आतंकवाद से मुकाबले के सवाल पर पक्ष-विपक्ष के रवैये पर निराशा प्रकट कर रहे हैं राजीव सचान
दैनिक जागरण २३ सितम्बर २००८। जो केंद्रीय सत्ता दिल्ली बम विस्फोटों के बाद अपनी जबरदस्त आलोचना से घबराकर आतंकवाद के खिलाफ कठोर कानून बनाने के सवाल पर यकायक सिर के बल खड़ी हो गई थी और ऐसे किसी कानून की जरूरत जताने लगी थी वह अब फिर से पुराना राग अलापने लगी है। केंद्र सरकार के एक के बाद एक प्रतिनिधि नए सिरे से आतंकवाद के खिलाफ कठोर कानून की आवश्यकता खारिज करने लगे हैं। इस मामले में वे उसी पुराने तर्क की रट लगा रहे हैं कि राजग शासन में पोटा था, फिर भी आतंकी हमले हुए-संसद में, रघुनाथ मंदिर में, अक्षरधाम में..। वे शिवराज पाटिल की अक्षमता का भी यह कहकर बचाव कर रहे हैं कि क्या जब संसद या अक्षरधाम मंदिर में हमला हुआ तब तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने त्यागपत्र दिया था? ऐसे तर्र्को को सुनकर यह सहज सवाल उठता है कि क्या भारतीय संविधान निर्माता यह लिखकर गए थे कि मई 2004 के बाद जो भी दल या दलों का समूह केंद्रीय शासन की बागडोर संभालेगा वह अपना प्रत्येक कार्य पूर्ववर्ती सरकार के आलोक में ही करेगा? उदाहरणस्वरूप यदि उस सरकार ने आंतरिक सुरक्षा की गंभीर अनदेखी की हो तो मई 2004 को सत्तारूढ़ सरकार भी ऐसा करना सुनिश्चित करेगी? इसी तरह यदि उस सरकार ने दागी नेताओं को मंत्रिपरिषद में स्थान दिया हो तो नई सरकार भी दागी नेताओं को खोजकर मंत्री बनाने का कार्य करेगी? ईश्वर न करे, लेकिन यदि कल को फिर से कोई कंधार कांड घटित हो जाए तो क्या संप्रग सरकार भी आतंकियों को यह कहकर हवाई जहाज में बैठाकर छोड़ आएगी कि देखिए राजग सरकार ने भी ऐसा ही किया था? पता नहीं संप्रग के नीति-नियंता किस मानसिकता से ग्रस्त हैं कि वे हर अच्छी-बुरी बात पर राजग सरकार का उदाहरण देने लगते हैं?
आज देश की दिलचस्पी इसमें नहीं कि राजग सरकार ने आतंकवाद के खिलाफ क्या किया था और क्या नहीं, बल्कि इसमें है कि वह खुद क्या कर रही है? दुर्भाग्य से इस सवाल का कोई जवाब नहीं है और इसलिए नहीं है, क्योंकि संप्रग सरकार आतंकवाद से निपटने के लिए बयानबाजी और बैठकें करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं कर रही है। शायद यही कारण है कि आतंकवाद कहीं अधिक गंभीर रूप ले चुका है। पहले आतंकी वारदात करने के बाद उसकी जिम्मेदारी अपने सिर लेते थे। अब बम विस्फोट होते ही वे सूचित कर देते हैं कि कृपया नोट करें कि आपके शहर में ये जो चार-छह-दस बम धमाके हो रहे हैं वे हमने किए हैं, रोक सको तो रोक लो। पहले आतंकी घटनाओं के बाद यह सामने आता था कि मारा अथवा पकड़ा गया आतंकी गुलाम कश्मीर या कराची का रहने वाला है। अब यह सामने आता है कि मारा या पकड़ा गया आतंकी मुंबई, आजमगढ़, मेरठ अथवा इंदौर का है। पहले आतंकी हमलों की साजिश सीमापार के आतंकवादी संगठन रचते थे। अब यह काम उपरोक्त शहरों के देशी आतंकी कर रहे हैं। पहले आतंकी हमलों के बाद लश्कर, जैश जैसे संगठनों के नाम चर्चा में आते थे। अब सिमी और इंडियन