सिमी तक एक ही रणनीति

दैनिक जागरण, १९ सितम्बर २००८, नई दिल्लीइराक में पड़ रही अमेरिकी मार के चलते अलकायदा अपनी रणनीति बदलने पर मजबूर हो गया है। पिछले दिनों अलकायदा के नंबर दो अयमान अल जवाहिरी को दुनिया भर में फैले अपने अनुयायियों से आह्वान करना पड़ा कि जब, जहां और जैसे भी हो; 'वैश्विक जेहाद' के लिए संघर्ष करें। वैसे फलस्तीनी उग्रवादी इसका पहले से ही अनुसरण कर रहे हैं। भारत में सक्रिय सिमी भी इसका अपवाद नहीं है।

रणनीति में बदलाव क्यों

- 9/11 के बाद अंतरराष्ट्रीय चौकसी के कारण विस्फोटक सामग्री भेजने आतंकियों को सीमा पार कराने में दिक्कत, भारत में भी बाड़बंदी और चौकसी के कारण सीमा पार से आतंकियों का प्रवेश कठिन

क्या है रणनीति

- छोटे-छोटे समूह बनाकर स्थानीय स्तर पर काम करना, ताकि गिरफ्तारी से पूरा नेटवर्क नष्ट हो और भावी आतंकी गतिविधि पर असर पड़े

- स्थानीय स्तर पर उपलब्ध सामग्री का विस्फोटक के रूप में इस्तेमाल, जैसे नाइट्रोजन उर्वरक। सबसे पहले 1993 में पाक के रम्जी युसूफ द्वारा यूरिया नाइट्रेट से न्यूयार्क र्ल्ड ट्रेड सेंटर को उड़ाने का प्रयास, 1994 में फलस्तीनी उग्रवादियों द्वारा नाइट्रोजन उर्वरक का इस्तेमाल, पश्चिमी देशों की सरकारों की निगरानी के कारण वहां नाइट्रोजन उर्वरक का आतंकी कार्रवाई में कम उपयोग, लेकिन भारत में 2004 से वृद्धि, अब बेंगलूर से दिल्ली धमाके तक अमोनियम नाइट्रेट का उपयोग

- स्थानीय स्तर पर सिमी द्वारा प्रशिक्षण की व्यवस्था, अब पाकिस्तान पर उसकी निर्भरता घटती जाएगी

- संचार के लिए फोन या मोबाइल का कम इस्तेमाल। इसकी जगह पर इंटरनेट का बहुतायत उपयोग, ताकि बीच में संवाद को पकड़ा जा सके

- शक की नजरों से बचने के लिए आकर्षक वस्तुओं के उपयोग से परहेज

आगे क्या

- पश्चिमी देशों में नाइट्रोजन उर्वरकों की खरीद-बिक्री पर बढ़ती निगरानी के कारण अलकायदा द्वारा आतंकी संगठनों को विस्फोटक पदार्थो की जगह ज्वलनशील पदार्थो जैसे गैस सिलेंडर, गैसोलीन आदि के इस्तेमाल की सलाह, 2007 में समझौता एक्सप्रेस में आग लगाने और ब्रिटेन के ग्लासगो एयरपोर्ट को उड़ाने के लिए ज्वलनशील पदार्थो का उपयोग

- पेरोक्साइड युक्त तरल पदार्थ का उपयोग। कास्मेटिक वस्तुओं, सफाई की सामग्री आदि में पेरोक्साइड मौजूद, आसानी से कम दाम में बाजार से उपलब्ध, 25 डालर से कम खर्च, जुलाई 2005 में लंदन की परिवहन व्यवस्था पर हमले के लिए पेरोक्साइड आधारित आईईडी का इस्तेमाल, फलस्तीनी उग्रवादी अस्सी के दशक से ही इसका इजरायल के खिलाफ इस्तेमाल कर रहे हैं, केरल प्रशिक्षण शिविर में सिमी द्वारा परीक्षण, खामियां -तैयारी के दौरान विस्फोट की संभावना और अमोनियम नाइट्रेट की तरह लंबे समय तक नहीं रखा जा सकता

अब तक क्या

- गन : एके-47/56/74, 9 एमएम पिस्टल, कारबाइन, एलएमजी/एसएलआर, .303 राइफल, स्निपर राइफल आदि का इस्तेमाल

- विस्फोटक : हैंड ग्रेनेड, आईईडी, बारूदी सुरंग, राकेट, आरडीएक्स, कार बम

- संचार उपकरण : मोबाइल फोन