मुजाहिदीन की चर्चा होती है। तब और अब में एक और खतरनाक अंतर यह है कि पहले किसी आतंकवादी या आतंकी संगठन के खिलाफ कोई सहानुभूति जताने की हिम्मत नहीं करता था, लेकिन अब आतंकियों के भी हमदर्द मौजूद हैं और आतंकवादी संगठनों के भी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने एक मंत्री रामविलास पासवान से अच्छी तरह परिचित होंगे, जिन्हें इस बात से बहुत तकलीफ है कि सिमी पर पाबंदी लगा दी गई। संभवत: देश भी उन नेताओं से अच्छी तरह परिचित होगा जिनके लिए आजमगढ़ का एक गांव तब एक तीर्थस्थल सरीखा बन गया था जब वहां से अहमदाबाद बम धमाकों के आरोपी अबू बशर को गिरफ्तार किया गया था। देश को उन नेताओं पर भी गौर करना होगा जिन्होंने दिल्ली पुलिस के बहादुर इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा की शहादत पर अफसोस का एक शब्द भी प्रकट करना जरूरी नहीं समझा। इनमें से कुछ नेता वही हैं जिन्हें विगत में फलस्तीन और ईरान के हालात पर चिंतित होते देखा गया है। बावजूद इसके यदि संप्रग सरकार यह रंट्टा लगाती है कि वह आतंकवाद से निपट रही है, निपट लेगी और आतंकवाद के खिलाफ नरमी बरतने के आरोप विपक्ष के दुष्प्रचार का हिस्सा हैं तो इसका मतलब है कि वह आतंकवाद से नहीं लड़ना चाहती।
केंद्र सरकार ने आतंकवाद के मामले में जैसी रीति-नीति अपना रखी है उसे देखते हुए विपक्ष के हमलावर होने में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं, लेकिन जब देश का ध्यान आतंकवाद पर केंद्रित होना चाहिए तब मुख्य विपक्षी दल भाजपा का एक सहयोगी संगठन बजरंग दल अपना सारा ध्यान गिरजाघरों पर हमला करने में लगाए हुए है। यह तब है जब भाजपा यह मानकर चल रही है कि केंद्र की सत्ता उसके हाथ में आने वाली है। बजरंग दल को ईसाई मिशनरियों के तौर-तरीकों पर आपत्तिहो सकती है और होनी भी चाहिए, लेकिन क्या उसे उग्र रूप धारण कर उनके खिलाफ आक्रामक होने के लिए यही समय मिला था? सवाल यह भी है कि ईसाई मिशनरियों के छल-छद्म के खिलाफ हिंसा का रास्ता अपनाकर बजरंग दल बदनामी के अलावा और क्या हासिल कर लेगा? यह संभव है कि बजरंग दल के नेतृत्व को यह समझ में न आ रहा हो कि उसके कार्यकर्ता बेवकूफी कर रहे हैं, लेकिन क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा को भी यह नहीं समझ आ रहा है? हो सकता है कि उड़ीसा की नवीन पटनायक सरकार ईसाई मिशनरियों के छल-कपट की अनदेखी कर रही हो, लेकिन क्या कर्नाटक सरकार के पास भी ऐसी वैधानिक शक्ति नहीं कि वह मतांतरण में लिप्त ईसाई मतप्रचारकों के खिलाफ उचित कार्रवाई न कर सके? सवाल यह भी है कि जब भाजपा केंद्रीय सत्ता का नेतृत्व कर रही थी तब उसने ईसाई मिशनरियों पर लगाम लगाने का काम क्यों नहीं किया? कुल मिलाकर सत्तापक्ष और विपक्ष के आचरण को देखकर कोई भी इस नतीजे पर पहुंच सकता है कि जो देश आतंकवाद से लड़ना नहींजानता वह दक्षिण एशिया में स्थित है और भारत नाम से जाना जाता है तथा खुद को महाशक्ति बनने के सपने देखा करता है।
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